जब ऋषिराज हुगली पधारे
महर्षि दयानन्द 1930 विक्रमी तदनुसार 1 अप्रैल 1873 ई0 के दिन हुगली पधारे। पण्डित लेखरामजी व श्री देवेन्द्रबाबू ने अपने ग्रन्थ में बंगभूमि की ऋषि की यात्राओं का प्रामाणिक विवरण दिया है। अभी-अभी हमें कलकज़ा के एक पूर्व न्यायाधीश स्वर्गीय श्री मोहनी मोहनदज़ के ऋषिजी के हुगली-यात्रा के संस्मरण मिले हैं।
इनमें से कुछ प्रेरक प्रसंग हम यहाँ देते हैं। यह सामग्री किसी भी जीवन-चरित्र में नहीं मिलती1। हाँ! ऋषि के बड़े-बड़े सब जीवन- चरित्रों में दी गई घटनाओं की पुष्टि श्रीदज़ के संस्मरणों से होती है।
श्रीदज़ ने अपने लेख में लिखा है कि ऋषिजी नवज़्बर 1872 ई0 को हुगली पहुँचे। श्रीदज़ ने यहाँ सन् ठीक नहीं लिखा। ऐसा अनजाने से लिखा गया है। यह स्मृति का दोष है। आपने लिखा है
कि ऋषिवर एक मन्दिर के ऊँचे चबूतरे पर विराजमान थे। मन्दिर की सीढ़ियाँ नीचे भागीरथी में समाप्त होती थीं। श्रीदज़ दो मित्रों सहित सायंकाल उधर भ्रमण के लिए निकले। वहाँ ज़्या देखते हैं कि चबूतरे के समीप लोगों की भारी भीड़ है।
‘‘जो कुछ हमने देखा, उससे हमपर भी कुछ समय के लिए एक जादु का-सा प्रभाव पड़ा।’’ जब कुछ अधिक अँधेरा हुआ तो भीड़ कुछ घटने लगी तथापि हम चबूतरे के समीप मन्दिर के एक कोने में खड़े रहे। महर्षि की दृष्टि हम तीनों युवकों पर पड़ी।
उन्होंने संकेत करके हमें अपने पास बुलाया। हम तीनों मित्र उनके निकट गये। कुछ समय के लिए जिह्वा ने साथ न दिया। बोलने की शक्ति लुप्त हो गई मानो कि हम गूँगे हो गये हैं।
‘‘अन्त में हममें से एक ने, जो सबसे अधिक चतुर और बड़ा चञ्चल था, बड़े व्यंग्य से ऋषिजी को हितोपदेश से संस्कृत का एक वचन सुनाया। ऋषि इसे सुनकर मुस्कराये और खिले माथे उस
तरुण का हाथ पकड़कर अपने समीप बिठाया।
इससे पता चलता है कि उस महात्मा का हृदय कितना सहानुभूतिपूर्ण, उदार व विशाल था। वे चरित्र पर उपदेश देने लगे। उनकी शैली ऐसी अद्वितीय, दिल को छूनेवाली, इतनी सुमधुर
व प्रभावशाली थी कि हमारे मित्र की सब कटुता व अभिमान एकदम नष्ट हो गया। ज्ञान का अभिमान व पूछनेवाली भावना का लोप हो गया। हृदय ऐसा पिघला कि ऋषि की पवित्र चरणधूलि को सिर पर लगा लिया। इस प्रकार ऋषिजी से हमारी जान-पहचान हुई।