इस्लाम का वैदिक रंगः–
महाकवि अकबर इलाहाबादी की कुल्लियात का एक भाग कुछ वर्ष पूर्व मैंने क्रय किया था। महाकवि के काव्य का विशेष अध्ययन करके उनके चिन्तन पर कुछ लिखना चाहता था सो इस बार विश्व पुस्तक मेले से उनकी कुल्लियात का दूसरा भाग भी ले आया। कवि जी की हमारे महाकवि शङ्कर जी तथा पं. पद्यसिंह जी शर्मा पूर्व सपादक परोपकारी से विशेष आत्मीयता थी। यह अब देश नहीं जानता।
महर्षि दयानन्द ने इस युग में डंके की चोट से कहा कि मनुष्य को अपने शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। अन्य सब अवैदिक मत पंथ (हिन्दू सप्रदाय भी) पापों का क्षमा होना मानते हैं। हमारे विद्वानों के इस विषय पर मौखिक व लिखित अनेक शास्त्रार्थ हो चुके हैं। महर्षि और उसके शिष्यों के प्रयास से नये-नये इस्लामी साहित्य पर इस वैदिक सिद्धान्त की गहरी छाप पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है। महाकवि अकबर जी का फारासी भाषा का एक पद्य पढ़कर विनीत झूम उठा-
ईं फित्ना कि बरपा शुद व ईं शोर कि बरखास्त,
इल्जाम ब गर्दूं मनेह अजमास्त कि बर मास्त।
अर्थात् यह जो झगड़ा व विपदा आ पड़ी है और हाहाकार मचा है, इसके लिये भाग्य को या ईश्वर को दोष मत दो। यह हमारे कर्मों का ही फल है जो लोग भोग रहे हैं। क्या यह इस्लाम का वैदिक रंग नहीं है?
श्री अनवर शेख ने इस्लाम में शैतान पर अपने दुष्कर्मों का दोष थोपने पर एक गभीर प्रश्न उठाया है। कुरान की छठी व उन्नीसवीं सूरत की एक-एक आयत में यह कहा गया है कि अल्लाह जिसे चाहे पथ भ्रष्ट करे और जिसे चाहे सन्मार्ग दिखावे। अल्लाह ने मनुष्यों पर शैतान छोड़ रखे हैं, फिर भला वे पाप क्यों न करें? मौलाना मौदूदी आदि सब इन आयतों का यही अर्थ करते हैं। अनवर शेख जी का प्रश्न इस्लाम की वैदिक सोच का ज्वलन्त प्रमाण है। यह स्वस्थ सोच ऋषि की देन है।
वे बहुत प्रसन्न हुयेः–विश्व पुस्तक मेले में लक्ष्मण जी जिज्ञासु ने मुझे कहा- ईरान के फारसी साहित्य को देखिये। इनसे कुछ चर्चा करो। मैंने उनसे पूछा-क्या प्रो. महेशप्रसाद मौलवी फाजिल जी कविवर उमर ौयाम की रुबाइयों का संस्करण मुझे देंगे? महेश प्रसाद जी की ईरान यात्रा की भी उनसे संक्षिप्त चर्चा की। मेरे मुख से महेशप्रसाद जी के उस दुर्लभ संस्करण की चर्चा करके वे बहुत हर्षित हुए। कहा- यह तो अभी उपलध नहीं। कोई प्रकाशक इसे छपवायेगा ही। मुझे भी अच्छा लगा कि हमारे महान् विद्वान् की मौलिक देन को ईरान भूला नहीं है।
और वे चुप्पी साध गयेः–लक्ष्मण जी मुझे मिर्जाइयों के स्टाल पर ले गये और कहा कि कुछ इनसे कहो। मैंने कहा- ‘दुर्रे समीं’ लेना चाहता हूँ। वे बोले- नहीं है। मैंने फिर ‘तजकरः’ माँगा। वे बोले- नहीं है। फिर एक और ग्रन्थ माँगा। कहा- नहीं है। उन्होंने स्वयं कोई बात न चलाई। मेरी हर बात पर न, न कहते गये और चुप्पी साध लेते। मैं भी समझ गया कि इनमें कोई मुझे जानता पहचानता है, अन्यथा ये तो हर नये शिकार की टोह में रहते हैं।
जमायते इस्लामी के स्टाल से मौलाना मौदूदी के कुरान-अनुवाद का अंग्रेजी – अनुवाद दिया गया। कहा- यदि आप इसे पढें, तो हम आपको देते हैं। मैंने कहा- ‘‘भाई जब मेरे सिर के बाल काले थे, मैंने तभी नियमित पाठक के रूप में ‘तर्जमानु-उल-कुरान’ को ध्यानपूर्वक पढ़ा था।’’ यह सुनकर उन्होंने सहर्ष मुझे वह ग्रन्थ भेंट कर दिया। यह उनकी मिशनरी सूझ थी कि वे ग्राहक को परखते व पहचानते थे।