धर्मसारथी श्री कृष्ण
– विवेकानन्द सरस्वती
जब धर्मवादी धर्मधुरन्धरों से भरी सभा में उन्हीं के समक्ष किसी सामान्य अबला नारी की नहीं, अपितु राजमहिषी पटरानी सबला का अट्टहासपूर्वक घोर अपमान हो, तब वहाँ धर्म का कुछ भी अंश अवशिष्ट रह गया हो, इसकी कल्पना भी बुद्धि शून्यता की पराकाष्ठा है। किसी भी प्रकार से चाहे वह छल-बल-कल से हो या अन्य किसी निम्नतर उपाय से अपने स्वजन के विनाश की षड्यन्त्र की कल्पना हो, उस परिस्थिति में जहाँ भीष्म द्रोणाचार्य जैसे सर्वमान्य लोकपूज्य व्यक्ति भी उसके विरुद्ध में कुछ कहने का या कराने का साहस न कर सकते हों और अपने सममुख ही धर्म को तार-तार होते हुए देख ही नहीं रहे हों, अपितु उस दुष्कर्म में सहयोगी भी बने हों, तब भला धर्म की या न्याय की रक्षा करने का बीड़ा उठाने का कौन साहस कर सकता है और जो व्यक्ति यह साहस कर सकता है, वह सामान्य नहीं हो सकता। योगेश्वर श्रीकृष्ण उन्हीं असामान्य लोगों में से थे। उन्होंने अपनी सारी प्रतिष्ठा को तिलाञ्जलि देकर धर्मरक्षा का प्रण किया। उन्होंने कहा कि-
परित्राणाय साधूनां, धर्मसंस्थापनार्थाय सभवामि युगे युगे।
और इस प्रतिज्ञा का पालन किया धार्मिकों की रक्षा के माध्यम से उन्होंने वेद धर्म की रक्षा की। सभा में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो कुछ कह सके या कर सके। ऐसी विषम परिस्थिति में उन्होंने अपने अग्रज श्री बलराम जी की उपेक्षा कर दाय भाग में से ‘सूच्यग्रं नैव दास्यामि’ की घोषणा करनेवाले तथा उनके समर्थकों को दण्डित धर्म की आधार भूमि को दृढ़ करने का निश्चय किया। सम्भवतः अन्य कोई सामान्य व्यक्ति होता तो इसको पारिवारिक कलह कहकर अपने को बचाने का मार्ग प्रशस्त कर लेता, किन्तु श्रीकृष्ण इसको कायरता ही नहीं, अपितु घोर अधर्म समझते थे। यदि किसी समर्थ व्यक्ति के सममुख धर्म एवं न्याय का हनन हो रहा हो और धर्म की रक्षा के लिए वह समर्थ व्यक्ति कुछ नहीं कर पा रहा हो, तो सचमुच वह अधार्मिक ही नहीं महापापी भी होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण इस प्रकार धर्म अवमानना नहीं देख सकते थे, इसलिए धर्मरक्षार्थ उन्होंने धर्म का सारथी बनना सहर्ष स्वीकार किया। सामान्य दृष्टि से लोग यही विचारते हैं कि भारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनकर उसके रथ को हाँका था, स्थूल दृष्टि से भी यही दृष्टिगोचर होता है, किन्तु वास्तव में तो अर्जुन के नहीं, पाण्डवों के नहीं,अपितु धर्म के सारथी बने थे। जिन अधार्मिक कुकृत्यों का आश्रय कौरव लेकर चल रहे थे, यदि वे क़ुकृत्य पाण्डवों में भी दृष्टिगोचर होते तो श्रीकृष्ण कभी भी उनका साथ न देते। कौरवों के पक्ष में युद्ध के समय में जिस कर्ण पर दुर्योधन को सर्वाधिक विजय का विश्वास था, वह कर्ण स्वयं पूजा पाठ करते हुए तथा दान करते हुए भी महान् अधार्मिक था, क्योंकि उसने कौरवों के द्वारा किये जाते हुए अधार्मिक कुकृत्यों का समर्थन ही नहीं, अपितु कौरवों को प्रोत्साहित भी किया था। जब भारत युद्ध के सत्रहवें दिन कर्ण और अर्जुन का निर्णायक द्वन्द्व युद्ध होने लगा तो किसी विकट परिस्थिति में पड़कर स्वयं कर्ण ने धर्म की गाथा गाते हुए अर्जुन से कहा- अर्जुन! तुम धर्मयोद्धा हो, धर्मयुद्ध करने में तुमहारी प्रसिद्धि है, अतः कुछ क्षण रुको। श्रीकृष्ण कर्ण के द्वारा धर्म की बात सुनकर हँसे बिना नहीं रह सके और उन्होंने फटकारते हुए, धिक्कारते हुए, कर्ण से कहा- कर्ण, तुमहारे जैसे अधार्मिक निकृष्ट व्यक्ति को जब मृत्यु सामने उपस्थित हो जाती है तो धर्म स्मरण आता है। जो-जो अधर्म तुमने किये या तुमहारे प्रोत्साहित करने पर कौरवों ने किये, उस समय कभी भी तुमहें धर्म का स्मरण नहीं हुआ। उन्होंने पापमय अधार्मिक उन कार्यों का भी स्मरण कराया जिनको कर्ण नेकिया था और स्मरण कराते हुए कहा कि-
यदा सभायां राजानामनक्षज्ञं युधिष्ठिरम्।
अजैषीच्छकुनिर्ज्ञानात् क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
वनवासे व्यतीते च कर्ण वर्षे त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गतः ।।
यद् भीमसेन सर्पैश्च विषयुक्तैश्च भोजनैः।
आचरत् त्वन्मते राजा क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यद् वारणावते पार्थान् सुप्ताञ्जतुगृहे तदा।
आदीपयस्वं राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदा रजस्वलां कृष्णां दुःशासनवशे स्थिताम्।
सभायां प्राहसः कर्ण क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदनार्यैः पुरा कृष्णां क्लिश्यमानामनागसम्।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
विनष्टाः पाण्डवाः कृष्णो शाश्वतं नरकं गताः।
पतिमन्यं वृणीष्वेति वदंस्त्वं गजगामिनीम्।।
उपप्रेक्षसि राधेय क्व ते धर्मस्तदा गतः।
राज्यलुधः पुनः कर्ण समाव्यथसि पाण्डवान्।
यदा शकुनिमाश्रित्य क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथाः।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गतः।।
(महा.. कर्णपर्व अध्याय-91)
अर्थात् ‘कर्ण! जब कौरव सभा में जुए के खेल का ज्ञान न रखने वाले राजा युधिष्ठिर को शकुनि ने जान-बूझकर छलपूर्वक हराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! वनवास का तेरहवाँ वर्ष बीत जाने पर जब तुमने पाण्डवों का राज्य उन्हें वापस नहीं दिया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब राजा दुर्योधन ने तुमहारी ही सलाह लेकर भीमसेन को जहर मिलाया हुआ अन्न खिलाया और उन्हें सर्पों से डँसवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! उन दिनों वारणावत नगर में लाक्षा भवन के भीतर सोये हुये कुन्तीकुमारों को जब तुमने जलाने का प्रयत्न कराया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! भरी सभा में दुःशासन के वश में पडी हुई रजस्वला द्रौपदी को लक्ष्य करके जब तुमने उपहास किया था, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘राधानन्दन! पहले नीच कौरवों द्वारा क्लेश पाती हुई निरपराध द्रौपदी को जब तुम निकट से देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
(याद है न, तुमने द्रौपदी से कहा था) ‘कृष्ण-पाण्डव नष्ट हो गये हैं, सदा के लिये नरक में पड़ गये। अब तू किसी दूसरे पति का वरण कर ले। जब तुम ऐसी बातें करते हुए गजगामिनी द्रौपदी को निकट से आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे थे, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘कर्ण! फिर राज्य के लोभ में पड़कर तुमने शकुनि की सलाह के अनुसार जब पाण्डवों को दोबारा जुए के लिये बुलवाया, उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
‘जब युद्ध में तुम बहुत-से महारथियों ने मिलकर बालक अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर मार डाला था,उस समय तुमहारा धर्म कहाँ चला गया था?’
व्यास जी ने कहा है- ‘यतो धर्मस्ततो जयः।’ जहाँ धर्म है, वही विजय होती है। श्रीकृष्ण ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म के आधार पर सत्य का पालन किया। उनकी सत्यनिष्ठा का प्रमाण उत्तरा के मृतकल्प पुत्र को पुनः प्राणदान के समय की हुई शपथ से प्रतीत होता है-
नोक्तपूर्व मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन।
न च युद्धात् परावृत्तस्तथा संजीवतामयम्।।
यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणश्च विश्ेाषतः।
अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा।।
यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ।
तथा मृत शिशुरयं जीवतादभिमन्युजः।।
यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहितौ मया।
तेन सत्येन बालोऽयं पुनः संजीवतामयम्।।
(महा.. आश्वमेधिक पर्व अध्याय-70)
अर्थात् ‘मैनें खेल-कूद में भी कभी मिथ्या भाषण नहीं किया है और युद्ध में पीठ नहीं दिखायी है। इस शक्ति के प्रभाव से अभिमन्यु का यही बालक जीवित हो जाये।’
‘यदि धर्म और ब्राह्मण मुझे विशेष प्रिय हों तो अभिमन्यु का यह पुत्र जो पैदा होते ही मर गया था, फिर जीवित हो जाये।’
‘यदि मुझमें सत्य और धर्म की निरन्तर स्थिति बनी रहती हो, तो अभिमन्यु का यह मरा हुआ बालक जी उठे।’
‘मैनें कंस और केशी का धर्म के अनुसार वध किया है, इस सत्य के प्रभाव से यह बालक फिर जीवित हो जाये।’
वेद एवं नीतिकारों ने कहा भी है-
सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः।
ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः।।
(ऋग्.. 10/85/1)
न हि सत्यात् परो धर्मः ।
न हि असत्यात् पातकं महत्।।
श्रीकृष्ण उस सत्य धर्म की रक्षा के लिए दूत बने, सारथी बने, सेवक बने, मित्र बने, सब कुछ बने, किन्तु लक्ष्य एक ही था- धर्म की रक्षा, इसलिए वे यथार्थ में पार्थ के सारथी नहीं, अपितु धर्म के सारथी बने।
– प्रभात आश्रम, मेरठ