गोल-गोल बातों वाले पण्डितजी
श्रद्धेय पण्डित गणपति शर्मा शास्त्रार्थ-महारथी एक बार जगन्नाथपुरी देखने उत्कल प्रदेश पहुँचे। वहाँ के पण्डितों को किसी प्रकार पता चल गया कि पण्डित गणपति शर्मा आये हैं। जहाँ पण्डितजी ठहरे थे वहाँ बहुत-से लोग पहुँचे और कहने लगे- लोग-ज़्या आप आर्यसमाजी पण्डित हैं?
पण्डिजी-हाँ, मैं आर्यपण्डित हूँ।
लोग-आर्यपण्डित कैसे होते हैं?
पण्डितजी-जैसा मैं हूँ!
लोग-पण्डित के साथ आर्य शज़्द अच्छा नहीं लगता!
पण्डितजी-ज़्यों? इस देश का प्रत्येक निवासी आर्य है। यह आर्यावर्ज़ देश है। इसमें रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है।
लोग-ज़्या आर्यावर्ज़ में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है?
पण्डितजी-देश के कारण आर्य कहला सकते हैं। धर्म के कारण नहीं।
लोग-आप किस धर्म को मानते हैं?
पण्डितजी-वैदिक धर्म को मानता हूँ!
लोग-ज़्या सत्य सनातन धर्म को नहीं मानते?
पण्डितजी-वैदिक धर्म ही तो सत्य सनातन धर्म है।
लोग-ज़्या मूर्ति को मानते हैं?
पण्डितजी-ज़्यों नहीं, मूर्ज़ि को मूर्ज़ि मानता हूँ।
लोग-जगन्नाथजी को ज़्या मानते हो?
पण्डितजी-जो है सो मानता हूँ।
लोग-जगन्नाथ को परमेश्वर की मूर्ज़ि नहीं मानते हो?
पण्डितजी-हम सब भगवान् की बनाई हुई मूर्ज़ियाँ हैं।
लोग-श्राद्ध को मानते हो?
पण्डितजी-ज़्यों नहीं, माता, पिता, गुरु आदि का श्राद्ध करना ही चाहिए, अर्थात् इनमें श्रद्धा करनी ही चाहिए।
लोग-और पितरों को?
पण्डितजी-पितरों का भी श्राद्ध करो। पितर अर्थात् बड़े-बूढ़े बुजुर्ग, विद्वान् आदि।
पण्डितजी के मुख से अपने प्रश्नों के ये उज़र पाकर लोग परस्पर कहने लगे ‘‘देखो! यह कैसी गोल-गोल बातें करता है।’’