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दूसरों को कुछ देने का नाम यज्ञ है – कन्हैयालाल आर्य

 

अपने धन और पदार्थों में से दूसरों को कुछ बाँटना सीखो, देना सीखो, यही यज्ञ का संदेश है। क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि हमारा हाथ है न, कितना भारी अयास है इसका, मुड़कर के सदैव मुख की ओर ही आता है। तात्पर्य यह है कि किसी कक्ष में आप बैठे हुए हैं और अचानक विद्युत् चली जाये तो जो आप खा रहे हैं, क्या आपका हाथ नाक या आँख की ओर जायेगा? बिलकुल नहीं। कितना भी अन्धेरा क्यों न हो, आपका हाथ सीधा मुख की ओर जाता है, कुछ ऊपर-नीचे नहीं गिरता। इतना भारी अयास है कि हाथ मुख की ओर ही जाता है, परन्तु इस हाथ को सीधा रखना सीखो, पहले दूसरों को खिलाओ, फिर अपनी ओर लेकर के आओ, तो उसका स्वाद बढ़ जायेगा और वह भोजन पुण्य बनकर आपका, आपके परिवार का और आपके राष्ट्र का कल्याण करेगा। इसे एक दृष्टान्त से समझते हैं-

एक बार प्रजापति के पास असुर गये और जाकर शिकायत करने लगे- महाराज, आप सदैव देवताओं को उपदेश देते हो, हमें कोई भी उपदेश नहीं देते। आप पक्षपात करते हैं। इस शिकायत को सुनकर प्रजापति ने कहा – ठीक है। इस मास की पूर्णिमा के दिन आपको हम उपदेश देंगे और भोजन भी करायेंगे। यह सुनकर असुर बड़े प्रसन्न हुए, परन्तु प्रजापति ने कहा-हम उस दिन देवताओं को भी बुलायेंगे, उन्हें भी उपदेश करेंगे और आपके साथ-साथ उनको भी भोजन करायेंगे। असुरों ने उत्तर दिया – हमें कोई आपत्ति नहीं है। यह कह कर असुर चले गये।

निश्चित तिथि एवं समय की सूचना प्रजापति ने देवताओं को भी दे दी। पूर्णिमा का दिन आया। असुर और देवता प्रजापति के पास पहुँच गये। असुरों को लगा कि प्रजापति पक्षपात करते हुए पहले देवताओं को भोजन करायेंगे। बचा-खुचा हमें खिलाया जायेगा। असुरों के गुरु ने प्रजापति से कहा- महाराज! आपने हमें पहले निमन्त्रण दिया था या देवताओं को? प्रजापति ने कहा-आपको। असुरों ने कहा – फिर भोजन आप पहले हमें कराओगे या देवताओं को? प्रजापति ने कहा- आपको पहले भोजन कराया जायेगा। यह कहकर प्रजापति ने असुरों को भोजन के लिए पंक्तियों में आमने-सामने बैठने का आदेश कर दिया। असुर लोग बैठ गये। भोजन परोस दिया गया।

ज्यों ही असुरों ने भोजन की ओर हाथ बढ़ाया, प्रजापति ने कहा- रुकिये! भोजन करने से पूर्व मेरी एक शर्त है। तुहारी कोहनियों पर लकड़ी की एक-एक खपच्ची बाँधी जायेगी, तभी आप भोजन कर सकेंगे। ऐसा कहकर प्रजापति ने सभी असुरों की कोहनियों पर वैसा करा दिया और तब भोजन करने का आदेश दे दिया। असुरों ने भोजन का ग्रास उठाया, परन्तु कोहनी पर लकड़ी बँधे रहने के कारण भोजन मुख तक जाने के स्थान पर इधर-उधर अपने मुख, आँख, दाँत, सिर पर गिरने लगा। निश्चित समय हो जाने पर प्रजापति ने असुरों को कहा – अब भोजन खाना बन्द कर दीजिए। भोजन का जितना समय निश्चित था, समाप्त हो गया। बेचारे असुर रुँआसे होकर भूखे ही वहाँ से उठ गये।

अब देवताओं के भोजन करने की बारी थी। देवताओं को भी पंक्तियों में आमने-सामने बिठा दिया गया। भोजन परोस दिया। इसी बीच असुरों के गुरु ने कहा – महाराज, यह तो न्याय नहीं है। आप देवताओं की कोहनियों में लकड़ी की खपच्चियाँ क्यों नहीं बँधवा रहे हैं? प्रजापति ने कहा- देवताओं को भी खपच्चियाँ बाँधी जायेंगी। यह कहकर प्रजापति ने देवताओं की कोहनियों पर भी लकड़ी की खपच्चियाँ बँधवा दीं। देवताओं ने भोजन का ग्रास उठाया, सामने वाले के मुख में दे दिया और सामने वाले ने भी उठाया तथा अपने सामने वाले के मुख में भोजन दे दिया । निश्चित समय से पूर्व ही सभी देवताओं ने तृप्त होकर भोजन कर लिया। यह सब दृश्य असुरों ने देाा तो बहुत लज्जित हुए। असुरों के गुरु ने कहा-महाराज! अब भूखे तो रह गये, कम से कम उपदेश तो कर दो। प्रजापति ने कहा – उपदेश तो मैं कर चुका हूँ । तुहारी समझ में नहीं आया तो मैं क्या कर सकता हूँ? असुर प्रजापति का आशय न समझते हुए पुनः बोले – महाराज, आप ने तो केवल भोजन करने का आदेश दिया है। उपदेश तो बिल्कुल नहीं किया है।

प्रजापति बोले-देखो! भोजन तुहें भी परोसा गया, देवताओं को भी परोसा गया। तुम लोग इसलिए भूखे रह गये कि तुमने स्वार्थवश स्वयं खाने का प्रयास किया, दूसरों को नहीं खिलाया। तुम अकेले खाने का प्रयास करते रहे और सभी भूखे रह गये। देवताओं ने दूसरों को खिलाने में रुचि ली, इसलिए वे तृप्त हो गये। आज का उपदेश यह है कि दूसरों को खिलाना सीखें, तभी आपकी तृप्ति होगी। इसीलिए वेद ने उपदेश दिया है- ‘जो लोग केवल अपने लिए पकाकर खा रहे होते हैं, वे लोग पाप खा रहे होते हैं, अकेले खाने वाला पाप खाता है।’

योगेश्वर कृष्ण ने तो गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक संया 12 में अकेले खाने वाले को चोर तक कह डाला है-

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायेयो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।

यज्ञ से प्रसन्न होकर वायु, जल आदि देवता तुहें वे सब सुख प्रदान करेंगे, जिन्हें तुम चाहते हो। जो व्यक्ति उनके द्वारा दिए गए इन उपहारों का उपयोग देवताओं को बिना दिए करता है, वह तो चोर है। यहाँ ‘स्तेन’ शद का उपयोग योगेश्वर कृष्ण जी ने चोर के लिए किया है। जो अपने लिए भोजन पका रहा है, बाँटना नहीं चाहता, वह चोर है। भगवान् कृष्ण ने चोर शद का प्रयोग किया है, यह हमारी आत्मा को झिंझोड़ने वाला, हिलाने वाला शद है।

ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 117 वें सूक्त के मन्त्र संया 6 में अकेला खाने वाला किस प्रकार पापी है, उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है-

मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य।

नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी।।

(अप्रचेताः) धनों की अस्थिरता का विचार न करने वाला (अन्नं मोघं विन्दते) अन्न को व्यर्थ ही प्राप्त करता है। प्रभु कहते हैं (सत्यं ब्रवीमि)मैं यह सत्य ही कहता हूँ (सः) वह अन्न व धन (तस्य) उसका (इत्) निश्चय से (वधः) वध का कारण होता है। यह अदत्त अन्न व धन उसकी विलास वृद्धि का हेतु होकर उसका विनाश कर देता है। यह (अप्रचेताः) नासमझ व्यक्ति (न) न तो (अर्यमणम्) राष्ट्र के शत्रुओं का नियमन करने वाले राजा को (पुष्यति) पुष्ट करता है (नो) और न ही (सखायम्) मित्र को। वह कृपण व्यक्ति राष्ट्र रक्षा के लिए राजा को भी धन नहीं देता और न ही इस धन से मित्रों की सहायता करता है। वह दान न देकर (केवलादी) अकेला खाने वाला व्यक्ति (केवलाघः भवति) शुद्ध पाप ही पाप खाने वाला हो जाता है, दूसरों को न बाँटने वाला व्यक्ति ‘चोर’ ही कहलायेगा। जो केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे पाप की हंडिया पकाते हैं। यज्ञपूर्वक बाँटकर खाना पुण्य प्राप्ति का मार्ग है।

ब्राह्मण लोक कल्याण के लिए अपना समय ज्ञानोपार्जन तथा ज्ञान दान में लगाता है तथा अपने भोजन में से थेाड़ा-सा भाग बलिवैश्वदेव यज्ञ के लिए निकालता है। यह बलिवैश्वदेव इस बात का प्रतीक है कि ब्राह्मण सदैव इस बात को स्मरण रखें कि यह जो मैं निश्चिन्त होकर ज्ञानोपार्जन कर रहा हूँ, इस निश्चिन्तता के लिए मैं राजा, प्रजा, यहाँ तक कि प्राणीमात्र का ऋ णी हूँ। मुझे लोक कल्याण के लिए जीना है और जीने के  लिए खाना है। इसी प्रकार क्षत्रिय अन्याय निवारण के व्रत के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। वैश्य प्रजा का दारिद्र्य निवारण करने के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। शूद्र किसी न किसी व्रतधारी की सेवा के लिए जीता है और जीने के लिए खाता है। सो लोकसेवा के लिए जीना और जीने के लिए खाना यज्ञशेष खाना है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए गीता के तीसरे अध्याय 3 श्लोक 13 में इस प्रकार वर्णन है-

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।

वे व्यक्ति ही सन्त हैं जो यज्ञ के बाद बची हुई, वस्तु (यज्ञशेष)का उपभोग करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, किन्तु जो दुष्ट लोग केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे तो समझो पाप ही खाते हैं।

यह जो बात ऋग्वेद में कही है, गीता में भी कही है वह इस बात को समझा रही है कि वस्तुओं को अधिक-से- अधिक संग्रह करके अपने पास रख लेना अच्छी बात नहीं है। बाँटने का नाम यज्ञ है, सेवा का नाम यज्ञ है, परोपकार का नाम यज्ञ है, हम इसे करना सीखें।

आपके घर में जो भी पदार्थ आये उसका प्रयोग करने से पहले भगवान् को भोग लगाओ, अर्थात् अग्नि में आहुति दो, फिर जिसे बलिवैश्वदेव यज्ञ कहते हैं, उसका अनुष्ठान करके प्राणी मात्र के लिए भाग निकालिये। जिसे हम भाग रखने के मन्त्र द्वारा बताते हैं कि गौ ग्रास निकालिए, आस-पास कोई व्यक्ति भूखा, पीड़ित, दुःखी याचक है, उसके लिए भाग निकालिए। पितृयज्ञ और अतिथियज्ञ द्वारा माता-पिता, गुरु, अतिथि, राष्ट्र सबके लिए भाग निकालिए।

कहते हैं, जो पाप खा रहे होते हैं फिर वह रोग बनकर, वही कलह बनकर, वही विवाद बनकर, वही तनाव बनकर, वही सन्ताप बनकर व्यक्ति के परिवार में उसके जीवन में उभरता है, अतः बाँटना सीखो, देना सीखो।

हमारा कर्म यज्ञ बन जाये, हम याज्ञिक बन जायें। कैसे! जब कोई व्यक्ति यज्ञ करता है तो उसकी सुगन्ध को समेटकर कभी कैद करके रख नहीं सकता। तभी तो कहा जाता है- ‘‘इदन्न मम’’- यह आहुति अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र के लिए है, मेरे लिए नहीं। परोपकार के लिए किया गया जो भी कर्म है, वह सब यज्ञ है। सेवा यज्ञ है, जनकल्याण के लिए निस्वार्थ भाव से किया गया है कार्य यज्ञ है। तभी तो वेद में कहा है – ‘तुम देवताओं को प्रसन्न करो, देवता तुहें प्रसन्न करेंगे। तुम देवताओं के लिए यज्ञ करो, देवता तुहारे लिए यज्ञ करेंगे, तुहारा कल्याण करेंगे। सुख को जितना अधिक बाटेंगे उतना ही अधिक आनन्द आयेगा। इस तरह से यज्ञ शेष को ग्रहण करना सीखो – प्राप्त करो और बाँटो। बाँटने का परिणाम यह होगा उस वस्तु का स्वाद बढ़ जायेगा।’

कहते हैं कि प्रसन्नता को बाँटो, इसलिए कि प्रसन्नता बढ़ जाये और दुःख को बँटाओ, इसीलिए कि दुःख हल्का पड़ जाये। जब भी किसी के जीवन में प्रसन्नता आती है तो लोग निमन्त्रण देने पहुँच जाते हैं, सब मित्रों सबन्धियों को कहते हैं- आइये, हमारी प्रसन्नता में समिलित होइये, क्योंकि हमारी प्रसन्नता में वृद्धि हो जायेगी। दुःख आता है तो लोग बिना निमन्त्रण के सूचना मात्र से दुःख को बाँटने आ जाते हैं, सब लोग साथ खड़े  हो जाते हैं, यह कहने के लिए कि तुहारे साथ संवदेना और सहानुभूति लेकर हम आये हैं, अपने को अकेला मत समझना और यह नहीं सोचना कि तुम अकेले हो। दुःख आया है, दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति पर दुःख आता है, दुःख के बिना कोई अछूता नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति को दुःख का सामना स्वयं करना पड़ता है, परन्तु दुःख बाँटने वाले उसका मनोबल बढ़ाते हैं और द़ुःख बँट जाता है, घट जाता है।

आपने एक बात देखी होगी- आपके कमरे में दो खिड़कियाँ हैं, आप निमन्त्रण देते हैं शुद्ध वायु को, पवनदेव को और कहते हैं-पवन देव! घुटन है अन्दर, आप आओ, हमें शुद्ध वायु प्रदान करो। आपने निमन्त्रण दिया, परन्तु वे आने के लिए तैयार नहीं हैं। पवन देव बोले-एक मार्ग से बुलाया और मुझे बन्दी बनाकर रखना चाहता है, दूसरी खिड़की खोल, तभी मैं अन्दर आऊँगा। मैं एक ओर से आऊँगा, तुहें ताजगी देने के पश्चात् दूसरीािड़की से बाहर चला जाऊँगा।

इधर से वायु आए, उधर से जाए। तात्पर्य यह है कि जब तुहारे जीवन में आनन्द आए तो बाँटना प्रारभ कर दो। बाँटना प्रारभ कर दोगे तो क्या होगा? वह कई गुणा तुहारे पास आएगा और तुहें आनन्दित करना प्रारभ कर देगा।

कुएँ से पानी निकालो तो वह दूसरों का कल्याण करेगा, दूसरा पानी यहाँ आयेगा, ताजा बना रहेगा, जीवन जीवन्त रहेगा। जो जल भरकर जाये बादल, इधर से भरकर लाये और उधर से बरसाये, तभी उन बादलों की शोभा है। और यदि गरजते हुए चले जायें तो उनकी कोई शोभा नहीं। उनका होना न होना व्यर्थ है। वहाँ बादल भी बाँटना सीख रहा है। इसी का नाम जीवन है। यह जीवन क ी सत्यता है, यह जीवन का एक उद्देश्य है। योगीराज कृष्ण कहते हैं- ‘इसी का नाम यज्ञ है।’ इसीलिए यह एक चक्र है जो घूम रहा है। यदि पाना चाहते हैं तो देना सीखो और दोगे तो लौट पर भी पर्याप्त मात्रा में आयेगा।

वेद के ऋषि स्पष्ट रूप से निर्देश करते हैं कि यदि खाना चाहते हो तो ध्यान रखना-यज्ञ करने के बाद घर में भोजन को खायें। उस पर तुहारा अधिकार है, बाँटकर खाओ, इसमें आपको आनन्द आयेगा। इसी में हम सभी का हित है। प्रभु हम सब पर कृपा करें कि स्वार्थी न बनें, परोपकार भी सकाम भावना से न करें, दूसरों को बाँटना सीखें, तभी हमारा यज्ञ सफल होगा।

– 4/44, शिवाजी नगर, गुड़गाँव, हरियाणा।

जिज्ञासा समाधान – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा: – 

पौराणिक कहे जाने वाले भाइयों में मृतक-भोज 10वाँ या तेरहवीं का रिवाज है, जिसमें लोगों को आमन्त्रित कर भोजन खिलाया जाता है तथा ब्राह्मण को दान देकर पूजा-पाठ आदि भी कराया जाता है।

उक्त हवन के लिये आर्य समाज के पुरोहित या अन्य लोगों को भी बुलाया जाता है।

तो क्या हवन आदि कराने हेतु जाना चाहिये अथवा नहीं।

समाधान-

समस्त मत-सप्रदायों में कहीं-न-कहीं पाखण्ड अंधविश्वास मिल ही जाता है अथवा उनमें पाखण्ड अंधविश्वास है। हमें हिन्दुओं में कुछ अधिक दिखता है। ये लोग बिना विचारे-समझे ही किसी भी पाखण्ड की ओर अग्रसर हो जाते हैं। यहाँ पत्थर, पहाड़, पेड़, नदी, नाले, समुद्र, पोखर, यहाँ तक की मल को भी पूजने वाले लोग मिलते हैं। अपराधी गुरु बनकर पूजा जा रहा है। गुरु के रूप में आकर जनता को ठगना और अपने गुरु रूपी आडबर की आड़ में अधिक-से-अधिक अपराध करना, ऐसा होते हुए भी देश की जनता का उनको पूजना-कितनी विडबना की बात है।

परमेश्वर को छोड़ गुरु की पूजा-अराधना करना, माता-पिता, आचार्य का उपदेश न मान, ढोंगी गुरु की बातें अपनाना, अनर्थ ही तो है।

इसी प्रकार मृतक श्राद्ध आदि की कथा है। जीवित मनुष्यों की सेवाह-सुश्रुषा न कर करने के बाद उनको तृप्त करने का पाखण्ड करना, मरने के बाद दस दिन वा तेरह दिन तक व्यर्थ के कार्य करना, जब कि वेद व ऋषियों का मन्तव्य है कि मरने के बाद उसको दाह-संस्कार कर, तीसरे दिन अस्थि चयन कर उन अस्थियों को कहीं दबा कर शुद्ध हो जाना, इसके उस मृत व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य शेष नहीं रह जाता, फिर भी ये तेहरवीं वाली परपरा तो चला ही रखी है। इस दिन प्रायः पूजा-पाठ, हवन आदि करवाये जाते हैं। आपका कथन है कि इनके यहाँ आर्य समाज का पुरोहित व अन्य जनों को जाना चाहिए वा नहीं। इस पर हमारा कथन है कि जाने में तो कोई दोष नहीं है। यदि आर्य पुरोहित जायेगा तो वैदिक रीति से कर्मकाण्ड करेगा, कुछ अच्छा उपदेश करेगा, जिससे कुछ लोगों पर इसका प्रभाव भी पड़ेगा। हाँ, वहाँ जाकर यदि उनकी पाखण्ड की बातों का समर्थन करता है या उनके अनुसार कर्मकाण्ड करता है, तो अनुचित है। यदि हमें ज्ञात हो कि वहाँ जाने पर हमारे ऊपर इस पाखण्ड को करने का दबाव डाला जायेगा और हम उस दबाव का विरोध नहीं कर सकते, तो वहाँ नहीं जाना चाहिए। सामान्य रूप में जाने से कोई हानि नहीं है, जाया जा सकता है।

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाकुछ जिज्ञासायें मन में हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करेंः-

1-यम, 2-नियम, 3-आसन, 4-प्राणायाम, 5- प्रत्याद्वार, 6-धारणा, 7-ध्यान एवं 8-समाधि। यह क्रम महर्षि पतञ्जलि ने योग दर्शन में दिया है।

क्या यम-नियम का पालन करने वाला व्यक्ति भी सीधे ध्यान (7) अवस्था में पहुँचकर ध्यान का अयास कर सकता है? यदि कर सकता है तो फिर यम- नियम आदि की क्या आवश्यकता है?

आखिर यह ‘‘ध्यान प्रशिक्षण योजना’’ जो परोपकारी पत्रिका मार्च (प्रथम) 2015 में प्रकाशित है व पहलेाी कई बार प्रकाशित/प्रचारित हुई है, क्या है?

समाधान– (क) ध्यान/उपासना के लिए यम-नियम रूप योगाङ्गों का अनुष्ठान अनिवार्य है। इसको महर्षि पतञ्जलि अपने योगदर्शन में कहते हैं। महर्षि दयानन्द नेाी इस तथ्य को अनिवार्य कहा है। महर्षि उपासना प्रकरण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते हैं- ‘……….इन पाँचों का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है।’’ ऋषियों के इन मन्तव्यों से तो यही ज्ञात हो रहा है कि ध्यान-उपासना के लिए यम-नियम का पालन करना अनिवार्य है।

अब हम थोड़ा विचार इन आठ अङ्गों पर कर लेते हैं। इन योगाङ्गों की व्याया करते हुए प्रायः उपदेशक वर्ग इनक ो सीढ़ी की भाँति बताया करता है, अर्थात् जैसे ऊपर चढ़ने के लिए हम सीढ़ी का प्रयोग करते हैं। सीढ़ी से चढ़ने के लिए पहले हम प्रथम सीढ़ी पश्चात् दूसरी, तीसरी आदि का प्रयोग करते हैं, पहली से अन्तिम पर नहीं पहुँच जाते वहाँ तो क्रम है। ऐसे ही इन योगाङ्गों की व्याया की जाती है, अर्थात् पहले यम को सिद्ध करें फिर नियम को पश्चात् आसन को आदि।

किन्तु यह जो सीढ़ी की तरह कहना दिखाना है, युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि बिना यम-नियम के पालन से भी व्यक्ति आसन लगा सकता है, प्राणायाम कर सकता है। यदि ऐसा न होता तो कोई आसन, प्राणायाम न कर सकता था, इसलिए यह सीढ़ी वाला उदाहरण योगाङ्गों में घटाना सर्वाथा युक्त नहीं है।

इसमें यह अवश्य समझना चाहिए कि व्यक्ति जितना-जितना यम-नियम का पालन करता जायेगा, वह उतना-उतना धारणा, ध्यान की ओर अग्रसर होता चला जायेगा। कोई यह न समझे कि जब इन यम-नियम को पूरी तरह सिद्ध कर लूँगा, तब ही ध्यान करुँगा। ध्यान का अयास यम-नियम की प्रारभिक अवस्था से किया जा सकता है। हाँ, ध्यान की ऊँची अवस्था तो यम-नियम के पूर्ण रूप से पालन करने पर ही होगी, किन्तु प्रारभ में भी जब व्यक्ति सात्विक भाव से युक्त होकर ध्यान करता है तो उसको भी प्रारभिक ध्यान का आनन्द तो आयेगा ही।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि सर्वथा यम-नियम से रहित व्यक्ति तो ध्यान नहीं कर सकता अपितु जो जितने अंश में इनका पालन करता है, वह इतने स्तर का ध्यान भी कर सकता है, किन्तु जिस ध्यान की बात महर्षि पतञ्जलि करते हैं, वह ध्यान तो नहीं होगा, फिर भी इस ध्यान को आप गौण रूप में तो देख ही सकते हैं।

आपने परोपकारिणी सभा की ध्यान पद्धति के विषय में पूछा है। इस विषय में आपको बता दें कि इस ध्यान पद्धति की योजना इस कारण बनी कि सब मत-सप्रदाय प्रायः अपने-अपने विचार से ध्यान करवाते हैं। हमारे आर्य समाज में संध्या की जाती है। संध्या के बहुत सारे मन्त्र हैं, इन मन्त्रों को सब कोई नहीं जानता। जो नहीं जानता वह भी वैदिक रीति से ध्यान, उपासना कर सके, उसके लिए यह ध्यानह-पद्धति विद्वानों ने मिलकर तैयार की है। इस ध्यान पद्धति में अवैदिक और सिद्धान्त विरुद्ध कुछ भी नहीं है। यह पद्धति ऋषियों की रीति अनुसार विद्वानों द्वारा निर्मित है। इस पद्धति से साधारण से साधारण व्यक्ति भी ध्यान कर सकता है।

इस ध्यान-पद्धति का अनेक लोग लाभ उठा रहे हैं और जिन्होंने इसका प्रशिक्षण परोपकारिणी सभा से लिया है वे प्रशिक्षक होकर अन्यों को भी सिखा रहा है। इस प्रकार इससे अनेक जन उपकृत हो रहे हैं।

जैसे ऊपर कहा जा चुका है कि यह ध्यानह-पद्धति जन साधारण भी कर सके उसके लिए है। उन जन साधारण के लिए तो इस पद्धति को पर्याप्त कह सकते हैं किन्तु जो विशेष अध्यात्म के मार्ग में योग्यता रखते हैं, उनके लिए  कदाचित यह पर्याप्त न हो। यह ध्यान-पद्धति दो भागों में विभक्त कर रखी है, एक पन्द्रह मिनट की और दूसरी तीस मिनट की। जो लोग ध्यान करना चाहते हैं किन्तु विशेष योग्यता नहीं रखते, वे इस पन्द्रह मिनट की ध्यान- पद्धति का लाभ उठा सकते हैं और जो कुछ योग्य हैं, उनके लिए तीस मिनट की ये पद्धति है। वे इससे लाभ उठा सकते हैं। किन्तु जो विशेष योग्यता रखते हैं, वे महर्षि वर्णित उपासना प्रकरण व योग दर्शन के अनुसार अपने को प्रगति दे सकते हैं अथवा ध्यान योग शिविरों में इस विषय के योग्य विद्वानों के संग अपना परिष्कार कर सकते हैं। इस विषय में इतना ही।

मनुष्यों को खाने को नहीं मिलता : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

यह युग ज्ञान और जनसँख्या  के विस्फोट का युग है। कोई भी

समस्या हो जनसँख्या की दुहाई देकर राजनेता टालमटोल कर देते

हैं।

1967 ई0 में गो-रक्षा के लिए सत्याग्रह चला। यह एक कटु

सत्य है कि इस सत्याग्रह को कुछ कुर्सी-भक्तों ने अपने राजनैतिक

स्वार्थों के लिए प्रयुक्त किया। उन दिनों हमारे कालेज के एक

प्राध्यापक ने अपने एक सहकारी प्राध्यापक से कहा कि मनुष्यों को

तो खाने को नहीं मिलता, पशुओं का क्या  करें?

1868 में, मैं केरल की प्रचार-यात्रा पर गया तो महाराष्ट्र व

मैसूर से भी होता गया। गुंजोटी औराद में मुझे ज़ी कहा गया कि

इधर गुरुकुल कांगड़ी के एक पुराने स्नातक भी यही प्रचार करते हैं।

मुझे इस प्रश्न का उत्तर  देने को कहा गया। जो उत्तर  मैंने महाराष्ट्र में

दिया। वही अपने प्राध्यापक बन्धु को दिया था।

मनुष्यों की जनसंज़्या में वृद्धि हो रही है यह एक सत्य है,

जिसे हम मानते हैं। मनुष्यों के लिए कुछ पैदा करोगे तो ईश्वर मूक

पशुओं के लिए तो उससे भी पहले पैदा करता है। गेहूँ पैदा करो

अथवा मक्की अथवा चावल, आप गन्ना की कृषि करें या चने की या

बाजरा, जवारी की, पृथिवी से जब बीज पैदा होगा तो पौधे का वह

भाग जो पहले उगेगा वही पशुओं ने खाना है। मनुष्य के लिए

दाना तो बहुत समय के पश्चात् पककर तैयार होता है।

वैसे भी स्मरण रखो कि मांस एक उज़ेजक भोजन है। मांस

खानेवाले अधिक अन्न खाते हैं। अन्न की समस्या इन्हीं की उत्पन्न

की हुई है। घी, दूध, दही आदि का सेवन करनेवाले रोटी बहुत कम

खाते हैं। मज़्खन निकली छाछ का प्रयोग करनेवाला भी अन्न

थोड़ा खाता है। इस वैज्ञानिक तथ्य से सब सुपरिचित हैं, अतः

मनुष्यों के खाने की समस्या की आड़ में पशु की हत्या के कुकृत्य

का पक्ष लेना दुराग्रह ही तो है।

 

 

गाय को माता क्यों मानते हो? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

गाय को माता क्यों मानते हो?

 

देश विभाजन से पूर्व अमृतसर में एक शास्त्रार्थ हुआ। आर्यसमाज

की ओर से श्री ज्ञानी पिण्डीदासजी ने वैदिक पक्ष रखा। इस्लाम की

ओर से जो मौलवी बोल रहे थे उन्होंने यह कहा कि गाय को आप

माता क्यों  मानते हैं? भैंस-बकरी को क्यों नहीं मानते?

 

वैसे तो वेद पशुहिंसा का विरोधी है। गाय क्या  भैंस, बकरी,

घोड़ा आदि सब पशु हमारे ह्रश्वयार व संरक्षण के पात्र हैं, परन्तु गाय

की महत्ता  का जो उत्तर  ज्ञानीजी ने वहाँ दिया वह सबको सदैव

स्मरण रखना चाहिए। गाय का दूध अत्यन्त उपयोगी है यह तो सब

जानते हैं, परन्तु पशुओं में केवल गाय ही एकमात्र पशु है जो मानवीय

माता की भाँति नौ मास तक अपने बच्चे को गर्भ में रखती है। इसलिए

ही इस माता का दूध मानवीय माता के बच्चे के लिए अधिक लाभप्रद

होता है।

 

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों पर स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का प्रेरणादायक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य,

 

सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक सभी वैदिक सनातनधर्मी स्वयं आर्य कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। तब तक हिन्दुओं शब्द का अस्तित्व भी संसार में नहीं था। मुस्लिम  आक्रमणकारियों के भारत आने पर यह शब्द प्रचलित हुआ। समय के साथ वेदों से दूर जाते और पतन की ओर बढ़ रहे आर्य कहलाने वाले बन्धुओं ने इस गौरवपूर्ण शब्द को भुलाकर हिन्दु शब्द को अंगीकार कर लिया। हिन्दुओं में प्राचीन वैदिक काल में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान समय में भी विद्यमान है जो अब गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित न होकर यह प्रथा जन्मना हो गई है। इसके कारण हिन्दू समाज का सार्वत्रिक पतन हुआ है। आर्यसमाज के एक शीर्षस्थ विद्वान स्वामी वेदानन्द सरस्वती इस व्यवस्था के अन्तर्गत दलित बन्धुओं के सुधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान पर उपदेश कर रहे हैं और बताते हैं कि तथाकथित शूद्रों की दुर्दशा स्त्रियों से भी अधिक थी। उनमें से बहुसंख्यकों को अस्पृश्य माना जाता था। ऋषि दयानन्द ने उनको उनके सब अधिकार दिलवाए। महान् इतिहासविद् डा. काशीप्रसाद जायसवाल के शब्दों में ‘‘महात्मा बुद्ध से लेकर राजा राममोहनराय तक जिस कार्य (शूद्रोद्धार कार्य) में सफलता प्राप्त कर सके, शास्त्र का आश्रय लेकर दयानन्द ने उसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। स्वामीजी ने इस विषय में केवल उपदेश ही नहीं किये, परन्तु अपने आचारण द्वारा इस कार्य को किया। उदाहरणार्थजब ऋषि उत्तरप्रदेश में विचर रहे थे तो साधुजाति (यह अछूत मानी जाती थी) के एक व्यक्ति ने उन्हें भोजन लाकर दिया। ऋषि दयानन्द ने प्रेमपूर्वक उसका आतिथ्य स्वीकार किया। लोगों ने जब आक्षेप किया कि आपने साधु (एक अछूत) की रोटी खाकर अच्छा नहीं किया तो महाराज ने उन अबोध आक्षेपकत्र्ताओं को प्रेम से बोध दिया कि रोटी तो (अछूत की नहीं अपितु) अन्न की (बनी) थी। यदि वह अपवित्र पदार्थों की बनी हो अथवा पाप की कमाई की हो तो वह निषिद्ध है। वे साधु तो कृषि कर्म करते हैं, परिश्रमी हैं, ये लोग चोरी आदि कुकर्म भी नहीं करते अतः इनके अन्न में कोई दोष नहीं है। (उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में घटी अछूतोद्धार की यह अन्यतम घटना है।)

 

शूद्रों (दलित बन्धुओं) के साथ ऋषि के प्रेम के दृष्टान्त अनेक हैं। आर्यसमाज ने ऋषि के इस उपदेश से यह कार्य कर दिखलाया है कि संसार दंग रह गया है। पंजाब में वशिष्ठों, डोमों, मेघों, बटवालों, ओड़ों, रहतियों का उत्थान करके उनको तथाकथित द्विजों के तुल्य यज्ञोपवीतादि का अधिकार दिया गया। इन जातियों के अनेक जन अब गुरुकुल से स्नातक, शास्त्री, बी0ए0, वकील आदि हैं। उनके उत्थान के लिए आर्यसमाजियों को कितना कष्ट सहन करना पड़ा, उसकी एक-दो घटनाओं के द्वारा एमझा जा सकता है।

 

लाला मुन्शीराम जिज्ञासु (पश्चात महात्मा तत्पश्चात् स्वनामधन्य स्वामी श्रद्धानन्द) ने जालन्धर जिले के रहतियों (ये अछूत माने जाते थे) का जातिप्रवेश संस्कार कराया। इस पर पौराणिक भाई बिगड़ खड़े हुए। उनसे और तो कुछ न बन सका, उन्होंने इनका तथा इस कार्य में इनके सहकारी लाला देवराजजी (जालन्धर के कन्या महाविद्यालय की ख्याति वाले) का सामाजिक बहिष्कार करने का विचार किया। लाला देवराज की गहरी नीति से वह सफल न हो सका। तब उन लोगों ने उन सब पुनः प्रविष्ट आर्यों को सार्वजनिक कूपों (कुओं) से जल लेने से रोक दिया। जालन्धर के राजा माने जानेवाले राय शालिग्राम के सुपुत्र देवराज तथा उनके दामाद लाला मुन्शीराम उनके लिए जल भरकर उनके घरों में पहुंचाते थे। यह दृश्य देख विरोधियों की उद्दण्डता नष्ट हो गई।

 

दूसरी घटना कारुणिक है। रोपड़ अछूतोद्धारकार्य करनेवालों का भी पानी बन्द कर दिया गया था। वे लोग नारहर (नहर) से जल लाते थे। लाला सोमनाथ वहां के एक सम्भ्रान्त आर्य इस कार्य के मुखिया थे। दैवयोग से उनकी वृद्धा माता बीमार पड़ गई। चिकित्सकों ने कहाइसे कुवें का जल पिलाओ। जब तक यह नहर का जल पियेंगी, अच्छी हो सकेंगी। सोमनाथ द्विविधा में पड़ गये। मातृभक्ति ने उन्हें प्रेरणा की कि वे क्षमा मांग लें और इस पुनीत कार्य से विरत हो जाएं। सोमनाथ जी की माता को जब अपने पुत्र की दुर्बलता का ज्ञान हुआ, तब तत्काल उन्हें बुलाकर उस देवी ने कहा‘‘देख ! पुत्र सोमनाथ ! मैं जीवन का सब सुख भेाग चुकी हूं। मुझे अब जीने की चाह नहीं रही। तू यदि मेरे लिए स्वधर्मअछूतोद्धार का परित्याग करेगा, तो मेरे प्राण वैसे ही निकल जाएंगे, अतः तू धर्म से मत गिरियो। सोमनाथ ने माता के उत्साहवर्धक शब्द सुनकर शिथिलता का परित्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि उनको अपनी माता से वंचित होना पड़ा, किन्तु वृद्धा माता सुख एवं शान्ति के साथ मरी। बतलाइए कितनी कठोर तितिक्षा है।

 

एक घटना और भी सुन लीजिए–स्यालकोट जिला में तथा जम्मू रियासत में मेघों की विपुल संख्या बसती थी। मेघ लोग किसी समय जम्मू के राजा थे। डोगरों ने मेघों से जम्मू छीना था। राज्य-भ्रष्ट होकर ये इतने गिरे कि ये अछूत माने जाने लगे। हिन्दू निकालना जानता है, अपने अन्दर डालना नहीं जानता। स्यालकोट के एक आर्य नेता श्री लाला गंगाराम का ध्यान इनकी ओर गया। उन्होंने इनमें कार्य आरम्भ किया और आगे चलकर इनके सुधारकार्य को व्यवस्थित करने के लिए मेघोद्धार सभा की स्थापना की। मेघोद्धार सभा ने स्यालकोट में इनके लिए एक हाईस्कूल स्थापित किया। सरकार से भूमि क्रय करके मुलतान जिला में इनके लिए एक नगर बसाया। इनकी आर्थिक दशा को उन्नत करने के लिए इनमें कई प्रकार के शिल्पों का प्रचार भी किया। वैसे अधिकतर मेघ कृषि तथा वस्त्र-निर्माण का कार्य ही करते हैं। स्यालकोट जिला में जब कार्य सुव्यवस्थित भित्ति पर समझ लिया गया, तो जम्मू के मेघों की ओर सभा का ध्यान गया। जम्मू में पहले भी कार्य हो रहा था। जम्मू के राजपूतों को दयानन्द के सैनिकों का यह पवित्र कार्य न रुचा और उन्होंने इसका विरोध करना आरम्भ किया। विरोध के सभी प्रकार–सामाजिक बहिष्कार आदि प्रयोग में लाये गये, किन्तु ये सब हथियार बेकार सिद्ध हुए। अन्त में राजपूतों ने इस आन्दोलन का, अपने विचार से मूल ही उन्मूलन करने की ठानी। उन्होंने इस आन्दोलन के एक कार्यकत्र्ता महाशय रामचन्द्र पर जम्मू के समीप बटैहरा ग्राम में जबकि वे अपने किसी निजी कार्य पर जा रहे थे, आक्रमण करके लाठियों के बर्बर प्रहारों से जर्जरित करके अपने विचारानुसार मारकर भाग गये। आर्यसामाजिकों को जब इसका ज्ञान हुआ, वे वहां पहुंचे, रामचन्द्रजी को उन्होंने जम्मू के अस्पताल में पहुंचाया, किन्तु रामचन्द्र के भाग्य में अमरता (बलिदान वा शहीदी) बदी थी। वे उन प्रहारों से बच सके।

 

दलितोद्धार के पवित्र कार्य में आई इस प्रकार की कष्टकथाओं की संख्या बहुत बड़ी है। यह सब दयालु देव दिव्य दयानन्द की दया का परिणाम है कि आज दलित वर्ग अपना माथा ऊंचा कर सका है।

 

भारत विभाजन होने पर कुछ-एक स्वार्थी हरिजन नेताओं ने हरिजनों को पापिस्थान में रहने का असत्परामर्श दिया जबकि ये स्वयं भारत में चले आये। मेघों ने अपने ऐसे स्वार्थी नेताओं के परामर्श को ठुकरा दिया और भारत में चले आये। उनमें से पर्याप्त संख्या अलवर जिले में बसी है। उनके धर्मभाव को देखिए। वहां आने पर उन लोगों ने कहाहम पहले अपने मन्दिर तथा कन्या पाठशालाओं के भवनों का निर्माण करेंगे, रहने के घर पीछे बनवाएंगे। आर्यसमाज ने इनके लिए आर्यनगर बसाया। कुएं खुदवाए। इसी प्रकार संयुक्त प्रान्त (पूर्व का उत्तर प्रदेश और वर्तमान में उत्तराखण्ड) में डोमों की शुद्धि के अतिरिक्त नायक जाति का सुधार एक महत्वपूर्ण कार्य हैं। नायक जाति के लोग अपनी कन्याओं का विवाह न करके उन्हें वेश्यावृत्ति अंगीकार करने पर बाध्य करते थे। आर्यसमाज ने उनमें प्रचार करके उस जाति की काया पलट दी है।

यह सब दयालु दयानन्द की दया का मधुर फल है। इस प्रकार भारत के अन्य प्रान्तों में भी दयानन्द की दया ने अपना चमत्कार दिखाया है और अभी तक दिखा रही है।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का यह उपदेश आर्यसमाज के सभी अधिकारियों व अनुयायियों सहित देश के सभी दलित भाईयों को भी पढ़ना चाहिये। हम अपने अनुभव के आधार पर यह कहना चाहते हैं कि यदि दलित भाई आर्यसमाज के सिद्धान्तों को अपनायेंगे तो उनका सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, शैक्षिक, नैतिक व आर्थिक, सभी प्रकार का सुधार व उन्नति होगी। आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा सिद्धान्त वह पारसमणि है जिसे संसार का कोई भी मनुष्य छूकर साधारण सामान्य स्तर से ऊपर उठकर देवतुल्य मानव बन सकता है और मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हम यह भी बताना चाहते हैं कि आर्यसमाज जन्मना जाति को अस्वीकार करता है। वह जन्मना वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था मानता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों सहित सभी दलित भाईयों व स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकारी मानता है। सबको विद्या के चिन्ह  यज्ञोपवीत सकेंगी प्रदान करता है। वेद एवं वैदिक साहित्य सहित सभी आधुनिक विषयों के आवासीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति से अध्ययन का पोषक व समर्थक है। सबको एक समान, निःशुल्क शिक्षा, समान भोजन व वस्त्र दिये जाने के साथ अध्ययन के बाद उनके गुण-कर्म-स्वभावानुसार विवाह का पोषक है। ऐसा करके ही भारत का विश्व का अग्रणीय राष्ट्र बनाया जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को स्वामी वेदानन्द जी का यह उपदेश पसन्द आयेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व – वेदप्रकाश आर्य

मनुष्य के लिए स्वतन्त्रता का बड़ा महत्त्व है। मनुष्य को मन, वचन, कर्म की स्वतन्त्रता स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। मनुष्य को मनन-चिन्तन-सोच-विचार, बोलने-कहने-अभिव्यक्ति तथा कर्म करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। यह मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक है। ईश्वर भी मनुष्य की इस स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करता।

संसार में कुछ मनुष्य, समूह, राष्ट्र अपने स्वार्थवश अपने छल व बल के द्वारा अन्य मनुष्यों, समूहों व राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का अधिग्रहण करते हैं। यह कार्य प्रतिदिन किसी-न-किसी रूप में चलता रहता है। परन्तु जहाँ कहीं पर स्वतन्त्रता का हनन होता है तो उस स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति के लिए प्रयास, संघर्ष भी शुरू हो जाता है, जो स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति तक निरन्तर चलता रहता है। स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति कितने समय में होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि स्वतन्त्रता का हरण करने वालों और स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रयास-संघर्ष करने वालों का साहस, सामर्थ्य कितना है।

हमारे देश में विदेशी लोगों द्वारा हमारी स्वतन्त्रता के हनन का कार्य ग्यारहवीं सदी में ही शुरू हो गया था, जो बीसवीं सदी के सन् 1947 तक चला। पहले यह कार्य मुगलों द्वारा और बाद में अंग्रेजों द्वारा किया गया। भारतीय अपनी स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति के लिए इस लबे काल में निरन्तर संघर्ष करते रहे। ऐसे लोगों में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह आदि मुगलकाल में प्रमुख थे। बाद में अंग्रेजों के काल में सन् 1857 से 1947 तक महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब, मंगल पाण्डे, महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह आदि अनेक लोगों ने स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति के लिए संघर्ष किया व बलिदान दिया। इस कार्य में महर्षि दयानन्द द्वारा मार्गदर्शन का भी विशेष महत्त्व है। नौ सदियों के लबे संघर्ष व बलिदानों के बाद अन्त में 15 अगस्त सन् 1947 को इस देश के लोगों ने अपनी अपहृत स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त किया। इसीलिए 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस बड़े उत्साह से समारोहपूर्वक पूरे राष्ट्र द्वारा मनाया जाता है। इस प्रकार स्वतन्त्रता दिवस का बहुत ज्यादा महत्त्व है। स्वतन्त्रता छिन जाने के बाद ही स्वतन्त्रता के महत्त्व का अहसास होता है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि हम स्वतन्त्रता के महत्त्व को समझें और स्वतन्त्रता दिवस पर सभी लोग मिलकर विशेष आयोजन करें। फिर से हमारी स्वतन्त्रता का कोई अपहरण न कर सके, इसके लिए निरन्तर उपाय व प्रयास करते रहें, यह अतिआवश्यक है।

एम.एल.-35, एलडिको मैनसन, सैक्टर-48, गुड़गाँव-122018 (हरियाणा)

अध्ययन और अध्यापन की ऋषि निर्दिष्ट विधि – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

(लेखक आर्य जगत् के प्रतिष्ठित विद्वान् थे। सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास के सन्दर्भ में उनके विचार आज भी उतने ही समीचीन हैं। यह लेख लगभग 5 दशक पूर्व का है।)    – सपादक

सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में ऋषि ने इतनी बात कही है-

(1) सच्चा आभूषण विद्या है, वे ही सच्चे माता-पिता और आचार्य हैं, जो इन आाूषणों से सन्तान को सजाते हैं।

(2) आठ वर्ष के हों, तब ही लड़के-लड़कियों को पाठशाला में भेज देना चाहिए।

(3) द्विज अपने घर में लड़के-लड़कियों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य संस्कार करके आचार्य कुल में भेज दें।

(4) लड़के-लड़कियों की पाठशाला एक दूसरे से दूर हो तथा लड़कों की पाठशाला में लड़के अध्यापक हों, लड़कियों की पाठशाला में सब स्त्री अध्यापिका हों, पाठशाला नगर से दूर हो।

(5) सबके तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन हों।

(6) सन्तान माता-पिता से तथा माता-पिता सन्तान से न मिलें, जिससे संसारी चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रक्खें।

(7) राजनियम तथा जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के-लड़कियों को घर में न रख सके।

(8) प्रथम लड़के का यज्ञोपवीत घर पर हो, दूसरा पाठशाला में आचार्य कुल में हो।

(9) इस प्रकार गायत्री मंत्र का उपदेश करके सन्ध्योपासन की जो स्नान, आचमन, प्राणायामादि क्रिया है, सिखावें।

(10) प्राणायाम सिखावें, जिससे बल, पराक्रम जितेन्द्रियता व सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा, स्त्री भी इसी प्रकार योगायास करें।

(11) भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने-चालने, छोटे से व्यवहार करने का उपदेश करें।

(12) गायत्री मन्त्र का उच्चारण,अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करें, परन्तु यह जप मन से करना उचित है।

(13) सन्ध्योपासन जिसको ब्रह्मयज्ञ कहते हैं, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र और विद्वानों के संग, सेवादि से होता है। संध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही काल में करें। ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र ही करना होता है।

(14) ब्राह्मण, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य का उपनयन करे, क्षत्रिय दो का, वैश्य एक का, शूद्र पढ़े, किन्तु उसका उपनयन न करें, यह मत अनेक आचार्यों का है।

(15) पुरुष न्यून से न्यून 25 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहे, मध्यम ब्रह्मचर्य 44 वर्ष पर्यन्त तथा उत्कृष्ट 48 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य रक्खे।

जो (स्त्री-पुरुष) मरण पर्यन्त विवाह करना ही न चाहे तथा वे मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले ही रहें, परन्तु यह बड़ा कठिन काम है।

(16) ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्रों का अयास अधिक प्रयत्न से करावें।

क्योंकि –

क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं।

(17) पाठविधि व्याकरण को पढ़ के यास्कमुनिकृत निघण्टु और निरुक्त छः वा आठ महीने में सार्थक पढ़ें, इत्यादि।

(18) ब्राह्मणी और क्षत्रिया को सब विद्या, वैश्या को व्यवहार-क्रिया और शूद्रा को पाकादि सेवा की विद्या पढ़नी चाहिए। जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिये, वैसे स्त्रियों कोाी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये।

इन 18 सूत्रों को मैं तृतीय समुल्लास के 18 अंग कहूँगा और अति संक्षेप से इसमें दिये हुए बीजों को अंकुरित करने का प्रयास ही किया जा सकता है और वही किया जायगा।

प्रथम यदि इन पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो इनका विभाग इस प्रकार है-

प्रथम दो अंग माता-पिता के प्रति उपदेश हैं। तीसरा जाति-नियम द्वारा गुरु शिष्य के सामीप्य का समर्थक है। चौथा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो ब्रह्मचर्य की रक्षार्थ है। पाँचवाँ बच्चों में समानता तथा सरल जीवन का आधार है। छठा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो निश्चितता उत्पन्न करके गुरु-शिष्य की सामीप्य की पुष्टि करता है। सातवाँ राजनियम तथा जातिनियम द्वारा मोह का निराकरण तथा गुरु-शिष्य के सामीप्य का स्तभ रूप है। आठवाँ सामाजिक नियम द्वारा गुरु-शिष्य के  सामीप्य का पोषक है। नवाँ संध्योपासन द्वारा ईश्वराधीनता का अर्थात् सच्ची स्वाधीनता का शिक्षा में प्रवेश कराना है। दसवाँ तथा 11वाँ बच्चों को सच्ची दिनचर्या द्वारा संयम सिखाना है। 12वाँ विनीत भाव सिखा कर संयम की पुष्टि करता है। 13वाँ 14वाँ भी संकल्प  अथवा व्रत द्वारा संयम का सच्चा रूप उपस्थित करता है। 15वाँाी ब्रह्मचर्य न्यून से न्यून कितना हो यह बता कर संयम को व्यावहारिक रूप देता है। 16वें सूत्र में ब्राह्मण तथा क्षत्रियादि का परस्पर नियन्त्रण है। 17वें सूत्र में व्रतचर्या के लिए समय कैसे मिले, इसलिए आनुपूर्वी नाम का शिक्षा शास्त्र का महान् रहस्य दिया गया है, यथा 18वें में चारों वेदों के अध्ययन की लबी पाठविधि को यथायोग्य रूप से हर ब्रह्मचारी के बलाबल को देखकर पाठविधि कैसे बनाई जाय- इसकी कुञ्जी दी गई है।

शिक्षा का उद्देश्य

इस प्रकार इन अठारह अङ्गों के परस्पर सबन्ध की रूपरेखा देकर हम इन पर दार्शनिक विवेचन आरभ करते हैं। सबसे प्रथम यह देखना है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है। ऋषि ने शिक्षा का उद्देश्य भर्तृहरि महाराज के ‘‘विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः’’ इस श्लोक का उद्धरण देकर किया है। श्लोक का अनुवाद ऋषि के ही शदों में इस प्रकार है-

जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में मग्न रहता, सुन्दरशील स्वभावयुक्त सत्यभाषणादि नियम पालन युक्त और जो अभिमान अपवित्रता से रहित अन्य की मलिनता के नाशक सत्योपदेश और विद्या दान से संसारी जनों के  दुःखों को दूर करने वाले वेदविहित कर्मों से पराये उपकार करने में लगे रहते हैं, वे नर और नारी धन्य हैं।

बस इस प्रकार के धन्य पुरुष उत्पन्न करना शिक्षा का  उद्देश्य है।

भर्तृहरि की खान, ऋषि दयानन्द-सा जौहरी, क्या रत्न ढूँढकर निकाला है!

पहला ही शद ले लीजिये- विद्याविलासमनसः। हमें छात्रों को ब्रह्मचारी बनाना है। ब्रह्चारी के दो ही भोजन हैं, एक विद्या, दूसरा परमात्मा। इस भोजन को कभी-कभी खा लेने से वह ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। जिस प्रकार विलासी मनुष्य यदि वह भोजन का विलासी है, तो उसमें नए से नए रुचिकर व्यञ्जनों का आविष्कार करता रहता है, यदि रूप का विलासी है तो नए से नए शृङ्गारों का आविष्कार करने में ही उसका मन लगा रहता है, उसी प्रकार जब विद्या उसके लिए एक विलास की वस्तु बन जाय, तब ही तो वह ब्रह्मचारी बन सकेगा। परन्तु यह विद्या में रति बिना शील शिक्षा के नहीं प्राप्त हो सकती। शील शिक्षा भी वह जो पूर्णतया धारण कर ली गई हो, अडिग हो, अविचल हो। इसके लिए उसका व्रत धारण करना आवश्यक है। परन्तु ब्राह्मण व क्षत्रियादि के व्रत निश्चल तब ही हो सकते हैं, जब वह सत्य व्रत हों, यह व्रतपरायणता बिना अभिमान दूर किये नहीं हो सकती और अभिमान की परम चिकित्सा है प्रभुाक्ति, वह अािमान ही नहीं और सब मलों को भी दूर करने वाली है। इस भक्ति का आरभ होता है- संसार के दुःख दूर करने में ही गौरव मानने से। दुःख दूर करने से तो भक्ति का मार्ग आरभ होता है, परन्तु उसका पूर्ण चमत्कार तो दुःख दूर करके सच्चा सुख प्राप्त कराने से होता है । यही सबसे बड़ा परोपकार है।

परन्तु दुःखों का निराकरण तथा सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय जाना जाता है वेद से। उसी ने इसका विधान किया है। वेदविहित कर्मों का ठीक  ज्ञान न होने से अज्ञानी मनुष्य परोपकार की भावना से प्रेरित होकर भी अपकार ही तो करेगा, इसलिये विहित कर्मों से ही परोपकार होता है। चलो इन विहित कर्मों के ज्ञान के लिए वेद-वेदाङ्ग का ज्ञान प्राप्त करें। यही शिक्षा का आरा है, इसीलिए कहा-

विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः,

सत्यव्रता रहितमानमलापहाराः,

संसारदुःखदलनेन सुभुषिता ये,

धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः।।

इस प्रकार के धन्य मनुष्य इस प्रकार के गुरु के पास  पहुँचे बिना कैसे प्राप्त हो सकते हैं! इसलिए माता-पिता को उपदेश दिया (1) सांसारिक आभूषणों के मोह को तथा उसके मूल सन्तान के मोह को छोड़ो, सन्तान से प्रेम करना सीखो। यहाँ सबसे पहले मोह और प्रेम में भेद करना सीखना है। अनुराग के दो अङ्ग हैं- हितसन्निकर्षयो-रिच्छानुरागः। इनमें सन्निकर्ष अर्थात् प्रेमपात्र के वियोग को न सहन करना तथा समीप होने की इच्छा जितनी प्रबल होती जायगी, उतना ही अनुराग प्र्रेम की ओर उठता जायगा। यदि सन्निकर्षेच्छा न हो तो माता बच्चे के लिए रातों जाग नहीं सकती, परन्तु हितेच्छा न हो तो गुरुकुल नहीं भेज सकती। इसीलिए कहा कि पाँचवें वर्ष तक सन्निकर्षेच्छा समाप्त हो ही जानी चाहिए। यदि सन्तान की दुर्बलता आदि किसी अन्य कारण से सन्तान का माता-पिता के पास रहना आवश्यक भी हो तो 8 वें वर्ष तक तो राजनियम से बच्चे को माता-पिता से पृथक् कर ही देना चाहिए। यही नहीं, गुरु के पा जाने पर मोहवृद्धि कारक माता-पिता का मिलना तथा पत्र-व्यवहार आदि भी बन्द हों, जिससे गुरु शिष्य में वह सामीप्य उत्पन्न हो जाय, जिसका वेद ने इन शदों में वर्णन किया है-

आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणाम् कृणुते र्गामन्तः।

अथर्व. 11काण्ड

हमें विद्यार्थियों को न्याय सिखाना है, इसलिये सबसे पहले उनके साथ न्याय होना चाहिये। न्याय के दो सिरे हैं, निर्णय के पूर्व समान व्यवहार, निर्णय के पश्चात् यथायोग्य व्यवहार । शिक्षा के आरभ-काल में निर्णय नहीं हो सकता। इसलिए उस काल में सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जावें। इस प्रकार सच्ची समानता उत्पन्न की गई है।

यह समानता दो प्रकार से उत्पन्न की जा सकती है। एक नाना प्रकार के ऐश्वर्य की सामग्री सबको देकर, दूसरे सबको तपस्वी बनाकर । राजा के पुत्र को अपरिग्रही के समान रखकर अथवा परिग्रही को राज-तुल्य वैभव देकर। परन्तु ब्रह्मचर्य जिनकी शिक्षा का आधार है, वे सरलता द्वारा ही समानता उत्पन्न करेंगे, इसलिये तप तथा अपरिग्रह की शिक्षा दी गई है।

शिक्षा का तीसरा आधार स्वाधीनता है, परन्तु स्वाधीनता वस्तुतः ईश्वराधीनता से प्राप्त होती है। जो अपने-आपको ईश्वर के अधीन कर देता है, वह फिर न प्रकृति के अधीन होता है न विषयों के। जिस प्रकार स्वेच्छापूर्वक स्वयं चुने हुए विमान पर चढ़ने से मनुष्य की गति में तीव्रता तो अवश्य आ जाती है। इसी प्रकार स्वेच्छापूर्वक प्रभु समर्पण द्वारा मनुष्य अनन्त शक्ति का स्वामी तो हो जाता है, परन्तु पराधीन नहीं होता, इसीलिये ऋषि दयानन्द ने इस समुल्लास में शिक्षा का आरभ सन्ध्योपासन से किया है। इसी प्रकार देवयज्ञ की व्याया में उन्होंने देवयज्ञ के दो रूप दिये हैं- एक अग्निहोत्र, दूसरा विद्वानों का संगसेवादि। गुरु के तथा विद्वानों के संग-सेवादि से मनुष्य स्व को पहिचानता है। जिसने स्व को ही नहीं पहिचाना, वह स्वाधीन क्या होगा? स्वाधीन शद का दूसरा अर्थ आत्मीयों की अधीनता है। जीव का सबसे बड़ा आत्मीय उस वात्सल्य सागर प्रभु से बढ़ कर कौन हो सकता है, सो सन्ध्योपासन तथा अग्निहोत्र दोनों ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में स्वाधीनता दिलाने वाले हैं। अब हम संयम की ओर आते हैं, यह ब्रह्मचर्याश्रम है, हमें शक्ति के महास्रोत तक पहुँचना है, वहीं सुख है, वहीं शान्ति है, वहीं नित्यानन्द है। नित्य कैसे? मनुष्य का सुख दो प्रकार समाप्त हो जाता है। भोग्य पदार्थ की समाप्ति से या भोक्ता की रसास्वादन शक्ति की समाप्ति से, परन्तु जब जीव प्रकृति के माध्यम बिना सीधा प्रभु से रस लेने लगता है तो न भोग्य सामग्री समाप्त होती है, न भोक्ता की रसास्वादन शक्ति, बस इस अवस्था तक प्राणिमात्र को पहुँचाने के लिए मनुष्य मात्र को जीव और ईश्वर के बीच जाने वाले व्यवधानों से पूर्णतयामुक्त करके कैवल्य (ह्रठ्ठद्यब्ठ्ठद्गह्यह्य)तक पहुँचाना ही शिक्षा का उद्देश्य है। यह उद्देश्य इस समुल्लास में किस प्रकार पूरा किया गया है, अब हमें यह देखना है।

शिक्षा का केन्द्रः आचार

सबसे प्रथम जो बात समझने की है वह यह है कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में शिक्षा का केन्द्र आचार शक्ति है, विचार शक्ति नहीं, इसीलिये वैदिक भाषा में गुरु को आचार्य कहते हैं , विचार्य नहीं। विचार साधन हैं, आचार साध्य है, क्योंकि इसके द्वारा ही मनुष्य ब्रह्म में विचरता-विचरता पूर्णतया ब्रह्मचारी हो जाता है और जब तक वह इस ध्येय तक नहीं पहुँच जाता है, तब तक के लिए उसे एक ही आज्ञा है ‘‘चरैवेति चरैवेति’’।

परन्तु विचार का क्षेत्र उसका चरने का क्षेत्र है। वह नाना प्रकार के विषयों में इन्द्रियों द्वारा विचरता हुआ विषयरूपी घास से ज्ञानरूपी दूध बनाता रहता है, परन्तु व्रत के खूँटे से बँधा होने के कारण कभी गोष्ठ-भ्रष्ट अथवा देवयूथ-भ्रष्ट नहीं होने पाता। इन्द्रियों का क्षेत्र उसके चरने का क्षेत्र है, परन्तु व्रत उसके बँधने का स्थान है। वह व्रत का खूँटा भगवान में गड़ा रहता है, इसलिए वह कभी भ्रष्ट नहीं होने पाता। इस शिक्षा-पद्धति में उसका दो बार यज्ञोपवीत किया जाता है, एक माता-पिता के घर में, दूसरा आचार्य कुल में। ब्राह्मण को संसार में अविद्या के नाश तथा सत्य के प्रकाश का व्रत धारण करना है।

क्षत्रिय को अन्याय के नाश तथा न्याय की रक्षा का व्रत धारण करना है। वैश्य को दारिद्र्य के नाश तथा प्रजा की समृद्धि की रक्षा का व्रत धारण करना है। इस यज्ञ अर्थात् लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बँधना है, इसीलिए इस बंधन का नाम यज्ञोपवीत है, अर्थात् वह रस्सा जो मनुष्य को लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बाँधने के लिए बनाया गया हो, प्रथम यज्ञोपवीत में माता-पिता उसे किस खूँटे के साथ बाँधना चाहते हैं, उनकी इस इच्छा का प्रकाश है।

परन्तु यह व्रत है, स्वेच्छापूर्वक चुना जाने वाला व्रत है, इसलिए आचार्य की अनुमति से ब्रह्मचारी इसे बदल भी सकता है, इसलिए आचार्य कुल में दूसरी बार यज्ञोपवीत किया जाता है। इस व्रत का मूल्य चुकाने मनुष्य को समाज में, सेना में तथा गृहस्थाश्रम में तो जाना है। संसार का हर सैनिक किसी न किसी रूप में झण्डे के सामने शपथ लेता है और हर दपती किसी न किसी रूप में एक दूसरे के साथ बँधे रहने की शपथ लेते हैं, परन्तु इस शपथ का लाभ शिक्षा -शास्त्र में लेना यह केवल वैदिक लोगों को ही सूझा। इसके बिना शिक्षा लक्ष्यहीन तीर चलाने के समान है। कोई तीर अचानक लक्ष्य पर भी जा लगता है।

विद्यायास कै से ?

अब आइये विद्यायास की ओर। इस क्षेत्र में सबसे प्रथम तो मनुष्य को प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा परीक्षा करने का ज्ञान होना चाहिए, फिर भाषा का, फिर अन्य शास्त्रों का; यही क्रम यहाँ रक्खा गया है। परन्तु सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस क्रम में आनुपूर्वी है। पहले व्याकरण पढ़े, फिर निरुक्त छन्द आदि-यह आनुपूर्वी क्यों रक्खी गई है? आजकल की शिक्षा पद्धति में एक विद्यार्थी प्रतिदिन 8 या 10 विषय तक पढ़ता है। इस प्रणाली में उसे गुरु-सेवा, आश्रम-सेवा, चरित्र-निर्माण आदि के लिये कोई समय ही नहीं मिलता, इसलिये प्रतिदिन मुय रूप से लगातार कुछ समय तक-एक समय तक एक विषय को पढ़ कर समाप्त करे, फिर दूसरा विषय आरभ करे। इस क्रम से पढ़ने से उसे गुरु-सेवा, पशु-पालन, चरित्र-निर्माण इन सबके लिए पूरा समय मिलता है और इस प्रकार शिक्षा के मुय अंग आचार-निर्माण की पूर्णता होती है; जिससे आचार्य (आचारं ग्राहयति) को आचार्यत्व प्राप्त होता है।

यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है। ऋषि ने लिखा है कि पुरुषों को व्याकरण, धर्म और एक व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिये।

इस अत्यन्त मूल्यवान पंक्ति की ओर ध्यान न देने से आज आर्ष पद्धति के नाम पर सहस्रों विद्यार्थियों के  जीवन नष्ट हो रहे हैं।

ऋषि ने चारों वेदों की पाठविधि तो दी है, परन्तु चारों वेदों का पण्डित होना हर एक विद्यार्थी के लिये आवश्यक नहीं ठहराया, उलटा मनु का प्रमाण देकर लिखा है-

षट्त्रिंशदादिके चर्यं गुरौ त्रैवेदिक व्रतम्।

तदर्धम् पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव  वा।।

ब्रह्मचर्य 36 वर्ष, 18वर्ष अथवा 9 वर्ष का अथवा जितने में विद्या ग्रहण हो जाये, उतना रक्खे।

इसको पुरुषों को व्याकरण, धर्म तथा एक व्यवहार की विद्या के  साथ मिला कर पढ़िये। इसका भाव यह है कि व्याकरण तथा धर्म-शास्त्र पढ़ना सब के लिए आवश्यक है। धर्म-ज्ञान के लिए जितना व्याकरण पढ़ना आवश्यक है, सो तो सब पढ़ें; इससे विशेष व्याकरण उस विद्या को दृष्टि में रख कर पढ़ें जो उनकी व्यवहार की विद्या है। इसलिए जिसे विद्युत शास्त्र अथवा भौतिक विज्ञान अथवा इतिहास पढ़ना है, उसे महाभाष्य पर्यन्त व्याकरण पढ़ना क्यों आवश्यक है- यह बिल्कुल समझ में नहीं आता, परन्तु आजकल आर्ष पद्धति के नाम पर जो सब बालकों को जबरदस्ती महाभाष्य पढ़ाया जाता है, इससे उन विद्यार्थियों में से बहुतों का जीवन नष्ट होता है और आर्ष पद्धति व्यर्थ बदनाम होती है। ऋषि ने अधिकतम और न्यूनतम दोनों पाठविधि दे दी है, विद्यार्थी की उचित शक्ति के अनुसार हर विद्यार्थी का पृथक् -पृथक् पाठ्यक्रम होना चाहिये । इसीलिए गुरु-शिष्य का सदा एक साथ रहना आवश्यक समझा गया है, जिससे गुरु-शिष्य की रुचि तथा शक्ति दोनों की ठीक परीक्षा करके यथायोग्य पाठविधि बना सके। यहाँ यथायोग्यवाद के स्थान में सायवाद का प्रयोग अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हो रहा है।

अन्त में हम इस बात की ओर फिर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में संयम अर्थात् ब्रह्मचर्य का स्थान विद्या से ऊँचा माना गया है। संयमहीन शिक्षा कुशिक्षा है, इसलिए संध्योपासन, आनुपूर्वी का पाठ्य-क्रम तथा यज्ञोपवीत संस्कार तीनों ही विद्यार्थी को परमात्मा का भक्ति-दान करके ब्रह्मचारी बना देते हैं। इस संयम की जितनी महिमा गाई जाय, सो थोड़ी है। इस प्रकार यह 18 के 18 अंग जो इस समुल्लास में पाँच सकारों में परिणत हो जाते हैं, उन पाँच सकारों के नामोल्लेख के साथ ही इस लेख को समाप्त करते हैं-

समानता सरलता सामीप्यम् गुरुशिष्ययोः।

स्वाधीन्यं संयमञ्चैव सकाराः पञ्च सिद्धिदाः।।

 

‘यज्ञ का महत्व एवं याज्ञिकों को इससे होने वाले लाभ’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, ईश्वरीय ज्ञान है जिसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर प्रदत्त यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद सभी मनुष्यों के लिए यज्ञ करने का विधान करते हैं। ऋग्वेद के मन्त्र 1/13/12 मेंस्वाहा यज्ञं कृणोतनकहकर ईश्वर ने स्वाहापूर्वक यज्ञ करने की आज्ञा दी है। ऋग्वेद के मन्त्र 2/2/1 मेंयज्ञेन वर्धत जातवेदसम्कहकर यज्ञ से अग्नि को बढ़ाने की आज्ञा है। इसी प्रकार यजुर्वेद के मन्त्र 3/1 मेंसमिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्कहकर समिधा से अग्नि को पूजित करने घृत से उस अग्निदेव अतिथि को जगाने की आज्ञा है।सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’ (यजुर्वेद 3/2) के द्वारा आज्ञा है कि सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो। यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है और सभी मनुष्यों प्राणियों को उसी ने जन्म दिया है। अतः ईश्वर सभी मनुष्यादि प्राणियों का माता, पिता आचार्य  है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही मनुष्य का धर्म है और करना ही अधर्म है। इस आधार पर यज्ञ करना मनुष्य धर्म और जो नहीं करता वह अधर्म करता है।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञों की चर्चा की है। अग्निहोत्र एक नैत्यिक कर्तव्य है जो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार सभी को करना होता है। अन्य यज्ञों को करने के सभी अधिकारी हों, ऐसा नहीं है। लाभों का ज्ञान होने पर भी वैदिक विधान होने से ही अग्निहोत्र सबको करणीय है। लाभ जानकर किया जाए तो उसमें अधिक श्रद्धा होती है। उन लाभों को प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है और उसके लिए मनुष्य प्रयत्न भी करता है। अतः वेदादि शास्त्रों ने भी तथा स्वामी दयानन्द जी ने भी यज्ञ एवं अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ बताए हैं। इन लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामथ्र्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि दर्शाए गए हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन किया गया है। यहां शंका यह हो सकती है कि क्योंकि प्रत्येक अग्निहोत्री को ये फल प्राप्त नहीं होते, अतः यह फल श्रुति मिथ्या है। इसलिए इसका विवचेन किया जाना आवश्यक है।

 

यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रकार के वे लाभ हैं, जो होम से स्वतः प्राप्त हो सकते हैं, यथा वायुशुद्धि, जलशुद्धि, स्वास्थ्य-प्राप्ति, इन्द्रिय-सामथ्र्य, दीर्घायुष्य आदि। यदि अग्नि में यथोचित मात्रा में सुगन्धित, मिष्ट, पुष्टिप्रद एवं रोगहर द्रव्यों का होम किया गया है, तो यजमान चाहे या न चाहे, इन लाभों के प्राप्त होने का अवसर रहता ही हैं। शीत ऋतु में गुड़, मेथी, सोंठ, अजवाइन, गूगल जैसी साधारण वस्तुओं के होम से ही गृह-सदस्यों को सर्दी के अनेक रोगों से बचाव और छुटकारा मिलता देखा गया है। दूसरे प्रकार के लाभ वे हैं, जो अग्निहोत्री यजमान के इच्छा, प्रेरणाग्रहण एवं प्रयत्न पर निर्भर हैं। यदि यजमान मन्त्रों के अर्थ का अनुसरण करता हुआ परमेश्वर के एवं परमेश्वररचित यज्ञाग्नि के परमेश्वरकृत गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ उन्हें अपने अन्दर धारण करने का व्रत लेता है और तदर्थ प्रयत्न करता है, तो वह सन्मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि प्राप्त करेगा, पापकर्मों से बचेगा, सदाचारी बनेगा, तेजस्वी एवं यशस्वी होगा और मोक्षप्राप्ति के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा लेगा, तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। यदि कोई यजमान इन लाभों को पाने का प्रयत्न ही नहीं करता, सूखे मन से आहुतिमात्र देता है, फलतः उसे यह लाभ प्राप्त नहीं होते, तो उसमें यज्ञ का दोष नही है।

 

जहां तक बड़े-बड़े रोगों को दूर करने, महामारियां रोकने आदि का प्रश्न है, प्राचीन काल में इस प्रकार के यज्ञ होते रहे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टियां भी की जाती रही हैं। इनकी सफलता कुछ तो मनोबल, श्रद्धा एवं आशावादिता पर निर्भर है, दूसरे अधिक योगदान इस बात का है कि कौन-सी ओषधियों से होम किया जाता है। जैसे अन्य चिकित्सा-पद्धतियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, जल-चिकित्सा, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि हैं, वैसे ही अग्निहोत्रचिकित्सा भी एक वैज्ञानिक पद्धति है। अग्निहोत्र-चिकित्सा द्वारा वेदोक्त रोगकृमि-विनाश, ज्वर-चिकित्सा, उन्माद-चिकित्सा, गण्डमाला-चिकित्सा एवं गर्भदोष-चिकित्सा की जाती है जो सफल परिणामदायक होती है। इस विषय में मार्गदर्शन हेतु यज्ञ विषयक ग्रन्थों का अनुशीलन किया जाना चाहिये। इस विषय से सम्बन्धित आर्यजगत के विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार जी की यज्ञ मीमांसा पुस्तक विशेष रूप से लाभदायक है। इस पुस्तक में विद्वान लेखक ने यज्ञ के विभिन्न पक्षों पर सात अध्यायों में बहुमूल्य जानकारी दी है। पहला अध्याय यज्ञ और अग्निहोत्र विषय में सामान्य विचार से सम्बन्धित है। दूसरा अध्याय वैदिक यज्ञ-चिकित्सा पर है। तीसरा अग्निहोत्र के प्रेरक तथा लाभ-प्रतिपादक वेदमन्त्रों पर, चौथा अग्निहोत्र की विधियों तथा मन्त्रों की व्याख्या, पांचवा अध्याय बृहद् यज्ञ के विशिष्ट मन्त्रों पर तथा षष्ठ अध्याय आत्मिक अग्निहोत्र एवं अग्निहोत्र के भावनात्मक लाभों पर है। अन्तिम सातवां अध्याय यज्ञ एवं अग्निहोत्र-विषयक सूक्तियों पर है। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से यज्ञ विषयक सभी पक्षों का ज्ञान होता है। यह ग्रन्थ सभी यज्ञ प्रेमी पाठकों के लिए पढ़ने योग्य है। यज्ञ के प्रति पाठकों में जागृति उत्पन्न हो और वह स्वस्थ रहते हुए यशस्वी जीवन व्यतीत करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हों, इस लिए यह कुछ संक्षिप्त उल्लेख किया है। इस लेख की समस्त सामग्री डा. रामनाथ वेदालंकार जी की पुस्तक यज्ञमीमांसा पर आधारित है। उनका पुण्यस्मरण कर उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं।

 

दैनिक अग्निहोत्र नैत्यिक कर्तव्य है। कुछ लोग घरों में नियम से दोनों समय या एक समय दैनिक अग्निहोत्र करते हैं। कुछ लोग आर्यसमाजों में होनेवाले सामूहिक दैनिक या साप्ताहिक अग्निहोत्र में सम्मिलित होते हैं, घर पर अग्निहोत्र नहीं करते। स्वामी दयानन्द ने अपनी संस्कारविधि पुस्तक में घृत की प्रत्येक आहुति न्यूनतम छः माशे की लिखी है। वह धृत भी कस्तूरी, केसर, चन्दन, कपूर, जावित्री, इलायची आदि से सुगन्धित किया होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुगन्धि, मिष्ट, पुष्ट एवं रोगनाशक द्रव्यों की हवन-सामग्री होनी चाहिये। समिधाएं भी चन्दन, पलाश, आम आदि की होनी चाहिएं। उन्होंने अग्निहोत्र के जो लाभ अपने ग्रन्थों में लिखे हैं, वे घर-घर होने वाले इसी प्रकार के अग्निहोत्र की दृष्टि में रखकर हैं। इस प्रकार का अग्निहोत्र हो, तो उसमें दोनों समय का मिलाकर काफी दैनिक व्यय होने का अनुमान है। इतना व्यय करने का सामथ्र्य और उत्साह विरलों का ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार जैसा भी बन पड़े होम करना उचित है। हव्य चारों प्रकार के होने चाहिएं, जिसमें वायु मण्डल सुगन्धित तथा रोगहर ओषधियों के अणुओं से युक्त हो तथा उसमें श्वास लेने से लाभ पहुंचे। जो एक काल के ही व्रत का निर्वाह करना चाहें, वे वैसा कर सकते हैं। अग्नि प्रज्जवलित रहे ओर धुआं न उठे, ऐसा प्रयास होना चाहिए। यह विचार पूज्य आचार्यप्रवर पं. रामनाथ वेदालंकार जी के हैं। आशा है कि पाठक यज्ञ विषयक इस लेख में प्रस्तुत विचारों से लाभान्वित होंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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हाँ, वेद में गो हत्यारे को मारने का आदेश है: डॉ. धर्मवीर

आजकल गो मांस खाने, न खाने को लेकर तथाकथित साहित्यकार, मानव अधिकारवादी, प्रगतिशील और कांग्रेस समर्थक राजनैतिक लोग प्रतिदिन ही शोर करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि इनको गाय, घोड़े से कुछ भी लेना देना नहीं है, इनका उद्देश्य हिन्दू विरोध है। इस देश में गत साठ वर्षों तक जो लोग सत्ता के साथ रहे और वहाँ से लाभ उठाते रहे, आज उनका सत्ता सुख छिन गया तो चिल्ला रहे हैं। यदि इन लोगों के अन्दर थोड़ी भी संवेदनशीलता या मनुष्यता होती तो जो कुछ आज मुस्लिम देशों में हो रहा है, उसका विरोध करने का साहस अवश्य करते। मूल रूप से ये लोग पाखण्डी हैं, इनको हिन्दू विरोध करने का आर्थिक लाभ मिलता था, मोदी सरकार के आने से वह बन्द हो गया, इस कारण इनका यह पीड़ा-प्रदर्शन उचित ही है। हिन्दू विरोध के नाम पर राष्ट्रद्रोह करना इनका स्वभाव बन चुका है।

जो लोग ऐसा कहते हैं कि हिन्दू लोग गौ की तुलना में मनुष्य का मूल्य नहीं समझते, किसी ने किसी जानवर को मार दिया तो क्या हो गया, जानवर का मनुष्य के सामने क्या मूल्य है? संसार के सभी प्राणी मनुष्य के लिए ही बने हैं। उन्हें मारने-खाने में कोई अपराध नहीं होता। संसार की सभी वस्तुयें मनुष्य के उपयोग के लिये बनी हैं, इसका यह अभिप्राय तो नहीं हो सकता कि आप उन्हें नष्ट कर दें। संसार के प्राणी भी मनुष्य के लिये हैं तो इनको मारकर खा जाना ही तो एक उपयोग नहीं है। पहली बात, जो भी संसार की वस्तुयें और प्राणी हैं, वे सभी मनुष्यों की साझी सपत्ति हैं, सबके लिये उनका उपयोग होना चाहिए। सबका हित सिद्ध होता हो, ऐसा उपयोग सबको करना उचित है। संसार की वस्तुओं का श्रेष्ठ उपयोग मनुष्य की बुद्धिमत्ता की कसौटी है। कोई मनुष्य घर को आग लगाकर कहे कि लकड़ियाँ तो मेरे जलाने के लिये ही हैं। लकड़ियाँ जलाने के काम आती है, परन्तु घर बनाने के भी काम आती हैं, उनका यथोचित उपयोग करना मनुष्य का धर्म है।

कोई भी मनुष्य किसी का अहित करके अपना हित साधना चाहता है तो उसको ऐसा करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। समाज में व्यक्तिगत आचरण की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सामाजिक परिस्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अधीन चलना होता है। जो लोग गाय का मांस खाने को अधिकार मानते हैं, वे मनुष्य का मांस खाने को भी अधिकार मान सकते हैं। समाज में कोई ऐसा करता है तो उसे अपराधी माना जाता है, उसे दण्डित किया जाता है, जैसा निठारी काण्ड में हुआ है। वैसे ही गाय भारत में हिन्दू समाज में न मारने योग्य कही गई है। आप कानून व नियम का विरोध करके गो मांस खाने को अपना अधिकार बता रहे हैं। एक वर्ग-बहुसंयक वर्ग जब गौ हत्या की अनुमति नहीं देता, तब यदि आप ऐसा करते हैं तो देश और समाज से द्रोह करना चाह रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में जब एक वर्ग नियम को मानने से इन्कार करता है तो दूसरा वर्ग भी नियम तोड़ने लगता है, जैसा कश्मीर में हुआ, यदि गोहत्या करना, गोमांस खाना इंजीनियर रशीद का अधिकार है तो गाय की रक्षा करने का और गोहत्यारे को दण्डित करना भी हिन्दू का अधिकार है। ये दोनों स्थिति समाज में अराजकता उत्पन्न करने वाली हैं, समाज के हित में नहीं है। हमें समाज के हित को सर्वोपरि रखना होगा। यदि गोहत्या करके एक अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता है तो दूसरा सूअर को लेकर आपकी भावनाओं को आहत करता है। यह संघर्ष निन्दनीय है।

जो लोग गोहत्या के पक्षधर हैं, वे अपने भोजन की चिन्ता में पूरे समाज के भोजन पर संकट उत्पन्न कर रहे हैं। गाय का मांस तो कुछ लोगों की आवश्यकता है, परन्तु गाय का दूध पूरे समाज की आवश्यकता है। यह मांस खाने वालों की भी आवश्यकता है। इन लोगों के मांस खाने से समाज में आज दूध का भयंकर संकट उत्पन्न हो गया है। आपको अपने परिवार में दूध चाहिए या नहीं, छोटे बच्चों को दूध चाहिए, बड़ों को, रोगियों को दूध चाहिए। घर में दूध, दही, मक्खन, घी, मिठाई, मावा, खीर, पनीर आदि में प्रतिदिन जितने दूध की आवश्यकता है, दूध का उत्पादन उसकी अपेक्षा बहुत थोड़ा हो रहा है, इसीलिये दूध, दही, मावा, पनीर, मिठाई में सब कुछ नकली आ रहा है। दूध से बनी हर वस्तु में आज मिलावट है, क्योंकि गौहत्या के निरन्तर बढ़ने से गाय, भैंस आदि पशु घट गये हैं। यदि यही क्रम जारी रहा तो आपके लिये सोयाबीन का आटा घोलकर पीने के अतिरिक्त कोई उपाय ही नहीं बचेगा।

गोमांस खाने और गोमांस के व्यापार के कारण देश गहरे संकट की ओर जा रहा है। भोजन में गोदुग्ध के पदार्थों को निकाल दिया जाय तो भोजन में कुछ बचता नहीं है। हम समझते हैं कि कारखानों, उद्योगों से समृद्धि आती है, समृद्धि का वास्तविक आधार पशुधन है। मनुष्य की जितनी आवश्यकताओं की पूर्ति पशुओं से प्राप्त होने वाली वस्तुओं से होती है, उतनी अन्य पदार्थों से नहीं होती। जीवित पशु हमें अधिक लाभ पहुँचाते हैं, मरकर तो पहुँचाते ही हैं। स्वयं मरे पशु का उपयोग कम नहीं अतः पशुवध की आवश्यकता नहीं है। गोदुग्ध और उससे बने पदार्थ जहाँ मनुष्य के लिये बल, बुद्धि के बढ़ाने वाले होते हैं, वहाँ मांस तमोगुणी भोजन है, इसलिये महर्षि दयानन्द ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है। इस भारत के नाश के लिये अंग्रेजों ने हमारी समृद्धि के दो सूत्र समझे थे और उनका पूर्णतः नाश किया था। प्रथम हमारी शिक्षा, हमारे विचार और चिन्तन के उत्कर्ष का आधार थी, उसे नष्ट किया तथा दूसरा पशुधन विशेष रूप से गाय जो हमारी समृद्धि का मूल थी, उसका नाश कर इस देश को दरिद्र बना गये। उन्हीं के दलालों के रूप में जो लोग इस देश में उन्हीं से पोषण पाते हैं, उन्हीं के इशारे पर काम करते हैं, उन्हीं का षड़यन्त्र है। वे गोमांस खाने  जैसी बातें उठाकर विवाद उत्पन्न करते हैं, विदेशों में देश की छवि खराब करते हैं।

गाय हमारे बीच हिन्दू-मुसलमान की पहचान नहीं है, गाय तो सब की है। गाय उपयोगिता की दृष्टि से दूध न देने पर भी उपयोगी है। उसके गोबर से खाद और गोमूत्र से औषध का निर्माण होता है। पिछले दिनों गाय पर किये जा रहे अनुसन्धानों ने सिद्ध कर दिया है कि गाय न केवल हमारी भोजन की समृद्धि को अपने दूध से बढ़ाती है, अपितु खेती की उर्वरा-शक्ति का संरक्षण भी गोबर की खाद से करती है। गोमूत्र से अमेरिका जैसे देश केंसर की दवा का निर्माण करते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में गाय की रक्षा के लिये बहुत प्रयत्न किया था। स्वामी जी ने गोहत्या के विरोध में करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने और गोहत्या बन्द करने का आन्दोलन चलाया था। स्वामी जी ने गोकरुणानिधि में एक गाय के जीवन भर के दूध से कितने लोगों का पालन-पोषण होता है तथा एक गाय के मांस से एक बार में कितने लोगों का पेट भरता है, इसकी तुलना करके गौ का अर्थशास्त्र समझाया था। गाय को हिन्दुओं ने पवित्र माना, यह केवल एक धार्मिक भावना का प्रश्न नहीं है। आज गाय के दूध के गुणों के कारण भारतीय गायों की नस्ल का संरक्षण ब्राजील और डेन्मार्क जैसे देशों में किया जा रहा है। वहाँ गौ संवर्धन का कार्य बड़े व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में हमारे देश में यह विवाद निन्दनीय और चिन्ताजनक है। भारतीय गायों की तुलना में विदेशी नस्ल की गायों के दूध में कितना विष है, इसका बहुत बड़ा अनुसन्धान हो चुका है। भारतीय गाय आज समाप्त होने के कगार पर है। ऐसी परिस्थिति में यह विवाद स्वयं प्रेरित नहीं कहा जा सकता। जो सामाजिक ताने-बाने को तोड़कर राष्ट्र की प्रगति को रोकना चाहते हैं, यह ऐसे लोगों का काम है।

भोजन की स्वतन्त्रता के नाम पर जो कानून को तोड़ना चाहते हैं, उन्हें यह भी अवश्य ही ज्ञात होगा कि स्वतन्त्रता की बात तो तब आती है, जब आपके पास कोई वस्तु  सुलभ हो। यदि कोई यह समझता है कि उसे गोमांस खाने की स्वतन्त्रता और अधिकार है तो क्या गोमांस खाने वालों के अधिकार से गोदुग्ध पीने वालों का अधिकार समाप्त हो जाता है। गोमांस और गोदुग्ध के अधिकार में गोमांस खाने की बात करना, दिमागी दिवालियेपन की पहचान है। नई वैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध किया है कि प्राणियों की हिंसा और निरन्तर बढ़ रही क्रूरता से पृथ्वी का पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। प्राणियों की हत्या करने का कार्य नई तकनीक और विज्ञान के प्रयोग से बहुत बड़े स्तर पर चलाया जा रहा है, उसमें क्रूरता भी उतनी ही बढ़ गई है। मनुष्य चमड़े के लोभ में पशुओं के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करता है और भोजन के नाम पर पशुओं को यातनायें देता है। इन यातनाओं से मनुष्य का स्वभाव क्रूर होता है। आजकल हमारे समाज में बच्चों से लेकर बड़ों तक, ग्राम से नगर तक सबके स्वभाव में असहिष्णुता और क्रूरता का समावेश हुआ है, उसका मुय कारण हमारे व्यवहार में आई हुई हिंसा है। जिन धर्मों में दया और संयम का स्थान नहीं है, उनको धर्म कहना ही उचित नहीं है, अहिंसा और संयम के बिना समाज में कभी भी मर्यादाओं की रक्षा नहीं की जा सकती। गौ आदि प्राणियों के रक्षण और पालन से समृद्धि के साथ सद्गुणों का भी समावेश होता है।

कुछ लोग गाय को माता कहने का मजाक बनाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि इन शदों का भावनात्मक मूल्य क्या है? भारतीय जब भी संसार के पदार्थों के गुणों को समझते हैं और उनसे लाभ उठाते हैं, उनके साथ आत्मीय भाव विकसित करते हैं। जिनके साथ मनुष्य का आत्मीय भाव होता है, मनुष्य उनकी रक्षा करता है, उन वस्तुओं से प्रेम करता है। हिन्दू भूमि को माता कहता है, गाय को माता कहता है, अपना पालन-पोषण करने वाली धरती आदि को माता कहता है। सबन्धों में बड़े गुरु, राजा आदि की पत्नी को माता कहता है। यह शद समान और उसके प्रति कर्त्तव्य का बोध कराने वाला है।

जो लोग गाय का मांस खाने को अपना अधिकार बताते हैं और तर्क देते हैं कि ईश्वर ने पशुओं को मनुष्य के खाने के लिये बनाया है, उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या सूअर को ईश्वर ने न बनाकर क्या मनुष्य ने बनाया है और सूअर भी यदि ईश्वर ने बनाया है तो क्या ईश्वर अपवित्र वस्तु व प्राणी बनाता है? वस्तु व प्राणियों की पवित्रता-अपवित्रता मनुष्य की अपेक्षा से होती है। परमेश्वर के लिये सारी रचना पवित्र ही है। जहाँ तक मनुष्य अपने को पवित्र समझें तो उन्हें योग दर्शन की पंक्ति का स्मरण करना चाहिए- मनुष्य का शरीर जन्म से मृत्यु तक अपवित्रता का पर्याय है। फिर कोई प्राणी रचना से कैसे पवित्र-अपवित्र है, परमेश्वर की साी रचना पवित्र है। मनुष्य अपने ज्ञान, रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार वर्गीकरण कर लेता है।

आज गौ को बचाने के लिए गोमांस के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता है। विदेशों में, विशेषकर खाड़ी के देशों को मांस का निर्यात होता है, मांस के व्यापारी धन के लोभ में अधिक-अधिक गोमांस का निर्यात कर रहे हैं। इस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। राज्य व्यवस्था में गोहत्या राज्य का विषय होने से प्रशासन में एक मत नहीं हो पा रहा है। भाजपा शासित राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबन्ध और इस अपराध के लिये दण्ड विधान है, दूसरे राज्यों में नहीं। इस कार्य को करने की आवश्यकता है।

अब एक बात सोचने की है, गोहत्यारे को मृत्युदण्ड बयान विवादित कैसे है? वेद में तो हत्यारे को मारने का विधान स्पष्ट है, विवादित बयान उनका हो सकता है जो लोग वेद में गो हत्या करने का विधान बताते हैं। वेद में हत्या का विधान होने से गो हत्यारे की हत्या तो हो नहीं जायेगी, क्योंकि भारत का शासन वेद के नियम से तो चलता नहीं है। यह तो भारत के संविधान से चलता है। कुरान में लिखा है कि काफिर को मारने वाले को खुदा जन्नत देता है, तो क्या लिखा होने से भारत में इसे लागू कर देंगे? वेद और कुरान में जो लिखा है, लिखा रहने दें, इससे परेशान होने की क्या आवश्यकता है, वेद तो कहता है- यदि कोई तुहारे गाय, घोड़े, पुरुष की हत्या करता है तो सीसे की गोली से मार दो। मन्त्र इस प्रकार है-

यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नासो अवीरहा।

– अथर्ववेद 1/16/4

– धर्मवीर