ज्ञान से मानव क्रियमान बनता है
डा. अशोक आर्य
हम सदा अभय रहें , हमारे में किसी प्रकार का उद्वेग न हो, किसी प्रकार का भय न हो । हमारे यज्ञ में कभी रुकावट न आवे । हम सदा अपने ज्ञान, अपनी भक्ति तथा अपने
कर्म का सदा विस्तार करें । हम जो ज्ञान पूर्वक कर्म करते हैं , वह ही भक्ति है तथा ज्ञान हम उसे ही मानते हैं , जो हमें सदा किसी न किसी क्रिया में लगाये रखते है । यजुर्वेद के इस प्रथम अध्याय का २३ वां मन्त्र हमें यह सन्देश इन शब्दों में दे रहा है :-
मा भेर्मा सविक्थाऽअतमेरुर्यग्योऽतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात त्रिताय
त्वा द्विताय त्वॆक्ताय त्वा ॥ यजु.१.२३ ॥
पूर्व मन्त्र में यह बताया गया था कि जिस व्यक्ति का सविता देव के द्वारा अच्छी व भली प्रकार से परिपाक हो जाता है , एसा व्यक्ति सदा ही किसी प्रकार से भी भयभीत नहीं होता । वह सदा निर्भय ही रहता है । एसे व्यक्ति में दॆवीय सम्पति अर्थात देवीय गुणों का विकास होता है , विस्तार होता है । यह विकास अभय अर्थात भय रहित होने से ही होता है । इस लिये यह मन्त्र इस बात को ही आगे बढाते हुए तीन बिन्दुओं पर विचार देते हुए उपदेश कर रहा है कि :-
१. प्रभु भक्त को कभी भय नही होता :-
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! तूं डर मत । तुझे किसी प्रकार का भय नहीं होना चाहिये । तूं प्रभु से डरने के कारण सदा प्रभु के आदेश का पालन करता है , प्रभु की शरण में रहता है । जो प्रभु की शरण में रहता है , प्रभु के आदेशों का पालन करता है , वह संसार में सदा भय रहित हो कर विचरण करता है । अन्य किसी भी सांसारिक प्राणी से कभी भयभीत नहीं होता ।
इसके उलट जो व्यक्ति उस परमपिता से कभी भय नही खाता , कभी भयभीत नहीं होता , एसा व्यक्ति संसार के सब प्राणियों से , सब अवस्था में भीरु ही बना रहता है , डरपोक ही बना रहता है , सदा सब से ही भयभीत रहता है , जबकि प्रभु से डरने वाला सदा निडर ही रहता है । इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हे प्राणी ! प्रभु से लगन लगा ,किसी प्रकार के उद्वेग से तूं डर मत , कम्पित मत हो , भयभीत न हो । तूं ठीक मार्ग पर , सुपथ पर चलने वाला है । सुपथ पर जाने वाले को कभी किसी प्रकार का भय , कम्पन नहीं होता ।
२. अनवरत यज्ञ करें
हे प्राणी। तूं सच्चा प्रभु भक्त होने के कारण सदा यज्ञ करने में लगा रहता है किन्तु इस बात का स्मरण बनाये रखना कि तेरा यह यज्ञ कभी श्रान्त न हो , कभी बाधित न हो , कभी इस में रुकावट न आने पावे । इसे अनवरत ही करते रहना । इस सब का भाव यह है कि तूं सदा यज्ञ करने वाला है तथा तेरी यह यज्ञीय भावना सदा बनी रहे , निरन्तर यज्ञ करने की भावना तेरे में बनी रहे । तूं सदा एसा यत्न कर कि तेरी यह भावना कभी दूर न हो । इस सब का भाव यह ही है कि हम सदा यज्ञ करते रहें , परोपकार करते रहें , दूसरों की सहायता करते रहे । हमारी इस अभिरुचि में कोई कमीं न आवे । कभी कोई समय एसा न आवे कि हम इस यज्ञीय परम्परा को बाधित कर कुछ और ही करने लगें ।
३. प्रभु यग्यी व्यक्ति को चाहता है :-
हम यह जो यज्ञ करते हैं , इस कारण हम प्रभु की सच्ची सन्तान हैं । मन्त्र कह रहा है कि प्रभु यज्ञीय को ही पसन्द करते हैं । वह यज्ञीय व्यक्ति को पुत्रवत प्रेम करते हैं । वह नहीं चाहते कि उसकी सन्तान कभी उत्तम कर्म करते करते थक जावें । प्रभु अपनी सन्तान को सदा बिना थके कर्म करते हुए देखना चाहते हैं । निरन्तर कर्म में लिप्त रहना चाहते हैं । अकर्मा तो कभी होता देख ही नहीं सकते । इस के साथ ही मन्त्र यह भी कहता है कि जो व्यक्ति सदा कर्म करते हुए अपने सब यज्ञीय कार्यों को सम्पन्न करते हैं , एसे व्यक्तियों का समबन्ध परम पिता परमात्मा से सदा बना रहता है । वह कभी उस पिता से दूर नहीं होते । सदा प्रभु से जुडे रहते हैं । कभी थकते नहीं , कभी विचलित नहीं होते , कभी भयभीत नहीं होते । उनकी निरन्तरता कभी टूटती नहीं । जो लोग प्रभु के नहीं केवल प्रकृति के ही उपासक होते हैं , वह कुछ ही समय में थक जाते हैं , श्रान्त हो जाते हैं । एसे लोगों का जीवन विलासिता से भरा होता है । एसे लोग काम क्रोध , जूआ , नशा आदि के शिकार होने के कारण उनका शरीर जल्दी ही क्षीण हो जाता है , जल्दी ही कमजोर हो कर थक जाता है । अनेक प्रकार के रोग उन्हें घेर लेते हैं तथा अल्पायु हो जाते हैं ।
मन्त्र आगे कह रहा है कि मानव को ज्ञान का प्रधान होना चाहिये , वह कर्म मे भी कभी फीछे न रहे तथा प्रभु भक्ति से भी कभी मुख न मोडे । इस लिए ही मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि प्रभु अपने भक्तों को , अपने पुत्रों को , अपनी उपासना करने वालॊं के ज्ञान , अपने कर्म तथा उनकी उपासना में कभी कमीं नहीं आने देते अपितु उन्हें अपने यह सब गुण बढाने के लिए प्ररित करते हैं । वह प्राणी के इन गुणों को बढाने के लिए सदा उसे उत्साहित करते रहते हैं । इस का कारण है कि जो भक्ति ज्ञान सहित की जावे , वह भक्ति ही भक्ति कहलाती है । इसे ही भक्ति कहते हैं । इसलिए मन्त्र यह ही उपदेश करता है कि तेरे ज्ञान तथा कर्म में निरन्तर विस्तार होता रहे , निरन्तर उन्नति होती रहे , निरन्तर आगे बढता रहे ।
मन्त्र यह भी कहता है कि हमारे जितने भी आवश्यक कर्म हैं , उन सब की प्रेरणा का स्रोत , उन सब की प्रेरणा का केन्द्र , उन सब की प्रेरणा का आधार ज्ञान ही होता है । इसलिए इस मन्त्र के माध्यम से परम पिता परमात्मा उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि मैं तुझे ज्ञान के बढाने की और प्रेरित करता हूं , मैं तुझे अपने ज्ञान को निरन्तर बढाने के लिए आह्वान करता हूं । यह तो सब जानते हैं कि ब्रह्मज्ञानियों में भी जो क्रियमान होता है , वह ही उत्तम माना जाता है , श्रेष्ट माना जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं निरन्तर स्वाध्याय कर , निरन्तर एसे कर्म कर , निरन्तर एसे कार्य कर कि जिससे तेरे ज्ञान का विस्तार होता चला जावे , कि जिससे तेरे ज्ञान को बढावा मिले ।
डा. अशोक आर्य