Category Archives: समाज सुधार

‘मनुष्यों एवं प्राणियों के जातिभेद ईश्वर व मनुष्यकृत दोनों हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

ईश्वर ने इस संसार को अपने किसी निजी प्रयोजन से नहीं अपितु जीवों के कल्याणार्थ बनाया है। उसी ने सभी प्राणियों को उत्पन्न किया जिससे वह अपने प्रारब्ध अर्थात् पूर्व जन्मों के अवशिष्ट वा अनभुक्त कर्मों के सुख-दुःख रूपी फलों का भोग कर सकें और सद्कर्मों को करके उन्हें भविष्य में कोई दुःख न हो। मनुष्यों का एक उद्देश्य ईश्वर व उसकी कर्म-फल व्यवस्था को जानना भी है। इस व्यवस्था को जानकर और तदनुरूप पुरुषार्थयुक्त आचरण को करके उन्हें दुःखों से छूटने का प्रयत्न करना है। ईश्वर ने सृष्टि बनाने और जीवों को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीर देकर तो सभी मनुष्यों पर कृपा की ही है, इससे भी अधिक कृपा उसने सृष्टि के आरम्भ में जीवन को सुखी बनाने व दुःखों की निवृत्ति के उपाय सुझाने के साथ मोक्ष प्राप्ति की भी शिक्षा व ज्ञान (वेद) दिया है। सृष्टि के हमारे इस ग्रह पृथिवी पर प्राणियों की उत्पत्ति लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 सहस्र वर्ष पूर्व हुई थी। अब से लगभग 5-6 हजार वर्षों तक संसार में सभी लोग वैदिक धर्म की मान्यताओं के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते थे। किन्हीं कारणों से व्यवस्था में कुछ विकार हुआ जो समय के साथ बढ़ता गया जिसका परिणाम महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध हुआ। इसी से सामाजिक व राजैनैतिक सभी व्यवस्थायें कुप्रभावित हुईं। इसके प्रभाव से विगत पांच हजार वर्षों में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक अर्थात् राजधर्म विषयक अनेकों विकृतियां उत्पन्न हुईं जिसका उदाहरण वर्तमान एवं इससे उससे पूर्व का भारत व विश्व का समाज रहा है। इन अनेक बुराईयों में से एक सामाजिक बुराई व विषमता मनुष्यों में जन्मना जातिवाद की है। इस व्यवस्था ने भारत का सर्वाधिक अहित व समाज का पतन किया है। आज भी यह जन्मना जातिवाद विद्यमान है परन्तु आज की परिस्थितियों में इसका पूर्व प्रचलित जटिल रूप काफी शिथिल हुआ है।

 

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने सन् 1863 में वेदों का पुनरुद्धार कर उनका प्रचार किया। वेद धर्म, समाज, राजधर्म व ज्ञान-विज्ञान सहित सभी सत्य विद्याओं के प्राचीनतम स्रोत व ग्रन्थ हैं। वर्तमान का जन्मना जातिवाद भी वेदों के मानने वाले महाभारत के उत्तरकालीन लोगों ने ही प्रचलित किया अथवा परिस्थितियोंवश ऐसा हो गया। अतः इसका निदान करने से पूर्व वेदों में समाज व्यवस्था का क्या स्वरूप है, यह देखना आवश्यक था। महर्षि दयानन्द महाभारत युद्ध के बाद वेदों के ऐसे प्रथम मर्मज्ञ विद्वान हुए हैं जिन्होंने वेदों के सत्य अर्थों को जाना था। उन्हें वेदों में पदे-पदे सत्य और मनुष्य जाति के कल्याण के ऐसे स्वर्णिम सूत्र प्राप्त हुए जिनका पालन न करने से ही संसार में अन्धकार छाया था। उन्होंने संसार से अज्ञान का अन्धकार दूर करने के लिए वेदों के ज्ञान वा शिक्षाओं के प्रचार को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया जिससे इस धराधाम पर रहनेवाली समस्त मानव जाति सुख व सम्मान के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सके। उन्होंने वेद सम्मत सामाजिक व्यवस्था का भी अध्ययन किया और उसे अपने उपदेशों, वार्तालाप और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के माध्यम से सबके कल्याणार्थ प्रस्तुत किया। उनके अनुसार वेद सभी मनुष्यों को उनके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अधिकार देते हैं। मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार चार विभाग किये जा सकते हैं और यह हैं ज्ञान प्रधान, बल प्रधान, वाणिज्य-व्यापार-कृषि-गोपालन के गुण प्रधान और गुणरहित व्यक्तियों का विभाग वा समूह। इनको क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र की संज्ञायें दी गई हैं। सामाजिक व्यवहार हेतु यह विभाग आवश्यक थे। आज भी इनका परिवर्तित रूप न केवल भारत अपितु विश्व भर में प्रचलित है जहां किसी व्यक्ति का महत्व उसके गुणों, कार्यों व स्वभाव से ही होता है। अध्यापक, राजा, सैनिक, पुलिस, डाक्टर, इंजीनियर, ड्राइवर आदि मनुष्य के गुणों व कार्यों का ज्ञान कराते हैं। इसे जाति कहें या न कहें, परन्तु यह चार वर्ण के समान मनुष्य के गुण-कर्म व स्वभाव के बोधक शब्द हैं। देश व समाज में मनुष्यों की रक्षा हेतु राज्याधिकारियों, सेना व पुलिस का अलग वर्ग है, शिक्षक, वैज्ञानिक, चिन्तक, अनेक विषयों के अलग अलग विद्वानों का अलग वर्ग है, भिन्न भिन्न व्यवसायों, कृषकों व पशु पालकों आदि का अलग वर्ग है और इनको सहयोग देने वाले अल्पज्ञानी, अल्प शक्ति वाले व व्यापार में अल्प ज्ञान व अनुभव वालों का अलग वर्ग है। मनुष्यों के यह चार वर्ण क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि व इनके अन्तर्गत भिन्न-भिन्न जातियां ही महाभारतकाल व उसके बाद जन्मना जातिवाद में परिवर्तित हो गये। रामायण व महाभारत इतिहास के प्राचीन प्रमुख ग्रन्थ हैं। इसमें सहस्रों मनुष्यों के नामों का उल्लेख है परन्तु किसी के नाम के साथ कोई वर्ण व जातिसूचक शब्द का प्रयोग देखने को नहीं मिलता जैसा कि आजकल प्रयोग किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है जन्मना जाति व जातिसूचक शब्दों का प्रयोग व प्रचलन महाभारत काल के बाद विगत 5 हजार वर्षों में हुआ है।

 

वेद सम्मत गुणकर्मस्वभाव पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में महर्षि दयानन्द जी ने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में विस्तार से लिखा है। वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था तथा जन्मना जातिवाद दोनों परस्पर एक दूसरे से भिन्न विरोधी हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के एकादश समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने जिज्ञासुओं की ओर से स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया है कि जाति भेद ईश्वरकृत है वा मनुष्यकृत? इसका वेद सम्मत उत्तर उन्होंने यह कहकर दिया है कि जातिभेद ईश्वरकृत और मनुष्यकृत भी हैं। अपने इस उत्तर पर वह स्वयं प्रश्न करते हैं कि कौन से जातिभेद ईश्वरकृत हैं और कौन से मनुष्यकृत हैं? इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, जलजन्तु आदि जातियां परमेश्वरकृत हैं। जैसे पशुओं में गो, अश्व, हस्ति आदि जातियां, वृक्षों में पीपल, वट, आम्र, आदि, पक्षियों में हंस, काक, वकादि, जलजन्तुओं में मत्स्य, मकरादि जातिभेद हैं वैसे ही मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज जातिभेद हैं, यह भेद ईश्वरकृत हैं। परन्तु मनुष्यों में ब्राह्मणादि को सामान्य जाति में नहीं किन्तु सामान्य विशेषात्मक जाति में गिनते हैं। जैसा सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रकरण में उन्होंने लिखा है, वैसे ही गुण, कर्म, स्वभाव से वर्णव्यवस्था माननी अवश्य हैं। इसमें मनुष्यकृतत्व उनके गुण, कर्म, स्वभाव से पूर्वोक्तानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि वर्णों की परीक्षापूर्वक व्यवस्था करनी राजा (देश की सरकार) और विद्वानों (विद्यालयों महाविद्यालयों के प्राचार्य आदि) का (सम्मिलित) काम है। इसका तात्पर्य है कि जिसजिस मनुष्य में जैसी जितनी योग्यता हो उसका उसी के अनुसार राजा और विद्वानों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र वर्ण निर्धारित करना चाहिये और उसी के अनुसार समाज में व्यवहार होना चाहिये। ऐसा होने पर जन्मना जाति व्यवस्था स्वमेव निरर्थक हो जाती है और इससे उत्पन्न सभी प्रकार की सामाजिक विषमतायें दूर होती हैं। महर्षि दयानन्द के यह विचार जन्मना जाति के सर्वथा विपरीत एवं मनुष्यों में सद्गुणों के पोषक तथा विषमतारहित आधुनिक समाज के आधार हैं। महर्षि दयानन्द इसके आगे कहते है। कि भोजन भेद भी ईश्वरकृत और मनुष्यकृत है। जैसे सिंह मांसाहारी और अर्णाभैंसा घासादि का आहार करते हैं यह ईश्वरकृत और मनुष्यों में देश, काल, खाद्यवस्तु भेद से भोजनभेद मनुष्यकृत अर्थात् मनुष्यों द्वारा किए हुए हैं। 

 

महर्षि दयानन्द के इन विचारों से सुस्पष्ट है कि मनुष्यों में वर्तमान समय के अनुरूप जातिभेद वेदसम्मत न होकर उसके सर्वथा विरुद्ध हैं। अतः जातिसूचक शब्दों का जो प्रयोग किया जाता है वह अनुचित व अनावश्यक है। हां, मनुष्यों में गोत्र का प्रचलन ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट है। यह मनुष्यों के विवाह आदि में लाभदायक होता है जिससे सन्तानों में बुद्धि व बल पराक्रम आदि नाना गुण उत्तम होते हैं। वर्तमान आधुनिक समय में जन्मना जाति व्यवस्था कुछ कमजोर अवश्य हुई है। आर्यसमाज की स्थापना व इसके द्वारा वेदों के प्रचार की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है जिसने जन्मना जातिवाद के विरुद्ध वैचारिक आन्दोलन किया। आज समाज में जाति-व्यवस्था की अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं के विपरीत अन्तर्जातीय व प्रेम विवाह आदि हो रहे हैं जिससे लगता है कि कुछ पीढि़यों के बाद यह समाप्त होकर इतिहास की वस्तु बन जायेगी। आर्यसमाज में सभी जन्मना जातियों के लोग हैं। इसका पुरोहित वर्ग भी वर्तमान की सभी जन्मना जातियों से युक्त है। आर्यसमाज ने ब्राह्मणों सहित क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को अपने गुरुकुलों में पूरी समानता प्रदान कर अध्ययन कराया जो बड़े-बड़े वैदिक विद्वान, पण्डित व संस्कृत भाषी बने हैं व अब भी बड़ी संख्या में देश भर में विद्यमान हैं। यह आर्यसमाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रान्ति थी। यह भी लिख दें कि जो व्यक्ति आर्यसमाज का सदस्य बनता है वह वेदानुसार व गुण-कर्म-स्वभावानुसार ब्राह्मण ही होता है। ऐसा इसलिए कि उसे सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ करना होता है। यज्ञ करना व कराना, अध्ययन करना व कराना तथा दान देना व लेना, यह तीन कार्य ब्राह्मणों के मुख्य होते हैं। यह सभी कार्य आर्यसमाज के सभी सदस्य व अनुयायियों के किए जाने से आर्यसमाज के सभी अनुयायी कर्मणा वैदिक ब्राह्मण होते हैं।

 

मनुष्य जाति पशु-पक्षियों के समान ईश्वरकृत जाति है। इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि भेद राजा व विद्वानों द्वारा गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार किये जाते हैं। आज के समाज व आधुनिक व्यवस्था में न केवल भारत अपितु समस्त संसार में यह भेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं जो नितान्त आवश्यक भी है। महर्षि दयानन्द के अनुसार जातिसूचक शब्दों का प्रयोग पूर्णतया अवैदिक है जो सामाजिक विषमता को जन्म देता है। महर्षि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ थे। उनके समान व उनसे अधिक वेदों का ज्ञाता महाभारत काल के बाद उत्पन्न नहीं हुआ। अतः वेदों की व्यवस्था की दृष्टि से महर्षि दयानन्द की बातें, मान्यतायें एवं सिद्धान्त न केवल प्रमाणित ही हैं अपितु वह देश, समाज सहित समूचे विश्व के लिए हितकारी में भी है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वैदिक धर्म में पिता का गौरव’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय प्रदत्त ज्ञान के ग्रन्थ हैं। इन वदों का सर्वाधिक प्रमाणित भाष्य महर्षि  दयानन्द सरस्वती एवं उनके द्वारा निर्दिष्ट पद्धति द्वारा उनके ही अनुवर्ती विद्वानों का किया हुआ है जिनमें पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. जयदेव विद्यालंकार, पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी,  पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य पं. रामनाथ वेदालंकार आदि का प्रमुख स्थान है। हमारा सौभाग्य है कि हमें पं. विश्वनाथ विद्यालंकार एवं आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी सहित अनेक विद्वानों का सान्निध्य प्राप्त रहा है। महर्षि दयानन्द ने स्त्रियों सहित जन्मना व कर्मणा शूद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकार दिया था। आर्यसमाज ने गुरूकुल खोलकर इन दोनों ही वंचित वर्गों को वेदाध्ययन कराया और अनेक वेद विदुषी एवं वैदिक विद्वान बनाये परन्तु पुरूषों में तो अनेक वेद भाष्यकार हुए परन्तु स्त्रियों में से किसी ने वेदों का भाष्य नहीं किया। हमने इसके लिए श्रद्धेय विदुषी बहन डा. आचार्या सूर्यादेवी वेदालंकृता जी से प्रार्थना की थी। अभी अपनी अनेक व्यस्तताओं के कारण वह इस ओर ध्यान नहीं दे सकी हैं। भविष्य में क्या होना है कोई नहीं जानता। वेदों में ईश्वर, माता, पिता, आचार्य, विद्वान संन्यासियों के गौरव से सम्बन्धित अनेक वचन व मन्त्र आते हैं। इन्हीं से प्रेरणा पाकर हमारे ऋषियों व विद्वानों ने भी अपने ग्रन्थों में इनके गौरव को विस्तार दिया है। इस लेख में हम आचार्य ब्रह्मचारी नन्द किशोर जी की पुस्तक पितृ गौरव के आधार पर पिता के गौरव विषयक कुछ शास्त्रीय वचनों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

पिता शब्द पा रक्षणे धातु से निष्पन्न होता है। यः पाति पिता  जो रक्षा करता है, वह पिता कहलाता है। कई बार हमारे अनेक मित्र, सामाजिक बन्धु, चिकित्सक, अधिवक्ता, रक्षाकर्मी व अनेक पारिवारिक संबंधी हमारी रक्षा की भूमिका में होते हैं। इससे वह पिता अर्थात् हमारी रक्षा की भूमिका में होते हैं। अतः पिता एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है। इसे केवल रूढ़ अर्थों में ही नहीं लिया जाना चाहिये अपितु चिन्तन-मनन कर इसके अनेक प्रयोगों पर विचार किया जाना व उन अर्थों को भी ग्रहण करना चाहिये। ऋषि यास्काचार्य प्रणीत ग्रन्थ निरुक्त के सूत्र 4/21 में कहा गया है-‘‘पिता पाता वा पालयिता वा निरुक्त 6/15 में कहा है –‘‘पितागोपिता अर्थात् पालक, पोषक और रक्षक को पिता कहते हैं।

 

मनुस्मृति वेदमूलक अति प्राचीन ग्रन्थ है। इसके 2/145  सूत्र में पिता के गौरव का वर्णन मिलता है। श्लोक है-उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।। श्लोक का अर्थ है कि दस उपाध्यायों से बढ़कर आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और एक हजार पिताओं से बढ़कर माता गौरव में अधिक है, अर्थात् बड़ी है। मनुस्मृतिकार ने जहां आचार्य और माता की प्रशंसा की है, उसी प्रकार पिता का स्थान भी ऊंचा माना है। मनुस्मृति के श्लोक 2/226 में ‘‘पिता मूर्त्ति: प्रजापतेः कहकर बताया गया है कि पिता पालन करने से प्रजापति (राजा व ईश्वर) का मूर्तिरूप है।

 

महाभारत के वनपर्व में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी माता व पिता के विषय में प्रश्नोत्तर हुए हैं जिसमें इन दोनों मूर्तिमान चेतन देवों के गौरव का वर्णन है। यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करते हैं कि का स्विद् गुरुतरा भूमेः स्विदुच्चतरं खात्। किं स्विच्छीघ्रतरं वायोः किं स्विद् बहुतरं तृणात्।। अर्थात् पृथिवी से भारी क्या है? आकाश से ऊंचा क्या है? वायु से भी तीव्र चलनेवाला क्या है? और तृणों से भी असंख्य (असीम-विस्तृत) एवं अनन्त क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि माता गुरुतरा भूमेः पिता चोच्चतरं खात्। मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।। अर्थात् माता पृथिवी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है और चिन्ता तिनकों से भी अधिक विस्तृत एवं अनन्त है। महाभारत में पिता को आकाश से भी ऊंचा माना है, अर्थात् पिता के हृदयआकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अवर्णनीय है।

 

माता-पिता का अपने पुत्र के प्रति कितना प्रेम, स्नेह, मोह वा त्याग भाव होता है यह भारतीय इतिहास में माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्र श्रवण कुमार व अयोध्या नरेश राजा दशरथ के पुत्र राम के उदाहरणों से ज्ञात होता है। इन दोनों उदाहरणों में पुत्र का वियोग होने व दूर हो जाने पर दोनों पिताओं ने अपने प्राण त्याग दिये। इससे पिता के गौरव का अनुमान किया जा सकता है। महाभारत शा. 266/21 में कहा गया है कि पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवता।। अर्थात् पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

 

पद्मपुराण के 47/12-14 श्लोकों में भी पिता का गौरवगान मिलता है। ग्रन्थकार ने कहा है कि सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता। मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।।12।।  मातरं पितरं चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्त द्वीपा वसुन्धरा।।13।।  जानुनी करौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः। निपतन्ति पृथिव्यां सोऽक्षयं लभते दिवम्।।14।। इन श्लोकों का तात्पर्य है कि माता सर्वतीर्थमयी (दुःखों से छुड़ानेवाली तीर्थ) है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है, अतएव प्रयत्नपूर्वक सब प्रकार से मातापिता का आदरसत्कार करना चाहिए। जो मातापिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथिवी की परिक्रमा हो जाती है। मातापिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ, घुटने और मस्तक पृथिवी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है।

 

महाभारत के आदि पर्व के 3/37 श्लोक में तीन पिताओं का वर्णन है। श्लोक आता है कि शरीरकृत् प्राणदाता यस्य चान्नानि भुंजते। क्रमेणैते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मशासने।। इस श्लोक में बताया गया है कि जो गर्भाधान द्वारा शरीर का निर्माण करता है वह प्रथम, जो अभयदान देकर प्राणों की रक्षा करता है वह द्वितीय और जिसका अन्न भोजन किया जाता है वह तृतीय, यह तीनों पिता होते हैं।

 

पिता के गौरव से सम्बन्धित समस्त वैदिक साहित्य में अनेकानेक महत्वपूर्ण वचन भरे पड़े हैं। वेद और वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वालों को यह रत्न प्राप्त होते हैं। आज की युवा पीढ़ी वैदिक साहित्य के अध्ययन से विरत व दूर है जिससे आज अनेकों माता-पिता अपनी ही सन्तानों से सेवा व मात-पिता की पूजा के स्थान पर उनसे अवहेलना, उपेक्षा, निरादर व अनेक प्रकार से उत्पीड़न झेल रहे हैं। इस बुराई को केवल वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन व वैदिक विद्वानों की संगति व उपदेशों से ही दूर किया जा सकता है। आज की शिक्षा भी बच्चों व बड़े विद्यार्थियों को माता-पिता व आचार्य के यथार्थ गौरव को बताने में कोषों दूर है। जब तक संसार में वेद और वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि ग्रन्थों का प्रचार व आदर नहीं होगा और संसार के लोग मत-मतान्तरों की आधी-अधूरी व अनेकशः परस्पर विरोधी बातों से ऊपर नहीं उठेंगे, संसार का कल्याण होना दुष्कर है। संसार के सभी विद्वानों व शिक्षाविदों को अपने पूवाग्रहों व मत-मतान्तरों के मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठकर सभी विद्यार्थियों को वैदिक शिक्षाओं से दीक्षित करने पर विचार करना चाहिये जिससे विश्व को भविष्य में कर्तव्यपरायण, देशप्रेमी, चरित्रवान्, परोपकारी, निष्पक्ष व सत्य न्यायाचरण करने वाली युवा पीढ़ी प्राप्त हो सके।

मनमोहन कुमार आर्य

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अतुल्य भारत से असहिष्णु भारत

असहिष्णुता के ठंडे पड़ चुके मुद्दे को हवा देने के लिए “आमिर हुसैन खान” आगे आये है

इनका कहना है की देश के माहौल को देखकर मेरी पत्नी बच्चों की चिंता करते हुए देश छोड़ने की बात कहने लगी थी

मौलाना आजाद आमिर के पूर्वजों में आते है ये वही मौलाना है जिन्होंने देश के साथ गद्दारी के लिए जिन्ना जैसों का साथ दिया था

सांप हमेशा सपौले को ही जन्म देता है इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है, तो जब मौलाना इस स्तर के थे तो उनका वंश कैसा होगा यह कहने की आवश्यकता नहीं है,
आमिर हुसैन खान को इस देश में 50 सालों तक असहिष्णुता नहीं दिखी

इन्हें कश्मीरी पंडितों की हत्या हो या पाकिस्तानी हिन्दुओं की दशा, असम में हो रहे दंगे हो या केरल में हो रही हिन्दुओं की निर्मम हत्या या मुंबई बम धमाके, इन्हें तब तक देश की असहिष्णुता नहीं दिखी परन्तु जब क्रिया की प्रतिक्रिया हुई इन्हें देश असहिष्णु लगने लगा

सत्यमेव जयते में छप्पर फाड़ती T.R.P. और 300 करोड़ रुपयों की बरसात करवाती pk जैसी फिल्मों पर अफ़सोस है की प्रतिक्रिया नहीं हुई अन्यथा वास्तविक असहिष्णुता के दर्शन तो तुम्हे पहले ही हो चुके होते

भारत में रहने वाले बहुसंख्यकों का तुम मजाक उड़ाते हो, और वही बहुसंख्यक मूर्खों की तरह तुम पैसे उड़ाते है क्या यही तुम्हे असहिष्णुता लगती है ?

“मियाँ आमिर हुसैन खान” तुम अपनी यह मजाक उड़ाने वाली करतूत (ईशनिंदा) यदि किसी इस्लामिक देश में कर चुके होते तो विशवास मानिए आपकी बोटियाँ गिद्ध चबा रहे होते

अपने भाई की जायदाद हडपने के लिए जो व्यक्ति भाई को ही पागल घोषित करने पर आमादा हो जाए

जो हिन्दू लड़की को अपने झांसे में लेकर फिर उसे तलाक देकर बेसहारा छोड़ दे

जो सत्यमेव जयते में लोगों को करोड़ों रूपये लेकर शिष्टता का पाठ पढ़ाकर खुद हिन्दू बाप की संतान को मुसलमान बनाता है वो व्यक्ति यह कहे की उसे भारत असहिष्णु लगने लगा है

यह शौभा नहीं देता है

असहिष्णुता देखनी है तो जाओ किसी इस्लामिक राष्ट्र में तुम्हे उसके दर्शन करने में दो दिन भी नहीं लगेंगे
तुम भारत को असहिष्णु कहते हो उस भारत को जिसमें एक अल्पसंख्यकों का नेता बहुसंख्यकों के आदर्शों को भरी सभा में गालियाँ देता है फिर भी जिन्दा घूम रहा है

जिस भारत में एक अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों को मारने की बात करता है फिर भी खुले आम घूम रहा है उस देश को असहिष्णु कहते हो

जिस देश में सन्नी लिओने जैसी वैश्याए भी सुरक्षित है उस देश को तुम असहिष्णु कहते हो

ऐसा है मियाँ तो तुम निकल ही लो क्यूंकि हमारी सहिष्णुता अब समाप्ति के दौर से गुजर रही है यदि यह देश सही मायनों में असहिष्णु हो गया तो तुम जैसे नाचने वालों का हश्र बहुत बुरा होगा

तुम्हारी पत्नी से कहना की अभी तक तो तुम सहिष्णु माहौल में जी रही थी परन्तु अब मेने एक शो में जाकर ऐसा रोंग नम्बर घुमाया है की सही असहिष्णु माहौल तुम्हे देखने को मिलेगा

तुम्हारे उलटे दिन अब आ गये है

जिस नौटंकी के बल पर तुमने यह शौहरत कमाई है अब हम भारतीय उसे मिटटी में दबा देंगे

मेरा निवेदन

आमिर खान की आने वाली सभी फिल्मों और अभी हालिया रिलीज होने वाली फिल्म “दंगल” का बहिष्कार किया जाए
इसके द्वारा जिन वस्तुओं का विज्ञापन किया जाता है उन सभी का बहिष्कार किया जाए
क्यूंकि आर्थिक बहिष्कार ही सबसे बड़ा हथियार है

और यकीन मानिए आमिर खुद आपके इस विरोध को समर्थन देता है क्यूंकि:-

आमिर कहता है की में हर उस विरोध को समर्थन देता हूँ जो अहिंसक हो और आर्थिक बहिष्कार किसी तरह से हिंसक नहीं हो सकता

तो बंधुओं प्रण लो की इस असहिष्णु आमिर हुसैन खान का आर्थिक बहिष्कार आज से ही शुरू कर दोगे

‘महर्षि दयानन्द प्रोक्त वेद सम्मत ब्राह्मण वर्ण के गुण-कर्म-स्वभाव’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

वैदिक वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में

 

यह जड़-चेतन संसार ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर, जीवात्मायें और प्रकृति, तीन  नित्य सत्तायें हैं जिनमें ईश्वर व जीवात्मा चेतन एवं प्रकृति जड़ पदार्थ हैं। ईश्वर व जीवात्मा संवेदनाओं से युक्त व प्रकृति संवेदनारहित है। जीवात्माओं के पूर्व जन्म में अर्जित प्रारब्ध वा कर्मों के फलों एवं सुख-दुःख रुपी भोग प्रदान करने के लिए ही ईश्वर ने इस संसार को रच कर जीवात्मा को विभिन्न योनियों में उत्पन्न किया है। हमें मनुष्य योनि वा इसमें माता-पिता, भाई व बहिन सहित जो परिवेश मिला है वह सब हमारे प्रारब्ध पर आधारित है। मनुष्यों की उत्पत्ति एक प्रकार से होने के कारण संसार के सभी मनुष्यों की जाति एक है। जन्मना जाति का सिद्धान्त अनावश्यक है जिससे सामाजिक विषमता उत्पन्न हाती है, अतः इसे समाप्त किया जाना चाहिये। मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं जिसमें बहुत बड़ा कारण हमारे पूर्व जन्म का प्रारब्ध और इस जन्म के विद्यादि गुणों पर आधारित कर्म व संस्कार होते हैं। मनुष्यों के इन गुण-कर्म व स्वभाव में भिन्नता व समाज की आवश्यकता के अनुरुप उनका वर्गीकरण कर वेदानुसार चार वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान हमारे प्राचीन ऋषियों ने किया जो ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित है। इससे सम्बन्धित यजुर्वेद का मन्. 31/11 हैः

 

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रौ अजायत।।

 

इस मन्त्र का अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो, वह (ब्राह्मण) ब्राह्मण, (बाहू) बाहुर्वै बलं बाहुर्वै वीर्यम् (शतपथ ब्राह्मण) बल वीर्य का नाम बाहु है, वह जिसमें अधिक हो, सो (राजन्यः) क्षत्रिय, (ऊरू) कटि के अधो और जानु के ऊपर के भाग का नाम है। जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरू के बल से जावे, आवे, प्रवेश करे, वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीचे अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुण वाला हो, वह शूद्र है। यह वेद मन्त्र का सत्यार्थ है। इसमें कहीं नहीं कहा कि ब्राह्मण माता-पिता से ब्राह्मण, क्षत्रियों से क्षत्रिय आदि उत्पन्न होते हैं। मुख के सदृश से तात्पर्य यह है कि जैसा मुख सब अंगों में श्रेष्ठ है, वैसे पूर्ण विद्या और उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त होने से मनुष्य जाति में उत्तम ब्राह्मण कहाता है। जब परमेश्वर के निराकार होने से मुखादि अंग ही नहीं है तो मुख से उत्पन्न होना असंभव है। अतः ब्राह्मण श्रेष्ठ गुणों, कर्मों व स्वभाव को धारण कर आचरण करने से होता है, यह वेद का विधान है।

 

ब्राह्मण के लिए धारण व आचरण करने योग्य कौन-कौन से गुण कर्म व स्वभाव का वेद एवं वैदिक साहित्य में विधान है, इसका वर्णन महर्षि दयानन्द ने स्वरचित ग्रन्थ संस्कार विधि में किया है और अपने अन्य ग्रन्थों में भी इस पर प्रसंगानुसार प्रकाश डाला है। संस्कार विधि में वह वेदानुकूल मनुस्मृति व गीता के श्लोकों को उद्धृत करते हैं। यह श्लोक निम्न हैः

 

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।1।। मनुस्मृति।।

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।2।। गीता।।

 

अर्थ–एक-निष्कपट होके प्रीति से पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को पढ़ावे। दो-पूर्ण विद्या पढ़ें। तीन-अग्निहोत्रादि यज्ञ करें। चैथा-यज्ञ करावें। पांच-विद्या अथवा सुवर्ण आदि का सुपात्रों को दान देवें। छठा-न्याय से धनोपार्जन करनेवाले गृहस्थों से दान लेवें भी। इनमें से तीन कर्म-पढ़ना, यंज्ञ करना, दान देना धर्म हैं और तीन कर्म-पढ़ाना, यज्ञ कराना, दान लेना, जीविका हैं। परन्तु–प्रतिग्रहः प्रत्यवरः।। (मनुस्मृति) जो दान लेना है वह नीच (बुरा) कर्म है, किन्तु पढ़ा कर और यज्ञ करा कर जीविका करनी उत्तम है।।1।।

 

(शमः) मन को अधर्म में न जाने दें, किन्तु अधर्म करने की इच्छा भी न उठने देंवे। (दमः) श्रोत्रादि इन्द्रियों को अधर्माचरण से सदा दूर रक्खे, दूर रखके धर्म ही के बीच में प्रवृत्त रक्खे। (तपः) ब्रह्मचर्य, विद्या, योगाभ्यास की सिद्धि के लिए शीत उष्ण, निन्दा-स्तुति, श्रुधा-तृषा, मानापमान आदि द्वन्द्वों को सहना। (शौचम्)  राग-द्वेष-मोहादि से मन और आत्मा को तथा जलादि से शरीर को सदा पवित्र रखना। (क्षान्तिः) क्षमा, अर्थात् कोई निन्दा-स्तुति आदि से सतावें तो भी उन पर कृपालु रहकर क्रोधादि का न करना। (आर्जवम्) निरभिमान रहना, दम्भ, स्वात्मश्लाघा, अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा न करके नम्र सरल, शुद्ध, पवित्रभाव रखना। (ज्ञानम्) सब शास्त्रों को पढ़के, विचारकर उनके शब्दार्थ-सम्बन्धों को यथावत् जानकर पढ़ाने का पूर्ण सामर्थ्य करना। (विज्ञानम्) पृथिवी से लेके परमेश्वर-पर्यन्त पदार्थों को जान और क्रियाकुशलता तथा योगाभ्यास से साक्षात् करके यथावत् उपकार ग्रहण करना-कराना। (आस्तिक्यम्) परमेश्वर, वेद, धर्म, परलोक, परजन्म, पूर्वजन्म, कर्मफल और मुक्ति से विमुख कभी न होना। ये नव कर्म और गुण, धर्म में समझना। सबसे उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना। यह गुण-कर्म जिन व्यक्तियों में हों वे ब्राह्मण और ब्राह्मणी होवें। विवाह भी इन्हीं वर्ण के गुण-कर्म-स्वभावों को मिलाकर ही करें। मनुष्यमात्र में से इन्हीं (गुण, कर्म व स्वभावों से युक्त मनुष्यों को ही, अन्य इन गुणों से रहित मनुष्यों को नहीं) को ब्राह्मण वर्ण का अधिकार होवे।।2।। यह ध्यान देने योग्य बात है कि महर्षि दयानन्द स्वयं जन्मना उच्च कुलीन ब्राह्मण थे तथापि वेदाध्ययन कर व वेदों का सत्य तात्पर्य जानकर उन्होंने पक्षपात से मुक्त होकर ब्राह्मण वर्ण का होने व कहलाने के सत्य, यथार्थ व वास्तविक तात्पर्य को प्रस्तुत किया है। प्रत्येक बुद्धिमान यह बात स्वीकार करेगा कि जब हमारे देश व समाज में ऐसे बुद्धिमान ब्राह्मण होंगे तभी देश व समाज की उन्नति होगी अन्यथा सामाजिक समरसता व देश व समाजोन्नति की बात करना अन्धेरे में तीर चलाने जैसा निरर्थक कार्य है। इन वैदिक विचारों से जन्मना जातिवाद का भी खण्डन हो रहा है क्योंकि ब्राह्मण परिवार में सभी सन्तानें इन गुणों वाली नहीं होती हैं। जो नहीं हों, उनका वर्ण गुण-कर्म-स्वभावानुसार इतर तीन वर्णों में से किसी एक में निर्धारित किया जाना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने इससे आगे क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों के लक्षण वा गुण-कर्म-स्वभावों का भी वर्णन किया है जो श्रेष्ठ समाज का आधार है। पाठकों से निवेदन है कि वह संस्कार विधि का अध्ययन कर उन्हें वहीं देखने का कष्ट करें।

 

हम आशा करते हैं कि वैदिक व सनातन धर्म के बुद्धिमान एवं विवेकी लोग महर्षि दयानन्द के विचारों पर सद्भावना पूर्वक विचार करेंगे और इसे समाज में प्रतिष्ठा देने के अपनी ओर से हर सम्भव उपाय करेंगे जिससे भविष्य का समाज श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव सम्पन्न समाज बन सके।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘गृहस्थ जीवन की उन्नति के 16 स्वर्णिम सूत्र’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के वैदिक जीवन के चार सोपान है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास  आश्रम। ब्रह्मचर्य आश्रम का काल आरम्भ के 25 वर्षों का होता है जिसमें 8 वर्ष की आयु तक गुरूकुल में जाकर वर्णोच्चारण शिक्षा से आरम्भ कर सम्पूर्ण वेद वा सम्पूर्ण विद्याओं का अध्ययन करना होता है। अध्ययन पूरा करने पर गृहस्थ जीवन धारण करने का विधान है जो विवाह संस्कार से आरम्भ होता हे। गृहस्थ जीवन के अपने कर्तव्य हैं जिनमें पंचमहायज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये पंच महायज्ञ प्रातः व सायं वैदिक योग विधि से ईश्वरोपासना जिसमें सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय भी सम्मिलित है, प्रातः व सायं अग्निहोत्र यज्ञ का अनुष्ठान, पितृ यज्ञ जिसमें माता-पिता की सेवा श्रुशुषा कर उन्हें सन्तुष्ट व प्रसन्न करना होता है, चैथे कर्तव्य अतिथि यज्ञ में आचार्य, गुरूओं व आप्त संन्यासियों विद्वानों का सेवा सत्कार कर उन्हें प्रसन्न व सन्तुष्ट करना होता है। अन्तिम गृहस्थ का कर्तव्य पालतू पशुओं, कीट-पंतग व पक्षियों आदि के लिए होता है जिसमें अपने आहार के पदार्थों में से कुछ भाग उनके पोषण के लिए दिया जाता है। 50 से 75 वर्ष की आयु के बीच वानप्रस्थ तथा 75 वर्ष व उससे आगे संन्यास लेकर वेद व वैदिक शिक्षाओं व मान्यताओं का समाज व गृहस्थियों में प्रचार प्रसार करना होता है जिससे समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां आदि जन्म न ले सकें व यदि यह बुराईयां समाज में आ गई हों तो वह दूर हो जाएँ। गृहस्थ आश्रम अन्य तीन आश्रमों का मुख्य आधार है। यदि यह सुधर जाये तो सभी आश्रम अपनी उन्नत अवस्था में रहते हैं। इसके लिए वेद एवं वैदिक साहित्य में आवश्यक ज्ञान भरा हुआ है। उसका स्वाध्याय करने से मनुष्य अज्ञान तिमिर से दूर होकर सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में सफल हो सकता है।

 

आर्य समाज में स्वामी विद्यानन्द सरस्वती नाम से एक विद्वान संन्यासी हुए हैं जिन्होंने तत्वमसि, वेद  मीमांसा, अनादि तत्व दर्शन, मैं ब्रह्म हूं, सृष्टि विज्ञान और विकासवाद, आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता, आर्ष दृष्टि, आर्य सिद्धान्त विमर्श, अद्वैतमत-खण्डन, सत्यार्थ भास्कर, भूमिका भास्कर, संस्कार भाष्कर, स्वराज्य दर्शन आदि बड़ी संख्या में अनेक महत्वपूर्ण व विद्वतापूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन व रचना की है। उनका समस्त जीवन वेदों की शिक्षाओं पर आधारित था। वह आदर्श शिक्षक, आदर्श गृहस्थी, आदर्श विद्वान और आदर्श संन्यासी रहे और उन्होंने समाज को श्रेयस्कर मार्गदर्शन एवं नेतृत्व प्रदान किया। हमारा यह सौभाग्य था कि हमें उनके दर्शन, वार्ता एवं संक्षिप्त संगति का अवसर मिला। सत्यार्थ प्रकाश महोत्सव में उनका अभिनन्दन कर 31 लाख रूपये की धनराशि समर्पित करने के अवसर पर उनका अभिनन्दन-पत्र तैयार करने का दायित्व महोत्सव के स्वागताध्यक्ष व स्त्यार्थ प्रकाश न्यास के न्यासी यशस्वी कैप्टेन देवरत्न आर्य द्वारा हमें दिया गया था जिसे हमने सामवेदभाष्यकार श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के सहयोग से पूरा किया था। अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर वर्तमान आधुनिक समय में गृहस्थ जीवन को सफल व उन्नत करने के लिए स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने सोलह उपदेश व प्रमुख सूत्रों का संकलन किया। आज हम उनके द्वारा वैदिक ज्ञान का मन्थन कर दिये गये उपदेशों को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

1             ईश्वर को सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् जानो और अपने समस्त कर्तव्य-कर्मों को करना ईश्वर की आज्ञाएं पालन करना समझो।

2             अपने कर्तव्यपालन में भी प्रमाद और आलस्य मत करो, प्रत्येक कर्म को समझ कर सचाई के साथ करो।

3             अपनी जीवनचर्या को नियमबद्ध बनाओं जिसमें सूर्योदय से पहले उठना आवश्यक नियम हो।

4             प्रत्येक कार्य के लिए समय नियत करो और प्रत्येक कार्य को उसके नियत समय पर करो।

5             प्रत्येक वस्तु के लिए स्थान नियत करो और प्रत्येक वस्तु को नियत स्थान पर रखो।

6             सबसे मीठे वचन बोलो, प्रेम रखो, ईष्र्या और द्वेष कभी मत करो।

7             दूसरों के सुख में सुखी तथा दुःख में दुःखी होने की भावना दृढ़ करो।

8             कभी किसी दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा मत करो।

9             अपनी योग्यता का कभी अभिमान मत करो, उसको बढ़ाने का सदैव प्रयत्न करो।

10           बच्चों को विनम्र, सुयोग्य, सदाचारी और कर्मशील बनाने के लिए बचपन में ही शिक्षा देना आवश्यक है और उसके लिए अपने-आपको उदाहरण बनाना अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

11           अपने व्यय को आय से कभी अधिक मत बढ़ने दो।

12           शुद्ध, सरल, पवित्र और सादा जीवन निर्वाह करो, बनावट और दिखावट से बचे रहो।

13           स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए आहार-विहार आदि में संयम रखो और व्यायाम अथवा आसन-प्राणायाम आदि नियमपूर्वक करते रहो।

14           गुरुजनों का आदर करो।

15           दुःखों और कठिनाइयों को धीरतापूर्वक सहन करो, कभी घबराओ नहीं, सदैव प्रफुल्लित रहो।

16           अपनी और कुटुम्ब की सेवा के साथ समाज की सेवा करना भी जीवन का उद्देश्य बनाओं।

 

इन उपदेशों को लिखकर स्वामीजी ने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा है कि वह हमको ऐसी बुद्धि और शक्ति प्रदान करे कि हम इन नियमों को अपने आचरण में परिणत करके अपना जीवन सफल बनावें। हम अनुमान करते हैं कि यदि सभी मनुष्य इन सार्वदेशिक नियमों को अपना आदर्श बना लें तो इससे समाज व देश की उन्नति सहित मनुष्य जीवन उन्नत व सफल हो सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इन शिक्षाओं को अपने लिए उपयोगी पायेंगे और इससे लाभ उठायेंगे। हमारा निवेदन और सलाह है कि सभी गृहस्थियों को महर्षि दयानन्द लिखित सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ समुल्लासों सहित सप्तम् से दशम् समुल्लास भी अवश्य पढ़ने चाहियें और साथ हि संस्कार विधि में गृहस्थाश्रम प्रकरण को पढ़कर उससे गृहस्थ जीवन में सुख-शान्ति का लाभ लेना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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सघन-साधना-शिविर रोजड़ की मेरी अन्तर्यात्रा – ब्र. राजेन्द्रार्यः

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे।

सखाय इन्द्रमूतये।।

– यजुर्वेद 11/14

आर्यावर्त की पवित्र भूमि गुजरात प्रान्त ने समय-समय पर राष्ट्र को अनेकों महापुरुष प्रदान किये हैं। यथा- विश्व गुरु महर्षि दयानन्द सरस्वती, सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एवं देशभक्त श्याम जी कृष्ण वर्मा आदि। इन महापुरुषों ने राष्ट्रऋण से उऋण होने हेतु अपना सर्वस्व देश के लिए न्यौछावर कर दिया। उन्नीसवीं शतादी में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सच्चे शिव की प्राप्ति, योगायास एवं वेद विद्या के प्रचार के लिए अपने सपन्न माता-पिता का घर लगाग इक्कीस वर्ष की अवस्था में छोड़ दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गुरुवर्य विरजानन्द का ऋण बड़ी श्रद्धापूर्वक लगाग 20 वर्ष तक चुकाया। ऐसे गुरु दक्षिणा चुकाने का वर्णन हमें आी तक इतिहास में पढ़ने को नहीं मिला है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए एक युवा संन्यासी स्वामी सत्यपति परिव्राजक ने गुजराता को अपनी कर्मभूमि बनाने का निश्चय किया तथा चैत्रशुक्ला प्रतिपदा (तद्नुसार 10 अप्रैल सन् 1985) गुरुवार के दिन आर्यवन विकास फार्म ट्रस्ट, जिला साबरकांठा के सहयोग से दर्शन-योग- महाविद्यालय, रोजड़ की स्थापना की। पूज्य स्वामी सत्यपति परिव्राजक के अथक परिश्रम, तप-साधना व पुरुषार्थ से विद्यालय ने लगाग 55 युवा दर्शनाचार्य विद्वान् राष्ट्र को प्रदान किये हैं। श्रद्धेय गुरुवर्य स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक के योग शिविरों में भाग लेने के कारण हमें मान्य आचार्य श्री ज्ञानेश्वरार्यः, आचार्य आनन्द प्रकाश जी, उपाध्याय श्री ब्र. विवेक भूषण आर्य (वर्तमान-स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक), आचार्य सत्यजित् जी, स्वामी विष्वङ् जी परिव्राजक, आचार्य आशीष जी, ब्र. ईश्वरानन्द आदि से संस्कृत भाषा, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यज्ञ, ध्यान योग एवं दर्शनों की सूक्ष्म विद्या का प्रशिक्षण (संक्षिप्त) प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दर्शन योग महाविद्यालय एवं वानप्रस्थ साधक आश्रम से प्रकाशित वैदिक साहित्य हमें सस्नेह प्रेषित किया जाता है। योगनिष्ठ पूज्य स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक के सान्निध्य में श्रेय मार्ग के पथ पर आगे बढ़ने वाले आध्यात्मिक सहचारी योग जिज्ञासुओं के लिए एक तीन मास का आषाढ़ शुक्ला द्वादर्शी वैक्रावाद  2060 से आश्विन शुक्ला 2060 तक तदनुसार 11 जुलाई 2003 से 8 अक्टूबर 2003 तक त्रैमासिक उच्चस्तरीय क्रियात्मक योग प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया था। क्रियात्मक योग प्रशिक्षण शिविर का वृतान्त संकलयित एवं सपादित युवा विद्वान् ब्र. सुमेरुप्रसाद जी दर्शनाचार्य ने किया था जिसे दर्शन योग महाविद्यालय की तरफ से बृहती ब्रह्ममेधा (तीन भाग) केरूप में सन् 2012 में प्रकाशित किया गया था। जिसे मान्य मित्र शुभहितैषी श्री ब्र. दिनेश कुमार जी ने मुझे प्रेषित किया था। एन.टी.पी.सी. लिमिटेड/ सिंगरौली भारत सरकार के उद्यम में अभियन्ता पद पर कार्यरत रहने के कारण व्यस्तता अधिक होने से इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का मैं अभी तक विधिवत अध्ययन नहीं कर सका। मई 2015 में मान्य भ्राता श्री ब्र. दिनेश कुमार जी ने मुझे चलभाष द्वारा दर्शन-योग-महाविद्यालय द्वारा आयोजित उच्च स्तररीय एक वर्षीय क्रियात्मक योग प्रशिक्षण (सघन-साधना-शिविर) की सूचना दी। शिविर का लाभ प्राप्त करना मेरे लिए एक सुनहरा अवसर था। इस शिविर में भाग लेने की अनुमति हेतु 3 जुलाई 2014 को पत्र प्रषित किया। विद्यालय के सहव्यवस्थापक श्री ब्रह्मदेव जी ने मुझे सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी तथा चलभाष पर मुझसे कहा कि जब ट्रेन में दिल्ली से प्रस्थान करना हो, तब सूचित कर देना। मेरी आत्मिक उन्नति में विद्यालय परिवार के प्रत्येक सदस्य का सर्वदा सहयोग रहता है। पूज्य श्री स्वामी ध्रुवदेव जी परिव्राजक ने ऋषि मेला 2014, अजमेर में मुझसे कहा कि-‘‘क्या दर्शनों की विद्या पढ़ने की इच्छा नहीं होती है?’’ इस दृष्टि से यह सघन-साधना-शिविर का मेरा अल्पकालीन प्रवास दिनांक 17/7/2015 से 25/7/2015 तक मेरे जीवन के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। विद्यालय के सुरय प्राकृतिक एवम् आध्यात्मिक वातावरण में रहकर प्रशिक्षण काल में जो मुझे विशेष अनुभूतियाँ हुई उनमें से कुछ अन्तर्यात्रा के अनुभव प्रेरणा के लिए उद्धृत हैं-

  1. स्वाध्याय के काल में मैनें बृहती ब्रह्ममेद्या (प्रथम भाग) का स्वाध्याय करते समय मुझे ऐसा आभास होता था जैसे पूज्य गुरुवर श्री स्वामी सत्यपति जी परिव्राजक की कक्षा में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहा हूँ तथा ऋषियों के सन्देश को श्रवण कर रहा हूँ। स्वाध्याय से मेरे इस सिद्धान्त में दृढ़ता आयी कि ‘‘मानव जीवन का चरम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति ही है। ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय’ अर्थात् अन्य कोई मार्ग नहीं है।’’
  2. 2. यज्ञोपरान्त पूज्य श्री स्वामी ध्रुवदेव जी परिव्राजक से जब वेदोपदेश श्रवण करता था तब वेद स्वाध्याय, शतपथ ब्राह्मण एवं स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन की प्रेरणा मिलती थी तथा जब तक मानव अपने दुर्गुणों, दुर्व्यसनों का परित्याग नहीं करता है तब तक अयुदय एवं निःश्रेयस के पथ पर आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए मेरी दृष्टि में प्रत्येक आर्य समाज के सत्संग में ऋषि दयानन्द कृत वेदभाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, आर्याभिविनय जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थों का स्वाध्याय अनिवार्य रूप से करना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी अपने वैचारिक क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लासः में लिखा है- ‘‘आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि जैसा एक गोता लगाना बहुमूल्य मोतियों का पाना।’’
  3. 3. पूज्य आचार्य श्री ब्रह्मविदानन्द जी सरस्वती की ध्यान प्रशिक्षण, विवेक-वैराग्य प्रशिक्षण, न्याय दर्शन प्रशिक्षण एवम् आत्मनिरीक्षण कक्षाओं में जब मैं भाग लेता था तब पता चलता था कि हमारे जीवन में तो अभी अविद्या ही भरी पड़ी हुई। महर्षि पतञ्जलि के सूत्र-

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मयातिरविद्या।

(योग दर्शन 2/5) को यथार्थ रूप में समझने के लिए मेरे लिए यह शिविर अत्यन्त उपादेय रहा।

  1. 4. ध्यान प्रशिक्षण की कक्षा में मुझे ऐसा अनुभव होता था कि चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिए योगायास के किसी एक आसन (=पदमासन, सुखासन, स्वस्तिकासन) में बैठने का अयास कम से कम एक घण्टे का अवश्य रहना चाहिए। महर्षि पतञ्जलि महाराज उच्चकोटि के साधक थे इसीलिए उन्होंने ‘‘स्थिर सुखमासनम्’’ सूत्र (योग दर्शन 2/46) सत्य ही लिखा है। ऐसा निर्णय मैं निदिध्यासन काल मेंाी कर सका।
  2. 5. विवेक-वैराग्य, ध्यानादि के क्रियात्मक अयास के लिए मेरे विचार से ‘‘योगः कर्मसु कौशलम’’ में जो निष्णात योग साधक (सच्चे गुरु) हों उन्हीं से प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए तभी सच्चे योग मार्ग में सफलता मिलती है अन्यथा नहीं।
  3. 6. आत्म निरीक्षण ……….उत्कर्ष के मार्ग पर बढ़ने के लिए सर्वोत्तम साधन है। सुयोग्य विद्वान् व्यक्ति के समक्ष अपने दोष बताने से जहाँ दोषों को छोड़ने की विधि पता चलती है, वहीं पर तत्त्वज्ञान के द्वारा अनेक जन्मों के जो सूक्ष्म संस्कार= काम, क्रोध, लोा, राग, अंहकार आदि होते हैं, उन्हें हटाने में सहायता मिलती है।
  4. 7. उपासना काल में मन की सकाग्रता के लिए मुझे अनुभव हुआ कि दैनिक कार्यों को करते हुए जितना अधिक यम (=अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) तथा नियमों (=शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) अर्थात् योगायास के जो महाव्रत हैं उनका एवं मौनव्रत का पालन किया जावे उतना ही उपासना अच्छी होती है। सन्ध्योपासना के मन्त्रों एवं जप के वाक्यों के एक-एक शब्द का अर्थ जब कं ठस्थ रहता है तब आत्मा मन द्वारा बाह्यवृत्तियाँ उपासना काल में कम उठाता है।
  5. 8. योगायास का मार्ग कठ ऋषि के अनुसार- ‘क्षुरस्यधारा निशिता दुया दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति’ अर्थात् छूरे की धार पर चलने के समान अवश्य है लेकिन योग के मार्ग का जिन प्रतिभाओं ने आत्मसात किया हुआ है ऐसे योग के विशेषज्ञों से ‘‘समित्पाणि’’ की भावना के साथ तप, ब्रह्मचर्य, विद्या और श्रद्धापूर्वक योगायास करने में सफलता अवश्य मिलती है।

मेरी विद्यालय के निदेशक श्रद्धेय स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक एवम् पूज्य आचार्यों से एक करबद्ध विनती है कि इस सघन-साधना-शिविर की वेद प्रवचन ध्यानयोग प्रशिक्षण, विवेक-वैराग्य प्रशिक्षण एवम् आत्मनिरीक्षण कक्षाओं के यदि संभव हो सके तो सी.डी. तैयार करके इन्टरनेट एवं यू ट्यूृब आदि पर डाला जावे, जिससे देश-विदेश में ऋषियों के सन्देश का अधिकतम प्रचार हो सके। आज इलेक्ट्रानिक एवं प्रिन्ट मीडिया का युग है। यदि इसे नहीं अपनाया गया तो आगे आने वाले समय में दर्शनों में विद्यमान विद्यायें धीरे-धीरे भौतिक चकाचौंध के कारण विलुप्त हो जाने की संभावना है।

इस प्रकार के सघन-स्वाध्याय-शिविर कन्याओं के आर्ष गुरुक्रुलों में कम से कम त्रैमासिक या 15 दिवसीय सत्र आयोजित करेंगे तो मेरी दृष्टि में अच्छा रहेगा।

राष्ट्रभक्त, भारतीय संस्कृति के सपोषक भारत के माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के सत्प्रयास से 21 जून 2015 को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस विश्व के लगभग 192 देशों द्वारा मनाया गया। यह अलग विषय है कि इस योग दिवस मनाने का लक्ष्य ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः’’ नहीं था। योग भारत के लिए आने वाले दिनों में एक बड़ा बाजार साबित हो सकता है। आज का मानव जैसे-जैसे भौतिक उन्नति कर रहा है वैसे-वैसे तनावयुक्त जीवन के लिए मजबूर है। मेरा विश्वास है कि यदि आर्ष पद्धति के योग विज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया जावे तो मानव को जहाँ तनावमुक्त सुख शान्ति प्राप्त होगी, वहीं विश्व से आतंकवाद को समाप्त करने में सफलता मिलेगी। भारत पुनः कम से कम योग विद्या के क्षेत्र में विश्व गुरु के आसन पर तो विराजमान हो ही सकता है।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्वमानवाः

– मनुस्मृति

– आर्यसमाज, शक्ति नगर

 

हिन्दू कौन – हिन्दू की परिभाषा : डॉ. धर्मवीर

अक्टूबर मास के दिनांक 12 के दैनिक भास्कर अजमेर के संस्करण में एक समाचार छपा, जिसमें लिखा था- भारत सरकार को पता नहीं है, हिन्दू क्या होता है? एक सामाजिक कार्यकर्ता ने भारत सरकार के गृह मन्त्रालय से भारत के संविधान और कानून के सबन्ध में हिन्दू शब्द की परिभाषा पूछी। गृह मन्त्रालय के केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी ने कहा है कि इसकी उनके पास कोई जानकारी नहीं है। यह एक विडबना है कि दुनिया के सारे देशद्रोही मिलकर हिन्दू को समाप्त करने पर तुले हैं और इसमें देश में रहने वाले को पता नहीं है कि वह हिन्दू क्यों है और वह हिन्दू नहीं तो हिन्दू कौन है?

आज आप हिन्दू की परिभाषा करना चाहे तो आपके लिये असभव नहीं तो यह कार्य कठिन अवश्य है। आज किसी एक बात को किसी भी हिन्दू पर घटा नहीं सकते। हिन्दू समाज की कोई मान्यता, कोई सिद्धान्त, कोई भगवान् कुछ भी ऐसा नहीं है, सभी हिन्दुओं पर घटता हो और सभी को स्वीकार्य हो। हिन्दू समाज की मान्यतायें परस्पर इतनी विरोधी हैं कि उनको एक स्वीकार करना सभव नहीं है। ईश्वर को एक और निराकार मानने वाला भी हिन्दू है, अनेक साकार मानने वाले भी हिन्दू हैं। वेद की पूजा करने वाले हिन्दू हैं, वेद की निन्दा करने वाले भी हिन्दू। इतने कट्टर शाकाहारी हिन्दू हैं कि वे लाल मसूर या लाल टमाटर को मांस से मिलता-जुलता समझकर अपनी पाकशाला से भी दूर रखते हैं, इसके विपरीत काली पर बकरे, मुर्गे, भैसों की बलि देकर ही ईश्वर को प्रसन्न करते हैं। केवल शरीर को ही अस्तित्व समझने वाले हिन्दू हैं, दूसरे जीव को ब्रह्म का अंश मानने वाले अपने को हिन्दू कहते हैं, ऐसी परिस्थिति में आप किन शदों में हिन्दू को परिभाषित करेंगे।

आज के विधान से जहाँ अपने को सभी अल्पसंयक घोषित कराने की होड़ में लगे हैं- बौद्ध, जैन, सिक्ख, राम-कृष्ण मठ आदि अपने को हिन्दू इतर बताने लगे हैं फिर आप हिन्दू को कैसे परिभाषित करेंगे। परिभाषा करने का कोई न कोई आधार तो होना चाहिए। सावरकर जी ने जो हिन्दू आसिन्धू सिन्धु पर्यान्ता कह सिन्धु प्रदेश को अपनी पुण्यभूमि पितृभूमि स्वीकार किया है, वह हिन्दू है, ऐसा कहकर हिन्दू को व्यापक अर्थ देने का प्रयास किया है। हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो. रामसिंह जी से किसी ने प्रश्न किया- हिन्दू कौन है? तो उन्होंने कहा हिन्दू-मुस्लिम दंगों में मुसलमान जिसे अपना शत्रु मानता है वह हिन्दू है। राजनेता न्यायालयों में भी हिन्दू शब्द को परिभाषित करते हुए एक जीवन पद्धति बताकर परिभाषित करने का यत्न किया था। यह भी एक अधूरा प्रयास है। हिन्दुओं की कोई एक जीवन पद्धति ही नहीं है। हिन्दू संगठन की घोषणा करने वालों ने कहा- अनेकता में एकता हिन्दू की विशेषता। इस आधार पर आप एकता कर ही नहीं सकते। हिन्दू एकता केवल देशद्रोही संगठनों की चर्चा में होती है। यदि अनेकता में एकता बन सकती तो आज मुसलमानों से भी अधिक संगठित होना चाहिए परन्तु हिन्दू नाम एकता का आधार कभी नहीं बन सका। हिन्दू-समाज में एकता की सबसे छोटी इकाई परिवार है, जिसमें व्यक्ति अपने को सुरक्षित मानता है। हिन्दू-समाज की सबसे बड़ी इकाई उसकी जाति है। वह जाति के नाम पर आज भी संगठित होने का प्रयास करते हैं। सामाजिक हानि-लाभ के लिये बड़ी इकाई जाति है, कोई भी जाति हिन्दू-समाज का उत्तरदायित्व लेने के लिये तैयार नहीं होती परन्तु हिन्दू कहने पर वे लोग अपने को हिन्दू कहते हैं। जाति हिन्दू-समाज की एक इतनी मजबूत ईकाई है कि व्यक्ति यदि दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेता है तो भी वह अपनी जाति नहीं छोड़ना चाहता, जो लोग ईसाई या मुसलमान भी हो गये, यदि वे समूह के साथ धर्मान्तरित हुए हैं तो वहाँ भी उनकी जाति, उनके साथ जाती है। जाट हिन्दू भी है, जाट मुसलमान भी है, राजपूत हिन्दू भी है, राजपूत मुसलमान भी है। गूजर हिन्दू भी है, गूजर मुसलमान भी है। इस प्रकार आपको केवल जाति के आधार पर हिन्दू की परिभाषा करना कठिन होगा।

ऐसी परिस्थिति में हिन्दू की परिभाषा कठिन है परन्तु हिन्दू का अस्तित्व है तो परिभाषित भी होगा। हिन्दू को परिभाषित करने के हमारे पास दो आधार बड़े और महत्त्वपूर्ण हैं- एक आधार हमारा भूगोल और दूसरा आधार हमारा इतिहास है। हमारा भूगोल तो परिवर्तित होता रहा है, कभी हिन्दुओं का शासन अफगानिस्तान, ईरान तक फैला था तो आज पाकिस्तान कहे जाने वाले भूभाग को आप हिन्दू होने के कारण अपना नहीं कह सकते परन्तु हिन्दू के इतिहास में आप उसे हिन्दू से बाहर नहीं कर सकते। भारत पाकिस्तान के विभाजन का आधार ही हिन्दू और मुसलमान था। फिर हिन्दू की परिभाषा में विभाजन को आधार तो मानना ही पड़ेगा, उस दिन जिसने अपने को हिन्दू कह और भारत का नागरिक बना, उस दिन वह हिन्दू ही था, आज हो सकता है वह हिन्दू न रहा हो।

हिन्दू कोई थोड़े समय की अवधारणा नहीं है। हिन्दू शब्द से जिस देश और जाति का इतिहास लिखा गया है, उसे आज आप किसी और के नाम से पढ़ सकते हैं। इस देश में जितने बड़े विशाल भूभाग पर जिसका शासन रहा है और हजारों वर्ष के लबे काल खण्ड में जो विचार पुष्पित पल्लवित हुये। जिन विचारों को यहाँ के लोगों ने अपने जीवन में आदर्श बनाया, उनको जीया है, क्या उन्हें आप हिन्दू इतिहास से बाहर कर सकते हैं? उस परपरा को अपना मानने वाला क्या अपने को हिन्दू नहीं कहेगा। हिन्दू इतिहास के नाम पर जिनका इतिहास लिखा गया, उन्हें हिन्दू ही समझा जायेगा, वे जिनके पूर्वज हैं, वे आज अपने को उस परपरा से पृथक् कर पायेंगे? भारत की पराधीनता के समय को कौन अच्छा कहेगा। यह देश सात सौ वर्ष मुसलमानों के अधीन रहा, जो इस परिस्थिति को दुःख का कारण समझता है, वह हिन्दू है। यदि कोई व्यक्ति इस देश में औरंगजेब के शासन काल पर गर्व करे तो समझा जा सकता है वह हिन्दू नहीं है। इतिहास में शिवाजी, राणाप्रताप, गुरु गोविन्दसिंह जिससे लड़े वे हिन्दू नहीं थे और जिनके लिये लड़े थे वे हिन्दू हैं, क्या इसमें किसी को सन्देह हो सकता है?

देश-विदेश के जिन इतिहासकारों ने जिस देश का व जाति का इतिहास लिखा, उन्होंने उसे हिन्दू ही कहा था। यही हिन्दू की पहचान और परिभाषा है। आजकल के विद्वान् जिसको परम प्रमाण मानते हैं, ऐसे मैक्समूलर ने भारत के विषय में इस प्रकार अपने विचार प्रकट किये हैं- ‘‘मानव मस्तिष्क के इतिहास का अध्ययन करते समय हमारे स्वयं के वास्तविक अध्ययन में भारत का स्थान विश्व के अन्य देशों की तुलना में अद्वितीय है। अपने विशेष अध्ययन के लिये मानव मन के किसी भी क्षेत्र का चयन करें, चाहे व भाषा हो, धर्म हो, पौराणिक गाथायें या दर्शनशास्त्र, चाहे विधि या प्रथायें हों, या प्रारभिक कला या विज्ञान हो, प्रत्येक दशा में आपको भारत जाना पड़ेगा, चाहे आप इसे पसन्द करें या नहीं, क्योंकि मानव इतिहास के मूल्यवान् एवं ज्ञानवान् तथ्यों का कोष आपको भारत और केवल भारत में ही मिलेगा।’’

दिसबर 1861 के द कलकत्ता रिव्यू का लेख भी पठनीय है- आज अपमानित तथा अप्रतिष्ठित किये जाने पर भी हमें इसमें कोई सन्देह नहीं है कि एक समय था जब हिन्दू जाति, कला एवं शास्त्रों के क्षेत्र में निष्णात, राज्य व्यवस्था में कल्याणकारी, विधि निर्माण में कुशल एवं उत्कृष्ठ ज्ञान से भरपूर थी।

पाश्चात्य लेखक मि. पियरे लोती ने भारत के प्रति अपने विचार इन शदों में प्रकट किये हैं- ‘‘ऐ भारत! अब मैं तुहें आदर समान के साथ प्रणाम करता हूँ। मैं उस प्राचीन भारत को प्रणाम करता हूँ, जिसका मैं विशेषज्ञ हूँ। मैं उस भारत का प्रशंसक हूँ, जिसे कला और दर्शन के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। ईश्वर करे तेरे उद्बोधन से प्रतिदिन ह्रासोन्मुख, पतित एवं क्षीणता को प्राप्त होता हुआ तथा राष्ट्रों, देवताओं एवं आत्माओं का हत्यारा पश्चिम आश्चर्य-चकित हो जाये। वह आज भी तेरे आदिम-कालीन महान् व्यक्तियों के सामने नतमस्तक है।’’

अक्टूबर 1872 के द एडिनबर्ग रिव्यू में लिखा है- हिन्दू एक बहुत प्राचीन राष्ट्र है, जिसके मूल्यवान् अवशेष आज भी उपलध हैं। अन्य कोई भी राष्ट्र आज भी सुरुचि और सयता में इससे बढ़कर नहीं है, यद्यपि यह सुरुचि की पराकाष्ठा पर उस काल में पहुँच चुका था, जब वर्तमान सय कहलाने वाले राष्ट्रों में सयता का उदय भी नहीं हुआ था, जितना अधिक हमारी विस्तृत साहित्यिक खोंजें इस क्षेत्र में प्रविष्ट होती हैं, उतने ही अधिक विस्मयकारी एवं विस्तृत आयाम हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं।

पाश्चात्य लेखिका श्रीमती मैनिकग ने इस प्रकार लिखा है- ‘‘हिन्दुओं के पास मस्तिष्क का इतना यापक विस्तार था, जितनी किसी भी मानव में कल्पना की जा सकती है।’’

ये पंक्तियाँ ऐसे ही नहीं लिखी गई हैं। इन लेखकों ने भारत की प्रतिभा को अलग-अलग क्षेत्रों में देखा और अनुभव किया। भारतीय विधि और नियमों को मनुस्मृति आदि स्मृति ग्रन्थों में। प्रशासन की योग्यता एवं मानव मनोविज्ञान का कौटिल्य अर्थशास्त्र जैसे प्रौढ़ ग्रन्थों में देखने को मिलता है। यह ज्ञान-विज्ञान हजारों वर्षों से भारत में प्रचलित है। इतिहासकार काउण्ट जोर्न्स्ट जेरना ने भारत राष्ट्र प्राचीनता पर विचार करते हुए लिखा है- ‘‘विश्व का कोई भी राष्ट्र सयता एवं धर्म की प्राचीनता की दृष्टि से भारत का सामना नहीं कर सकता।’’

भारतीय इतिहास में, तुलामान, दूरी का मान, काल मान की विधियों को देखकर विद्वान् उनको देखकर दांतों तले उंगली दबा लेता है। आप सृष्टि की काल गणना से असहमत हो सकते हैं परन्तु भारतीय समाज में पढ़े जाने वाले संकल्प की काल गणना की विधि की वैज्ञानिकता से चकित हुए बिना नहीं रह सकते।

महाभारत, रामायण जैसे ऐतिहासिक ग्रन्थ पुराणों की कथाओं के माध्यम से इतिहास की परपरा का होना। हिन्दू समाज के गौरव के साक्षी हैं। मनु के द्वारा स्थापित वर्ण-व्यवस्था और दण्ड-विधान श्रेष्ठता में आज भी सर्वोपरि हैं। संस्कृति की उत्तमता में वैदिक संस्कृति की तुलना नहीं का जा सकती। यहा का प्रभाव संसार के अनेक देशों द्वीप-द्वीपान्तरों में आज भी देखने को मिलता है। यहाँ के दर्शन, विज्ञान, कला, साहित्य, धर्म, इतिहास, समाजशास्त्र ऐसा कौनसा क्षेत्र है, जिस पर हजारों वर्षों का गौरवपूर्ण चिन्तन करना अंकित है। ये विचार जिस देश के हैं, उसे हिन्दू राष्ट्र कहते हैं और इन विचारों को जो अपनी धरोहर समझता है, वही तो हिन्दू है। कोई मनुष्य लंगड़ा, लूला, अन्धा होने पर व्यक्ति नहीं रहता, ऐसा तो नहीं है। नाम भी बदल ले तो दूसरा नाम भी तो उसी व्यक्ति का होगा। वह वैदिक था, आर्य था, पौराणिक हो गया, बाद में हिन्दू बन गया, सारा इतिहास तो उसी व्यक्ति का है। जिसे केवल अपने विचार, कला, कृतित्व पर ही गर्व नहीं, उसे अपने चरित्र पर भी उतना ही गर्व है। तभी तो वह कह सकता है, यह विचार उन्ही हिन्दुओं का है जो इस श्लोक को पढ़ कर गर्व अनुभव करते हैं, यही इसकी परिभाषा है-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

– धर्मवीर

‘गोवर्धन पूजा गो के उपकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व है’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

आज गोवर्धन का पर्व है। गोवर्धन का अर्थ है कि गायों की रक्षा व उनकी संवृद्धि करें। गाय की संवृद्धि गोरक्षा और गोसंवर्धन के अनेक कार्यों को करके ही हो सकती है। गोरक्षा की प्रथम आवश्यकता है कि गो के  प्रति कोई किसी प्रकार का अपराध व उसका असम्मान न करे। यदि अज्ञानतावश करता हो तो उसे गाय के महत्व को समझाना गोरक्षकों व गोभक्तों का कर्तव्य है। जिस प्रकार की स्थिति देश में गोरक्षा की है उसके लिए एक सीमा तक गो को माता मानने वाले गोरक्षक भी उत्तरदायी हैं। केवल गोरक्षक होना ही पर्याप्त नहीं है। गोरक्षकों का आज की परिस्थितियों में एक राष्ट्र स्तरीय प्रभावशाली संगठन होना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने गोकरूणानिधि लिख कर इसकी आधारशिला रखी थी और एक ‘‘गोकृषिरक्षिणी सभा के गठन के लिए नियम, उपनियम व इसके संविधान को भी तैयार किया था। उनके असामयिक निधन के कारण उनके अनुयायियों का ध्यान इस ओर नहीं जा सका क्योंकि उन्हें अनेक मोर्चों पर काम करना था। देश में विस्तृत अज्ञानता से लड़ना था जिसके लिए उन्होंने गुरूकुल व दयानन्द ऐग्लो वैदिक कालेज अर्थात् डी.ए.वी स्कूलों का सारे देश में एक जाल बिछाया जिसने देश से अज्ञानता वा असाक्षरता दूर करने में बहुत योगदान किया। इसके साथ ही विधर्मियों के जो आक्रमण वैदिक सनातन धर्म के लोगों पर होते थे, उनसे रक्षा करने के लिए भी आर्यसमाज को देश भर में स्थापित कर इनके द्वारा वेद वा वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार करना था जिससे कि लोभ, लालच, छल व कपट तथा आर्थिक प्रलोभन से देशवासियों का धर्मान्तरण न हो जो कि सदियों से देश में चल रहा था और आज भी अनेक प्रकार से गुपचुप रूप से होता है। अनाथ बच्चों की रक्षा का भी प्रश्न था और इसके साथ वैदिक धर्म को संसार का सर्वाधिक बौद्धिक आधार पर स्थापित सत्य वैज्ञानिक धर्म भी सिद्ध करना था जिसमें आर्यसमाज व इसके विद्वानों को पूर्ण सफलता मिली है। स्त्रियों व दलित को उनके उचित अधिकार दिलाने व जन्मना जातिवाद को दूर करने एवं उसके प्रभाव को कम करने में भी आर्यसमाज ने महत्वपूर्ण योगदान किया है।

 

गाय संसार में मनुष्य के लिए सर्वाधिक हितकारी पशु है। गाय का दूध व इससे बने पदार्थ दही, छाछ, मक्खन, क्रीम, मलाई, घृत, पंचगव्य आदि अमृत के समान हैं। इन पदार्थों का अन्य खाद्य पदार्थों से कोई मुकाबला नहीं है अर्थात् वह इनकी तुलना में हेय व गोदुग्धादि मुख्य हैं। इनसे मनुष्य को आरोग्य, स्वास्थ्य और बल मिलता है। गाय का गोमूत्र व गोबर भी मनुष्यों के लिए वरदान है। यह भी आरोग्यकारक व स्वास्थ्य सहित दीर्घ जीवन का आधार है। गोबर से बनी खाद आज भी सर्वोत्तम है। इसका प्रयोग करने से भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है। अन्न भी उत्तम किस्म का उत्पन्न होता है। इससे गोसंवर्धन को बढ़ावा मिलता है। गाय से प्राप्त होने वाले बछड़े बड़े होकर बैल बनते हैं, वह सृष्टि के आरम्भ से ही हमारे ट्रैक्टरों आदि का विकल्प बने हुए हैं। ट्रैक्टरों के लिए चैड़ी सड़के, पूंजी व नौकर चाहिये तथा इनके होने पर भी वायु प्रदूषण से किसान व मनुष्यों को हानि उठानी पड़ती है। वहीं दूसरी ओर बैल के लिए हमें गांवों में व सर्वत्र उपलब्ध घास व खेतों में उत्पन्न भूसा आदि के द्वारा ही काम चल जाता है। उनको खेतों तक ले जाने के लिए किसी चैड़ी सड़क की भी आवश्यकता नहीं होती। बैलों से खेतों की जुताई करते हुए जो गोबर व मूत्र खेत में गिरता है, वह उत्तम कोटि की खाद का काम करता है। गाय के दुग्ध से प्राप्त होने वाला घी यज्ञ का मुख्य द्रव्य होता है जिससे वायुमण्डल सहित समस्त पर्यावरण शुद्ध होने से शुद्ध अन्न की प्राप्ति, रोग निवारण व स्वास्थ्य लाभ सहित धर्म लाभ भी होता है जिससे मनुष्य का वर्तमान व भविष्य अर्थात पुनर्जन्म सुधरता व लाभान्वित होता है। इस प्रकार से गो मनुष्यों का सर्वोंत्तम हितकारी प्राणी व पशु है। इतने उपकार करने के बाद गो व बैल आदि सभी प्राणी अहन्तव्य वा अवध्य निश्चित होते व सिद्ध होते हैं। परन्तु गोमांस-भक्षक इन प्रश्नों पर बिना विचार किये आंखे व बुद्धि के दरवाजे बन्द कर गोमांस का सेवन करते हैं जो पूरी तरह से अमानवीय व अप्राकृतिक कर्म होने से अधर्म है। महर्षि दयानन्द ने एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न गोमांस भक्षकों से किया है कि जब संसार में सभी गाय आदि पशु समाप्त हो जायेंगे तो तब क्या वह मनुष्यों का वध कर उनके मांस का सेवन करेंगे? यदि वर्तमान की तरह से गोवध व गोमांसाहार जारी रहा और यदि, ईश्वर न करे, सभी गोमांस का सेवन करने लगें तो यह स्थिति शीघ्र आ सकती है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में ऐसा कभी नहीं होगा और आज के गोमांसाहारी बन्धु भी ज्ञान व विवेक प्राप्त कर गोमांसाहार का अवश्य ही त्याग कर देंगे।

 

महर्षि दयानन्द ने अर्थ शास्त्र के आधार पर गणना कर लिखा है कि एक गाय की एक पीढ़ी से लगभग 4 लाख 18 हजार मनुष्यों का एक समय का भोजन सिद्ध होता है जबकि एक गाय को मारकर खाने से मात्र 80 लोगों की एक समय की क्षुधा निवृति होती है। यह सिद्ध करता है कि गोमांस के सेवन से विश्व का अहित व अन्य लोगों के अन्न, भोजन व स्वास्थ्य की हानि होती है। अतः कोई भी बुद्धिमान मनुष्य गोमांस का सेवन कदापि नहीं कर सकता। इसका प्रचलन अज्ञान के आधार पर हुआ है और अज्ञान के कारण ही यह जारी है। जब किसी मनुष्य को सभी पक्षों का ज्ञान हो जाता है तो वह इसका सेवन करना छोड़ देता है। आज कल के वैज्ञानिक व चिकित्सक भी अनेक रोगों में गोमांस व अन्य पशुओं के मांस का भक्षण करने वालों को मांसाहार न करने की सलाह देते हैं। इसके विपरीत गोमाता का दूध व इससे बने पदार्थों के सेवन से किसी भी रोग में अपवाद स्वरूप कोई हानि नहीं होती। वेदों का अध्ययन करने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि वेदों में कहीं भी गोहत्या व गोमांस सेवन का विधान नहीं है। भारतीय सनातन वैदिक धर्म में वेदों को ही धर्म ग्रन्थ की संज्ञा प्राप्त है। अतः वैदिक काल जो महाभारत काल तक रहा, इसमें किसी भी व्यक्ति द्वारा गोहत्या करने वा गोमांसाहार करने का प्रश्न ही नहीं है। महाभारत काल के बाद महर्षि दयानन्द जी वेदों के महान विद्वान व व्याख्याकार हुए हैं। वह ज्ञान व विज्ञान के भी जानकार एवं उत्कृष्ट विद्वान थे। उनका मानना था कि गोहत्या व गोमांसाहार महापाप है। इसका अर्थ यह है कि गोमांसाहार करने वालों को मृत्यु के बाद अपने इस महापाप का महादुःख रूपी फल ईश्वर की व्यवस्था से भोगना पड़ेगा।

 

आज गोवर्धन पूजा का महान पर्व है। आज के दिन जहां हमें इस पर्व को धार्मिक भावना से मनाना है वहीं हमें गो के उपकारों को स्मरण कर इनकी रक्षा व संवृद्धि करने का संकल्प लेने की भी आवश्यकता है। इसके लिए आज के दिन सभी मन्दिरों व घरों में महर्षि दयानन्द लिखित गोकरूणानिधि पुस्तक का आंशिक व पूर्ण पाठ भी करना चाहिये। यह पाठ करते समय इसके एक-एक शब्द पर मनन होना चाहिये और विवेक से अपने कर्तव्य का निर्धारण करना चाहिये। हमें यह भी उचित लगता है आर्यसमाज व हिन्दुओं के मन्दिरों में दीवारों आदि पर गोरक्षा के लाभों व मनुष्य के गाय के प्रति कर्तव्यों के सूचक वाक्य लिखकर लोगों में जागृति उत्पन्न करनी चाहिये। गोरक्षा के लिए एक पृथक राष्ट्रीय स्तर का संगठन भी बनना चाहिये जो तर्क, बुद्धि, विज्ञान के द्वारा गोहत्या को रोकने का प्रभावी कार्य करे। ऐसा होने पर ही देश में यथार्थ गोपूजा हो सकती है और गोवर्धन पूजा पर्व मनाना सार्थक हो सकता है।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘गाय के प्रति माता की भावना रखना और उसकी रक्षा करना मनुष्य का धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

जब हम संसार की उत्पत्ति, मनुष्य जीवन और प्राणी जगत पर विचार करते हैं तो हम जहां संसार के रचयिता सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति नतमस्तक होते हैं वहीं मनुष्य जीवन के सुखपूर्वक संचालन के लिए गाय को मनुष्यों के एक वरदान एवं सर्वोपरि हितकारी व उपयोगी पाते हैं। यदि ईश्वर ने संसार में गाय को उत्पन्न न किया होता तो यह संसार आगे चल ही नहीं सकता था। संसार के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए थे, उनका भोजन या तो वृक्षों से प्राप्त होने वाले फल थे अथवा गोदुग्ध ही था। इन दोनों पदार्थों का भक्षण कर क्षुधा की निवृत्ति करने की प्रेरणा भी परमात्मा द्वारा ही आदि सृष्टि के मनुष्यों को की गई होगी, ऐसा हमारा अनुमान है। यदि गोदुग्ध, जो कि मनुष्य के लिए सम्पूर्ण आहार है, न होता तो फलाहार कर मनुष्य का आंशिक पोषण ही हो पाता। हम यह जानते हैं कि सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात मनुष्यों की जो अमैथुनी सृष्टि ईश्वर ने की थी, उसमें उसने मनुष्यों को युवावस्था में उत्पन्न किया था। हम यह भी अनुमान करते हैं कि ईश्वर ने इन मनुष्यों को स्वाभाविक ज्ञान के साथ क्षुधा की निवृत्ति हेतु भोजन व पिपासा के शमन हेतु जल का पान करने का ज्ञान भी इन सभी मनुष्यों को दिया था। शतपथ ब्राह्मण के लिखित प्रमाण के अनुसार परमात्मा ने ही आदि मनुष्यों में से चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था। इस ज्ञान से सम्पन्न होने पर इन ऋषियों ने सभी मनुष्यों को एकत्रित कर उन्हें भाषा व बोली तथा कर्तव्य वा अकर्तव्यों का ज्ञान कराया। यह इन ऋषियों का कर्तव्य भी था और अन्य मनुष्यों की प्रमुख आवश्यकता भी। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य जीवन का आरम्भ हुआ।

 

गाय का हमारे वर्तमान जीवन में क्या महत्व और उपयेागिता है? इसका उत्तर है कि गाय एक पालतू पशु होने से हमारे परिवार का सदस्य बन जाता है। गाय को हम भोजन में घास आदि वनस्पतियों का चारा और जल का ही सेवन व पान कराते हैं जो हमें प्रकृति में सर्वत्र ईश्वर द्वारा निर्मित होकर सरलता से उपलब्ध होता है। हमें इसके लिए केवल परिश्रम करना होता है। इसके प्रत्युत्तर में गाय प्रातः व सायं दो बार हमें अमृततुल्य दुग्ध देती है। बीच में आवश्यकता पड़ने पर भी दुग्ध निकाला जा सकता है। गोदुग्ध पूर्ण आहार है और माता के बाद गोदुग्ध का स्थान अन्य प्राणियों की तुलना में दूसरे स्थान पर होता है। दुग्ध से दही, मक्खन, क्रीम, घृत, छाछ, पनीर, मावा आदि अनेक पदार्थ बनते हैं जिनसे भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक स्वादों से युक्त आहार व भोजन के अनेक व्यंजन तैयार होते हैं जो सभी स्वास्थ्यवर्धक भी होते हैं। आयुर्वेद ने घृत को आयु का आधार बताया गया है जो कि वस्तुतः है। गोघृत स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ आयुवर्धक व रोग कृमिनाशक भी होता है। मनुष्य को ईश्वर का धन्यवाद करने व पर्यावरण को शुद्ध व पवित्र रखने के श्रेष्ठतम कर्मयज्ञ को करने के लिए मुख्य अवयव गोघृत की ही आवश्यकता होती है। यज्ञ से हमें इहलोक एवं परलोक दोनों में लाभ होता है तथा हमारा अगला जीवन भी बनता सुधरता है। यज्ञ करना वेदानुसार ईश्वराज्ञा है जो संसार के सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से पालनीय है। इसका पालन करने वाले ईश्वर से पुरस्कार के अधिकारी बनते हैं और पालन न करने वाले ईश्वर की आज्ञा भंग करने से दोषी व दण्डनीय। इस यज्ञ को करने के लिए भी गोपालन द्वारा गोदुग्ध की प्राप्ति आवश्यक है।

 

गाय से हमें बच्चों के रूप में बछिया और बछड़े मिलते हैं। बछियां कुछ समय बाद पुनः गाय बनकर हमारे लिए गोदुग्ध द्वारा उपयोगी बन जाती हैं और बछड़े कुछ ही महीनों में बड़े होकर हमारी खेती के काम आते हैं। प्राचीन काल में यदि बछड़े न होते तो खेती न हो पाती और हमारे पूर्वजों को पर्याप्त अन्न न मिलने से उनका जीवन निर्वाह कठिन होता जिससे उनके बाद की पीढि़यों अर्थात् हमारा अस्तित्व होता, या न होता कह नहीं सकते। अतः हमारे आज के अस्तित्व में गोमाता व उसके बछड़ों का सृष्टि के आदि काल से ही महत्व रहा है। गाय हमारी जीवन रेखा व प्राणदायिनी रही है। गाय के बछड़ों के द्वारा खेती करने से जो लाभ हैं, वह ट्रैक्टर आदि से नहीं होते। ट्रैक्टर पर भारी भरकम धन व्यय करने के साथ उसके रखरखाव व डीजल आदि पर नियमित व्यय करना होता है और साथ ही हम अपने वायुमण्डल को प्रदूषित कर श्वांस में प्रदूषित वायु लेते हैं जिससे अनेक रोगों से ग्रस्त होकर क्षीणकाय बनते और अल्पायु में मृत्यु का ग्रास बनते हैं। बैलों द्वारा खेती करने से हमारा बहुत धन बचने के साथ पर्यावरण सुरक्षा का लाभ मिलता है। हम बैलों की हत्या के महापाप से भी बचते हैं, वायुमण्डल शुद्ध रहता है और साथ हि बैल जो पुरीश-मल व मूत्र खेतों में विसर्जित करते हैं वह बहुमूल्य खाद का काम करता है। इससे भूमि की उर्वरा सकती बढ़ती है वा सुरक्षित रहती है। यह भी तथ्य है कि ट्रैक्टर के लिए खेतों तक जाने के लिए चैड़ी सड़क की आवश्यकता होती है जबकि बैलों के लिए किसी प्रकार की सड़कों की आवश्यकता नहीं होती। इससे सड़क की भूमि का उपयेाग भी कृषि में सम्मिलित होकर अन्न के उत्पादन में वृद्धि होती है। बैल एक चेतन प्राणी है, उससे खेती करने से एक प्राणी को जीवन देने व उसकी रक्षा व सेवा करने से किसान को जो पुण्य होता है वह ट्रैक्टर आदि किसी भी जड़ पदार्थ से सेवा करने से नहीं होता।

 

गाय का गोबर व गोमूत्र न केवल बहुमूल्य खाद व कीटनाशक का काम करता है अपितु भूमि की उर्वरा शक्ति को सुरक्षित रखते हुए उसमें वृद्धि भी करता है। गाय का गोबर व गोमूत्र पंचगव्य नामक ओषधि बनाने के काम आता है, जो गोरक्षा व गोहत्या को समाप्त किये बिना सम्भव नहीं है। गाय के घृत से एक ऐसी भी ओषधि तैयार होती है जिससे बांझ स्त्रियों को सन्तान लाभ होता है। गोघृ्त से महात्रिफलाघृत भी बनाया जाता है जो नेत्रों की अनेक रोगों से चिकित्सा में काम आता है। इन ओषधियों का विकल्प न तो एलोपैथी में है और न अन्य किसी पैथी में। गोदुग्ध के अनेक ओषधीय गुणों में आंखों व शरीर के सभी अंगों को लाभ सहित क्षय रोग व कैंसर जैसे जान लेवा रोग में भी अनेक प्रकार से लाभ होता है। गोमूत्र तो कैंसर के उपचार में प्रयोग में लाया जाता है जिससे अनेक रोगियों को प्रत्यक्ष लाभ देखा गया है। आज ऐलोपैथी की महंगी दवायें व अनेक प्रकार की कष्टकारी चिकित्सा होने पर भी रोगी स्वस्थ नहीं हो पाते वहीं गोमूत्र का सेवन बिना मूल्य की रोगियों में जीवन की आशा जगाने वाली सच्ची व यथार्थ ओषधि है और निर्धनों के लिए ईश्वर का वरदान है। गाय का गोबर जहां खाद का काम करता है वहीं यह गांवों में चूल्हे व चैके में भी प्रयोग में लाया जाता है। गाय के गोबर के उपले ईधन का काम करते हैं वहीं कच्चे घरों, झोपडि़यों व कुटियाओं में गोबर का भूमि व फर्श पर लेपन करने से वह स्वच्छ व किटाणु रहित हो जाता है। एक वैज्ञानिक रिसर्च में यह तथ्य सामने आया है कि गाय के गोबर से लीपी गई दीवारों के अन्दर रेडियोधर्मिता प्रवेश नहीं करती जिससे उसमें अध्यासित लोगों की आणविक विकिरण से रक्षा होती है। गोघृत को जलाने से वायुमण्डल पर इसका चमत्कारी प्रभाव पड़ता है। भोपाल काण्ड में गोघृत से यज्ञ करने वाले एक गृहस्थी, उसके परिवार व पालतू पशुओं की इस गोघृत के यज्ञ ने ही रक्षा की थी जबकि सहस्रों की संख्या में अन्य लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठे थे। इसके साथ गाय का घी सर्पविष की चिकित्सा में भी एक महत्वपूर्ण ओषधि है। यदि सर्पदंश से ग्रसित मनुष्य को गोघृत का सेवन व पान कराया जाये तो विष का शरीर पर प्रभाव समाप्त हो जाता है। भारत का प्राचीन मोहनभोग स्वादिष्ट आहार गोदुग्ध से ही बनाया जाता था। गोदुग्ध से मिट्टी की हाण्डी में बनी खीर का अपना ही स्वाद व स्वास्थ्यवर्धक गुण होता है जो कि शहरों के लोगों की पहुंच से बहुत दूर हो गया है। गाय के इन सभी गुणों, महत्व, लाभों व उपयोगिताओं के कारण ही हमारे आस्तिक विचारों वाले पूर्वज गो को अवध्य, गोहत्या को महापाप, अमानवीय, गो मांसाहार को त्याज्य व निन्दनीय मानते आये हैं जो कि पूर्णतया उचित ही है। वेद गोहत्यारे को सीसे की गोलियों से बींधने का आदेश देता है।

 

गाय का देश की अर्थव्यवस्था में भी प्रमुख योगदान है। गोदुग्ध एक मधुर स्वास्थ्यवर्धक पेय होने के साथ गोदुग्ध से बने अन्य सभी पदार्थ अन्न का एक सीमा तक विकल्प भी है। गाय के बछडों से की जाने वाली खेती से जो अन्न उत्पादन होता है वह भी यदि आर्थिक दृष्टि से गणना की जाये तो देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा अंश होता है। महर्षि दयानन्द ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गोकरुणानिधि में एक गाय की एक पीढ़ी से होने वाले दुग्ध और उसके बैलों से मिलने वाले अन्न की एक कुशल अर्थशास्त्री की भांति गणना की है और बताया है कि गाय की एक पीढ़ी से दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। मांस से उनके अनुमान के अनुसार केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। वह लिखते हैं कि ‘‘देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मारकर असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’ गो के दुग्ध, इससे निर्मित अन्य पदार्थों व गोबर सहित गोमूत्र के ओषधीय लाभों को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे गोरक्षा के आर्थिक लाभ का अनुमान लगाया जा सकता है जो कि किसी अर्थशास्त्री की आशाओं से कहीं अधिक होता है। गोहत्या को बन्द करने के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने समय में अपने प्रकार का एक अपूर्व आन्दोलन चलाया था। उन्होंने गोहत्या रोकने के मुद्दे पर 2 करोड़ भारतीयों के हस्ताक्षर कराकर इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरियां को प्रेषित करने की यायेजना बनाई थी जिस पर तीव्रता से कार्य चल रहा था और नित नई सफलातायें मिल रहीं थी। महारानी विक्टोरिया को भेजी जाने वाली गोहत्या को रोकने की मांग के इस ज्ञापन में गोरक्षा से लाभ व गोहत्या से हानि तथा मानवीय पहलुओं का उल्लेख कर कहा गया था कि इसलिए हम सब लोग प्रजा की हितैषिणी श्रीमतिराजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया की न्यायप्रणाली में जो यह अन्याय रुप बड़े बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या होती है, उसको इनके राज्य में से छुड़वाके अति प्रसन्न होना चाहते हैं। यह हम को पूरा विश्वास है कि विद्या, धर्म, प्रजाहित प्रिय श्रीमती राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया पार्लियामेन्ट सभा तथा सर्वोपरि प्रधान आर्यावर्तस्थ श्रीमान् गवर्नर जनरल साहब बहादुर सम्प्रति इस बड़ी हानिकारक गाय, बैल तथा भैंस की हत्या को उत्साह तथा प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र बन्द करके हम सब को परम आनन्दित करें।

 

संसार के सभी प्राणियों में केवल गोमाता का गोबर ही रोगाणुनाशक होता है। इस बारे में कहा जाता है कि चैरासी लाख योनियों के प्राणियों में गाय ही एक ऐसा प्राणी है जिसका पुरीष (गोबर) मल नहीं है, उत्कृष्ट कोटि का मलशोधक है, रोगाणु एवं विषाणुनाशक है तथा जीवाणुओं का पोषक है। इतना होने पर भी हम अनुभव करते हैं कि हमारे अंग्रेजी व अन्य शिक्षा पद्धतियों से पढ़े हुए वैदिक संस्कारविहीन लोगों को यह बातें समझ में नहीं आयेंगी क्योंकि उनका जैसी देश वैसा भेस, जैसी शिक्षा वैसी सोच के अनुसार विचारान्तरण हो चुका है। उनका यह कार्य स्वयं उनके लिए ही आत्मघाती है। इसका फल अवश्य उन्हें भोगना ही होगा। ईश्वर का कर्मफल सिद्धांत सारे संसार पर लागू है। सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करना धर्म है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12”

इस्लाम, नारी और महिला विकास का अवरोधक बुरका

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”

सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पुस्तक में सतीशचंद गुप्ता जी एक अध्याय प्रस्तुत करते हैं “क्या पर्दा नारी के हित में नहीं है ?” अपनी परदे वाली थियोरी को जायज़ (वैध) सिद्ध करने के चक्कर में लेखक इतने मशगूल हुए की बिना सिद्धांतो के ही कुतर्क और मिथ्याभाषण करते हुए, वर्तमान युग में भारतीय नारी का उद्धार करने वाले ऋषि दयानंद को इस्लाम और मुसलमानो का कटुआलोचकर बना दिया। क्या ये समाज को सच्चाई दिखाने की जगह खुद ही सच्चाई पर पर्दा डालने वाली बात न हुई ? लेखक को चाहिए था की नारी की मनोस्थति को समझते हुए उसकी भावनाओ का सम्मान करते, मगर इस्लामी धारणा से ओतप्रोत हुए लेखक ने सच को नकारते हुए, विशुद्ध रूप से मजहबी कट्टरता का परिचय देकर सम्पूर्ण नारी जाती का अपमान कर दिया। क्या ये आक्षेपकर्ता का मानसिक दिवालियापन नहीं है ?

देखिये, पर्दा प्रथा न तो भारतीय संस्कार हैं, न ही ये शब्द ही भारतीय हिंदी भाषा से सम्बंधित है, “पर्दा” शब्द स्वयं विदेशी है जो फ़ारसी भाषा से है, संपादक “डॉ सैयद असद अली” प्रकाशक राजपाल इन संस, दिल्ली से प्रकाशित “व्यवहारिक उर्दू हिंदी शब्दकोष” पृष्ठ संख्या १८८ में शब्द “पसेपर्दा” आता है, जो “फ़ारसी पुल्लिंग” शब्द है। जिसका अर्थ है आड़ में। तो ये बात तो क्लियर है की पर्दा शब्द खुद में ही विदेशी शब्द है, तो इसका मूल भी भारतीय नहीं हो सकता, वैदिक संस्कृति में नारी को सम्मान का सूचक “देवी” कहा गया है, जो कभी भी छुपाने की वस्तु वाले नजरिये से नहीं देखि गयी। क्योंकि “औरत” शब्द अरबी है जो अरबी धातु औराह या आईन-वाव-रा (ayn-waw-ra) से जिसका मतलब है कानापन या एक आंख से देखना से बना है। सीधा सीधा अर्थ है, शायद अरब के लोग नारी को केवल भोग की वस्तु या शारीरिक सम्बन्ध बनाने वाली नजर से ही देखते थे, जिस कारण नारी को “औरत” शब्द यानी छुपाने वाली बना दिया ताकि ऐसी दुष्ट और काम वास्नामयी नजरो से बचा सके।

जबकि भारतीय पद्धति में महिला को देवी का दर्जा प्राप्त है, जिससे ज्ञात होता है की भारतीय परंपरा और संस्कार नारियो के प्रति कितने उदारशील और संस्कारी थे। अब जो बात है पर्दा की तो किसी भी वैदिक साहित्य में महिला को छुपाने या पर्दा करने का विवरण प्राप्त नहीं होता देखिये :

निरुक्त में पर्दा प्रथा का विवरण कहीं मौजूद नहीं।

निरुक्तानुसार संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने के लिए कहीं पर्दा व्यवस्था का विवरण नहीं, बल्कि अधिकार है।

रामायण और महाभारत काल में भी महिलाओ की पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, इसके उल्ट रावण की बहन जब श्री राम और लक्ष्मण के सामने आई तब भी कोई पर्दा न था, जब रावण माता सीता को ले जाकर, अशोक वाटिका में रखा वहा भी कोई पर्दा व्यवस्था नहीं थी। रामायण और महाभारत कालीन इतिहास में स्वयंवर होते थे, तब भी पर्दा व्यवस्था का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

इन सब तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की आर्य सभ्यता में पर्दा व्यवस्था थी ही नहीं, क्योंकि आर्य जाति सदैव सदाचारी और संयमी रही है, अतः पुरुषो को अपनी इन्द्रियों को वश में करना ही सदाचार है, महिलाओ को ढक कर, छिपा कर पुरुष इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता, खैर ये ढकने और छिपाने जैसी प्रथा से पुरुष की इन्द्रिय संयम में रहती हैं और पुरुष सदाचार की शिक्षा प्राप्त करता है, इतना विज्ञानं अरबी सभ्यता में ही था।

अब हम आपको वेद से प्रमाण दिखाते हैं, देखिये :

सुमंगलीरियं वधुरिमा समेत पश्यत
सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं वि परेतन

ऋग्वेद (10.85.33)

हे विवाह में उपस्थित भद्र स्त्री पुरुषो ! यह वधु शुभा और सौभाग्यशालिनी है। आप लोग आइये, देखिये और इसे सौभाग्य का आशीर्वाद देकर अनन्तर अपने अपने घरो को जाइए।

यहाँ स्पष्ट है की पर्दा प्रथा का कोई औचित्य भारतीय संस्कृति में महिलाओ के लिए निर्धारित नहीं किया गया। बल्कि आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार वधु को अपने घर ले आते समय वर को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि वैदिक सभ्यता (भारतीय संस्कृति) में वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (पर्दा) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरावगुण्ठन आती थी। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336)

अब मूल सवाल यह है की ये पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे भारतीय समाज में कैसे दाखिल हुई ? इसका जवाब हमें हुतात्मा पंडित लेखराम कृत “महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र” नामक पुस्तक में बेहद तर्कपूर्ण आधार पर मिलता है, जहाँ महर्षि ने एक शंकालु की शंका समाधान करते हुए कहा :

“स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार में डालना है। जब उनको विद्या होगी वह स्वयं अपनी विद्या के द्वारा बुद्धिमती होकर प्रत्येक प्रकार के दोषो से रहित और पवित्र रह सकती हैं। परदे में रहने से सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती और बिना विद्या प्राप्ति के बुद्धिमती नहीं हो सकती हैं और परदे में रखने की प्रथा इस प्रकार प्रचलित हुई की जब इस देश के शासक मुस्लमान हुए तो उन्होंने शासन की शक्ति से जिस किसी की बहु बेटी को अच्छी रूपवती देखा उसको अपने शासनाधिकार से बलात छीन लिया और दासी बना लिया। उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमे सामना करने की सामर्थ्य न थी। इसलिए अपने सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी स्त्रियों और बहु बेटियो को घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया। सो मूर्खो ने उसको पूर्वजो का आचार समझ लिया। देखो, मेमो अर्थात अंग्रेज की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी साहसी, विद्यावती और सदाचारिणी होती हैं।”

ऋषि ने जो समझाया उसे न समझकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो आक्षेपकर्ता ने कुछ और ही समझा, स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार है, क्योंकि ये महिला की इच्छा विरुद्ध है, अनेको मुस्लिम महिलाये ही बुरखा का विरोध करती हैं, यहाँ तक की अनेको मुस्लिम महिलाओ ने तो नग्न तक होकर विरोध किया है, ऐसी अनेको खबरों से फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशो के समाचार पत्र भरे पड़े हैं। हम नग्न्ता का समर्थन तो बिलकुल नहीं करते, विरोध सदैव ही शालीन और मर्यादित होना चाहिए, लेकिन शायद उन मुस्लिम महिलाओ को नग्न्ता की राह दिखाने वाला भी बुरखा ही था जिसमे उन्हें घुटन महसूस हो रही थी। खैर हम ऋषि की दूसरी बात समझते हैं, उन्होंने कहा महिला कभी भी परदे से अपनी सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती, ये कटु सत्य है, क्योंकि भारत में ही अनेको मुस्लिम परिवारो में मुस्लिम बहु की इज्जत को तार तार करने में उसके ही अपने मुस्लिम ससुर का योगदान था। मुजफ्फरनगर उ० प्र० में इमराना का केस मात्र एक उदहारण है, मुस्लिम पति नूर इलाही की जो पत्नी इमराना थी, उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था, तब इस्लामी कानून अनुसार दारुल उलूम देवबंद ने एक फतवा निकाला जो दुनिया से मानवता शर्मसार करने वाला था, इस कानून में पीड़ित महिला जो ससुर की हैवानियत का शिकार हुई थी, उसे उस हैवान की पत्नी बना दिया गया, और जो उसका पति था, जिससे उस महिला को पांच बच्चे थे, उसे बेटा बना दिया, अंततः पीड़ित ने भारतीय संविधान का दरवाजा खटखटाया और पीड़िता को इंसाफ मिला। अब सवाल ये है, क्या बुरखा यहाँ स्त्री की सतीत्व रक्षा कर पाया ? क्या ये जरुरी नहीं था, की पुरुष अपनी इन्द्रियों को वश में करना सीखे। महिलाओ को शिक्षित करने से ही महिलाओ का शोषण रुकेगा, क्योंकि महिलाओ को जो अधिकार प्राप्त हैं, वो शरिया कानून नहीं देता, क्योंकि इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना हराम है, महिलाओ का नौकरी करना हराम है, महिलाओ का पर पुरुषो (ऑफिस सहकर्मी) के साथ बैठना, काम करना, सब हराम है। खैर इस विषय पर हम अगले लेख में विचार करेंगे। आप अभी केवल ये सोचिये की यदि महिला शिक्षित होकर नौकरी करना चाहे तो क्या वो ऑफिस में बुरखा पहने हुए, बैठ सकती है ? क्या ये एक प्रकार का मानसिक अत्याचार नहीं है ? क्या पुरुष को भी बुरखे में रहने की आज्ञा है ? यदि नहीं, तो क्यों एक नारी पर अत्याचार किया जाता है, वो भी मजहब के नाम पर ? फिर भी कहते हैं की महिला और पुरुष को इस्लाम में समान अधिकार प्राप्त हैं ? क्या ये एक प्रकार का बेहूदा मजाक नहीं ?

यही बात यहाँ महर्षि ने बताई, की महिला को शिक्षित होना चाहिए, ताकि वो अपने अधिकार प्राप्त कर सके, मगर खेद की इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना, उनको अधिकार देना इस्लामी शरिया में हराम है, पाकिस्तान की मलाला युसूफ ज़ई से ज्यादा इस बात को कोई नहीं समझ सकता।

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की भारतीय सभ्यता में तो पर्दा का कोई रोल नहीं, ये कुप्रथा विशुद्ध रूप से मुस्लिम शासको के कारण ही भारतीय परिवेश में दाखिल हुई। ऋषि ने जो तर्क दिया था, उसका ही समर्थन करते हुए “भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे” ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र (धर्मशास्त्र का इतिहास) में पृष्ठ ३३७ में लिखते हैं :

“उत्तरी भारत एवं पूर्वी भारत में पर्दा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है, उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।

इसके तीन कारण थे-

हिन्दू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से।

विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण।

विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर।

इतिहास को आप छुपा नहीं सकते, इस विषय पर अनेको लेखको ने स्वतंत्रता से लिखते हुए अपनी सहमति दी है, क्योंकि मुस्लिम शासक और आक्रांता, इस देश में आक्रमण करते और पुरुषो को मारकर, उनकी स्त्रियों को उठा ले जाते तथा अरब आदि देशो में गुलाम दासी के तौर पर दो दो दिनार में बेच देते थे, ये तो इतिहास था, मगर इतिहास फिर दुहरा गया, सीरिया में इस्लामी आतंकी संगठन ने यजीदी महिलाओ को निर्वस्त्र करके गली मोहल्ले में बोली लगाकर १०० डॉलर में बेचा, ये तो अभी हाल की ही खबर है, बिलकुल यही परिस्थिति मुग़ल काल में भी थी राजपुताना में मौजूद अनेको जौहर स्थल इसके साक्षात प्रमाण हैं। इतिहास साक्षी है, की मुस्लिमो की बादशाहत दौरान हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया जाता था, डॉ श्रीवास्तव अपनी पुस्तक अकबर द मुग़ल पृष्ठ ६३ में लिखते हैं “when people Deosa and other places on Akbar’s route fled away on his approach” अब यहाँ शंका ये है यदि राजा भारमल की पुत्री जोधा का विवाह वधु पक्ष की मर्जी से हुआ था तो अकबर के आने पर जनता भाग क्यों गयी ? जाहिर है, वो विवाह था ही नहीं, ये स्पष्ट है की अकबर ने राजा भारमल की पुत्री की सुंदरता के प्रसिद्द किस्से सुने थे, इसीलिए उसे पाने को राजा भारमल पर आक्रमण किया, यही हाल सती रानी दुर्गावती की कहानी का भी है, हालांकि जौहर करने से दो महिलाये बच गयी थी एक दुर्गावती की बहन कमलावती और दूसरी राजा पुरंगद की बेटी थी जिन्हे अकबर के हरम में पंहुचा दिया गया था (जे एम शेलत, अकबर 1964)

अनेको इतिहासिक दस्तावेजो से ये सिद्ध है की उत्तर भारतीय हिन्दू परिवारो में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी, ये कुप्रथा हिन्दू समाज में मुस्लिम आक्रंताओ से हिन्दू महिलाओ को बचाने के लिए अपनाया गया, नवाब वज़ीर लखनऊ का तत्कालीन नवाब सुन्दर हिन्दू महिलाओ को अगवा कर उनको प्रताड़ित किया करता था, और जबरन मुसलमान बनवाता था (इट इज कॉन्टिनुएड, अशोक पंत, पृष्ठ १३०)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने हिन्दुओ की दुकानो को नष्ट किया और हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया (India & South East Asia to 1800 सांडर्सन बेक)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने घनश्याम जो नवविाहित वधु को डोली में बैठा कर घर ला रहा था, उसे अपने घर के गेट के सामने ही लूट लिया, २ हिन्दू मार दिए गए और घनश्याम की पत्नी को मिर्ज़ा तवाख्खुर अपने घर ले गया (Ahkam-i-Alamgiri)

The Afghan ruler Ahmad Shah Abdali attacked India in 1757 AD and made his way to the holy Hindu city of Mathura, the Bethlehem of the Hindus and birthplace ofKrishna.

The atrocities that followed are recorded in the contemporary chronicle called : ‘Tarikh-I-Alamgiri’ :

“Abdali’s soldiers would be paid 5 Rupees (a sizeable amount at the time) for every enemy head brought in. Every horseman had loaded up all his horses with the plundered property, and atop of it rode the girl-captives and the slaves. The severed heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives…Then the heads were stuck upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment.

“It was an extraordinary display! Daily did this manner of slaughter and plundering proceed. And at night the shrieks of the women captives who were being raped, deafened the ears of the people…All those heads that had been cut off were built into pillars, and the captive men upon whose heads those bloody bundles had been brought in, were made to grind corn, and then their heads too were cut off. These things went on all the way to the city of Agra, nor was any part of the country spared.”

कितने ही प्रमाण दिए जा सकते हैं, जो सिद्ध करते हैं, की हिन्दू महिलाओ पर मुस्लिम आक्रंताओ द्वारा कितना अत्याचार किया गया, की इससे हमारी सभ्यता और संस्कृति में अनेको परिवर्तन आ गए। जिनमे मुख्य रूप से :

पर्दा कुप्रथा का भारतीय महिलाओ द्वारा अपनाना मुख्य है।
बाल विवाह, ताकि हिन्दू महिलाओ को शोषण से बचा सके।
सती प्रथा, ये जौहर का परिणाम था जिसे स्वेच्छा से अपनाया जाने लगा ताकि मृत हिन्दू पति के बाद हिन्दू महिला की आबरू बच सके।

इसके अतरिक्त सतीशचंद गुप्ता से पूछना चाहेंगे की, जो पर्दा प्रथा हालिया हिन्दू समाज में पायी जाती है, वह केवल घूंघट या सर पर पल्लू रख कर देखि जाती है, लेकिन जो पर्दा प्रथा का समर्थन आक्षेपकर्ता ने किया वो बुरखा है, वो किसी भी लिहाज से घूँघट का कार्य तो करता नहीं, फिर बुरखा की बराबरी घूँघट से करना मानसिक दिवालियापन ही है। क्योंकि हालिया समय में हिन्दू समाज में घूँघट या सर पर पल्लू रखना एक नजरिये से देखे तो आदर सूचक ही लगता है जो बड़े बुजुर्गो के सम्मान हेतु रखते हैं, लेकिन बुरखा घूँघट या पर्दा की बराबरी नहीं कर सकता, फिर क्यों बराबर जोड़ा गया ?

अब हम इस लेख में ज्यादा तो अब नहीं लिख सकते, क्योंकि बड़ा हो जाएगा, अतः अब हम अगले लेख में देखेंगे, कि :

बुरका प्रथा मुस्लिम समाज में कैसे आया ?

बुरखे की हानिया और आज का आतंकवाद

बुरखे से महिलाओ को होने वाली बीमारियां तथा बुरखे पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण

बुरखे के कारण मुस्लिम महिलाओ की स्थति

महिला विकास में अवरोधक बुरखा

और क्या बुरखा महिलाओ के प्रति छेड़ छाड़ और बलात्कार रोक पाता है ?

अगले लेख में।

आओ लौट चले वेदो की और।

नमस्ते