जब तक आर्यसमाज का मन्दिर नहीं बनता
यह घटना उज़रप्रदेश के प्रयाग नगर की है। पूज्य पण्डित गङ्गाप्रसादजी उपाध्याय अपने स्वगृह दया-निवास [जिसमें कला प्रेस था] का निर्माण करवा रहे थे। घर पूर्णता की ओर बढ़ रहा था।
एक दिन उपाध्यायजी निर्माण-कार्य का निरीक्षण कर रहे थे। अनायास ही मन में यह विचार आया कि मेरा घर तो बन रहा है, मेरे आर्यसमाज का मन्दिर नहीं है। यह बड़े दुःख की बात है।
इस विचार के आते ही भवन-निर्माण का कार्य वहीं रुकवा दिया। जब आर्यसमाज के भवन-निर्माण के उपाय खोजने लगे तो ईश्वर की कृपा से उपाध्यायजी का पुरुषार्थ तथा धर्मभाव रंग
लाया। उपाध्याय जी ने अस्तिकवाद पर प्राप्त पुरस्कार समाज को दान कर दिया। मन्दिर का भवन भी बन गया। उसी मन्दिर में विशाल ‘कलादेवी हाल’ निर्मित हुआ।
मैं यह घटना अपनी स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ। घटना का मूल स्वरूप यही है। वर्णन में भेद हो सकता है। यह घटना अपने एक लेख में किसी प्रसङ्ग में स्वयं उपाध्यायजी ने उर्दू
साप्ताहिक रिफार्मर में दी थी। उपाध्यायजी के जीवन की ऐसी छोटी-छोटी, अत्यन्त प्रेरणाप्रद घटनाएँ उनके जीवन-चरित्र ‘व्यक्ति से व्यक्तित्व’ में हमने दी हैं, परन्तु आर्यसमाजी स्वाध्याय से अब कोसों दूर भागते हैं। स्वाध्याय धर्म का एक खज़्बा है। इसके बिना धार्मिक जीवन है ही ज़्या?