ग्रंथों का ग्रंथ, ‘सत्यार्थप्रकाश’
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कौशिक डेका ने अंग्रेजी में बाबा रामदेव पर जो किताब लिखी है, उसे मैंने अभी देखा नहीं है लेकिन उसके बारे में छपी खबरों में पढ़ा कि रामदेव जब किशोर ही थे, उन्हें ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ने को मिला और उन पर उसका ऐसा प्रभाव हुआ कि वे अपना घर-बार और स्कूली पढ़ाई छोड़कर भाग खड़े हुए। गुरुकुल में भर्ती हो गए। संन्यास ले लिया और महर्षि दयानंद सरस्वती के सपनों की दुनिया खड़ी करने का संकल्प कर लिया। यह ‘सत्यार्थ प्रकाश’ क्या है? यह 14 अध्यायों की एक क्रांतिकारी पुस्तक है। इसके अध्यायों को दयानंद ने समुल्लास कहा है। पहले 10 अध्यायों में उन्होंने व्यक्ति, परिवार, राज्य और समाज को सुचारु रुप से संचालित करने की बहस चलाई है और शेष चार अध्यायों में उन्होंने विभिन्न देशी और विदेशी धर्मों और संप्रदायों की दो-टूक समीक्षा की है। इस ग्रंथ का बीसियों देशी और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसके हजारों प्रतियोंवाले सैकड़ों संस्करण हो चुके हैं और अब भी होते रहते हैं। इस ग्रंथ की तुलना विश्व के किस ग्रंथ से की जाए, यह बात मैं पिछले 60-65 साल से सोचता रहा हूं। मौलिकता, तर्क, पांडित्य और साहस—— इन चार मानदंडों पर तोलें तो शंकराचार्य की ‘सौंदर्य लहरी’, प्लेटो के ‘रिपब्लिक’, अरस्तू के ‘स्टेट्समेन’, कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’, मेकियावेली के ‘प्रिंस’, हाॅब्स के ‘लेवियाथन’, हीगल का ‘फिनोमेनालाॅजी आॅफ स्पिरिट’, कार्ल मार्क्स की ‘दास केपिटल’ जैसे विश्व-प्रसिद्ध ग्रंथों के मुकाबले भी ‘सत्यार्थप्रकाश’ मुझे अलग और भारी लगता है। इस ग्रंथ ने भारत का भाग्य पलट दिया। 1875 में छपे इस ग्रंथ ने भारत में आजादी की अलख जगाई। स्वराज्य की नींव रखी। बड़े-बड़े नेताओं और क्रांतिकारियों को जन्म दिया। यदि महात्मा गांधी को आप राष्ट्रपिता कहते हैं तो महर्षि दयानंद को राष्ट्र पितामह कहे बिना आप कैसे रह सकते हैं? यदि दयानंद का ‘आर्य समाज’ नहीं होता तो कांग्रेस के पांव मजबूत कौन करता? अंग्रेज के दांत खट्टे कौन करता? भारत में जातिविहीन, समतामूलक, कर्मप्रधान समाज की कल्पना कबीर जैसे संतों ने तो की थी लेकिन दयानंद जैसे ब्राह्मणकुलोत्पन्न किसी महापंडित ने कब की थी? दयानंद ने भारत में ऐसी पाखंड खंडिनी पताका फहराई थी कि दुनिया में आज तक वह फहरा रही है। कोई पंडित, मुल्ला-मौलवी, पादरी उसकी काट नहीं कर पाया। इसीलिए योगी अरबिंदो जैसे महान विचारक ने कहा है कि भारत के महान विद्वानों के बीच दयानंद मुझे हिमालय के समान सर्वोपरि दिखाई पड़ते हैं। सुकरात, ईसा मसीह, ब्रूनो और गांधी की तरह ही दयानंद को भी अपने सिद्धांतों के कारण ही प्राण त्यागने पड़े लेकिन उनके अविर्भाव ने भारत को नया जीवन दे दिया।