प्रथम यहाँ शंका हो सकती है कि ईश्वर ही कोई वस्तु सिद्ध नहीं होता । इसके उत्तर में बड़े-बड़े शास्त्र हैं, यहाँ केवल दो-एक बात पर ध्यान दीजिये । भाव से भाव होता है अर्थात् प्रथम किसी पदार्थ का होना आवश्यक है । उस पदार्थ से अन्य पदार्थ होगा । वह पदार्थ चेतन परम ज्ञानी परमविवेकी होवे, क्योंकि परम ज्ञानी ही इस ज्ञानमय जगत् को बना सकता है । अतः कोई परम ज्ञानी पुरुष सदा से विद्यमान है, वही परमात्मा ब्रह्म आदि नाम से पुकारा जाता है । ईश्वर के अस्तित्व में दूसरा प्रमाण रचना है। अपने शास्त्र में ” जन्माद्यस्य यतः ” जिससे इस जगत् का जन्म – पालन और विनाश हो, उसे ईश्वर कहा है । इसकी रचना देखकर प्रतीत होता है कि कोई ज्ञानी रचयिता है। किसी वन में सुन्दर भवन, उसके चारों तरफ पुष्पवाटिका, कूप, तड़ाग और उसमें भोजन के अनेक पदार्थ इत्यादि मनुष्य योग्य वस्तु देखी जाएँ किन्तु किसी कारणवश कोई अन्य पुरुष वहाँ न दीख पड़े तो भी द्रष्टा पुरुष यही अनुमान करेगा कि इस भवन का रचयिता कोई ज्ञानी पुरुष है । ऐसा नहीं हो सकता कि स्वयं ये अज्ञानी प्रस्तर, मिट्टी और पानी इकठ्ठे हो ऐसा सुन्दर मकान बन गये हों । यदि ऐसा हो तो प्रतिदिन लाखों भवन बन जाने चाहिए और वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत के जितने अक्षर हैं उतने अक्षर काटकर किसी बड़े बर्तन में रख दिए जाएँ । यदि वे अक्षर मिलकर श्लोकों के रूप में बन जाएँ तो कहा जा सकता है कि ये विद्यमान परमाणु स्वयं जगत् के रूप में बन गये किन्तु ऐसा हो नहीं सकता । अतः सिद्ध है कि कोई रचयिता चेतन है, वही ईश्वर है । वह ईश्वर स्वयं अपने शरीर से इस जगत् को नहीं बनाता । यदि ऐसा करे तो वह भिखारी समझा जाए और तब ईश्वर के शरीर के समान यह जगत् भी पवित्र होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि ईश्वर का कोई शरीर नहीं, वह अशरीर है। जो शरीरधारी हो, वह सर्वव्यापक नहीं हो सकता, लेकिन ईश्वर सर्वव्यापक है । अतः सिद्ध है कि कोई अचेतन जड़ पदार्थ भी सदा से चला आता है, इसी को प्रकृति कहते हैं । वेदों में इसका नाम अदिति है । अब वह जगत् जड़ चेतन मिश्रित है, अतः जड़ भिन्न कोई चेतन भी सदा से विद्यमान था, ऐसा अनुमान होता है । उसी का नाम जीव है । इसी प्रकृति और जीव की सहायता से परमात्मा सृष्टि रचा करता है । सृष्टि विज्ञान पर आगे लेख रहेगा । यहाँ इतना और भी जानना चाहिए कि परमात्मा सदा एक स्वरूप रहते हैं, इनमें किसी प्रकार का परिणाम नहीं । जैसे दूध से दही बनता है, जल से भाप – बर्फ और वर्षा से बनौरे बनते हैं, इसी का नाम परिणाम है । जीव भी निज स्वरूप से अपरिणामी है केवल प्रकृति ही परिणामिनी है । कैसे आश्चर्य प्रकृति का परिणाम है। वही कहीं सूर्यरूप महाग्नि का समुद्र बनी हुई है। कहीं जलमय हो रही है । कहीं सुन्दर मानव शरीर की छवि दिखा रही है । कहीं कुसुमरूप में परिणत हो कैसे अपूर्व सुरभि फैला रही है । कहीं मृग शरीर बन के दौड़ रही है और कहीं सिंह शरीर से मृग को खा रही है । अहा !! कैसी अद्भुत लीला उस प्रकृति द्वारा ईश्वर दिखा रहा है। आप विचार तो करें यदि कोई महान् चेतन प्रबन्धकर्त्ता न होता तो जड़ अज्ञानिनी अमन्त्री प्रकृति ऐसी नियम बद्ध लीला कैसे दिखला सकती। वह जड़ प्रकृति कैसे विचारती कि कुछ परमाणु मिल के सुगन्धि बने । कुछ पत्ते, कुछ डाल, कुछ बीज बने । यह विचार परमाणु पुंजों में कैसे उत्पन्न हो सकता है । अतः सिद्ध है कि प्रबन्धकर्त्ता कोई महान् चेतन है । यह तो आप देखें कूष्माण्ड (पेठा) का एक बीज किसी अच्छे खेत में लगा देवें । इस एक बीज से अच्छे खेत में अच्छे प्रबन्ध के द्वारा कम से कम सहस्र कूष्माण्ड (पेठे) उत्पन्न होंगे । यदि प्रत्येक पेठे में एक-एक सौ ही बीज हों तो भी १०००×१००-१००००० बीज होंगे। अब इतने बीजों को पुनः अच्छे खेतों में लगावें । इसी प्रकार लगातार दश वर्ष तक बीज लगाते जावें । आप अनुमान करें वे बीज लता रूप में आके कितनी जमीन घेर लेंगे ।
यदि इसी प्रकार (१००) वर्ष तक बीज बोए जाएँ तो मैं कह सकता हूँ कि पृथिवी पर कहीं जगह नहीं रहेगी । कहिये कैसी अद्भुत लीला है। एक बीज में कितनी शक्ति भरी हुई है। बीज बहुत ही छोटा होता है इससे कितनी शाखा वाली लता बन जाती है। यदि वह लता तौली जाए तो कितने मन होंगे, यह वृद्धि कहाँ से आई -बीज से । जिस समय अंकुर होता है तो देखने से प्रतीत होता है कि उसका स्थूल भाग ज्यों का त्यों ही बना हुआ है। किसी अदृश्य शक्ति से अंकुर निकल आता है और धीरे-धीरे दो-तीन मास में ही एक महान् लताकुंज बन जाता है । पुन: इन्हीं पृथिवी, अप्, तेज, वायु की सहायता से पेठे का बीज, अपने समान ही परिणाम पैदा करता है और मिरची का बीज अपने समान, अंगूर का बीज मधुरता, नीम का बीज तिक्तता, इत्यादि आश्चर्य परिणाम को ये सारे बीज दिखला रहे हैं। इन बीजों में ऐसा अद्भुत प्रबंध किसने कर रखा है, निश्चय वह महान् ईश्वर है । जो प्रकृति और जीव के द्वारा इस महान् प्रबंध को दिखला रहा है । संक्षेपतः यह जानें कि प्रकृति से ही पृथिवी, अपू, तेज और वायु बने हुए हैं। ये दृश्यमान सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ताराएँ और ये अनंत ब्रह्मांड प्रकृति के ही विकार हैं ।