जिज्ञासा- कुछ प्रश्रों के द्वारा मैं अपनी शंकाएँ भेज रही हँू। कृपया उनका निवारण कीजिए।
(क) ‘गायत्री मन्त्र’ और ‘शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।’ दोनों मन्त्र सन्ध्या में दो-दो बार आयें हैं इनका क्या महत्त्व है?
(ख) कुछ विद्वानों का कथन है कि प्रात:काल की सन्ध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए और सायंकाल की सन्ध्या पश्चिम दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इसमें क्या भेद है?
(ग) दैनिक यज्ञ करने वाला व्यक्ति यदि रुग्ण हो जाये या किसी कारणवश ५-७ दिन के लिए बाहर चला जाये, यज्ञ न कर पाये और घर में दूसरा व्यक्ति यज्ञ करने वाला न हो तो वह क्या दैनिक यज्ञ का अनुष्ठान अपूर्ण हो जाता है? यज्ञकत्र्ता क्या करे?
(घ) परमाणु (सत्व, रज, तम) जड़ हैं और ईश्वर को भी परम-अणु अथवा आत्मा को भी अणु-स्वरूप वैदिक आधार से माना जाता है, जबकि ये दोनों चेतन हैं। कृपया बताइये कि सत्य क्या है?
– सुमित्रा आर्या, सोनीपत।
समाधान- (क) पञ्चमहायज्ञों के अन्तर्गत ‘संध्या’ प्रथम ब्रह्मयज्ञ है। ब्रह्मयज्ञ प्रत्येक आर्य (आत्मकल्याण इच्छुक) को अवश्य करने का निर्देश ऋषियों ने किया है। जो इस महायज्ञ को नहीं करता, उसको हीन माना गया है। महर्षि मनु कहते हैं-
न तिष्ठति तु य: पूर्वां योपास्ते यस्तु पश्चिमाम्।
स साधुभिर्बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मण:।।
भाव यह है कि जो संध्योपासना आदि नहीं करता वह सज्जनों के द्वारा बहिष्कार करने योग्य है।
महर्षि दयानन्द ने संध्योपासना का एक विशेष क्रम रखा है। उस क्रम को ठीक से समझने पर संध्या की विधि ठीक समझ में आ जाती है। आपने कहा-संध्या के मन्त्रों में ‘गायत्री मन्त्र’ व ‘शन्नो देवी’ मन्त्र दो-दो बार आये सो आधी बात ठीक है। संध्या मन्त्रों में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र को दो बार महर्षि ने निर्दिष्ट किया है, किन्तु ‘गायत्री मन्त्र’ का विनियोग तो एक ही बार किया है।
सन्ध्या के प्रारम्भ में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का प्रयोजन मनुष्य-जीवन का उद्देश्य बताने का है। हम मनुष्य संसार में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए परमसुख मोक्ष को प्राप्त करें। यह भाव इस मन्त्र का है। मोक्ष हमारा लक्ष्य है, यह लक्ष्य संध्या के प्रारम्भ में स्मरण कराने के लिए ‘शन्नो देवी’ है, संध्या के मध्य में हमें हमारा लक्ष्य याद रहे कि दोबारा इस मन्त्र के द्वारा आचमन का विधान किया और संध्या के अन्त में ‘हे ईश्वर दयानिधे…………’ इस बात से लक्ष्य का स्मरण करते हुए परमेश्वर को नमस्कार करते हुए संध्या का विराम। मुख्य रूप से तो ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का विनियोग महर्षि ने आचमन के लिए किया है। वह संध्या में दो बार करने के लिए कहा है।
(ख) संध्या करते समय दिशाओं का विधान है-पूर्व की ओर मुख करके संध्या करें। पूर्व दिशा के विषय में महर्षि ने दो बातें कहीं हैं-
यत्र स्वस्य मुखं सा प्राची दिक् तथा यस्यां सूर्य उदेति सापि प्राची दिगस्ति।
यहाँ महर्षि की दृष्टि में संध्या करते हुए जिस ओर हमारा मुख हो, वही प्राची= पूर्व दिशा है। दूसरा, जिस ओर से सूर्य निकलता है, वह प्राची=पूर्व दिशा है। यह विधान तो ऋषियों का है कि संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें, किन्तु हमें पश्चिम दिशा का विधान पढऩे को अभी तक नहीं मिला। हाँ, कर्मकाण्ड पूर्व, उदक् अर्थात् पूर्व दिशा और उत्तर दिशा की ओर मुख करके करने का विधान अवश्य शास्त्र में मिलता है।
दिशाओं की महत्ता के विषय में मीमांसा दर्शन के अध्याय तीन के चौथे पाद के दूसरे अधिकरण में भाष्यकार शबर स्वामी ने लिखा है-
प्राचीं देवा अभजन्त दक्षिणां पितर:, प्रतीचीं मनुष्या:, उदीचीमसुरा: इति। अपरेषाम्-उदीचीं रुद्रा: इति।
पूर्व दिशा प्रकाश देने वाली है, ज्ञान की द्योतक है, इसलिए देव लोग पूर्व दिशा को चाहते हैं। ज्ञान की द्योतक होने से संध्या में पूर्व की ओर मुख क रके बैठते हैं।
(ग) यज्ञकर्म मनुष्य के लिए कत्र्तव्य कर्म हंै। पाँच महायज्ञों में यह देवयज्ञ कहलाता है। महर्षि तो यह यज्ञ प्रत्येक मनुष्य करे-इसका विधान करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास तीन में लिखते हैं-‘‘प्र.-प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है? उत्तर- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ और छ:-छ: माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है।’’
आजकल हमने बहुत से लोगों को व आर्यसमाजों में हवन होते देखा है। कहने को तो ये दैनिक अग्रिहोत्र करने वाले हैं, किन्तु क्या वे ऋषि के अनुकूल यज्ञ करते हैं? कितनी ही धनी आर्यसमाजों में हवन होते हुए देखा कि समिधाएँ ज्यादा जलाते हैं, घी की दो तीन बूँदों से एक-एक आहुति में देते हैं। उनसे छ: माशे घी की आहुति देने क ी कहते हैं तो उनकी ओर से बात आती है कि इतना खर्चा कहाँ से आयेगा। आश्चर्य तो तब होता है कि जब ये लंगर करते हैं, तब सब्जी-पूड़ी, कढ़ी-चावल, मिठाई, रायता आदि सब बनता है। इसमें खर्चा नहीं दिखता, किन्तु हवन में यदि कोई थोड़ा-सा घी अधिक जला दे तो खर्चा दिखने लगता है।
हवन में व्यक्ति की कितनी श्रद्धा है, यह उसके घी-सामग्री, हवन-पात्र, हवन करने का स्थान, मन्त्रोच्चारण क्रिया आदि से ज्ञात हो जाता है। हवन करना सिखाने वाले भी धनी व्यक्तियों को कह देते हैं कि २०-२५ रु. में हवन हो जाता है, यह सुनकर आश्चर्य ही होता है। जहाँ समिधाएँ अधिक जलें और उनमें भूसे जैसी सूखी सामग्री और दो-तीन बूँद घी डाला जाये, वहाँ लाभ अधिक है या हानि अधिक है-विचार करें। धनी व्यक्ति एक दिन यदि ५००० रु. गाडिय़ों का तेल जलाने में खर्च कर देते हैं, नित्य प्रति हजारों रु. का व्यर्थ का खर्चा कर देते हैं, वहाँ २०-२५ रु. का हवन करके कितना लाभ प्राप्त कर लेंगे-विचारणीय ही है।
आपने जो पूछा कि किसी कारण वश दैनिक अग्रिहोत्र करने वाला कभी किसी दिन या कई दिन हवन न कर पाये तो क्या करना चाहिए। इसमें यदि हो सके तो ऐसी परिस्थिति में हम किसी और से उन दिनों अपना हवन करवा सकते हैं। यदि ऐसा नहीं बन पड़े तो जितने दिन का हवन छूट गया है, उतने दिन की घी सामग्री का हवन अन्य दिनों में अतिरिक्त कर लें, इसी से हमारा पूरा कत्र्तव्य पालन होगा।
महर्षि ने भी संस्कार विधि में एक टिप्पणी देते हुए लिखा है-‘‘किसी विशेष कारण से स्त्री वा पुरुष अग्रिहोत्र के समय दोनों साथ उपस्थित न हो सकें तो एक ही स्त्री वा पुरुष दोनों की ओर का कृत्य कर लेवे, अर्थात् एक-एक मन्त्र को दो-दो बार पढ़ के दो-दो आहुतियाँ करंे।’’
(घ) संसार में जड़ चेतन-दो की सत्ता है। जड़ में संसार की समस्त वस्तुएँ और चेतन में आत्मा और परमात्मा। आत्मा परमात्मा परम सूक्ष्म है। आत्मा सूक्ष्म है और परमात्मा उससे भी सूक्ष्मतर है।
भौतिक वस्तुओं में परमाणु सबसे छोटी ईकाई मानी जाती है। वह सबसे सूक्ष्म माना जाता है। आपने परमाणु की सूक्ष्मता को लेकर आत्मा-परमात्मा के अणु स्वरूप की जो बात कही, उसका समाधान यह है कि जो अणु है, उसकी जड़ता को लेकर आत्मा-परमात्मा को नहीं कहा जा रहा, अपितु उसकी सूक्ष्मता को लेकर कहा जा रहा है। यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि जैसे अणु जड़ है, वैसे आत्मा-परमात्मा भी जड़ हैं, अपितु यहाँ तो आत्मा-परमात्मा की सूक्ष्मता को बताने के लिए अणु का दृष्टान्त दे रहे हैं कि जैसे अणु सूक्ष्म है, वैसे ये भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अस्तु
In Samskaravidhi, there 4 times Shanno Devi mantra; one in the beginning after Gayatri mantra, then before Aghamarshana mantra praachi digagni then before Gayatri and he ishvara dayanidhe and lastly at the end of Samdhya at the time to start Agnihotra. The last one (no 4) is to read and perform 3 Achamana for Agnihotra.
Again in Samskaravidhi in Vedaarambha Samskara Svami ji mentions that the Acharya should teach Samdhyopasana to the Brahmachari as mentioned in the Grihasrama Prakarana. It is regretful that in Arya Samaj many of the instructions given by Svami ji are not followed. Svami ji also says that during Samdhya to face that direction jidhar se shuddha vaayu aave, that is that direction from where fresh air is coming. He has not said to face the East. It is time to read Samskaravidhi and follow the procedures of Samdhya and Agnihotra as directed by Svami ji.