लोग ज़्या कहेंगे?
1967 ई0 की बात होगी। बिहार में भयङ्कर दुष्काल पड़ा। देशभर से अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए अन्न भेजा गया।
उन दिनों हम परिवार सहित दयानन्द मठ दीनानगर की यात्रा को गये। एक दिन श्री स्वामी सर्वानन्दजी महाराज ने कहा, ‘‘आप पठानकोट आर्यसमाज के सत्संग में हो आवें और केरल में वैदिक धर्म के प्रचार व शुद्धि के लिए उनसे सहयोग करने को कहें।’’
उस वर्ष मठ की भूमि में आलू की खेती अच्छी हुई थी। मोटे व अच्छे आलू तो काम में लाये गये। छोटे रसोई के पास पड़े थे।
हम लौटकर आये तो पता चला कि मठ में कुछ ब्रह्मचारियों ने स्वामी श्री सर्वानन्दजी से कहा-‘‘आलुओं का यह ढेर बाहर फेंक दें? इसे ज़्या करना है?’’
श्री स्वामीजी ने इस पर कहा-‘‘देखो! बिहार में दुष्काल से लोग मर रहे हैं। वहाँ खाने को कुछ भी नहीं मिल रहा। ये आलू खराब तो हैं नहीं, न ये सड़े-गले हैं। केवल छोटे ही हैं। देश के अन्नसंकट को ध्यान में रखकर हमें इन्हें फेंकना नहीं चाहिए। इनका सदुपयोग करना चाहिए। उबालकर इनका सेवन किया जा सकता है। यदि हम इन्हें फेंकेंगे तो लोग हमें ज़्या कहेंगे कि आश्रम के साधु ब्रह्मचारी कैसे व्यक्ति हैं?’’
श्रीमति जिज्ञासु ने स्वामीजी तथा ब्रह्मचारियों का यह सारा वार्ज़ालाप सुना।
देश-धर्म व जातिसेवा में एक-एक श्वास देनेवाले एक संन्यासी के हृदय में दूसरों के लिए कितना ध्यान था, यह घटना उसका एक उदाहरण है। सच्च तो यह है कि संसार में धर्म की प्रतिष्ठा इन्हीं तपस्वियों के कारण है। अपने व अपने परिवार के लिए तो सब जीते हैं, धन्य हैं वे लोग जो संसार के लिए जीते हैं। पराई पीड़ को अपनी पीड़ा माननेवाले इन महापुरुषों का ऋण कौन चुका सकता है? पराई आग में जलनेवाले इन पुण्य-आत्माओं के कारण ही ऋषिवर दयानन्द का मिशन फैला है।