अब ग्यारहवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। इसमें पहले चालीसवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इस पद्य में ‘बहुत धन के व्यय से पूरा होने योग्य यज्ञ को थोड़े धन से आरम्भ नहीं करना चाहिये’ इस विधिवाक्य का अर्थवाद कहा है। सो असम्भव है और अर्थवाद सम्भव होना चाहिये। क्योंकि यज्ञ कोई चेतन पदार्थ नहीं किन्तु जड़ है इससे इन्द्रियादि का नाश नहीं कर सकता और इस अर्थवाद में कहा यही है कि- इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्त्ति, प्रजा-सन्तान और पशुओं को थोड़ी दक्षिणा वाला यज्ञ नष्ट कर देता है।’१, सो ठीक नहीं। यद्यपि यज्ञादि कर्मों में जो दक्षिणा ऋत्विजादि को दी जाती है वह परिश्रम का फल (मेहनताना) है उसका लेन-देन नियमानुसार होना चाहिये। जैसे वकील आदि का मेहनताना उस काम और वकीलादि की योग्यतानुसार नियत होता है। किन्तु यह दान में नहीं गिना जायेगा। दान में दान लेने वाले से दाता का उपकार कुछ भी अपेक्षित नहीं किन्तु दक्षिणा में पूरा अपेक्षित है इसी से जहां-जहां ब्राह्मण को दान लेना बुरा कहा है, उससे दक्षिणा का निषेध नहीं हो सकता। इसी कारण जिस कार्य में परिश्रम का फल ठीक नहीं दिया जाता उसमें विघ्न होते हैं तथापि वह यज्ञादि कर्म जड़ होने से यजमान की कुछ हानि नहीं कर सकता किन्तु जिनका परिश्रम का फल ठीक नहीं मिलता वे ही विघ्न करते और कर सकते हैं। तथा उक्त श्लोक में यश और कीर्त्ति दोनों पर्यायवाचक पद एक साथ पढ़े हैं इस पुनरुक्ति दोष से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। यद्यपि इस पुनरुक्ति का समाधान कुल्लूकभट्ट ने किया है तथापि वह सन्तोषजनक नहीं। और जब ऋत्विज् आदि को दक्षिणा देना उनके परिश्रम का फल है तो उसके दिये बिना उस कार्य की पूर्ति वा उससे फलप्राप्ति होना भी असम्भव है। यदि कोई वर्त्तमान समय में वकीलादि को इतना द्रव्य न देवे जितना उनको राजद्वार (अदालत) में कार्यसिद्ध होने के लिये देना चाहिये तो उस पुरुष का वह कार्यसिद्ध हो जावे, यह सम्भव नहीं है। अर्थात् जैसी और जितनी सामग्री वा व्यय से जो कार्य सिद्ध हो सकता है तो उस अधूरे सामान वा व्यय से वह कार्य कदापि ठीक सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ भी ठीक सुफल नहीं होता है, इस कारण अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ नहीं करना चाहिये, यही अर्थवाद ठीक है। और जब यह अर्थवाद ठीक है तो वह इन्द्रियादि के नाश का अर्थवाद विरुद्ध हो गया। इसी से वह श्लोक प्रक्षिप्त है। इसके आगे बयालीसवां और तैतालीसवां (४२,४३) दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में शूद्र से धन लेकर अग्निहोत्र करने वाले की निन्दा है। परन्तु ध्यान देकर देखा जावे तो धनाभाव में अग्निहोत्र न करने की अपेक्षा शूद्रादि नीच पुरुषों से भी धन लेकर अग्निहोत्र का सेवन करना चाहिये, यह निन्दित काम नहीं किन्तु जो इस ग्यारहवें अध्याय के उन्नीसवें (१९) श्लोक में कहा है कि- ‘जो नीचों से धन लेकर और श्रेष्ठों को देता है वह अपने को पवित्र करके उन दोनों को दुःख के पार कर देता है।’१ इस कथन से भी वह विरुद्ध है। अर्थात् शूद्र भी असाधु है उससे धन लेकर अग्निहोत्ररूप श्रेष्ठकर्म में लगाना शुभ काम है। अग्निहोत्र सबका उपकारक होने से महोत्तम कर्म है उसमें लगाया धन क्यों नीच वा निन्दित काम हुआ। जो कोई जिससे मांगने आदि द्वारा धनादि को लेकर कार्य करता है, वह काम उसी कर्त्ता का होता है किन्तु द्रव्यदाता का नहीं। और जब धनदाता पुरुष धनादि देकर भृत्यों के तुल्य पुरोहितादि से काम कराता है तब वे पुरोहितादि शूद्रों के ऋत्विज् हो सकते हैं। शूद्र से धन लेकर यज्ञ करने में यदि धनदाता शूद्र को भी कुछ थोड़ा फल प्राप्त हो तो हमारी क्या हानि है ? अर्थात् अन्य की सुखसामग्री का उदय नहीं सह सकने वाले ही मत्सरता के दोष से दूषित होते हैं। शूद्र के धन से यज्ञ करने में शूद्र का भी कल्याण हो तो और भी अच्छा है कि एक काम से दो फल हुए।
आगे ११८,११९,१२१ ये तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। अवकीर्णी का लक्षण ही जब एक सौ बीसवें श्लोक में कहा है फिर उसका असम्बद्ध व्रत करना पहले से ही कैसे हो जावे ? जिस ब्रह्मचारी ने जानकर व्यभिचार कर लिया हो उसको अवकीर्णी कहते हैं, उसका मुख्य प्रायश्चित्त १२२,१२३ श्लोकों में ठीक-ठीक कहा है। और होम करने आदि के सामान्य नियम तो आगे इसी ग्यारहवें अध्याय में कहे अनुसार मानने चाहियें। वहां जो-जो जप-होमादि प्रायश्चित्त में कहे हैं वे ग्रहण करने चाहियें। काणे गदहे को मारकर उसके मांस का होम करना तो राक्षसों का ही काम है उसका वेदमतानुयायियों को सदा ही त्याग कर देना चाहिये।
आगे १७४वां श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि स्नान करना नित्य का काम होने से प्रायश्चित्त नहीं है। सो स्नान तो मनुष्य को करना ही चाहिये, सामान्यकर शास्त्र की आज्ञानुसार अपनी स्त्री से मैथुन करने वाले को चाहिये कि मैथुन के पश्चात् स्नान करे तभी शुद्धि होती है। इसी प्रयोजन से यदि यह भी श्लोक हो तो पुनरुक्त है। और जो महानीच शास्त्रविरुद्ध वा जिसके लिये शास्त्र में विधान नहीं, ऐसा पुंसिमैथुनादि दुष्ट कर्म है उसकी स्नान कर लेने मात्र से शुद्धि नहीं हो सकती। और इस १७४वें श्लोक से पूर्व १७३वें श्लोक में अयोनि पद करके पुंसिमैथुनादि का सम्भव प्रायश्चित्त कहा ही है। इससे वह श्लोक प्रक्षिप्त ही है।
आगे १८२,१८३ दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां शुद्धि करने वा मानने का प्रकरण नहीं है किन्तु आगे और पीछे केवल प्रायश्चित्त का प्रकरण है। शुद्धिप्रकरण पञ्चमाध्याय में है वहां यथासम्भव सब कहा ही है। पतितों की जीवितदशा में ही मरे के तुल्य क्रिया करना ठीक नहीं, क्योंकि महापातकी आदि पतित लोग यदि अपनी इच्छा से प्रायश्चित्त का आचरण नहीं करते तो वे राजदण्ड भोगने योग्य हैं अर्थात् राजा उनको बलात्कार पूर्वक दण्ड देवे, उस राजदण्ड से जब वे चिह्नयुक्त हो जावेंगे तो उनको मरा समझना नहीं हो सकता सो कहा भी है कि- ‘राजा के शासन से दण्ड के चिह्न को प्राप्त होकर सर्वत्र घूमा करें।’१ इस प्रकरणविरुद्ध और असम्भव होने आदि कारण से ये उक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। आगे २०६,२०७ ये दो पद्य प्रक्षिप्त हैं, इसी आशय के दो श्लोक चतुर्थाध्याय में हैं। उनको भी हम ने प्रक्षिप्त ही ठहराया है। और यह अन्याय है कि जो किसी के गाली देने पर मार डालने का दण्ड दिलाना वैसे यहां भी अतिसूक्ष्म अपराध का अधिक दण्ड कहा है। इसी अध्याय में २०८वें श्लोक में उसी अपराध का सम्भव प्रायश्चित्त कहा है। इसलिये उक्त दोनों पद्य प्रक्षिप्त हैं। आगे २६१वां पद्य प्रक्षिप्त है। यह विषय जो इसमें कहा है, असम्भव है। यदि सब हत्या का ऋग्वेद पढ़नामात्र प्रायश्चित्त हो जावे तो ब्रह्महत्यादि महापातकों के अधिक कर बड़े-बड़े पृथक् प्रायश्चित्त कहना व्यर्थ हो जावे। और यह कहना असम्भव वा असग्त भी है कि वेद पढ़ लेने से सब पाप छूट जावें। इसलिये उक्त पद्य प्रक्षिप्त ही है। इस प्रकार इस ग्यारहवें अध्याय के दो सौ पैंसठ श्लोकों से १२ श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष दो सौ त्रेपन श्लोक शुद्ध जानने चाहियें।