यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि जन्मना जातिव्यवस्था वर्णव्यवस्था से विकसित व्यवस्था नहीं है अपितु उसकी विकृत व्यवस्था है। इसको मनु स्वायभुव के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। यह बताया जा चुका है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती। इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है। वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख है और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख है। जिन्होंने इनका समानार्थ में प्र्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया। ‘वर्ण’ शब्द ‘वृञ्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको स्वेच्छा से वरण किया जाये वह समुदाय’। निरुक्त में आचार्य यास्क ने ‘वर्ण’ शब्द के अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है-
‘‘वर्णःवृणोतेः’’(2.14)=स्वेच्छा से वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है।
वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया था। जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी। जब अकर्मण्यता और स्वार्थवश जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह व्यवस्था विकृत होकर जातिव्यवस्था बन गयी। इस प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था का विकास नहीं, अपितु विकार है। विकृत व्यवस्था का दोष मनु को नहीं दिया जा सकता। मनु न तो काल की दृष्टि से, न व्यवस्था की दृष्टि से जाति-व्यवस्था के निर्माता माने जा सकते हैं। जाति का निर्माता तो मनु से बहुत परवर्ती अर्थात् महाभारत काल के बाद का समाज है। वही मनुस्मृति में जातिवादी प्रक्षेप करने का उत्तरदायी है।