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मनुष्य और अनेक प्राणी योनियों में जीवात्माओं के जन्म का कारण’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

यदि हम अतीत की बातें छोड़कर वर्तमान संसार में विद्यमान मनुष्यादि अनेक प्राणी योनियों में जीवात्माओं के जन्म पर विचार करें तो हम देखते हैं कि सभी प्राणियों में जन्म व मृत्यु का सिद्धान्त काम कर रहा है। हमसे पहले व बाद में जन्में अनेक मनुष्य और अन्य प्राणियों को हमने समय समय पर मरते हुए देखा है। सृष्टि की आदि से वर्तमान समय तक अनेक प्राणी योनियों में अनन्त संख्या में प्राणियों के जन्म हुए हैं, सब अपना जीवन काल पूरा करते हैं और उसके बाद सभी प्राणियों की मृत्यु हो जाती है। इससे यह सिद्धान्त बना है कि जन्म लेने वाले सभी प्राणियों की कुछ समय व वर्षों के बाद मृत्यु अवश्यमेव होती है। वेद, शास्त्र और कर्म-फल विज्ञान के विशिष्ट ज्ञाता हमारे ऋषियों ने यह सिद्धान्त दिया है कि मनुष्य व अन्य प्राणियों के अपने किसी जन्म में मृत्यु से पूर्व तक किये गये शुभाशुभ कर्मों, जिनका फल भोगा नहीं गया हो, उनको भोगने के लिए नाना योनियों में जीवात्माओं के जन्म होते हैं। इस कारण से भिन्न जन्म का अन्य कोई कारण नहीं हो सकता। जो लोग इस सिद्धान्त को नहीं मानते उन्हें विचार करना चाहिये कि इस संसार में हमें सर्वत्र नियम देखने को मिलते हैं। ऋतु परिवर्तन नियमों के अनुसार होता है, ब्रह्माण्ड के सभी पिण्ड गतिशील हंै जो कि विज्ञान के नियमों के अनुसार हो रहा है। इन नियमों का आधार व आदि कारण ईश्वर व परमात्मा है। अति सूक्ष्म एक परमाणु तक में भी विज्ञान के नियमों के अनुसार गति व क्रियायें होती हैं तो फिर मनुष्य का जन्म व मरण का कारण भी अवश्य ही किसी सिद्धान्त व नियम पर आधारित है, यह ज्ञात होता है। ऋषियों ने अपनी साधना व गहन चिन्तन से कर्म-फल सिद्धान्तों पर विचार किया और वेद व अन्य ऋषियों के बनाये शास्त्रों के आधार पर यह निश्चित किया है कि किसी भी मनुष्य व प्राणी के पूर्वजन्मों के शुभ व अशुभ कर्म ही इस मनुष्यादि जन्म के कारण हैं। यह सिद्धान्त पूर्ण युक्तिसंगत एवं ज्ञान-तर्क-विज्ञान से युक्त व पोषित है। इसमें अन्धविश्वास व अज्ञान जैसी कोई बात नहीं है। जिनको यह सिद्धान्त समझ में नहीं आता व जो इसे नहीं मानते उन्हें इस सिद्धान्त का अधिक अध्ययन, विचार व चिन्तन करने की आवश्यकता है।

 

मनुष्य व सभी प्राणियों के जन्म में जीवात्मा, ईश्वर सहित प्रकृति की भी भूमिका है। ईश्वर हमें जन्म देने वाली सत्ता का नाम है। जिस प्रकार माता-पिता मनुष्य आदि के जन्म में अपनी भूमिका निभाते हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी मृत्यु के पश्चात जीवात्मा को उसके कर्मानुसार माता-पिता का चयन कर उनसे जीवात्मा के जन्म की प्रक्रिया पूरी कराता है। यदि परमात्मा यह कार्य न करे तो कोई भी जीवात्मा जन्म न ले सके। जीवात्मा तो जन्म की इस पूरी प्रक्रिया में घटने वाली घटनाओं व क्रियाओं से पूरी तरह अपरिचित व अनभिज्ञ रहता है। ईश्वर अपने विधान के अनुसार जीवात्मा को एक शरीर से निकाल कर उसके भावी माता-पिता के शरीर में प्रविष्ट कराता व उनसे उसे जन्म दिलाता है। जन्म होने के बाद से जीवात्मा का शरीर वृद्धि को प्राप्त होता है और माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों से ज्ञान अर्जित कर वह जीवात्मा वा मनुष्य शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त रहकर अपने पूर्वजन्म के अवशिष्ट कर्म=प्रारब्ध को सुख व दुःख के रुप में भोगता है। लगभग ऐसी ही स्थिति मनुष्येतर सभी प्राणियों के साथ होती है। इससे यह निश्चित है कि मनुष्य योनि में जीवात्मा के कर्म ही उसके भावी जन्म की नींव का कार्य करते हैं और उनके भोग व नवीन कर्मों से भावी जन्म के लिए आधार बनता है।

 

मनुष्य के जन्म व मृत्यु का कारण जान लेने पर ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप को भी जानना चाहिये। ईश्वर के बारे में सारे संसार में नाना प्रकार की अज्ञानजनित भ्रान्तियां हैं। इन भ्रान्तियों के कारण मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य के यथार्थ ज्ञान से भी दूर अर्थात् भटकाव की स्थिति में रहता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरुप का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य अपने कर्तव्य व अकर्तव्यों को जानकर अपने जीवन के उद्देश्य को भी समझ सकता है जिससे वह उद्देश्य के अनुरुप कर्मों को करते हुए सुखों का भोग करे और मृत्यु के पश्चात उसको उसका प्रमुख उद्देश्य वा लक्ष्य मोक्ष प्राप्त हो जाये। प्रथम ईश्वर के स्वरुप पर विचार कर लेते हैं। ईश्वर मुख्यतः इस सृष्टि की रचना करने, इसका पालन करने और अवधि पूरी होने पर इस सृष्टि की प्रलय करने वाली एकमात्र सत्ता है। सभी जीवात्माओं को जन्म देना भी ईश्वर के ही अधीन है। इसके स्वरुप पर विचार करें तो यह सच्चिदानन्दस्वरूप सिद्ध होती है। यह सत्य अर्थात् सत्तात्मक है, यह तो इस सृष्टि की उत्पत्ति व व्यवस्था से ही सिद्ध है। चेतन होना इसलिए अनिवार्य है कि बिना चेतन तत्व व सत्ता के कोई बुद्धिपूर्ण रचना अस्तित्व में नहीं आती है। संसार में हम अनेक बुद्धिपूर्वक बनाये हुए पदार्थों को देखते हैं। किसी निर्मित पदार्थ को देखकर हमें यह अनुमान नहीं होता कि यह किसी बुद्धियुक्त सत्ता द्वारा बिना विचार किये बनाये जा सकते हैं। हां, यह बात भी है कि कई बार बनाने वाला प्रत्यक्ष होता है और कई बार अप्रत्यक्ष वा दूर। अप्रत्यक्ष निमित्त कारण अर्थात् पदार्थों का निर्माता दो प्रकार का हो सकता है। एक कारण निर्माता की हमसे दूरी हो सकती है जिससे वह हमें दिखाई न दे। रचित पदार्थ का दूसरा कारण ऐसी रचनायें हो सकती हैं जो मनुष्यों व मनुष्यों के समूह से बन ही न सकें। इस श्रेणी में सूर्य, चन्द्र, ब्रह्माण्ड, अग्नि, जल, वायु आदि नाना पदार्थ आते हैं। इन्हें मनुष्यों द्वारा नहीं बनाया जा सकता परन्तु इन्हें भी बनाता कोई अवश्य है क्योंकि इनकी रचना में बुद्धि अर्थात् विचार शक्ति व ज्ञान-विज्ञान का प्रयोग दिखाई देता है। ऐसे सभी पदार्थ अपौरूषेय अर्थात् मनुष्यों से इतर अप्रत्यक्ष अदृश्य ईश्वरीय सत्ता के द्वारा बनाये गये सिद्ध होते हैं। इससे अपौरूषेय सत्ता का चेतन स्वरूपवाला होना सिद्ध होता है। ईश्वर आनन्दस्वरूप है, वह इस कारण से है कि सुख व आनन्द रहित सत्ता कोई छोटा सा भी पदार्थ नहीं बना सकती। इसके लिए उसका दुःख रहित, सुखी व आनन्दित होना आवश्यक है। अतः ईश्वर की तीन विशेषतायें विदित हैं, उसका सत्य, चेतन आनन्द से युक्त होना। उसके अन्य गुणों में उसका निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता होना और जीवात्माओं को कर्मानुसार जन्ममृत्यु प्राप्त कराकर सुख दुःख उपलब्ध कराना है। यह संक्षिप्त स्वरुप ईश्वर का वेद, शास्त्र, ज्ञान, विचार चिन्तन से सिद्ध प्राप्त होता है।

 

जीवात्मा के स्वरुप पर भी संक्षेप में विचार करते हैं। जीवात्मा भी सत्य, चित्त, आनन्द सुख से रहित, इस सुख वा आनन्द के लिए अन्यान्य प्राकृतिक पदार्थों ईश्वर के सान्निध्य का आश्रय लेने वाला, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी, एकदेशी, ससीम, आकाररहित, कर्मानुसार जन्म मृत्यु को प्राप्त होने भिन्नभिन्न प्राणी योनियों में जन्म लेने वाला और इसके साथ ही वेद, शास्त्रों विद्वान आचार्यों की संगति से ज्ञान प्राप्त कर, योगध्यान आदि साधना से ईश्वर का साक्षात्कार कर दुःखों जन्ममरण से छूटकर आनन्द को प्राप्त होने वाली सत्ता, पदार्थ तत्व है। इसका अनुभव हम अपने स्वरुप में स्थित होकर अर्थात् स्व-अस्तित्व का चिन्तन कर प्रत्यक्ष जान सकते हैं।

 

हम अपनी आंखों से संसार व सृष्टि को देखते हैं। यह सृष्टि परमाणुओं से बनी है। यह परमाणु भी सत्व, रज व तम गुणों वाली मूल प्रकृति के विकार हैं। मूल प्रकृति अनादि व नित्य है तथा परिमाण में मनुष्यों की दृष्टि में अनन्त परिमाण वाली है। इन्हीं को परमाणुरूप देकर ईश्वर ने इस जगत को बनाया है। सृष्टि यज्ञ का कर्ता ईश्वर है। इसका सम्पूर्ण विज्ञान उसी को विदित है जिस प्रकार किसी वैज्ञानिक खोज का ज्ञान उसके अन्वेषक को ही होता है। अन्य सामान्यजन तो उसका भोग व उपयोग ही करते हैं परन्तु उसके निर्माण की विधि व प्रयुक्त पदार्थों के गुणों का ज्ञान व बनाने की क्रिया को वह वैज्ञानिक व बुद्धिमान पुरुष ही मुख्यतः जानता है। इस विषय से संबंधित महर्षि दयानन्द के विचार प्रस्तुत हैं। वह लिखते हैं कि प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिन का जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। उस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फसता है और उस में परमात्मा न फसता और न उस का भोग करता है। प्रकृति का लक्षण है, शुद्ध, मध्य, जाड्य अर्थात् जड़ता, तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है, उस का नाम प्रकृति है। उससे महत्तत्व बुद्धि, उससे अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा, पांच सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन। पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत, ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इनमें से प्रकृति अविकारिणी, और महत्तत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत, इन्द्रियां, मन तथा स्थूल भूत, प्रकृति का कार्य और प्रकृति इनका कारण है। पुरुष किसी की प्रकृति, उपादान कारण और किसी का कार्य है। इस विषय में रूचि रखने व अधिक जानने के लिए पाठकों को सत्यार्थप्रकाश, सांख्य व वैशेषिक दर्शन तथा वेद व उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिये।

 

इस लेख से यह निष्कर्ष विदित होता है कि मनुष्य व सभी प्राणियों के जन्म का कारण उनके पूर्वजन्म के कर्म हैं जिनका सुख-दुःख रुपी भोग करने के लिए अनेकानेक योनियों में ईश्वर जीवात्माओं को जन्म देता है। मनुष्य का जन्म पूर्व कर्मों के भोग व नये वेदविहित कर्मों को कर मोक्ष की प्राप्ति है। इन्हीं शब्दों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर को जानना और उसकी स्तुति करना आवश्यक क्यों है?’ -मनमोहन कुमार आर्य

हम सभी मनुष्य जीवात्मायें हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा से मानव शरीर मिला है। जीवात्मा के दो प्रमुख गुण है। पहला गुण इसका ज्ञान की क्षमता से युक्त होना है और दूसरा अपने ज्ञान के अनुरूप सत्यासत्य कर्मों में प्रवृत्त रहना है।  अतः जहां ज्ञान व कर्म दोनों गुणों की अभिव्यक्ति हो वहां  आत्मा की सत्ता विद्यमान होती है। मनुष्य जन्म लेने से पूर्व हम एक जीवात्मा थे और उससे पूर्व हम कहीं मनुष्यादि अनेक योनियों में से किसी एक योनि में जीवन व्यतीत कर रहे थे। वहां मृत्यु होने तक हमने जो कर्म किये थे वा जिन कर्मों का फल भोगना शेष था, उन पाप-पुण्य रूपी कर्मों के आधार पर ईश्वर ने हमें हमारे वर्तमान जीवन में मनुष्य जन्म दिया है। इस मनुष्य जीवन में हमें पूर्व जन्म के किये हुए अवशिष्ट कर्मों के फलों को भोगना भी है और अगले जन्म के लिये नये कर्म भी संचित करने हैं। सुख-दुःख भोगते व नये कर्मों को करते हुए हमें अपने ज्ञान में वृद्धि भी करनी है। ज्ञान दृश्य व अदृश्य सभी पदार्थों का करना होता है। दृश्य पदार्थों में मुख्यतः सृष्टिगत समस्त भौतिक पदार्थ आते हैं व अदृश्य पदार्थों में अनेक सूक्ष्म भौतिक पदार्थों सहित मुख्य रूप से ईश्वर व जीवात्मा आते हैं। परमात्मा ने सृष्टि की आदि में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद इन चार वेदों का ज्ञान दिया है। यदि हम वेदों के व्याकरण अष्टाध्यायी महाभाष्य पद्धति का अध्ययन कर लें और वेदों के विद्वान आचार्यों की संगति करें तो हम वेदों में निहित अभौतिक व भौतिक अथवा परा व अपरा विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर अपने मनुष्य जीवन को अधिक उपयोगी व लक्ष्य के अनुरुप कार्यक्षम बना सकते हैं। आर्ष ग्रन्थों के हिन्दी भाष्यों को पढ़कर भी लाभान्वित हुआ जा सकता है।

 

प्रश्न है कि ईश्वर क्या है? इसका एक उत्तर यह है कि जिससे यह संसार बना है, जो इसका पालन कर रहा है तथा जिसने हमें हमारी ही तरह अन्य सभी जीवात्माओं को जन्म दिया है, उसे परमात्मा कहते हैं। यहां धर्म की दर्शन शास्त्र विहित परिभाषा भी देख लेते हैं जिसमें बताया गया है कि जिन कर्मों वा आचरण को करने से मनुष्य का अभ्युदय अर्थात् शारीरिक सामाजिक उन्नति हो तथा मृत्यु होने पर जन्ममरण से छूटकर निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। मनुष्य की शारीरिक व सामाजिक उन्नति व निःश्रेयस की प्राप्ति कराने वाली सत्ता का नाम ईश्वर है। ईश्वर ने जीवात्माओं को अतिशय सुख देने वा दुःखों की सर्वथा निवृत्ति करने के लिए ही इस संसार को बनाया है। ईश्वर को जानने के लिए महर्षि दयानन्द वर्णित ईश्वर का स्वरुप विशेष लाभकारी है। वह अपने लघुग्रन्थ स्वमंन्तव्यामन्तव्य प्रकाश व आर्यसमाज के दूसरे नियम में बताते हैं कि ईश्वर, ब्रह्म वा परमात्मा सच्चिदानन्द लक्षण युक्त है।  उसके गुण, कर्म स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्मिान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है।

 

स्तुति क्या होती है यह भी सभी मनुष्यों को जानना अभीष्ट है। स्तुति किसी पदार्थ या सत्ता के गुण कीर्तन, गुणों के श्रवण और सत्ता के यथार्थ ज्ञान को कहते हैं। ईश्वर की स्तुति के सन्दर्भ में ईश्वर के गुणों का कीर्तन, ईश्वर के गुणों का श्रवण व ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान यह सभी ईश्वर स्तुति में सम्मिलित हैं। ईश्वर की स्तुति करने से उसके प्रति प्रेम वा प्रीति होती है, यह ईश्वर स्तुति का फल है। स्तुति हम केवल ईश्वर की ही नहीं अपने माता-पिता, आचार्य, विद्वानों व परोपकारी पुरूष यथा सच्चे साधु व महात्माओं आदि की भी किया ही करते हैं। इससे उनके प्रति सम्मान, प्रेम व प्रीति उत्पन्न होती है जिससे हम नानाविध लाभान्वित होते हैं। ईश्वर की स्तुति करने से भी ईश्वर के प्रति प्रीति होने से हम मनुष्यों के सभी दुर्गुण, दुव्र्यस्न और दुःख दूर होते हैं। ऐसा इस कारण से होता है कि ईश्वर में यह दुख, दुव्र्यस्न और दुःखों का लेश भी नहीं है। अतः स्तुति करने से ईश्वर के साथ हमारा सम्बन्ध, आत्मा का परमात्मा से योग व सम्पर्क, होता है जिससे हमारे बुरे गुण-कर्म-स्वभाव दूर होकर कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव प्राप्त होते हैं। यदि हम ऋषि व योगियों के जीवन पर एक दृष्टि डाले तो हमें ज्ञात होता है कि इन महात्माओं के जीवन में दुगुणों का सर्वथा अभाव तथा श्रेष्ठ गुणों का प्रचुर मात्रा में समावेश होता है। ऋषि, योगी, सज्जन अथवा आर्य श्रेष्ठ गुणों को धारण किये हुए मनुष्यों को ही कहते हैं। अतः सभी मनुष्यों को स्तुति अपने से श्रेष्ठ मनुष्यों व सबसे श्रेष्ठ व श्रेष्ठतम ईश्वर की करनी चाहिये जिससे मनुष्यों को सभी दुःख दूर होकर ज्ञान, विज्ञान की प्राप्ति सहित सुखों की वृद्धि हो। यह ईश्वर स्तुति सुखों की वृद्धि करने सहित एक ऐसा कर्म वा कार्य है जिससे मनुष्य कर्मों के बन्धनों से मुक्त होकर उन्नति करता हुआ मोक्ष की स्थिति को प्राप्त हो सकता है। महर्षि दयानन्द जी ने चारों वेदों से चयन कर आठ मन्त्रों को स्तुति-प्रार्थना-उपासनार्थ प्रस्तुत किया है जो इस विषय के श्रेष्ठ मन्त्र है जिनका पाठ करने से कालान्तर में दुःखों की निवृत्ति होकर सुखों की प्राप्ति सम्भव है।

 

मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है तथा फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। यदि हम ईश्वर को नहीं जानेंगे और उसकी स्तुति-प्रार्थना वैदिक योगविधि से नहीं करेंगे तो हममें लोभ, मोह व राग, इच्छा, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि हमारे ही अन्दर हमारे मुख्य शत्रु उत्पन्न होंगे जो हमारा जीवन नष्ट कर देंगे जिसका परिणाम इस जीवन में अवनति होने से जन्म जन्मान्तर में दुःखों की प्राप्ति ही होगा। अतः दुःख के निवारणार्थ सभी मनुष्यों को सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का स्वभाव बनाना चाहिये जिससे सत्य व असत्य का विवेक करने में सुविधा होती है। निरन्तर स्वाध्याय से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता जाता है। मनुष्यों योग व उपासना के महत्व को जानकर इनका अभ्यास करता है और शुभ कर्मों को करके जीवन के लक्ष्य अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त करता है। हमने यह कुछ बातें आर्ष ग्रन्थो मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय के आधार पर लिखी हैं। जो पाठक ईश्वर के स्वरुप व उसकी स्तुति के महत्व से अनभिज्ञ हैं, वह व अन्य सभी इस संक्षिप्त लेख से लाभान्वित हो सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर व जीवात्मा विषयक यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति का सरल उपाय’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान विद्वानों के उपदेशों को सुनकर अथवा वेद वा वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है। पूर्ण नहीं अपितु कुछ मात्रा में यह ज्ञान वैदिक धर्मी माता-पिताओं की सन्तानों को भी परम्परा व संगति से प्राप्त हो जाता है। आजकल के धार्मिक कथाकारों के उपदेशों व प्रवचनों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि वह ईश्वर व जीवात्मा के सत्य व शुद्ध स्वरुप का यथार्थ वर्णन नहीं करते अपितु अपने अपने मत व आस्थाओं के अनुसार प्रचार करते हैं। उन्हें यह भी ध्यान रहता है कि उन्हें अपने अज्ञानी भक्तों को गुरू व महापुरुष के रूप में स्थापित करना है। उनके भक्तों से संगति करने पर मनोवैज्ञानिक आधार पर ज्ञात होता है कि उन्हें कुछ ऐसी शिक्षा दी गई है कि उनके गुरु-महाराज ही सबसे अधिक ज्ञानी हैं। अन्य गुरुओं की बात सुनना व उनकी विशेषताओं को जानने का वह प्रयास ही नहीं करते हैं। इसे ज्ञान घोटाला या बौद्धिक पतन ही कह सकते हैं। ज्ञानी तो कोई भी मनुष्य हो सकता है। ज्ञानी बनने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सत्य ज्ञान की प्राप्ति का संकल्प धारण किये हुए हो और वह केवल एक पुरूष व गुरु से ही अपने आपको न बांधे अपितु उसे जहां से जो भी अच्छी बात पता चले, उसे प्राप्त कर उसके आगे और अनुसंधान व अध्ययन कर उसे परिपक्व व समृद्ध करे। हम यह भी अनुभव करते हैं कि सभी धार्मिक कथाकारों को अपनी अपनी मान्यताओं का एक पुस्तक अवश्य लिखना चाहिये जैसा कि महर्षि दयानन्द ने स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश एवं आर्योद्देश्यरत्नमाला नाम से दो लघु पुस्तकें लिखी हैं। आज भी यह पुस्तकें मात्र एक या दो रूपये में मिल जाती हैं। इन पुस्तकों में धर्म के सभी सिद्धान्तों को बहुत ही संक्षिप्त रूप से परिभाषित किया गया है। इसको पढ़कर जब अन्य मतों के आचार्यों व उनके अनुयायियों को सिद्धान्तों व आचरणों को देखते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि वह सभी अज्ञान व भ्रान्तियों से भरे हुए हैं। एक ही विषय में दो सत्य व दो सिद्धान्त जो परस्पर विरोधी हों, सम्भव नहीं हैं। हां, सिद्धान्तों की व्याख्या करने पर शब्दों में अन्तर आ सकता है परन्तु भाव समान ही रहते हैं। विज्ञान का अध्ययन करने पर हम जान पाते हैं कि संसार के सभी वैज्ञानिकों का एक ही विषय पर एक ही सिद्धान्त है। सारी दुनियों में वैज्ञानिक सिद्धान्त एक समान है। इसे देखकर क्या यह विदित नहीं होता कि मनुष्यों के धार्मिक आचरण व उपासना के सिद्धान्त भी एक ही होने चाहियें। हमें तो वेद वैदिक साहित्य पढ़कर यही उपयुक्त प्रतीत होता है कि संसार के सारे मनुष्य एक ही परमात्मा की सन्तानें हैं जो अपने अपने पूर्व जन्मों के प्रारब्ध के अनुसार सुखदुःख रूपी भोग भोगने के लिए ईश्वर द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। इनकी उत्पत्ति का कारण सत्य का ग्रहण करना असत्य का त्याग करना है। यह कार्य इनको शिक्षित कर ही किया जा सकता है। उपदेश व पुस्तकों का अध्ययन भी शिक्षा का एक प्रकार है। यदि मनुष्य को सत्य उपदेशक और सत्य पुस्तकें प्राप्त हो जाये तो उसे अपना जीवनयापन व सत्य सिद्धान्तों पर आधारित धर्म कर्म करने में सुविधा होती है, हमें भी हुई है, और इससे सामाजिक व वैश्विक सुख व शान्ति स्थापित किये जा सकते हैं।

 

उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान आदि शिक्षा ज्ञान प्राप्ति का मुख्य सरलतम मार्ग है। इसके लिए सत्य उपदेशक ज्ञानी पुरुष की आवश्यकता होती है जो निष्पक्ष, स्वार्थ रहित, ईश्वर भक्त, वेदभक्त, देशभक्त, समाजसेवी, मुमुक्षु, परोपकारी, सेवाभावी, दानीस्वभाववाला, एक ईश्वरोपासक, दम्भ अहंकार से रहित, धन सम्पत्ति से दूर रहने वाला, अपरिग्रही, सुखसुविधाओं का न्यूनतम मात्रा में सेवन करने वाला, पुरुषार्थी, तपस्वी स्वभाव वाला होने के साथ वेद वैदिक साहित्य से पूर्णतया परिचित उसका यथार्थ ज्ञान रखने वाला हो। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि वह संसार के सभी मनुष्यों के रंग रूपादि के पक्षपात से रहित होकर सबको एक परमात्मा की सन्तान समझे। यदि ऐसा नहीं होगा तो न तो वह सच्चा ज्ञानी हो सकता है और न ही वह उसका प्रचार कर सकता है। आजकल के धार्मिक प्रचारक प्रायः व्यासायिक प्रवृत्ति के देखे जाते हैं जिनके पास प्रभूत धन व सम्पत्ति है और जो सुखी व ठाट-बाट का जीवन बिताया करते हैं, अतः उनमें सच्चा ज्ञानी धार्मिक गुरु होने की पात्रता नहीं है। उनका जीवन ऐसा है कि महाभारत काल तक के हमारे सभी ऋषियों व तपस्वियों ने ऐसा जीवन नहीं बिताया जो आजकल के धार्मिक प्रचारकों से कहीं अधिक ज्ञानी व विद्वान थे तथा योग व समाधि तक को जिन्होंने अपने ज्ञान व पुरुषार्थ से सिद्ध किया हुआ था। अतः हमें लगता है कि आजकल के सभी भक्तों को अपने धर्म प्रचारकों व गुरुओं की परीक्षा लेनी चाहिये कि वह कहां तक सदगुरु की भूमिका में हैं अथवा नहीं। इसका सरलतम उपाय यह है कि सभी धार्मिक भक्त व श्रद्धालु मनुष्य महर्षि दयानन्द का जीवन चरित पढ़े और उनके बाद हुए सच्चे धार्मिक विद्वानों व उपदेशकों जिनमें से कुछ के नाम हैं, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी सर्वानन्द सरस्वती, पं. भगवद्दत्त, पं. रामनाथ वेदालंकार, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, स्वामी अमर स्वामी सरस्वती, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती आदि के जीवन चरितों का अध्ययन कर व इनसे आजकल के धार्मिक गुरुओं की जीवनचर्याओं व उनकी शिक्षाओं से तुलना कर सत्य को ग्रहण करें। हमें लगता है कि शायद कोई भी आधुनिक गुरु इन महापुरुषों के जीवन चरित के अनुरुप नहीं मिलेगा। यदि इन पूर्व हुए महापुरूषों के जीवन चरित व इनके ग्रन्थों वा उपदेशों का अध्ययन कर लिया जाये तो फिर किसी को धार्मिक गुरु बनाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। वह पाठक व अध्येता स्वयं ही गुरु बन जायेगा और उसे ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरुप ही नहीं अपितु इनकी प्राप्ति का सत्य व सरलतम मार्ग भी ज्ञात हो जायेगा और इससे उनका जीवन सफल हो सकेगा। हां, इसके साथ-साथ योग की शिक्षा के लिए किसी योगाभ्यासी गुरु की शरण लेकर उससे ध्यान की विधि सीखी जा सकती है जिससे की वह ईश्वर का ध्यान कर समाधि अवस्था को प्राप्त होकर अपने जीवन को अधिकतम सुख व परमानन्द की अवस्था में पहुंचा सके।

 

उपदेशक के बाद ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्य ज्ञान की प्राप्ति का उपाय सत्य ज्ञान पर आधारित पुस्तकें हैं। इस श्रेणी में बहुत सी पुस्तकें हो सकती है। महर्षि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश इन सभी पुस्तकों में प्रमुख एक पुस्तक है। इसके बारे में देश व विश्व में भ्रान्तियां विद्यमान हैं जिन्हें वेदेतर धर्मियों ने अपने अज्ञान व स्वार्थ के कारण फैलाया है। निष्पक्ष भाव से विचार करने पर लगता है कि संसार के जितने मत-मतान्तर हैं वहां ईश्वर व जीवात्मा का सत्य व शुद्ध स्वरूप उपलब्ध न होने तथा इसी कारण से उपयुक्त उपासना पद्धति न होने के अभाव में उनके अनुयायी अधिकांश व सभी मनुष्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के लाभ से वंचित रहते हैं और उनका यह मनुष्य जन्म व्यर्थ व भावी जन्मों में अवनति एवं दुःख के रूप में ही परिणत होता है। इसके लिए केवल एक ही उपाय है कि सभी मतों के विद्वान अपने धार्मिक आग्रहों का त्याग कर सच्ची जिज्ञासा से ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप व सत्य व्यवहार व आचरण को जाने और ईश्वर की इच्छा व अपेक्षा के अनुरूप ही अपना जीवन बनायें। यही मनुष्य का कर्तव्य व धर्म हैं। वैदिक धर्म इसी धर्म का मूर्त रूप है जिसका प्रचार महर्षि दयानन्द जी ने किया। उनके समकालीन व परवर्ती लोगों ने अपने-अपने अज्ञान पर आधारित परम्परागत व रूढि़गत विचारों के कारण उनका बहिष्कार ही किया। परम्परा व रूढि़यों के कारण मनुष्य पर जो प्रभाव देखा जाता है वह यही होता है कि मनुष्य अपनी मिथ्या मान्यताओं के विरुद्ध सत्य मान्यताओं पर विचार भी करना नहीं चाहता व उनकी उपेक्षा ही करता है। इस पर यदि उसके सबसे निकट परिवारजन व तथाकथित धर्मगुरू आदि उसे सत्परामर्श न दें तो फिर उससे सत्य को ग्रहण कराना और असत्य को छुड़वाना असम्भव कार्य हो जाता है। यही हमें वर्तमान समय में हो रहा अनुभव होता है।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हमें यह बताना है कि धर्म का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा की उन्नति से है। आत्मा की उन्नति मनुष्य की धन-सम्पत्ति व शारीरिक स्वास्थ्य की उन्नति से सर्वथा पृथक है। आत्मा की उन्नति का तात्पर्य मनुष्यों के श्रेष्ठ आचरणों व ईश्वर की सरलतम व कारगर विधि से उपासना करने से है  जिससे उपासना से होने वालो लाभों का प्रभाव मनुष्य के स्वभाव व आचरण में परिलक्षित हो। इसका तात्पर्य है कि मनुष्य सत्यवादी व सत्याचारी बने। मिथ्याचार का सर्वथा त्याग कर दे जिसमें रिश्वत, भ्रष्टाचार, दूसरे के अधिकारों का हनन, अन्याय व शोषण आदि कार्य व आचरण सम्मिलित हैं। इसके विपरीत धार्मिक मनुष्य वह होता है जो श्रेष्ठाचार करते हुए स्वात्मोन्नति सहित देश, समाज सहित प्राणी मात्र की उन्नति व विकास में सहयोगी होता है। इसके लिए सच्चे महापुरूष महर्षि दयानन्द जी आदि के जीवन से प्रेरणा लेते हुए वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व योग आदि का अध्ययन व उसका जीवन में आचरण करना ही सर्वांगीण मनुष्योन्नति का कारण है। आजकल यह सभी ग्रन्थ हिन्दी में भाष्य व अनुवाद सहित उपलब्ध हैं जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख में प्रस्तुत विचारों से सहमत होंगे।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों का सदा सर्वदा का साथी और रक्षक है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

तर्क और युक्ति के आधार से यह सिद्ध किया जा सकता है कि इस संसार का रचयिता और पालक ईश्वर है। जो लोग इस विचार से सहमत न हों, उनका यह दायित्व बनता है कि वह इसका प्रतिवाद वा वैकल्पिक उत्तर युक्ति व तर्क पूर्वक दें। हमारा अनुमान है कि इसका अन्य कोई उत्तर नहीं हो सकता। कहने के लिए तो तथाकथित बुद्धिजीवी व कुछ वैज्ञानिक कह दिया करते हैं कि यह संसार अपने आप बना है और स्वतः ही चल रहा है। ईश्वर नाम की कोई चेतन व सर्वव्यापक पृथक सत्ता इसको नहीं चली रही है। उनको जब इस मिथ्या सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिए कहा जाता है तो वह इसे सिद्ध नहीं कर पाते और मौन धारण कर लेते हैं। मौन रहने का अर्थ ही है कि यह उनका कपोल कल्पित विचार है जो किसी ठोस कारण व प्रमाण पर आधारित नहीं है। हम जानते हैं कि संसार में मुख्यतः दो प्रकार के पदार्थ, तत्व या सत्तायें हैं। पहली चेतन सत्ता है व दूसरी जड़। प्रकृति जड़ है और ईश्वर व जीव चेतन हैं। जड़ प्रकृति से किसी सार्थक व सप्रयोजन रचना के लिए किसी बुद्धियुक्त चेतन सत्ता की आवश्यकता होती है। यदि रचना करनेवाली चेतन सत्ता नहीं है तो रचना व कार्य नहीं हो सकता। हम अपने रसोई घर का उदाहरण ले सकते हैं। घर में रोटी बनाने का सभी सामान है। परन्तु रोटी तभी बनेगी जब एक चेतन सत्ता अर्थात् रोटी बनाने का जानकार उन सब वस्तुओं का सदुपयोग कर विधि के अनुसार रोटी का निर्माण करें। इसी प्रकार सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति एक जड़ तत्व है जो रोटी के समान ही इस कार्य सृष्टि का उपादान कारण है। यदि चेतन निमित्त कारण नहीं होगा तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती। यह ब्रह्माण्ड किसी एकदेशी, अल्प ज्ञानी व अल्प सत्ता के द्वारा नहीं रचा जा सकता। इसकी रचना के लिए एक सर्वदेशी वा सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि रचना का ज्ञान रखने वाली सत्ता की आवश्यकता है। इन सभी गुणों से पूर्ण सत्ता को ईश्वर कहते हैं। इस सत्ता का प्रमाण समाधि में इसका प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होने पर मिलता है। महर्षि दयानन्द सहित उनके पूर्ववर्त्ती अनेक ऋषि व योगी ध्यान व समाधि द्वारा ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार कर चुके हैं। आज भी अनेक योगी ध्यान की साधना करते हैं और उनमें से कुछ ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल भी होते हैं। यदि किसी वैज्ञानिक, नास्तविक व हठी स्वभाव के व्यक्ति को यह बात अस्वीकार्य लगे तो उसे योगदर्शन के अनुसार ध्यान व समाधि का अभ्यास करना चाहिये और यौगिक जीवन के अनुसार सभी यम व नियमों का पूर्ण पालन करना चाहिये तो उनकी शंका दूर हो जायेगी। सृष्टि की रचना विषयक वैदिक विचार व सिद्धान्तों को जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सबसे सरल व सुलभ ग्रन्थ हैं। इनकी सहायता से भी सृष्टि की रचना में ईश्वर की भूमिका व उसके निमित्त कारण होने को भलीभांति जाना जा सकता है।

 

इस लेख में हम चर्चा कर रहे हैं कि ईश्वर सभी प्राणियों का रक्षक है। जब हम अपने अस्तित्व पर विचार करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि हमारा जन्म यद्यपि माता-पिता से हुआ अवश्य है परन्तु सन्तान के शरीर की रचना व उसमें जीवात्मा का प्रवेश माता-पिता नहीं कराते। यह कार्य कौन करता है, उसी को ईश्वर कहते हैं। हम स्वयं भी पिता है और हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि पिता अपनी सन्तान के भौतिक शरीर का निर्माता व उसमें आत्मा का प्रवेश कराने वाली सत्ता नहीं है। यदि ईश्वर ने यह कार्य किया है, यह सत्य सिद्ध है, तो वह अवश्य ही हमारी रक्षा भी करेगा। इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक रचनाकार अपनी सभी रचनाओं की स्वयं ही रचना करता है। अतः इस सृष्टि व इसके प्राणियों की रचना ईश्वर से होने के कारण इनकी रचना का दायित्व ईश्वर पर ही है जो कि सर्वशक्तिमान होने से यह कार्य सुगमता से करने में पूर्ण समर्थ है। हम देखते हैं कि माता-पिता अपनी सन्तान को जन्म देते हैं और उसकी यथासम्भव रक्षा भी करते हैं। आचार्य अपने शिष्य को ज्ञान देता है और शिष्य पर किसी भी प्रकार की आपत्ति आने पर आचार्य उसकी सभी प्रकार से रक्षा करता है। ईश्वर ने हमें उत्पन्न किया वा हमें इस संसार में भेजा है, तो रक्षा का दायित्व भी उसी के ऊपर है। ईश्वर ने ही हमारे प्राणों के लिए स्वास्थ्यप्रद वायु को बनाया और उसे पूरी पृथिवी पर उपलब्ध कराया है। इसी प्रकार उसने हमारी आंखों को देखने में सहायता के लिए सूर्य का निर्माण किया जो न केवल हमारे आंखों को सार्थक करता है वहीं अनेकानेक हितकारी प्रयोजनों को भी सिद्ध करता है। इसी प्रकार जल शरीर की आवश्यकता है। ईश्वर ने ही जल की रचना कर उसे उपलब्ध कराया है और उसके शरीर में प्रवेश के लिए मुखान्द्रिय की रचना की है। यह सब कार्य ईश्वर ने हमारे शरीर व हमारी रक्षा के लिए ही किये हैं। यदि विचार को जारी रखा जाये तो यह सिद्ध होता है कि ईश्वर अनेकानेक प्रकार से हमारी रक्षा करता है। यदा-कदा अपथ्य के कारण हम रोगी हो जाते हैं, तब ऐसे समय में हमारे शरीर की आन्तरिक शक्तियां रोग को ठीक करने में लग जाती हैं। यदि हम रोगकाल में अन्न का भोजन त्याग दें और गोदुग्ध व कुछ फलों या तरकारियों की तरी वा प्रव पदार्थ का ही प्रयोग करें तो हम ठीक हो जाते हैं। बड़े रोगों से बचाव के लिए ईश्वर ने ओषधियां भी बना कर उपलब्ध कराई हुईं है जिनका ज्ञान हमें वेदों से होता है। इसके साथ हि वेदों के साक्षात्दर्शा चरक, सुश्रुत व धन्तन्तरी आदि ऋषियों ने वेदों के आधार व अपने विवेक से आयुर्वेद के ग्रन्थों को हमें उपलब्ध कराया है जो हमें निरोग रखने में सहायक हैं जिससे हमारी रक्षा होती है।

 

जाको राखे साइयां मार सके कोए, बाल बांका कर सके जो जग बैरी होय। यह पंक्तियां हमने जीवन में अनेक बार सुनी हैं। इन पंक्तियों के शब्द पूरी तरह सत्य प्रतीत होते हैं। हमारे अपने अनुभव भी इससे पूरी तरह से मिलते जुलते हैं। अनेक अवसरों पर हमारे प्राणों की रक्षा किसी दैवीय सत्ता द्वारा हुई है। यह सर्वव्यापक ईश्वर द्वारा ही की जाती है। ऐसी घटनायें घटती रहती हैं जहां मनुष्य मौत के मुंह से भी बाहर सुरक्षित निकल आता है। महर्षि दयानन्द जी के जीवन की रक्षा भी अनेक बार हुई जब वह विपत्तियों में थे। विपत्तियों में मनुष्यों की रक्षा को ईश्वर की कृपा और उनके अपने-अपने प्रारब्ध को ही माना जा सकता है। कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार यह विषय जटिल है जिसे इसे मनुष्य पूरी तरह जान व समझ नहीं पाता। ईश्वर न्यायकारी है और उसके ही नियमों के अनुसार जीवन में अनेक विपरीत अवसरों पर मनुष्यों की रक्षा होती प्रत्यक्ष देखी जाती है। हम भी एक बार अपने दो पहिये के वाहन सहित एक खड़ी बस के पीछे से बस के दोनों पहियों के बीच से होते हुए अगले पहियों के पास जाकर रूके थे। कुछ ही क्षण बाद जब हमें अपने जीवित होने का अहसास हुआ तो वह बस स्टार्ट होकर चल पड़ी क्योंकि बस के चालक व उसके यात्रियों को दुर्घटना का ज्ञान नहीं हो सका था। हमने स्वयं को और अपनी दोपहिया गाड़ी को बचाने का प्रयास किया और बस हमारे ऊपर से निकल गई। हजारों की भीड़ ने यह दृश्य देखा तो उन्हें यह चमत्कार ही लगा। उस घटना में बिना किसी प्रकार की हानि के सुरक्षित बचना हमें ईश्वर की रक्षा व कृपा के अतिरिक्त अन्य कुछ लगता नहीं है।

 

वेदों में तो ईश्वर को जीवात्मा का सनातन साथी, मित्र, बन्धु, सखा, रक्षक, माता, पिता, आचार्य आदि कहा गया है। उसकी रक्षा से ही हम हर क्षण जीवित व सुखी होते हैं। वेद मन्त्र कहता है कि यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम अर्थात् उस ईश्वर का आश्रय ही मोक्ष सुखदायक है और उसको न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःखों का हेतु है। अतः हमें उस सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति करनी चाहिये। ईश्वर के विषय में वेद के यह शब्द पूर्ण सत्य हैं। इस पर विश्वास करने व इस भावना के अनुससार जीवन व्यतीत करने से लाभ ही होगा, हानि किेंचित नहीं होगी। यदि इसको न मानकर जीवन व्यतीत करेंगे तो हमें भारी हानि उठानी पड़ सकती है। किसी को भय मुक्त करना भी रक्षा की ही एक विधा है। यजुर्वेद के 36/22 मन्त्र में यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।। कहकर सर्वव्यापक ईश्वर स्वयं ही अपने स्तोता वा उपासक को न केवल मनुष्यों व पशुओं से ही अपितु उसे सभी स्थानों पर भयमुक्त करने का विधान कर रहे हैं। इस प्रसंग में एक महत्वपूर्ण बात यह जानने योग्य है कि ईश्वर सदा सर्वदा जीवात्मा के साथ रहता है। वह अनादि काल से जीवात्मा का हर पल और हर क्षण का साथी है और अनन्त काल तक रहेगा। वह सर्वशक्तिमान है, अतः उससे अधिक अच्छी हमारी पूर्ण रक्षा और कोई नहीं कर सकता। ईश्वर जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता, वह सदा से हमारा साथी व मित्र है व सदा रहेगा। यह जानकर हमें अभय व निश्चिन्त होकर उसकी स्तुति व उपासना करनी चाहिये और जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करना चाहिये। इन्हीं शब्दों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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मनुष्य जन्म की पृष्ठभूमि, कारण एवं परम उद्देश्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार के सभी प्राणियों में मनुष्य श्रेष्ठतम प्राणी है। इसका कारण मनुष्यों में सत्य व असत्य का विवेक कराने वाली बुद्धि होती है जबकि अन्य प्राणियों के पास विवेक कराने वाली बुद्धि नहीं होती। मनुष्य अन्य प्राणियों से कुछ भिन्न एक जाति है जिसमें स्त्री व पुरुष सम्मिलित हैं। आजकल जो जातिसूचक शब्दों का प्रयोग आर्य वा हिन्दू करते हैं, उसे जाति कहना वैदिक परम्पराओं एवं जाति शब्द के अर्थ के विरुद्ध है। जाति का सम्बन्ध प्रसव की समानता से जुड़ा है जिससे सभी मनुष्यों की एक ही जाति सिद्ध होती है क्योंकि संसार के सभी स्त्री व पुरुषों का परस्पर सम्बन्ध होने से मनुष्य सन्तान, पुत्र व पुत्री, का जन्म होता है। इसी प्रकार से पशु जाति है जिसमें गाय, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, लंगूर, बन्दर आदि अनेक प्रकार की उपजातियां है। इसमें अन्तर्जातीय सन्तानोत्पत्ति नहीं होती अर्थात् गाय व बैल से, कुतिया व कुत्ते, घोडे़ व घोड़ी आदि से ही होती है अन्यथा नहीं। अतः गाय, भैंस, घोड़ा आदि अलग-अलग पशु जाति की उपजातियां हैं। संसार के सभी मनुष्यों में समान रूप से प्रसव सम्भव होने के कारण सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक ही जाति है। हां, गुण, कर्म व स्वभाव से इसके ज्ञानी-अज्ञानी, बली-निर्बल, अध्यापक, वैद्य व चिकित्सक, सैनिक, राजा, सेवक आदि भेद हो सकते हैं। यह जातियां नहीं अपितु गुण-कर्मानुसार वर्ण होते हैं। हम इस लेख में मनुष्य जाति की पृष्ठभूमि पर विचार कर रहे हैं। मनुष्य जाति की पृष्ठभूमि में मुख्य कारण एक चेतन तत्व जीवात्मा व ईश्वर की सत्ता का होना है। यह जीवात्मा अविनाशी, अनुत्पन्न, सनातन, नित्य, अनादि सत्ता है जिनकी सृष्टि में संख्या मनुष्य के ज्ञान के अनुसार अनन्त वा असंख्य हैं। इनके अपने-अपने गुण कर्म व स्वभाव हैं। जीवात्मा एकदेशी, अनुत्पन्न, अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, नित्य, कर्म-फल के चक्र में फंसा हुआ, कर्म-फल व प्रारब्ध के अनुसार सुख-दुःख रूपी फलों के भोग के लिए ही भिन्न-भिन्न मनुष्य, पशु, पक्षी व अन्य योनियों में जन्म लेने वाला है। यदि ईश्वर जीवात्मा को जन्म न दे तो फिर इसका अस्तित्व होने के बाद भी यह अनुपयोगी होकर रह जाये। इसका स्वभाव (ईश्वरीय प्राकृतिक नियम) ही यह है कि ईश्वर के द्वारा अपने पाप-पुण्य रूपी कर्मों का फल भोगने के लिए इसका जन्म होता है। जन्म लेने में यह ईश्वर के पराधीन है। मनुष्य योनि में जन्म होने पर यह पाप व पुण्य रूपी कर्म करने में सफल होता है। अन्य इतर योनियां केवल भोग योनियां हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार और सर्वान्तर्यामी रूप से जीवात्मा के प्रत्येक कर्म का साक्षी होता है। इन कर्मों का सम्मिलित परिणाम ही इसका भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म होना होता है। एक योनि में जन्म लेने के लिए प्रारब्ध कारण बनता है जिसके आधार पर किसी योनि विशेष में इसकी जाति अर्थात् मनुष्य, पशु व पक्षी आदि सहित आयु व सुख-दुःख रूपी भोग निर्धारित होते हैं जो ईश्वर की व्यवस्था से इसे मिलते रहते हैं। जीवात्मा का सनातन अस्तित्व, एक देशी सूक्ष्म तत्व होना, ज्ञान कर्म इसके स्वभाविक गुण होना और ईश्वर की सभी जीवों के लिए सृष्टि की रचना करने, पालन करने जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्मानुसार भिन्नभिन्न योनियों में जन्म देने की सामर्थ्य ही जीवात्मा के मनुष्य अन्य योनियों में जन्म की पृष्ठभूमि और कारण है। इसके विस्तार से अध्ययन के लिए सत्यार्थप्रकाश सहित वेद, उपनिषद और दर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये।

 

जीवात्मा कर्मानुसार जन्म लेता है यह बात तो सृष्टि में प्राणियों के आचार व व्यवहार को देख कर भी सत्य सिद्ध होती है। अब जानने योग्य प्रश्न यह है कि मनुष्य जन्म का उद्देश्य क्या है? मनुष्य जन्म का मुख्य उद्देश्य दुःखों की निवृति है। हम सभी प्राणियों को कर्म करते हुए देखते हैं। यह सभी प्राणी सुख की प्राप्ति के लिए ही सभी कर्म करते हुए प्रतीत होते हैं। प्रातः काल उठकर भ्रमण, आसन, व्यायाम व प्राणायाम करना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। यह स्वास्थ्य ही सुख का आधार है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं होगा तो मनुष्य को दुःख होता है। शरीर आदि व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है और शीघ्र मृत्यु का ग्रास बन जाता है। अतः हमारे सभी कर्म मुख्यतः स्वास्थ्य व सुखों की प्राप्ति व भोग सहित दुःखों की निवृति के लिए ही किये जाते हैं फिर भी संसार का कोई मनुष्य यह दावा नहीं करता कि वह पूर्णतया सुखी है। सुख का परिणाम ही दुःख होता है। अधिक भोजन कर लिया तो उदर विकार होने से दुःख शीघ्र या कुछ विलम्ब से सामने आ जाता है। सुख के लिए धनोपार्जन करने में भी जो पुरुषार्थ किया जाता है वह भी कष्टसाध्य ही होता है। अर्जित धन की रक्षा करना भी सबके लिए सम्भव नहीं होता। अनेक प्रकार के दुःख जो धनिक लोगों में धन व सम्पत्ति के कारण होते हैं, समाज में देखने में आते हैं। स्वास्थ्य सम्बन्धी दुःख भी सभी मनुष्यों को समय समय पर आते जाते रहते हैं, जिनसे बचना दुष्कर है। अतः संसार में मनुष्य जन्म लेकर भी कोई व्यक्ति ऐसा देखने में नहीं आता जिसे कोई दुःख हो। सबसे बड़ा और अन्तिम दुःख मृत्यु का होता है। मृत्यु के बाद पुनः जन्म की प्रक्रिया में पिता-माता के शरीर में जाना और वहां दस माह तक शरीर निर्माण की प्रक्रिया में रहने व माता के गर्भ में उलटा लटका रहने सहित मल-मूत्र आदि पदार्थों के सान्निध्य में रहना भी सुख की नहीं दुःख की ही स्थिति है। अतः दुख की निवृत्ति के सभी सांसारिक साधन उपयोगी नहीं हैं। मृत्यु आदि दुःख से बचने के लिए ही महर्षि दयानन्द व भगवान बुद्ध ने अपने सुखी पारिवारिक जीवन का त्याग कर दुःख के स्वरूप को जानने एव उसको दूर करने के उपायों को जानकर उनके पालन हेतु कठोर तप किया। महर्षि दयानन्द इस कार्य में सफल हुए। उन्होंने जो ज्ञान साधन जाने प्राप्त किये और जिनका उन्होंने अपने निजी जीवन में उपयोग प्रयोग अर्थात् आचरण किया, उससे सारे संसार को लाभान्वित किया। वह चाहते तो अपना कल्याण करते और समाधि का असीम आनन्द भोगते परन्तु परोपकार के लिए उन्होंने अपनी सभी उपलब्धियों को सार्वजनिक ही नहीं किया अपितु इसका प्रचार व प्रसार करने में अपने जीवन का एक एक क्षण बिना किसी निजी प्रयोजन व लाभ के व्यतीत किया और अन्त में प्राण भी दे दिए।

 

महर्षि दयानन्द जी ने जो ज्ञान व विवेक प्राप्त किया वह उनके सभी ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। उसका निष्कर्ष है कि जीवात्मा के दुःखों की पूर्ण की निवृत्ति सद्धर्म के पालन और मोक्ष की प्राप्ति में होती है। सद्धर्म मनुष्यों के सत्य कर्तव्यों को कहते हैं। यह सभी सत्कर्तव्य वेदों व वैदिक साहित्य में उपलब्घ होते हैं जिनका सरलीकरण महर्षि दयानन्द ने अपने वेदभाष्य सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि व आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों में किया है। इसको संक्षेप में इस प्रकार जाना जा सकता है कि पाप वा असत्य कर्मों का फल दुःख होता है और पुण्य वा सत्य कर्मों का फल सुख होता है। यदि हम सकाम सत्य व पुण्य कर्म भी करेंगे तो भी हमारा एक के बाद दूसरा जन्म होता रहेगा। इसके लिए मनुष्य को वेद विहित सत्य कर्मों को करना है और साथ ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित अग्निहोत्रादि कर्म, माता-पिता-आचार्य-गुरू-विद्वान आदि की सेवा व सत्कार एवं सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव रखते हुए उनके पोषण में सहायक होना है। योग ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना को ही कहते हैं। इसके सिद्ध होने का अर्थ है समाधि में ईश्वर का साक्षात्कार होना। यह ईश्वर साक्षात्कार तभी सम्भव होता है जब जीवात्मा पर अंकित सभी पाप व असत्य कर्मों के संस्कार रूपी मल-विक्षेप-अहंकार नष्ट व दग्ध-बीज हो जाते हैं। यह स्थिति ईश्वर का ध्यान करने, ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभावानुसार अपना आचरण सुधारने वा ईश्वर के गुणों के अनुरूप करने व अपना सारा समय परोपकार व दुखियों की सेवा में लगाने पर ही प्राप्त होती है। समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार हो जाने पर मनुष्य जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है और ईश्वर के निरन्तर आनन्द रूपी सान्निध्य को प्राप्त कर उसमें ही आनन्द को भोगता है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य वा परम उद्देश्य है। महर्षि दयानन्द इसी मार्ग पर चले और कृतकार्य हुए। हमारे सभी ऋषि-महर्षि-योगी-सन्त भी इसी मार्ग का अवलम्बन अपने-अपने जीवन में करते रहे। यह साधना व कार्य कुछ लोगों के ही करने के लिए नहीं अपितु सभी मनुष्य, स्त्री वा पुरुष इसके अधिकारी व पात्र हैं। कभी न कभी तो हमें इसे अपनाना ही है क्योंकि इसके बिना जीवात्मा की मोक्ष की यात्रा पूरी नहीं होती। वह कर्मफल बन्धन में पड़ा रहता है। यह मोक्ष प्राप्ती ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। यहां यह भी बता दें कि हम सभी मनुष्यों को इससे पूर्व संसार की सभी योनियों में अनेक-अनेक बार जन्म हो चुके हैं। अनेक बार हम मोक्ष में भी गये है और अवधि पूरी होने पर लौटे हैं। वहां से आकर हम फिर कर्म के बन्धनों में फंस कर वर्तमान स्थिति को प्राप्त हुए हैं। यह तथ्य सत्य है जिसे जानकर सद्कर्मों सहित ईश्वर की सच्ची वैदिक विधि से उपासना में जुट जाना चाहिये जिससे कालान्तर में मोक्ष प्राप्त हो सके। अन्य मार्ग मंजिल पर पहुंचाने के स्थान पर लक्ष्य से दूर करते हैं। अतः केवल वैदिक साधनों का ही अवलम्बन करना उचित है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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जिसका जन्म उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु उसका जन्म होना अटल है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु ध्रुव अर्थात् अटल है और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनर्जन्म वा जन्म होना भी ध्रुव सत्य है। हम अपने जीवन में यदाकदा अपने परिचितों व अपरिचितों की मृत्यु का समाचार सुनते रहते हैं। जिस व्यक्ति से हमारा सम्पर्क व सम्बन्ध होता है उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर हमें दुःख होता है। विगत दो दिन में आर्यसमाज से सम्बन्धित हमारे तीन परिचित बन्धुओं की मृत्यु हुई है। इसके अतिरिक्त हमने जिस विभाग में कार्य किया वहां के तीन सेवानिवृत व्यक्तियों की भी विगत लगभग 11 दिनों में मृत्यु हुई है। शास्त्रों में मृत्यु को अभिनिवेश क्लेश कहा गया है। यह मृत्यु व इसका समाचार सभी के लिए दुःखदायी होता है। इस दुःख में कुछ रहस्य छिपा हुआ हो सकता है। पहला सन्देश तो यह लगता है कि अन्यों की मृत्यु हमें अपने बारे में सोचने का संकेत करती है। यह  बताती है कि एक दिन हमें भी मरना है। यह हमें सावधान करती है कि हम सोच विचार कर भविष्य में होने वाली अपनी मृत्यु का निवारण करें। यही मुख्य सन्देश हमें मृत्यु का प्रतीत होता है।

 

क्या मृत्यु का निवारण हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि सदा के लिए तो नहीं अपितु कुछ समय के लिए मृत्यु को कुछ पीछे धकेला जा सकता है। यदि हम अपनी दिनचर्या जिसमें हमारा भोजन, व्यायाम, आसन, प्राणायाम, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना उपासना सम्मिलित है, उन पर ध्यान दें तो निश्चय ही हम मृत्यु के समय को कुछ आगे बढ़ा सकते हैं। ऐसा करके व साथ हि मृत्यु के बारे में अधिक से अधिक वैदिक विचारों का ज्ञान व रहस्यों को जानकर तथा ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना से हम सामान्य लोगों को होने वाले मृत्यु के भय से अभय ना सही, भय को कुछ कम तो कर ही सकते हैं। अतः मृत्यु की उपेक्षा न करके इसके विषय में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिये। हमारा विचार है कि यह कठिन कार्य नहीं है। महर्षि दयानन्द ने इस कार्य को सरल कर दिया है। उन्होंने अपने लिए मृत्यु की जिस ओषधि को खोजा था व जिससे वह अभय बने थे, उसे उन्होंने समाज व देश के सभी लोगों के कल्याण के लिए वितरित व प्रचारित किया था।

 

वह ओषधि जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि हम शरीर नहीं अपितु एक चेतन सत्ता जीवात्मा हैं। चेतन पदार्थ में ज्ञान व कर्म, यह दो गुण स्वभाविकः होते हैं। ईश्वर भी चेतन सत्ता है, अतः उसमें भी ज्ञान व क्रिया अनादि काल से विद्यमान है। सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सूक्ष्मतम होने सहित वह सर्वज्ञ भी है। जीवात्मा एकदेशी व सूक्ष्म सत्ता है परन्तु ईश्वर जीवात्मा से भी सूक्ष्म वा सूक्ष्मतम है। हमारी आत्मा वा जीवात्मा एकदेशी होने से अल्पज्ञ है और ईश्वर सर्वव्यापक होने सर्वज्ञ है। हमें अपनी आत्मा विषयक ज्ञान या तो सीधा ईश्वर से समाधि अवस्था में वा वेदों के अध्ययन से प्राप्त होता है। वेदों का अध्ययन कर हम ईश्वर व आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर अपनी बौद्धिक व आत्मिक उन्नति कर सकते हैं। ईश्वर की बनाई सृष्टि को देखकर व समझकर तथा पदार्थों के गुणों को तर्क की कसौटी पर कस कर भी कुछ कुछ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। हमने विज्ञान का बहुत अधिक तो नहीं परन्तु कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त किया है। अध्यात्म के ग्रन्थों को भी पढ़ा है। इससे हमें जीवात्मा व ईश्वर के विषय को जानने व समझने में सहायता मिली है। जीवात्मा अनादि, अजन्मा, अनुत्पन्न, अल्पज्ञ, चेतन, सूक्ष्म अणु के समान वा बिन्दूवत, ईश्वर की कृपा से मनुष्य आदि जन्मों को प्राप्त कर कर्म करने में स्वतन्त्र व उसके सुख-दुःख रूपी फलों को भोगने में परतन्त्र है। अशुभ व बुरे कर्म को छोड़कर केवल निष्काम शुभकर्मों को करके जिसमें ईश्वरोपासना सहित अग्निहोत्र, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों-संन्यासी आदि अतिथियों की सेवा-सत्कार सहित परोपकार वा दान आदि कार्य सम्मिलित हैं, मनुष्य कर्म-फल के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मोक्ष दुःखों की पूर्णतया वा सर्वथा निवृत्ति, जन्म व मरण से मुक्ति व ईश्वर के सान्निध्य में आनन्द को भोगने की स्थिति को कहते हैं। मोक्ष में मुक्त जीवात्मा सर्वव्यापक व सर्वत्र आनन्द से परिपूर्ण ईश्वर में विचरती है और ईश्वर के आनन्द का भोग करती हैं। यह ऐसा ही है कि किसी योग्यतम व्यक्ति को उसकी इच्छा की सभी वस्तुयें सुलभ कराना। इन बातों को जान लेने पर मनुष्य का मृत्यु का भय कम वा समाप्त प्रायः हो जाता है। मृत्यु के भय की ओषधि सद्ज्ञान ही है जो महर्षि दयानन्द ने प्राप्त किया था और उससे उन्होंने मृत्यु के भय पर विजय प्राप्त की थी। यह समस्त ज्ञान उन्होंने सत्यार्थप्रकाश सहित अपने सभी ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है जो सभी के जानने योग्य है।

 

ईश्वरोपासना के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से जीवात्मा के  अविद्या-प्रधान काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि मल छंटते वा नष्ट प्रायः होते हैं और जीवात्मा के गुण ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरूप होते जाते हैं। जिस प्रकार अग्नि की संगति होने पर शीत का निवारण होता है और जैसे ताप से आतुर पुरूष का ताप जल में स्नान कर दूर होता है उसी प्रकार से ईश्वरोपासना से मनुष्य के बुरे गुण-कर्म-स्वभाव छूट कर ईश्वर के गुणों के अनुरूप होते जाते हैं। इतना ही नहीं अपितु जीवात्मा का बल इतना बढ़ता है कि पहाड़ के समान मृत्यु आदि भयंकर दुःखों को प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है। क्या यह छोटी बात है? अतः मृत्यु के भय से मुक्त होने वा उस पर विजय प्राप्त करने के लिए मनुष्यों को वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित वैदिक विधि से ही ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि कार्य करने चाहिये जिनसे इच्छित परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।

 

जब हम संसार की आदि से अब तक जन्म लेने व मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्यों पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि सृष्टि की आदि से अब तक खरबों लोग उत्पन्न हुए व मरे, यहां तक की श्री राम व श्री कृष्ण, हनुमान जी व अर्जुन के समान महावीर व योद्धा तथा कोटिशः ऋषि व मुनि हुए परन्तु कोई भी अपने आप को मृत्यु के पाशों से मुक्त नहीं रख सका, तो यह विदित व सिद्ध हो जाता है कि हम सभी को कुछ समय बाद संसार से निश्चय ही जाना है। मृत्यु होनी है, यह तो जन्म के समय ही निश्चित हो जाता है, बस वर्ष, महीने व दिन की जानकारी हमारे पास नहीं होती। यह आज, अगले क्षण व कालान्तर में कभी भी हो सकती है। काल का निश्चय न होने के कारण ही शास्त्रकारों ने कहा है कि हमें मनुष्य जीवन में जो काम करने हैं उसे शीघ्रतम कर लेना चाहिये। हमारे इन प्राणों का कोई भरोसा नहीं की कब यह साथ छोड़ दें। अनेक कामों में मुख्य काम ईश्वर, आत्मा व संसार को जानना, अपनी आत्मा के मलों को दूर करना व शुभ संस्कारों से आत्मा को उन्नत करना है। जितनी जल्दी यह काम पूरा होगा उतना ही शीघ्र इससे हमारे वर्तमान व भविष्य के जीवन में दुःखों की निवृति व सुख लाभ होगा। अतः लक्ष्य की प्राप्ति में लग जाना ही उचित है।

 

लेख को अधिक विस्तार न देते हुए गीता के दूसरे अध्याय के 22, 23 तथा 27 वें श्लोकों को प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें आत्मा व मृत्यु के सम्बन्ध में अनमोल विचार उपलब्ध हैं। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।22।।,  ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारुतः।।23।।, तथाजातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्येऽर्थे त्वं शोचितुमर्हसि।।27।। इनका अर्थ है कि मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण कर लेता है वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीर में चली जाती है। शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसको जला नहीं सकती, जल इसको गीला नहीं कर सकता और वायु इसको सुखा नहीं सकती अर्थात् प्रत्येक स्थिति में यह आत्मा अपरिवर्तनीय रहती है। पैदा हुए मनुष्य की मृत्यु अवश्य होगी और मरे हुए मनुष्य का जन्म अवश्य ही होगा। इस जन्म मरण रूपी परिवर्तन के प्रवाह का निवारण नहीं हो सकता। अतः जन्म मृत्यु होने पर मनुष्य को हर्ष शोक नहीं करना चाहिये। गीता के इन श्लोकों में जो दर्शन दिया गया है वह जन्म मृत्यु की यथार्थ स्थिति को प्रस्तुत कर रहा है।

 

जीवात्मा व इसके जन्म व मृत्यु विषयक रहस्यों को जानकर मनुष्यों को मृत्यु के दुःख से यथासम्भव निवृत होना चाहिये। मृत्यु, जो कि सत्य है, होनी ही है, जिसे कोई टाल व बदल नहीं सकता, उसको यथार्थ रूप में जानकर शोक व दुःख से मुक्त होना ही किसी विवेकी पुरुष की सफलता है। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख में प्रस्तुत आत्मा व मृत्यु विषयक विचारों को पढ़कर लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर का प्रमाणिक विवरण कहां से प्राप्त हो सकता है?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो सबसे पुराना इतिहास भारत का ही उपलब्ध होता है। भारत का इतिहास 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पुराना है। लगभग 5,200 वर्ष पहले कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध हुआ था। इससे देश का महाविनाश हुआ। इसमें सैनिक व राजा तो मरे ही, इसके साथ अव्यवस्था के कारण हमारा प्रभूत वैदिक ज्ञान व विज्ञान भी ध्वस्त वा विलुप्त हो गया। यह महाभारत युद्ध की सबसे बड़ी क्षति थी। सौभाग्य से कुछ ऋषि बच गये। उनकी कुछ वर्षों तक, महर्षि जैमिनी तक, परम्परा चली। इसके बाद भी महर्षि दयानन्द की तरह कुछ ऋषि हुए जिन्होंने ग्रन्थों के प्रणयन द्वारा वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा के प्रयास किये। दक्षिणात्य स्वामी शंकराचार्य जी से पूर्व किसी ऐसे ऋषि की जानकारी उपलब्ध नहीं है जिसने महर्षि दयानन्द की भांति, लेखन, उपदेश, शास्त्रार्थ, शंका समाधान आदि द्वारा, वेदों का प्रचार किया हो। शंकाराचार्य जी ने भी वेदान्त, उपनिषद व गीता का अपनी अद्वैतवादी वेदान्त की विचारधारा के अनुसार प्रचार किया। महाभारत के बाद जो ऋषि हुए उन्होंने अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त जैसे कई ग्रन्थों का निर्माण किया। आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक व सुश्रुत भी भारत की प्राचीन सम्पदा हैं। यह उस समय के ग्रन्थ हैं जब यूरोप के देश अस्तित्व में भी नहीं आये थे। इसी प्रकार से भारत में उपनिषद, दर्शन आदि अनेकानेक ग्रन्थों की रचना हुई। मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण, महाभारत ग्रन्थ भी किसी प्रकार से बच गये। मुगलों ने यद्यपि तक्षशिला व नालन्दा आदि के विशाल पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित कर दुर्भावना से नष्ट किया, शायद ही उन्होंने हमारे धर्म ग्रन्थों को नष्ट करने का कहीं कोई अवसर छोड़ा हो, तथापि दैव कृपा से बहुत सा साहित्य सुरक्षित रहा, जिसके लिए हमारे इन ग्रन्थों के रक्षक पण्डित व अन्य सभी बन्धु समस्त आर्य-हिन्दू जनता की कृतज्ञता व धन्यवाद के अधिकारी हैं। यह भी प्रसंग से बाहर जाकर लिख दे कि जिन अपने लोगों ने भारत पर राज्य किया व कर रहे हैं, वह वैदिक साहित्य व इसके यथार्थ महत्व से सर्वथा अनभिज्ञ ही रहे हैं। इनकी रक्षा व प्रचार का जो कार्य राज्य स्तर पर किया जाना चाहिये था, वह नहीं किया गया।

 

वेदों को कण्ठस्थ करने की परम्परा के कारण मानव की सबसे गौरवपूर्ण एवं महनीय बौद्धिक सम्पदा वेद सृष्टि के आरम्भ से अब तक सुरक्षित व अपने मूल रूप में विद्यमान है। इसी प्रकार से खगोल ज्योतिष के भी ग्रन्थ भारत में विद्यमान हैं। हमारे देश व देश से बाहर के पुस्तकालयों में प्राचीन ग्रन्थों की बड़ी संख्या में पाण्डुलिपियां भी विद्यमान हैं जिनकी ओर हमारे सस्कृत के जानकार विद्वानों का ध्यान नहीं है। अभी तक किसी सरकार का इस ओर ध्यान नहीं गया। इन प्राचीन पाण्डुलिपियों के अध्ययन व अनुवाद आदि से जो लाभ मिल सकता था वह नहीं हो पा रहा है। वोटरों को लुभाने की ओर ही सरकारों का मुख्य ध्यान रहता है। यदि यह पाण्डुलिपियां विश्व के किसी अन्य देशों में होती जिनको उनके पूर्वजों ने लिखा होता तो उन्होंने इन सबका अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद व मूल्यांकन अवश्य किया होता। भारत अपनी प्राचीन बौद्धि़क धरोहरों व सम्पदा का मूल्यांकन करने व उसका महत्व जानने में शायद कम ही रूचि लेता है। ऐसा लगता है कि हमारे देश के प्रायः सभी बुद्धिजीवी पश्चिम के भौतिकवाद के प्रभाव से ग्रसित हैं, इसी कारण प्राचीन ज्ञान के अध्ययन की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सौभाग्य से हमारे आर्य विद्वानों पं. भगवद्दत्त, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक आदि ने इस दिशा में यथासम्भव कार्य किया।

 

ईश्वर के प्रमाणित ज्ञान के सम्बन्ध में हमारा प्राचीन साहित्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण व सहायक है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। वेद में ईश्वर सहित जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ ज्ञान पर भी प्रकाश डाला गया है जिसका विस्तार उपनिषदों व दर्शन आदि ग्रन्थों में मिलता है। यह ज्ञान महाभारतकाल के बाद की परिस्थितियों से प्रभावित होकर लुप्त सा हो गया था। उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द (1825-1883) का आविर्भाव हुआ। उन्होंने अपने अपूर्व ब्रह्मचर्य और पुरुषार्थ से वेदों का पूर्ण ज्ञान, जो कि कोई मनुष्य जान सकता है, ग्रहण किया और ईश्वर की प्रेरणा व अपने विवेक से इस कार्य को मानवता का सर्वाधिक कल्याणी जानकर इसका अनेक प्रकार से प्रचार व प्रसार किया। वेद ही एकमात्र ऐसे सर्वप्राचीन प्रमाणिक ग्रन्थ हैं जिसमें ईश्वर का पूर्णतया सत्य यथार्थ स्वरुप वर्णित उपलब्ध है। अन्य मनुष्यकृत ग्रन्थों में से अधिकांश में ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित है वह विष सम्पृक्त अन्न के समान त्याज्य हैं।

 

इससे पूर्व कि हम वेदों के ऋषि महर्षि दयानन्द के वेदों पर आधारित ईश्वर विषयक विचार प्रस्तुत करें, हम यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के आठवें मन्त्र पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः सव्यम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। इसका अर्थ दयानन्द जी के अनुसार यह है कि हे मनुष्यों ! जो ब्रह्म शीघ्रकारी, सर्वशक्तिमान्, स्थूलसूक्ष्म और कारण शरीर से रहित, छिद्ररहित और ही छेद करने योग्य, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित, अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और जो पापयुक्त पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नही होता, सब ओर से व्याप्त है, जो सर्वत्र सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला, दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला और अनादिस्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति तथा वियोग से विनाश और जिसका मातापिता द्वारा गर्भवास, जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा सनातन अनादिस्वरूप अपनेअपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित प्रजाओं के लिये यथार्थ भाव से सब पदार्थों को विशेष कर बना कर वेद द्वारा प्रकाश करता है। यही परमेश्वर तुम लोगों का उपासना करने के योग्य है।

 

ईश्वर का पूर्ण विस्तृत सत्यस्वरुप जानने के लिए पाठकों को महर्षि दयानन्दकृत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेदभाष्य, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इसके साथ सभी उपनिषदें व योगदर्शन भी ईश्वर का सत्यस्वरुप प्रस्तुत करने के साथ उनकी प्राप्ति के उपयों पर भी प्रकाश डालते हैं। ईश्वर का वेदवर्णित सत्यस्वरुप यदि संक्षेप में सरलता से जानना हो तो वह आर्यसमाज के दूसरे नियम, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों से जाना जा सकता है। हम इन तीनों ग्रन्थों के एतदविषयक उद्धरण यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरुप का प्रकाश करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। आर्यामन्तव्यामन्तव्यप्रकाश लघु ग्रन्थ में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर (कहते हैं) मानता हूं। आर्योद्देश्यरत्नमाला में ग्रन्थकार ने लिखा है कि ‘(ईश्वर) जिसके गुणकर्मस्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्य गुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पापपुण्य के फल ठीकठीक पहुंचाना है, उसकोईश्वर कहते हैं।

 

संसार के अनेक मत-मतान्तरों में इस वैदिक मत का विरोधी व विपरीत ईश्वर का जो स्वरुप वर्णित किया गया है वह असत्य, अप्रमाणिक व अविद्याजन्य है। महर्षि दयानन्द द्वारा वर्णित उपर्युक्त ईश्वर का स्वरुप वह स्वरुप है जो कि एक सिद्ध योगी को समाधि अवस्था में साक्षात्कार होने पर प्रत्यक्ष अनुभव में आता है। इसी स्वरुप का वेदों व आर्ष वैदिक साहित्य में वर्णन है। तर्क व युक्ति से भी इसकी पुष्टि होती है। ईश्वर के इसी स्वरुप का ध्यान करने से आत्मा के मलों की निवृत्ति होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। वैदिक मत के विपरीत पद्धतियों से ईश्वर विषयक पूजा व उपासना से उपासना के मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य ईश्वर के साक्षात्कार की उपलब्धि नहीं होती। इसका निभ्र्रान्त ज्ञान भी वैदिक साहित्य को पढ़कर व अनुमान से जाना जाता है। हमने उपर्युक्त पंक्तियों में ईश्वर का जो वेद पोषित स्वरुप प्रस्तुत किया है वही प्रमाणिक सत्य स्वरुप है। संसार के सभी मनुष्यों को इसी स्वरुप को जानकर, वेदाध्ययन करने व ध्यान आदि साधना करने से ईश्वर की प्राप्ति जीवनकाल में ही हो जाती है। यह समाधि ईश्वर के साक्षात्कार की अवस्था ही स्वर्ग मोक्ष के समान सर्वाधिक सुख आनन्द की स्थिति होती है। इसको प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है। यदि मानव जीवन में यह स्थिति प्राप्त नहीं की, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी कर लिया जाये, इसकी तुलना में वह सब हेय व निम्न है। उत्कृष्ट मनुष्य जीवन वही है जिसमें आध्यात्म व भौतिकवाद का समन्वय हो। केवल भौतिकवादी जीवन अपंग ही कहा जायेगा। आशा है कि लेख के विचारों से पाठक लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ब्रह्मचर्य का स्वरुप व उसके पालन से लाभ’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सभी मनुष्य सुख की ही कामना करते हैं, दुःख की कामना कोई मनुष्य नहीं करता। सुख प्राप्त हों और जीवन में दुःख न आयें, इसके लिए प्रयत्न करना होता है। सुख व दुःख का आधार शरीर है। यदि हमारा शरीर दुर्बल व रोगी है तो यह दुःख का धाम बन जाता है और यदि यह बलवान व निरोग है तो यह सुख का आधार होता है। दुर्बलता और रोगों से रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य एक ऐसा उपाय वा साधन है जिसे धारण करने से मनुष्य दुःखों से बच सकता है और सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। ब्रह्मचर्य क्या है? यह शरीरस्थ सभी इन्द्रियों यथा दर्शन, श्रवण, गन्ध, रस व स्पर्श पर पूर्ण नियन्त्रण को कहते हैं। यदि हमारी कर्म इन्द्रियों के यह पांचों अवयव पूर्णतयः पवित्र हों, इनमें किंचित मलिनता व विकार न हों, तो यही ब्रह्मचर्य वा इसका पालन है। जो मनुष्य अदर्शनीयों वस्तुओं का दर्शन, अश्रवणीय कथाओं का श्रवण, विपरीत व हानिकारक गन्ध, रस व स्पर्श का सेवन करता है तो उसका ब्रह्मचर्य खण्डित हो जाता है या यह बातें ब्रह्मचर्य को कुप्रभावित व खण्डित करती हैं। हम भोजन के रूप में जो कुछ ग्रहण करते हैं उससे शरीर में भिन्न-भिन्न पदार्थ व धातुएं बनती हैं जिनसे शरीर में शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी ही धातुओं में से पुरुष शरीर में एक धातु वीर्य होती है। इसका शरीर में अधिक मात्रा व उत्कृष्ट अवस्था में होना शरीर व प्राणों के बल, आरोग्यता व बौद्धिक व आत्मिक उन्नति का कारण व साधन होता है और इसका नाश व अपव्यय ही ब्रह्मचर्य का नाश व खण्डन होता है जो कि पंचकर्मेन्द्रियों की पवित्रता व नियंत्रण न होने के कारण उत्पन्न होता है। हमारी सभी इन्द्रियां मन की प्रेरणा से इच्छित विषयों में आकर्षित होती हैं। यदि मनुष्य को सत्य-असत्य वा उचित-अनुचित का ज्ञान है और मन में असत्य व अनुचित कार्यों को न करने का दृण संकल्प है तो मन इन्द्रियों के अपवित्र व हानिकारक कार्यों से बच जाता है और सुख का लाभ करता है। इस ब्रह्मचर्य की रक्षा व पालन के लिए मनुष्य को वायुसेवन, प्रभातवेला में भ्रमण सहित आसन, प्राणायाम व ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना भी आवश्यक होता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में आयु के अनुसार ब्रह्मचर्य के तीन प्रकार लिखे हैं जिनके नाम हैं कनिष्ठ ब्रह्मचर्य, मध्यम ब्रह्मचर्य और उत्तम ब्रह्मचर्य। आज इस लेख में हम इन तीनों प्रकार के ब्रह्मचर्य का पाठकों के लाभार्थ इस हेतु से वर्णन कर रहे हैं कि वह इसे जान व समझ कर स्वयं लाभान्वित हों व इसका प्रचार कर धर्मलाभ प्राप्त करें।

 

ब्रह्मचर्य का मुख्य प्रयोजन न केवल शरीर व प्राणों को बलवान बनाना है अपितु इसका मुख्य प्रयोजन वेदादि शास्त्रों के ज्ञान व विज्ञान सहित समस्त विद्याओं का अर्जन भी है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में शास्त्रों के आधार पर लिखा है कि पांचवे वा आठवें वर्ष से लड़के लड़कों की पाठशाला तथा लड़कियां लड़कियों की पाठशालाओं में जावें और नियम-पूर्वक अध्ययन का आरम्भ करें। आठवें वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष पर्यन्त अर्थात् एक-एक वेद के सांगोपांग पढ़ने में बारह-बारह वर्ष मिल के छत्तीस और आठ मिल के चवालीस अथवा अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व के मिल के छब्बीस वा नौ वर्ष तथा जब तक विद्या पूरी ग्रहण न कर लेवे तब तक ब्रह्मचर्य रक्खे। छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर ब्रह्मचर्य का वर्णन करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है। प्रथम कनिष्ठ जो पुरुष अन्न-रस-मय देह और देह में शयन करने वाला जीवात्मा, यज्ञ द्वारा अतीव शुभगुणों से संगत और सत्कर्तव्य है, इसको यह कर्तव्य अवश्य है कि 24 वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रह कर वेदादि विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करे और विवाह करके भी लम्पटता करें तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभगुणों के वास कराने वाले होते हैं। इस प्रथम वय में जो अपना सारा समय विद्याभ्यास में तपस्या करता हुआ लगाये और वह आचार्य ब्रह्मचारी को वैसा ही उपदेश किया करे और ब्रह्मचारी ऐसा निश्चय रखे कि जो मैं प्रथम अवस्था में ठीकठीक ब्रह्मचर्यपूर्वक रहूंगा तो मेरा शरीर और आत्मा आरोग्य बलवान् होके मेरे प्राण शुभगुणों को बसाने वाले होंगे। महर्षि दयानन्द गृहस्थियों को कहते है कि तुम इस प्रकार से अपने निजी भौतिक सुखों का विस्तार करो कि जिससे ब्रह्मचारी व विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का लोप न करें अर्थात् वह भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर आकर्षित व कुप्रभावित न हों और वह 24 वर्ष तक तो ब्रह्मचर्य का पालन कर सके। आचार्य ब्रह्मचारी को उपदेश करते हुए विश्वास दिलाता है कि यदि तू 24 वर्ष के पश्चात् गृहाश्रम करेगा तो प्रसिद्ध है कि रोगरहित ररेगा और तेरी आयु भी 70 वा 80 वर्ष होगी।

 

दूसरा ब्रहमचर्य मध्यम ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो मनुष्य 44 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करता है उसके प्राण, इन्द्रियां, अन्तःकरण और आत्मा बलयुक्त होकर सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करने वाले होते हैं। यदि कोई ब्रह्मचारी प्रथम वय में जैसा स्वामीजी ने कहा है, कुछ तपश्चर्या करे तो उसका यह रुद्ररूप प्राणयुक्त मध्यम ब्रह्मचर्य सिद्ध होगा। स्वामीजी कहते हैं कि हे ब्रह्मचारी लोगो ! तुम इस ब्रह्मचर्य को बढ़ाओं। जैसे इस ब्रह्मचर्य का लोप न करके ब्रह्मचारी यज्ञस्वरूप होता है,  वह उसी आचार्यकुल से आता और रोगरहित होता है और जैसा यह ब्रह्चारी अच्छा काम करता है वैसा अन्य सभी को करना चाहिये।

 

उत्तम ब्रह्मचर्य 48 वर्ष पर्यन्त का तीसरे प्रकार का होता है। जैसे 48 अक्षर का जगती छन्द होता है, वैसे ही जो 48 वर्ष पर्यन्त यथावत् ब्रह्मचर्य करता है उसके प्राण अनुकूल होकर सकल विद्याओं का ग्रहण करते हैं। आचार्य और माता-पिता अपने सन्तानों को प्रथम वय में विद्या और गुणग्रहण के लिये तपस्वी कर और उन्हें तपस्वी होने का उपदेश करें और वे सन्तान आप ही आप अखंडित ब्रह्मचर्य सेवन से तीसरे उत्तम ब्रह्मचर्य का सेवन करके पूर्ण अर्थात् चार सौ वर्ष पर्यन्त आयु को बढ़ावे वैसे अन्य भी बढ़ायें क्योंकि जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर इसका लोप नहीं करते वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी ने ब्रह्मचर्य की उपर्युक्त तीन अवस्थाओं का वर्णन करने के बाद शरीर की अवस्थाओं का वर्णन करते हुए सुश्रुत के आधार पर बताया है कि इस शरीर की चार अवस्थायें हैं। एक (वृद्धि) जो 16 वें वर्ष से लेके 25 वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की वृद्धि होती है। दूसरा (यौवन) जो 25 वें वर्ष के अन्त और 26 वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चैथी (किचिंत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है। यही 40 वां वर्ष विवाह का उत्तम समय है। अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना उत्तमोत्तम होता है।

 

महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन, उसकी महत्ता व लाभों पर यह विचार सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में व्यक्त किये हैं। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कराने वाला ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार जीवन की श्रेष्ठतम् व्यवस्था है। इससे विद्या की प्राप्ति, शारीरिक व प्राण शक्ति को बल की प्राप्ति सहित सुखी व रोगरहित दीर्घायु की प्राप्ति होती है। इतिहास में रामभक्त वीर हनुमान और भीष्म पितामह का नाम ब्रह्मचर्य के व्रत पालन के कारण अमर है। इसके बाद अखण्ड ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द ही हुए हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य के सेवन से प्रशंसनीय शारीरिक व आत्मिक उन्नति प्राप्त की और देश व संसार का अपूर्व उपकार किया। उन्होंने जिस वैदिक विचारधारा को अपने उपदेशों, लेखों व ग्रन्थों के माध्यम से प्रस्तुत किया है, वही विचारधारा समाज, देश व विश्व में सुख व शान्ति का आधार है। उनके बताये मार्ग पर चल कर ही मनुष्य अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति कर सकते हैं। इन्हें प्राप्त करने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। उनका बताया वैदिक मार्ग सनातन व शाश्वत होने के साथ देश व काल से अबाधित व अप्रभावित है। सभी मनुष्यों को उनके विचारों व वैदिक व्यवस्थाओं को जीवन में धारण कर अपना जीवन सफल करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वराधीन कर्म-फल व तद् आश्रित सुख-दुःख व्यवस्था पर विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार में मनुष्य ही नहीं अपितु समस्त जड़-चेतन जगत क्रियाशील हैं। सृष्टि पंचभौतिक पदार्थों से बनी है जिसकी ईकाई सूक्ष्म परमाणु है। यह परमाणु सत्व, रज व तम गुणों का संघात है। इन्हीं परमाणुओं से अणु और अणुओं से मिलकर त्रिगुणात्मक प्रकृति व सृष्टि का अस्तित्व विद्यमान है। परमाणु में इलेक्ट्रान कण भी निरन्तर गति करते रहते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति से भी पूर्व निर्मित इन परमाणुओं में इलेक्ट्रान ईश्वरीय नियमों के अनुसार गति करते आ रहे हैं एवं प्रलय अवस्था तक यह क्रम निरन्तर चलता रहेगा। मनुष्य व सभी प्राणियों में प्राणों का बाहर आना व अन्दर जाना निरन्तर होता रहता है। पलकें भी निरन्तर झपकती रहती हैं। जागृत अवस्था में मनुष्य का मन भी निरन्तर क्रियाशील रहता है। मन आत्मा से प्रेरणा लेता है और ज्ञान व कर्मेन्द्रियों को कर्मों में प्रवृत्त करता है। उठना-बैठना, चलना-फिरना, सोना-जागना, शौच जाना, भोजन करना, मल-मूत्र का त्याग आदि भी क्रियायें एवं कर्म हैं जो जीवित रहने के लिए आवश्यक हैं। इनसे भिन्न किसी विषय का चिन्तन वा विचार, तदनुसार शरीर को उसके अनुसार प्रवृत्त कर इच्छित परिणाम प्राप्त करना आदि भी सभी मनुष्य करते हैं। हमारे यह सभी कर्म हमारी शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक व आत्मिक उन्नति का आधार होते हैं। हमारे अनेक कार्यों वा क्रियाओं का प्रभाव पर्यावरण-परिवेश-वातावरण व दूसरे मनुष्यों पर भी पड़ता है। इसी प्रकार से दूसरे मनुष्यों व प्राणियों के कर्मों वा क्रियाओं का प्रभाव भी हम पर पड़ता है। उन कर्मों का यदि विभाजन व वर्गीकरण किया जाये तो मुख्यतः यह शुभ व अशुभ कर्म कहे जा सकते हैं। हमारे जिन कर्मों से हमें लाभ होता है परन्तु दूसरे निर्दोष प्राणियों वा मनुष्यों को किसी प्रकार से हानि नहीं पहुंचती, उन्हें शुभ कर्म कहा जा सकता है और इसके विपरीत कर्मों को अशुभ कहा जा सकता है। कर्म-फल व्यवस्था से सम्बन्धित एक शास्त्रीय वचन है अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं। अर्थात् मनुष्य को अपने किये हुए शुभ व अशुभ कर्मों के फल भोगने ही होते हैं।

 

कर्मफल व्यवस्था के सन्दर्भ में सृष्टि की उत्पत्ति के प्रयोजन को जानना भी महत्वपूर्ण है। सृष्टि की उत्पत्ति क्यों हुई? इसका उत्तर चारों वेदों एवं समस्त वैदिक व अवैदिक साहित्य के मर्मज्ञ महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में दिया है। सत्यार्थप्रकाश के अष्टम् समुल्लास में वह ऋग्वेद के एक मन्त्र इयं विसृष्टिर्यत बभूव यदि वा दधे यदि वा न। यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा वेद।। प्रस्तुत कर इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि जिस से यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस सर्वत्र व्यापक सत्ता में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है। उस को, हे मनुष्य ! तू जान और दूसरे किसी को सृष्टिकर्ता मत मान। इस मन्त्र में ईश्वर की सत्ता तथा उसके सृष्टि उत्पन्न करने के कार्य को बताया गया है। ईश्वर व सृष्टि के अस्तित्व को जान लेने के बाद प्रश्न होता है कि ईश्वर ने यह सृष्टि क्यों व किस प्रयोजन के लिए बनाई है? सृष्टि को देखकर ईश्वर का अपना कोई निजी प्रयोजन विदित नहीं होता। हम संसार में उद्योगों को देखते हैं जहां विवधि वस्तुओं का निर्माण होता है जिसे उद्योगपति दूसरे लोगों के उपयोग व धन कमाने के लिए करता है। उद्योगपति मनुष्य है अतः उसका प्रयोजन धन कमाना है व इससे अन्यों का हित भी जुड़ा, परन्तु ईश्वर मनुष्य नहीं है, वह धन व ऐसे किसी कार्य के लिए सृष्टि की रचना व पालन आदि कार्य नहीं करता। उसे किसी से किसी पदार्थ की अपेक्षा भी नहीं है। हां, जीवों को सुख व दुःख का मिलना इसका प्रयोजन प्रतीत होता है। ऋग्वेद के मन्त्र द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। के शब्दों तयोरन्यः व स्वाद्वत्ति में कहा गया है कि (तयोरन्यः) इस संसार में जीव व ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्ष रूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोक्ता है। यहां कहा गया है कि जीवात्मा अपने शुभ व अशुभ जो पुण्य व पाप कर्म कहे जाते हैं उनके फलों अर्थात् सुख व दुःखी रूपी भोगों को भोक्ता अर्थात् उनका परिणाम व फल को पाता व ग्रहण करता है। वेद अर्थात् ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर ज्ञात होता है कि ईश्वर ने इस सृष्टि को जीवों के पाप व पुण्यरूपी कर्मों के फलों को प्रदान करने के लिए ही अपनी सामथ्र्य से मूल-कारण प्रकृति के द्वारा इस सृष्टि की रचना की है। श्वेताश्वरोपनिषद् के श्लोक अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः।। में कहा गया है कि इस अनादि प्रकृति से निर्मित सृष्टि का भोग करता हुआ अनादि जीवात्मा उसमें फंसता है। फंसने का तात्पर्य है कि जीवात्मा सृष्टि में फलों व सुख की कामना से कर्म करता हुआ इसमें फंसता है अर्थात् ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था में बंधता है। यदि इसे उलट दिया जाये तो इसका अर्थ होता कि यदि जीव संसार में सुख आदि भोगों की इच्छा से रहित होकर ईश्वरोपासना व परोपकारादि कर्मों को करता है तो वह बन्धनों में फंसता नहीं अपितु मुक्त हो जाता है।

 

उपर्युक्त द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया मन्त्र में ईश्वर, जीव व प्रकृति के अस्तित्व को अनादि बताया गया है। यह तीनों पदार्थ वा सत्तायें अनादि काल से विद्यमान हैं। ईश्वर को उपादान कारण प्रकृति से सृष्टि की रचना करने व इसे चलाने का ज्ञान स्वभाविक रूप से अनादि काल से है। जीवों को मनुष्य या प्राणियों के शरीर चाहियें तभी वह अपनी ज्ञान व कर्म स्वभाव वाली सत्ता का उपयोग अर्थात् पूर्व कर्मों का भोग व नये कर्मों को कर सकते हैं। यदि सृष्टि न हो तो उनका अस्तित्व निरर्थक सिद्ध होता है। यदि ईश्वर सृष्टि बनाने की सामथ्र्य रखता है, वह सृष्टि की रचना न करे तो उसका अस्तित्व होना उपयोगी नहीं और उसका ईश्वरत्व वा स्वामीत्व भी किसी काम का नहीं। इसी प्रकार से प्रकृति से यदि सृष्टि न रची जाये तो इसका अस्तित्व भी निरर्थक ही सिद्ध होता है। अतः जीवों को अपने अपने प्रारब्ध का भोग और नये कर्मों को करने के लिए ईश्वर द्वारा उपादान कारण प्रकृति का उपयोग कर सृष्टि की रचना करना आवश्यक है। ईश्वर कुछ जीवों को मनुष्य और किन्हीं को भिन्नभिन्न प्राणी योनियों में उत्पन्न करता है, इसका आधार जीवों के सृष्टि के पूर्व कल्पों वा पूर्वजन्मों के कर्म वा उन कर्मों का संचय रूपी प्रारब्ध होता है। यह उत्तर वैदिक दार्शनिकों ने सृष्टि विषयक तथ्यों का सूक्ष्म विवेचन करने पर पाया है। इस प्रकार से ईश्वर पक्षपात रहित न्यायकारी सत्ता सिद्ध होती है। ईश्वर के सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से वह सृष्टि के सभी जीवों का सभी कालों में साक्षी होता है। उसे हर जीव के हर कर्म का यथावत् अर्थात् मन व आत्मा के आन्तरिक भावों से लेकर कर्म का निर्णय करने से कर्म को करने तक का ठीक-ठीक ज्ञान रहता है, अतः उसे जीवों के कर्मों का फल देने में किसी प्रकार की समस्या व कठिनाई नहीं होती।

 

संसार में एक नियम काम कर रहा है कि हम जो भी कर्म करते हैं उनमें से कुछ क्रियमाण कर्मों का फल हमें साथ-साथ व कुछ का कालान्तर में मिलता है। जीवन के अन्त अर्थात् मृत्यु से पूर्व कर्म जिन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है, उनका फल साथ-साथ मिल जाता है और अवशिष्ट संचित कर्मों का फल मृत्यु तक नहीं मिलता। इससे यह ज्ञात होता है कि कर्मों का फल वर्तमान व भविष्य दोनों कालों में सुख व दुःख के रूप में मिलता है। इससे यह भी सिद्ध है कि हमारा वर्तमान का सुख व दुख हमारे कुछ वर्तमान और कुछ पूर्व समय अर्थात् भूतकाल में किये हुए कर्मों पर आधारित है। मृत्यु के समय जिन शुभ व अशुभ कर्मों का फल भोगने से रह जाता है, प्रारब्घ नामी कर्म कहलते हैं, यह प्रारब्ध ही भावी जन्म अर्थात् पुनर्जन्म का आधार है। मनुष्य के जैसे कर्म प्रारब्ध होगा, उसी के अनुसार नये जन्म में जाति, आयु और भोग प्राप्त होंगे। योगदर्शन की यह बात तर्क एवं युक्ति संगत है। वेदों व स्मृतियों आदि के आधार पर मनुष्यों को सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र यज्ञ सहित पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेवयज्ञ करने का विधान है। इन्हें करने से हमारा वर्तमान जीवन और भावी जीवन सुधरता व संवरता है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत काल तक और उसके बाद भी विद्वानों द्वारा वेद मार्ग पर ही चलने का निर्देश दिया गया है। हमारे पूर्वज ज्ञान विज्ञान से पूर्ण सत्य का आचरण करने वाले थे, अतः उनकी युक्ति व तर्क संगत बातों को सभी मनुष्यों को मानना चाहिये। शंकालु बन्धुओं को वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति व सत्यार्थप्राकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर अपनी भ्रान्तियां दूर करनी चाहिये। संसार के अन्य ग्रन्थों का अध्ययन कर इस विषय का ज्ञान व समाधान नहीं होता। सभी कर्मों का फल ईश्वर देता है। किस कर्म का क्या फल होता है, यह ईश्वर को ज्ञात है जो कि उसकी व्यवस्था से हमें व सभी जीवों व प्राणियों को अवश्य मिलेगा। हमें ईश्वर के पक्षपात रहित व न्यायकारी होने में पूरा विश्वास रखते हुए बुरे कर्म नहीं करने चाहिये और अपने सभी अच्छे कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर निश्चिन्त होना चाहिये। इसका परिणाम शुभ होगा।

 

यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के दूसरे मन्त्र में मनुष्यों को वेदविहित कर्मों को करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करने की शिक्षा दी गई है। वेद विहित कर्मों को करने से मनुष्य अशुभ व पाप कर्मों करने से बच जाता है जिसका परिणाम दुःखों से मुक्ति व सुखों में वृद्धि होता है। वेद विहित कर्म न केवल सुखों की वृद्धि वा दुःखों की निवृति का आधार हैं वहीं इनसे मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। अतः सद्कर्मों को करने के साथ सभी मनुष्यों को इनका प्रचार करने का प्रयत्न भी करना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘एक ईश्वर, एक संसार और एक ही मनुष्य जाति विषय पर कुछ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य,

 

यह संसार पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश का जीवों के सुख-दुःख के उपयोग की दृष्टि से समुपयुक्त मिश्रित रूप है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार संसार को बने हुए 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस अवधि में हमने संसार को बांट-बांट कर इस पर दो सौ से अधिक देश बना दिये हैं। इन सभी देशों में भिन्न-भिन्न भाषायें, संस्कृतियां, सभ्यतायें, रीति-रिवाज, धर्म, मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि हैं। हमें लगता है कि संसार के बांटने के प्रयास तो बहुत हुए परन्तु बटे हुए भूभागों को जोड़ने वा मिलाने के प्रयास न के बराबर हुए हैं। यदि किसी ने इस प्रश्न को उठाया तो उस पर लोगों का ध्यान या तो गया ही नहीं या समकालीन लोगों ने उसकी उपेक्षा की। हमें लगता है कि आज का संसार मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों के प्रति अधिकांशतः अनभिज्ञ है और उसने सत्य लक्ष्य व उद्देश्यों की उपेक्षा कर केवल सुख के भौतिक साधनों को ही अपना लक्ष्य व उद्देश्य बना लिया है जो कि सत्य से कोसों दूर है। इस सन्दर्भ में विचार करने पर हमें यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मनुष्यों ने विगत लगभग 2 अरब वर्षों में पृथिवी को तो बांटा परन्तु वह अन्य चार प्रमुख तत्वों अग्नि, जल, वायु और आकाश को बांटने में सफल नहीं हुए। भारत, पाकिस्तान और चीन को यदि हम लें तो भारत की उष्णता व शीतलता का प्रभाव अन्य दो देशों में और वहां का प्रभाव भारत पर अग्नि संचरण के सिद्धान्त के आधार पर पड़ता है। इसी प्रकार से भारत की वायु अन्य देशों में व वहां की वायु भारत में वायु के प्रवाह की दिशा व भिन्न-भिन्न स्थानों के तापक्रम के अनुसार बहती व संचरण करती है। जल का मुख्य स्रोत समुद्र और नदियां आदि हैं। आज भी अनेक नदियां इन तीनों देशों में बहती है और कुछ ऐसी भी नदियां हैं जिनका उद्गम एक देश में है और उसका जल दूसरे दूशों में भी बह कर जाता है जिससे दोनों ही देश समान रूप से लाभान्वित हो रहे हैं। समुद्र में सूर्य की उष्णता से जो वाष्प बनती है वह सभी देशों में जाकर समान रूप से बिना पक्षपात वर्षा करती है। आकाश भी बंटा हुए कहते अवश्य हैं परन्तु वह बटा हुआ इस कारण से नहीं है कि पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है और अपनी धूरी पर भी घूमती है। आकाश गति नहीं करता, इस कारण सभी देशों का आकाश पृथिवी के भ्रमण के कारण चैबीस घंटे में हर पल व हर क्षण बदलता रहता है। इससे क्या शिक्षा मिलती है? यह विचारणीय है। इससे यही शिक्षा मिलती प्रतीत होती है कि यह पृथिवी ईश्वर द्वारा उत्पन्न सभी मनुष्य व प्राणियों के भोग के लिए बनाई गई है। ईश्वर ने पृथिवी पर एक देश बनाया था परन्तु उसकी योग्य व अयोग्य सन्तानों ने इसके टुकड़े कर दिये हैं। ईश्वर ने इसे किसी एक मनुष्य, मत, सम्प्रदाय, धर्म आदि के पृथिवी व सृष्टि को नहीं बनाया। इसका मालिक ईश्वर व केवल ईश्वर है, न कि किसी मत के लोग व आचार्य आदि हैं। इस तथ्य को सभी मतों के आचार्यों व अनुयायियों को समझना चाहिये और वेदों व सत्शास्त्रों का अध्ययन कर ईश्वर की इच्छा को जानने का प्रयास करना चाहिये। उसके अनुसार आचरण करना चाहिये जिससे यह सृष्टि आजकल नरक का धाम न होकर सुख व स्वर्गधाम बन जाये।

 

इस लेख को लिखने का हमारा अभिप्राय यह है कि संसार के सभी बुद्धिजीवी व पठित व्यक्ति इस सृष्टि के कर्त्ता ईश्वर व सृष्टि रचना के उसके उद्देश्य को सच्ची भावना व स्वार्थों से ऊपर उठकर जानने का प्रयास करें। इस कार्य में उन्हें विचार व चिन्तन करने के साथ प्राचीन वैदिक साहित्य की सहायता लेकर इन प्रश्नों को हल करना चाहिये। मनुष्य जीवन का उद्देश्य बताते हुए वेदों के मर्मज्ञ विद्वान स्वामी दयानन्द ने कहा है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सत्य व असत्य का निर्णय करने व कराने के लिए है, परस्पर लड़ाई-बखेड़ा करने के लिए नहीं है। यह बात सभी बु़िद्धजीवियों की दृष्टि में सत्य है परन्तु इस पर आचरण शायद ही कोई करता हो अन्यथा संसार की स्थिति ऐसी न होती जैसी की वर्तमान में है।

 

हम पाठकों का ध्यान स्वामी दयानन्द जी द्वारा की गई मनुष्य की परिभाषा पर भी दिलाना चाहते हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं, कि चाहे वे महा अनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको (यथार्थ मनुष्य को) कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूपधर्म से पृथक कभी होवे। स्वामी दयानन्द जी ने इन पंक्तियों में मनुष्य के स्वभाव, व्यवहार व कर्तव्यों को चित्रित किया है। संसार के साहित्य में इस परिभाषा व शब्दों को हम अद्वितीय व मनुष्य की परिभाषा को सर्वाधिक उपयुक्त परिभाषा कह सकते हैं। यह सब उनके वेदों के उच्च. कोटि के ज्ञान के कारण सम्भव हुआ है। इससे वेदों के ज्ञान व शिक्षा की दशा व दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है।

 

हमने इस लेख में कुछ विषयों वा बिन्दुओं पर विचार किया है। आशा है कि पाठक इसे उपयोगी पायेंगे। महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश के चैदहवें समुल्लास के अन्तिम कुछ वाक्यों को प्रस्तुत कर हम इस लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं कि हम तो यही मानते हैं कि सत्यभाषण, अहिंसा, दया आदि शुभ गुण सब मतों में अच्छे हंै और बाकी वाद, विवाद, ईष्र्या, द्वेष, मिथ्याभाषणादि कर्म सब मतों में बुरे हैं। यदि तुमको सत्य मत ग्रहण की इच्छा हो तो वैदिक मत को ग्रहण करो।

 –मनमोहन कुमार आर्य

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