जाति एवं र्ध्मादि की सामान्य समीक्षा स्मृत्यादि शास्त्र सन्दर्भ में

जाति एवं र्ध्मादि की सामान्य समीक्षा स्मृत्यादि शास्त्र सन्दर्भ में

श्रीविकास आर्य…..

प्राणीजगत् के प्रारम्भकाल से ही मानव जाति, वंश, गौत्र, धर्म, भाषा, क्षेत्रादि के अवलम्ब से उन्मत्त होकर प्रतिकूल-प्राणी के प्राणान्त को आतुर रहा है इस प्रकार तथा कथित सृष्टि-विज्ञानी हमें बोध् कराते रहते हैं। वास्तविकता जो भी हो पर इतना तो सर्वथा स्पष्ट है कि वेदवाणी अथवा भारतीय संस्कृतवाघ्मय के ज्ञान-रूपी अथाह समुद्र से विकसितशेमुषी ऋषि-मुनि निरन्तर उज्ज्वल एवं अमूल्य सूक्तियां (शुक्ता)  सचित कर के समस्त संसार को काल-क्रम से सर्वविध् सौख्य से आप्लावित करते रहे हैं।

उपह्नरे गिरीणां सर्घैंमे च नदीनाम्।

धिया विप्रोजायत।।

अतः आज भी सुप्रज्ञावान् साधकों को करबद्ध प्रणामाजलि समर्पित करके पौनः पुन्येन हमारी संस्कृति समस्त देव-पुरुषों का आह्वान् करती है कि वे वेदों का आलोडन कर नव-नवनीत विनिर्मित करें।

दशा विनिन्द्या पुरुषो न निन्द्य

आभाणकानुासर यदि विचारें, तो पाएंगें कि वर्तमान परिस्थितियां (दशा) नासूर हो चली हैं। विश्वव्यापी सकलसंसारहितैषिणी संस्कृति व सभ्यता संकुचन की पराकाष्ठा पार कर रही है, नित नूतन नये-नवेले आक्रान्ता नेता नजर आने लगे हैं।

किसी भी वस्तु या तथ्य का विवेचन अथवा गुण-दोष का निर्धरण दो मानदण्डों के आधर पर सम्भव है। प्रथम आप्त पुरुषों द्वारा विरचित विपुल शास्त्रा एवं द्वितीय विधि-सम्मतलोक-व्यवहार, इनमें भी प्रगतिवादी सर्वदा लोक-व्यवहार-गौरव को आदर प्रदान करता है। क्योंकि सांसारिक परिवर्तन प्रतिक्षण हो रहा है और क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः।

वर्तमान हिन्दू समाज में छत्तीस बिरादरी अर्थात् ३६ के लगभग जातियों की गणना तो उत्तर भारत के दिल्ली क्षेत्र के आस-पास अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। वस्तुतः यह समस्या मध्यकालीन परिस्थितियों से प्रार्दुभूत है, अथवा यूँ कहिये कि आज हमारे समक्ष जो इतिहास उपलब्ध् है वह अंग्रेजों, मुगलों व वामपंथी आदि वैदेशिक आक्रान्ताओं द्वारा प्रदत्त है और वह समाज के तथाकथित सभ्य-नागरिकों ने विश्वस्त बनाकर प्रस्तुत कर दिया है जिसके फलस्वरूप आज नाना जातियाँ ब्राह्मण, जाट, कुर्मी, कायस्थ,यादव, चमारादि विश्वसनीय सामाजिक-विघटन के तत्त्व बन कर राष्ट्र की अवनति के द्योतक हो चले हैं।

हिन्दू चमार जाति एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास पुस्तक के लेखक डॉ. विजय सोनकर शास्त्री ने कर्नल टाड के सन्दर्भ से लिखा है कि महाभारत के अनुशासन पर्व में इस जाति का उल्लेख हैं। महाभारत में ऐसा विवरण अनुशासन पर्व में तो छोड़िये किसी भी पर्व में नहीं मिलता है। लेकिन इतिहास के विद्यार्थी इस तथ्य को घोटकर (याद करके) परीक्षा ही नहीं अपितु सामाजिक व्यवहार में भी प्रयोग करने लगते हैं, ध्क्किार है ऐसे पाठक एवं लेखकों को।

हमारी वैदिक-सनातन परम्परा में वर्तमानस्वरूपी जाति का कहीं कोई उल्लेख नहीं है, हाँ वर्ण-व्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था, गोत्र, धर्म, भाषा एवं क्षेत्रादि विषयों का व्यवस्थित व व्यावहारिक प्रयोग विशदरूप में अवश्यमेव पदे-पदे दृष्टव्य है।

सृष्टि के आदि में दिव्य-ज्ञान वेद का आविर्भाव हुआ था। शास्त्रा प्रमाणानुसार-

अनादिनिध्ना नित्या, वागुत्सृष्टा स्वयंभुवा।

आदौ वेदमयी दिव्या, यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।।

इस प्रकार वेद पुरुष से सृष्टि-सन्तति की उत्पत्ति को इस रूपक से सरल ढंग से समझा जा सकता है कि-

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः।

मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।

अर्थात् महातेजस्वी परमेश ने सृष्टि के संचालन निमित्त मुख, बाहु, जंघा एवं चरण के सदृश उत्पन्न वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र का क्रमशः उत्पन्न होना कर्मसिद्धान्त रूप सिद्ध है। अर्थात् जन्मना

जायते शूद्रः, कर्मणा द्द्विजोच्यते  इस प्रकार जन्म से तो सभी प्राणी शूद्रत्व से विद्यमान होते हैं लेकिन

कर्म द्वारा द्विजत्वादि प्राप्त किया जा सकता है और फिर उसी कर्मानुसार कुल एवं गौत्रादि का उत्पन्न

होना पाया जाता है। उसमें भी पुनः परिवर्तन गुण कर्मानुसार अवश्यंभावी है।

धर्म का मूल भी मनुस्मृत्तिकार ने वेद ही कहा है यथा-

वेदोखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।

आचारश्चैव साधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।

और भी

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विध्ं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।।

प्रथम श्लोक में सम्पूर्ण वेद एवं वेदज्ञों की स्मृत्ति एवं धर्मिकों का आचार और स्वयं की सन्तुष्टि आदि तथा द्वितीय श्लोक में वर्णित है कि-वेद, स्मृत्ति, सदाचार और स्वरुचि के अनुसार वर्तना ये चार धर्म के प्रकार हैं। अतः धरणार्द् धर्म इत्याहुः आदि धर्म की शास्त्रोक्त हितकारी परिभाषाओं के अनुसार धर्म को जानना एवं मानना चाहिए।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में धर्म की दुर्गति हो रखी है। नाना मत-मजहबों, सम्प्रदायों ने जो विकृत विकराल-स्वरूप धारण कर लिया है उससे सम्पूर्ण संसार को खतरा है। इसका एक ज्वलन्त उदाहरण आतंकवाद प्रत्यक्ष है।

भाषा के प्रश्न का जहाँ तक विचार है उसमें भी संस्कृत-भाषा निर्विवाद रूप में पश्चिमापश्चिमादि सर्वदिक् विद्वानों के मतानुसार जननी-भाषा स्वरूप में स्वीकृत है। भाषा का एक महत्त्वपूर्ण अंश है भावाभिव्यक्ति। संस्कृत भाषा में क्रम-विन्यास वैशिष्ट्य विशेष रूप में द्रष्टव्य है अर्थात् संस्कृत में भावाभिव्यक्ति की महत्त्वपूर्ण-इकाई वाक्य में शब्दों को किसी भी क्रम में उपन्यस्त कीजिए परिणाम सर्वथा भावेन अपेक्षित ही प्राप्त होगा- देवः शास्त्रम पठति अथवा शास्त्रां देवः पठति वा पठति शास्त्रां देवः किसी भी विध में ऐच्छिक शब्दों का क्रम रखिए अभीष्ट परिणति प्राप्त होगी और इसी विशेषता के कारण अमेरिकी अनुसन्धान केन्द्र नासा ने संस्कृत भाषा का संवरण कर लिया है जो अन्तरिक्ष में उपग्रह आदि के सम्प्रेषण में भाषायी संकेत का आधार होने से अतीव उपयोगी सिद्ध हुआ है तथा हम इसकी औपचारिक व अनिवार्य विषय की जंग में ही संलिप्त हैं।

इस क्षेत्र पर यदि विचार करें तो पाएंगें की जो क्षेत्र सुरम्यवातावरणानुकूल अर्थात् जहाँ का जलवायु श्रेष्ठ हो, आरोग्यप्रद हो वही स्थान श्रेष्ठ मानना एवं जानना चाहिए, वैसे तो जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी मान्यतानुसार जन्मभूमि भी सर्वश्रेष्ठ है।

निष्कर्षरूप में उपर्युक्त विषयों का पूर्ण-विवेक के साथ प्राणीमात्रा के हित में व्यवहार करना ही उद्देश्य है अर्थात्

सर्वेभवन्तुसुखिनः सर्वेसन्तुनिरामयाः अलमतिविस्तरेण।

सम्पादक,

हरियाणा संस्कृत अकादमी,

पचकूला, हरियाणा।

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