Category Archives: महर्षि दयानंद सरस्वती

‘महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित व प्रकाशित ग्रन्थों पर एक दृष्टि’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने सन् 1863 में अपने गुरू दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की मथुरा स्थित कुटिया से आगरा आकर वैदिक धर्म का प्रचार आरम्भ किया था। धर्म प्रचार मुख्यतः मौखिक प्रवचनों, उपदेशों व व्याख्यानों द्वारा ही होता है। इसके अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों के साथ अपने व उनकी मान्यताओं व सिद्धान्तों की चर्चा करने तथा कुछ विवादास्पद विषयों पर तर्क, युक्तियों व मान्य प्रमाणों द्वारा शास्त्रार्थ भी किया जाता है। महर्षि दयानन्द ने अन्य सभी प्रमुख मतों के आचार्यों वा धर्माचार्यों से अनेक शास्त्रार्थ भी किये। प्राचीन काल में किसी लिखित शास्त्रार्थ का उल्लेख नहीं मिलता। महर्षि दयानन्द ने लिखित शास्त्रार्थ की परम्परा डाली जिसका उद्देश्य यह था कि शास्त्रार्थ सम्पन्न होने के बाद किसी मत के आचार्य वा उनके अनुयायी शास्त्रार्थ में कही गई बातों से अपने आपको पृथक कर सकें। महर्षि दयानन्द का प्रसिद्धतम शास्त्रार्थ काशी में मंगलवार 16 नवम्बर, सन् 1869 में हुआ था। इस शास्त्रार्थ में महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा पर वेदानुसार अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अकेले विद्वान थे जबकि विपक्षियों की ओर से लगभग 30 वा उससे अधिक शीर्ष पौराणिक विद्वान सम्मिलित हुए थे। शास्त्रार्थ के समय तो इस शास्त्रार्थ का विवरण लिखा नहीं गया था परन्तु इसके बाद स्वयं स्वामी दयानन्द जी ने इस विवरण को लिखकर प्रकाशित किया। इस शास्त्रार्थ के बाद उनके अनेक मतों के विद्वानों से अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ हुए जिनका लिखित विवरण उपलब्ध है जो धार्मिक जगत में सत्य के निर्णयार्थ महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

 

धर्म प्रचार में किसी मत व धार्मिक आन्दोलन के प्रवर्तक को अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचारार्थ एक या अधिक ग्रन्थों को लिखकर प्रकाशित करना भी आवश्यक होता है। महर्षि दयानन्द ने भी अपने वैदिक सिद्धान्तों के प्रचारार्थ एक नहीं अपितु छोटे-बड़े 27 व उससे अधिक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने वेदांगप्रकाश के अन्तर्गत भी 14 ग्रन्थों की रचना की वा कराई है। यह ग्रन्थ हैं वर्णोच्चरणशिक्षा, सन्धिविषय, नामिक, कारकीय, सामासिक, स्त्रैणतद्धित, अव्ययार्थ, आख्यातिक, सौवर, पारिभाषिक, धातुपाठ, गणपाठ, उपादिकोष और निघण्टु। वेदांगप्रकाश ग्रन्थों की रचना के प्रयोजन पर ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास नामी महनीय पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने लिख है कि हम संस्कृतवाक्यप्रबोध (महर्षि दयानन्द का एक लघु ग्रन्थ) के प्रकरण में लिख चुके हैं कि महर्षि ने अपने कार्यकाल में संस्कृत भाषा के प्रचार और उन्नति के लिए महान् प्रयत्न किया था। उन्हीं की प्रेरणा से प्रभावित होकर अनेक व्यक्ति संस्कृत सीखने के लिए लालायित हो उठे थे। उन्होंने स्वामी जी से संस्कृत सीखने के लिये उपयोगी ग्रन्थों की रचना की प्रार्थना की। उसी के फलस्वरूप ऋषि ने संस्कृतवाक्यप्रबोध रचा और वेदंगप्रकाश के विविध भागें में (चैदह) ग्रन्थों की रचना कराई। स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन में अनेक शास्त्रार्थ किये। इन शास्त्रार्थों में से 7 शास्त्रार्थों का लिखित विवरण भी उपलब्ध होता है जो आर्यसमाज के साहित्य के प्रकाशन जुड़ी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होते आ रहे हैं। इन शास्त्रार्थों में प्रश्नोत्तर हलधर, काशी शास्त्रार्थ, हुगली शास्त्रार्थ और प्रतिमापूजनविचार, सत्यधर्म विचार मेला चांदापुर, जालन्धर शास्त्रार्थ, सत्यासत्यविवेकशास्त्रार्थ बेरली और उदयपुर शास्त्रार्थ सहित शास्त्रार्थ अजमेर और मसूदा सम्मिलत हैं। पं. मीमांसक जी ने महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ एवं प्रवचन नाम से भी एक पृथक ग्रन्थ का प्रणयन किया है जिसमें उनके सभी उपलब्ध शास्त्रार्थों व प्रवचनों का समावेश किया है। इस श्रृंखला में स्वामी दयानन्द जी का समस्त उपलब्ध पत्रव्यवहार भी चार भागों में प्रकाशित है जिसमें पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. भगवद्दत्त, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, महाशय मामराज और पं. चमूपति जी आदि का महत्वपूर्ण योगदान है। इस पत्रव्यवहार से भी महर्षि दयानन्द के जीवन, कृतित्व व उनकी वेदोक्त विचारधारा पर प्रकाश पड़ता है और अनेक बातों का रहस्योद्घाटन व स्पष्टीकरण भी होता है। महर्षि दयानन्द जी के कुछ ऐसे अमुद्रित ग्रन्थ भी हैं जो महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से बने। इन ग्रन्थों में कुरान का हिन्दी अनुवाद, शतपथ क्लिष्ट प्रतीक सूची, निरुक्त शतपथ की मूल सूची, वार्तिकपाठ-संग्रह, महाभाष्य का संक्षेप, ऋग्वेद के 61 सूक्तों का अनेकार्थ सम्मिलित हैं।

 

वेदांगप्रकाश के 14 ग्रन्थों से इतर महर्षि दयानन्द के वृहत एवं लघु ग्रन्थों की संख्या 27 है। स्वामीजी ने सन् 1863 से 1873 तक के 10 वर्षों में चार लघु ग्रन्थ सन्ध्या, भागवत-खण्डन, अद्वैतमत और गर्दभतापिनी उपनिषद् लिखे व प्रकाशित कराये। यह ग्रन्थ विलुप्त हैं परन्तु सन् 1962 में इन चार में से एक भागवत-खण्डन ग्रन्थ पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को उपलब्ध हो गया था जिसको उन्होंने प्रकाशित करा दिया और अब यह उपलब्ध है। स्वामी दयानन्द जी की सबसे प्रमुख कृति सत्यार्थप्रकाश है। इसमें ग्रन्थकार ने अपनी वेद विषयक सभी मान्यताओं को प्रथम दस समुल्लास में सविस्तार, युक्ति, तर्क, वेद व शास्त्रीय प्रमाणों, प्रश्नोत्तर शैली में शंका समाधान व आख्यानों सहित प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में सृष्टि, वेद व धर्म संबंधी अनेक तथ्यों का प्रथम बार उद्घाटन हुआ है। इस ग्रन्थ के अन्त के चार समुल्लासों में आर्यावर्तीय मतों सहित बौद्ध, जैन, बाइबिल व कुरान आधारित मतों की समीक्षा की गई है। यह ग्रन्थ एक प्रकार से विश्व धर्म कोष है जिसे पढ़कर संसार के सभी मतों वा धर्मों का गम्भीर व साधारण ज्ञान सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के पाठक को होता है। हमारा अनुमान है कि विश्व में इस ग्रन्थ के समान धर्म व मत-मतान्तर विषयक दूसरा प्रामाणिक व सत्य मान्यताओं का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् 1875 में तथा द्वितीय संशोधित व परिवर्धित संस्करण सन् 1884 में प्रकाशित हुआ था। इस समय सन् 1884 वाला संस्करण ही सर्वत्र प्रचारित व प्रसारित है। इस ग्रन्थ के अनेक भारतीय भाषाओं सहित अंग्रेजी व अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं।

 

सन् 1875-76 में ही स्वामी दयानन्द जी ने पंचमहायज्ञ विधि, वेदभाष्य का नमूना (प्रथम), वेदविरुद्धमतखण्डन, वेदान्तिध्वान्तनिवारण लघु ग्रन्थों की रचना व प्रकाशन किया। इसके बाद स्वामीजी ने दो प्रमुख ग्रन्थों आर्याभिविनय व संस्कारविधि की रचना कर इन्हें संवत् 1932 विक्रमी में प्रकाशित किया। स्वामी दयानन्द जी के जीवन का प्रमुख कार्य वेदों का प्रचार और वेदभाष्य की रचना है। आपने संवत् 1932 अर्थात् सन् 1876 में वेदभाष्य का प्रथम नमूना, इसके बाद चतुर्वेद-विषय-सूची, पश्चात दूसरा वेदभाष्य का नमूना, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, ऋग्वेदभाष्य तथा यजुर्वेदभाष्य की रचना की। ऋग्वेदभाष्य का कार्य सन् 1883 में उनकी मृत्यु पर्यन्त चलता रहा। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यजुर्वेद का कार्य पूरा हो चुका था तथा ऋग्वेद के सातवें मण्डल का कार्य चल रहा था। अभी उन्होंने सातवें मण्डल के 61 वे सूक्त का भाष्य पूर्ण किया था। वह बासठवें सूक्त के दूसरे मन्त्र का भाष्य कर चुके थे कि उन्हें जोधपुर में विष दिये जाने व उसके कारण कुछ समय रूग्ण रहकर दिवंगत हो जाने के कारण ऋग्वेद और उसके बाद सामवेद तथा अथर्ववेद के भाष्य का कार्य अवरुद्ध हो गया। महर्षि दयानन्द ने जितना भाष्य किया वह संस्कृत भाष्य व भाषानुवाद के संस्करणों सहित अनेक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित होकर उप्लब्ध हैं। महर्षि दयानन्द वेदों के जितने भाग का भाष्य नहीं कर सके उन पर भी अनेक आर्यविद्वानों के भाष्य वा टीकायें उपलब्ध हैं।

 

सन् 1977-78 में महर्षि दयानन्द ने आर्येाद्देश्यरत्नमाला, भ्रान्तिनिवारण तथा अष्टाध्यायीभाष्य की रचना की। इसके बाद के वर्षों में उन्होंने आत्मचरित्र, संस्कृतवाक्यप्रबोध, व्यवहारभानु, गौतम अहल्या की कथा, भ्रमोच्छेदन, अनुभ्रमोच्छेदन तथा गोकरुणानिधि की रचना कर इनका प्रकाशन किया। गौतम अहल्या की कथा का वर्णन उनके पत्रों व ग्रन्थों में प्रकाशित विज्ञापनों से मिलता है परन्तु सम्प्रति यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य विलुप्त पुस्तकों की तरह यह भी विलुप्त हो गई।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदोक्त धर्म विषयक उपर्युक्त जो साहित्य लिखा है वह संसार के सभी मताचार्यों में सर्वाधिक है। ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक शायद् ही कोई ऐसा विषय या प्रश्न हो, जिसकों उन्होंने स्वयं प्रस्तुत कर उसका समाधान न किया हो। स्वामीजी संसार में केवल एक वेदोक्त धर्म को ही ईश्वर प्रदत्त, पूर्ण सत्य व संसार के लिए सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी व आचरणीय मानते थे। उन्हें उपासना की भी एक ही पद्धति वैदिक योग पद्धति मान्य थी। अन्य किसी पद्धति से उपासना करने पर वह फल प्राप्त नहीं हो सकता जो कि योग की ध्यान व समाधि विधि के द्वारा उपासना करने से होता है। महर्षि दयानन्द ने जो विपुल धर्म विषयक साहित्य लिखा है वह आज भी प्रासंगिक व उपयोगी है और हमेशा रहेगा। न केवल भारत के सभी लोग अपितु विश्व के सभी लोग श्रद्धाभाव से उसका अनुशीलन कर उसे आचरण में लाकर अपने जीवन को उपासना के मार्ग पर अग्रसर कर इससे मनुष्य जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। जीवन की लक्ष्य प्राप्ति का एक ही मार्ग है और वह है महर्षि दयानन्द प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग। इस लेख में हमने महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थों का परिचय कराने का प्रयास किया है। आशा है कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘स्वामी दयानन्द के चार विलुप्त ग्रन्थ’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

स्वामी दयानन्द ने सन् 1863 में मथुरा में प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से विद्यार्जन पूरा कर अज्ञान के नाश व विद्या की वृद्धि सहित असत्य व अज्ञान पर आधारित धार्मिक, सामाजिक व राजधर्म सम्बन्धी मान्यताओं का खण्डन और सत्य पर आधारित मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार व मण्डन किया था। वह उपदेश, प्रवचन वा व्याख्यानों द्वारा प्रचार के साथ अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों से वार्तालाप व शास्त्रार्थ भी करते थे। उन्होंने उन लोगों तक अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए जो उनके उपदेशों में सम्मिलित नहीं हो सकते थे, अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। ग्रन्थों का प्रणयन व प्रकाशन का एक कारण यह भी था, उनके जीवनान्त के बाद भी लोग उनके सत्य मन्तव्यों, विचारों सहित वैदिक सिद्धान्तों से लाभ उठा सकें। उनका साहित्य आज भी न केवल वैदिक मत के उनके अनुयायियों का मार्गदर्शन कर रहा है अपितु इससे अनेक गवेषक, शोधार्थी व अन्य मत के लोग भी लाभान्वित हुए हैं व हो रहे हैं। स्वामी जी ने बड़ी संख्या में ग्रन्थ लिखें हैं जिनमें प्रमुख हैं सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि। इस लेख में हम उनके कुछ लघु ग्रन्थों की चर्चा कर रहे हैं जो उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन के आरम्भिक काल में लिखे थे, उनका प्रकाशन भी हुआ था तथापि वह सुरक्षित नहीं रखे जा सके और सम्प्रति लुप्त व अनुपलब्ध हैं।

 

स्वामीजी के ज्ञात ग्रन्थों में चार लघु ग्रन्थ ऐसे हैं जो विलुप्त हुए हैं। यह ग्रन्थ हैं, सन्ध्या, भागवत-खण्डन, अद्वैतमत-खण्डन तथा गर्दभतापिनी-उपनिषद। सन्ध्या स्वामी दयानन्द जी द्वारा रचित ग्रन्थों में प्रथम पुस्तक है। इसकी रचना की भूमिका इस प्रकार है कि स्वामी दयानन्द जी लगभग तीन वर्ष (1860-1863) मथुरा में दण्डी श्री स्वामी विरजानन्द सरस्वती से विद्याध्ययन करके सन् 1863 में आगरा पधारे। यहां लगभग डेढ़ वर्ष तक निवास किया। यहां पर स्वामी जी ने सर्वप्रथम सन्ध्या की एक पुस्तक लिखी। इसे आगरे के महाशय रूपलाल जी ने छपवाकर प्रकाशित किया। इसके विषय में स्वामी दयानन्द जी के जीवनी लेखक पं. लेखराम जी द्वारा संगृहीत प्रमुख जीवनचरित्र में लिखा है कि स्वामी जी के उपदेश से एक सन्ध्या की पुस्तक, जिस के अन्त में लक्ष्मी-सूक्त था, छपवाई गयी और एक आने में बेची गई। समस्त नगर के लोगों ने बिना किसी पक्षपात के उन पुस्तकों को मोल लिया। कुछ पण्डितों ने इतना आक्षेप किया कि इस में विनियोग नहीं रखे गये, परन्तु सब ने ली और बाल-बच्चों को पढ़ाई। छपाई आदि का रुपया रूपलाल ने दिया। तीस हजार के लगभग इस की कापी छपी थी और डेढ़ हजार रुपया व्यय हुआ था। यह तीन वर्णों के लिए थी। आर्यसमाज के एक अन्य विद्वान पं. महेशप्रसाद जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि श्री स्वामी जी ने संवत् 1920 वि. (सन् 1863 .) में सबसे पहिले संध्या की पुस्तक आगरे में लिखी थी। वहीं के एक सज्जन महाशय रूपलाल जी ने डेढ़ सहस्र रुपया व्यय करके इसकी तीस सहस्र प्रतियां छपवाई थी और मुफ्त बांटी गईं थी। यह पुस्तक स्वामी दयानन्द की सर्वप्रथम कृति है। स्वामी जी महाराज-ईश्वर-भक्ति पर विशेष बल देते थे, अतएव उन्होंने अपने जीवन-काल में सन्ध्या की कई पुस्तकें प्रकाशित कीं। उनके द्वारा लिखित एक अन्य पुस्तक पंचमहायज्ञ विधि है जिसमें सन्ध्या व इसकी विधि को विस्तार से व प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। यही सन्ध्या आजकल आर्यसमाजों व आर्यसमाजियों द्वारा देश व विश्व भर में प्रयोग में लाई जाती है। सन्ध्या की यह पुस्तक आगरे के ज्वालाप्रकाश प्रेस में छपी थी। इसका आकार व प्रकार अज्ञात है।

 

भागवतखण्डन स्वामी जी का ऐसा लघु ग्रन्थ है जो सन् 1866 में प्रकाशित किया गया। आर्यजगत के प्रख्यात विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक इस विषय में लिखते हैं कि श्री स्वामी जी महाराज ने संवत् 1923 के आरम्भ में भागवत-खण्डनम् नाम दूसरी पुस्तक लिखी थी। भागवत के दो पुराण है। एक श्रीमद्भागवत (वैष्णवों का) और दूसरा देवीभागवत यह भागवत-खण्डन श्रीमद्भागवत नामक पुराण के खण्डन में लिखा गया था। श्रीमद्भागवत वैष्णव संप्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। अतः भागवत-खण्डन का दूसरा नाम वैष्णवमतखण्डन भी है। श्री पं. लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द के जीवनचरित्र में इसका उल्लेख भड़वाभागवत और पाखण्डखण्डन नाम से किया है। पं. लेखराम जी द्वारा संकलित जीवनचरित के हिन्दी संस्करण में इस पुस्तक का परिचय उपलब्ध होता है। उन्होंने लिखा है कि ‘पाखण्ड-खण्डन (सात) पृष्ठ की यह पुस्तक संस्कृत भाषा में स्वामीजी ने भागवत-खण्डन विषय पर लिखी। सं. 1921 व 1922 में जब वे दूसरी बार आगरा में रहे उसी समय का लिखा गया यह पुस्तक मालूम होता है। सब से पुरानी हस्तलिखित प्रति इसकी ज्येष्ठ द्वितीय 9 बृहस्पतिवार 1923 तदनुसार 7 जून सन् 1866 की लिखी हुई पं. छगनलालजी शास्त्री किशनगढ़ के पास विद्यमान है। अजमेर से वापस लौटकर सं. 1923 के अन्त में आगरे में ज्वालाप्रकाश प्रेस में पण्डित ज्वालाप्रसाद भार्गव के प्रबन्ध में इसकी कई हजार प्रतियां छपवायीं और 1 बैशाख सं. 1924 तदनुसार 12 अप्रैल सन् 1867 के मेला हरिद्वार पर इसे विना मूल्य वितरण किया। यह अत्यन्त सुन्दर और समयोचित ट्रैक्ट (पुस्तिका) उच्चकोटि की शुद्ध और ललित संस्कृत में है। यह पुनः प्रकाशित नहीं हुआ।’ महर्षि दयानन्द के एक अन्य जीवनी लेखक पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी ने भी भागवत-खण्डन के विषय में लिखा है। उन्होंने एक विशेष बात यह लिखी है कि इस पुस्तक की प्रतियां आगरा में बांटी गईं और शेष हरिद्वार में बांटने के अभिप्राय से साथ ले गये और इन्हें कुम्भ के मेले में वहां बांटा गया। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने पुस्तक विषयक एक महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि जिस काल में यह लघु पुस्तिका लिखी गई, उस समय राजपूताना तथा उत्तर भारत में श्रीमद्भागवत की कथा का बहुत प्रचलन था, अतः सबसे प्रथम इसी पुराण के खण्डन में यह पुस्तक छपवाई गई। यह भी लिख दंे कि सम्प्रति यह पुस्तक उपलब्ध है जिसका श्रेय पं. मीमांसक जी को ही है। यह पुस्तक पं. मीमांसक जी को काशी में सन् 1962 में तब उपलब्ध हुई जब वह वहां रामलालकपूर ट्रस्ट के पुस्तकालय में पुरानी पुस्तकों को टटोल रहे थे। वहां दैवयोग से अनायास उनकी दृष्टि ‘‘पाषंडि मुखमर्दन पुस्तक पर पड़ी जो इन्द्रप्रस्थ निवासी श्री विश्वेश्वरनाथ गोस्वामी नाम के एक पण्डित जी की लिखी हुई थी और इसका प्रकाशन मुरादाबाद के सुदर्शन यन्त्रालय में हुआ था। 62 पृष्ठों की इस पुस्तक में लेखक ने ऋषि दयानन्द विरचित भागवतखण्डन को अक्षरशः उद्धृत करके उसका खण्डन किया है। इस प्रकार यह पुस्तक सुरक्षित उपलब्ध हो गई जिसे पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने हिन्दी अनुवाद सहित रामलालकपूर ट्रस्ट से प्रकाशित कर दिया और अब यह उपलब्ध है व इन पंक्तियों के लेखक के पास भी है।

 

स्वामी दयानन्द जी लिखित एक अन्य विलुप्त पुस्तक अद्वैतमतखण्डन है जिसे उन्होंने काशी में ज्येष्ठ सं. 1927 अर्थात् जून, 1870 में लिखा था। यह पुस्तक सम्प्रति अनुपलब्ध वा विलुप्त है। पं. लेखराम जी संगृहीत स्वामी दयानन्द के जीवन चरित में इस लघुग्रन्थ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ‘यह ट्रैक्ट (लघु पुस्तिका) स्वामी जी ने काशी में शास्त्रार्थ सं. 2 (अर्थात् काशी शास्त्रार्थ) के पश्चात् छपवाया और यत्न करके कविवचनसुधा नामक हिन्दी के मासिक पत्र में संस्कृत भाषा में भाषानुवाद सहित मुद्रित कराया।’ सन्दर्भः कविवचनसुधा जिल्द 1 संख्या 14-15 13 जून सन् 1870। यह लाइट प्रेस बनारस में गोपीनाथ पाठक के प्रबन्ध से प्रकाशित हुआ। यह ट्रैक्ट नवीन-वेदान्त के दुर्ग को तोड़ने के लिये सैनिक बल से अधिक बलवान है। इस पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित नहीं हुआ। यह पुस्तक भी विगत लगभग 140 वर्षों से अनुपलब्ध वा विलुप्त है।

 

स्वामी दयानन्द जी का चैथा विलुप्त ग्रन्थ है गर्दभतापिनीउपनिषद्। इसका उल्लेख कर पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने लिखा है कि श्री स्वामीजी महाराज के जीवनचरित्र से विदित होता है कि उनका मुखारविन्द सदा प्रसन्न रहा करता था। वे अपने भाषणों से कभी-कभी श्रोताओं का मनोरंजन कराया करते थे। श्रोताओं के मनोरंजन के लिये उन्होंने ‘‘रामतापिनी, गोपालतापिनी आदि उपनिषदों के सदृश एक ‘‘गर्दभतापिनीउपनिषद् बनाई थी और कभी-कभी उसके वचन सुनाकर श्रोताओं का मनोरंजन किया करते थे। इस उपनिषद् का उल्लेख पं. देवेन्द्रनाथ संगृहीत जीवनचरित्र (भाग 1, पृष्ठ 279) में इस प्रकार किया है– ‘‘श्री स्वामी जी ने रामतापिनी और गोपालतापिनी उपनिषदों की तरह गर्दभतापनी उपनिषद् भी बना रखी थी, जिसमें से कभीकभी वचनों को उद्धृत करके सुनाया करते थे। मीमांसक जी इस पर टिप्पणी कर कहते हैं कि ‘यह वर्णन प्रयाग का है। इस बार श्री स्वामी जी महाराज द्वितीय आषाढ़ वदी 2 सं. 1931 को प्रयाग पधारे थे। अतः यह पुस्तक प्रयाग जाने से पूर्व ही रची गई होगी। दुःख है कि इसकी कोई प्रतिलितपि सुरक्षित नहीं रक्खी गई, अन्यथा वह बडे मनोरंजन की वस्तु होती।‘

 

महर्षि दयानन्द के साहित्य के प्रेमी जब भी उनके साहित्य का अध्ययन करते हैं तो इन तीन ग्रन्थों की उपलब्धता न होने से उनको पीड़ा होती है। यह बता दें कि महर्षि दयानन्द की प्रथम पुस्तक सन्ध्या की प्रति अडयार के राजकीय पुस्तकालय में है। वहां से श्री आदित्यपाल सिंह आर्य ने इसकी प्रति प्राप्त की थी। वह वर्षों तक उनके पास पड़ी रही। हमने उनसे प्राप्त करने का प्रयास किया तो जानकारी मिली कि वह पुस्तक उनसे उनके मित्र श्री पंडित उपेन्द्र राव राव ले गये थे। अब उनका देहान्त हो गया है अतः वह मिल न सकी। हमने भी अडयार स्थित पुस्तकालय को लिखा था परन्तु हमें वहां से कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। अकोला के श्री राहुल आर्य इसकी प्राप्ति के लिए प्रयासरत है। महर्षि दयानन्द के इन विलुप्त हुए ग्रन्थों से यह शिक्षा मिलती है कि पुस्तकों के संरक्षण में कोताही नहीं करनी चाहिये। उसको सुरक्षित रखना आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हैं। अन्यथा पछताना होता है।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘दया के सागर महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द के जीवन में अन्य अनेक गुणों के साथ दया नाम का गुण असाधारण रूप में विद्यमान था। उनमें विद्यमान इस गुण दया से सम्बन्धित कुछ उदाहरणों को आर्यजगत के महान संन्यासी और ऋषिभक्त स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने अपनी बहुत ही प्रभावशाली व मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। पाठकों को इसका रसास्वादन कराने के लिए हम इसे प्रस्तुत कर रहे हैं। यह उल्लेख स्वामी वेदानन्द जी ने स्वरचित ऋषि बोध कथा पुस्तक के जन्म तथा बालकाल अध्याय में किया है। स्वामी जी लिखते हैं कि ’’दयानन्द के आगमन से पूर्व गौ आदि पशुओं की अन्धाधुन्ध हत्या हो रही थी। (उनके समय तक किसी ने गोहत्या के विरोध में आवाज उठाई हो, इसका कहीं प्रमाण नहीं मिलता)। ऋषि ने उसको (गोहत्या को) बन्द कराने के लिए अनेक प्रयत्न किये। उनका लिखा ‘‘गोकरुणानिधि ग्रन्थ काय में लघु है किन्तु उपाय में अति महान् है। उसका एक-एक वाक्य ऋषि के हृदय में इन निरीह पशुओं के प्रति दया एवं करुणा का परिचय दे रहा है। हम प्रत्येक पाठक से अनुरोध करते हैं कि वे एक बार इसका अवश्य पाठ करें। ऋषि ने इसके समीक्षा प्रकरण को, भगवान् से प्रार्थना पर समाप्त किया है। उनके शब्द ये हैं-‘‘हे महाराजाधिराज जगदीश्वर ! जो इनको कोई न बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हूजिए।”

 

ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश में प्रार्थना के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे हैं-‘‘जो मनुष्य (ईश्वर से) जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्त्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है।” (सप्तम समुल्लास-सत्यार्थप्रकाश)

 

ऋषि ने तदनुसार अपनी यह प्रार्थना पुरुषार्थ के साथ की है। गोकरुणानिधि लिखने के अतिरिक्त वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों में गोरक्षा के निमित्त एक आवेदन पत्र पर हस्ताक्षर करा रहे थे। उनकी कामना थी कि कम-से-कम दो करोड़ मनुष्यों के हस्ताक्षर कराके इंग्लैण्ड (की महारानी विक्टोरिया को) भेजे जाएं। इससे ऋषि की दयालुता का बोध सुस्पष्टतया हो जाता है। गौओं के जीवन की रक्षा अर्थात् हत्या बन्द कराने के निमित्त उन्होंने राज्याधिकारियों से भेंट करने में भी संकोच न किया। (इतिहास में गोरक्षा का यह अपूर्व उदाहरण है। सनातन धर्म के बन्धुओं में गोरक्षा की प्रवृत्ति महर्षि दयानन्द की इस घटना के बहुत बाद उत्पन्न हुई)।

 

अनूपशहर में ऋषि अपनी मधुरिमामयी वाणी से लोगों के हृदयों में धर्मप्रीति की भावनाएं भर रहे थे कि एक कपटी जन ने पान में विष डालकर दिया। वहां का तहसीलदार ऋषि का भक्त था। उसे जब इस वृत्तान्त का भान हुआ तो उसने उस पामर विषदाता को बंधवा दिया। दयालु दयानन्द ने यह सुनकर उससे कहा ‘‘सैयद अहमदजी ! आपने अच्छा नहीं किया। मैं संसार को बन्धनों से छुड़वाने के लिए यत्नवान् हूं, मैं इन्हें बंधवाने, कैद कराने नहीं आया।” अपने घातक के प्रति भी दया। अद्भुत है दयानन्द तेरी दया। धन्य हो तुम्हारी जननी, धन्य है तुम्हारे पिता और धन्य है आपश्री के गुरुदेव। धन्य ! धन्य !!

 

दयानन्द की दया का एक और उदाहरण सुन लीजिए। जोधपुर में मूर्ख पाचक ने उन्हें दूध के साथ कालकूट विष दिया। एक घूंट पीते ही उन्हें इसका ज्ञान हो गया तो दयालु दयानन्द ने उस जगन्नाथ को रुपये देकर नेपाल भाग जाने को कहा। ऋषि ने उसे कहा–‘‘जगन्नाथ ! शीघ्र यहां से भागकर नेपाल चले जाओ ! राठोरों को यदि तेरी करतूतों का पता चल गया तो तेरा एक-एक अंग काट लेंगे, अतः भाग जा।”

 

अपने प्राणघातक के प्राणों को बचाने की चिन्ता अतिशय दयालु के अतिरिक्त किसको हो सकती है? इस विषय में दयानन्द की समता का एक भी उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं है। इस प्रकार दया के व्यवहारों के दृष्टान्त ऋषि के जीवन में अनेक हैं। चैदह बार उन्हें विष दिया गया किन्तु दयानन्द ने किसी को दण्ड दिलाने का यत्न नहीं किया।

 

दयानन्द ने अपने जन्म नाम (दयाल जी) तथा संन्यास नाम (दयानन्द) दोनों को यथार्थ कर दिखाया। यह दयानन्द के गौरव को चार चांद लगाता है।”

 

हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के जीवन में दया के उपर्युक्त उदाहरणों को पढ़कर उनके हृदय की भावनाओं से कुछ परिचित हो सकेंगे। हम पाठकों को महर्षि दयानन्द का स्वामी सत्यानन्द व अन्य विद्वानों द्वारा लिखित जीवनचरित पढ़ने का भी निवेदन करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ उपदेश देने से महर्षि दयानन्द विश्वगुरु हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

यह संसार वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक अनबुझी पहेली ही है। आज भी वैज्ञानिक इस सृष्टि के स्रष्टा की वास्तविक सत्ता व स्वरुप से अपरिचित हैं। यदि उन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती की तरह वेदों की शरण ली होती तो वह इस रहस्य को जान सकते थे। आज का संसार दोहरे मापदण्डों वाला संसार है। बिना जाने व समझे वेदों को भी अन्य मतों के धार्मिक ग्रन्थों के समान एक धार्मिक ग्रन्थ मान लिया गया है। इसके पीछे कुछ विदेशियों का अपना स्वार्थ दिखाई देता है जिससे उनके मतों की वास्तविकता समाज के सामने न आ जाये। सच्चाई यह है कि वेद अन्य मत-मतान्तरों की तरह, रूढ़ अर्थ में प्रयोग धर्म, की धार्मिक पुस्तक नहीं है अपितु यह सब सत्य ज्ञान व विद्या की पुस्तक हैं। वेद आज भी अपने मूल स्वरुप में विद्यमान हैं। वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ में इस सृष्टि के रचयिता सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमेश्वर के द्वारा हुई थी। उन्होंने सृष्टि और मनुष्य के कर्तव्यों आदि का विस्तृत ज्ञान आदि सृष्टि में वेदों के माध्यम से चार ऋषियों की हृदय गुहा में अन्तः प्रेरणा द्वारा दिया था। वेदों का ज्ञान मन्त्रों के रूप में दिया गया है जो कि संस्कृत में है। इन वेद मन्त्रों के अध्ययन से ही संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई है। पहले सृष्टि की आदि में ईश्वर ने चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया। फिर इन ऋषियों ने अन्य लोगों में वेदों का प्रचार किया। वेद ज्ञान दिये जाने से पूर्व किसी भाषा का अस्तित्व नहीं था। यह वेद ज्ञान व वेद मन्त्र ही भाषा के प्रथम आधार व संस्कृत भाषा के मूल स्रोत हैं। सृष्टि के आरम्भ के अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा व ब्रह्मा आदि ऋषि ईश्वर के स्वरूप के साक्षात्कर्ता थे जिन्हें वेदों के सत्य अर्थों का यथार्थ ज्ञान था और उन्होंने इनका प्रचार कर संसार से अज्ञान व सभी भ्रान्तियों को दूर किया। महाभारतकाल तक यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही। महाभारत का युद्ध होने के बाद अध्ययन अध्यापन में बाधा उत्पन्न हुई। वेद मन्त्रों के अर्थ जानने की योग्यता संसार के लोगों में न रही, इस कारण वेदों के अनेक भ्रान्तिपूर्ण व मिथ्या अर्थ प्रचलित हो गये। इसी कारण संसार में अज्ञान का अन्धकार फैला और नाना मत-मतान्तर उत्पन्न हुए। समाज के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने अपनी-अपनी बुद्धि व योग्यतानुसार शिक्षा का प्रचार किया। प्रायः उनके अनुयायियों ने उन्हें दिव्य मनुष्य या महापुरूष मानकर प्रचारित किया। यह दावा किया गया कि उन मतों की सभी शिक्षायें सत्य व यथार्थ हैं, जबकि ऐसा नहीं था। सभी मतों में सत्य व असत्य का मिश्रण है जिसका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने अपने ग्रन्थों मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के अन्तिम 4 अध्यायों में कराया है।

 

महर्षि दयानन्द के समय में सभी मत मतान्तरों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरुप को लेकर भ्रम की स्थिति थी। उन्होंने भ्रम निवारण करते हुए ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति, इन तीन सत्ताओं के त्रैतवाद का सिद्धान्त संसार के सम्मुख रखा। ईश्वर सहित तीनों पदार्थों का सत्यस्वरूप सामने रखते हुए उन्होंने इन तीनों सत्ताओं को अनादि व नित्य बताया। उनका मानना था कि ईश्वर, जीवात्मा व मूल-कारण प्रकृति अनुत्पन्न, अनादि व नित्य है। इस कारण यह तीनों सत्तायें अविनाशी व अमर भी हैं अर्थात् इनका नाश अथवा अभाव कभी नहीं होता। उनके समय में ईश्वर के विषय में बहुत सी मिथ्या मान्तयायें प्रचलित थी जो आज भी प्रचलित ने केवल प्रचलित हैं अपितु इनमें वृद्धि हुई है। स्वामीजी ने उन सभी का खण्डन व आलोचना की और ईश्वर के सत्यस्वरूप का उल्लेख करते हुए कहा कि ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता-हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। इन लक्षणोवाली सत्ता को ही परमेश्वर मानना और उसी की उपासना करना सबके लिए लाभकारी व श्रेयस्कर है। ईश्वर के इन लक्षणों से अवतारवाद व मूर्तिपूजा सहित इनके विपरीत ईश्वर विषयक सभी मान्यताओं का खण्डन हो जाता है। ईश्वर की उपासना का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ महर्षि पतंजलि का योग दर्शन है। उसका अध्ययन कर ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अपने व्यापक वेद और वैदिक साहित्य के अध्ययन व ज्ञान के आधार पर उपासना की सरलतम विधि वैदिक सन्ध्या लिखी है। इसी के आधार पर आज संसार के करोड़ों लोग उपासना करते हैं। इस सन्ध्या की विधि में योगदर्शन की उपासना पद्धति का निचोड़ वा सार प्रस्तुत किया गया है जिसका अभ्यास करके मनुष्य ईश्वर व अपनी आत्मा दोनों का साक्षात्कार कर सकता है। ईश्वर सहित अन्य सभी विषयों व विद्याओं का अध्ययन करने के लिए मनुष्यों को सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका से अध्ययन का आरम्भ कर उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति व वेदों का अध्ययन करना चाहिये जिससे सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर होती हैं। इसके साथ हि साधना के सरल व प्रभावशाली उपायों का ज्ञान होने से मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य, ईश्वर का साक्षात्कार, की प्राप्ति होकर जीवन को सफल बनाया जा सकता है।

 

महर्षि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थों में जीवात्मा के सत्य स्वरुप पर भी प्रकाश डाला है। अपने लघु ग्रन्थ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में जीव विषयक अपनी मान्यता लिखते हुए वह बताते हैं कि जीवात्मा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य व चेतन सत्ता है। नित्य का अर्थ है कि यह जीव हमेशा से है और हमेशा रहेगा अर्थात् यह अनुत्पन्न और अविनाशी सत्ता है। जीवात्मा को अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जीवन व योनि मिलती है जिसमें वह अपने प्रारब्ध के अनुसार फल भोग कर व नये कर्मों को करके मृत्यु को प्राप्त होती है और मृत्यु के पश्चात प्रारब्ध के अनुसार पुनः नया जन्म धारण करती है। जन्म-मरण का यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और इसी प्रकार सदा चलता रहेगा जब तक कि वेदानुसार सद्कर्मों को करके जीवात्मा की मुक्ति न हो जाये। मनुष्य यदि अच्छे कर्म करता है तो उसकी उन्नति होती है जिससे वह मृत्यु के बाद श्रेष्ठ उन्नत योनि व अवस्थाओं में जन्म ग्रहण करता है और यदि उसके अच्छे कर्म कम व बुरे कर्म अधिक होते हैं तो वह अवनति को प्राप्त होकर निम्न योनियों में जन्म ग्रहण करता है जहां उसे अपने बुरे कर्मों के फलों को भोगना होता है। महर्षि दयानन्द के यह विचार भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं कि जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधम्र्य से भिन्न और व्याप्य-व्यापक और साधम्र्य से अभिन्न हैं। अर्थात् जैसे आकाश से मूर्तिमान द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, न है और न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव का व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध है।

 

कारण व कार्य प्रकृति जड़ है। कारण प्रकृति अनुत्पन्न तथा त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज व तमोगुण वाली है। यही परमाणु व अणुरूप होकर स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् यह प्रकृति परिणामिनी होने से अवस्थान्तर अर्थात् परिवर्तनों को प्राप्त होकर नाना स्वरूप व आकारवाली हो जाती है। पृथिवी, चन्द्र, ग्रह-उपग्रह, सूर्य, नक्षत्र आदि सभी इस त्रिगुणात्मक प्रकृति के विकार वा कार्य हैं। इसको विस्तार से जानने के लिए सांख्य दर्शन सहित वेदों के नासदीय सूक्त आदि का अध्ययन करना चाहिये। यह भी जानने योग्य है कि यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है अर्थात् इस प्रकृति से सृष्टि का निर्माण होता है, सृष्टि निर्धारित अवधि तक बनी रहती है, फिर प्रलय होती है और प्रलय में यह पुनः अपने मूल स्वरूप में आ जाती है। प्रलयकाल समाप्त होने पर ईश्वर सृष्टि की रचना कर इसे पुनः उत्पन्न करता है व चलाता है तथा यथासमय प्रलय करता है। इस प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और भविष्य में भी चलता रहेगा।

 

महर्षि दयानन्द ने न केवल तीन अनादि पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य सिद्धान्त त्रैतवाद व इनके स्वरूप का ही प्रचार किया अपितु वेदों का पुनरुद्धार भी किया। वेद ही मानव मात्र का सबसे बड़ा धन व पूंजी है। वेद से ही कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है जिसे धर्माधर्म कहते हैं। इस धर्माधर्म से ही मनुष्य को बन्ध व मुक्ति होती है। महर्षि दयानन्द के सम्पूर्ण कार्यों को जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि सहित उनके समस्त ग्रन्थ, उनके जीवन चरितों और पत्रव्यवहार आदि का अध्ययन करना चाहिये। उन्होंने ईश्वर की सच्ची उपासना के साथ अन्य महायज्ञों देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेवयज्ञ का भी पुनरुद्धार किया। इसका अवलम्बन कर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। इस संक्षिप्त लेख में हम पाठकों को महर्षि दयानन्द को परा विद्या के क्षेत्र में संसार को ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य व यथार्थ स्वरूप से परिचित कराने व मनुष्यों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के मार्ग का ज्ञान कराकर मोक्ष तक पहुंचाने के लिए संसार का सबसे बड़ा हितैषी व पुरोधा मानते हैं। महाभारत काल के बाद अन्य कोई महापुरूष ऐसा नहीं हुआ जिसने मनुष्य को संसार विषयक समस्त ‘‘सत्य ज्ञान से परिचित कराया हो जैसा महर्षि दयानन्द ने कराया है। महर्षि दयानन्द भूतो भविष्यति महापुरूष थे। उनके मनुष्य जीवन की इहलौकिक व पारलौकिक उन्नति में योगदान को स्मरण कर संसार के सभी मनुष्यों को लाभ उठाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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लाला दीवानचन्द का महत्त्वपूर्ण लेखः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

डी.ए.वी. कालेज कानपुर के एक स्वर्गीय प्राचार्य ला. दीवानचन्द जी एक जाने माने शिक्षा शास्त्री तथा अनुभवी विचारक थे। लखनऊ से चलााष पर प्राप्त एक प्रश्न का उत्तर देते हुए इस सेवक ने प्रश्नकर्त्ता को ला. दीवानचन्द जी के कुछ वाक्य सुनाये तो उस विचारशील पाठक ने इस पर परोपकारी में कुछ विस्तार से लिखने की प्रेरणा दी। उस सुपठित युवक ने कहा, ‘‘मैंने तो कभी ला. दीवानचन्द जी का यहा कथन सुना व पढ़ा ही नहीं।’’

रोग यह है कि आर्य समाज में बड़े -बड़े नाम गिनाने व पुस्तकों की सूचियाँ बनाने को ही शोध व प्रचार माना जाने लगा है। पं. चमूपति जी, स्वामी वेदानन्द जी की पुस्तकों में लिखा क्या है? यह कौन पढ़ता व सुनता है। लखनऊ के उस युवक ने महर्षि दयानन्द जी के विषपान व कर्नल प्रतापसिंह पर एक प्रश्न पूछ लिया। उसे बताया गया कि डी.ए.वी. कालेज कमेटी के एक पूर्व प्रधान ला. दीवानचन्द जी का लबे समय तक प्रतापसिंह से सपर्क व सबन्ध रहा। मेल मिलापाी रहा। महर्षि को विष दिये जाने की घटना का वर्णन करते हुए ला. दीवानचन्द जी को यह कटु    सत्य लिखना पड़ा, ‘‘डॉ. अलीमर्दान खाँ की चिकित्सा होती रही और रोग बढ़ता गया। दिन में कई बार मूर्छा हो जाती। करवट लेने को दूसरे की सहायता की आवश्यकता पड़ने लगी। दर्द बहुत सत था, और मुँह में और शरीर पर छाले पड़ने लगे। यह अवस्था एक सप्ताह तक जारी रही।

‘‘महाराजा प्रतापसिंह और राव राजा तेजसिंह स्वामी जी के स्थान तक न पहुँचे।’’

सत्य को छिपाने की कला के कलाकारों ने कभी डा. दीवानचन्द के इन वाक्यों को उद्धृत ही नहीं किया। प्रताप सिंह की क्रूरता पर पर्दा डालना ही कुछ लोगों का धर्म कर्म रहा है। प्रश्न आया तो हमने यह साक्षी दे दी।

ऋषि के पत्रों में लुप्त इतिहास के स्रोतः- ऋषि जीवन पर लिखने व बोलने वालों ने ऋषि जीवन में चर्चित गोरे लोगों व उस काल के अंग्रेजी पठित भारतीयों, पादरियों व मौलवियों के नाम के साथ नये-नये विशेषण गढ-गढ़ कर जोड़े और उनको महिमा मण्डित व प्रचारित करके अपनी रिसर्च की तो धौंस जमा दी परन्तु ऋषि के भक्तों, समर्पित आर्य पुरु षों, आर्य समाज की नींव के पत्थरों की उपेक्षा से स्वर्णिम इतिहास का लोप हो गया। हमारे कुछ लोगों ने ए.ओ. ह्यूम, मैक्समूलर व वोमेशचन्द्र बनर्जी की तो बड़ी रट लगाई। परन्तु ठाकुराोपाल सिंह, ठाकुर मुन्नासिंह, ठाकुर मुकन्दसिंह, भाई ज्ञानसिंह, ला. मुरलीधर, ला. लक्ष्मीनारायण, राव युधिष्ठिरसिंह और पं. गोपाल शास्त्री, पं. भानुदत्त को विसार दिया। सर सैयद के बृहत जीवन चरित्र में ‘‘श्री स्वामी दयानन्द’’ बस यही तीन शब्द मिलते हैं।

भाई ज्ञानसिंह अग्नि-परीक्षा देने वाला एक प्रमुख आर्य था। शुद्धि-आन्दोलन का पंजाब में पहला कर्णधार था। पं. लेखराम जी ने उनकी प्रशंसा की है। पत्र व्यवहार में उनकी चर्चा है। पत्र व्यवहार में वर्णित आर्यों की सूची बनानी होगी। जितना बन सकेगा, यह सेवक उन सब का इतिहास खोद-खोद कर खोज देगा।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की कुछ प्रमुख मान्यतायें’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

वेदों पर आधारित महर्षि दयानन्द जी की कुछ प्रमुख मान्यताओं को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं:

ईश्वर विषयक

ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।

वेद विषयक

विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रांत स्वतः प्रमाण मानता हूं। वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं, और चारों वेदों के ब्राह्मण, 6 अंग, 6 उपांग, 4 उपवेद और 1127 वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मा आदि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उन को परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन है, उनका अप्रमाण मानता हूं।

धर्म अधर्म

जो पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभंग वेदविरुद्ध है, उसको अधर्म मानता हूं।

जीव, जीवात्मा अर्थात् मनुष्य का आत्मा

जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य है, उसी को जीव मानता हूं।

देव

विद्वानों को देव और अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस, अनाचारियों को पिशाच मानता हूं।

देवपूजा

उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा कहाती है। इस से विपरीत अदेवपूजा होती है। इन मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूं।

यज्ञ

उसको कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिन से वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है, उसको उत्तम समझता हूं।

आर्य और दस्यु

आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं। मैं भी वैसे ही मानता हूं।

स्तुति

गुणकीर्तन श्रवण और ज्ञान होना, इस का फल प्रीति आदि होते हैं।

प्रार्थना

अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

 

उपासना

 

जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, योगाभ्यास से ऐसा निश्चय व साक्षात् करना उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

 

सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना

 

जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उन से युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं, उन से पृथक मानकर प्रशंसा करना सगुण-निर्गुण स्तुति, शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुण-निर्गुण प्रार्थना और सब गुणों से सहित सब दोषों से रहित परमेश्वर को मान कर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना सगुणनिर्गुणोपासना कहाती है।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक उपर्युक्त वैदिक सत्य सिद्वान्तों को अपने ज्ञान व आचरण हेतु उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘स्वामी दयानन्द अपूर्व सिद्ध योगी व पूर्ण वैदिक ज्ञान से संपन्न महापुरुष थे’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द जी के समग्र जीवन पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य सामने आता है कि वह एक सिद्ध योगी तथा आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न वेदज्ञ महात्मा और महापुरुष थे। अन्य अनेक गुण और विशेषातायें भी उनके जीवन में थी जो महाभारतकाल के बाद उत्पन्न हुए संसार के अन्य मनुष्यों में नहीं पायी जाती। वस्तुतः यह दोनों उपलब्धियां ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य बनी थीं। आरम्भ में तो उन्हें पता नहीं था कि जिस उद्देश्य के लिए वह अपना घर व माता-पिता का त्याग कर रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा? उन्होंने सच्चे शिव संबंधी ज्ञान की प्राप्ति और मृत्यु पर विजय पाने को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। उन्हें इस बात का आभास था कि सच्चे योगियों से उनके मनोरथ पूर्ण हो सकते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि घर से चलकर वह विद्या प्राप्ति में निपुणता प्राप्त होने तक ज्ञानियों व योगियों की ही संगति में देश भर में सभी सम्भावित स्थानों पर खोज करते रहे। उनका यह गुण था कि अपने लक्ष्यों की प्राप्ति से सम्बन्धित उन्हें जहां जिससे जितना भी ज्ञान मिलता था, उसे वह प्राप्त कर लेते थे और उससे आगे के लिए वह अन्य सम्भावित स्थानों की ओर चल पड़ते थे।

 

स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन के लक्ष्य की पूर्ति में सहायता के लिए शीघ्र की ब्रह्मचर्य की दीक्षा व उसके बाद संन्यास ले लिया था। उन्होंने अपने जीवन का पर्याप्त समय गुजरात के प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थों, मध्यप्रदेश के नर्मदा तट व नर्मदा के स्रोत अमरकण्टक, राजस्थान के आबू पर्वत सहित उत्तराखण्ड के वन व पर्वतों पर जाकर सिद्ध योगियों व ज्ञानियों की खोज में लगाया था। गुजरात की चाणोदकन्याली में उन्हें योगी ज्वालापुरी और शिवानन्द गिरी मिले जिनसे उन्हें योग के अनेक सू़क्ष्म रहस्यों का ज्ञान हुआ। उन्होंने इन योग प्रवीण गुरुओं के निर्देशन में योग का सफल अभ्यास भी किया था। इसके बाद अहमदाबाद व आबूपर्वत जाकर भी उन्होंने योगाभ्यास किया और यहां भी उन्हें योग शिक्षा के अनेक गुप्त स सूक्ष्म महत्वपूर्ण रहस्यों का ज्ञान हुआ। स्वामी दयानन्द जी ने अपने गृह पर रहकर 21 वर्ष की अवस्था तक अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन किया था। अतः यात्रा में जहां कहीं उन्हें कोई ग्रन्थ मिलता था तो वह उसको प्राप्त कर उसका अध्ययन करते थे। ज्ञान के अनुसंधान के लिए योगियों व महात्माओं से मिलना और साहित्यिक शोध के प्रति उनकी बुद्धि बड़ी प्रबल थी। पुस्तकों में जो लिखा है वह सत्य और प्रमाणित है या नहीं, इसकी वह परीक्षा किया करते थे। उनके पास कुछ तन्त्र ग्रन्थ थे। उनमें शरीर के भीतर जिन चक्रों का वर्णन था, एक बार अवसर मिलने पर नदी में बह रहे शव को बाहर निकाल कर तथा अपने चाकू से उसे चीरकर, उसका पुस्तक के वर्णन से उन्होंने मिलान किया था। जब वह वर्णन सही नहीं पाया तो उन ग्रन्थों को भी उन्होंने उस शव के साथ बांध कर नदी में बहा दिया था। इससे सत्य की खोज के प्रति उनके दृण संकल्प के दर्शन होते हैं। इस पूरे वर्णन से स्वामी दयानन्द जी का योग में प्रवीण हो जाने और उसके प्रायः सभी रहस्यों को जीवन में प्राप्त कर लेने का तो अनुभव होता है परन्तु ज्ञान प्राप्ती की उनकी आगे की यात्रा करनी अभी बाकी थी। यहां हमें इस तथ्य के भी दर्शन हो रहे हैं कि कोई भी सफल योगी सांसारिक ज्ञान, विज्ञान व वेदों के ज्ञान से सम्पन्न नहीं हो जाता जैसा कि कई लोग दावा करते है कि योग में निष्णात हो जाने पर सभी ज्ञान योगी को स्वतः सुलभ हो जाते हैं और उसे ज्ञान प्राप्ति करना शेष नहीं रहता।

 

स्वामी दयानन्द जी में ज्ञान प्राप्ति की भी तीव्र अभिलाषा व इच्छा थी। इसकी प्राप्ति का स्थान भी वह बड़े ज्ञानी योगियों को ही मानते हैं। अतः योग में पूर्णता प्राप्त कर लेने पर भी उनकी ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के प्रयत्न जारी रहे। इसके लिए वह गुजरात के धार्मिक वा तीर्थस्थलों, नर्मदा तट व उसके उद्गम तथा राजस्थान के आबू पर्वत की तो पूर्णता से छानबीन कर चुके थे, अब उन्हें अभीष्ट की प्राप्ति के लिए उत्तराखण्ड के हरिद्वार, ऋषिकेश और वन पर्वतों के शिखरों सहित कन्दराओं व तीर्थ स्थानों में ज्ञानी योगियों के मिलने की सम्भावना थी। वह इस ओर बढ़े और अभीष्ट का अनुसंधान करने लगे। अनुसंधान करने पर यहां उन्हें भीषण कष्ट हुए परन्तु कोई विशेष उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। इसके कुछ काल बाद सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सारा देश किसी न किसी रूप में संघर्षरत रहा। इसके बात स्थिति कुछ सामान्य होने पर सन् 1860 में स्वामी दयानन्द जी मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की पाठशाला में ज्ञान की प्राप्ति हेतु पहुंचते हैं। यहां स्वामी जी को अपने निवास, पुस्तकों के क्रयण एवं भोजन आदि की समस्याओं के निवारण में कुछ समय लगता है। इसके बाद उनका अध्ययन आरम्भ होकर 3 वर्ष तक चलता है। स्वामीजी गुरु विरजानन्द जी की शिक्षा से उस ज्ञान को प्राप्त करते हैं जिसकी उन्हें तीव्र अभिलाषा थी और जिसके लिए उन्होंने अपने माता-पिता व घर का त्याग किया था। गुरु दक्षिणा का अवसर आता है। स्वामी जी गुरु जी को प्रिय कुछ लौंग लेकर पहुंचते हैं। दोनों के बीच बातचीत होती है। गुरुजी स्वामी जी को मिथ्या अज्ञान व अन्धविश्वास दूर कर वैदिक ज्ञान का प्रकाश करने का आग्रह करते हैं। स्वामी दयानन्द जी भी अपने लिए इस कार्य को सर्वोत्तम व उचित पाते हैं। अतः गुरु विरजानन्द जी की प्रेरणा, परामर्श वा आज्ञा को स्वीकार कर उन्हें इस कार्य को करने का वचन देते हैं। हमें लगता है कि स्वामी जी यदि यह कार्य न करते तो उनकी योग्यता के अनुरुप उनके पास करने के लिए दूसरा कोई कार्य भी नहीं था। अभी तक स्वामी दयानन्द जी ने योग तथा आर्ष विद्या के क्षेत्र में जो ज्ञान की उपलब्धि की व अनुभव प्राप्त किये, उससे सारा संसार अपरिचित था। सन् 1863 में वह कार्य क्षेत्र में आते हैं और धीरे धीरे वह अन्धविश्वासों का निवारण और वेदों के प्रचार प्रसार करने में सफलताओं को प्राप्त करना आरम्भ कर देते हैं। इन कार्यों में पूर्णता तब दृष्टिगोचर होती है जब वह नवम्बर, 1869 में काशी में पूरी पौराणिक विद्वतमण्डली को मूर्तिपूजा को वेद शास्त्रानुकूल सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ करते हैं और अपने सिद्धान्त कि मूर्तिपूजा वेद व शास्त्र सम्मत नहीं है, सफल व विजयी होते हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी और उनके गुरु स्वामी विरजानन्द जी दोनों ही देश की धार्मिक व सामाजिक पतनावस्था से चिन्तित थे। दोनों ने ही इसके कारणों व समाधान पर विचार किया था। इसका कारण यह था कि अवैदिक, पौराणिक व मिथ्या ज्ञान तथा आपस की फूट के कारण देश की यह दुर्दशा हुई है। इस समस्या पर विजय पाने का एक ही उपाय था कि सत्य और असत्य के यथार्थ स्वरूप का प्रचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कराया जाये। स्वामी जी ने गुरु विरजानन्द जी से ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, धर्म व जीवन शैली के सम्बन्ध में वेदों में निहित सत्य ज्ञान को ही प्राप्त किया था। उन्होंने मथुरा में गुरूजी से विदा लेने के बाद अपने आपको इस महत्कार्य के लिए तैयार किया था। उनके पास सभी विषयों के सभी प्रकार के प्रश्नों के सत्य उत्तर थे। उनका अपना जीवन भी सत्य के ग्रहण साक्षात उदाहरण था। उन्होंने मनुस्मृति जैसे प्रमुख ग्रन्थ में विद्यमान लाभकारी सत्यासत्य की कसौटी पर कस कर वेदानुकूल भाग को भी प्राप्त किया था जिसका इससे पूर्व किसी ने इस प्रकार से अध्ययन नहीं किया था। उनके समय तक के विद्वान पूरी मनुस्मृति को या तो स्वीकार करने वाले थे या अस्वीकार करने वाले। परन्तु इसके सत्य व लोकहितकारी ज्ञान को स्वीकार व उसमें प्रक्षिप्त वेद विरुद्ध, असत्य व मिथ्या ज्ञान वाले अंश को त्यागने की दृष्टि रखने वाले विद्वान नहीं थे। इस दृष्टि को रखने वाले स्वामी दयानन्द पहले विद्वान थे। स्वामी दयानन्द जी ने अपने समग्र ज्ञान के आधार पर देश का भ्रमण आरम्भ कर दिया। पूना पहुंच कर उन्होंने प्रवचनों से वहां के प्रबुद्ध समाज को अपनी बातों का लोहा मनवाया। मुम्बई में उनके प्रवचनों से लोग प्रभावित हुए। उन्हें सन् 1874 में वैदिक विचारों का वर्तमान व भविष्य काल में तथा उनके सम्पर्क में न आने लोगों तक उनकी सभी बातें पहुंच जायें वा पहुंचती रहे, इसका एक ग्रन्थ तैयार करने का प्रस्ताव मिला जिसे उन्होंने विश्व का अनूठा ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश लिख कर पूरा किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुम्बई के प्रबुद्ध लोगों ने उन्हें एक संगठन बनाने का सुझाव दिया। उसी का परिणाम 10 अप्रैल, 1875 को आर्यसमाज की स्थापना था। इसके बाद व कुछ पूर्व उन्होंने पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, वेद भाष्य सहित अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया जिसका उद्देश्य सत्य का प्रचार करना व मिथ्या ज्ञान वा अन्धविश्वासों को समाप्त करना था। स्वामी जी को अपने इस कार्य में निरन्तर सफलतायें प्राप्त होती आ रही थी। अब उनका प्रभाव व सम्पर्क वर्तमान के महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि अनेक स्थानों में हो चुका था। इन सभी स्थानों पर आर्यसमाज स्थापित हो रहे थे। मुख्यतः पौराणिक लोग आर्यमत को स्वीकार कर रहे थे और अन्य मतों के प्रमुख लोग भी वैदिक धर्म से प्रभावित हुए थे। स्वामी जी ने आर्य वैदिक मत के सिद्धान्तों के प्रचार व प्रसार के लिए उपदेश व प्रवचनों सहित वार्तालाप व शास्त्रार्थों का भी सहारा लिया था। वह शास्त्रार्थों के अपराजेय व विजित योद्धा थे। महर्षि दयानन्द ने अपने कार्यों व प्रयासों से वैदिक धर्म को संसार का प्रथम व उत्कृष्ट सत्य, तर्क व विज्ञान की कसौटी पर खरा एकमात्र धर्म बना दिया था जिससे सभी मतों के आचार्यों में अपने निजी स्वार्थों के कारण असुखद स्थिति अनुभव की जाने लगी थी और वह उनके शत्रु बन रहे थे।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों के मन्त्रों में छिपे रहस्यों को खोला जिस कारण उन्हें महर्षि के नाम वा पदवी से सम्बोधित किया जाता है। उन्होंने अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद, बाल विवाह, सामाजिक असमानता, स्त्री व शूद्रों का वैदिक शिक्षा के अनाधिकार सहित सभी धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सच्चिदानन्द निराकार सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी ईश्वर की वैदिक रीति से सन्ध्योपासना, गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था, खगोल ज्योतिष, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार पूर्ण युवावस्था में विवाह, अनिवार्य व निःशुल्क गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था व वैदिक सुरीतियों का समर्थन किया। देश की आजादी में उनका व उनके आर्यसमाज का सर्वोपरि योगदान है। वह अपूर्व देशभक्त व मानवता के सच्चे पुजारी थे। संसार के सभी मनुष्यों की सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति ही उनको अभीष्ट थी। उन्होंने अपना कोई नया मत व सम्प्रदाय नहीं चलाया अपितु ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को दिये गये वेद ज्ञान का ही प्रचार कर संसार से अज्ञानता, असमानता व भेदभावों को दूर करने का प्रयास किया। वह वेदाज्ञा कृण्वन्तो विश्वमार्यम् में विश्वास रखते थे और वैदिक धर्म से बिछुड़े हुए भाई-बहिनों को निष्पक्ष भाव से वैदिक धर्म के वट वृक्ष के नीचे लाने के समर्थक थे। वस्तुतः उन्होंने एक ऐसे विश्व का स्वप्न संजोया था जिसमें किसी के प्रति किसी प्रकार का अन्याय, भेदभाव और शोषण न हो और सब वैदिक ज्ञान से युक्त शिक्षित, विद्वान, विदुषी, निरोगी, स्वस्थ व बलवान हों। वह संसार से अशान्ति व दुःखों को समूल मिटाना चाहते थे। उनके शिष्यों पर उनके स्वप्नों को पूरा करने का भार है परन्तु उन सभी को कर्तव्यबोध भी है?, कहा नहीं जा सकता। आत्म चिन्तन और आर्यसमाज के नियम कि मनुष्य को सार्वजनिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें, यह और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग ही आर्यसमाज का उन्नति का मार्ग है। हम सबको अपना आत्मनिरीक्षण करते हुए इसी मार्ग पर चलना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द जी की दो विशेषताओं, उनके सिद्ध योगी और वेद ज्ञान सम्पन्न होने तथा इन विशेषताओं का उपयोग कर संसार के कल्याण की भावना से वेद प्रचार करने का हमने लेख में वर्णन किया है। उनरके बाद उनके समान योगी और वेदों का विद्वान उत्पन्न नहीं हुआ। यदि होता तो विश्व को आशातीत लाभ होता। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘क्या महर्षि दयानन्द को वेद की पुस्तकें धौलपुर से प्राप्त हुईं थीं?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द जी अपने विद्यागुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन पूरा कर और गुरु दक्षिणा की परम्परा का निर्वाह कर गुरुजी को दिए वचन के अनुसार भावी योजना को कार्यरूप देने वा निश्चित करने के लिए मथुरा से आगरा आकर रहे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष रहकर उपदेश व प्रवचन आदि के द्वारा प्रचार किया। आगरा में निवासकाल में महर्षि दयानन्द ने एक दिन पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। इसका अर्थ यह निकलता है कि स्वामीजी के पास वेद की पुस्तकें नहीं थी। पं. लेखराम जी ने इस विषय को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है

 

वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थानएक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी ने बड़ीखोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत कर लिया करते थे। इसके बाद इस विषय में आगे लिखा है कि धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओरस्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।  धौलपुर का वर्णन इस विषय में मौन है कि स्वामी जी को यहां धौलपुर में वेद की पुस्तक मिली या नहीं। इसके बाद के वर्णनों में भी वेद की पुस्तकों की खोज, उनके प्राप्त होने या न होने का वर्णन नहीं मिलता।

 

धौलपुर से 20 अक्तूबर 1864 को चलकर स्वामीजी ग्वालियर होते हुए किसी मार्ग से आबू पर्वत आते हैं और यहां से चलकर 85 दिन बाद लश्कर / ग्वालियर पहुंचते हैं। अनुमान किया जाता है कि स्वामीजी आबू पर्वत अपने योग विद्या सिखाने वाले गुरुओं से भेंट करने गये होंगे। आबूपर्वत से ग्वालियर आकर, यहां कुछ समय ठहर कर इसके बाद स्वामी जी 7 मई, 1865 को ग्वालियर से चलकर करौली आते हैं। करौली में निवास का वर्णन करते हुए पं. लेखराम जी अपने जीवन चरित्र में लिखते हैं कि ग्वालियर से स्वामी जी करौली पधारे और राजा साहब से धर्म विषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास कियाफिर वहां से जयपुर चले गये। यहां करौली में स्वामी जी ने कई मास ठहर कर वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि स्वामी जी को धौलपुर में वेद की पुस्तक प्राप्त हो गईं थी। यदि न होती तो फिर वह अभ्यास न कर पाते। धौलपुर में उनका 15 दिनों का निवास वेदों की उपलब्धि वा प्राप्ति के लिए ही व्यतीत हुआ प्रतीत होता है। करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इन शब्दों से यह भी प्रतीत होता है कि इससे पूर्व उन्होंने सम्भवतः आबू पर्वत पर भी लगभग ढाई मास रूककर वेदों का प्रथमवार अभ्यास किया था।

 

स्वामी दयानन्द जी ने कुम्भ मेले के अवसर पर 12 मार्च सन् 1867 से हरिद्वार में प्रवास किया। पं. लेखराम जी के जीवन चरित में उन्हें केवल वेद ही मान्य थेस्वामी महानन्द सरस्वती शीर्षक से वर्णन मिलता है जिसमें कहा गया है कि स्वामी महानन्द सरस्वती, जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एकएक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नहीं। हमने वेदों के दर्शन वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी को (स्वतः प्रमाण) मानते थे। यहां स्वामी जी के पास वेद होने का अर्थ है कि उन्हें वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यदि वहां प्राप्त न होते तो वहां वेदों के प्राप्त न होने और अन्यत्र से प्राप्त होने का कहीं वर्णन होता। अन्यत्र वेदों की प्राप्ति का उल्लेख न होना संकेत करता है कि स्वामी जी को वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यहां इतना और बता दें कि दादूपन्थी स्वामी महानन्द जी देहरादून में निवास करते थे और यहां नगर में उनका ‘‘महानन्द आश्रम के नाम से अपना आश्रम था। स्वामी जी से मिलने और प्रभावित होने के कारण वह आर्यमतानुयायी बन गये थे और उन्होंने अपने आश्रम का परवर्ती नाम भी महानन्द आश्रम् अर्थात् आर्यसमाज कर दिया था। हमारा सौभाग्य है कि हम इसी आर्यसमाज के सदस्य रहे हैं।

 

स्वामी जी को वेदों की प्राप्ति धौलपुर में ही हुई, इस सम्बन्ध में हम आर्य समाज के विद्वान महानुभावों की सम्मति जानना चाहेंगे। यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि स्वामी जी को धौलपुर में यह वेद किससे प्राप्त हुए थे? इस विषय में हम यह अनुमान करते हैं कि किसी वेदपाठी परिवार के किसी पण्डित जी वा ब्राह्मण परिवार से ही स्वामी जी को यह वेद प्राप्त हुए होंगे। किसी पुस्तकालय वा किसी पुस्तक विक्रेता के पास से मिलना तो सम्भव नहीं लगता। हमारा अनुमान है कि सन् 1865 वा 1867 से पूर्व वेद भारत में मुद्रित नहीं हुए थे। सम्भवतः पहली बार वेद मन्त्र संहिताओं का मुद्रण व प्रकाशन लाहौर से महर्षि दयानन्द भक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने किया था।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की कुछ प्रमुख मान्यतायें’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

वेदों पर आधारित महर्षि दयानन्द जी की कुछ प्रमुख मान्यताओं को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं:

ईश्वर विषयक

ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।

वेद विषयक

विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रांत स्वतः प्रमाण मानता हूं। वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं, और चारों वेदों के ब्राह्मण, 6 अंग, 6 उपांग, 4 उपवेद और 1127 वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मा आदि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उन को परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन है, उनका अप्रमाण मानता हूं।

धर्म अधर्म

जो पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभंग वेदविरुद्ध है, उसको अधर्म मानता हूं।

जीव, जीवात्मा अर्थात् मनुष्य का आत्मा

जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य है, उसी को जीव मानता हूं।

देव

विद्वानों को देव और अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस, अनाचारियों को पिशाच मानता हूं।

देवपूजा

उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा कहाती है। इस से विपरीत अदेवपूजा होती है। इन मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूं।

यज्ञ

उसको कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिन से वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है, उसको उत्तम समझता हूं।

आर्य और दस्यु

आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं। मैं भी वैसे ही मानता हूं।

स्तुति

गुणकीर्तन श्रवण और ज्ञान होना, इस का फल प्रीति आदि होते हैं।

प्रार्थना

अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

उपासना

जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, योगाभ्यास से ऐसा निश्चय व साक्षात् करना उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना

जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उन से युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं, उन से पृथक मानकर प्रशंसा करना सगुण-निर्गुण स्तुति, शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुण-निर्गुण प्रार्थना और सब गुणों से सहित सब दोषों से रहित परमेश्वर को मान कर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना सगुणनिर्गुणोपासना कहाती है।

हम आशा करते हैं कि पाठक उपर्युक्त वैदिक सत्य सिद्वान्तों को अपने ज्ञान व आचरण हेतु उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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महर्षि दयानन्द ने मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

आज दीपावली का पर्व महर्षि दयानन्द जी का बलिदान पर्व भी है। कार्तिक मास की अमावस्या 30 अक्तूबर, 1883 को दीपावली के दिन ही सायंकाल  अजमेर में उनका बलिदान हुआ था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व महर्षि दयानन्द के जोधपुर में धर्म प्रचार से रूष्ट उनके विरोधियों ने उनको विष देकर व बाद में उनकी चिकित्सा में लापरवाही कर उनको स्वास्थ्य की ऐसी विषम स्थिति में पहुंचा दिया था जो उनके बलिदान का कारण बनी। आज दीपावली पर उनको याद करने के पीछे भी हमारा व मानव जाति का हित छिपा हुआ है। महर्षि दयानन्द के जीवन का मुख्य कार्य वेदों के ज्ञान को अर्जित करना और उसका देश व विदेश में प्रचार करना था। वेद ज्ञान का महत्व इस कारण है कि यह सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्रेरित व उनकी आत्माओं में स्थापित किया गया ज्ञान है जिसमें ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि का यथार्थ परिचय देकर कर्तव्य व अकर्तव्य अर्थात् मनुष्य धर्म का बोध कराया गया है। इस ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जब हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी संसार के सभी पदार्थों को जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, ईश्वर हमारा व सब प्राणियों का जन्मदाता है, सुखों का दाता व कर्मों का फल प्रदाता है, अतः उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर उससे जीवन के लक्ष्यों की सफलता के लिए उससे सहायता की विनती करना और वैदिक शिक्षाओं के अनुसार जीवन को बनाना व चलाना ही है। वैदिक पथ पर चलकर ही मनुष्य जीवन की उन्नति होकर जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य के लिए जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों को प्राप्त करने का वैदिक जीवन पद्धति व वेद विहित कर्तव्यों का पालन करने के अलावा कोई मार्ग नहीं है। यदि संसार का कोई मनुष्य वेद मार्ग पर चलकर साधना व कर्तव्यों को पालन नहीं करेगा तो उसका यह जीवन उसे भविष्य में घोर दुःखों की ओर ले जायेगा जिसका सुधार अनेक जन्मों में भी कठिनता से हो सकेगा। इसका प्रमुख कारण जीवात्मा का अविनाशी, अमर, नित्य, जन्म मरण को प्राप्त होना, कर्मों का फल भोगना आदि हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में सत्य की खोज व अनुसंधान कर कठोर साधना की थी जिसके परिणाम स्वरुप उनको वेदों का ज्ञान व योग विद्या की प्राप्ति हुई थी। अपने गुरू की आज्ञा व अपनी प्रकृति व प्रवृत्ति के अनुसार भी उन्होंने वेद अर्थात् सत्य ज्ञान के प्रचार को ही अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया था। इसकी आवश्यकता इस लिए थी कि उनके समय में संसार से सत्य ज्ञान प्रायः लुप्त हो चुका था और सभी मनुष्य जो जीवन व्यतीत कर रहे थे वह जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति से कोसों दूर था। यदि महर्षि दयानन्द वेद व सद्ज्ञान के प्रचार का कार्य न करते तो मनुष्य इस सृष्टि की शेष अवधि भर भटकता रहता तथा उसे सत्य मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता था। मत-मतान्तरों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उसका पूर्ववत् शोषण करते रहते जिससे दोनों की ही अवनति होकर संसार में दुःख व अशान्ति भरी हुई होती। महर्षि दयानन्द के द्वारा वेद प्रचार करने पर भी संसार अभी भी अज्ञान व स्वार्थों में फंसा हुआ है। ऐसा देखा जाता है कि लोगों में सत्य को जानने व उसका आचरण करने के प्रति जो दृणता होनी चाहिये, उसका उनमें नितान्त अभाव है। संसार के सभी मनुष्य जीवन की समस्याओं के सरल उपाय करना चाहते हैं। इसी कारण स्वार्थी लोग उनका शोषण करते हैं और दोनों ही अधर्म को प्राप्त होकर अपना भविष्य उन्नत करने के स्थान पर अवनत होकर सुदीर्घ काल तक उनका फल भोगते हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी का योगदान यह है कि उन्होंने ईश्वर व जीवात्मा सहित सभी विषयों का सत्य ज्ञान प्राप्त कर, उसकी परीक्षा द्वारा उसे तर्क की कसौटी पर कस कर उसका प्रचार किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर को ब्रह्म व परमात्मा आदि भी कहते हैं। यह ईश्वर सच्चिदानन्द आदि लक्षण युक्त है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता व सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणों से युक्त है। इसी ईश्वरीय सत्ता को सभी को परमात्मा जानना व मानना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का परिचय कराते हुए बताया है कि विद्या व सत्य ज्ञान से युक्त ईश्वर प्रणीत जो मन्त्र संहितायें हैं, वह निभ्र्रान्त ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण हैं। यह चारों वेद स्वयं प्रमाणस्वरूप हैं, कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं है। जैसे सूर्य वा प्रदीप अर्थात् दीपक अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे ही चारों वेद हैं। चारों वेद और वैदिक साहित्य के अन्तर्गत सभी ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 वेदांग और 6 वेदों के उपांग अर्थात दर्शन ग्रन्थ, चार उपवेद और 1127 वेदों की शाखायें यह सभी वेदों के व्याख्यानरूप ग्रन्थ हैं और इन्हें ब्रह्मा आदि अनेक ऋषियों ने बनाया है। यह सब परतः प्रमाण की कोटि में आते हैं। परतः प्रमाण का अर्थ है कि यदि यह वेदानुकूल हों तो प्रमाण और इनकी जो बात वेदानुकूल न हो वह अप्रमाण होती है। महर्षि दयानन्द जी ने अपने जीवन में सबसे बड़ा कार्य सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि व व्यवहार भानु सहित वेदों के भाष्य का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन है। इसके अतिरिक्त वैदिक मान्यताओं के प्रचार हेतु उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान, वार्तालाप, शास्त्र चर्चा तथा शास्त्रार्थ आदि हैं। उनके अनुयायी अन्य वैदिक विद्वानों के वेद भाष्य भी मानव जाति की सबसे बड़ी सम्पत्ति व सम्पदायें हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने बताया कि पक्षपात रहित न्याय का आचरण तथा सत्य भाषण आदि से युक्त ईश्वर की आज्ञा जो वेदों के अनुकूल हो, उसी को धर्म कहते हैं। और जो इसके विपरीत हो वह अधर्म होता है। हमारा जीवात्मा क्या है? इस पर महर्षि दयानन्द जी बताते हैं कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञान आदि गुणों से युक्त, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, नित्य पदार्थ व तत्व है, वही जीव कहलाता है। ईश्वर, वेद, धर्म, अधर्म और जीवात्मा का जो ज्ञान महर्षि दयानन्द जी ने दिया है, वह यथार्थ व पूर्ण सत्य है। अन्य मतों में समग्र रूप में इस प्रकार का ज्ञान उनके समय में उपलब्ध नहीं था। आज भी मत-मतान्तरों की पुस्तकें पढ़कर यह सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता। इनमें अनेकानेक भ्रान्तियां भरी हुई हैं। इसलिए वैदिक धर्म और वेद आज भी सबसे अधिक पूर्ण प्रमाणिक एवं पठनीय ग्रन्थ हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुष्यों को सच्ची ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना सिखाया। इसके लिए उन्होंने ब्रह्म यज्ञ अर्थात् वैदिक ईश्वरोपासना की विधि भी लिखी है जो एक प्रकार से योगदर्शन का निचोड़ है। इसका अभ्यास करने से जीवात्मा के सभी अवगुण दूर होकर उसमें सदगुणों का आविर्भाव होता है और आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि मृत्यु के समान दुःख प्राप्त होने पर भी वह घबराता नहीं है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से मनुष्य जीवन की उन्नति होती है और मृत्यु के पश्चात उसको अच्छा देव कोटि का जन्म वा मुक्ति की प्राप्ति होती है। महर्षि दयानन्द ने अपने ज्ञान व पुरूषार्थ से सृष्टि के प्रति मनुष्य के कर्तव्य के निर्वाह हेतु ‘‘अग्निहोत्र, यज्ञ वा हवन का भी विधान किया है इसको करने से भी जीवनोन्नति सहित परजन्म सुधरता व उन्नत होता है व अभीष्ट इच्छाओं व आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। इसके साथ ही मनुष्य स्वस्थ रहते हुए ईश्वर की सहायता से अनेक विपदाओं से सुरक्षित रहता है। अतः ईश्वरोपासना और दैनिक यज्ञ को सभी मनुष्यों को करके अपने जीवन को उन्नत व लाभान्वित करना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान व वेदों का प्रचार ही नहीं किया अपितु समाज सुधार हेतु समाज में व्याप्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों का खण्डन भी किया। मिथ्या मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, सामाजिक विषमता, बाल विवाह, परतन्त्रता, गोहत्या आदि का खण्डन कर इसके विपरीत सच्ची ईश्वर उपासना, यज्ञ, जन्म से सभी मनुष्यों की समानता, सबको विद्याध्ययन के समान अवसरों को प्रदान किये जाने का समर्थन भी किया। उनपकी विचारधारा से लिगं भेद व रंग भेद आदि का भी निषेध होता है। उन्होंने स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले सभी भेदभावों को दूर कर उन्हें शिक्षित करने सहित देशोन्नति के कार्य करने के लिए प्रोत्साहित व प्रेरित किया। उन्होंने मनुस्मृति के वचन उद्धृत कर बताया कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। साथ हि जहां नारियों का सम्मान नहीं होता, वहां की जाने वाली सभी अच्छी क्रियायें भी व्यर्थ होती हैं।

 

वैदिक धर्म का अध्ययन कर सभी अध्येता इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वेद ही सारी मानव जाति के सुख व समृद्धि सहित धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि में सहायक है। इससे परजन्म भी सुधरता है और वर्तमान जीवन भी उन्नत व सुखी होता है। इन सब ज्ञानयुक्त बातों से परिचित कराने का श्रेय महर्षि दयानन्द जी को है। उन्होंने इन सभी सिद्धान्तों को अपने जीवन में चरितार्थ कर हमारा मार्गदर्शन किया। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको सच्ची श्रद्धाजंलि यही हो सकती है कि हम उनके सभी विचारों का अध्ययन कर उनका मनन करते हुए उन्हें अपने जीवन में अपनायें और उन पर आचरण कर जीवन को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर आरूढ़ करें। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में अपने वेद प्रचार कार्यों के अन्तर्गत मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया था। आज महर्षि दयानन्द जी के बलिदान दिवस पर हम उनको अपनी विनम्र श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं और सभी पाठको को दीपावली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें भेंट करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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