महापुरुषों की रीति
सार्वदेशिक सभा की बैठक थी। महात्मा नारायण स्वामीजी प्रधान थे। पण्डित चमूपति जी महाराज उठकर कुछ बोले। महात्माजी आवेश में थे। बोले-‘‘बैठ जाओ, तुज़्हें कुछ पता नहीं।’’
आचार्य प्रवर पण्डित चमूपति चुपचाप बैठ गये। बैठक समाप्त हुई। महात्माजी एक ऊँचे साधक थे। उनके मन में विचार आया कि उनसे कितनी भयङ्कर भूल हुई है। आचार्य चमूपति सरीखे
अद्वितीय मेधावी विद्वान् को यह ज़्या कह दिया?
महात्माजी आचार्यजी के पास गये। नम्रता से कहा- ‘‘पण्डितजी मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं आवेश में था। सभा-सञ्चालन में कई बार ऐसा हो ही जाता है। मैंने आवेश में आकर कह दिया-
‘‘तुज़्हें कुछ पता नहीं या तुज़्हें ज़्या आता है।’’
आचार्य प्रवर चमूपति बोले, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं, आपने ठीक ही कहा। आपको कहने का अधिकार है। आप हमारे ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध, महात्मा व त्यागी-तपस्वी नेता हैं।’’
दोनों महापुरुषों में इस प्रकार की बातचीत हुई। पाठकगण! इस घटना पर गज़्भीरता से विचार करें। दोनों महापुरुषों की बड़ह्रश्वपन व नम्रता से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। सङ्गठन की सुदृढ़ता के लिए ऐसे सद्भावों का होना आवश्यक है। आचार्य चमूपतिजी ने ही ‘सोम-सरोवर’ ग्रन्थरत्न में लिखा है कि संशय में बिखेरने की शक्ति तो है, जोड़ने व पिरोने की नहीं। आज अहं के कारण, पदलालसा व सन्देह के कारण कितने व्यक्ति हमारे सङ्गठन को बिखेरने
में लगे हुए हैं। आइए, जोड़ने की कला सीखें।