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कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

।। ओ३म ।।

अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा।
हव्यवावाड्जुह्वास्यः।।

(ऋग्वेद 1.12.6)

प्रथमाश्रम में अपने में ज्ञान को समिद्ध करते हुए हम द्वितीयाश्रम में उत्तम गृहपति बने। वानप्रस्थ बनकर यज्ञो का वहन करते हुए तुरियाश्रम में ज्ञान का प्रसार करने वाले बने।

नमस्ते मित्रो – आज का विषय

कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

वेदो में प्रयुक्त कवि शब्द एक अलंकार है – किसी प्राणी का नाम नहीं, क्योंकि विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों के दृष्टा, को कवि कहते हैं – इस कारण ये अलंकार ऋषियों के लिए भी प्रयुक्त होता है और समस्त विद्या (वेदो का ज्ञान) देने वाला ईश्वर भी अलंकार रूप से कवि नाम पुकारा जा सकता है।

क्योंकि ये एक अलंकार है इससे किसी व्यक्ति प्राणी का नाम समझना एक भूल है – विसंगति है – मगर बहुत से रामपालिये चेले चपाटे अपनी मूर्खता में ये काम करने से भी बाज़ नहीं आते उन्हें कुछ शास्त्रोक्त प्रमाण दिए जाते हैं –

कवि शब्द की व्युत्पत्ति : कविः शब्द ‘कु-शब्दे’ (अदादि) धातु से ‘अच इ:’ (उणादि 4.139) सूत्र से ‘इ:’ प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी निरुक्ति है :

‘क्रांतदर्शनाः क्रांतप्रज्ञा वा विद्वांसः (ऋ० द० ऋ० भू०)

“कविः क्रांतदर्शनो भवति” (निरुक्त 12.13)

इस प्रकार विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों का दृष्टा, बहुश्रुत ऋषि व्यक्ति कवि होता है।

इसे “अनुचान” भी इस प्रसंग में कहा है [2.129] ब्राह्मणो में भी कवि के इस अर्थ पर प्रकाश डाला है –

“ये वा अनूचानास्ते कवयः” (ऐ० 2.2)

“एते वै काव्यो यदृश्यः” (श० 1.4.2.8)

“ये विद्वांसस्ते कवयः” (7.2.2.4)

शुश्रुवांसो वै कवयः (तै० 3.2.2.3)

अतः इन प्रमाणों से सिद्ध हुआ की वेदो में प्रयुक्त “कवि” शब्द एक अलंकार है – जहाँ जहाँ भी जिस जिस वेद मन्त्र में कवि शब्द प्रयुक्त हुआ है उसका अर्थ अलंकार से ही लेना उचित होगा, बाकी मूढ़ लोगो को बुद्धि तो खुद “कबीर” भी ना दे पाये देखिये कबीर ने अपने ग्रंथो में क्या लिखा है :

कबीर जी परमात्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। कबीर जी के कुछ वचन देखे :

स्वयं संत कबीर दास जी ने भी ईश्वर को सर्वव्यापक माना है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 855)

कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
सरब बिआपी = सर्वव्यापी
कबीर जी कह रहे हैं की हे मेरे परमात्मा तू सर्वव्यापी है।

तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी॥

तुम्हारे सामान कोई दयालु नहीं है, और मेरे सामान कोई पापी नहीं है।

कबीर जी ब्रह्म का अर्थ परमात्मा लेते है काल नहीं
कबीरा मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥ (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 1373)

ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥

सभी की उत्पत्ति ब्रह्म अर्थात ईश्वर से होती है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 324)

अब जब कबीर जी भी ईश्वर अर्थात ब्रह्म से सभी की उत्पत्ति मानते हैं ऐसा लिखते भी हैं तब ये रामपाल और उसके चेले कबीर जैसे संत की वाणी को झूठा क्यों सिद्ध करते फिरते हैं की कबीर परमात्मा हैं ?

क्या ये धूर्तता और ढोंग पाखंड नहीं ?

क्या कबीर जैसे संत की वाणी को दूषित करना और संत कबीर को ईश्वर कहना क्या संत कबीर के शब्दों और दोहो का अपमान नहीं ?

आशा है सभ्य समाज इस लेख के माध्यम से रामपालिये और उसके चेलो के पाखंड का विरोध करेंगे और बुद्धिमान व्यक्ति इस पोस्ट के माध्यम से अपने विचार रखेंगे।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

स्तुता मया वरदा वेदमाता-११

येन देवा न वियन्ति नो च विद्वषते मिथः।

तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।

अथर्व. ३.३०.४

मन्त्र में घर के बढ़ाने की बात है। यहाँ इसके लिए ब्रह्म शब्द  कर प्रयोग किया गया है। ब्रह्म शब्द ईश्वर का भी वाचक है, क्योंकि वह सबसे बड़ा है। इसी प्रकार ज्ञान को भी ब्रह्म कहा जाता है। जो ज्ञान में सबसे बढ़कर है, उसे ब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण संसार के प्रारम्भ में जो सबसे ज्ञानी पुरुष हुआ, उसका भी नाम ब्रह्मा है। इसके लिए उपनिषद् में कहा गया है, ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव। देवताओं में प्रथम ब्रह्मा हुआ। आज भी यज्ञ आदि कर्मों में जो अधिक जानकार होता है, उसे ही हम अपना मार्गदर्शक चुनते हैं। उसे ब्रह्मा बनाते हैं।

मन्त्र में घर को भी बड़ा बनाने की बात की गई है। मन्त्र कहता है- मैं तुम्हारे घर को बड़ा बनाना चाहता हूँ। घर बड़ा होता है, समृद्धि से। घर को समृद्ध करने का उपाय इस मन्त्र में बताया गया है। उपाय क्या हो सकता है? उपाय है संज्ञानम्। संज्ञान का शास्त्रीय अर्थ ज्ञान है, चेतना है। हम इसे सामान्य भाषा में कहें तो समझ कह सकते हैं। घर को बड़ा बनाने के लिए, सम्पन्न या समृद्ध बनाने के लिए घर में रहने वाले सदस्यों को समझदार बनना होगा। सभी सदस्य समझदार होंगे, तभी घर परिवार समृद्ध होगा। घर में सबका समझदार होना आवश्यक है। एक भी नासमझ व्यक्ति घर की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। घर में सबकी समझदारी से ही व्यवस्था बनी रह सकती है। आजकल समझदार का अर्थ चालाक या स्वार्थी भी हो जाता है। लोग कहते हैं- यह व्यक्ति बड़ा समझदार है, उसे अपना काम बनाना आता है। ऐसे शब्द श्रेष्ठ अर्थ को नहीं देते, इसलिये दुनियादार, समझदार, व्यावहारिक आदि शब्द सदा उचित और श्रेष्ठ अर्थ में ही प्रयोग में नहीं आते, परन्तु वेद में इस समझदारी की कसौटी भी दी है। वेद कहता है- समझदार देव होते हैं। मनुष्यों को समझदार बनने के लिए देवों के गुण अपने में धारण करने होंगे। देवों का देवत्व जिन गुणों से आता है, उसे देवों के कर्म से समझा जा सकता है। देवों का एक पर्यायवाची शब्द है- अनिमेष। ऐसा माना जाता है कि देवता लोग कभी पलक नहीं झपकाते। क्यों नहीं झपकाते, इसे समझाने के लिये पुराण में कथा आती है। देवताओं ने और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया। जो पहले मिला वह असुरों ने लिया, जो बाद में मिला वह देवताओं ने लिया। पहले मिलने वाली वस्तुओं में विष था, जिसे बाँटने के लिए कोई तैयार ही नहीं था, जो शिव के कण्ठ का अलंकरण बन गया। अन्त में अमृत का कलश निकला, जिस पर देवताओं ने अधिकार कर लिया। इसी अमृत के कारण देवता अमरता को प्राप्त हुए। असुर इस अमृत को पाने के लिए सतत संघर्षरत हैं, इस कारण देवताओं को अमृत की रक्षा के लिए सतत् जागना पड़ता है। वे इतने सावधान हैं कि पलक भी नहीं झपकाते। पलक झपकने की असावधानी भी उनसे अमृत कलश के छीने जाने का कारण बन सकती है। देवताओं के पास अमृत ही नहीं रहा तो देवत्व कैसे रहेगा? संस्कार विधि में बालक की दीर्घायु की कामना करते हुए जो मन्त्र पढ़े गये हैं, उनमें एक मन्त्र में कहा गया है- देवताओं की दीर्घायु का कारण अमृत है। उनके पास अमृत है, इसलिए वे दीर्घजीवी हैं- देवा आयुष्मन्तः ते अमृतेनायुष्मन्तः। अतः देव दीर्घजीवी अमृत से हैं। इसका अभिप्राय है कि जो मनुष्य समृद्ध होना चाहता है, उसे सावधान रहना होगा। सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है।

विवाह संस्कार में सप्तपदी कराते हुए चौथे कदम को मयोभवाय चतुष्पदी भव कहा है। यहाँ यह तो कह दिया, परन्तु कोई वस्तु नहीं बताई। अन्न के लिये पहला कदम, बल के लिये दूसरा, समृद्धि के लिये तीसरा, वैसे ही सुख के लिए चौथा। अब समझने की बात है कि समृद्धि के लिये जब तीसरा कदम कह दिया था तो चौथा कदम सुख के लिये कहने की क्या आवश्यकता थी? इससे पहले अन्न, बल और धन प्राप्त करने की बात कह चुका है, फिर पृथक् से सुख के लिये प्रयास करने की आवश्यकता कहाँ पड़ती है? परन्तु पृथक् कहने का अभिप्राय है, इन सब साधनों के होने के बाद भी घर-परिवार में सुख हो, यह आवश्यक नहीं है। भौतिक साधनों का अभाव कष्ट देता है, परन्तु वे मुख्य रूप से शरीर तक ही सीमित रहते हैं। उन कष्टों के रहते हुए भी मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु साधनों के रहते सुख का होना आवश्यक नहीं। सुख मानसिक परिस्थिति है, जबकि सुविधा शारीरिक वस्तु के अभाव में शारीरिक श्रम बढ़ जाता है, इतना ही है। सुख पाने के लिए मनुष्य के मन में देवत्व के भाव जगाना आवश्यक है, अतः मन्त्र में देवत्व के बाधक भावों को दूर करने के लिए कहा गया है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-१०

मन्त्र में एक वाक्य आया है- वाचं वदतं भद्रया-वाणी सभी बोलते हैं, वाणी के प्रयोग दोनों हो सकते हैं। हानि के, लाभ के, मृदु के, कठोर के, सत्य के, असत्य के। कोयल की भाँति सभी की वाणी मीठी होती, सब एक-दूसरे के साथ मधुर वाणी का व्यवहार करते तो किसी को यह कहने की आवश्यकता ही नहीं होती कि मधुर वाणी बोलनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो अच्छा नहीं होता, क्योंकि तब मेरा कोई अधिकार ही नहीं होता, मुझे मेरी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर ही नहीं मिलता, विवेक की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। कोई दूसरे से अलग नहीं होता, कोई किसी से अच्छा तो किसी से बुरा भी नहीं होता। इस परिस्थिति में मेरे होने का अर्थ ही क्या होता? मेरी सत्ता  मेरे अधिकार से प्रकट होती है, मेरा अधिकार मेरे अस्तित्व का प्रकाशक है।

जितना मुझे अच्छा करने का अधिकार है, उतना ही मुझे बुरा करने का अधिकार भी है। उसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता, इसी कारण उनके फल को भी मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता। यही कारण है कि मुझे मेरे कर्म का फल मिलता है, क्योंकि वे मेरे हैं, चाहे वे अच्छे हैं, चाहे वे बुरे। इसीलिए उपदेश देने की आवश्यकता पड़ती है। उपदेश से मेरे विवेक पर प्रभाव पड़ता है, मैं अपने विचार को बदल सकता हूँ। इसी प्रक्रिया को संकल्प- विकल्प कहा गया है। जब मनुष्य सोचता है कि मैं यह करूँगा तो मुझे लाभ होगा। मैं सोचता हूँ- मैं ऐसा करूँगा तो मेरी हानि होगी, मैं ऐसा नहीं करूँगा। यह मेरी दशा, मेरे निर्णय की भूमिका है। मैं निश्चय कर लेता हूँ, तब वह मेरा निर्णय होता है, उसका फल अच्छा या बुरा मेरा ही होता है।

वाणी भी मेरी है, मैं इसका अच्छा या बुरा कैसा भी उपयोग कर सकता हूँ। जब अच्छा उपयोग करता हूँ तो मुझे अच्छा फल मिलता है, बुरा उपयोग करता हूँ तो बुरा फल मिलता है। मुझे मेरी वाणी के अच्छे-बुरे का ज्ञान होना चाहिए। वेद कहता है- लाभ के लिए, पुण्य के लिये भद्र वाणी का प्रयोग करना चाहिए। भद्र का अर्थ शरीर के लिए, वर्तमान में लाभप्रद और मन, बुद्धि, आत्मा के लिए शान्तिप्रद होना है। यदि ऐसा नहीं तो केवल मधुर वाणी से भी कार्य चल सकता था। हम समझते हैं कि मीठा बोलना ही पर्याप्त है पर केवल मीठा नहीं, वह परिणाम में भी लाभप्रद होना चाहिए। इस मन्त्र भाग में बोलने वालों के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है, अर्थात् परिवार में सभी सदस्यों को एक-दूसरे के साथ कल्याण कारिणी वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी का प्रभाव ही व्यवहार को प्रभावित करता है। मनुष्य आदर से बोलता है तो उसे प्रत्युत्तर  में अनुकूल ही उत्तर  प्राप्त होता है। यदि कठोरता से, असभ्यता से बोलता है तो निकटस्थ व्यक्ति भी अपमान का अनुभव करता है।

वाणी के सम्बन्ध में महाभारत में एक शिक्षाप्रद प्रसंग आया है। युधिष्ठिर युद्ध भूमि में घायल होकर शिविर में चिकित्सा के लिये उपस्थित हुए हैं। अर्जुन को बड़े भाई के घायल होने का समाचार मिलता है, वह तत्काल युद्ध छोड़ भाई को देखने शिविर में पहुँचता है। युधिष्ठिर ने पूछा- क्या युद्ध जीत लिया? अर्जुन ने कहा- नहीं। युधिष्ठिर ने अर्जुन के गाण्डिव को धिक्कार कह दिया। अर्जुन को क्रोध आया, उसने अपने बड़े भाई को मारने के लिए तलवार उठा ली। अर्जुन ने कहा- मेरी प्रतिज्ञा है कि जो गाण्डिव को धिक्कारेगा, उसके प्राण हरण करूँगा। श्री कृष्ण ने समझाया- मारना केवल तलवार से नहीं होता, बड़े भाई को ‘तू’ कह दे तो भी वह मर जायेगा। अर्जुन ने कह तो दिया, परन्तु फिर सोचने लगा कि उसने बड़े भाई का अपमान किया है। उसने कहा- अब इस अपराध के लिए मैं मरूँगा। श्री कृष्ण ने कहा- क्यों मरते हो? मरना भी कई प्रकार का होता है। मनुष्य के लिए आत्म-प्रशंसा भी मरने के समान है, तुम अपनी प्रशंसा स्वयं करो, मर जाओगे। मनुष्य वाणी से ही मरता है और वाणी से जीवन पाता है, अतः वेद ने कल्याणकारिणी वाणी के प्रयोग करने का आदेश दिया है।

 

स्तुता मया वरदा वेदमाता-९

सांमनस्य सूक्त के दूसरे मन्त्र में प्रथमशब्द  था-अनुव्रत, जिसका अभिप्राय सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना है। इस मन्त्र में घर की सुख-शान्ति के लिए परिवार के सभी सदस्यों का सहज होना आवश्यक है। जहाँ सन्तान का पिता के अनुकूल आचरण वाला होना कहा है, वहीं पर सन्तान के माता के साथ कैसा व्यवहार हो, इसके लिये कहा गया है- माता भवतु संमना अर्थात् सन्तान का मन भी माता के अनुसार होना चाहिए। सन्तान के व्यवहार होना कहा गया है। यहाँ शंका हो सकती है कि माता-पिता का व्यवहार क्यों नहीं सन्तान के अनुकूल होना चाहिए? इसका उत्तर  है- सामान्य रूप से माता-पिता का व्यवहार सन्तान के साथ प्रेमयुक्त और हितकारी होता ही है। व्यवहार के बनने-बिगड़ने की सम्भावना तो सन्तान के व्यवहार की है। घर में सन्तान के मन में यह भाव रहना आवश्यक है कि उनके माता-पिता, उनसे प्रेम करते हैं और उनका भला चाहते हैं। घर में बच्चों का मन अपने बड़े-छोटे भाई-बहनों के साथ होने वाले व्यवहार से प्रभावित होता रहता है। माता-पिता कभी छोटों को अधिक स्नेह करते दीखते हैं, तो कभी बड़ों को अधिक मह      व देते हैं। इससे साथ के बच्चों में प्रतिकूल प्रभाव होने की सम्भावना सदा ही बनी रहती है, यही अतः सन्तानों का माता-पिता से और परस्पर सम्बन्ध ठीक बना रहे, यही इस मन्त्र का विशेष भाव है।

बच्चों के व्यवहार के सामान्य बने रहने का एक मह     वपूर्ण बिन्दु है-पति-पत्नी के मध्य का व्यवहार। यही बच्चों के लिए आदर्श भी होता है और प्रेरक भी। माता-पिता जैसे परस्पर बोलते, व्यवहार करते हैं, वैसा ही बच्चे करते हैं, इसलिए मन्त्र में कहा गया है- जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु। अर्थात् पत्नी मधुर वाणी का व्यवहार करे। यदि परस्पर व्यवहार की भाषा कठोर होगी तो बच्चे भी वैसा ही सीखेंगे।

एक बार दिल्ली के बस अड्डे पर एक व्यक्ति अपना सामान एक बस से उतार कर दूसरी बस में ले जाना चाहता था। वह पहले कुछ सामान और अपनी तीन-चार साल की बच्ची को सामान के पास खड़ी कर पुनः शेष सामान व पत्नी को लेने बस की ओर बढ़ा, तो बच्ची ने अपनी बात कहते हुए पिता से कहा- पापा आपमें तो अक्ल ही नहीं है! यह बात इतने ऊँचे स्वर से कही गई थी कि पास खड़े यात्रियों का ध्यान उस पिता-पुत्री की ओर जाना स्वाभाविक था। बच्ची के पिता ने कुछ लज्जा का अनुभव करते हुए बच्ची को डाँटना चाहा तो मैंने उस व्यक्ति से कहा- भाई साहब, यह दोष बच्ची का नहीं है। आपकी पत्नी, आपको इतने मधुर सम्बोधन से पुकारती होगी, वही तो बच्ची कर रही है। आप उसे व्यर्थ ही डाँट रहे हैं। इसलिए बच्चों पर अच्छा प्रभाव डालने के लिए घर के वातावरण का अच्छा होना आवश्यक है।

मन्त्र में पत्नी को मधुमतीं वाचम्– मधुर वाणी बोलने के लिये कहा गया है, वहीं ऋषि दयानन्द संस्कार विधि के गृहाश्रम प्रकरण में इस मन्त्र का अर्थ करते हुए शान्तिवान् का अर्थ करते हैं- पति को भी पत्नी की बात शान्त भाव से सुननी चाहिए। सामान्य रूप से घर में एक ही बात बहुत बार कही-सुनी जाती है, इस कारण सुनने वाले को उससे आक्रोश आने लगता है। आक्रोश से सामने वाला भी आक्रोश में आ जाता है। जब कोई काम पत्नी या बच्चों के द्वारा बार-बार किया जाता है और घर के स्वामी को वह पसन्द नहीं है, तब आक्रोश, क्रोध, तनाव की स्थिति बनती जाती है।

घर में बच्चे भी अपने बारे में बार-बार टिप्पणियाँ सुनना पसन्द नहीं करते। माता-पिता इस बात पर ध्यान नहीं देते और बच्चों में प्रतिक्रिया होने लगती है। बच्चे या तो ऐसे माता-पिता से भयभीत होने लगते हैं, उनसे बचते हैं, उनसे संवाद स्थापित नहीं करना चाहते अथवा धृष्टता से उस कार्य को बार-बार करना चाहते हैं। ये दोनों ही परिस्थितियाँ घर के वातावरण को तनावपूर्ण बनाने के कारण बनती हैं। विशेष कर बच्चे अपने साथी या अतिथि के सामने डाँट या टिप्पणी सुनना नहीं चाहते। माता-पिता कि इस बात पर बच्चों के मन में कुण्ठा बनने लगती है, अतः घरेलू परिस्थितियों को सहज सामान्य रखने की नितान्त आवश्यकता है। वेद जहाँ पत्नी के लिए मधुर वाणी बोलने की बात करता है, वहीं पति को पत्नी की बात शान्तिपूर्वक सुनने का निर्देश करता है।

विवाह संस्कार में भी घर के वातावरण को अच्छा रखने के लिए सुनने का निर्देश दिया गया है- मम वाचं एकमना जुषस्व। यह मन्त्र दोनों द्वारा बोला जाता है। दोनों परस्पर कह रहे हैं- तुम मेरी बात को एकाग्र मन से सुनो। एकाग्रता से सुनने पर बात समझ में आती है, देर तक स्मरण रहती है और बात करने वाले के मन में सन्तुष्टि भी होती है, अतः मन्त्र में सन्तान को माता-पिता के अनुकूल आचरण वाला, पति-पत्नी को एक दूसरे की बात को शान्ति से सुनने वाला और मधुर वाणी बोलने वाला बनने के लिए कहा गया है।

सत्पात्र बन सकूँ- रामनिवास गुणग्राहक

ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्नासुव ।।
भावार्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्ति कत्र्ता समग्र ऐश्वर्य युक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हंै, वह सब हमें प्राप्त कराइये । (ऋषि भाष्य)
यह मंत्र ऋषि दयानंद को बहुत प्रिय था, यजुर्वेद का भाष्य करते समय ऋषिवर ने इसे प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में आवश्यक रूप से लिखा है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का प्रारम्भ भी इसी मंत्र के साथ किया है । स्तुति प्रार्थनोपासना के मंत्रों का शब्दार्थ करते समय महर्षि दयानन्द ने बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग किया है । भाषा सरल होने के साथ-साथ बड़ी रोचक, प्रवाहपूर्ण एवं मंत्र के अर्थ को स्पष्ट कर देने वाली है । स्तुति प्रार्थनोपासना के इन आठ मंत्रों पर कई आर्य विद्वानों ने कलम उठाई है, उनमें से कुछ एक के विचारों को मैंने पढ़ा है । मैं जब दैनिक यज्ञ समाज में या कभी घर में करता हूँ तो सदैव ऋषिवर के अर्थ सहित मंत्र पाठ करता हूँ । पाठ करते समय औपचारिकता निभाना मुझे कभी ठीक नहीं लगा, मैं महर्षि पतंजलि के ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ के पालन करने का प्रयास करता हूँ । ऐसा करते समय कई बार मेरे मन में आया कि महर्षि ने इन मंत्रों का जो अर्थ किया है, उस ऋषि के अर्थ को ऋषि की भावना के अनुरूप थोड़ा भाव-विस्तारपूर्वक लिखा जाए ताकि भक्त हृदय आर्य जन उसका पूरा आनन्द ले सकें । मैं अपनी इस सदिच्छा को लम्बे समय से टालता आ रहा था, लेकिन आज (4-1-2015) मेरे हृदय ने कहा कि किसी अच्छे विचार को कार्यरूप देने क¢ समय बहानेबाजी करना ऐसा दोष है जो अपराध की कोटि में रखा जाता है । यह हमारे स्वभाव का पतनशील अंग है, जनहित की भावना को निर्बल बनाता है। मनुष्य को पुण्यों की पूँजी से वंचित करता है । हृदय में उठने वाले हर प्रकार के सद्भावों का पल्लवन उनके क्रियान्वयन पर टिका होता है । सद्भाव-सद्विचार व सद्गुण को व्यवहार के रास्ते विस्तृत धरातल पर विचरने की स्वतन्त्रता नहीं मिलती, जब वो व्यवहार मंे प्रकट होने के लिए हृदय में प्रतीक्षा करते-करते थक जाते हैं, व्याकुल हो जाते हैं, उनका दम घुटता है तो वे निर्बल और निर्जीव होकर निढ़ाल हो जाते हैं । व्यवहार में व्यक्त होने क¢ लिए व्याकुल सद्भाव, सद्विचार व सद्गुण हमारी उपेक्षा व अनदेखी का शिकार होकर अन्दर ही दम तोड़ दें तो हमारा हृदय दुर्भावों, दुर्विचारों व दुर्गुणों क¢ फूलने-फलने का उपजाऊ खेत बनकर रह जाता है और हम न चाहते हुए भी पतन क¢ गर्त में गिरने लगते हंै । सुख-शान्ति, समृद्धि चाहने वालों का पहला कत्र्तव्य है कि वे अपने हृदय में उठने वाले सद्भाव, सद्विचार, सत्संकल्प एवं सद्गुण को व्यवहार का रूप देकर अपने स्वभाव का जीवन्त अंग बनाने में आलस्य प्रदान न करें । ध्यान रहे जो व्यक्ति अपने स्वयं क¢ हृदय में उठने वाले सद्विचारों, सद्भावों व सत्संकल्प का सम्मान नहीं कर सकता, वह जगत् व्यवहार में किसी दूसरे क¢ मानवीय सद्गुणों व सत्कर्माें क¢ साथ कभी भी न्याय नहीं कर सकेगा । मुझे मेरी अच्छाई नहीं सुहाती तो किसी दूसरे की अच्छाई क्यों सुहाएगी ?
लो क्या करने निकले थे, कहाँ जा निकले । चलो सीधे अपने विषय पर आते हैं- महर्षि दयानन्द ने मंत्रार्थ में जो कुछ कहा है हम स्तुति-प्रार्थना की शैली में ऋषि वाक्यों की अन्तर्यात्रा करने निकलंे और अपने मन-मस्तिष्क को इस पूरी यात्रा में साथ ही रखेंगे तो मन्त्रार्थ को आत्मसात करने में सुभीता रहेगा ।
‘हे सकल जगत् क¢ उत्पत्तिकत्र्ता ! ‘समग्र ऐश्वर्य युक्त’ – ऋषि दयानन्द जी ने सविता का अर्थ जगत् निर्माता व सब ऐश्वर्य से युक्त किया है। ‘सविता वै प्रसविता भवति’ के अनुसार सविता का अर्थ बनाने-उत्पन्न करने वाला होता है और जिसने जो बनाया है, वह उसका स्वामी तो हो ही गया। जगत् में जो भी कुछ ऐश्वर्य है, अनमोल दिखने वाला धन है, वह सब परमात्मा ने ही बनाया है, तो वही उस सबका स्वामी ठहरा । इसके साथ ही जान लें कि सविता शब्द ‘षु प्रेरणे’ धातु से बनता है। निर्माण और प्रेरणा दोनों अर्थ सविता शब्द से लिये जा सकते हंै । परमात्मा सबका निर्माण करने और सबको प्रेरित-संचालित करने वाला है । स्तुति प्रार्थनोपासना के छटे मंत्र में कहा है कि जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम आपको पुकारें, आपका आश्रय लेवें, उस-उसकी कामना हमारी पूर्ण होवे । अर्थात् हमें जीवन में जो कुछ चाहिए उसे पाने के लिए हमें परमात्मा से ही पुरुषार्थपूर्वक प्रार्थना करनी चाहिए । इससे सिद्ध है कि परमात्मा इस संसार की हर वस्तु को बनाकर उसे अपनी अटल न्यायपूर्ण व्यवस्था के अनुरूप चलाता, प्रेरित करता है ।
‘शुद्ध स्वरूप सब सुखों क¢ दाता परमेश्वर’ । देव शब्द का यही अर्थ ऋषिवर ने यहाँ किया है । सामान्य भाषा में भी देने वाले को देव कहते हैं । क्या दुःख देने वाले को भी ? नहीं सुख या सुखद वस्तु देने वाले को ही देव कहा जाता है । परमात्मा भी सबके लिए सब सुखों का देने वाला है । यहाँ एक व्यावहारिक बात समझ लेनी चाहिए कि परमात्मा अपनी ओर से कभी किसी को सुख या सुखद वस्तुएँ नहीं देता । संसार में ज्ञान से बड़ा कोई दान नहीं, ऐसा महर्षि मनु-‘सर्वेषामेव दानानां ब्रह्म दानं विशिष्यते’ कहते हैं । योगिराज श्री कृष्ण ज्ञान के बारे में लिखते हैं -‘नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ । अर्थात हमारे जीवन को ज्ञान ही सबसे अधिक पवित्र करने वाला है । जीवन की पवित्रता मानो सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करने की पात्रता है । वह परमात्मा अपनी ओर से मनुष्य मात्र को ज्ञान-प्रेरणा निरन्तर देता रहता है । यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम प्रभु प्रदत्त प्रेरणा (ज्ञान) के अनुसार कर्म-व्यवहार करते हुए सब सुखों व सुखद वस्तुओं को प्राप्त करें। परमात्मा द्वारा सुख देना दूसरे प्रकार से भी सिद्ध होता है । हमारी कमाई हुई धन-सम्पत्ति को कोई दुष्ट व्यक्ति छीन या चुराकर ले जाए तो उस चोर को जितना दोषी मानते हैं उससे कहीं अधिक दोषी शासक व शासक की व्यवस्था को भी मानते हंै । शासक की न्याय व्यवस्था अगर हमारी चुराई व खोई चीज को हमें दुबारा दिला दे तो हम उसका धन्यवाद अवश्य करते हैं। ठीक इसी प्रकार से अगर हमारे शुभ कर्माें का यथायोग्य फल ईश्वर की अटल, न्याय व्यवस्था से मिलता है तो उसका दाता ईश्वर को ही मानना चाहिए ।
मंत्र में सविता और देव के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद दो बातें शेष रह जाती हंै और वे दोनों बातें अत्यन्त स्पष्ट हैं- ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और ‘यद् भद्रं तन्नासुव’ जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइये । मंत्र को और सरलता से समझने के लिए ‘विश्वानि दुरितानि‘- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को-‘परासुव’ दूर करने या परे धकेलने की प्रार्थना को भली भाँति समझना होगा । यहाँ दुर्गुण और दुव्र्यसन से पूर्व सम्पूर्ण शब्द बहुत ही ध्यान देने योग्य है । हमारे जीवन में जितने भी दुर्गुण हैं, जितने भी दुव्र्यसन हैं उन सब को दूर करने की प्रार्थना या पुकार यह सिद्ध करती है कि हमारा जीवन पूर्णतः निर्मल और पवित्र होना चाहिए । एक भी दुर्गुण व दुव्र्यसन मेरे जीवन में शेष न रहे । अगर हम थोडा सा भी दुःख नहीं चाहते तो अपने अन्दर के सब दुर्गुणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाल फैंकंे । हमारे आन्तरिक दुर्गुणों के कारण हमारे व्यावहारिक जीवन में दुव्र्यसन उत्पन्न होते हैं और दोषों दुव्र्यसनों के परिणाम स्वरूप हमें दुःख भोगने पड़ते हंै । दुःख दूर करने की इच्छा है जिनकी वे दुव्र्यसनों को दूर भगायें । जो दुव्र्यसनों से मुक्त होना चाहते हैं वे अपने दुर्गुणों को समाप्त करने का संकल्प लें । हमारे आन्तरिक दुर्गुण ही हमारे दुव्र्यसनों अर्थात् दुराचरणों, दुष्प्रवृत्तियांे और दुष्कर्मों के बीज हैं और इन्हीं दुव्र्यसनों का परिणाम दुःख है । यह मंत्र हमारे दुःखों को दूर करने का वैदिक उपाय बताता है । आज हम अपने दुःखों को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के मनमाने उपाय करते रहते हंै या किसी गुरु घण्टाल के मायाजाल में फँस कर विविध प्रकार के पाखण्ड पूर्ण कृत्य करते-कराते हैं । हमारे मनमाने उपायों या गुरु घण्टालों के तंत्र-मंत्र से दुःख दूर हो जाते तो संसार में एक भी दुःखी नहीं होता ।
मंत्र में दूसरी प्रार्थना है -‘यद्् भद्रं तन्न आसुव’- अर्थात् जो कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव हंै वह सब हमको प्राप्त कराइये । जब हम अपने जीवन के सब दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर करने का सशक्त संकल्प लेकर अपनी आन्तरिक बुराइयों के विरुद्ध सफल संघर्ष छेड़ देते हैं, दुर्गुणों, दोषों व दुष्कर्मों के पतनशील प्रवाह में निर्जीव तिनके की तरह बहते रहने से आत्मबल पूर्वक मना कर देते हैं और बुराइयों के चक्रव्यूह से बच निकलते हैं तो हमारे सामने अपने हृदय को अच्छाइयों से भरते रहने का प्रश्न खड़ा होता है । यह तो सब जानते हैं कि संसार में ऐसा कुछ नहीं जो किसी प्रकार के गुणों से शून्य हो । ऐसे में हमारा हृदय-मन, बु़िद्ध और चित्त आदि भी गुणहीन स्थिति में नहीं रह सकते । दुर्गुणों को दूर करने के आन्तरिक अभियान के साथ-साथ हमें कल्याण कारक गुणों का आह्वान करना होगा । दुर्गुणों को दूर करके उनके स्थान पर कल्याण कारक गुणों अर्थात् सद्गुणों को बसाना जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रक्रिया है । किसी बर्तन में कोई अनावश्यक व अनुपयोगी चीज भरी हो तो जब तक उसमें किसी अच्छी व उपयोगी वस्तु को रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती तब तक हम उस अनुपयोगी चीज को निकाल फैंकने के बारे में प्रायः नहीं सोचते । जब हमें कोई मूल्यवान व उपयोगी वस्तु की आवश्यकता अनुभव होती है तो हम उसे पाने के प्रयास करते हैं । पाने के प्रयास करने से पूर्व बुद्धिमान व्यक्ति उसे सुरक्षित रखने के बारे में सोचता है तो उसे लगता है कि यह जो अनावश्यक चीज इस बर्तन में रखी है, उसे निकाल फैंको और इस बर्तन को स्वच्छ करके उपयोगी वस्तु को इसमें रख दो ।
यही स्थिति मानव के जीवन की है । सांसारिक विषय वासना व परस्पर के राग-द्वेष पूर्ण जीवन जीने वाले को जब किसी सद्ग्रन्थ के स्वाध्याय या सत्संग से यह पता चलता है कि मेरा हृदय जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य का कबाड बनकर रह गया है, मेरे जीवन में आलस्य, प्रमाद, दीर्घसूत्रता आदि दोष निरन्तर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं, ये मुझे सुख-शान्ति, समृ़िद्ध और सन्तुष्टि नहीं दे सकते । ये मेरे जीवन को सफल और सार्थक बनाने में उपयोगी नहीं । यह ज्ञान स्वाध्याय व सत्संग के बिना नहीं होता । अधिकांश लोगों को लम्बे समय तक सत्संग स्वाध्याय करते रहने पर भी यह ज्ञान नहीं होता, लेकिन जिन विवेकशील सज्जनों को यह ज्ञान हो जाता है तो उन्हें कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव की आवश्यकता अनुभव होने लगती है । जब उन्हें सद्गुणों की आवश्यकता अनुभव होती है तो उन्हें लगता है कि मेरे हृदय में तो दुर्गुण जडे़ं जमाये बैठे हैं । जीवन को अच्छा, सुखी और सन्तुष्ट बनाने की प्रबल इच्छा जब तक हृदय में उठ खडी नहीं होती, तब तक हर मनुष्य को अपने हृदय में भरा पड़ा काम-क्रोध आदि दुर्गुणों का कूड़ा-कबाड़ भी काम चलाऊ अच्छा लगता है । जैसे ही उसके मन-मस्तिष्क में कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थों की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है, और वह उन्हें पाने के लिए लालायित होने लगता है, वैसे ही उसे अपने अन्दर के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अनुपयोगी और अनावश्यक ही नहीं लगते, बल्कि काँटे की तरह चुभने लगते हैं । इस अवस्था में आकर वह ‘विश्वानि दुरितानि परासुव’ और ‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’ की पुकार करने लगता है । इस अवस्था में सच्चे हृदय से की गई ऐसी प्रार्थना, पुकार ही परमात्मा के निकट सफल होती है ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ का जो अर्थ ऋषि दयानन्द ने किया है, वह बहुत ही चमत्कार पूर्ण एवं जीवन-निर्माण की अन्तःक्रिया को सन्तुलित-सम्यक् ढं़ग से प्रकट करता है । ऋषि लिखते हैं- ‘जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराइये ।’ कल्याण करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव की क्रमबद्धता पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । सुखी, शान्त व आनन्दपूर्ण जीवन के तीन घटक आन्तरिक हैं और पदार्थ बाहरी हैं । कल्याणकारक घटकों में गुण, कर्म और स्वभाव एक पात्रता है और पदार्थ उसमें रखी जाने वाली सामग्री । जिसने तप-साधना से अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याण कारक बना लिया परमात्मा उसक¢ लिए कल्याणकारक पदार्थाें की प्राप्ति सरल और सहज बना देते हैं । जो अपने गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारक बनाने के लिए तप नहीं करते, स्वयं को सद्गुण सम्पन्न सदाचारी एवं सुख का सत्पात्र बनाये बिना ही जो कल्याणकारक सुखद पदार्थाें को छल-बल या कल से हथिया लेते हंै, ऐसे अभिशप्त लोगों के हाथ लगे कल्याण कारक पदार्थ कभी उनको सच्चा सुख नहीं दे पाते । सीधे शब्दों में कहें तो गुण, कर्म और स्वभाव को कल्याणकारी बनाये बिना हम कल्याणकारी पदार्थाें का सच्चा सदुपयोग नहीं कर सकते । बुद्धिमान लोग काँटों का सदुपयोग बाड़ लगाकर फलों व फसलों की सुरक्षा के रूप में करते हैं दूसरी ओर कुछ मूर्ख लोगों ने पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर के हत्यारे आतंकियों पर गुलाब के फूलों की वर्षा करके भी विश्व के मानवतावादी जन समुदाय के बीच स्वयं को कलंकित कर लिया ।
‘‘यद् भद्रं तन्न आ सुव’’ की अन्तिम लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय वस्तु को रखना चाहते हैं । जो सच्चे अर्थाें में सच्चे हृदय से अपना जीवन सुखी व श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं, उनके लिए ऋषि दयानन्द के शब्दों -‘कल्याण कारक गुण, कर्म और स्वभाव’ को समझ लेना बहुत ही आवश्यक है । जब हमारे कल्याणकारक गुण हमारे कर्माें के माध्यम से सजीव होकर हमारे स्वभाव का अंग बन जाते हंै, तब जाकर हमारा जीवन कल्याणकारक पदार्थाें को पाने का पात्र बन पाता है । आज के मानव की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने अन्दर की ढ़ेर सारी अच्छाइयों को अपने कर्मों-व्यवहार में उतारने से ड़रता है । जब तक यह डर हमारे जीवन में डेरा डाले रहेगा, तब तक हर सच्चाई और अच्छाई मानव के संकीर्ण स्वार्थ के भार तले दबकर दम तोड़ती रहेगी । पाठक ध्यान रखें कि परमात्मा ने हमारे कल्याण को सरल और सहज बनाने के लिए हमारे हृदय में सत्य के प्रति श्रद्धा और असत्य के प्रति अश्रद्धा स्वाभाविक रूप से प्रदान की है । प्रत्येक मानव का हृदय सदैव सत्य के प्रति श्रद्धालु रहता है, आकर्षित रहता है । असत्य मानव के हृदय को कभी अच्छा नहीं लगता । असत्य मानव के हृदय में सदैव काँटे की तरह खटकता रहता है । मानव-स्वभाव की विचित्रता भी बड़ी अनौखी है । यह सच है कि सरल चित्त के व्यक्ति के हृदय में असत्य काँटे की तरह ही खटकता है, लेकिन जब वो स्वार्थ के खूंटे से बँधकर सत्य को स्वीकार करने का साहस नहीं दिखा पाता और निरन्तर इस असत्य रूपी काँटे से हृदय को लहूलुहान करता रहता है तो कुछ काल ऐसा ही होते रहने के बाद स्वार्थपूर्ति से मिलने वाले क्षणिक सुख के नशे में असत्य रूपी काँटे की इस तीखी चुभन को भी वह भाग्यहीन व्यक्ति ऐसे ही सहन करता रहता है जैसे एक शराबीे मद के लिए उसकी कड़वाहट व तीखेपन को सहन करता रहता है।
कल्याण की कामना वाले व्यक्ति को सांसारिक स्वार्थ पूर्ति से ऊपर उठकर एक अक्षय सुख पर अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा । सुधी जन जानते हंै कि झूठ की जितनी शक्ति है, जितनी आयु है, उससे मिलने वाले सुख की शक्ति और आयु भी उतनी ही होगी उससे अधिक नहीं । झूठ सदैव सत्य से भयभीत रहता है, सत्य की एक किरण झूठ को धराशायी कर देती है ठीक इसी प्रकार से असत्य के बल पर सुख शान्ति पाने वाले व्यक्ति सत्य से भयभीत होकर जीवन जीते हंै, उनका सुख सत्य की सम्भावना देखकर ही भाग खड़ा होता है । क्या लाभ उस टूटे-फूटे, डरे-सहमे सुख का ? सत्य से डरकर उल्लू की तरह अँधेरे में कब तक ऐसे सुख को भोगकर सन्तुष्ट होते रहोगे ? वह सुख ही क्या जो अपने इष्ट मित्रों व परिजनों के साथ मिल कर खुले में सार्वजनिक रूप से न भोगा जा सके ? इसीलिए ऋषि दयानन्द कल्याणकारक गुणों को कर्माें में सजीव और साकार करके अपने स्वभाव का अंग बनाने का सांकेतिक प्रेरणा कर रहे हैं । गीता में श्री कृष्ण जी भी शब्दान्तर से यही सन्देश दे रहे हैं कि संसार में सब प्राणी अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभाव के अनुसार ही अपनी समस्त चेष्टाएँ (कर्म) करते हैं इसलिए स्वभाव को ही अच्छा (श्रेष्ठ) बनाओ अपनी बुराइयों को छिपाकर अच्छा दिखने से क्या लाभ ? स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने-सुधारने का सच्चा और सरल रास्ता ऋषि दयानन्द बता रहे हैं कि अपने हृदय में सोये पडे़ हुए अपने सद्गुणों को कर्माें में उतारिये । हम जब निरन्तर अपने सद्गुणों को कर्मों का सहारा देते रहेंगे तो एक दिन हमारे सद्गुण हमारे स्वभाव का अंग बना जाएँगें । जब हम अपने सद्गुणों को अपने कर्मों के द्वारा अपने स्वभाव का अंग बना लेंगे तब इस संसार के समस्त कल्याण कारक पदार्थों को प्राप्त करने के अधिकारी-पात्र बन जाएँगे । दुर्गुणों, दुव्र्यसनों और दुःखों से निकल कर कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव और पदार्थों को प्राप्त करने की अन्तर्यात्रा को मंत्रानुसार ऋषिवर ने जिस रूप में रखी और वह जैसी मेरी समझ में आई वैसी मैंने सच्चे हृदय से, सुधी जन के कल्याण की कामना से प्रकट कर दी । आशा है अध्यात्म पथ के पथिक इससे लाभ उठाएँगे ।
रामनिवास गुणग्राहक
महर्षि दयानन्द सरस्वती स्मृति भवन न्यास
निकट जसवन्त काॅलेज पुराना परिसर
रातानाडा, जोधपुर (राजस्थान)
सम्पर्कः- 07597894991

ओ३म् वह सबका स्वामी है। रामनिवास गुणग्राहक

ओं हिरण्य गर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकऽ आसीत्।
स्दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विद्येम।।
जो स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था। सो इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उस सुख स्वरूप, शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें। (ऋषि भाष्य)
परमात्मा स्वयं प्रकाश स्वरूप तो है ही साथ ही वह संसार के समस्त प्रकाश करने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि लोकों को धारण भी कर रहा है। यजुर्वेद का बड़ा सर्वज्ञात मंत्र है- ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्’। उपासक समाधि-अवस्था में परमात्मा को पाकर, उस न्यारे-प्यारे प्रभु का साक्षात्कार करके आनन्द विभोर होकर सहसा कह उठता है- अरे। मैंने पा लिया उसे, उस महान् पुरुष को, जो सारे ब्रह्माण्ड़ में सुखपूर्वक शयन करता हुआ सब भक्तजनों को सतत् सुख प्रदान कर रहा है। शरीर रूपी पुरी में शयन करने के कारण मुझ जीवात्मा को पुरुष कहा जाता है और वह परम् पुरुष इस अनन्त सी दिखने वाली ब्रह्माण्ड़ पुरी में शयन कर रहा है। आहा। कैसा है वह? आदित्य वर्ण है। चमक और प्रकाश के लिए हमारे सामने सूर्य से बढ़कर कोई उदाहरण है ही नहीं। वह प्रभु भी आदित्य वर्ण है, सूर्य के समान चमकीला है, प्रकाश स्वरूप है। सुना है कि सूर्य में भी कुछ स्थान प्रकाश रहित है तो क्या परमात्मा भी…….अरे नहीं रे। परमात्मा में तो जितने भी गुण हैं वे सब पूर्णता से हैं। वह परम् पुरुष होने के साथ ही पूर्ण पुरुष भी है। उसका स्वरूप कहीं भी किंचित् भी प्रकाश शून्य नहीं है, वह तमस् अर्थात् अज्ञान-अन्धकार से नितान्त परे है। वह तो पूर्ण प्रकाशस्वरूप है, उसके प्रकाश की तुलना या उपमा संसार के किसी प्रकाशमान पदार्थ से नहीं की जा सकती। ऋग्वेद में कहा है-‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिः आगात् चित्रः प्रकेतो’ (१‐११३‐१), ‘इदं ज्योतिषाम् श्रेष्ठं ज्योतिः’= संसार में प्रकाश करने वाले इन समस्त प्रकाशकों में वह परमात्मा अतीव प्रकाशस्वरूप है। उस परम् प्रकाश प्रभु को, चित्रः प्रकेतः आगात् = अद्भुत प्रज्ञा व पुरुषार्थसम्पन्न पुरुष ही प्राप्त कर सकता है। कठोपनिषद् का ऋषि भी उद्घोष कर रहा है कि सूर्य चन्द्रमा व विद्युत की चमक भी उसकी चमक, उसके प्रकाश के सामने कुछ नहीं, इस लोक-अग्नि की तो चर्चा ही क्या? वेद बता रहा है कि विलक्षण गुण, कर्म स्वभाव वाला, अद्भुत प्रज्ञा (बुद्धि) और पुरुषार्थ (कार्य-व्यवहार) वाला धर्मनिष्ठ विद्वान् ही उस परमप्रकाश स्वरूप प्रभु को प्राप्त कर सकता है। समाधि-प्राप्त साधक ही- ‘वेदाहमेतं पुरूषं महान्तं’ कह सकता है। उसी की आत्मज्योति तप-साधना के द्वारा इतनी सक्षम व समर्थ हो सकती है जो उस परम् ज्योति का साक्षात् कर सके।
निर्धन-अभावग्रस्त व्यक्ति को एकाएक अपार धनराशि मिल जाए तो वह उसे सम्भाल नहीं पाता हमारी आँखों को देखने के लिए प्रकाश चाहिए, वह प्रकाश कम होगा तो असुविधा होगी लेकिन बहुत अधिक हो तो आँखें चुँधिया जाती हैं। बिजली चमकती है तो हमारी आँखंे स्वतः बन्द हो जाती है। ज्येष्ठ मास में दोपहर एक बजे कड़क-तेज धूप हो तो प्रायः सभी को धूप के काले चश्मे का सहारा लेना पड़ता है। स्पष्ट है कि हमारी सामथ्र्य जितनी होगी हम उतने ही किसी गुण या वस्तु का लाभ उठा सकते हैं। इसीलिए वेद बताता है कि उस परम् प्रकाशस्वरूप प्रभु को अद्भुत गुण सम्पन्न साधक जो तप-साधना के द्वारा अपना सामथ्र्य उतना बढ़ा लेते हंै, वे ही प्राप्त कर सकते हैं। तप के बारे में ऋषि कहते हैं- ‘कायेन्द्रिय सिद्धिऽशुद्धि क्षयात् तपसः’ (यो.२‐५३) शरीर व इन्द्रियों की अशुद्धियों को नष्ट करके इन्हें साधना के योग्य बनाना ही तप है। ‘तपति दुःखी भवति, तप्यते समर्थो वा भवति येन तत् तपः’ अर्थात तप करने वाला प्रथम तप के कारण दुःखी होता है और आगे चलकर वह इस तप से प्रभु प्राप्ति का सामथ्र्य तक पा लेता है। प्रसंगवश अत्यन्त उपयोगी समझते हुए यहाँ तप का स्वरूप भी बतना उपयोगी रहेगा क्योंकि तप के बारे में हमारे देश में बहुत भ्रान्तियाँ पनप रही हैं। आज हम किसी भी जटाधारी, राख लपेटे हुए निरक्षर भट्टाचार्य पाखण्ड़ी को देखकर उसे तपस्वी समझ बैठते हैं और उसकी सेवा को धर्म मानते हैं। हमारे ऋषि लिखते हैं- ‘सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्याय स्तपः (तैत्तÛ)’ अर्थात् सत्य बोलना, सत्याचरण करना तप है। मन-इन्द्रियों का दमन करना तप है तथा वेद आदि सद्ग्रन्थों का श्रद्धापूर्वक नित्य पढ़ना तप है। महर्षि मनु के शब्दों में- ‘वेदाभ्यासहि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते’ (२‐१४१) अर्थात् वेद को स्वीकार करना, वेदमंत्रों पर चिन्तन-मनन और विचार करना, वेदपाठ करना, वेदमंत्रों का जाप करना तथा वेद का प्रचार-प्रसार करना, उपदेश करना- इन सब को मिलाकर वेदाभ्यास कहते हंै और इन पाँचों कर्मों में लगे रहने को महर्षि मनु परम् तप मानते हैं। योगदर्शन सूत्र २‐२३ के भाष्य में महर्षि व्यास लिखते हैं- ‘तपो द्वन्द्व सहनम्’- अर्थात् अपने कत्र्तव्य कर्म को करते हुए सर्दी-गर्मी, धूप-छाँव, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ-हानि, सफलता-असफलता, राग-द्वेष आदि से विचलित हुए बिना लगे रहना, कत्र्तव्य कर्म करते रहना ही तप कहलाता है। ऐसे तप करने वाले को ही परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् होता है।
स्वप्रकाश स्वरूप परमात्मा ही प्रकाश करने हारे सूर्य-चन्द्रमा आदि को धारण कर रहा है। इसी मंत्र में आगे चल कर ‘सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां’ बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है- ‘सो परमात्मा इस पृथ्वी और सूर्यादि को धारण कर रहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के पाँचवे मंत्र में इस बात को दो बार कहा है। ऋषि ने स्तुति प्रार्थनोपासना के लिए जिन मंत्रों का चयन किया है, उनमें परमात्मा को इस सारे ब्रह्माण्ड़ का निर्माता, संचालक और स्वामी सिद्ध करने का भूरिशः प्रयास किया गया है। इन मंत्रों का अर्थ सहित नित्य पाठ करने से कम से कम मेरे मन-मस्तिष्क पर तो यह प्रभाव पड़ा है कि मैं स्वयं को सदैव परमात्मा की निगरानी और नियंत्रण में अनुभव करता हूँ और ऐसी अनुभूति मुझे निर्भय और निर्दोष बनाने में बहुत सहायक है। पाठक स्वस्थ चित्त से विचार करें कि संध्या में आये अघमर्षण मंत्रों में परमात्मा को इस विश्व ब्रह्माण्ड़ का रचयिता और नियन्ता ही सिद्ध किया है। परमात्मा ने अपने ऋत ज्ञान और सत्रूप प्रकृति से तप पूर्वक इस ब्रह्माण्ड़ को बनाया। उसी ने सूर्य को बनाया और उसी ने दिन रात आदि को बनाकर इस निर्मित ब्रह्माण्ड़ को स्वाभाविक रूप से अपने नियंत्रण में किया हुआ है। तीसरे मंत्र में केवल यही प्रकट किया है कि परमात्मा ने सूर्य चन्द्र आदि विश्व को जैसे अब बनाया है वैसे ही पूर्व कल्प में बनाया था और ऐसा ही आगामी कल्पों में बनाएगा। इन तीन मंत्रों को महर्षि ने अघमर्षण नाम दिया है। वेद कहता है- ‘ऋतस्य धीतिर्वृजनानि हन्ति’ (ऋ 4.23.8) अर्थात् ऋत के धारण करने, ध्यान करने और चिन्तन-मनन करने से हमारी पाप वासनाएँ नष्ट होती हैं। अर्थात् परमात्मा द्वारा इस सृष्टि के बनाने और चलाने का वर्णन जहाँ भी आया है, जिन मंत्रों में ऐसा वर्णन है, उनके ध्यान और चिन्तन से हमारे अन्दर की पाप वृत्ति नष्ट होती है।

परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है

स्तुता मया वरदा वेदमाता-७

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।

जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्।।

मन्त्र कहता है परिवार में समन्वय का अभाव ही दुःख का कारण है। परिवार विविधता की दृष्टि से अपूर्व इकाई है। इसमें पति-पत्नी समान युवा होने पर भी स्त्री-पुरुष के भेद से नितान्त भिन्न हैं। बच्चे और बूढ़े एक-दूसरे आयुवर्ग से नितान्त भिन्न होते हैं। माता-पिता और बालक सम्बन्ध से सबसे निकट होने पर भी योग्यता सामर्थ्य से शून्य और शिखर का अन्तर रखते हैं। इन सबको मिलाकर एक इकाई बनती है जिसे हम परिवार के रूप में जानते हैं।

अधिक समय तक एक साथ समय बिताने वाली इस इकाई में विविधता के कारण समस्याओं की अधिकता तथा विविधता होना स्वाभाविक है। परिवार में विविधता एक-दूसरे के पूरक हैं। पूरक होना एक-दूसरे को एक-दूसरे की आवश्यकता बताता है। परिवार के सदस्य एक-दूसरे को इसीलिए चाहते हैं क्योंकि उनका कार्य परस्पर सहयोग से चलता है। इस सहयोग को व्यवस्थित करने के उपाय को व्रत नाम दिया गया है। व्रत शब्द  से सभी व्यक्ति परिचित होते हैं परन्तु रूढ़िगत अर्थ ही सबके काम में आता है। व्रत से हम समझते हैं ऐसी प्रतिज्ञा जिसके पालन करने का कोई मनुष्य संकल्प करता है। कोई किसी वस्तु के त्याग का संकल्प करता है, कोई किसी वस्तु के स्वीकार करने की इच्छा करता है। व्रत व्यापक शब्द है, इसका अर्थ है चयन करके स्वीकार करना।

ब्रह्मचारी को व्रती कहते हैं, उसने बहुत सारे संकल्प लिये होते हैं

जब बालक को यज्ञोपवीत धारण कराते हैं तो व्रत का मन्त्र बोलकर आहुति दिलवाते हैं। अग्ने व्रतपते, चन्द्र व्रतपते, सूर्य व्रतपते, वायो व्रतपते और व्रतानां व्रतपते। व्रतों का पालन करने वाले पदार्थों का उदाहरण दिया गया है। संसार में अग्नि व्रतपति है, सूर्य-चन्द्र-वायु सभी तो व्रतपति हैं, व्रतों के स्वामी हैं। यहाँ व्रतपति कहने से नियमों के स्वामित्व का बोध होता है। ये नियम विवशता नहीं हैं, स्वीकृत हैं इनका पालन करना इनका स्वभाव है। स्वभाव बन गये नियम खण्डित नहीं होते। परमेश्वर को इस प्रसंग में व्रतानां व्रतपते कहा है अर्थात् संसार में जितने भी व्रत हो सकते हैं उन सब व्रतों का वह स्वामी है। जितने नियम उसके अपने हैं उतने नियम तो किसी ने भी नहीं धारण कर रखे हैं। इसी कारण वह समस्त संसार को नियम में चलाने का सामर्थ्य रखता है। परमेश्वर नित्य है, इसलिए उसके नियम भी नित्य हैं, परमेश्वर सर्वत्र है, इस कारण उसके नियम ज्ञानपूर्ण हैं, उसके नियमों में कहीं त्रुटि नहीं होती। वह सर्वशक्तिमान् है अतः उसके नियमों में पालन कराने का सामर्थ्य भी है।

व्रत चलने के लिए अनिवार्य है- जिस मार्ग पर आप चलना चाहते हैं, चलने की इच्छा करते हैं, तब आप अपने विचारों का विश्लेषण करके निर्णय की ओर ले चलते हैं। तब पहली स्थिति बनती है और आपका विचार संकल्प का रूप लेता है। जब भली प्रकार विचार करके निश्चय करते हैं, तब यह संकल्पित विचार स्थायी बन जाता है। यह विचार के स्थायी करने की घोषणा का नाम व्रत हो जाता है।

संकल्प व्रत बन जाता है, वह अपने नियम पर, अपने मार्ग पर चल पड़ता है। यह व्रत है। यह व्रत उसे नियम पर चलने का अधिकार देता है, उसे दीक्षा कहा गया है। दीक्षित होने का अर्थ है, उस व्रत के साथ उसे सब पहचानते हैं। वह पहचान उसे चलने का, आवश्यक वस्तु को प्राप्त करने का अधिकार देता है। यह यात्रा जब प्रयोजन की पूर्णता तक जाती है तब उस पूर्णता को, सफलता को दक्षिणा कहा जाता है। यह सफलता का आधार है। व्रत अर्थात् व्रत पर चलकर ही सफलता की पूर्णता तक पहुँचा जा सकता है। व्रत की मनुष्य को पूरे जीवन में आवश्यकता रहती है। मनुष्य का जीवन निरर्थक नहीं है, सप्रयोजन है, यदि प्रयोजन जीवन में है तो उसको प्राप्त करने का उपाय भी होना चाहिए, इसलिए व्रत की आवश्यकता होती है।

जैसे बालक के, छात्र के जीवन में व्रत की आवश्यकता है, उसी प्रकार गृहस्थ के जीवन में भी व्रत की आवश्यकता होती है। इसी कारण विवाह संस्कार में वर-वधु एक दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर व्रतों के पालन करने का संकल्प लेते हैं, इतना ही नहीं वे अपने व्रतों का पालन भी करते हैं, वे अपने साथी के व्रत से भी परिचित होते हैं तभी तो कहते हैं- मैं तुम्हारे व्रतों को अपने हृदय में धारण करता हूँ। व्रत को समझ लें तो जीवन को चलाना और समझना सरल हो जायेगा।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-५

वेद कहता है हमारे अन्दर एक दूसरे के प्रति चाहना हो। परस्पर अभिलाषा होनी चाहिए। यह जो मानसिक परिस्थित है, इसका मन में विचार होने की भूमिका बन चुकी है, मनुष्य के मन में जब द्वेष नहीं होता, सहानुभूति का भाव किसी के प्रति अनुकूलता का लक्षण है। इस भाव की अधिकता ही अपनेपन को जन्म देती है। अपनापन स्वाभाविकता को बताता है। यदि हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं है तो हम उसके कष्ट को देखकर उसे यह कष्ट क्यों मिल रहा है, इस प्रकार का दुःख उसको नहीं मिलना चाहिए इस प्रकार का विचार मन में आता है। अपनापन दूसरे के प्रति मन में निकटता का भाव उत्पन्न करता है। इस निकटता से उत्पन्न प्रसन्नता का विचार प्रेम को प्रकाशित करता है। समाज में जब कोई हमारे साथ सद्भाव दिखाता है तो हमें भी उसके प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने की इच्छा होती है। सद्भाव की अधिकता होने पर दूसरे से उसकी अपेक्षा नहीं रहती, हमें वस्तु अच्छी लगती है। दूसरे व्यक्ति में सम्भव है जो भाव हमारे मन में है, वह न हो, या उतना न हो तब भी हम अपना सम्पूर्ण अपनापन देते हैं तो दूसरे पक्ष से कई बार उसप्रकार की अपेक्षा भी नहीं रहती। वेद कहता है प्रेम की आकांक्षा दोनों ओर से होनी चाहिए। इसलिए मन्त्र कहता है अन्योऽन्यमभिहर्यत परिवार के सदस्यों में एक दूसरे के हित की चिन्ता होनी चाहिए। हम समुदाय में रहते हुए यदि अपने लाभ या अपने हित की बात ही सोचते हैं, सदा अपनी ही चिन्ता करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह मान लिया जाता है अब आपकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। जब कोई असमर्थ होता है तो उसकी चिन्ता की जाती है, उसके चाहने वाले उसका ध्यान रखते हैं। जब हमें लगता है यह व्यक्ति स्वयं अपना भला कर सकता है, अपना हित साध सकता है तब किसी के लिए उसके विषय में सोचना प्राथमिकता नहीं रहती। और हाँ सब अपना अपना सोचेंगे तो फिर वहाँ कोई दूसरे के बारे में क्यों सोचेगा?

अपने बारे में सोचना अपना हित चाहना बुरी बात नहीं है। यहाँ अनुचित तब होता है जब मनुष्य अपने बारे में सोचता है तब उसे दूसरे की चिन्ता नहीं होती या वह दूसरे की उपेक्षा कर देता है। अपनी चिन्ता करते हुए केवल अपनी ही चिन्ता होती है, दूसरे की चिन्ता नितान्त नहीं होती हैं। जब हम अपने को मुख्य न मानकर दूसरे की चिन्ता करते हैं, ऐसा सभी करते हैं तो सब सब की चिन्ता कर सकते हैं। अपनी चिन्ता में सब सम्मिलित नहीं हो सकते परन्तु एक-एक औरों की चिन्ता करे तो सबको सबकी चिन्ता हो जाती है। यह लाभ सबमें प्रेम भाव होने पर होता है। परिवार में सबको अपने तुल्य हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि की चिन्ता करनी चाहिए। इसी से सबमें परस्पर प्रीति बढ़ती है।

वेद मन्त्र में एक उपमा दी है वत्सं जातमिवाघ्न्या जैसा एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है वेद में जो उपमायें दी गई वे स्वाभाविक हैं। संसार के पदार्थों में, व्यक्तियों के व्यवहार में सदा ही उन्हें देखा जा सकता है। सब उसे अनुभव कर सकते हैं। वेद कहता है हमें गति करनी चाहिए सूर्य और चन्द्र की भाँति। भगवान् ने सृष्टि कैसे बनाई, संसार की रचना कैसे की, वेद कहता है- यथापूर्वमकल्पयत् जैसे प्रत्येक सर्ग में ईश्वर सृष्टि की रचना करता है उसी प्रकार रचना करता रहेगा। यहाँ भी प्रेम कैसा करना चाहिए जैसे एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है। गाय बछड़े से प्रेम करती है परन्तु उसका प्रेम तभी तक रहता है जब तक उसका बछड़ा असमर्थ होता है, अपनी माँ पर निर्भर होता है। जैसे ही बछड़ा बड़ा हो जाता है, गाय में उसप्रकार का प्रेम नहीं रहता। यह उपमा सम्भवतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए है जब कोई प्राणी, या मनुष्य समर्थ हो जाता है तब उसके साथ उसप्रकार का सहयोग अपेक्षित नहीं होता। इसलिए प्रेम में केवल भावना नहीं औचित्य भी अपेक्षित है।

इसप्रकार इस मन्त्र में अपने व्यवहार को सुधारने के लिए मनुष्य को, अपने परिवार को प्रसन्न व सुखी रखने के लिए परस्पर द्वेष का न होना, एक दूसरे के सुख-दुःख को स्वात्मवत् समझना। परस्पर प्रसन्नता के लिए यत्न करना और प्रत्येक सदस्य में परिवार के सदस्यों के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाला वार्तालाप और व्यवहार करते रहना चाहिए। इसलिए मन्त्र में-

अविद्वेषम् सहृदयम्, सामनस्यम् के साथ अभिहर्यत कहा है।

सृष्टि का आदिकाल

universe 1

मेघ, इंद्र, परमेश्वर विद्या  (सृष्टि  का आदिकाल )

15 हिरण्यस्तूप आङ्गिरस: इन्द्र:। त्रिष्टुप्

Scientific Background Quoted thankfully from “the secret life of GERMS” by Philip M. Tierno)

(According to modern science during the period of formation of Earth’s History, intense volcanic activity was producing oxygen by releasing it from Earth’s interior. In the primordial soup, ancient blue green algae lived by photosynthesis, and also produced Oxygen. Over the course of perhaps three  billion years, the Oxygen produced by algae and the Oxygen spewed by the volcanoes changed the Earth’s atmosphere , creating an Oxygen blanket that allowed higher life forms to evolve from germs. Oxygen in upper atmosphere came in contact with UV (Ultra Violet) Rays and electrical discharges. This converted Oxygen in upper atmosphere in to ozone that can more strongly absorb UV rays. In this way Earth’s Ozone layer was formed.  If land dwelling organisms had to face the full force of Sun’s UV rays, all life on Earth would have eventually destroyed. This Ozone layer in the upper atmosphere prevents this by acting as a protective shield.)1

Earth’s Atmosphere

The total global environment consists of four major realms: a gaseous atmosphere, liquid hydrosphere, solid lithosphere, and living biosphere.

From space, Earth’s atmosphere looks like a blue sphere  with gaseous envelopes ..  This fragile, nearly transparent envelope of gases supplies the air that we breathe each day. It also regulates the global temperature and filters out dangerous levels of solar radiation. In recent years, scientific research has shown that the chemical composition of the atmosphere is changing because of both natural and human induced causes. There is growing concern over the impact of human activities. Mankind may be increasing levels of heat absorbing gases, thereby contributing to global warming and destroying ozone, the fragile atmospheric ingredient that shields the planet from ultraviolet (UV) radiation.

Ozone and the Atmosphere

Earth is an extraordinary planet. Complex interactions between the land, oceans, and atmosphere created conditions that are favorable for life. One species, man, has managed to alter the environment on a global scale. In order to fully comprehend the impact of our actions, we must view the planet as a whole and understand the relationship between its basic components; land, water, and air.

This web site discusses the chemical composition and evolution of Earth’s atmosphere, focusing on the protective layer of ozone in the stratosphere. The destructive properties of troposphere ozone are also presented. Diagrams and animation sequences are used to visually depict the delicate structure of the ozone molecule and the chemical reactions involved in its formation and destruction. Ozone destroying pollutants were first identified in 1973.Since that time there has been a considerable amount of controversy surrounding the subject of ozone depletion. More than 20 years of ozone-related scientific studies, international meetings, and global industrial agreements are summarized in the last section of this site.

Historical Atmosphere

Earth is believed to have formed about 5 billion years ago. In the first 500 million years a dense atmosphere emerged from the vapor and gases that were expelled during degassing of the planet’s interior. These gases may have consisted of hydrogen (H2), water vapor, methane (CH4), and carbon oxides. Prior to 3.5 billion years ago the atmosphere probably consisted of carbon dioxide (CO2), carbon monoxide (CO), water (H2O), nitrogen (N2), and hydrogen.

The hydrosphere was formed 4 billion years ago from the condensation of water vapour, resulting in oceans of water in which sedimentation occurred.

The most important feature of the ancient environment was the absence of free oxygen. Evidence of such an anaerobic reducing atmosphere is hidden in early rock formations that contain many elements, such as iron and uranium, in their reduced states. Elements in this state are not found in the rocks of mid-Precambrian and younger ages, less than 3 billion years old

Formation of the Ozone Layer

One billion years ago, early aquatic organisms called blue-green algae began using energy from the Sun to split molecules of H2O and CO2 and recombine them into organic compounds and molecular oxygen (O2).This solar energy conversion process is known as photosynthesis. Some of the photo synthetically created oxygen combined with organic carbon to recreate CO2 molecules. The remaining oxygen accumulated in the atmosphere, touching off a massive ecological disaster with respect to early existing anaerobic organisms.As oxygen in the atmosphere increased, CO2 decreased.

High in the atmosphere, some oxygen (O2) molecules absorbed energy from the Sun’s ultraviolet (UV) rays and split to form single oxygen atoms. These with remaining oxygen (O2) to form ozone (O3) molecules, are very effective at absorbing UV rays. The thin layer of ozone that surrounds Earth acts as a shield, protecting the planet from irradiation by UV light.

The amount of ozone required to shield Earth from biologically lethal UV radiation, wavelengths from 200 to 300 nanometers (nm), is believed to have been in existence 600 million years ago. At this time, the oxygen level was approximately 10% of its present atmospheric concentration. Prior to this period, life was restricted to the ocean. The presence of ozone enabled organisms to develop and live on the land. Ozone played a significant role in the evolution of life on Earth, and allows life as we presently know it to exist.

Present Day Atmosphere

The atmosphere we breathe is a relatively stable mixture of several hundred types of gases from different origins. This gaseous envelope surrounds the planet and revolves with it. It has a mass of about 5.15 x 10E15 tons held to the planet by gravitational attraction. The proportions of gases, excluding water vapor, are nearly uniform up to approximately 80 kilometers (km) above Earth’s surface. The major components of this region, by volume, are oxygen (21%), nitrogen (78%), and argon (0.93%).Small amounts of other gases are also present. These remaining trace gases exist in such small quantities that they are measured in terms of a mixing ratio. This ratio is defined as the number of molecules of the trace gas divided by the total number of molecules present in the volume sampled. For example, O3, CO2, and chlorofluorocarbons (CFCs) are measured in parts per million by volume (ppmv), parts per billion by volume (ppbv) or parts per trillion by volume (pptv).

Atmospheric temperature and chemistry are believed to be controlled by the trace gases. There is increasing evidence that the percentages of environmentally significant trace gases are changing because of both natural and human factors. Examples of man-made gases are the chlorofluorocarbons CFC-11 and CFC-12 and halons. Carbon dioxide, nitrous oxide, and methane (CH4) are produced by the burning of fossil fuels, expelled from living and dead biomass, and released by the metabolic processes of microorganisms in the soil, wetlands, and oceans of our planet.

  • Summing up:
  •  The Earth formed more than 4 billion years ago along with the other planets in our solar system.
  • The early Earth had no ozone layer and was probably very hot. The early Earth also had no free oxygen.
  • Without an oxygen atmosphere very few things could live on the early Earth. Anaerobic bacteria were probably the first living things on Earth. These are referred to as Marut gan मरुत गण  in Vedas.
  • The early Earth had no oceans and was frequently hit with meteorites and asteroids. There were also frequent volcanic eruptions. Volcanic eruptions released water vapor that eventually cooled to form the oceans.
  • The atmosphere slowly became more oxygen-rich as solar radiation split water molecules and cyanobacteria began the process of photosynthesis. Eventually the atmosphere became like it is today and rich in oxygen.
  • The first complex organisms on Earth first developed about 2 billion years ago.

RV1.32

ऋषि: -हिरण्यस्तूप  आङ्गिरस =

इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री

अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम् ।। 1.32.1

-महर्षि दयानंद के अनुसार; हे विद्वान्‌ लोगो ! तुम लोग जैसे सूर्य के जिन प्रसिद्ध  पराक्रमों को कहो  उन को  मैं भी शीघ्र कहूं | वह सब पदार्थों का छेदन करने  वाली किरणों से -युक्त सूर्य मेघ का हनन कर के वर्षाता है, उस मेघ के अवयव रूप जलों को नीचे  ऊपर करता उसको पृथ्वी पर गिराता और उन मेघों के सकाश से नदियों को छिन्न  भिन्न करके  बहाता है |

अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष

वाश्रा  इव धेनव: स्यन्दमाना अंज: समुद्रमव जग्मुराप: ।। 1.32.2

-जैसे यह सूर्यलोक मेघमण्डल में रहने वाल गर्जन शील मेघ को मारता है, इस मेघ के लिए  काटने के स्वभाव वाले किरणों को तोड़ता है. इस कर्म से बछड़ों को प्रीति पूर्वक चाहती हुई गौओं के समान चलते हुए प्रकट जल से पूर्ण समुद्र को नदियों के द्वारा जाते हैं.

Life Begins

वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत् सुतस्य

सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् 1.32.3

-सशक्त वृषभ की तरह आचरण करता हुवा सूर्य्यलोक मेघ के समान इस उत्पन्न हुए जगत के व्यवहार में बर्ताने वाले पदार्थों की  तीन अवस्थाओं उत्पत्ति, स्थिरता और विनाश की व्यवस्था बनाता है.( पृथ्वी पर वनस्पति और जीव उत्पन्न हो जाते हैं)  और्र पृथ्वी पर सूर्य अपनी शस्त्ररूपी किरण समूह द्वारा और मेघों से वर्षा द्वारा पृथ्वी  पर अपार समृद्धि का साधन बनता है. ( यहां फोटोसिंथेसिस द्वारा वनस्पति और पर्यावरण उत्पत्ति का ज्ञान निहित है)

Ozone layer Formation

यदिन्द्राहन् प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिना: प्रोत माया:

आत् सूर्यं जनयन् द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं किला विवित्से ।। 1.32.4

-प्रथम सब भिन्न भिन्न पदार्थों को आस्तित्व प्रदान करने के लिए सूर्य्यलोक में छोटे  छोटे  मेघों के मध्य में सूर्य का  आवरण  करने वाली बड़ी घटा  उठती है. उन मेघों  की अंधकार  रूप घटाओं  को अच्छे  प्रकार  हरता है तब विशेष   किरण  समूह  से प्रात:काल और  प्रकाश को प्रकट करता है.

Dinosaur Period

अहन् वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन

स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाऽहि: शयत उपपृक् पृथिव्या: ।। 1.32.5

-यास्क /दयानंद के अनुसार ; बड़े  बड़े मेघों और बिजलियों के वज्र से बड़े बड़े वृक्षादि को काट कर पृथ्वी पर  धराशायी कर दिया और वे सूर्य के गुणों से मृतक वत पृथ्वी पर सोते हैं

Sedimentary Rock Formation

अयोध्देव दुर्मद हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम्

नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजाना: पिपिष इन्द्रशत्रु: ।। 1.32.6

-यास्क/  दयानंद के अनुसार; वे बड़े बड़े पदार्थ सूर्य के शत्रु मेघ से युद्ध न कर सकने वाले, सब पदार्थों के रस को लिए हुए  सूर्य से पिस कर पर्वतों,  पृथ्वी के  बड़े बड़े टीलों को काटती हुई नदियों में बह चले.

अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान

वृष्णर्वध्रि: प्रतिमानं बुभूषन् पुरुत्रा वृत्रो अशयद् व्यस्त: ।। 1.32.7

नदं भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्याप:

याश्चिद् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहि: पत्सुत:शीर्बभूव ।। 1.32.8

नीचावया अभवद् वृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार

उत्तरा सूरधर: पुत्र आसीद् दानु: शये सहवत्सा धेनु: ।। 1.32.9

अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्

वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घं तम अशयदिन्द्रशत्रु: ।। 1.32.10

-यास्क के अनुसार ; कहीं न रुकने वाले अस्थावर जलों में मेघ निहित है.जब वे मेघ निम्नप्रदेश में विचरते हुए गाढ़  अंधकार  फैला देते हैं.

दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन् निरुध्दा आप: पणिनेव गाव:

अपां बिलमपिहितं यदासीद वृत्रं जघन्वाँ अप तद् ववार ।। 1.32.11

-यास्क के अनुसार; मेघ में  छिपाया हुवा रक्षक वृष्टि जल जो जल के निकलने का  द्वार जो ढका हुआ था उसे विद्युत ने खोल दिया,एवं वृष्ट होने लगी.

अश्व्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन् देव एक:

अजयो गा अजय: शूर सोममवासृज: सर्तवे सप्त सिन्धून् ।। 1.32.12

नास्मै विद्युन्न तन्यतु: सिषेध यां मिहमकिरद् ध्रादुनिं

इन्द्रश्च यद् युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ।। 1.32.13

अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत्

नव यन् नवतिं स्रवन्ती: श्येनो भीतो अतरो रजांसि ।। 1.32.14

इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य शृंंगिणो वज्रबाहु:

सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान् न नेमि: परि ता बभूव ।। 1.32.15

वेदों में प्रातः भ्रमण

morning walk

Morning Walk  in Veda 

14.2

स्योनाद्‌ योनेरधि बुध्यमानौ हसामुदौ महसा मोदमानौ ।

सुगू सुपुत्रौ सुगृहौ तराथो जीवावुषसो विभाती: ॥ AV 14.2.43

सुखप्रद शय्या से उठते हुए, आनंद चित्त से प्रेम मय हर्ष  मनाते हुए, सुंदर आचरण से युक्त, श्रेष्ठ पुत्रादि संतान,  उत्तम गौ,  सुख सामग्री से युक्त घर में निवास करते हुए सुंदर प्रकाश युक्त प्रभात वेला का दीर्घायु के लिए सेवन करो.

प्रात: भ्रमण के लाभ

नवं वसान: सुरभि: सुवासा उदागां जीव उषसो विभाती:  ।

आण्डात्‌ पतत्रीवामुक्षि विश्वस्मादेनसस्परि ॥ AV14.2.44

स्वच्छ नये जैसे आवास और परिधान कपड़े आदि के साथ स्वच्छ वायु में सांस लेने वाला मैं आलस्य जैसी बुरी आदतों से छुट कर, विशेष रूप से सुंदर लगने वाली  प्रात: उषा काल में उठ कर  अपने घर से निकल कर घूमने चल पड़ता हूं जैसे एक पक्षी अपने अण्डे में से निकल कर चल पड़ता है.

प्रात: भ्रमण के लाभ

शुम्भनी द्यावा पृथिवी अ न्तिसुम्ने महिव्रते ।

आप: सप्त सुस्रुवुदेवीस्ता नो मुञ्चन्त्वंहस: ॥  AV14.2.45

सुंदर प्रकृति ने मनुष्य को सुख देने का एक महाव्रत ले रखा है. उन जनों को जो जीवन में  प्राकृतिक वातावरण के समीप रहते हैं सुख देने के लिए मानव शरीर में  प्रवाहित  होने वाले सात दैवीय जल तत्व हमारे दु:ख रूपि रोगों से छुड़ाते हैं .

Elements of Nature have avowed to make life comfortable and healthy for the species. Particularly the seven fluids that move around the human anatomy are specifically helped by Nature. Modern science confirms that presence of naturally created ‘Schumann’ electromagnetic field and  negative ions  generated by Nature play very significant roles in maintaining  good physical and mental health of human beings.

(प्रात: कालीन उषा प्रकृति के सेवन द्वारा सुख देने वाले वे मानव शरीर के सात जल तत्व अथर्व वेद के निम्न मंत्र में बताए गए हैं .

( को आस्मिन्नापो व्यदधाद्‌ विषूवृत: सिन्धुसृत्याय जाता:।

तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा  अवांची: पुरुषे तिरश्ची: ॥ AV 10.2.11

(भावार्थ)  परमेश्वर ने मनुष्य में रस रक्तादि के रूप में (सप्तसिंधुओं) सात भिन्न  भिन्न जलों को मानवशरीर में  स्थापित किया है. वे अलग अलग प्रवाहित होते हैं . अतिशय रूप से – अलग अलग नदियों की तरह बहने के लिए उन का निर्माण  गहरे  लाल रंग के, ताम्बे के रंग के, धुएं  के रंग इत्यादि के ये जल (रक्तादि) शरीर में ऊपर नीचे और तिरछे सब ओर आते जाते हैं.

ये सात जल तत्व आधुनिक शरीर शास्त्र के अनुसार निम्न बताए जाते हैं.

1.  मस्तिष्क सुषुम्णा में प्रवाहित होने वाला रस (Cerebra –Spinal Fluid)

2.  मुख लाला (Saliva)

3.  पेट के पाचन रस (Digestive juices)

4.  क्लोम ग्रन्थि रस जो पाचन में सहायक होते हैं (Pancreatic juices)

5.  पित्त रस ( liver Bile)

6.  रक्त (Blood)

7.  (Lymph )

ये सात रस मिल कर सप्त आप:= सप्त प्राण: – 5 ज्ञानेन्द्रियों, 1 मन और 1 बुद्धि का संचालन करते हैं.)

भ्रमण में पारस्परिक नमस्कार

सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च ।

ये भूतस्य प्रचेतसस्तेभ्य इदमकरं नम: ॥ AV14.2.46

सूर्य इत्यादि प्राकृतिक देवताओं को,  सब मिलने वाले मित्रों जनों को  जो सम्पूर्ण भौतिक जगत को प्रस्तुत करते हैं हमारा नमन है. ( भारतीय संस्कृति में प्रात: काल भ्रमण में जितने लोग मिलते हैं उन सब को यथायोग्य नमन करने की परम्परा इसी वेद मंत्र पर आधारित है)