ओउम
अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
डा. अशोक आर्य ,
प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है की वह दु:खों से दूर रहे, सदा सुखों की छाया उस पर बनी रहे | वह ऐसे काम करे जिस से उसका नाम सर्वदिक हो | दुर्गुण उसके पास न आवें | सद्गुणों से निरंतर वह अपना जीवन सुखी बनाए तथा संसार को भी सुखी बनाने में उसकी भूमिका स्पष्ट दिखाई दे, एसा प्रयास उस का रहता है क्योंकि वह अमृत्व को पाने की अभिलाषा रखता है , उत्कृष्ट , सुन्दर व लम्बी आयु पाने की अभिलाषा के साथ वह निरंतर देवों की और बढ़ना चाहता है , अमृत्व को प्राप्त करना चाहता है | यजुर्वेद के अध्याय ४ के मन्त्र संख्या २८ में इस ओर ही संकेत किया गया है ,जो इस प्रकार है : –
परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा माँ सुचरिते भव |
उदायुषा स्वायुशोदस्थाममृतान्म अनु || यजु. ४.२८||
शब्दार्थ : –
हे अग्ने ) अग्नि स्वरूप परमात्मा (मा) मुझे (दुश्चरितात) दुर्गुणों से (परि बाधस्व ) हटाईये (मा ) मुझे (सुचरिते) सद्गुणों की ओर (आ भज ) स्थापित कीजिये (उदायुष) उतम गुणों से भरपूर आयु से (स्वायुषा ) सुन्दर आयु से ( अमृतान अनु ) उठूँ |
भावार्थ –
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! मुझे दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों की ओर लगाईये |सुन्दर व उत्कृष्ट आयु से मैं देवत्व अर्थात अमृत्व की ओर उठूँ |
इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पापों से बचा कर , दुर्गुणों से बचाकर पुण्य मार्ग पर सद्गुणों के मार्ग पर प्रवृत करे | प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका नाम संसार में सर्वत्र आदर व सन्मान से लिया जावे | जब अच्छे लोगों कि गणना हो तो उसका नाम सर्वोपरि हो | क्या यह दुर्गुणों से युक्त प्राणी के लिए संभव है ? दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति तो कटुता से भरा होता है | ऐसे व्यक्ति को आदर, सन्मान कौन देगा ? कौन उसका नाम आदर से लेगा ? कोई नहीं | वह देवत्व को कभी प्राप्त नहीं कर सकता, उसका नाम अच्छे लोगों की सूची में कभी नहीं आ सकता सन्मान तो अच्छे लोगों का होता है अत: सन्मानित स्थान पाने के लिए काम भी ऐसे करने होंगे जिससे लोग सन्मान करें | इस लिए ही इस मन्त्र में अग्निरूप परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! मैं दुर्गुणों को ,दुर्व्यसनों को पाप के मार्ग को छोड़ कर सद्गुणों को ग्रहण करूँ , सुखों के पुण्य के मार्ग को प्राप्त करूँ | यह सब आत्मिक शक्ति से ही संभव है | यह शक्ति परम पिटा परमात्मा की दया से ही प्राप्त होती है | यह आत्मिक शक्ति ही हमें दुगुनों व दुर्विचारों से रोकती है, इन से हमें बचाती है |
आत्मिक शक्ति कहाँ से आती है :-
आत्मिक शक्ति उसे ही मिलाती है, जिस पर उस परम पिता परमात्मा की कृपा हो | परमात्मा की दया दृष्टि के बिना हम आत्मिक शक्ति नहीं पा सकते | जब हम प्रभु की प्रार्थना करते हैं , उस की उपासना करते है , दूसरे शब्दों में जब हम प्रभु के गुणों को समझ कर उस के समीप बैठ कर उससे कुछ उपदेश लेते हैं तथा उस उपदेश के अनुरूप अपने आप को बनाते हुए अपने दुर्गुणों , दुर्विचारों, कुटिल विचारों व पापों को छोड़ देते हैं तो हम स्वयमेव ही सद्गुणों की ओर प्रवृत होते हैं , सद्गुण हमारे ह्रदय में अपना डेरा जमाते चले जाते हैं | इससे हमारा काया कल्प ही हो जाता है |
ईश्वर के आशीर्वाद से जिस मानव का कायाकल्प हो जाता है , वह फिर दुर्विचारों पर मंत्रणा कर ही नहीं सकता, दुर्विचार अब उस के अन्दर प्रवेश कर ही नहीं सकते | अब वह सदैव उत्तम चर्चा में ही लीन्र रहता है | उत्तम चर्चा से न केवल स्वयं ही उत्तम बनने का प्रयास करता है अपितु अन्यों को भी उत्तम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है | इस प्रकार उसके प्रयास से न केवल अपना ही जीवन उन्नत होता है अपितु साथ ही साथ समाज भी उन्नति की ओर अग्रसर होता है | इस को ही उदायुषा तथा स्वायुषा कहा गया है | इसे ही उत्तम व सुन्दर आयु कहा गया है |
मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति | यह उत्तम आयु का ही फल होता है | जब मनुष्य सदैव उत्तम कर्म करता है तो उस को सर्वत्र यश व कीर्ति की प्राप्ति होती है , सर्वत्र उस का नाम सन्मान से लिया जाता है , यह यश कीर्ति व सन्मान ही तो उस के जीवन का सजीव समारक है , जिसे पाकर वह अपने आप को धन्य अनुभव करता है | यह सन्मान , यह , यश , यह कीर्ति अच्छे कर्मों से , अच्छे कामों से ही प्राप्त होती है | इस को ही मानव जीवन में अमृत्व का मार्ग बताया गया है | इस मार्ग को ही देवत्व का मार्ग बताया गया है | देवत्व की साधना के लिए हमें अमृतत्व की प्राप्ति करनी होगी | तब ही हम जीवन के अंतिम लक्ष्य को पा सकेंगे |
इस प्रकार मन्त्र हमें बताता है की हे मानव, यदि तू सद्गुणों को अपनावेगा तो तू अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को पा सकता है | मोक्ष को पाने के लिए तुझे देवत्व की प्राप्ति करनी होगी | देवत्व को पाने के लिए अमृत्व को पाना होगा तथा अमृत्व को पाने के लिए तुझे दुर्गुणों का त्याग कर अच्छे गुणों को , सद्गुणों को अपने अन्दर लाना होगा | अत: हे मानव तू अपने दुर्गुणों को, पापाचारों को छोड़ तथा सद्गुणों को अपना ताकि तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सके | मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है | अत: निरंतर इस मार्ग पर ही आगे बढ़ , सफलता निश्चित रूप से मिलेगी |
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४-शिप्रा अपार्टमैंट ,कौशाम्बी
गाजियाबाद , उ. प्र. चलवार्ता : ०९७१८५२८०६८
Category Archives: वेद मंत्र
सब सुखों की प्राप्ति के लिए मन को पवित्र रखो
ओउम
सब सुखों की प्राप्ति के लिए मन को पवित्र रखो
डा. अशोक आर्य मण्डी डबवाली
मन की पवित्रता की सर्वत्र चर्चा होती है | जिसका मन पवित्र है , वह सत्वादी है, वह धर्मात्मा है , वह परोपकारी है , वह दूसरों का सहायक है उसमें वशीकरण की शक्ति है, इसे व्यक्ति के मन को बुद्धि सदा ही चेतना देती है | एसा मन ज्ञान और कर्म से भरपूर होता है , व् संकल्प शक्ति का केंद्र बन जाता है ,एसा व्यक्ति चिंतनशील, सुविचारों वाला होता है | जब मन के शुद्ध होने से इतने गुणों की प्राप्ति होती है तो क्यों न हम इन सुखों को पाने के लिए मन को पवित्र रखें | यजुर्वेद के अध्याय २ के मन्त्र आठ, अध्याय ८ के मन्त्र १४ तथा अथर्ववेद के अध्याय ६ मंडल ५३ के मन्त्र संख्या ३ के अंतर्गत मन को सर्व सुख दाता बताया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : –
सं वर्चसा पयसा सं तनुभी –
रागंमही मनसा स गं शिवेन |
त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायो$-
नुमार्ष्तु तन्वो यद् विलिष्तम|| यजुर्वेद २.२४, ८. अथर्वेद ६, .५३.३ .१४||
शब्दार्थ :
( वर्चस ) ब्रहमचारी से (पयसा ) दुग्धादी से (समागंमही) युक्त हो (तनुभी:) स्वस्थ शारीर से (सम अगन्मही) युक्त हो ( शिवेन मनसा ) शांत एवं पवित्र मन से ( सम अगन्मही) युक्त हो (सुदत्र:) शुभ दानी (त्वष्टा ) विधाता (राय:) एश्वर्य (विदधातु ) दे या करे (तंव:) हमारे शरीर का (यत) जो (विलिष्ट्म) न्यून या निर्बल अंग है, उसे (अनुमार्ष्ट्तु ) शुद्ध या ठीक करे |
भावार्थ : –
हे प्रभु हमें ब्रह्मवर्चस और दुग्धादि से युक्त करो | हम स्वस्थ शरीर वाले हों | पिता, हमारा मन भी शुभ हो | हे दानियों के दानी , महादानी प्रभु, हमें एश्वर्य दो | इसके साथ ही साथ हमारे शरीर की न्यूनताओं को दूर करो |
सब प्राणियों की इच्छा रहती है की वह शक्तिशाली हों , बल में कोई उससे आगे न हो | शक्ति के दोनों साधन अर्थात ब्रह्मवर्चस से हम भरपूर हों | इसके लिए दुग्ध आदि पौष्टिक पदार्थों की आवश्यकता होती है , प्रभु हमें दूध , घी, शक्ति वर्धक फल, वनस्पतियों से भरपूर करदो , ताकि हमारे अन्दर ओज पैदा हो, शक्ति की वृद्धि हो तथा हमें कोई पराजित न कर सके | इस मन्त्र में हम परम पिता परमात्मा से यह भी मंगाते हैं कि हे प्रभु, हम स्वस्थ शरीर वाले हों | स्वस्थ शरीर भी ब्रह्मचर्य के सेवन व पोष्टिक पदार्थों के उपभोग से ही बनता है | अत: हम कह सकते हैं कि हम अपनी बात पर बल देते हुए एक बार पुन: ब्रह्मचर्य व धन धान्य की मांग पर बल देते हैं | परमात्मा दानियों का भी दानी होने के कारण महान दानी है | वह बिन मांगे हमारी इच्छाए, आवश्यकताएं पूर्ण करता है | इस लिए हम परम पिता परमात्मा से हमारे शरीर की कमियों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं |
मन्त्र में मन की पवित्रता पर बल देते हुए इस के महत्व का बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है | इस मन्त्र में मानव जीवन के दो लक्ष्य बताये हैं | यह दो लक्ष्य हैं : –
अभ्युद्य तथा नि:श्रेयस
अभ्युदय का भाव समाज में आदरपूर्ण स्थिति से है | यह स्थिति प्राप्त करने के लिए हमें सांसारिक सुख वैभव प्राप्त करना होता है , सांसारिक उन्नति करनी होती है | हमें धन वैभव से संपन्न होना होता है क्योंकि सम्पन्नता के बिना समाज में आदर नहीं मिलता | संसार में आदर पाने के लिए हमें संपन्न होना ही होगा अन्यथा संसार में ख्याति नहीं मिल सकती |
मन्त्र कुछ अभीष्ट बातों की और भी संकेत करता है | इन में कुछ बातें व्यवहारिक हैं ओर कुछ सम्पन्नता से सम्बन्ध रखती हैं | यथा : सुन्दर स्वास्थ्य, ब्रह्मवर्चस , दुग्धादी जिसे आज के युग में धन धान्य से भरपूर होना कह सकते हैं , तथा शुभ व शुद्ध मन का संग्रह करने के रूप में है | प्रसाद गुण की प्राप्ति के लिए मन का शुभ विचारों से भरपूर होना आवश्यक है | प्रसाद गुण की अवस्था में सर्वत्र प्रसन्नता ही प्रसन्नता समझी जाती है | जब मुखमंडल प्रसन्नता की आभा से भरा होगा तो मुख मंडल की दीप्ती, आभा या चमक से सब ओर उसकी ख्याति फ़ैल जावेगी , सब उसी को ही निहारेंगे , उसी को ही देखना चाहेंगे , वैसा ही बनने का संकेत अपने परिजनों को देंगे | इस अवस्था में ही प्रसाद गुण का आघान होता है | इसे ही ब्रहमचर्य कहते हैं |
इस प्रकार का संयमित जीवन बिताने वाला सदैव निरोगी होता है | कोई दू:ख क्लेश उसके पासा नहीं आता | इस प्रकार का संयमी जीवन बिताने वाला ही ब्रह्मवर्चस होता है | इस शक्ति को पाने पर उसके शारीर से रोग के सब अणु या जीवाणु नष्ट हो जाते हैं | रोगमुक्त होने से उस की शारीरिक शक्ति बढ़ जाती है , चेहरे पर एक विशेष प्रकार की आभा आ जाती है | कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है तथा इस क्षमता से जब वह कार्य करता है तो उस के पास धन एश्वर्य के भर पूर भंडार हो जाते हैं , इस प्रकार की श्री व्रद्धी से वह असीमित धन सम्पति का स्वामी बन जाता है |
मन में परम पिता परमात्मा से यह प्रार्थना की गयी है कि परमात्मा हमें एश्वर्य दे तथा शारीरिक न्यूनताओं को दूर करो, यदि कोई न्यूता है तो हमारे मन को पवित्र करो शुभ विचारों वाला बनाओ , शिव संकल्पों से भर दो ताकि हमारी कमियाँ हम पर कभी भारी न हों तथा हम उन्हें दूर करने मैं सक्षम हो सकें |
यदि हम अपने विचारों को शुभ संकल्पों से भर देंगे , ब्रह्मतेज प्राप्त कर लेंगे, मन को पवित्रता से वश में कर लेंगे तो कोई कारण नहीं कि किसी ओर से भी हमारे मन में बुरे विचार आवें, स्वास्थ्य गिरे , कोई कमी नहीं आवेगी तथा हमारी अच्छे कार्यों के करने से हम सदा ही सम्मानित स्थान समाज में प्राप्त करने के अधिकारी होंगे |
डा. अशोक आर्य , मण्डी डबवाली
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट , कौशाम्बी
गाज़ियाबाद (उ. प्र. )
चलवार्ता ०९७१८५२८०६८
हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे
ओउम
हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे
डा अशोक आर्य
ज्ञान से मानव का अंत:करण पवित्र हो जाता है । ग्यानी अर्थात विद्वान की संगति को सब लोग पसंद करते हैं । गयान से ही व्यक्ति सर्वगुण संपन्न बनता है । सब गुणों से संपन्न व्यक्ति को सर्वत्र सम्मान मीलता है , उसकी सलाह पर लोग चलते हैं तथा वह सब का मार्ग दर्शक होता है । इस लिए कहा जाता है कि ज्ञान के समान पवित्रता लाने वाली कोई और वस्तु नहीं है तथा इसे पाने के लिए निरंतर ज्ञान के सागर में गोते लगाने की आवश्यकता होती है । इस तथ्य को ही साम वेद के मन्त्र संख्या 33 में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
शन्नो देवीरभिष्टाए शन्नो भवन्तु पिताये ।
स\श्न्योरभीस्रवन्तु न: ।। सामवेद 33।।
इस मन्त्र में मुख्य रूप से चार बातों पर प्रकाश डाला गया है ।
1) दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों : –
दिव्य बुद्धिया , जिन का निर्माण केवल और केवल ज्ञान से ही संभव होता है , हमें सदा शांति देने वाली हों । जो व्यक्ति ज्ञान का भंडारी होता है । बुद्धि का भरपूर भण्डार अपने पास राखता है , एसा व्यक्ति कभी अशांत नहीं देखा गया, कभी दू:खी नहीं देखा गया । उसके सब दू:ख क्लेष क्षणों में ही दूर हो जाते हैं । बुद्धि की सहायता से वह अपने प्रत्येक संकट का कोई न कोई मार्ग निकाल ही लेता है । इसलिए इस मन्त्र में सर्व प्रथम कहा गया है कि हम दिव्य बुद्धियों के स्वामी बनें तथा यह दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों ।
मानव सदा अपना जीवन सुखी व शान्ति से भरपूर बनाना चाहता है किन्तु अनेक प्रकार की व्याधियां उसे सुखी नहीं होने देतीं , कोई न कोई संकट उसके मार्ग में सदा खड़ा रहता है । इन संकटों से पार पाने के लिए उसे बुद्धि की आवश्यकता होती है , ज्ञान की आवश्यकता होती है । यह बुद्धि तथा यह ज्ञान ही उसे संकटों में से रास्ता निकाल कर शान्ति की और ले जाता है । अत: वास्तविक सुख व शान्ति पाने के अभिलाषी मानव को ज्ञान की प्राप्ति के लिए सदा यत्न शील रहना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि पूर्ण अज्ञानी होने से भी शान्ति मिलती है , इस शान्ति को तामस निश्चलता कहते हैं । इस प्रकार की शान्ति में कभी सुख का अनुभव नहीं होता । अत: यह ज्ञान का मार्ग ही है जिससे हमें सुख मिलता है । इस लिए हमें सदा ज्ञान प्राप्ति का यत्न करते रहना चाहिए ।
2) बुद्धियों के प्रयोग से हम सदा निरोग हों : –
मन्त्र में कथित दूसरी चर्चा के अंतर्गत कहा गया है कि दिव्य बुद्धियां हमें आसुरी भावनाओं से भरपूर आक्रमणों से रक्षा करने के लिए सदा आसुरी प्रव्रितियों से युद्ध करती रहती हैं । इस से स्पष्ट होता है कि दिव्य बुद्धियां हमारे पास महान योद्धा के रूप में कार्य करते हुए आसुरी भावनाओं से सदा युद्ध करती रहती हैं तथा हमारी इन दुष्ट बुद्धियों से रक्षा करती हैं । इन बुद्धियों का आधार ज्ञान होता है अत: यह अज्ञान पर ज्ञान से आक्रमण कर उन्हें नष्ट करती हैं । जिस प्रकार मानस आधियों पर ज्ञान आक्रमण कर उन्हें दूर भगाता है , उस प्रकार ही शरीर से सम्बंधित व्याधियों पर भी ज्ञान भीषण आक्रमण कर उन्हें दूर भगा देता है ।
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा ने अनेक प्रकार की ओषधियाँ पैदा की हैं , जिन के प्रयोग से सब प्रकार के रोगों का नाश किया जा सकता है किन्तु जब तक हमें उन ओषधियों तथा उनके गुणों का ज्ञान नहीं होता तब तक वह ओषधिय बूटियाँ हमारे लिए घास फूस से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखतीं । यह ज्ञान ही है जो हमें इन ओषधियों के गुणों का ज्ञान कराता है , यह ज्ञान ही है , जो हमें इन ओषधियों की पहचान भी कराता है । इतना ही नहीं यह ज्ञान ही होता है जो हमें इन ओषधियों के प्रयोग की विधि भी बताता है । अत: जब हम ज्ञान की सहायता से बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो हम निरोग भी हो जाते हैं ।
3) बुद्धि हमारा रक्षा कवच बन हमारी रक्षा करे : –
जैसे ऊपर कहा गया है ठीक उस प्रकार ही स्पष्ट तथ्य मन्त्र अपनी तीसरी कथा का वर्णन करते हुए उपदेश करता है कि यह जल हमारी व्याधियों को ,,हमारे रोगों को नष्ट करते हुए, दूर करते हुए हमारी रक्षा के लिए हों अर्थात हमारी रक्षा करें । जब भी कभी अथवा कहीं ज्ञान का अभाव होता है , तब ही तथा वहां ही विनाश होता है । इससे स्पष्ट होता है कि अज्ञान ही हमारे विनाश का कारण होता है । ज्ञान हमारे लिये रक्षा कवच का कार्य करते हुए हमारी सब प्रकार की आधियों तथा व्याधियों से रक्षा करता है ।
4) हम सदा ज्ञान सागर में गोते लगाते हुए सब कष्टों से मुक्त हों : –
मानव की यह अभिलाषा रहती है कि उसे भयंकर रोगों से मुक्त करने वाली यह दिव्य बुद्धियाँ सदा हमारे चारों और बहती रहे ताकि हम सदा रोगों से बचे रहे । दुसरे शब्दों में हम यहाँ मन्त्र की चौथी बात को इस प्रकार समझ सकते हैं कि हम सदा ज्ञान से भरपूर वातावरण में , पर्यावरण में रहें अथवा सदा अपने ज्ञान को बढाने का प्रयास करते रहे । हमारे महान ऋषियों ने हमें महान उपदेश दिए हैं , विद्वत्तापूर्ण पुस्तकों का भण्डार दिया है , । इन उपदेशों तथा ग्रंथों को हम सदा अपना साथी बनाकर अपने साथ रखें । इन से सदा मार्ग दर्शन लेते रहे । सदा अपने ज्ञान को बढाते हुए शान्ति प्राप्त करें, अपनी शक्ति को बढावें, अपनी रक्षा करें तथा सदा निरोग रहे । ऐसे रहते हुए निरोगता का अनुभव करते हुए तीनों कष्टों से मुक्त हो ज्ञान उपासक , प्रभु भक्त बनें ।
डा अशोक आर्य
104 – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, गाजियाबाद
चलावार्ता – 0120 277 3400 , 09718528068
e mail –ashokarya1944@rediffmail.com
हम दान कर अपनी कमिया दूर करे
औ३म
हम दान कर अपनी कमिया दूर करे
डा.अशोक.आर्य
हम रोग क्रामियो से लड़े,हमारा प्रत्येक अंग शक्तिशाली हो , मन शिव संकल्प वाला हो ,हम धन आदि का सदा दान करते हुए अपनी कमीयो को दूर हटा कर इन्हे शुद्ध करे | यजुर्वेद प्रथम अध्याय का यह २४ वा मंत्र इस पर ही उपदेश करत्रे हुए कह र्हा है,कि.:-
स वर्चसा पयसा संतनुभिरगन्महि मनसा स शिवेन |
त्वष्ट सुदत्रो विदधातु रायो नुमार्ष्टु तन्वो यद्वित्निष्टम || यजुर्वेद १.२४ ||
जब मानव अपने यत्न से , अपने प्रयास से राक्शसी प्रव्रतियो को अपने से दूर करने मे सफल हो जाता है तो यह अपने संबंध मे प्रभु से कुछ प्रार्थना करने की स्थिति मे आ जाता है | अब वह प्रभु से प्रार्थना करता है क़ि :-
1 हे प्रभु हमारे मे एसी शक्ति हो कि हम अपने अंदर के जो रोगाणु है , जो रोग बटाने तथा फैलाने वाले कीट आदि हमारे अंदर निवास कर रहे है ,उन्हे मारने मे हम सदा सफल हो | इस जगत मे बहुत से लोग तो एसे है कि जो बुराई से लड़ने का साहस ही नही करते और अनेक एसे भी होते है जो अकारण ही लड़ाई करते रहते है किंतु मंत्र उपदेश करता है की बुराई तथा रोग के कीटाणुओ से हम कभी लड़ने से पीछे न हटे | यह रोग के कीटाणु जब फैल जाते है तो हमारे लिए भ्यकर रोग परेशानी का कारण हो जाते है | इस लिए पैदा होते ही इनका विनाश उत्तम होता है | इस लिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हम इन रोगो के कीटो से लड़ने मे सक्षम हो तथा अपनी प्राण शकति के रक्षक बनकर प्राणो को अर्थात जीवन को लंबा करे |
२. हम ने रोग के कीटणु के रुप में आये शत्रु से लडना है किन्तु हम तब ही उनसे लड पवेंगे ,जब हम स्वस्थ होंगे , शक्तिशली होंगे, पुष्ट होगे । इस लिए मन्त्र मे यह जो दूसरी प्रर्थना की गयी है कि हमारे एक एक अंग की शक्ति निरन्तर ब्रद्धि की ओर ही अग्रसर रहे । जितना हम संघर्ष करें , उतना ही हमारे अंगों की शक्ति भी बटे । इस में कभी कमी न आने पावे। प्रत्येक अंग सशक्त हो ।
३. हम ने रोगणुओ से लडना है किन्तु यह हम तब ही कर सकते है , जब हम शक्ति का संरक्शण कर सकेगे । कोई भी सेना शत्रु पर तब तक विजयी नही होती , जब तक कि वह शत्रु से शक्ति मे कुछ अधिक न हो । यदि शक्ति मे शत्रु से कम है तो विजय का प्रश्न ही नहीं होता । फ़िर जिस शत्रु से हम लडने जा रहे हैं ,वह तो हमारे शरीर के अन्दर ही है । अन्दर रहते हुए ही यह हमारा नाश कर रहा है । इस से लडने के लिए हमारे शरीर के अनदर भी एसी शक्ति हो कि यह अन्दर बौटे इस शत्रु का नाश कर सके । इस प्रकर की शक्ति को पाने के लिए ही मन्त्र कह रहा है कि एसी शक्तियां जिस शरीर में निरन्तर बटती रहती हैं , हे प्रभु ! हमें एसा शरीर दो । भाव यह है कि हमारा शरीर इतना पुष्ट हो कि जो रोधक शक्तियों की निरन्तर व्रधि करता रहे ।
४. हमने अपने अन्दर की राक्षसी प्रवरतियों से लड़ाई लड़नी है किन्तु इस में हमें विजय कैसे मिलेगी ? यह विजय पाने के लिए हमारे मन में मजबूती का होना आवश्यक है | जब हमारा मन ही मजबूत नहीं है , हमारा मन ही स्थिर नही है तो हम इस लड़ाई में विजय कैसे पा सकते हैं ? इस लिए मन्त्र कहता है की हम शिव संकल्प वाले हों | अर्थात हम द्रट निश्चय वाले हो , जो निर्णय हमने ले लियॆ है , उसे पूरा करने के लिए अपनी सब शक्ति लगा देवें | यह ही हमारी विजय का एक मेव मार्ग है | इस प्रकार के प्रयत्न से जब हम अपने शत्रुओ का नाश करने में सफल हो जाते हैं तो हमारा जीवन लंबा हो जाता है |
2
स्वस्थ होने से हमारी प्राणशक्ति बट जाती है | जब हमारी प्राण शक्ति बट जाती है तो हमारे शरीर के सब अंग स्वस्थ व द्रट हो जाते हैं | हम अपने शरीर के शब्द को नाम को सार्थक करने वाले बन जाते हैं |
५. जब हम सब प्रकार के सुखो को पा लेते है तो हम अपने जीवन को उतम बनाने के लिए धन की इच्छा करते है और इस मन्त्र के माध्यम से उस पिता से प्रार्थना करते हैं क़ि सब सुखों को देने वाला वह प्रभु न केवल हमें युद्धों में विजयी कर स्वस्थ ही बनाने वाला है बल्कि यह हमें सुन्दर भी बनाने वाला है | उस ने हमारे रंग रूप से तो हमें सुन्दर बनाया ही है , हमें रस गंध, रूप , स्वस्थ शरीर दे कर इस शरीर से भी सुन्दर बनाया है | वह पिता एक अद्भुत शिल्पी है , वह जब कुछ बनाने बैठता है तो उस की कारीगरी में , उसकी निर्माण कला में किंचित भी कमीं नहीं रहती , वह पूर्ण है ओर उसकी क्रती भी पूर्ण ही होती है | इस प्रकार हमें उतम से उतम साधन तथा शक्तियां देने वाला प्रभु हमें दान देने के लिए उतम धन भी दे | इस प्रकार पूर्ण स्वस्थ होने के पश्चात हमने उस पिता से धन मांगा है , यह धन भी हमने अपने लिए नहीं दूसरों की सहायता के लिए , दुसरों को उन्नत करने के लिए मांगा है |
यहां पर मन्त्र एक अन्य उपदेश कर रहा है | मन्त्र कहता है क़ि प्राणी उस पिता से धन की कामना कर रहा है किन्तु कुबेर बनने के लिए नहीं | धन का चौकीदार अथवा स्वामी बनने के लिए नहीं बल्कि दूसरों की सहायता के लिए , दान के लिए | कितना सुन्दर उपदेश दे रहा है यह मन्त्र | हम धन तो मांगें किन्तु दूसरों की सहायता के लिए | हमने धन अपने हित के लिए नहीं मांग रहे | हमने धन इस लिए नहीं मांगा की इस से हम विलासिता की सामग्री प्राप्त कर नशे में धुत हो आलसी बनकर लेटे रहें , कर्म हीन हो जावें , पराश्रित हो जावें | इस प्रकार हम निरंतर म्रत्यु के पाश में जकडते चले जावेंगे | नहीं हमारा प्रभु हमारा पिता भी है | वह हमें एसा धन कभी भी नहीं देगा , जिस से हम अपने आप को नष्ट कर दें | वह तो वह धन एसा ही देगा जिस से हमारा स्वास्थ्य उत्तम हो तथा हमारे यश व कीर्ति भी बढे |
६. प्रभु कृपालु है , प्रभु दयालु है | वह प्रभु हम पर कृपा करके , हम पर दया कर के , हमारे शरीर में जो भी अलपग्यता है , जो भी कमियां है , जो भी त्रुटियां है , अपनी शक्ति से उन सब को दूर करदे | हमारी सब न्यूनताऒ को अपनी कृपा से दूर करदे | हमारे मलों को धो कर , नष्ट कर दे , उनको शुद्ध करदे | इस प्रकार जब हमारे अन्दर किसी प्रकार का मालिन्य नहीं रहे गा तो हम स्वयं ही सुन्दर से भी कहीं अधिक सुन्दर हो जावेंगे | यहां एक बात समझने की है क़ि प्रभु उसकी ही सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करता है | अत: जो इस प्रकार का पुरुषार्थ करता है , मेहनत करता है , एसी सुन्दरता प्रभु उसे ही देता है | अन्य किसी को नही |
डा.अशोक.आर्य
104 शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद
सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें
ओउम
सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें
डा. अशोक आर्य
मानव प्रतिक्षण बुराईयों से घिरा रहता है . बुरा मार्ग जीवन का एक सरल मार्ग होता है , जिस पर चलकर वह शीघ्र ही धनपति बनना चाहता है क्योंकि वह जानता है की सुखों की प्राप्ति धन से होती है . जब धन की प्राप्ति ताप से, पुरुषार्थ से होती है . ताप व पुरुषार्थ से उतना धन नहीं मिलता, जितना पाने की वह अभिलाषा रखता है , इसलिए उसे बुराई का मार्ग पकड़ना होता है . बुरे मार्ग से वह शीघ्र ही अपार धनो का स्वामी हो जाता है किन्तु यह अपार धन भी उसे सुखी नहीं होने देता . उसका मन उसे प्रत्येक समय धिक्कारता रहता है की तुने यह धन किसी से छिना है, किसी को दुःख देकर पाया है, यह किसी दुसरे का अधिकार था जिसे तुने ले लिया, इससे आशीर्वाद नहीं मिला सकता, यह धन कभी अपमान का , कभी तिरस्कार का कारण बन सकता है . इन विषयों को मन में ला कर वह सदा दुखी रहता है , रुग्न हो जाता है . चिकित्सक उस दूध घी आदि पदार्थों के सेवन से ओकते हैं . इस प्रकार द्वार पर कड़ी सैंकड़ों गाय धन के होते हुए भी वह दूध, घी, मक्कन आदि का उपभोग नहीं कर सकता . इसलिए ही कहा गया है की हम अपने अन्दर से बुराईयों को निकाल बाहर करें. यजुर्वेद में भी इस विषय में ही चर्चा करते हुए इस प्रकार कहा गया है :-
माँ भेर्मा संचिक्या उर्ज घत्स्व , घिषने विड्वी सति विड्येथाम ,
उर्ज दधाथाम . पाप्मा हटो न सोमा .. यजुर्वेद ६ .३५ ..
मन्त्र का भाव है कि : –
हे मानव ! तुम न तो डरो और न ही कांपो . अपने अंदर साहस ( शक्ति विशेष ) ग्रहण करो . हे द्युलोक और पृथ्वीलोक ! जिस प्रकार तुम दोनों दृढ हो, उस प्रकार हमें भी दृढ़ता दो .हमें शक्ति दो ताकि हमारे पाप नष्ट हों किन्तु सद्गुण नष्ट न हों . यह मन्त्र हमें दो उत्तम शिक्षाएं देता है : –
१). हम कभी डरें नहीं : –
मन्त्र सर्वप्रथम यह उपदेश देता है कि हम कभी डरें नहीं तथा हम साहसी हों . स्पष्ट है कि जहाँ डर नहीं , वहां साहस ही काम करता है . जब तक डर है , जब तक भय है , तब तक साहस को ह्रदय मंदिर का प्रवेश द्वार बंद ही मिलता है, इस कारण वह मनुष्य के हृदयों में प्रवेश कर ही नहीं सकता . ज्यों ही भय
बाहर आता है तो प्रवेश द्वार खुल जाता है तथा साहस तत्काल इसमें प्रवेश कर जाता है . इस लिए ही मानव को कहा गया है कि हे मानव ! तुम डरो नहीं सदा साहसी बने रहो. जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति के अन्दर साहस प्रवेश नहीं कर सकता, उस प्रकार ही साहसी के अंदर भय भी प्रवेश नहीं कर सकता .
डरपोक व भीरु व्यक्ति तो प्रतिक्षण भय से ही भयभीत रहता है . जो दुःख आ गया, जो कष्ट आ गया, उस से तो प्रत्येक व्यक्ति ही डरता है, उसके भय से बचने का यत्न करता है किन्तु जो भयभीत व्यक्ति होता है, वह न आये कष्ट से ही भयभीत होता रहता है . उसे इस बात का कष्ट होता है कि कहीं उसे हानि न हो जावे, कहीं कोई चोर उसकी सम्पति का न उडा ले जावे, कहीं कोई उसको चोट न पहुंचा देवे , इस प्रकार के भय से वह प्रति घड़ी भयभीत रहता है . इस का कारण भी है , उसके पास जो भी आकूत धन वैभव होता है वह दूसरे से छीना होता है, दूसरे के अधिकार पर अतिक्रमण कर पाया होता है, दूसरे के कष्टों का परिणाम होता है . स्वयं का इसमें कुछ भी पुरुषार्थ नहीं होता. अत: जिस प्रकार उसने यह धन अर्जित किया होता है, कोई अन्य उससे भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति उससे भी छीन सकता है, यह भय ही उसे सदा सताता रहता है . जो अभी जीवन में देखा नहीं , कहीं वह सामने न आ जावे , इस अनागत भय से वह भयभीत रहते हुए धीरे धीरे रोग ग्रस्त हो जाता है तथा कई बार तो अपनी जीवन लीला भी इस कारण समाप्त कर बैठता है
इस लिए वेद मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तू जीवन में ऐसे काम कर कि भय तेरे पास न आवे . यदि तू अच्छे साधन अपनावेगा तो सदा सुखी रहेगा, किसी प्रकार का भय तेरे पास तक भी न आवेगा, अच्छे काम करने से सब लोग तेरे बताये मार्ग पर बढेंगे , तेरी मित्र मंडली में भी अच्छे लोगों की वृद्धि होगी, जो तेरे यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाने का कारण बनेंगे . इस लिए बुराईयों को छोड़ तथा
२). पापों को नष्ट करें :-
मनुष्य जो प्रति क्षण अनागत भय से सदा कांपता रहता है, अनागत भय से ही सदा भयभीत रहता है , उसका कारण होता है उसका अपना ही पाप से भरपूर आचरण . वह अपने आचरण को पाप पूर्ण मार्ग पर चलाता है ,प्रति घडी वह दूसरों का अहित सोचता रहता है . वह स्वयं तो पुरुषार्थ करता नहीं, स्वयं तो मेहनत करता नहीं किन्तु अत्यधिक धन वैभव को प्राप्त करने के लिए दूसरों के पुरुषार्थ से प्राप्त धन को बलात छीनने का यत्न करता है . दूसरे की सम्पति को स्वयं पाने के लिए गलत मार्ग पर चलता है. इस निमित लुट – पाट तथा मार – काट तक की चिंता नहीं करता. अनेक बार तो वह अपने ही सगे – सम्बन्धियों की सम्पति पाने के लिए उनका बध तक करने में भी संकोच नहीं करता . अर्थात रिश्तों से अधिक वह संपत्ति को , धन को अधिमान देने लगता है . इस प्रकार से हस्तगत हुयी सम्पति ही उसकी चिंता का कारण बन जाती है .एसा कोई क्षण नहीं होता, जब उसको यह चिंता न सता रही हो कि उसने जो सम्पति दूसरे से अर्जन की है, वह अपनी इस सम्पति को वापस पाने के लिए अपने आप को सशक्त कर अथवा किसी शक्तिशाली का सहयोग ले उसे भी हानि न पहुंचा देवें, उससे अपनी सम्पति पुन: वापिस न छीन लेवें, उसका किसी सभा मैं अपमान न कर देवें . यह चिंता उसे अन्दर ही अंदर खाते हुए रोगी कर देती है, अन्दर से खोखला कर देती है ,जिस कारण वह खाना पीना तक छोड़ देता है . फिर इस प्रकार से अर्जित की संपत्ति का उसे क्या लाभ .?
जब वह इस सम्पति को बिना पुरुषार्थ के प्राप्त करता है तो अनेक प्रकार के दुर्व्यसन भी उसे घेर लेते हैं . भयभीत अवस्था में रहने के कारण वह इस भय से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है किन्तु भय है कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ता . इस भय से बचने के लिए तथा उडी हुयी नींद को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की बुराईयों का सहारा लेने के लिए बाधित होना पड़ता है . इन बुराईयों में जो बुराई उसे सबसे सरल लगती है ,सर्वप्रथम उसे अपने जीवन का अंग बना लेता है , इस बुराई का नाम है नशा. वह नशा करने लगता है . नशा में वह आरम्भ तो शराब व तम्बाकू से करता है किन्तु धीरे धीर सब प्रकार के नशों का वह आदि हो जाता है . उसकी मित्र मण्डली में भी इस प्रकार के लोग ही आ जाते हैं जो तम्बाकू, शराब, स्मैक का नशा लेते हैं तथा जुआ व वेश्यागमन भी करते हैं , वह भी उन सब का साथ बखूबी निभाने लगता है, जिससे उसके अन्दर से दया की भावना चली जाती है तथा जो धन उसने दूसरे पर क्रूरता करके छीना था , वह भी धीरे धीरे लुप्त होने लगता है. उसके परिवार व मित्रों में भी उसके साथ लडाई -झगडा व कलह होने लगती है . परिवार
की शान्ति भी नष्ट हो जाती है . शान्ति के नष्ट होने का प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगता है, स्वास्थ्य भी धीरे धीरे गिरने लगता है , इन्द्रियां शिथिल होने लगती हैं तथा चारपाई ही उसका सहारा बन जाती है .
जब वह दुर्व्यसनों में फंस जाता है तो उसकी सात्विक वृति नष्ट हो जाती है . जिससे उसका ह्रदय निर्बल हो जाता है . उसका मनोबल भी धीरे धीरे गिरता ही चला जाता है . इतना ही नहीं उसके शरीर के मुख्य अंग कांपने लगते हैं . जिसमें मनोबल ही नहीं रहा , शरीर के सब बल , सब शक्तियां निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति का साथ छोड़ जाती हैं . इस लिए यह मन्त्र शिक्षा देता है कि : –
यदि अपने ह्रदय को साहस से भरपूर रखोगे , अपने शरीर में शक्ति तथा उत्साह बनाए रखोगे तथा आने वाली विपत्ति का प्रतिकार करने के लिए तैयार रहोगे , तो तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता .
कहा भी है कि जब मनुष्य में साहस आ जाता है, जब मानुष में शौर्य आ जाता है, जब उसमें वीरता आ जाती है तो उसका सब भय स्वयं ही काफूर हो जाता है . इसलिए नीतिशास्त्र यह शिक्षा देता है कि भय से तब तक ही डरो , जब तक वह दूर है . किन्तु भय के समीप आने पर उससे छुपने से वह हमारे नाश का कारण होता है अत: भय समीप आने पर उसका तत्काल प्रतिकार करो . प्रतिकार के लिए हमारी बुद्धि तत्काल जो भी उपाय बताये , उस पर चलते हुए उसका प्रतिकार करो , उसका मुकाबला करो . साहसी बन कर जब मुकाबला करोगे तो भय टिक न पावेगा तथा आपसे दूर भाग जावेगा .
आचार्य विष्णु शर्मा ने एक राजा के बिगड़े हुए राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका नाम रखा था हितोपदेशे . संस्कृत में लिखे इस ग्रन्थ में उसने पशुओं व पक्षियों की कहानियों के माध्यम से नीति के गहन विषयों को बड़ी सरल भाषा से समझाया है . इस ग्रन्थ में ही एक स्थान पर लिखा है : –
तावद भयस्य भेतव्यं , यावत् भायामानागातम
जागतं तू भयं बिक्ष्य , नर , कुर्याद यशोचितम . .,हितोपदेशे मित्र . .. ५६..
मन्त्र जो अन्य शिखा देता है , वह है :-
पाप नष्ट हों : –
मन्त्र कहता है कि मानव के सुखी जीवन के लिए उसे पापमुक्त होना आवश्यक है . हमने देखा है कि पापपूर्ण आचरण ही उसके दुखों का कारण होता है जबकि सद्गुण उसके धन एश्वर्य व कीर्ति को बढाने वाला होता है . इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्रभु ! हमारे पापाचरण को दूर कर हमारे सद्गुणों को बढाईये . ताकि हम सब प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय हो जावें . हम जानते हैं क़ि पाप का भय से सीधा सम्बन्ध होता है . हम देखते हैं कि एक कुते को भी जब हम रोटी डालते हैं तो वह दुम हिलाते हुए हमारे समीप बैठ कर बड़े चाव से उस रोटी को खाता है किन्तु वही रोटी जब वह् पाप पूर्ण आचरण को अपनाते हुए कहीं से चुरा कर लाता है तो वह रोटी को उठा कर कही दूर किसी कोने में छुप कर खाता है क्योंकि वह जानता है कि यदि पकड़ा गया तो मार पड़ेगी . एक कुता जब पाप के मार्ग से इतना भयभीत है तो मनुष्य क्यों न होगा .
इसलिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पाप के मार्ग से हटा कर सद् मार्ग पर लावे , हमें निर्भय बनावे. पापों को नष्ट करने से ही मानव निर्भय होता है . हम अपने जीवन से पाप पूर्ण आचरण को निकाल कर निर्भय हो कर जब जीवन व्यापार करेंगे तो हम मन्त्र की धारणा के अनुसार जीवन यापन कर सुखों को पाने में सफल होंगे .
डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट , कौशाम्बी
गाज़ियाबाद उ.प्र .
चल्वार्ता ०९३५४८४५४२६ , ०९७१८५२८०५८, ०९०१७३२८०६८
इ मेल ashoarya1944@rediffmail.com
हमारा जीवन मधुरता से भरपूर हो
ओउम
हमारा जीवन मधुरता से भरपूर हो
डा. अशोक आर्य
यह युग विज्ञान का युग है | समय बड़ी गति से भाग रहा है और इसके साथ भाग रहा है जन सामान्य | इस कलयुग में कलपुर्जों को ही महत्त्व दिया जा रहा है | कलपुर्जों के इस युग में पुर्जों की सहायता से भागने वाली गाड़ियां आज चींटियों की संख्या में शेर की गति से भाग रही हैं | सब को जल्दी लगी हुई है | किसी के पास समय ही नहीं है किसी दूसरे की समस्या सुनने का किसी दूसरे की सहायता करने का | इस सब अवस्था में किसी के जीवन में भी मधुरता दिखाई नहीं देती , जबकि मधुरता के बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता | जीवन में मधुरता ला कर हम बड़े बड़े कार्यों को सरलता से संपन्न कर सकते हैं | इस चर्चा पर ही ऋग्वेद में इस प्रकार विचार किया गया है : –
मधुमनमे परायणम मधुमत पुनरायनम |
ता नो देवा देवतया युवं मधुमतस्क्रितम || ऋग्वेद १०.२४.६ ||
एक दूसरे से मिलाने मिलने को अश्विनी कुमार कहा जाता है | अश्विनी कहते हैं वह साधन जिससे एक चैन बनती है | एक कुण्डी में दूसरी कुड़ी डालकर संकल बनती है , यह कुण्डी जोड़ने का कम ही अश्विनी कुमार का है | प्रस्तुत मन्त्र एक को दूसरे से जोड़ने का कार्य करता है | इसलिए यहाँ अश्विनी देव की स्तुति की गई है | मन्त्र में कहा गया है कि हमारा बाहर जाना तथा वापिस लौटकर आना दोनों ही मधुमय हों | प्रसन्नता से भरपूर हों, खुशियाँ लाने वाला हो | आनेजाने का कार्य अथवा एक दूसरे को जोड़ने का कार्य ही अश्विनी देव का होने के कारण यहाँ कहा गया है कि हे अश्विनी देवो तुम देवत्व के गुण से भरपूर हो | देवता के अर्थ के अनुरूप तुम संसार के प्रत्येक प्राणी को कुछ न कुछ देते रहते हो | आप के इस गुण के कारण ही आप से कुछ माँगने का यत्न करते रहते हैं तथा इस मन्त्र के माध्यम से आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें मधुरता दें , मधुरता से भर दें | ताकि हमारी सब दुर्भावनाएं दूर हो जावें, समाप्त हो जावें |
अपने निकटस्थ वातावरण को मधुर बनाना अथवा कटु बनाना मानवीय कर्मों पर ही निर्भर होता है | यदि वह अपने वातावरणको मधुरता से भरपूर बनाने की लालसा है तो उसे अश्विनी देव से प्रेरणा लेनी होती है | जिस प्रकार अश्विनी देव एक को दूसरे से जोड़ने का काम करते हैं ,उस प्रकार ही मानव को भी जोड़ने के साधन अपनाने होते हैं | इन साधनों से ही वह अश्विनी कुमारों की भाँती अपने कर्तव्यों को पूरा कर पावेगा | इस कार्य हेतु मनुष्य को परस्पर स्नेह , अनुराग तथा उदारता पूर्ण व्यवहार का प्रयोग करना होता है | यह वह व्यवहार है ,जिससे जोड़ने का कार्य किया जा सकता है | जब हम किसी के साथ सहानुभूति दिखाते हैं तो वह व्यक्ति भी हमारी और खींचता ही चला जाता है | जब हम किसी के साथ स्नेहिल व्यवहार बनाते हैं तो वह भी प्रत्युतर में स्नेह ही दिखाता है | हम यदि किसी के प्रति अनुराग प्रकट करते हैं , उसके स्नेहिल को अपना संकट समझाते हुए उसके सहयोगी बनते हैं तो वह भी उसी प्रकार का ही व्यवहार हमारे से करता है | जब हम किसी की गलती पर भी उदारता पूर्वक उसके समीप जाने का यत्न करते हैं तो उसके विचारों में भी परिवर्तन आता है तथा अपने व्यवहार को वह भी उदार कर लेता है | इस प्रकार हम अपने विरोधियों को अपने विचारों में , अपने रंग में रंगते चले जाते हैं | उनके मन से विरोध की भावना दूर होकर हमारे प्रति आकर्षण पैदा कर देती है | जिस प्रकार अश्विनी एक दूसरी कड़ी को जोड़ कर एक चैन बनाते हैं , उस प्रकार ही अपने स्नेहिल व मधुरता पूर्ण व्यवहार से , उदारता से हम अपने आस पास के वातावरण को मधुर बनाते चले जाते हैं , जिसमें आसपास के लोग भी जुड़ते चले जाते हैं | इस प्रकार हमारे साथियों की , हितैषियों की , शुभ चिंतकों की पंक्ति निरंतर लम्बी होती चली जाती है | इस प्रकार हमारे सहयोगियों की संख्या बढती ही चली जाती है |
प्रेमपूर्ण व्यवहार से सदा मधुरता बढती है तथा द्वेषपूर्ण व्यवहार से कटुता बढती है | कटुता के कारण एसे कटु व्यक्ति के प्रति उदासीनता भी पैदा होती है | वेद चाहता है कि मानवों में एक दूसरे के प्रति प्रेम पूर्वक व्यवहार हो | इसलिए वेद का यह मन्त्र आदेश देता है कि हम अपने जीवन को मधुर बनावें | जब हमारा जीवन मधुर होगा, दूसरों के प्रति भी मधुरता रखेंगे तो दूसरों की द्वेष भावना भी धुल जावेगी, नष्ट हो जावेगी तथा वह हमारे मित्रों की पंक्ति में आ जावेंगे | जब हम अपने चारों और मधुरता को पैदा कर लेंगे तो हम अपने इस मधुर व्यवहार से ही शत्रुओं को मित्र बनाने में सफल होंगे | जब हमारे निकट सब मित्र ही मित्र होंगे तो हम लड़ाई झगडा किस से करेंगे ? , यह संभव ही न होगा | इस प्रकार मन शांत होगा , समय की बचत होगी तथा इस बचे हुए समय को हम किसी अन्य निर्मात्मक दिशा में प्रयोग कर अपनी आय के साधन तथा जन सेवा के कार्य पहले से कहीं अधिक कर सकेंगे |
हम घर में ही मधुर व्यवहार न रखें अपितु घर से बाहर जाकर भी हम जहाँ भी हों वहां पर भी मधुर व्यवहार करें, मधुर वातावारण बनाने का यत्न करें तथा घर लौट कर भी मधुरता का ही दामन थामें रखें, सब से प्रीति पूर्वक, प्रेम पूर्ण व्यवहार करें | इस से हमें विशेष प्रकार की प्रसन्नता मिलेगी | हमारे शत्रु भी शत्रुता छोड़ मैत्री करने लगेंगे | हम परेशानियों से बच जावेंगे | जो समय हम परेशानियों को रोगों को दूर करने में लगाते थे वह समय हम अपार धन सम्पदा प्राप्त कारने में लगा सकेंगे , अपने मित्रों की मंडली बढाने में लगावेंगे , हमारी आय बढ़ सकती है, जिससे हम पहले से अधिक दान पुण्य करने में भी सक्षम होंगे | इससे हमारा नाम होगा तथा हमारा सम्मान भी बढेगा | इस प्रकार मन्त्र की भावना के अनुसार चलकर हम अपने घर के अन्दर का ही नहीं घर के बाहर का वातावरण भी मधुर, सुखद व सौहार्दपूर्ण बना सकते हैं , जीवन को सफल बना सकते हैं |
डा.अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
चम्वार्ता : ०९७१८५२८०६८
e mail : ashokarya1944@rediffmail.com
योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे
ओउम
योग क्षेम से परिजन सुखी व सम्पन्न रहे
डा. अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुखी व सम्पन्न रहना चाहता है | यहाँ तक की प्रत्येक जिव जंतु भी अपने सुख को , अपनी सम्पन्नता को बढ़ने का यत्न करता है | सब तेजस्विता चाहते है, निरोगता चाहते है , यश चाहते हैं , सम्मान चाहते हैं | इस सब को पाने के लिए यत्न भी करते हैं | हम देखते हैं की एक साधारण सी चिन्ति भी दिन भर यत्न कर अन्न के कुछ कण एकत्र कर अपने गृह तक ले जाने का यत्न कराती है ताकि संकट कल में उसे कठिनाई न आवे | ऋग्वेद का मन्त्र संख्या ७.५४.३ भी इस और ही संकेत करता है | मन्त्र कहता है की :-
वास्तिश्पते अहगमया संसदा ते, सक्षिम्ही रंवया गातुमत्या |
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभि: सदा न: || ऋग्वेद ७.५४.३ ,तैति.३.४.१०.१ ||
हे ग्राहस्थग्य यग्य अग्नि ! हम तुम्हारी शक्ति युक्त ,मनोरम तथा आगे बढ़ने वाली अग्नि से युक्त हों | तुम हमारी योग व क्षेम में रक्षा करो | तुम हमारा सदा कल्याण कर रक्षा करो |
यह मन्त्र हमें पारिवारिक अग्नि की उपासना के सम्बन्ध में बताता है तथा इस मन्त्र के माध्यम से प्रार्थना की गयी है कि गृहस्थ की इस अग्नि से हमारा योग क्षेम हो तथा हमें सब प्रकार के सुख मिलें | पारिवारिक अग्नि को ही गार्हपत्य अग्नि कहा गया है |
गार्हपत्य अग्नि को सदा सुखद कहा जाता है | इस अग्नि को रमणीय भी कहा जाता है तथा यही अग्नि प्रगतिशील होती है | इस सब से स्पष्ट होता है कि यहाँ पर उस अग्नि से भाव नहीं है , जिस के द्वारा हम अपने गृह में प्रतिदिन दूध , चाय, भोजन आदि बनाते है | अपितु यहाँ उस अग्नि से अभिप्राय: है , जिस पवित्र अग्नि से गृह का पर्यावरण दूषण को दूर कर स्वच्छ व रोग रहित बनकर हमें पुष्टि देता है | एसी अग्नि कौन सी हो सकती है ? किंचित से चिंतन से यह स्पष्ट हो जाता है कि एसी अग्नि यज्ञ के अतिरिक्त कोई अन्य अग्नि नहीं हो सकती | यग्य की अग्नि ही परिवार में सुख लाने का कारण होती है , यज्ञीय अग्नि ही परिवार में रमणीयता लाती है, यह ही वह अग्नि है जो परिवार को प्रगति की और ले जाती है तथा प्रगति के शिखरों तक पहुंचाती है | अत: यहाँ पर मन्त्र स्पष्ट संकेत दे रहा है कि परिवार में प्रतिदिन दोनों काल यग्य की अग्नि जलाने से अथवा प्रतिदिन यग्य करने से परिवार के सब दु:ख , क्लेश समाप्त हो कर सर्वत्र सुख सम्रद्धि होती है तथा परिवार प्रगति की और अग्रसर होता है |
अग्नि अघर्श्नीय होती है | अग्नि की यह अघर्ष्नियता भी हमें एक संदेश देती है | यह हमें इंगित करती है कि हम अपने जीवन में सदा अघर्ष्य हों, सदा अजेय हों | जब हम पुरुषार्थ करते हैं तो हम सदा सर्वत्र जय को प्राप्त करते हैं | अत: अग्नि हमें पुरुषार्थी होने के लिए, मेहनती होने के किये , कुछ पाने के किये यत्न करने का संकेत इस माध्यम से देती है | अग्नि सदा उर्ध्वमुख होती है | अग्नि की ऊपर उठती ज्वालायें हमें शिक्षा दे रही है कि हम सदा उच्च से भी उच्च लक्ष्य को पाने के यत्न करें | अपनी दृष्टि को इस उच्च लक्ष्य पर ही टिकाते हुए यत्नशील रहे कभी पीछे अथवा नीचे न देखें | कभी भी निगम मार्ग की और न बढें , कभी भी गिरे हुए मार्ग पर न जावें , नीच कार्य न करें | इस प्रकार के यत्न से हम अपने उद्देश्य को पाने में निश्चित रूप से सफल होंगे |
अग्नि में सदा प्रकाश रहता है , तेजस्विता रहती है | अग्नि का यह प्रकाश , यह तेजस्विता हमें शिक्षा दे रही है कि हम न केवल स्वयं ज्ञान ( वेद ज्ञान ) से अपने आप को ही प्रकाशित करें अपितु सकल जगत में भी वेद का यह ईश्वरीय ज्ञान फैला कर विश्व को भी प्रकाशित करें | हम न केवल अपने स्वयं के जीवन को ही तेजस्विता से भरपूर न करें बल्कि अपने साथ ही साथ अन्य सब को भी तेजस्वी बनाने के लिए उन्हें भी एसी ही शिक्षा दें |
मन्त्र के दूसरे भाग में योगक्षेम की प्रार्थना करते हुए उपदेश किया गया है कि( योग का अर्थ है अप्राप्त धन की प्राप्ति अथवा जोड़ तथा क्षेम का अर्थ है प्राप्त धन की सुरक्षा अर्थात) हम पुरुषार्थ करते हुए, सतत मेहनत व यत्न करते हुए उस धन को पावें जो हमारे पास नहीं है तथा जो धन – धाम हमारे पास है , उसके हम स्वामी बने रहने के लिए उस कि रक्षा के भी समुचित उपाय करें | इस प्रकार पुरुषार्थ से लाभान्वित होने व प्राप्त की सुरक्षा को ही मन्त्र योगक्षेम के नाम से स्पष्ट करता है | यदि इसे हम सामान्य भाव से लें तो इस का भाव है कुशलता |
यह पारिवारिक यज्ञ ही है जो हमें सब प्रकार के रोग ,शौक से दूर कर कुशलता, स्वस्थता , पुष्टता देता है | अत: मन्त्र कहता है कि हम सदा प्रतिदिन दोनों काल अपने घर में यज्ञाग्नि को जलावें, प्रज्वलित करें , यज्ञ करें व कराएँ ताकि परिवार के सब कष्ट दूर हो कर हम पारिवारिक कुशलता को प्राप्त करें,, पारिवारिक सुखों मैं वृद्धि करें |
अथर्ववेद के एक अन्य मन्त्र में भी इस आशय को ही स्पस्ट करते हुए कहा है कि : –
उपोहश्च समुहश्च क्षतारो ते प्रजापते |
ताविहा वहतां स्फातिं ,बहु भूमानमक्शितम || अथर्ववेद ३.२४.७||
हे प्रभु | धन का संकलन तथा संवर्धन ये दोनों तेरे अग्रदूत हैं | ये दोनों यहाँ समृद्धि को लावें | यह अत्यधिक अक्षयपुर्नता को भी प्रदान करें |
इस मन्त्र में योगक्षेम के लिए उपोह तथा समूह शब्द दिए हैं | यह शब्द समृद्धि का अग्रदूत अथवा समृद्धि रूपी रथ का सारथि कहा गया है | यह दोनों शब्द विवेक की दो शक्तियां होती हैं :-
१) इन में से एक शक्ति का काम होता है ग्रहण अथवा लाभ यह शक्ति परिवार में कुछ नया (धन ) लाने का कार्य करती है | नया कहाँ से आवेगा, जब परिवार के लोग यत्न करेंगे | अत: यह शक्ति हमें पुरुषार्थ का आदेश देती है | ताकि इससे लाभान्वित हो ( परिवार के धन में) कुछ और भी धन जोड़ कर परिवार को लाभान्वित करें यह धन हम कैसे प्राप्त करें, कहाँ से लावें, किस प्रकार लावें , इन सब विषयों पर चिंतन , मनन व विचार का कार्य इस शक्ति के आधीन होता है | अत: किस प्रकार धनार्जन किया जावे , परिवार के धन की किस प्रकार वृद्धि हो , इस सब विचार करने को विवेक या विवेक की उपोह शक्ति के क्षेत्र में आता है |
२) विवेक की जिस दूसरी शक्ति की और मन्त्र इंगित करता है , वह है समूह | समूह उसे कहते हैं , जो प्राप्त धन की समुचित सुरक्षा अथवा संरक्षण करता है | उस धन का समुचित सदुपयोग किस प्रकार किया जावे तथा किस प्रकार उस धन का विनियोग किया जावे , यह सब इस दूसरी शक्ति के ही आधीन होता है | विवेक के इन दो पक्षों को प्रजापति तथा समृद्धि का अग्रदूत भी कहा गया है क्योंकि धन का उपार्जन, उसका रक्षण व उपयोग की विधि ही धन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है |
यदि हम विचार करें तो हम पाते हैं कि विवेक के इन दो पक्षों को परिवार के मुखिया पति एवं पत्नी पर भी लागू किया जाना आवश्यक होता है | परिवार का मुखिया अर्थात पति का कार्य होता है धन प्राप्ति या धनार्जंन की चिंता करना, इसके उपाय खोजना व एतदर्थ यत्न करना | जबकि पत्नी प्राप्त धन को सुरक्षित करने , उसे संभालने , उसका परिवार की आवश्यकताओं के अनुरूप समुचित उपयोग, प्रयोग करने का कार्य करती है | इस प्रकार इन दो शक्तियों उपोह व समूह का संचित होने से जो नाम बनता है उसे ही योगक्षेम कहते हैं | जब यह दोनों शक्तियां समन्वित हो जाती हैं तो उसे दम्पति कहा गया है |
संक्षेप में यह दोनों मन्त्र हमें उपदेश देते हैं कि हम प्रतिदिन दोनों काल परिवार में यग्य करें | परिवार का वायुमंडल शुद्ध कर उसके पर्यावरण को शुद्ध कर परिवार को पुष्ट कर शद्ध धन की प्राप्ति करें तथा उस धन से हम न केवल परिवार की पुष्टि करें अपितु प्राप्त धन के सहयोग से इस धन की वृद्धि व संरक्षण का कार्य भी करें | एसा करने से ही गृहस्थ का उदेश्य संपन्न होकर हम योगक्षेम को प्राप्त करेंगे व सच्चे अर्थों में दम्पति कहलाने के अधिकारी बनेंगे |
डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी,गाजियाबाद
चल्वार्ता : ०९७१८५२८०६८ ,०९०१७३२३९४३
email: ashokaraya1944@rediffmail.com
परिवार में दो काल यज्ञ कर बड़ों को अभिवादन करें
परिवार में दो काल यज्ञ कर बड़ों को अभिवादन करें
डा.अशोक आर्य
हम प्रतिदिन अपने परिवार में यज्ञ करें | यज्ञ में बड़ी शक्ति होती है | यह सब प्रकार के रोग ,शौक को हर लेता है | किसी प्रकार की व्याधि एसे परिवार में नहीं आती ,जहाँ प्रतिदिन यज्ञ होता है | जब यज्ञ के पश्चात बड़ों का अभिवादन किया जाता है तो बड़ों की आत्मा तृप्त हो जाती है | तृप्त आत्मा से आशीर्वादों की बौछाड़ निकलती है , जिस से परिवार में खुशियों की वृद्धि होती है तथा परिवार में सुख ,शांति तथा धन एशवर्य बढ़ता है तथा पारिवार की ख्याति दूर दूर तक चली जाती है | दुसरे लोग इस परिवार के अनुगामी बनते है | इस प्रकार परिवार के यश व कीर्ति में वृद्धि होती है | इस तथ्य को अथर्ववेद में बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है : –
यदा गार्ह्पत्यमसपर्यैत, पुर्वमग्निं वधुरियम |
अधा सरस्वत्यै नारि. पित्रिभ्यश्च नमस्कुरु || अथर्ववेद १४.२..२० ||
यह मन्त्र घर में आई नव वधु को दो उपदेश देता है :_
(१) प्रतिदिन यज्ञ करना : –
प्रतिदिन यज्ञ करने से व्यक्तिगत शुद्धि तो होती ही है , इसके साथ ही साथ परिवार की शुद्धि भी होती है | यज्ञ कर्ता के मन से सब प्रकार के संताप दूर हो जाते हैं | परिवार में किसी के प्रति कटुता है तो वह दूर हो जाती है | परिवार में यदि कोई रोग है तो यज्ञ करने से उस रोग के कीटाणुओं का नाश हो जाता है तथा रोग उस परिवार में रह नहीं पाता है | परिजनों में सेवाभाव का उदय होता है, जो सुख शान्ति को बढ़ाने का कारण बनता है , जहाँ सुख शान्ति होती है,वहां धन एशवर्य की वर्षा होती है तथा जहाँ धन एशवर्य है वहां यश व कीर्ति भी होती है | इसलिए प्रत्येक परिवार में प्रतिदिन यज्ञ होना अनिवार्य है |
जहाँ प्रतिदिन यज्ञ होता है , वहां की वायु शुद्ध हो जाती है तथा सात्विक भाव का उस परिवार में उदय होता है | यह तो सब जानते हैं कि यज्ञ से वायु मंडल शुद्ध होता है | शुद्ध वायु में सांस लेने से आकसीजन विपुल मात्रा में अन्दर जाती है, जो जीवन दायिनी होती है | शुद्ध वायु में किसी रोग के रोगाणु रह ही नहीं सकते , इस कारण एसे परिवार में किसी प्रकार का रोग प्रवेश ही नहीं कर पाता | पूरा परिवार रोग , रहित स्वस्थ हो जाता है | स्वस्थ शरीर में कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है | जब कार्य करने कि क्षमता बढ़ जाती है तो अधिक मेहनत करने का परिणाम अधिक अर्जन से होता है | अत: एसे परिवार के पास धन की भी वृद्धि होती है , जहाँ धन अधिक होगा, वहां सुखों के साधन भी अधिक होंगे | जब परिवार में सुख अधिक होंगे तो दान की , गरीबों की सहयता की भी प्रवृति बनेगी | जिस परिवार में दान की परम्परा होगी , उस का आदर सत्कार सब लोग करेंगे , उस परिवार को सम्मान मिलने लगेगा | सम्मानित परिवार की यश व कीर्ति स्वयमेव ही दूर दूर तक फ़ैल जाती है | अत: परिवार में प्रतिदिन यज्ञ आवश्यक है |
जिस परिवार में प्रतिदिन यज्ञ होता है वहां सात्विक भाव का भी उदय होता है | सात्विक भाव के कारण किसी में भी झूठ बोलने , किसी के प्रति वैर की भावना रखने , इर्ष्या, द्वेष, वैर विरोध, शराब ,जुआ, मांस आदि के प्रयोग की भावना स्वयमेव ही नष्ट हो जाती है | यह सब व्यसन जहाँ परिवार के सदस्यों के शरीर में विकृतियाँ पैदा करने वाले होते है अपितु सब प्रकार के कलह क्लेश बढ़ाने वाले भी होते हैं | जब पारिवार में प्रतिदिन यज्ञ होता है तो परिवार से इस प्रकार के दोष स्वयमेव ही दूर हो कर सात्विक भावना का विस्तार होता है तथा परिवार उन्नति की ओर तेजी से बढ़ने लगता है | उन्नत परिवार की ख्याति के कारण लोग इस परिवार के अनुगामी बनने का यत्न करते है | इससे भी परिवार के यश व कीर्ति में वृद्धि होती है | इसलिए भी प्रतिदिन यज्ञ अवश्य करना वषयक है |
यज्ञ करने से ह्रदय शुद्ध हो जाता है , शुद्ध ह्रदय होने से मन को भी शान्ति मिलती है | जब मन शांत है तो परिवार में भी सौम्यता की भावना का उदय होता है | एसे परिवार में कभी भी किसी प्रकार का द्वेष नहीं होता, किसी प्रकार की कलह नहीं होती | जो समय अनेक परिवारों में लड़ाई झगड़े में निकलता है , एसे परिवार उस समय को बचा कर निर्माणात्मक कार्यों में लगाते हैं , जिस से इस परिवार की आय में वृद्धि होती है तथा जो धन रोग पर अपव्यय होना होता है, वह भी बच जाता है ,जिससे इस परिवार के धन में अपार वृद्धि होने से सुखों की वृद्धि तथा दान की प्रवृति बढ़ने से परिवार दूर दूर तक चार्चा का विषय बन जाता है तथा अनेक परिवारों को मार्गदर्शन करता है | इसलिए भी प्रतिदिन यज्ञ करना आवश्यक हो जाता है | अत: प्रतिदिन यज्ञ करने की परंपरा हमारे परिवारों में ठीक उस प्रकार आनी चाहिए जिस प्रकार प्रतिदिन दोनों समय भोजन करने की परम्परा है , आवश्यकता है | जिस दिन यज्ञ न हो , उस दिन एसा अनुभव हो कि जैसे हमने कुछ खो दिया है | जब इस प्रकार के विचार होंगे तो हम निश्चय ही प्रतिदीन दो काल यज्ञ किये बिना रह ही नहीं सकेंगे |
(२) यज्ञयोप्रांत बड़ों का अभिवादन करना : –
मन्त्र अपने दूसरे खंड में हमें आदेश दे रहा है कि हम यज्ञोपरांत अपने बड़ों को प्रणाम करें | जहाँ अपने बड़े लोगों को प्रणाम करना , ज्येष्ठ परिजनों का अभिवादन करने से परिवार में विनम्रता कि भावना आती है , वहां इससे सुशीलता का भी परिचय मिलता है | जब हम हाथ जोड़ कर किसी के सम्मुख नत होते हैं तो निश्चय ही हम उसके प्रति नम्र होते है | इस से सपष्ट होता है कि हम उसके प्रति आदर सत्कार की भावना रखते हैं | शिष्टता तथा विनय उन्नति का मार्ग है | अत: जिस परिवार में जितनी अधिक शिष्टता व विनम्रता होती है , वह परिवार उतना ही उन्नत होता है | इस का कारण है कि जिस परिवार में शिष्टाचार का ध्यान रखा जाता है , उस परिवार में कभी किसी भी प्रकार का लड़ाई झगडा, कलह क्लेश आ ही नहीं सकता , किसी परिजन के प्रति द्वेष कि भावना का प्रश्न ही नहीं होता ,| जहाँ यह सब दुर्भावनाएं नहीं होती , उस परिवार की सुख समृद्धि को कोई हस्तगत नहीं कर सकता | एसे स्थान पर धन एश्वर्य की वर्षा होना अनिवार्य है | जब सुखों के साधन बढ़ जाते हैं तो दान तथा दान से ख्याति का बढना भी अनिवार्य हो जाता है | अत: उन्नति व श्रीवृद्धि के साथ एसे परिवार का सम्मान भी बढ़ता है | इसलिए इस सार्वोतम वशीकरण मन्त्र को पाने के लिए भी परिवार में प्रतिदिन यज्ञ का होना आवश्यक है |
जब हम किसी व्यक्ति को प्रणाम करते हैं तो उस व्यक्ति का ह्रदय द्रवित हो उठता है | द्रवित ह्रदय से प्रणाम करने वाले व्यक्ति के लिए अनायास ही शुभ आशीर्वाद के वचन ह्रदय से निकालने आरम्भ हो जाते हैं | यदि कोई व्यक्ति अपने परिवार के किसी व्यक्ति के प्रति किंचित सा द्वेष भी मन में संजोये है तो प्रणाम मिलते ही वह धुल जाता है तथा उसका हाथ उसे आशीर्वाद देने के इए स्वयमेव ही आगे आता है | इस प्रकार परिवार के सदस्यों का मालिनी धुल जाता है तथाह्रिदय शुद्ध हो जाता है \ परिवार से द्वेष भावना भाग जाती है तथा मिलाप की भावना बढाती है | मनुस्मृति में भी कुछ इस प्रकार की भावना मिलाती है | मनुस्मृति में कहा है की :-
अभिवादानशिलस्य , नित्यं वृद्धोपसेदिन: |
चत्वारि तस्य वर्धन्ते , आयुर्विद्या य्शोबलम || मनुस्मृति २.१२१ ||
इस शलोक में बताया गया है कि प्रतिदिन अपने बड़ों को प्रणाम करने वाले के पास चार चीजें बढ़ जाती हैं :-
१) आयु –
जिस परिवार में प्रतिदिन एक दूसरे को प्रणाम करने की , नमस्ते करने की , अभिवादन करने की परम्परा है , उस परिवार के सदस्यों की आयु निश्चित रूप से लम्बी होती है क्योंकि वहां प्रतिदन बड़ों का आशीर्वाद , शुभकामनाएं उन्हें मिलती रहती है | बड़ों के आशीर्वाद में अत्यधिक शक्ति होती है | वह कभी निष्फल नहीं हो सकता | इस के साथ ही प्रणाम करने से जो विनम्रता की भावना आती है , उससे सुशीलता भी आती है तथा एक दूसरे के प्रति श्राद्ध भी बढती है | परिवार की खुशियाँ तथा यश बढ़ने से प्रसन्नता का वातावरण होता है , जहाँ प्रसन्नता होती है, वहां रोग नहीं आता, जहाँ रोग नहीं वहां के निवासियों की आयु का लम्बा होना अनिवार्य होता है | अत: एसे परिवार के सदस्यों कि आयु लम्बी होती है |
२) विद्या :-
जहाँ शान्ति का वातावरण होता है . लड़ाई झगडा आदि में समय नष्ट नहीं होता तथा प्रसन्नता होती है , वहां पढाई में भी मन लगता है | इस कारण एसे परिवार के लोग शीघ्र ही उच्च शिक्षा पाने में सक्षम हो जाते हैं | बेकार की बातों में उलाझने के स्थान पर एसे परिवारों में बचे हुए समय को स्वाध्याय में लगाया जाता है , जिससे एसे परिवारों में विद्या की भी वृद्धि होती है | इसलिए भी प्रतिदिन प्रत्येक परिवार में यज्ञ का होना आवश्यक है |
३) यश : –
जिस परिवार के सदस्यों की आयु लम्बी होती है तथा प्रतिदिन स्वाध्याय करने से विद्वान होते है, उस परिवार से मार्गदर्शन पाने वालों की पंक्ति निरंतर र्लम्बी होती चली जाती है | इस कारण एसे परिवार का यश भी बहुत दूर तक चला जाता है | उनकी कीर्ति की चर्चाएँ करते हुए लोग अपने परिजनों को भी इस परिवार का अनुगामी बनने के लिए प्रेरित करते हैं | इस प्रकार यह यश निरंतर बढ़ता चला जाता है | विद्वानों की सभा में उन्हें उतम स्थान मिलता है | यह यश पाने के लिए भी प्रतिदिन यज्ञ करना आवश्यक है |
४) बल : –
जिस परिवार के सदस्यों की आयु लम्बी होती है | जिस परिवार के सदस्य विद्वान होते है तथा जिस परिवार की यश व कीर्ति दूर दूर तक होती है , उस परिवार को आत्मिक व शारीरिक दोनों प्रकार का बल मिलता है | दोनों प्रकार के बालों की उस परिवार में वृद्धि होती है | जब एसे परिवार को सब लोग सम्मान के रूप में देखते हैं , सम्मान देते हैं तो उनका आत्मिक बल बढ़ता है तथा जब वह लम्बी आयु प्राप्त करते हैं तो इस का कारण भी उनका शारीरिक बल ही होता है | इस प्रकार जिस यज्ञ को करने से दोनों प्रकार के बलों में वृद्धि होती है , उस यज्ञ को करना प्रत्येक परिवार के लिए अनिवार्य होता है |
इस सब से जो तथ्य उभर कर सामने आता है वह यह है कि जहाँ पर प्रतिदिन यज्ञ होता है , वहां के निवासियों की आयु बढती है, विद्या बढती है , उन्हें यश मिलता है तथा बल भी मिलता है | हम जानते हैं कि श्री रामचंद्र जी के काल में सब परिवारों में प्रतिदिन यज्ञ होता था इस कारण किसी को कोई रोग नहीं था, किसी के पिता के रहते बालक की मृत्यु नहीं होती थी , कभी अकाल नहीं पड़ता था , समय पर वार्षा होती थी, समय पर वृक्ष फल देते थे , कोई भूखा नहीं था , सब की आयु लम्बी थी, सब बलवान थे | इस कारण ही श्री राम जी को इतना यश मिला की हम आज भी उन्हें न केवल याद करते हैं अपितु उनके जीवन की लीला भी प्रतिवर्ष खेलते हैं | जिस यज्ञ के करने से इतने लाभ हैं , उसे हम क्यों न अपने जीवन का अंग बनावें तथा हम क्यों न प्रतिदिन अपने परिवार में करें ? अत: हमें प्रतिदन दोनों समय यज्ञ अपने परिवार में अवश्य ही करना चाहिए |
डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
चलावार्ता : ०९७१८५२८०६८, ०९०१७३२३९४३
e mail : ashokarya1944@rediffmail.com
मन का असीमित कार्यक्षेत्र होता है
ओउम
मन का असीमित कार्यक्षेत्र होता है
डा. अशोक आर्य
मन का कार्यक्षेत्र असीमित होता है | इसे किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता | मन में इतनी क्षमता है कि यह एक समय में अनेक कार्य कर सकता है | व्यापक कार्यक्षेत्र वाला यह मन जब तक सही मार्ग पर है , तब तक तो निर्माण के कार्य करता है किन्तु ज्यों ही यह मार्ग से भटकता है त्यों ही विनाश का कारण बन जाता है | इस लिए मन को सदा वश में रखने के लिए प्रेरित किया जाता है | दू:स्वपन वाला मन सदा हानि का कारण बनता है | इस लिए मन की अवस्था दु:स्वप्न रहित बनाए रखने का सदा प्रयास करना आवश्यक है | मन को निर्माण की और लगाए रखना ही सफलता का मार्ग है | इस लिए ऋग्वेद में पाप देवता को दूर रखने की चर्चा आती है कुछ एसा ही भाव अथर्ववेद में भी प्रकट किया गया है , जो इस प्रकार है :-
अपेहि मनसस्पतेअप काम परश्चर |
परो नि र्र्त्या आचक्ष्व , बहुधा जीवतो मन: ||
हे मन के अधिपति ! तुम दूर हटो , दूर चले जाओ , दूर ही विचरण करो ! तुम पाप देवता को दूर से ही बोल दो कि जीवित मानव का मन विवध विषयों में जाता है |
यह मंत्र मन के व्यापक कार्यक्षेत्र पर प्रकाश डालता है | मन जाग्रत अवस्था में तो क्रियाशील रहता ही है किन्तु सुप्त अवस्था , स्वप्न कल में भी क्रियाश्हिल रहता है | अनेक बार दु:स्वप्न से हम दु:खी होते हैं | वेद मानव मात्र को सुख के साधन उपलब्ध करता है | इस लिए मन्त्र में दुस्वपन के नाश का विधान किया गया है |
स्वपन दो प्रकार का होता है : –
१) सुखद स्वप्न : –
सुखद स्वप्न उन स्वप्नों को कहते हैं जो सुख का कारण हों | जिन स्वप्नों को देख कर मानव आनंद विभोर हो उठता है , उसे सुखद स्वप्न कहा जाता है | एसे स्वप्नों की सब मानव अभिलाषा करते हैं | कौन है संसार में एसा प्राणी जो दुखों की कामना करता हो ? दु:ख के समय तो सब उस प्रभु को याद करते हुए प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! जितना शीघ्र हो सके हमें इन दु:खों से दूर कर दीजिये तथा जितने उतम कर्म हैं, वह सब हमारी झोली में भर दीजिये | किन्तु मानवीय आचरण एसा नहीं होता कि उसे सुख मिले | पूरा दिन छल ,कपट , पाप करने वाले मानव को प्रभु सुख कैसे दे सकता है ? प्रभु का कार्य तो किये गए कर्मों का फल देना है | अच्छे कर्मों का अच्छा फल देता है, जब कि बुरे किये कर्मों का फल भी दुखों को बढ़ा कर देता है | जब हम जानते हैं कि कर्मों का फल तो भोगना ही पडेगा तो हम क्यों न अच्छे कर्म करें जिनके सुखद फल से हम सुखी हों | स्वप्न में भी हम सुख पूर्ण वातावरण में निवास करें सदा उतम स्वप्न ही हम देखें |
२) दु:खद स्वप्न : –
दुखद स्वप्न को ही दु:स्वप्न भी कहते हैं | इस प्रकार के स्वप्न का कारण पापाचरण , क्रोध,पाप , दुर्विचार आदि होते हैं | दिन भर जो मानव दूसरों को कष्ट देने में लगा रहता है | अनैतिक रूप से ,दूसरों को कष्ट क्लेश देकर धन एकत्र करने में लगा रहता है | दूसरों पर अकारण ही क्रोध करता रहता है | सदा पाप मार्ग का ही आचरण करता है | एसे लोगों को सदा ही इस प्रकार के दु:स्वप्न का सामना करना होता है | स्वप्न अवस्था में यह बुरे स्वप्न मानव को चिंतित करने का , भयभीत करने का , उसके दु:खों को बढ़ाने का कारण बनते हैं | जबकि जाग्रत अवस्था में मनो निग्रह से पाप आदि को निरोध होता है | इस लिए मंत्र में मनो निग्रह को दूर करने का उपाय बताया गया है तथा प्रभु से प्रार्थना कि गयी है , वह हमारे से पापदेवता को दूर भगावे | जब पाप देवता ही हमारे पास न होगा तो हमें हमारे मार्ग से कौन भटका सकता है | हम स्वयं ही सुपथगामी बन जावेंगे | कभी बुरे विचार हमारे मन में नहीं आवेंगे , कभी पाप के मार्ग पर नहीं चलेंगे , कभी किसी का बुरा नहीं सोचेंगे , कभी किसी का बुरा नहीं करेंगे , बुरे विचार मन में भी नहीं आवेंगे | इस प्रकार स्वयं भी सुखी होंगे तथा दूसरों का जीवन भी सुखों से भरने का यत्न करेंगे | अत: पाप देवता को कभी पास न आने देंगे |
प्रश्न उठता है कि पाप का देवता कौन है ? :-
मंत्र बताता है कि जो मन सुखों का कारण है , वह मन ही पाप का देवता भी है | इस कारण इसे मनस्पति कहा है | मन ही दुर्विचार को पैदा करता है , मन ही बुरे भावों का कारण होता है , मन ही अनिष्ट चिंतन का कारण है , मन ही सब कामों का कारण होता है तथा मन ही सब प्रकार के क्रोधों का स्वामी होता है | इस प्रकार के जितने भी दुर्भाव होते हैं , उन सब का कारण भी मन ही होता है | इस प्रकार के दुर्भावों को मन में उदय न होने दिया जावे , इसके लिए मन का पवित्रीकरण आवशयक होता है | अत: मंत्र मन के पवित्रीकरण पर भी बल देता है तथा कहता है कि पाप देवता को दूर भगा दो |
मंत्र का अंतिम भाग स्पष्ट करता है कि मानवीय मन अनेक प्रकार का होता है |कभी तो मन बुराई की और जाता है तो कभी अच्छई को पकड़ता है | जब जब बुरे स्वप्न आते हैं तो मनुष्य दु:खी होता है , जबकि अच्छे स्वप्न उसके सुखों को बढाते हैं | इसलिए प्रार्थना की गयी है कि हमें बुरे स्वप्नों से बचाते हुए अच्छे स्वप्न दो ताकि हम सुखी रह सकें |
डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी ,गाजियाबाद
चलावार्ता : ०९७१८५२८०६८,०९०१७३२३९४३
हमारे योद्धा अग्नि के समान तेज वाले तेजस्वी हों
ओउम
हमारे योद्धा अग्नि के समान तेज वाले तेजस्वी हों
डा.अशोक आर्य
सेना मैं योधा का , सैनिक का विशेष महत्त्व होता है | जो योधा विजय की कामना तो रखता है किन्तु उसमें वीरता नहीं है , तेज नहीं है , बल नहीं , पराक्रम नहीं है , एसा व्यक्ति कभी वीर नहीं हो सकता , पराक्रमी नहीं हो सकता, तेजस्वी नहीं हो सकता | जो वीर नहीं है , बलवान नहीं है, तेजस्वी नहीं है , योधा नहीं है , एसा व्यक्ति किसी भी सेना का भाग नहीं होना चाहिए | यदि किसी सेना में इस प्रकार के भीरु लोग भर जावेंगे,वह सेना कभी शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती | इस समबन्ध में ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के मन्त्र इस प्रकार आदेश दे रहे हैं :
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमानासो ध्रिषिता मरुत्व: |
तिग्मेशव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु अग्निरूपा: || ऋग्वेद १०.८४.१, अथर्ववेद ४.३१.१ ||
किसी भी देश की , किसी भी राष्ट्र की , किसी भी समुदाय की सुरक्षा उसके सैनिकों पर ही निर्भर होती है | सैनिकों का चरित्र जैसा होता है उसके अनुरूप ही उस राष्ट्र का उस देश का परिचय समझा जाता है | यदि देश के सैनिक उदात्त चरित्र हैं तो वह राष्ट्र भी उदात्तता का परिचायक माना जाता है | यदि देश के सैनिक प्रसन्न हैं तो वह देश भी प्रान्नता से भर पूर होगा | अत: जैसे सैनिक होंगे वैसा ही देश होगा , वैसा ही राष्ट्र होगा | इस कारण ही यह मन्त्र सैनिक के गुणों को निर्धारित करते हुए कहता है कि एक देश के सैनिकों में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है : –
(१) सैनिक सदा प्रसन्नचित हों : –
किसी भी देश के , किसी भी राष्ट्र के सैनिक का प्रथम गुण होता है , उसकी प्रसन्नता | सैनिक का सदा प्रसन्न चित होना आवश्यक होता है | प्रसन्नचित व्यक्ति बड़े से बड़े संकट का भी हंसते हुए सामना करता है | कष्ट से प्रसन्नचित व्यक्ति कभी डरता नहीं है | संकट से वह कभी भयभीत नहीं होता | जो व्यक्ति प्रसन्न रहता है, यदि वह योधा है तो वह सेना में अन्य सैनिकों को भी उत्साहित करेगा तथा बड़ी बड़ी परेशानियां जो युद्ध काल में आती हैं , उन सब का सामना वह प्रसन्नता से करेगा | इसलिए प्रत्येक सैनिक की वृति प्रसन्नता की होनी चाहिए | सैनिक सदा प्रसन्नचित होना चाहिए |
(२) सैनिक सदा निर्भीक हों : –
सैनिक का दूसरा गुण होता है निर्भीकता | भय को कायरता का चिन्ह माना गया है तथा कायर व्यक्ति कभी किसी भी क्षेत्र में विजयी नहीं हो सकता , फिर सेना में तो कायर सैनिक हो तो वह सदा उस सेना कि पराजय का कारण बना रहता है | सेना में ही नहीं प्रत्येक क्षेत्र में यह सब होता है | इस लिए ही मन्त्र कहता है कि सैनिक को कभी भी किसी प्रकार से भी भयभीत नहीं होना चाहिए | वह सदा निर्भय होकर युद्ध में जाना चाहिए | यदि वह निर्भय हगा तो वह खुला कर अपने पराक्रम दिखा सकेगा तथा सेना को विजय दिलाने का कारण बनेगा | यदि उसे युद्ध क्षेत्र में भी अपने परिजनों कि चिंता लगी रहेगी तो वह युद्ध क्षेत्र में होकर भी एकाग्र हो युद्ध नहीं कर पावेगा | अत: सनिक का निर्भय होना युद्ध विजय के लिए आवश्यक है |
(३) सैनिक सदा तीक्षण हों : –
किसी भी सेना का सैनिक सदा द्रुत गति वाला होना चाहिए , तेज होना चाहिए | ताकि शत्रु के संभलने से पहले ही वह उसके ठिकाने पर पहुंच कर उस पर आक्रमण कर दे | उसे संभलने ही न दे , तो वह शीघ्र ही विजयी होता है |
(४) सैनिक सदा शस्त्रधारी हों : –
किसी भी देश के सैनिक सदा अत्याधुनिक अस्त्र – शस्त्र से सुसज्जित हों | यदि उनके पास अच्छे शस्त्र ही न होंगे तो वह युद्ध में विजयी कैसे होंगे , शत्रु के अत्याधुनिक शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा में क्या जौहर कर दिखा पावेंगे | विजेता होने के लिए सदा शत्रु सेना से उत्तम शस्त्रों का होना आवश्यक है तथा यह शस्त्र सदैव सैनिक के हाथों में होना आवश्यक है | इसलिए सैनिक के पास , योधा के पास उत्तम कोटि के शस्त्र होना आवश्यक होता है |
(५) सैनिक अपने शास्त्रों को तीक्षण करने वाले हों : –
सैनिक के पास जो भी शस्त्र हों, वह सदा तेज धार वाले होने चाहियें | एक सैनिक के पास शस्त्र तो उत्तम किस्म के हों किन्तु उनकी धार ही कुंद पड़ चुकी हो तो वह शत्रु को सरलता से काट ही नहीं पावेंगे | जो एक ही वार से शत्रु का नाश क़र सके, एसी तलवार सैनिक के हाथों में होनी चाहिए | यदि तलवार की धार कुंद है तो बार बार के वार के पश्चात भी शत्रु सैनिक के बच जाने की संभावना बनी रह सकती है | अत: यदि हमारा सैनिक प्रसन्न व निर्भय है तो भी वह शस्त्र की कुंद धार के कारण विजयी नहीं हो पाता | इसलिये सैनिक के पास शत्रु पर विजय पाने के लिए तीक्षण शस्त्र का होना आवश्यक है |
(६) सैनिक अग्नि के सामान तेजस्वी हों : –
सेना का प्रत्येक सैनिक अग्नि के सामान तेज का पुंज होना चाहिए | जिस प्रकार आग कि लपटें अध्रष्ट होती हैं , छुप नहीं सकती, उसमें गिरा पदार्थ जलने से बच नहीं सकता , अग्नि सदा आगे ही आगे बढाती है , उस प्रकार ही सैनिक शत्रु को मारते काटते, उस पर विजयी होते हुए निरंतर आगे ही आगे बढ़ाते चले जाने चाहियें , निरंतर शत्रु सेना पर प्रलयंकर आक्रमण करते रहे | एक क्षण के लिए भी शत्रु को सुख से न बैठने दें |
मन्त्र कहता है कि जिस देश के सैनिकों में यह गुण होते हैं , उस देश की सेनायें सदा विजयी होते हुए निरंतर आगे ही आगे बढती चली जाती हैं , कभी पीछे नहीं देखती, विजयी ही होती चली जाती हैं | अत: प्रत्येक राजा को अपनी सफलता के लिए देश का गौरव बढाने के लिए अपने सैनिकों में यह गुण बनाए रखने चाहियें |
डा. अशोक आर्य १०४ शिप्रा अपार्टमेंट, कौशाम्बी, गाजियाबाद चलावार्ता ; ०९७१८५२८०६८