डॉ अम्बेडकर का मनु-समर्थक मत-डॉ. सुरेन्द्र कुमार

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

उपर्युक्त चारों श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं और इनका अर्थ भी लगभग ठीक दिया है (द्रष्टव्य-डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खण्ड 7, पृ0 250)

इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ0 साहब इनको सही मानते हैं। यथायोग्य दण्डव्यवस्था में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती है? डॉ0 अम्बेडकर र को आपत्ति उन श्लोकों पर है जो पक्षपातपूर्ण दण्ड- व्यवस्था का विधान करते हैं। अब प्रश्न यह है कि इन यथायोग्य दण्डविधानों के होते हुए और उनको प्रमाणरूप में उद्धृत करने पर भी, इनके विरुद्ध श्लोकों को प्रमाण मानकर मनु का विरोध क्यों किया जा रहा है? तर्कसंगत सिद्धान्तों का विरोध करने का क्या औचित्य है? क्या यह डॉ0 अम्बेडकर र का परस्परविरोध नहीं है?

    प्रश्न-मनु की न्याय और दण्डव्यवस्था से क्या आज की न्यायपद्धति और दण्डव्यवस्था अच्छी नहीं है? आज कानून की दृष्टि में सब बराबर हैं, यह कितना न्यायपूर्ण विधान है। मनु ने सबके लिए समान दण्ड क्यों नहीं रखा?

    उत्तर-महर्षि मनु की न्याय और दण्ड-व्यवस्था आज की दण्ड और न्याय-व्यवस्था से उत्तम, यथायोग्य, और मनोवैज्ञानिक है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है, इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा। आज की दण्डव्यवस्था का सिद्धान्त है-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं।’ पहला परस्परविरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सुविधा एवं समान-व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा। इसे न्याय नहीं कहा जा सकता। उच्च पद और उच्च स्तर पर बैठा व्यक्ति अधिक बौद्धिक विवेक रखता है अधिक सामाजिक सुविधाओं और समान का उपभोग करता है। उसके द्वारा किये गये अपराध का दुष्प्रभाव भी उतना ही तीव्र एवं व्यापक होता है। इस आधार पर यथायोग्य दण्डव्यवस्था यह कहती है कि उसे दण्ड भी अधिक मिलना चाहिए। अधिक सुविधा और समान है तो दण्ड कम क्यों? एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और एक प्रथम श्रेणी अधिकारी या शासक समानप्राप्ति में बराबर नहीं तो दण्डप्राप्ति में बराबर कैसे माने जा सकते हैं?

दूसरा परस्परविरोध यह है कि ‘समान दण्ड का सिद्धान्त’ क्षमता (धन, बल, पद, प्रभाव) की दृष्टि से यथायोग्य दण्ड नहीं है। इसे भी न्याय नहीं माना जा सकता। इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी और शेर को भी। इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी और शेर उलटा मारने दौडेंगे। क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? नहीं!! समान दण्ड तो वह है, जो लोकव्यवहार में प्रचलित है। मेमने को डंडे से, भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता है। दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यवर्गीय थोड़ा कष्ट अनुभव करके चुकायेगा और समृद्ध-सपन्न जूती की नोंक पर रख देगा। यह समान दण्ड नहीं है। इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंसे रहते हैं, किन्तु धन-पद-सत्ता-सपन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तोड़ कर निकल भागते हैं। आंकड़े इकट्ठे करके देख लीजिए, स्वतंत्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सपन्न लोगों को! आर्थिक अपराधों में समृद्ध लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं और अपराध करते रहते हैं। मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन और दोष नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति, अपराधी का पद और अपराध के प्रभाव पर निर्भर है। वे गभीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही करते हैं और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता है। शूद्रों के लिए जो पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह केवल प्रक्षिप्त श्लोकों में है। वे श्लोक मनुरचित नहीं है, बाद के लोगों द्वारा मिलाये गये हैं।

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