अब दानधर्म का संक्षेप से विवेचन किया जाता है। यद्यपि इस दानधर्म विषय में विशेषता से इसलिये कुछ वक्तव्य नहीं है कि इस चतुर्थ अध्याय में सब विषय स्पष्ट कर कहा है। और भाष्य में और भी स्पष्ट हो जायेगा। तो भी संक्षेप से दान का सिद्धान्त कहा जाता है। इस चौथे अध्याय में छियासीवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त दान का ही विवेचन किया है। दानधर्म में पांच अवयवों की मुख्यकर परीक्षा करनी चाहिये। दान देने तथा लेने वाला, जिस वस्तु का दान दिया जाय और वह तीसरा, चौथा दान का समय और पांचवें दान का देश कि किस प्रान्त में दान करना उपयोगी वा अनुपयोगी है। कैसे दाता को दान देना चाहिये, किसको दान देने का अधिकार है, और दान लेने वाला कैसा हो इत्यादि प्रकार से दाता को उचित-अनुचित का विचार कर दान करना चाहिये। वही सम्यक् उत्तम दान है। गुणों के तीन भेद होने से दान भी तीन प्रकार का है सो भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदादि शास्त्रों में दान देना लिखा है इस कारण शास्त्र की आज्ञानुसार दान देना चाहिये, किन्तु यह न विचारा जाये कि इससे मुझको फल मिलेगा वा नहीं किन्तु निष्कारण अपना कर्त्तव्य समझकर जो दान ऐसे पुरुष को दिया जाता है जिससे अपना कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होता। तथा जिस दान में देने योग्य देश-काल और सुपात्र का विचार कर लिया जावे, वह दान सात्त्विक अर्थात् सत्त्व गुण सम्बन्धी होने से सर्वोत्तम है।’१ ‘और जो प्रत्युपकार होने के लिये कि जिसको हम दान देते हैं उससे हमारा अमुक काम निकलेगा वा मुझको इस दान से अमुक फल मिलेगा इसलिये दान देना चाहिये। इस प्रकार किसी प्रकार के दबाव, परवशता वा लोकलज्जादि के कारण अपने पर भार समझकर दिया जाता है, वह दान रजोगुण सम्बन्धी मध्यम समझा जाता है।’२ ‘तथा जो देश-काल का विचार न करके वा विरुद्ध देश-काल में (कि जहां दान करने से उलटा फल होना सम्भव है) कुपात्रों को दान दिया जाता है कि जिसमें दान लेने वाले का अनादर वा अपमान भी हो वह तमोगुण सम्बन्धी सबसे नीच है।’३ इस उक्त रीति से तीन प्रकार का दान है। उसमें सत्त्वगुण सम्बन्धी सबसे श्रेष्ठ दान है। उसी का आचरण वा सेवन सज्जनों को करना चाहिये, यही सिद्धान्त है। ‘न करने से कुछ करना भी अच्छा है’१ इस जनश्रुति- कहावत के अनुसार जो लोग किसी प्रकार कुछ भी दान नहीं देते उनकी अपेक्षा मध्यम, निकृष्ट दानों के सेवन करने अर्थात् मध्यम वा निकृष्ट प्रकार से दान देने वाले भी उत्तम ही हैं। तो भी धर्मशास्त्र में सत्त्वगुण सम्बन्धी दान का विधान किया है, किन्तु रजोगुण, तमोगुण सम्बन्धी का नहीं, यही सिद्धान्त है। यद्यपि यह पूर्वोक्त सिद्धान्त ठीक है तो भी जहां दान लेने वाला अधिकता से अधर्मी है कि वह दाता के दिये वस्तु को लेकर उसी के आश्रय से अधर्म करता है तो वहां धर्मानुकूल संचित किये धन का दान भी अनर्थकारी अर्थात् पुण्य के बदले पाप कराने वाला होता है। सो मनुस्मृति के इसी अध्याय में कहा है कि- ‘बैडालव्रतिक अर्थात् मूषक को पकड़ने के लिये बिलाई कीसी दृष्टि रखने वाला कि अवसर पाकर झट दूसरे के माल को मार लेवे इत्यादि दुर्गुणयुक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों को धर्मानुकूल उपार्जन किये धन का भी दान दाता के लिये पाप का हेतु होता है। और जन्मान्तर में दान का लेने वाला भी पापभागी होता है।’२ ‘जैसे पत्थर की नौका पर चढ़के जल में तरने वाला पत्थर के साथ ही डूब जाता है, वैसे ही उस दान के सहित दुष्ट को दान देने वाला और दान लेने वाला दोनों दुःखसागर में डूबते हैं।’३ इस उक्त लेख से सिद्ध हुआ कि रजोगुण, तमोगुण सम्बन्धी दान भी अधर्मी को नहीं देना चाहिये।
इस दानधर्म के प्रसग् में दाता प्रशस्त कोटि में और दान लेने वाला निकृष्ट कोटिस्थ समझा जाता है। इसी कारण जो पुरुष जिस दाता से दान लेता है, वह उसके सामने लज्जित, शटित वा दबा हुआ रहता है। यदि दान लेना नीच काम न होता तो लज्जा वा शटा भी न होती। इसीलिये इस मानव धर्मशास्त्र में कहा है कि- ‘दान लेना अच्छा नहीं’४ तथा ‘दान लेने में समर्थ अर्थात् विद्वान् वा धर्मात्मा दान लेने का अधिकारी होकर भी दान लेने का प्रसग् न आने देवे क्योंकि दान लेने से विद्वान् का विद्या सम्बन्धी तेज घट जाता है।’५ ऐसा विचार कर विद्वान् ब्राह्मण को भी दान लेने की इच्छा न रखनी चाहिये। दान लेने की रुचि वा इच्छा रखने वाला विद्वान् ठीक धर्मात्मा कभी नहीं रह सकता, इसीलिये इसका निषेध है। परन्तु दाता को सदा ही दान देने की रुचि रखनी चाहिए अर्थात् दाता का यही मुख्य धर्म है कि वह सुपात्रों को दान देने की सदा इच्छा बढ़ाता रहे और दान लेने वाले सदा बचते रहें। ऐसा होने पर ही धर्मशास्त्रों की ठीक व्यवस्था हो सकती है। जिस देश और काल में धर्मशास्त्रों के अनुकूल दानधर्म की सम्यक् प्रवृत्ति होती है, वह देश उन्नति को प्राप्त हुआ, ऐसा कहा जाता है। और जिस देश में ऐसा नहीं होता, वहां अवनति ही बनी रहती है। सो कहा भी है कि- ‘जहां अपूज्य वा अयोग्यों की पूजा वा सत्कार होता, और योग्य विद्वानों का सत्कार नहीं होता उस देश की दुर्दशा ही होती है।’१ इसलिये सबको सब समय में शास्त्र के अनुकूल ही दान- धर्म का सेवन करना चाहिये।
इस दानधर्म विषय में तात्पर्य यह है कि जिस कर्म में व्यय किये बिना अपने सुख और विद्यादि का प्रचार न होने से अन्य सर्वसाधारण मनुष्यों की हानि होती है, उस-उस विद्या वा धर्मादि का प्रचार कराने वाले कर्म में व्यय करना मुख्यकर दान ही है। वैसे उक्त कामों में व्यय न करके जिस काम में व्यय करना निष्फल है अथवा जहां विरुद्ध फल देने वाला है, वहां का व्यय करना हानि वा देश का अवनतिकारक होता है। और जो जगत् के उपकारक विद्वान् लोग हैं उनके निर्वाहार्थ भी धनादि वस्तु देने चाहिएं, जिससे उन लोगों का समय अपने निर्वाह की चिन्ता में न जावे किन्तु वे लोग दिनरात जगत् के उपकार की चिन्ता में ही लगे रहें। और जो अनाथ वा अशक्त मनुष्य हैं उनका अन्नादि दान से भरण-पोषण करना दानधर्म ही है। जिस वस्तु के बिना जिस काल में धर्म की हानि प्रतीत होती है उस वस्तु का उस समय देना ही बड़ा कल्याणकारी है। तथा विद्यादान सब दानों में उत्तम है। अन्य दानधर्म यथाकाल वा यथायोग्य उत्तम, मध्यम समझे जाते हैं।
यदि किसी प्रकार विद्वान् धर्मात्मा लोगों का दान लिये बिना कार्य नहीं चलता वा लेना अवश्य पड़ता है तो जिनके यहां अधर्म वा अनेकों को पीड़ा पहुँचाकर धन आता हो वा जो अत्यन्त नीच प्रकृति वाले लोग हों उनसे दान न लेवें क्योंकि ऐसों से लेना पाप है। परन्तु दुष्ट, नीचप्रकृति, अधर्मी और कुटिलों से भी धन लेकर अपने उपयोग में न लगावे और सर्वसाधारण के उपयोगी यज्ञादि काम में लगा देवे तो दान लेने वाले को पाप नहीं किन्तु पुण्य ही है।
और कर्मकाण्ड कराने अर्थात् विवाह-यज्ञोपवीतादि संस्कार कराने वाले को जो दक्षिणा दी जाती है, वह दान के अन्तर्गत नहीं गिनी जायेगी क्योंकि वह परिश्रम का बदला [मेहनताना] है, उसका लेने वाला भी वैसा निकृष्ट नहीं समझा जाता किन्तु दान वही है जिससे अपना कुछ भी उपकार न हुआ हो, उसको धर्मबुद्धि से दिया जावे। धर्म के सब अंशों में दानधर्म प्रधान अवयव है। श्रीमानों को तो प्रतिदिन निस्सन्देह दानधर्म का सेवन करना चाहिये क्योंकि वे लोग शरीर से धर्म का सेवन नहीं कर सकते अर्थात् धनी लोग प्रायः सुकुमार होते और धन के लेन-देन आदि व्यापार में उनका चित्त बंधा रहता है। ऐसा मानकर ही महाभारत के उद्योगपर्व में कहा है कि- ‘दो पुरुषों को गले में पत्थर की शिला बांधकर जल में डुबा देना चाहिये, एक तो धनी होकर जो दान नहीं करता, द्वितीय दरिद्र होकर जो शरीर से तप नहीं करता।’१ जन्मान्तर में दानधर्म का जो फल है वह तो है ही किन्तु प्रत्यक्ष दशा में भी दान का बड़ा फल है। प्रायः जो दानधर्म का सेवन करने वाला है, उस पुरुष के जगत् में शत्रु नहीं होते, किन्तु मित्र सदा बढ़ते हैं। और दान करते हुए मनुष्य का सदा उत्साह बढ़ता, चित्त प्रसन्न वा सन्तुष्ट होता है, और चित्त के प्रसन्न होने से सब दुःखों का विनाश और सब सुखों की प्राप्ति होती है। इससे धर्मशास्त्र के अनुकूल सबको दान का सेवन करना चाहिये। भाष्य में विशेष व्याख्यान होगा, वहीं देखना चाहिये। तथा वहीं दान के अनधिकारी भी गिनाये जायेंगे।