ओउम
हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे
डा अशोक आर्य
ज्ञान से मानव का अंत:करण पवित्र हो जाता है । ग्यानी अर्थात विद्वान की संगति को सब लोग पसंद करते हैं । गयान से ही व्यक्ति सर्वगुण संपन्न बनता है । सब गुणों से संपन्न व्यक्ति को सर्वत्र सम्मान मीलता है , उसकी सलाह पर लोग चलते हैं तथा वह सब का मार्ग दर्शक होता है । इस लिए कहा जाता है कि ज्ञान के समान पवित्रता लाने वाली कोई और वस्तु नहीं है तथा इसे पाने के लिए निरंतर ज्ञान के सागर में गोते लगाने की आवश्यकता होती है । इस तथ्य को ही साम वेद के मन्त्र संख्या 33 में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
शन्नो देवीरभिष्टाए शन्नो भवन्तु पिताये ।
स\श्न्योरभीस्रवन्तु न: ।। सामवेद 33।।
इस मन्त्र में मुख्य रूप से चार बातों पर प्रकाश डाला गया है ।
1) दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों : –
दिव्य बुद्धिया , जिन का निर्माण केवल और केवल ज्ञान से ही संभव होता है , हमें सदा शांति देने वाली हों । जो व्यक्ति ज्ञान का भंडारी होता है । बुद्धि का भरपूर भण्डार अपने पास राखता है , एसा व्यक्ति कभी अशांत नहीं देखा गया, कभी दू:खी नहीं देखा गया । उसके सब दू:ख क्लेष क्षणों में ही दूर हो जाते हैं । बुद्धि की सहायता से वह अपने प्रत्येक संकट का कोई न कोई मार्ग निकाल ही लेता है । इसलिए इस मन्त्र में सर्व प्रथम कहा गया है कि हम दिव्य बुद्धियों के स्वामी बनें तथा यह दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों ।
मानव सदा अपना जीवन सुखी व शान्ति से भरपूर बनाना चाहता है किन्तु अनेक प्रकार की व्याधियां उसे सुखी नहीं होने देतीं , कोई न कोई संकट उसके मार्ग में सदा खड़ा रहता है । इन संकटों से पार पाने के लिए उसे बुद्धि की आवश्यकता होती है , ज्ञान की आवश्यकता होती है । यह बुद्धि तथा यह ज्ञान ही उसे संकटों में से रास्ता निकाल कर शान्ति की और ले जाता है । अत: वास्तविक सुख व शान्ति पाने के अभिलाषी मानव को ज्ञान की प्राप्ति के लिए सदा यत्न शील रहना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि पूर्ण अज्ञानी होने से भी शान्ति मिलती है , इस शान्ति को तामस निश्चलता कहते हैं । इस प्रकार की शान्ति में कभी सुख का अनुभव नहीं होता । अत: यह ज्ञान का मार्ग ही है जिससे हमें सुख मिलता है । इस लिए हमें सदा ज्ञान प्राप्ति का यत्न करते रहना चाहिए ।
2) बुद्धियों के प्रयोग से हम सदा निरोग हों : –
मन्त्र में कथित दूसरी चर्चा के अंतर्गत कहा गया है कि दिव्य बुद्धियां हमें आसुरी भावनाओं से भरपूर आक्रमणों से रक्षा करने के लिए सदा आसुरी प्रव्रितियों से युद्ध करती रहती हैं । इस से स्पष्ट होता है कि दिव्य बुद्धियां हमारे पास महान योद्धा के रूप में कार्य करते हुए आसुरी भावनाओं से सदा युद्ध करती रहती हैं तथा हमारी इन दुष्ट बुद्धियों से रक्षा करती हैं । इन बुद्धियों का आधार ज्ञान होता है अत: यह अज्ञान पर ज्ञान से आक्रमण कर उन्हें नष्ट करती हैं । जिस प्रकार मानस आधियों पर ज्ञान आक्रमण कर उन्हें दूर भगाता है , उस प्रकार ही शरीर से सम्बंधित व्याधियों पर भी ज्ञान भीषण आक्रमण कर उन्हें दूर भगा देता है ।
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा ने अनेक प्रकार की ओषधियाँ पैदा की हैं , जिन के प्रयोग से सब प्रकार के रोगों का नाश किया जा सकता है किन्तु जब तक हमें उन ओषधियों तथा उनके गुणों का ज्ञान नहीं होता तब तक वह ओषधिय बूटियाँ हमारे लिए घास फूस से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखतीं । यह ज्ञान ही है जो हमें इन ओषधियों के गुणों का ज्ञान कराता है , यह ज्ञान ही है , जो हमें इन ओषधियों की पहचान भी कराता है । इतना ही नहीं यह ज्ञान ही होता है जो हमें इन ओषधियों के प्रयोग की विधि भी बताता है । अत: जब हम ज्ञान की सहायता से बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो हम निरोग भी हो जाते हैं ।
3) बुद्धि हमारा रक्षा कवच बन हमारी रक्षा करे : –
जैसे ऊपर कहा गया है ठीक उस प्रकार ही स्पष्ट तथ्य मन्त्र अपनी तीसरी कथा का वर्णन करते हुए उपदेश करता है कि यह जल हमारी व्याधियों को ,,हमारे रोगों को नष्ट करते हुए, दूर करते हुए हमारी रक्षा के लिए हों अर्थात हमारी रक्षा करें । जब भी कभी अथवा कहीं ज्ञान का अभाव होता है , तब ही तथा वहां ही विनाश होता है । इससे स्पष्ट होता है कि अज्ञान ही हमारे विनाश का कारण होता है । ज्ञान हमारे लिये रक्षा कवच का कार्य करते हुए हमारी सब प्रकार की आधियों तथा व्याधियों से रक्षा करता है ।
4) हम सदा ज्ञान सागर में गोते लगाते हुए सब कष्टों से मुक्त हों : –
मानव की यह अभिलाषा रहती है कि उसे भयंकर रोगों से मुक्त करने वाली यह दिव्य बुद्धियाँ सदा हमारे चारों और बहती रहे ताकि हम सदा रोगों से बचे रहे । दुसरे शब्दों में हम यहाँ मन्त्र की चौथी बात को इस प्रकार समझ सकते हैं कि हम सदा ज्ञान से भरपूर वातावरण में , पर्यावरण में रहें अथवा सदा अपने ज्ञान को बढाने का प्रयास करते रहे । हमारे महान ऋषियों ने हमें महान उपदेश दिए हैं , विद्वत्तापूर्ण पुस्तकों का भण्डार दिया है , । इन उपदेशों तथा ग्रंथों को हम सदा अपना साथी बनाकर अपने साथ रखें । इन से सदा मार्ग दर्शन लेते रहे । सदा अपने ज्ञान को बढाते हुए शान्ति प्राप्त करें, अपनी शक्ति को बढावें, अपनी रक्षा करें तथा सदा निरोग रहे । ऐसे रहते हुए निरोगता का अनुभव करते हुए तीनों कष्टों से मुक्त हो ज्ञान उपासक , प्रभु भक्त बनें ।
डा अशोक आर्य
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