एक और दीवाना संन्यासी
आर्यसमाज में आत्मानन्द नाम के कई संन्यासी हुए हैं। एक आत्मानन्द तो पौराणिकों में लौट गये थे। यह बीसवीं शती के आरज़्भ या उन्नीसवीं शती के अन्त की घटना है, परन्तु एक स्वामी आत्मानन्दजी जो ऋषि के साथ भी रहे। वे ऋषिजी के साथ यात्रा में आवास तथा भोजन की व्यवस्था किया करते थे।
वे संस्कृत व हिन्दी ही जानते थे। पुराणों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। व्याज़्यानों में पुराणों की कथाएँ सुनाकर बहुत हँसाते थे। ये शास्त्रार्थ ज़ी करते थे। ये प्रतिक्षण शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहते थे।
इन्होंने देश के सब अहिन्दी भाषी प्रदेशों में भी प्रचार किया। कई आर्यसमाज बनाये। ब्रह्मा भी प्रचारार्थ गये। लंका की भाषा का ज्ञान नहीं था, तथापि वहाँ भी प्रचारार्थ पहुँच गये और बड़े-बड़े
लोगों से वहाँ सज़्पर्क कर पाये। अपनी बात कही। विशेषता यह कि वहाँ बिना किसी सभा के सहयोग के पहुँच गये।
आपने देश के सब भागों में वैदिक धर्म प्रचार के लिए यात्राएँ कीं। कोई बुलाये या न बुलाये, वे स्वयं ही घूमते-घूमते प्रचार करते हुए कहीं भी पहुँच जाते। कमालिया पंजाब भी गये। वह नगर
आर्यसमाज का गढ़ बन गया। वहाँ आर्यसमाज का गुरुकुल भी था। इसी गुरुकुल से हीरो साईकल के संचालकों के बड़े भ्राता दिवंगत दयानन्दजी जैसे ऋषिभक्त निकले।
यात्रा करते-करते ऊबते न थे, न थकते थे। एक बार सिरसा हरियाणा में गये। तब पोंगापंथी आर्यसमाज के नाम से ही चिढ़ते थे। आर्यसमाज वहाँ था ही नहीं। आर्यसमाज का नाम सुनते ही
विरोधियों ने शोर मचा दिया। स्वामीजी को रहने को भी स्थान न मिला, भोजन तो किसी ने
देना ही ज़्या था। हिन्दुओं ने सोमनाथ का मन्दिर तोड़नेवाले लुटेरों के भाइयों की तो उसी मन्दिर के समीप मजिस्द बनवा दी। यह आत्मघाती हिन्दू सब-कुछ सहन कर सकता है-इससे सहन नहीं होता तो आर्यसमाज का प्रचार सहन नहीं हो सकता।
सूखे चने चबाकर आर्य संन्यासी सिरसा में डट गया। वहाँ एक प्रसिद्ध सेठ का सदाव्रत जारी रहता था। उस सदाव्रत से भी वेदज्ञ आर्यसंन्यासी को भोजन न दिया गया। साधु के पग
डगमगाये नहीं, लड़खड़ाये नहीं, श्रीमहाराज घबराये नहीं। वहीं अपने कार्य में जुटे रहे। पाखण्डखण्डिनी ओ3म् पताका फहराकर दण्डी स्वामी आत्मानन्द वेद की निर्मल गङ्गा का ज्ञान-अमृत पिलाने लगे।
यह उन्हीं की साधना का फल है कि आगे चलकर सिरसा आर्यसमाज का एक गढ़ बन गया। पण्डित मनसारामजी वैदिक तोप, स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज-जैसों ने सिरसा को अपनी
कर्मभूमि बनाया। स्वामी श्री बेधड़कजी महाराज-जैसे अद्वितीय तपस्वी दलित वर्ग में जन्मे थे। उस पूज्य ऋषिभक्त बेधड़क स्वामी की कर्मभूमि भी सिरसा रहा है।
आर्य मिशनरी पूज्य महाशय कालेखाँ साहब जो बाद में महाशय कृष्ण आर्य के नाम से इसी क्षेत्र में कार्य करते रहे। वे सिरसा के पास ही जन्मे थे और सिरसा समाज की ही देन थे। महाशय काले खाँ जी लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रतानन्दजी महाराज के प्रियतम शिष्यों में से एक थे।
यह सब स्वामी आत्मानन्दजी की साधना का फल था। अन्तिम दिनों में यह संन्यासी अजमेर में रहने लगे। अपना सब-कुछ समाज की भेंट कर दिया। उनकी अन्तिम इच्छा यही थी कि उनका
शरीर अजमेर में छूटे और उनका दाह-कर्म भी वहीं किया जाए जहाँ ऋषिजी का अन्तिम संस्कार किया गया था। स्वामीजी का निधन 23 जुलाई 1908 ई0 को कानपुर में हुआ। उनका दाहकर्म संस्कार वहीं गंगा तट पर कानपुर में किया गया।1 आर्यसमाज अजमेर उनका उज़राधिकारी था। उनकी स्मृति में आर्यसमाज अजमेर ने कोई स्मारक न बनाया।