गृहस्थ ने मुझे छोड़ दिया
मुझे अच्छी प्रकार से याद है कि 1949 ई0 में मैंने पूज्य महात्मा नारायण स्वामीजी की जीवनी (आत्मकथा) में यह पढ़ा था कि महात्माजी को अपनी विधवा माता के आग्रह पर बचपन में
विवाह की स्वीकृति देनी पड़ी। पन्द्रह वर्ष की आयु में नारायणप्रसाद (नारायण स्वामीजी का पूर्व नाम) गृहस्थी बन गये, परन्तु पत्नी को पाँच वर्ष तक मायके में ही रज़्खा। बीस वर्ष के हो गये तो पत्नी उनके पास आ गई।
महात्माजी ने आत्म-चिन्तन करते हुए निश्चय किया कि पाँच वर्ष पहले गृहस्थी बना हूँ तो दस वर्ष पूर्व अर्थात् चालीस वर्ष की अवस्था में गृहस्थ छोड़ दूँगा। जब नारायणप्रसाद चालीस वर्ष के
हुए तो उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। आपने स्वेच्छा से गृहस्थ को अभी छोड़ा नहीं था।
महात्माजी ने स्वयं आत्मकथा में लिखा है कि मैंने गृहस्थ को नहीं छोड़ा, गृहस्थ ने स्वयं मुझे छोड़ दिया। इस प्रकार मेरा पुराना संकल्प अपने-आप पूरा हो गया। शज़्द चाहे कुछ भी लिखे हों,
परन्तु भाव यही है।
कितने सत्यनिष्ठ थे वे लोग! कैसी सरलता से अपनी मनःस्थिति का वर्णन किया है। अपने इसी शुद्ध धर्मज़ाव से वे ऊँचे उठते गये।