कुर्बानी कुरान के विरुद्ध?
(इस्लाम के मतावलम्बी कुर्बानी करने के लिए प्रायः बड़े आग्रही एवं उत्साही बने रहते हैं। इसके लिए उनका दावा रहता है कि पशु की कुर्बानी करना उनका धार्मिक कर्त्तव्य है और इसके लिए उनकी धर्मपुस्तक कुरान शरीफ में आदेश है। हम श्री एस.पी. शुक्ला, विद्वान् मुंसिफ मजिस्ट्रेट लखनऊ द्वारा दिया गया एक फैसला पाठकों के लाभार्थ यहाँ दे रहे हैं, जिसमें यह कहा गया है कि ‘‘गाय, बैल, भैंस आदि जानवरों की कुर्बानी धार्मिक दृष्टि से अनिवार्य नहीं।’’ इस पूरे वाद का विवरण पुस्तिका के रूप में वर्ष १९८३ में नगर आर्य समाज, गंगा प्रसाद रोड (रकाबगंज) लखनऊ द्वारा प्रकाशित किया गया था। विद्वान् मुंसिफ मजिस्ट्रेट द्वारा घोषित निर्णय सार्वजनिक महत्त्व का है-एक तर्कपूर्ण मीमांसा, एक विधि विशेषज्ञ द्वारा की गयी विवेचना से सभी को अवगत होना चाहिए-एतदर्थ इस निर्णय का ज्यों का त्यों प्रकाशन बिना किसी टिप्पणी के आपके अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। -सम्पादक)
कुर्बानी कुरान के विरुद्ध?
पिछले अंक का शेष भाग
विवाद्यक नं. १,२,३ व ५
विवाद्यक नं. १ व २ को सिद्ध करने का भार वादीगण पर है। विवाद्यक नं. ३ व ५ को सिद्ध करने का भार प्रतिवादीगण पर है। यह विवाद्यक एक दूसरे पर आधारित है। अतः इनकी व्याख्या अलग-अलग कर पाना सम्भव नहीं है। अतः न्याय की सुगमता के लिए ये विवाद्यक एक साथ निर्णीत किया जाना अधिक उपयुक्त एवं उचित होगा।
विवाद्यक नं. १ के सम्बन्ध में वादी साक्षी नं.-१ राम आसरे, वादी साक्षी सं. २ महन्त विद्याधर दास को परीक्षित किया गया। इन दोनों साक्षीगण ने शपथ पर न्यायालय में बयान दिया और कहा कि ग्राम सहिलामऊ में भैंस-भैंसा की कुर्बानी बकरीद के अवसर पर नहीं होती रही है, केवल बकरे की कुर्बानी मुसलमान भाई करते थे, जिसे कभी भी हिन्दुओं ने नहीं रोका और जिससे धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता, सद्व्यवहार, सदाचार एवं सहयोग का वातावरण बना हुआ था, परन्तु श्री मोहम्मद रफीकुद्दीन के गाँव में आने पर भैसों की कुर्बानी करवाने से गाँव में साम्प्रदायिक तनाव, विद्वेष व घृणा का वातावरण पनप गया। धर्म की आड़ लेकर रफीकुद्दीन भोलीभाली निरीह जनता को आपस में लड़वाना चाहते हैं। इन साक्षीगण के अनुसार ग्राम सहिलामऊ में कभी भी भैंसे की कुर्बानी नहीं दी गई। पृच्छा में भी इन साक्षियों से कोई विशेष बात प्रतिवादीगण के विद्वान् अधिवक्ता नहीं निकाल पाये हैं, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि ग्राम सहिलामऊ में इस घटना के पहले भी भैंस-भैसों की कुर्बानी हुआ करती थी।
इसके विपरीत प्रतिवादीगण की ओर से प्रतिवादी साक्षी नं. १ सैयदअली, दीन मोहम्मद, फारुक को परीक्षित किया गया, जिन्होंने कहा कि इस गाँव में आजादी के पहले गाय की भी कुर्बानी होती थी। भेड़, भेड़ा, बकरी, बकरा, गाय-बैल, ऊँट-ऊँटनी की कुर्बानी का मजहबी प्राविधान इन लोगों ने बताया और कहा कि इस गाँव में भैंसे की कुर्बानी पहले होती थी, जिससे कोई घृणा का वातावरण नहीं बना। वादीगण धार्मिक आड़ में प्रतिवादीगण की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना चाहते हैं। इन साक्षीगण की साक्ष्य को पृच्छा की कसौटी पर कसा गया, तो सफाई साक्षी नं. १ सैयद अली ने स्वीकार किया और यह भी कहा कि हिन्दुओं ने मुर्गे की कुर्बानी पर कोई एतराज नहीं किया और इस साक्षी ने यह स्वीकार किया कि सन् ६४-६५ में जब राजबहादुर थाना मलिहाबाद में दरोगा थे, तब कुर्बानी की बात उठी थी, लेकिन सुलह हो गई थी। इस गाँव में कोई भी बूचड़खाना नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है यदि किसी बड़े जानवर की कुर्बानी की जायेगी तो दूसरे लोगों को यानि हिन्दुओं को भी पता चलेगा, जिससे बड़ा बखेड़ा होगा जैसा कि यह प्रतिवादी सन् ६४-६५ की वारदात स्वीकार करता है। साक्षी नं. ३ मोहम्मद फारुख ने भी पृच्छा में स्वीकार किया है कि सन् १९७९ में १७ बकरों की कुर्बानी दी गई, जिसमें से १४ बकरों को कुर्बानी न्यायालय से मिले पैसे से हुई थी और तीन बकरों का इन्तजाम उन्होंने स्वयं किया था। इस साक्षी एवं सैयद अली ने भी पृच्छा में स्वीकार किया है कि खून हड्डियाँ एवं बाल आदि को गड़वाने वाली बात जवाब दावा में नहीं लिखी गयी है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि ये बातें इन साक्षियों ने सोच विचारकर न्यायालय में बताई हैं और न ही इन साक्षियों ने कुर्बानी बन्द करने की बात कही है, बल्कि पृच्छा में यह बात बताई जो कि विचारकर कहना प्रतीत होती है। ऐसी दशा में यदि यह कुर्बानी स्वतन्त्रतापूर्वक होती है, तो निश्चय ही हिन्दुओं को इस बात का पता लगा होता और तनाव बढ़ता।
यहाँ पर यह भी कहना अनुचित न होगा कि सफाई साक्षी सं. ५ मो. रफीकुद्दीन जो सम्पूर्ण कलह की जड़ कहे जाते हैं और ग्राम सहिलामऊ में मस्जिद में नमाज पढ़ाते हैं तथा गाँव के मुसलमानों के धार्मिक गुरु हैं, उन्होंने पृच्छा में इस बात को स्वीकार किया कि भैंस जानवर जिवा करते हैं, वह उसका कोई रिकार्ड नहीं रखते हैं। हाजी सैयद अली मस्जिद में मुतबल्ली हैं और उनके पास कुर्बानी का पूरा रिकार्ड रहता है, उसमें कुर्बानी के जानवरों की जाति लिखी जाती है। और कुर्बानी किस-किस ने कराया उसका नाम लिखा जाता है। हाजी सैयद अली इस मुकद्दमे में प्रतिवादी नं. ७ हैं, परन्तु न्यायालय में मेरे समक्ष तथाकथित अभिलेख प्रस्तुत नहीं किया गया, जिसके आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता कि ग्राम सहिलामऊ में कुर्बानी काफी पुराने समय से चली आ रही है। वह अभिलेख प्रतिवादी नं. ७ के पास है जो महत्त्वपूर्ण अभिलेख है, जिसको प्रस्तुत करने का दायित्व प्रतिवादी नं. ७ पर है। इसको प्रस्तुत न करने से अनुमान प्रतिवादीगण के विरुद्ध लगाया जायेगा। सैयद अली प्रतिवादी नं. ७ प्रतिवादी साक्षी नं. १के रूप में न्यायालय में परीक्षित हुए हैं, इन्होंने उक्त अभिलेखों के बावजूद एक शब्द भी नहीं कहा। इस साक्षी का बयान स्वयं में विरोधाभासी है। उसने अपने मुख्य कथन में यह कहा है कि इस गाँव में आजादी के पहले गाय की बलि होती थी और उसके पहले भैंसे-भैंसों की बलि होती रही है। पृच्छा में यह साक्षी स्वीकार करता है कि उसके मजहब में गाय और भेड़ की कुर्बानी की इजाजत नहीं है। ऐसी दशा में इसका स्वयं का कथन संदेहास्पद है।
उपरोक्त व्याख्या के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि विवादित घटना से पहले ग्राम सहिलामऊ में भैंसे की कुर्बानी नहीं होती रही थी। विवाद्यक नं १ व २ तदनुसार वादीगण के अनुकूल एवं प्रतिवादी गण के प्रतिकूल निर्णीत किये गये।
विवाद्यक नं. ३ व ५
के बावत उभय पक्ष की ओर से तर्क दिये गये। प्रतिवादीगण ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद २५ व २६ का सहारा लेकर अभिकथित किया कि मुसलमानों को कुर्बानी करने का मौलिक अधिकार प्रदत्त है और उससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता। यह निःसंदेह सत्य है कि धार्मिक स्वतन्त्रता का प्रावधान भारतीय संविधान में निहित है और धर्म निरपेक्षता इस संविधान की विशेषता है, परन्तु संविधान में मौलिक अधिकारों के तहत किसी विशेष धर्म को विकसित करने, परिपोषित करने व प्रचार करने की सुविधा सरकार द्वारा प्रदत्त नहीं की गयी है, बल्कि उस धर्म के अनुयाइयों को अपने धर्म के विकास करने की सुविधा की स्वतन्त्रता है, परन्तु यह स्वतन्त्रता असीमित, अनियमित नहीं है। धार्मिक स्वतन्त्रता भारतीय संविधान में वहीं तक प्रदत्त है, जहाँ तक दूसरे धर्मवालों की भावनाओं पर कुठाराघात न हो, परन्तु जहाँ जिस धार्मिक भावना द्वारा दूसरे धर्म के लोगों की धार्मिक भावना का कुठाराघात होता है, वह धार्मिक स्वतन्त्रता नहीं दी गयी है।
मैं विद्वान् अधिवक्ता के इस तर्क से पूर्णतः सहमत हूँ कि धार्मिक स्वतन्त्रता का प्राविधान भारतीय संविधान में प्रदत्त है, परन्तु इससे दूसरे के धर्म को आघात पहुँचाने का अधिकार नहीं मिलता है। जहाँ तक कुर्बानी मजहब का अंग है, इस सम्बन्ध में हाजी मो. रफीकुद्दीन को परीक्षित किया गया। वही तथाकथित मुसलमानों के धार्मिक गुरु ग्राम सहिलामऊ में हैं, उनके समक्ष सम्पूर्ण पाक कुरान शरीफ रखी गयी और उनसे कहा गया कि वह न्यायालय को बतायें कि पाक कुरान शरीफ में कुर्बानी का प्राविधान कहाँ पर है और विशेषतः भैंसे की कुर्बानी कहाँ पर दी गई है, परन्तु वह कोई भी ऐसा सन्दर्भ पाक कुरान शरीफ में निकालकर दिखाने में असमर्थ रहे हैं। उन्होंने केवल पाक कुरान शरीफ की कुछ आयतों का सन्दर्भ दिया। उनके अनुसार केवल पाक कुरान शरीफ सूरे हज्ज के पारा-१७ रूकू १२ के अनुसार कुर्बानी फर्ज है, लेकिन जब उन्हें कुरान शरीफ दी गई तो वह दिखा नहीं सके, बल्कि सूरे हज्ज की आयत ३६ में यह कहा कि अल्लाह के नजदीक न इसका गोश्त पहुँचता है और न ही खाल, लेकिन नीयत पहुँचती है। अल्लाह ताला नीयत को देखता है, जानवर को नहीं देखता। सूरे हज्जरूक ५ आयत ३ में यह लिखा है कि खुदा तक न तो कुर्बानी का मांस पहुँचता है और न ही खून, बल्कि उनके पास तुम्हारी श्रद्धा भक्ति पहुँचती है, यह कहना साक्षी ने गलत बताया। कुर्बानी की दुआ इस साक्षी ने सूरे इनाम रूकू १४ पारा ७ आयत ७६ बताया और फिर बाद में ७८ कहा, परन्तु जब यह पूछा गया कि कुर्बानी फर्ज है, कहाँ पर लिखा है, तो यह बताने में साक्षी असमर्थ रहा। इस साक्षी को पाक कुरान शरीफ के प्रकाशक भुवन वाणी का शास्त्रीय अरबी पद्धति पर हिन्दी में संस्कारण दिखाया गया तो, उसने कहा कि इस ग्रन्थ के पेज नं. ५६० में सूरे हज्ज १७ वें पारे में ११ वें रूकू में ३३ वीं आयत में यह लिखा है कि ‘‘हमने हर जमात के लिए कुर्बानी के तरीके मुकर्रर किये हैं, जो हमने उनको चौपाये जानवरों में से अनाम किये हैं। कुर्बानी करते हुए अल्लाह का नाम लें।’’ इस साक्षी ने यह स्वीकार किया कि इसमें कुर्बानी फर्ज है, इसका जिक्र नहीं है। इस साक्षी ने अन्त में विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि हाफिज का मतलब पाक कुरान शरीफ हिफ्ज होने से अर्थात् रटे होने से है। पाक कुरान शरीफ की आयतों का अर्थ जानने से नहीं है। मुझे कुरान शरीफ की आयतों का अर्थ नहीं मालूम। जो कुरान शरीफ की आयतों का अर्थ जानता है, उन्हें उलेमा कहते हैं, वे कुरान शरीफ की बारीकियों को समझा सकते हैं। इसके बावजूद भी प्रतिवादीगण की ओर से कोई भी उलेमा पेश नहीं किया गया, जो न्यायालय को यह बताता कि इस्लाम धर्म में भैंस-भैंसे की कुर्बानी करना कहाँ पर लिखा है और कुर्बानी करना हर इस्लाम के बंदे का फर्ज है। इस व्यक्ति से स्पष्ट प्रश्न पूछा गया कि कुरान शरीफ की किस आयत में कुर्बानी करना फर्ज लिखा है, इस साक्षी ने स्पष्ट स्वीकार किया कि उसे पता नहीं है कि कुरान शरीफ की किस आयत में कुर्बानी फर्ज लिखा है, बल्कि यह फिरंगी महल अथवा नदवे वाले हैं, उसके लोग जो बताते हैं, वह करता हूँ। फिरंगी महल अथवा नदवे का उलेमा अथवा मुल्ला कोई भी मेरे समक्ष परीक्षित नहीं किया गया, जो इस बात को स्पष्ट करता कि इस्लाम मजहब में बकरीद के अवसर पर भैंस-भैंसे की कुर्बानी करना परमावश्यक है।
इस साक्षी ने यह भी स्पष्ट स्वीकार किया है कि कुर्बानी अपनी सबसे अजीज चीज की दी जाती है। उदाहरण के लिए हजरत इब्राहिम ने अपने लड़के की कुर्बानी बकरीद के दिन दी थी, परन्तु जब इब्राहिम ने अपनी आँखों से पट्टी खोली तो दुम्मा बना हुआ निकला। इससे अधिक से अधिक तात्पर्य यह निकाला जा सकता है कि दुम्मा को कुर्बानी करने के लिए इस्लाम में प्राविधान है, परन्तु दुम्मा का तात्पर्य भैंस, गाय से नहीं हो सकता। पारा १७ आयत २६ से ३८ तक ऊँटों की कुर्बानी का प्राविधान सूरे हज्ज में दिया गया है। इसी में आयत ३२ में कहा गया है कि तुम्हें चौपायों से एक खास वक्त तक फायदे हैं, जो तुम सवारी या दूध से उठा सकते हो। फिर उसे पुराने ढाबे काबा तक कुर्बानी के लिए जाना है। आयत २७ में कहा गया है-और लोगों में हज्ज के लिए पुकार दो कि हमारी तरफ दुबले-दुबले ऊँटों पर सवार होकर दूर-दूर की राहों से चलकर आवें। आयत २७ में-अपनी भलाई की जगह के लिए हाजिर है। अल्लाह ने तो मवेशी उन्हें दिये हैं, उन पर जबह (बलिदान) के समय अल्लाह का नाम लें। उनमें से असहायों, दीन-दुखियों और फकीरों को खिलाओ। आयत २८ में चाहिए कि अपना मैल-कुचैल उतार दें और अपनी मन्नतें पूरी करें और इस तबाक की परिक्रमा करें।
यह सत्य है कि पाक कुरान शरीफ में कुर्बानी के लिए चौपायों के लिए कहा गया। पाक कुरान शरीफ में एक स्थान निश्चित कर दिया गया है और वह काबा के सामने पूरब की ओर है। कुर्बानी करने वाले जानवर का सिर काबा की ओर होगा और अल्लाह का नाम लेकर जिबा किया जायेगा। पाक कुरान शरीफ में स्पष्ट कहा गया है कि उन्हीं चौपायों की कुर्बानी दी जायगी, जो आपके प्रयोग के लिए बेकार हो गये हैं अर्थात् दूध नहीं देते हैं और जो बोझ ढोने के लायक नहीं हैं, परन्तु डाक्टर ने इस वाद में स्वयं जानवरों को सर्टीफिकेट दिया और स्वस्थ जानवरों को ही मारने के लिए यह प्रमाणपत्र दिया जाता है। ग्राम सहिलामऊ कभी काबा नहीं बन सकता और इस प्रकार की दी गई कुर्बानी भैंसों आदि की पाक कुरान शरीफ में अंकित हैं, इसमें सन्देह है। पाक कुरान शरीफ का उद्देश्य अनुपयोगी जानवरों की कुर्बानी से है, जिससे लोग उनके माँस आदि से अपना पेट पालन करते हैं, न कि हृष्ट-पुष्ट जानवरों की कुर्बानी करना, जिसके लिए डाक्टरी सर्टीफिकेट की आवश्यकता है।
यहाँ पर यह कहना अनुचित न होगा कि धर्म के आधारभूत सिद्धान्तों को अन्धविश्वास में बदलना कहाँ तक उचित है और अन्धविश्वास को भारतीय संविधान के अनुच्छेद २५ व २६ में प्रश्रय मिलेगा, यह सही नहीं है। हालाँकि उपरोक्त सभी आयतें साक्षी नं. ५ श्री मो. रफीकुद्दीन नहीं कह सके। इसलिए उन्हें इन आयतों का भी लाभ नहीं मिल सकता।
मेरे समक्ष विद्वान् अधिवक्ता प्रतिवादी ने मोहम्मद फारूक बनाम स्टेट ऑफ मध्य प्रदेश आदि ए.आइ. आर. १९७० सुप्रीम कोर्ट पेज ९३ की नजीर प्रदर्शित की। यह नजीर वर्तमान वाद में लागू नहीं होती है। यह नजीर भारतीय संविधान के अनुच्छेद-१९ (जी) व्यापार करने के सम्बन्ध में है, अतः इसकी व्याख्या करना उचित न होगा।
मेरे समक्ष विद्वान् अधिवक्ता प्रतिवादी ने श्रीमद्पेरारू लाल तीर्थराज रामानुजा जी.एम. स्वामी बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु ए.आई.आर. १९७२ सुप्रीम कोर्ट पेज १५८६ प्रदर्शित किया, जिसमें सरदार सइदेना तेहर शिक्यूरिटी शाहिद बनाम बाम्बे सरकार ए.आई.आर. सुप्रीम कोई पेज ५८३ पर विश्वास व्यक्त किया गया, जिसके अनुच्छेद ३४ में यह न कहा गया भारतीय संविधान के अनुच्छेद २५ व २६ में संरक्षणता केवल धार्मिक सिद्धान्त अथवा विश्वास को नहीं दी गई है। यह संरक्षणता वहाँ तक बढ़ाई जाती है जहाँ तक धार्मिक अक्षुण्यता प्रतिवादित करने में जो कृत्य किये जाते हैं और जिस प्रकार पूजा अर्चना त्योहारों के रूप में मनाई जाती है, जो धर्म का एक अभिन्न अंग है। दूसरा यह कि यह धर्म का आवश्यक अंग है अथवा धार्मिक अभ्यास है, यह विशेष धर्म के सिद्धान्तों एवं उसके अभ्यासों पर जो उस धर्म के अनुयाइयों द्वारा धर्म का अंग मानकर किया जाता है, पर निर्भर होगा। इस तथ्य को न मानने का कोई प्रश्न नहीं उठता १. यदि भैसों की बलि बिना बकरीद त्योहार मुसलमानों में नहीं मनाया जा सकता, तो निश्चय ही उन्हें भैसें की बलि की इजाजत देनी होगी, परन्तु इस आवश्यक अंग को प्रतिवादीगण सिद्ध करने में असफल रहे हैं। यदि भैंस-भैंसे की बलि विवादित ग्राम में होती रही होती तो निश्चय ही मेरे समक्ष अभिलेख प्रस्तुत किये गये होते, जबकि साक्षी सं. ५ ने स्वीकार किया है कि साक्षी नं. १ जो प्रतिवादी नं. ७ है, मस्जिद के मुतवल्ली होने के कारण इस सम्बन्ध में सभी अभिलेख रखते हैं। इस तथ्य से यह भी स्पष्ट होता है कि उस गाँव में रहने वाले मुसलमान अब तक भैंसे की बलि देकर ही बकरीद मनाते रहे हैं अथवा नहीं। बकरे दुम्मे की कुर्बानी करने के लिए वादीगण को भी कोई आपत्ति नहीं है।
शेष भाग अगले अंक में……
सधे हुए शब्दों में लिखा गया है। मेरे लिए नई जानकारी है। धन्यवाद।
Kripayaa is ka English bhi prakashit karein!
yadi koi english me type karke bhej de hamare gmail me to ise prakashit kar diya jaayega hamare paas samay kaa aabhaav rahta hai. dhanywaad