अब संक्षेप से दायभागसम्बन्धी विचार किया जाता है। इस विषय में नारदस्मृति का वचन है कि- ‘पिता की वस्तु का पुत्र लोग जो बांट करते हैं, उसको विद्वान् लोगों ने व्यवहार की व्यवस्था का हेतु होने से दायभाग कहा है।’१ दायशब्द एक प्रकार के धनादि वस्तु का नाम है जिस पर न्यायानुकूल किसी अपने सम्बन्धी का स्वत्व (हक) हो। जिस धनादि वस्तु को न्यायपूर्वक जो ले सकता है वह उसी का दाय है और वह पुरुष उस वस्तु के स्वामी का दायाद (वारिस) कहाता है। यहां दायनामक धन केवल रुपये आदि का ही वाचक नहीं है, किन्तु जो कुछ पृथिवी आदि सुखसाधन पितादि का वस्तु है, वह सब दाय ही है इस प्रकार के दाय का विवेचन करके कि (किसको क्या मिलना चाहिये) विभाग करना दायभाग कहाता है। वह दाय दो प्रकार का माना जाता है- चाचा वा नाना आदि के जब कोई निज पुत्र न हो और उनका स्वयं भी शरीर छूटने पर आवे तो उनका धनादि दाय विवाद सहित होता है और पिता वा पितामह का उनके न रहने पर पुत्र वा पौत्रादि को लेने योग्य दाय निर्विवाद माना जाता है। कहीं सविवाद जिसमें किसी प्रकार का झगड़ा है, वह झगड़े से रहित हो जाता और जिसमें झगड़ा नहीं उसमें भी कहीं झगड़ा खड़ा हो जाता है, इसीलिये महर्षि लोगों ने दायभाग के विवेचनार्थ धर्मशास्त्र बनाये और उससे भी बचे हुए का सामयिक न्यायालयों में राजाओं के द्वारा निर्णय होता रहता है।
इस विषय में पूर्वपक्ष यह है कि जो लोग मरे हुए पितरों को पिण्ड देना स्वीकार नहीं करते उनके मत में वह नियोग से उत्पन्न हुआ पुत्र अपने उत्पादक दोनों माता-पिता को पिण्ड देने वाला और दोनों के धनादि का ग्राहक होता है। यहां दोनों का पृथक् से कहने का अभिप्राय यह है कि उन नियुक्त माता-पिता के दो घर होते हैं, जिस विधवा स्त्री का नियोग होता है वह अपने पूर्व पति के घर वा नाम को नहीं छोड़ती इसलिये नियोग से उत्पन्न हुआ सन्तान दोनों घर का धन ले सकता है। यदि नियोगकर्त्ता पुरुष का कोई और पुत्र हो तो नियोगज पुत्र को दाय नहीं मिलेगा। तथा- ‘बारह पुत्रों में से पूर्व-पूर्व के न रहने वा न होने पर पर पुत्र पिण्ड देने वाला होगा।’२ इत्यादि दायभागसम्बन्ध में मरे हुए पितादि को पिण्डदान करने का प्रतिपादन करने वाले याज्ञवल्क्यस्मृति के वाक्य तथा ‘नाना के कोई पुत्र न हो तो उसका और अपने पिता का दोनों का पिण्डदान करे और वही एक सन्तान दोनों अर्थात् अपने पिता का और ननशाल का धन लेवे।’१ इत्यादि मनुस्मृति के वाक्य विरुद्ध पड़ेंगे क्योंकि जिसको पिण्ड देने का अधिकार है वही उसका दायभागी होगा। अथवा जिसका दिया पिण्ड उस पितादि को पहुंच सकता है, वही-वही पिण्डदाता उस-उस का दायभागी हो सकता है।
इस पर यहां समाधान दिया जाता है और श्राद्धविचार के प्रकरण में भी कुछ कहा है कि- पिण्डशब्द ग्रास कौर रोटी वा टुकड़ा का उपलक्षक है। ‘आठ पिण्ड- ग्रास मध्याह्न में खावे।२ कुत्ता पिण्डनाम कौरा देने वाले की सेवा वा उपासना करता है।’३ इत्यादि प्रमाणों के अनुकूल पिण्डशब्द ग्रास वा कौर का वाचक स्पष्ट ही है। जैसे स्त्रियां विवाह के पश्चात् अपने पति से भोजन-वस्त्र पाने की भागिनी होती हैं। यदि कदाचित् पति भोजनादि देकर अपनी स्त्री की रक्षा न करे तो राजा को उचित है कि उसके पति से भोजन-वस्त्र दिलाकर रक्षा करावे और वे स्त्री लोग भी राजदरबार में निवेदनपत्र (अर्जी) देकर वा दिलाकर अपने निर्वाह के लिये उन पुरुषों की शक्ति के अनुसार उनसे भोजन-वस्त्र ले सकती हैं। और कोई-कोई स्त्रियां ऐसा करती भी हैं। वैसे यहां भी जिस-जिस का उस पितादि के साथ जिस-जिस की अपेक्षा निकट सम्बन्ध है उस-उस का साक्षात् वा परम्परा से वह पितादि रक्षक रहा वा है। जिस पितादि ने उन अपने सम्बन्धी पुत्रादि का किसी प्रकार उपकार किया है, उन पुत्रादि पर वृद्धावस्था में पितादि का रक्षा कराने का भार (हक) है। उस समय वे वृद्ध पितादि शरीर और इन्द्रियों के शिथिल हो जाने से धनादि का उपार्जन कर अपने शरीर को भोजन-वस्त्रादि के व्यवहार से ठीक-ठीक रक्षा नहीं कर सकते। इस कारण उस वृद्धावस्था में जिन-जिन पर उन वृद्धों की रक्षा का भार है, उनकी न्यायनुकूल रक्षा न करने पर जो पुत्रादि राज्य की ओर से दण्ड पाने योग्य हैं। अथवा राजा बलपूर्वक जिनके द्वारा उन वृद्ध पितादि की रक्षा करा सकता है वा राजा को न्यायानुसार रक्षा करानी चाहिये, वे-वे पुत्रादि उन पितादि को पिण्डनाम भोजनादि देने के अधिकारी और उनके मरने पर दायभागी अर्थात् सब वस्तु के स्वामी होने के योग्य हैं। क्योंकि वे जीते हुए वृद्ध पितादि को पिण्डनाम भोजनाच्छादनादि देकर रक्षा करने के अधिकारी रहे। लोक में सम्पूर्ण व्यवहार परस्पर के उपकार-प्रत्युपकार से ही चल रहा है। जिसने पहले किसी प्रकार जिसका उपकार किया हो उसको पीछे उसका प्रत्युपकार अवश्य करना चाहिये। और योनिसम्बन्ध में निकटवर्त्ती वा दूरवर्त्ती होने से जितना परस्पर उपकार किया जाता है। उतना अन्य किसी से नहीं हो सकता। जैसे पिता पुत्र को उत्पन्न कर उसका सर्वथा रक्षादि द्वारा महान् उपकार करता है। जब पुत्र समर्थ हो तब उसको वृद्धावस्था पर्यन्त अपने माता-पिता को भोजन-वस्त्रादि द्वारा महान् उपकार करना चाहिये। फिर वही पुत्र अपने पितादि के संचित किये वस्तुओं का पितादि के मरने पर लेने वाला होता है। यदि कदाचित् किसी प्रकार पिण्डनाम भोजनादि से पितादि की रक्षा करने का अवसर वृद्धावस्था में भी न आवे तो भी उन पुत्रादि के पिण्डदाता होने वा कहे जाने में कोई दोष नहीं है। क्योंकि अवसर होने से पिण्ड देने का भार उन पर है जिस कार्य के करने का भार जिस पर है वह चाहे किसी कारण किसी देश वा किसी काल में उस कार्य को न करे वा न कर सके तो सामान्य नियम में बाधा नहीं पड़ सकती। यदि कोई निमित्त न होता तो वह अवश्य वैसा करता। जो नियम सामान्य कर सर्वत्र के लिये होता है उसकी प्रवृत्ति कहीं न होने पर सामान्य कथन की हानि समझना ठीक नहीं है। अब आगे पूर्वोक्त याज्ञवल्क्यादि कि पिण्डदानविषयक श्लोकों को अर्थ करते हैं- ‘जिस कारण नियोग से उत्पन्न हुआ पुत्र अपने माता-पिता दोनों की भोजनादि से रक्षा करने वाला है इसी से वह दोनों का दायाद है।’ यह याज्ञवल्क्यस्मृति का आशय है। बारह पुत्रों में से पहले-पहले के में अगला-अगला पिण्ड देने वाला और दायभागी होता है। जो जिसको पिण्ड देने के लिये अधिकारी है वह उसके वस्तु का ग्रहण करने वाला हो यह न्यायानुकूल की बात है। ‘वही दौहित्र- धेवता अपने नाना और बाप दोनों को दो पिण्ड देवे।’ इस मनु के पूर्वोक्त वचन का आशय यह है कि जब नाना के कोई अन्य अपना निज औरस पुत्र न हो तब वह धेवता ही नाना के लिये वृद्धावस्था में पिण्ड अर्थात् भोजनादि देकर रक्षा करने का उद्योग करे। ऐसा होने पर वही दौहित्र उस नाना का दायाद (हकदार) होगा। अपने पिता के लिये पिण्ड देना और उसका दायाद होना तो सिद्ध को ही दिखाने रूप सिद्धानुवाद है। इसी प्रकार दायभाग में पिण्डदान की चर्चा सब वाक्य इसी उक्त सिद्धान्त के अनुसार व्यवस्थित हो जाते हैं। पिण्डशब्द से पकाये हुए रोटी आदि अन्न का ग्रहण है क्योंकि वृद्धावस्था में पितादि अपने हाथ से पाकादिक भी नहीं कर सकते। यदि कोई कहे कि रसोईयादि से करा लेंगे तो उत्तर यह है कि प्रथम तो रसोईया रखना सबका काम नहीं किन्तु धनी ही रख सकते हैं और धनी भी हों तो रसोईयादि कर्मचारियों से काम लेने और धनादि की रक्षा के लिये कोई पुरुषार्थी मनुष्य होना चाहिये। किन्तु वृद्ध से सब प्रबन्ध नहीं हो सकता। इसलिये उनको बनाया हुआ भोजन प्रीतिपूर्वक वही पुरुष देवे जो उस समय पर अन्यों की अपेक्षा निकटवर्ती सम्बन्ध वाला हो। जिसके ऊपर भोजन-वस्त्रादि देके अशक्त असमर्थ दशा में पितादि की रक्षा करने का भार है, यही पिण्डदान जानो अर्थात् जिनको पितादि की वृद्धावस्था में पिण्ड नाम भोजनादि देना चाहिये वे ही पुत्रादि पिण्डदाता हैं, उन्हीं का पिण्ड पितादि को पहुंच सकता और पितादि का उन पर पिण्ड लेने का दाय नाम हक है इसी कारण उनके मरने पर वे ही पिण्डदाता पुत्रादि उनके पदार्थों के दायभागी होने चाहियें। यह मनु आदि का सिद्धान्त पक्ष है।