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क्या अर्जुन के रथ पर हनुमान जी विद्यमान थे ?

अर्जुन के रथ में जो पताका थी, उसमे केवल हनुमान जी ही स्थापित थे – ऐसा महाभारत नहीं कहती –

जैसे आज भी हम बहुत से अत्याधुनिक मिसाइल, फाइटर प्लेन , एयरक्राफ्ट देखते हैं, उन सबमे, कुछ प्रतीक उपयोग किये जाते हैं, मिसाल के तौर पर –

राष्ट्र का ध्वज

सेना से सम्बन्ध विभाग का लोगो

कुछ न. भी लिखे होते हैं

आदि आदि अनेक एम्ब्लोम (प्रतीक चिन्ह) भी स्थापित होते हैं।

इसी प्रकार – अर्जुन के रथ (विमान) में अनेक अनेक महापुरषो, वीरो, और पितरो आदि के मूर्ति (प्रतीक चिन्ह) लगे हुए थे।

जो लोग केवल ये कहते हैं की हनुमान जी की ही मूर्ति या ध्वजा थी – वो कृपया एक बार – महाभारत में ही उद्योगपर्वान्तर्गत यानसन्धि पर्व – अध्याय ५६ श्लोक संख्या ७-८ पढ़ लेवे

संजय ने कहा – प्रजानाथ ! विश्वकर्मा त्वष्टा तथा प्रजापति ने इंद्र के साथ मिलकर अर्जुन के रथ की ध्वजा में अनेक प्रकार के रूपों के रचना की है।। ७ ।।

उन तीनो ने देवमाया के द्वारा उस ध्वज में छोटी बड़ी अनेक प्रकार की बहुमूल्य एवं दिव्य मूर्तियों का निर्माण किया है ।। ८ ।।

इन श्लोको में अर्जुन के रथ की ध्वज का वर्णन है – स्पष्ट है कहीं भी केवल हनुमान जी का वर्णन नहीं है – क्योंकि अनेक वीर, महापुरष, राजाओ आदि के चिन्ह उस ध्वज पर अंकित किये गए थे ठीक ऐसे ही हनुमान जी भी उनमे से एक थे।

मगर कुछ मूर्खो ने केवल हनुमान जी को ही ध्वज पर दिखा कर अर्जुन, कृष्ण जैसे महावीरों की विलक्षण और ज्ञानगर्भित सोच को दरकिनार करके – पक्षपाती तरीके से केवल हनुमान जी को ही ध्वज पर दिखाया –

क्या इस प्रकार के पक्षपात से अनेक वीरो और महापुरषो का अपमान नहीं होता ?

एक तरफ तो पौराणिक लोग कहते नहीं थकते की हनुमान जी प्रभु श्री राम के चरणो से हटते तक नहीं – दूसरी तरफ कृष्ण को राम का ही दूसरा रूप भी बताते हैं –

फिर मेरी शंका है – ये हनुमान जी कृष्ण यानी अपने प्रभु राम के चरणो से हटकर – उनके सर पर क्यों और कैसे सवार हो गए ?

क्या ये तर्क सही होगा ?

आशा है इस पोस्ट का सही मतलब समझा जाएगा

धन्यवाद

नोट : अर्जुन के रथ में १०० घोड़े (हार्सपावर) उपयोग था – जो एक फाइटर प्लेन था – जिसमे अनेक शस्त्र और तकनीकी थी – जिसके बारे में विस्तार से पोस्ट लिखी जायेगी।

“ईसा के शांतिवादी सिद्धांत का मिथक”

ईसा की “अशांति अवधारणा” (आतंकी शिक्षा) का सच और

“शांतिवादी सिद्धांत” अहिंसा सिद्धांत

या बिलकुल सरल भाषा में कहे तो –

“ईसा के शांतिवादी सिद्धांत का मिथक”

मेरे मित्रो,

जैसे की हम सब जानते हैं – ईसाई मत के अनेक पैगम्बर – चरित्रहीन गुणों से लबरेज थे – पूरा ईसाई मत और बाइबिल – इन पैगम्बरों के चरित्रहीन होने का पुख्ता सबूत तो है – उसके साथ साथ चरित्रहीनता को यहोवा का समर्थन और पैगम्बरों को ऐसे दीन-हीन कर्म करने को “कर्तव्य” समझ कर धारण करने का खुला आवाहन खुद ईसाइयो का “परमेश्वर यहोवा” करता है – पिछली अनेक पोस्ट से ज्ञात हुआ –

आज हम जिस बात पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करेंगे – वो है – “ईसा का झूठा शांति सिद्धांत” या फिर कहे की ईसा के शांतिपाठ का पोल खोल –

हमारे अनेक ईसाई मित्र – ऐसी तर्कहीन या यु कहे – अफवाह उड़ाते हैं – की ईसा एक शांति दूत था – जिसने बाइबिल में अनेक बार शांति की बात की – खुद शांति के लिए मर गए – यहाँ शांति से तात्पर्य अहिंसा से भी है – आइये देखे –
ईसा का तथाकथित शांति अहिंसा का पाठ :

एक “अहिंसावादी” “शांतिदूत” खासतौर पर या आमतौर पर एक ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो किसी भी प्रकार की हिंसा का किसी भी कारण से समर्थन नहीं करता। यही “अहिंसावादी” या “शांतिदूत” का पारिभाषिक अर्थ होगा – और होना भी यही चाहिए – यदि बाइबिल में ईसा की केवल दो चार बातो से ही ईसा का ऐसा सिद्धांत ईसाई मित्र मानते हैं – तो उन्हें में केवल “मुर्ख” का ही दर्ज़ा दे सकता हु – क्योंकि दो चार बातो से तो पूरी बाइबिल की शिक्षा ही बेकार साबित होती है – फिर दो चार बातो के जरिये ही ईसा को “अहिंसावादी” और “शांतिदूत” जैसे शब्दों से नवाजना – ये गलत होगा –

आइये ईसा की कुछ शांतिप्रिय एक दो बातो को देखे –

38 तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था, कि आंख के बदले आंख, और दांत के बदले दांत।

39 परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि बुरे का सामना न करना; परन्तु जो कोई तेरे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे, उस की ओर दूसरा भी फेर दे।

40 और यदि कोई तुझ पर नालिश करके तेरा कुरता लेना चाहे, तो उसे दोहर भी ले लेने दे।

41 और जो कोई तुझे कोस भर बेगार में ले जाए तो उसके साथ दो कोस चला जा।

42 जो कोई तुझ से मांगे, उसे दे; और जो तुझ से उधार लेना चाहे, उस से मुंह न मोड़॥

43 तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था; कि अपने पड़ोसी से प्रेम रखना, और अपने बैरी से बैर।

44 .परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सताने वालों के लिये प्रार्थना करो।
(मत्ती – Mt – अध्याय ५ : ३८-४४)

तो ये है वो आयते जिनको लेके – ईसाई मित्र – अनेक हिन्दू भाइयो को भरमजाल में फंसाते हैं – और ईसा को अहिंसावादी घोषित कर देते हैं – ऐसी ही तथाकथित “शांतिप्रिय” कुछ आयते – क़ुरआन में भी पायी जाती हैं – तो क्या क़ुरआन को भी “शांतिवादी” “अहिंसावादी” घोषित कर दोगे ?

ऊपर जो अर्थ दिया था – उस हिसाब से तो ईसाई सही कहते हैं ऐसा प्रतीत होता है – क्योंकि ईसा ने वाकई शांति की बात की – मगर ये जो प्रतीत होता है, क्या वाकई सत्य है ?

आइये एक नजर ईसा की वास्तविक शिक्षा पर नजर डालते हैं – जिससे ईसा के शांतिप्रिय होने की खोखली दलील बेनकाब हो जाएगी।

मत्ती अनुसार ईसा की क्रूरतापूर्ण शिक्षाये :

34 यह न समझो, कि मैं पृथ्वी पर मिलाप कराने को आया हूं; मैं मिलाप कराने को नहीं, पर तलवार चलवाने आया हूं।

35 मैं तो आया हूं, कि मनुष्य को उसके पिता से, और बेटी को उस की मां से, और बहू को उस की सास से अलग कर दूं।

36 मनुष्य के बैरी उसके घर ही के लोग होंगे।
(मत्ती अध्याय 10)

6 तुम लड़ाइयों और लड़ाइयों की चर्चा सुनोगे; देखो घबरा न जाना क्योंकि इन का होना अवश्य है, परन्तु उस समय अन्त न होगा।
(मत्ती अध्याय 24)

36 यीशु ने उत्तर दिया, कि मेरा राज्य इस जगत का नहीं, यदि मेरा राज्य इस जगत का होता, तो मेरे सेवक लड़ते, कि मैं यहूदियों के हाथ सौंपा न जाता: परन्तु अब मेरा राज्य यहां का नहीं।
(यूहन्ना अध्याय 18)

13 और वह लोहू से छिड़का हुआ वस्त्र पहिने है: और उसका नाम परमेश्वर का वचन है।

14 और स्वर्ग की सेना श्वेत घोड़ों पर सवार और श्वेत और शुद्ध मलमल पहिने
हुए उसके पीछे पीछे है।

15 और जाति जाति को मारने के लिये उसके मुंह से एक चोखी तलवार निकलती है, और वह लोहे का राजदण्ड लिए हुए उन पर राज्य करेगा, और वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के भयानक प्रकोप की जलजलाहट की मदिरा के कुंड में दाख रौंदेगा।
(प्रकाशित वाक्य, अध्याय 19)

12 और उन्होंने उस से बिनती करके कहा, कि हमें उन सूअरों में भेज दे, कि हम उन के भीतर जाएं।

13 सो उस ने उन्हें आज्ञा दी और अशुद्ध आत्मा निकलकर सूअरों के भीतर पैठ गई और झुण्ड, जो कोई दो हजार का था, कड़ाडे पर से झपटकर झील में जा पड़ा, और डूब मरा।
(मरकुस अध्याय 5)

ईसा की ईर्ष्यालु शिक्षा :

20 तब वह उन नगरों को उलाहना देने लगा, जिन में उस ने बहुतेरे सामर्थ के काम किए थे; क्योंकि उन्होंने अपना मन नहीं फिराया था।
(मत्ती अध्याय 11)

29 और जिस किसी ने घरों या भाइयों या बहिनों या पिता या माता या लड़केबालों या खेतों को मेरे नाम के लिये छोड़ दिया है, उस को सौ गुना मिलेगा: और वह अनन्त जीवन का अधिकारी होगा।
(मत्ती, अध्याय 19)

21 एक और चेले ने उस से कहा, हे प्रभु, मुझे पहिले जाने दे, कि अपने पिता को गाड़ दूं।

22 यीशु ने उस से कहा, तू मेरे पीछे हो ले; और मुरदों को अपने मुरदे गाड़ने दे॥
(मत्ती, अध्याय 8)

1 तब यरूशलेम से कितने फरीसी और शास्त्री यीशु के पास आकर कहने लगे।

2 तेरे चेले पुरनियों की रीतों को क्यों टालते हैं, कि बिना हाथ धोए रोटी खाते हैं?

3 उस ने उन को उत्तर दिया, कि तुम भी अपनी रीतों के कारण क्यों परमेश्वर की आज्ञा टालते हो?

4 क्योंकि परमेश्वर ने कहा था, कि अपने पिता और अपनी माता का आदर करना: और जो कोई पिता या माता को बुरा कहे, वह मार डाला जाए।

5 पर तुम कहते हो, कि यदि कोई अपने पिता या माता से कहे, कि जो कुछ तुझे मुझ से लाभ पहुंच सकता था, वह परमेश्वर को भेंट चढ़ाई जा चुकी।

6 तो वह अपने पिता का आदर न करे, सो तुम ने अपनी रीतों के कारण परमेश्वर का वचन टाल दिया।

7 हे कपटियों, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यद्वाणी ठीक की।
(मत्ती, अध्याय 15)

लिखता जाऊँगा तो अंत नहीं – बाइबिल के पुरे नियम में – ईसा ने केवल – लड़ाई झगडे – परिवार को बांटने – लड़ने – तलवार खरीदने – मंदिर और मुर्तिया तोड़ने – यहाँ तक की यदि कोई ईसा को भोजन करने से पहले हाथ धोने की नसीहत दे दे तो उसे भी जान से मारने को तईयार रहने वाली शिक्षा का बोल वचन सुना दिया – भाई क्या ये ही “शांतिवाद” और अहिंसा का सबक है ईसा का ?

इससे भी बढ़कर – पुराने नियमानुसार – जो जो क्रुरताये और पैगम्बरों – भविष्वक्ताओ की बाते और क्रूर नियम – जाहिल रिवाज – और जंगली सभ्यता थी – उसकी भी वकालत – ईसा ने की है – साथ ही ये भी कह दिया की – उसमे कोई बदलाव नहीं हो सकता – वो पूर्ण है – और इसी जंगली, वहशी, क्रूर नियमो को पूर्ण करने ईसा आया है – देखिये

17 यह न समझो, कि मैं व्यवस्था या भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों को लोप करने आया हूं।

18 लोप करने नहीं, परन्तु पूरा करने आया हूं, क्योंकि मैं तुम से सच कहता हूं, कि जब तक आकाश और पृथ्वी टल न जाएं, तब तक व्यवस्था से एक मात्रा या बिन्दु भी बिना पूरा हुए नहीं टलेगा।
(मत्ती, अध्याय 5)

मेरे ईसाई मित्रो – बाइबिल के पुराने नियम में कितना व्यभिचार, जंगली रिवाज और असभ्यता मौजूद है – वो आपको पता है – अब यदि ईसा खुद उसे नकार नहीं रहा – बल्कि उसे पूर्ण करने आया है – तब आप क्यों नकार रहे हो ?

नोट : पुराने नियम का जंगली रिवाज एक ये भी था की पिता अपनी पुत्री की योनि में अपनी ऊँगली कपडे से ढक कर डालता और पुष्टि करता था की पुत्री कुंवारी है – अथवा सुहागरात मनाने वाले वर वधु की चादर को पुरे समाज में दिखाता था की उसकी पुत्री कुंवारी है।

लेख को बहुत बड़ा करने का उद्देश्य नहीं है – इसलिए पाठकगण संक्षेप में ही समझ जायेंगे – उद्देश्य केवल इतना है की ईसा जैसा था वैसा ही मानने में समझदारी है – कहने को तो गांधी जी भी अहिंसाप्रिय थे – मगर वो हिन्दू समाज को केवल “पंगु अवस्था” में छोड़ गए – इसलिए अभी भी समय है – चेत जाओ –

धर्म की और आओ –

वेद की और आओ

सत्य की और आओ

लौटो वेदो की और

नमस्ते

क्या हनुमान जी उड़कर समुद्र लांघ लंका पहुंचे थे ?

सुन्दर काण्ड के पहले सर्ग में श्लोक संख्या १-९ – बाल्मीकि रामायण में हनुमान जी के उड़ने जैसा कोई वर्णन कहीं प्राप्त नहीं होता है –

आखिर सच क्या है – आइये एक नजर बाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड के पहले सर्ग में श्लोक संख्या १-९ तक देखे और विचार करते हैं :

जो हनुमान जी के उड़कर समुद्र लांघ कर लंका जाने की बात है वो भी एक मिथक ही है – यदि आप बाल्मीकि रामायण को पढ़े – तो सुन्दर काण्ड के पहले सर्ग में श्लोक संख्या १-९ – कृपया ध्यान दीजिये – इस रेफ को नोट कीजिये और जाकर चेक कीजिये – वहां वाल्मीकि जी लिखते हैं –

दुष्करं निष्प्रतिद्वद्वं चिकीर्षन्कर्म वानरः।
समुदग्रशिरोग्रीवो गवां पतिरिवाबभौ ।। १ ।।

पॢवग पॢवने कृतनिश्चयः।
ववृघे रामवृद्धयर्थे समुद्र इव पर्वसु ।। २ ।।

विकर्षन्नूर्मिजालानी बृहन्ति ळवणाम्भसि।
पुप्लुवे कपिशार्दूलो विकिरन्निव रोदसी ।। ३ ।।

मेरुमंदरसंकाशानुदगतांसुमहार्णवे।
अत्यक्राम्न्महावेगस्त रंगंगान्यन्निव ।। ४ ।।

तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा।
वस्त्रापकर्षणेनेव शरीराणि शरीरिणाम ।। ५ ।।

येनासौ याति बलवान्वेगेन कपिकुञ्जरः।
तेन मार्गेण सहसा द्रोणिकृत इवार्णवः ।। ६ ।।

प्राप्तभूयिष्ठपारस्तु सर्वतः परिलोकयन्।
योजनानां शतस्यान्ते वनराजी ददर्श सः ।। ७ ।।

सागरं सागगनूपानसागरानूपजान्द्रुमान।
सागरस्य च पत्नीनां मुखान्यापि विलोकयत ।। ८ ।।

स चारुनानाविघरूपधारी परं समासाद्य समुद्रतीरम।
निपत्य तीरे च महोदधेस्तदा ददर्श लंकाममरावतीमिव ।। ९ ।।

(सुन्दर काण्ड सर्ग १ श्लोक संख्या १-९)

अर्थ :

बड़ा, कठिन, तुलना से रहित कर्म करना चाहता हुआ, ऊँचे सिर और ग्रीवावाला वानर सांड की तरह भासने लगा ।। १ ।।

डोंगी से तैरने में निश्चय वाला, डोंगी से तैरने वालो में श्रेष्ठो से देखा हुआ वह पर्वो में समुद्र के तरह राम के अर्थवृद्धि को प्राप्त हुआ ।। २ ।।

उस खारी जल में बड़े बड़े २ लहरो के समूहों को चीरता हुआ वह वानर श्रेष्ठ मानो द्यौ पृथ्वी पर (जल के फूल) बिखेरता हुआ खेवा करने लगा ।। ३ ।।

मेरु मंदर के बराबर महासागर में उठती हुई लहरो को बड़े वेगवाला, मानो गिनता हुआ गया ।। ४ ।।

(बल से जल उछलने पर) मछलिये, मगर, मच्छ, इस तरह नंगे हुए दीखते हैं जैसे वस्त्र के खींच लेने से शरीर धारियों के शरीर ।। ५ ।।

बलवान वानर श्रेष्ठ वेग से जिस मार्ग से जा रहा था, उस मार्ग से समुद्र सहसा द्रोण की तरह होता जाता था (पानी में उसकी डोंगी के आकार बनते जाते थे) ।। ६ ।।

बहुत बड़ा भाग पार करके सब और देखता हुआ वह सौ योजन की समाप्ति पर वन समूह को देखता भया ।। ७ ।।

सागर, सागर के किनारे के देश, और उस देश में होने वाले वृक्ष और सागर की पत्नियें (नदियों) के मुहाने देखता भया ।। ८ ।।

सुन्दर नानाविधरूप धारी वानर समुद्र के परले तीर पर पहुंचकर महासागर के किनारे पर उतरकर अमरावती के तुल्य लंका को देखता भया ।। ९ ।।

इस सारे सर्ग से अधिकतर हनुमान जी का समुद्र को फांद कर पार होना पाया जाता है , जोकि असंभव है। और ये कोई मिथक अथवा लोकोक्ति बनायीं गयी लगती है – क्योंकि यहाँ सर्ग में ही स्वयं वाल्मीकि जी ने दूसरे श्लोक में हनुमान जी को डोंगी से तैर कर समुद्र पार करने का स्पष्ट इशारा किया है –

पॢव = छोटी नौका – डोंगी अथवा आज के समय पर तेज वेग से पानी में चलने वाली “वेवरनर” जैसा कोई तीव्र वाहन –

श्लोक ३ में लिखा है – “उस खारी जल में बड़े बड़े २ लहरो के समूहों को चीरता हुआ वह वानर श्रेष्ठ” – आप विचार करे – बिना जल में कोई नौका चलाये ये काम असंभव है।

श्लोक ४ में लिखा है – “मेरु मंदर के बराबर महासागर में उठती हुई लहरो को बड़े वेगवाला, मानो गिनता हुआ गया” – स्वयं विचार करे – लहरे उठती रहती हैं समुद्र में – पर जैसे कोई “सर्फिंग” करने गया मनुष्य उन उठती लहरो के ऊपर संतुलन बनाकर वेग से चलता है – ठीक वैसे ही इस श्लोक में बताया गया – उड़ना नहीं बताया।

श्लोक ४ में लिखा है – “बलवान वानर श्रेष्ठ वेग से जिस मार्ग से जा रहा था, उस मार्ग से समुद्र सहसा द्रोण की तरह होता जाता था (पानी में उसकी डोंगी के आकार बनते जाते थे) – इस श्लोक से तो सारी शंकाओ का पूर्ण समाधान ही हो गया – जब भी पानी पर डोंगी नाव कुछ भी चलेगी वो पानी को चीरकर आगे बढ़ेगी जिससे उस मार्ग में पानी का रास्ता कटता हुआ दिखेगा जो नाव अथवा डोंगी के आकार का ही होगा – अधिक विश्लेषण हेतु एक बार इस पोस्ट के साथ संलग्न चित्र को देखे –

श्लोक 9 में लिखा है – “सुन्दर नानाविधरूप धारी वानर समुद्र के परले तीर पर पहुंचकर महासागर के किनारे पर उतरकर अमरावती के तुल्य लंका को देखता भया” – अब देखिये यहाँ स्पष्ट रूप से वर्णित है हनुमान जी समुद्र के पार लंका के किसी तीर (नदी अथवा समुद्र का किनारा) पर पहुंच कर लंका को देखने लगे।

यहाँ विचारने योग्य बात यह है की यदि हनुमान जी उड़कर लंका गए होते तो किसी समुद्र किनारे उतरने की कोई आवश्यकता नहीं थी – वो सीधे ही लंका के महल पर उतरते – या फिर जहाँ माता सीता को रखा गया था उस अशोक वाटिका में उतरते –
अधिक जानकारी के लिए सुन्दर काण्ड के दुसरे सर्ग की श्लोक संख्या १-१७ भी पढ़ लेवे –

यहाँ संक्षेप में बताता हु – वहां लिखा है –

हनुमान जी नीले हरे घास के, उत्तम गंध वाले, मधु वाले और उत्तम वृक्षों वाले वनो के मध्य में से गया। (सुन्दर काण्ड सर्ग २ श्लोक ३)

अब बताओ भाई – यहाँ स्पष्ट लिखा है वनो के मध्य में से गए – फिर उड़ कर वनो के ऊपर से क्यों नहीं गए ???????

इसके आगे के श्लोको में भी हनुमान जी के उड़ने का कोई वर्णन नहीं बल्कि स्पष्ट लिखा है – वो चतुराई से कैसे लंका में दाखिल हुए – उसके लिए उन्हें शाम तक इन्तेजार करना पड़ा – यदि उड़ सकते होते तो शाम तक इन्तेजार करते क्या ????

कृपया सत्य को जाने और माने –

नमस्ते –

क्या हनुमान जी सचमुच पर्वत उठा लाये थे ?

एक बार पत्नी ने पति से कहा शाम को आते वक़्त सब्जी लेते आना – शाम को पति को याद आया सब्जी ले जानी है – तो पति महोदय सब्जी लेने सब्जी मंडी चले गए – वहां जाकर अनेक प्रकार की सब्जी देखि – तो संदेह से भर गए – क्या क्या लेकर चलू – देर बहुत हो रही थी – तो जो जो सब्जी ठीक लगी – सब भर के घर आ गए –

घर आते ही

पत्नी ने कहा – अरे वाह स्वामी ! आप तो पूरी सब्जी मंडी ही उठा लाये –

पति ने कहा – देखो भाग्यवान ! जितना समझ आया – जो ठीक लगा वो ले आया हु – अब आपका काम देखो और मुझे तो बस चाय पिला दो – सर्दी आज ज्यादा है –

ये कोई नया किस्सा नहीं है – आमतौर पर हम सभी के साथ होता है – जब हमें कोई एक दो वास्तु लानी हो तो हम कभी कभी ज्यादा सामान ले आते हैं जिससे लगभग अपने सभी जानकार देखते ही एक संज्ञा दे देते हैं –

“आप तो आज पूरी सब्जी मंडी उठा लाये।”

“आज तो पूरी दूकान ही उठा कर ले आये”

“आज तो दूकान ही खोल लोगे क्या ?”

ये एक मानव निर्मित संज्ञा है – क्योंकि जब कोई एक वास्तु की अपेक्षा बहुत सी वस्तुए उठा लाते हैं – तो यही संज्ञा लगभग दी जाती है – आप सोचोगे इस विषय पर पोस्ट करने की क्या जरुरत थी – ये तो हम सब जानते ही हैं – इसमें कौतुहल का विषय क्या था – विषय इस पोस्ट का बड़ा ही सारगर्भित है –

देखिये – रामायण में एक प्रसंग आता है की हनुमान जी को सुषेण वैद्य ने कहा की संजीवनी बूटी ले आओ – हनुमान जी को बूटी तलाशने में संशय हुआ – तो वो जो सम्बंधित बूटी अथवा जो भी संजीवनी जैसे बूटी लगी उसे ले आये – तो ये प्रसंग को ऊपर दिए उदहारण से मिला कर देखिये – और अब बताये –

क्या अब भी आप यही कहोगे की हनुमान जी पर्वत उठा लाये ?

जी नहीं – क्योंकि जब हनुमान जी एक बूटी की जगह बहुत सी बूटियों का अम्बार ले आये – तो वहां मौजूद सभी के मुख से अनायास ही निकल पड़ा –

“हनुमान जी आप तो पूरा पर्वत ही उठा लाये”

तो ये था विषय और इसके बारे में भ्रान्ति बना दी गयी की हनुमान जी पर्वत उठा लाये –

कृपया एक बार अवश्य सोचिये –

नमस्ते –

“द्रौपदी का चीरहरण” – भारतीय संस्कृति को बदनाम करने का षड्यंत्र – पार्ट 2

जैसे की पिछली पोस्ट से स्पष्ट हुआ की “द्रौपदी का चीरहरण” मात्र कुछ धूर्तो की मिलावट का परिणाम है – क्योंकि महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण जैसी कुत्सित घटना का होना एक असंभव कृत्य था – भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि गुरुओ और विदुर जैसे महानितिनिपुण के होते – ये कार्य हो ही नहीं सकता था –
फिर भी यदि कुछ हिन्दू भाई इस पक्ष में नहीं हैं – यदि वो अभी भी कहते हैं की द्रौपदी का चीरहरण हुआ था – तो इस पोस्ट को भी ध्यानपूर्वक पढ़ – सत्य से अवगत होकर अपने दुराग्रह और पूर्वाग्रह को छोड़ – संस्कृति और सभ्यता को बदनाम करना छोड़ देवे –

आइये गतलेख से आगे थोड़ा और विस्तार से समझते हैं –

जब पांडव जुए में राज्य के साथ साथ अपने आप को और द्रोपदी को हार गए तब पांड्वो की स्थिति दासों की तरह और द्रोपदी की स्थिति दासी की तरह रह गयी थी , अतः अब उन्हें राजाओ अथवा राजकुमारों जैसे वस्त्र धारण करने का कोई अधिकार नहीं रह गया था । यही दशा द्रोपदी की भी थी , पर जब द्रोपदी सभा में लाई गयी , उस समय केवल पांडव उच्च कोटि और सज्जित वस्त्र धारण किये थे , और द्रौपदी ने केवल एक वस्त्र धारण किया हुआ था क्योंकि द्रौपदी उस समय रजस्वला थी। अतः उनसे उनके वस्त्र उतर के दासो और दासी के परिधान पहन लेने के लिए कहा गया।

द्रौपदी ने विरोध किया – क्यों की वो अपने आप को हारी हुयी नहीं मानती थी – द्रौपदी ने कहा – जब युधिष्ठर स्वयं अपने को हार गए तब किस प्रकार वे मुझे दांव पर लगाने का अधिकार रखते थे ?

द्रौपदी के प्रश्नो के उत्तर हेतु – विदुर ने सभासदो से पूछा – साथ में – धृतराष्ट्र का एक पुत्र “विकर्ण” स्वयं द्रौपदी के समर्थन में उत्तर आया – उसने भी यही कहा – जब युधिष्ठर स्वयं अपने को दांव पर लगा हार गए – तब किस प्रकार द्रौपदी को दांव लगाने का अधिकार युधिष्ठर के पास रहा ?

तब कोई जवाब ना पाकर – द्रौपदी हताश और निराश हो गयी – दुःशासन द्रौपदी को “दासी” कहकर सम्बोधित करने लगा – इतने में कर्ण ने अपने अनुचित वचनो से द्रौपदी को अनेक बुरे वचन कहकर दुःशासन को द्रौपदी और पांडवो के वस्त्र उतार लेने को कहा।

दु:शाशन ! यह विकर्ण अत्यंत मूढ़ है तथापि विद्वानों सी बाते बनाता है , तुम पांड्वो और द्रोपदी के भी वस्त्र उतर लो ”
द्यूतपर्व अध्याय ६८ श्लोक ३८

ध्यान देने की बात है की कर्ण केवल द्रोपदी के ही वस्त्र उतरने के लिए नहीं कहता वरन पांड्वो के भी वस्त्र उतरने के लिए कहता है । इस बात से स्पष्ट है की “द्रौपदी का चीरहरण” मात्र कुछ लोगो की “धूर्त मानसिकता” का परिणाम है।

असल में हुआ ये था की – पांडवो ने अपने वस्त्र उतार कर रख दिए और दासो के वस्त्र धारण किये होंगे –

वैशम्पायन जी कहते हैं – “जनमेजय ! कर्ण की बात सुन के समस्त पांड्वो ने अपने अपने राजकीय वस्त्र उतार कर सभा में बैठ गए ( सभा पर्व अध्याय 68, श्लोक 39)

क्योंकि द्रौपदी अपने को हारी नहीं मानती थी – इसलिए दुःशासन को जबरदस्ती द्रौपदी के कपडे बदलवाने हेतु विवश किया गया था – जिसे “धूर्तमंडली” व्याख्याकारों ने – चीरहरण का नाम दिया।

यदि एक बार ऐसा भी मान ले – की दुःशासन ने चीरहरण करने को द्रौपदी की साडी खींची और कृष्ण ने साडी को बढ़ा दिया – तो भाई जरा इस श्लोक पर भी एक सरसरी नजर डाल लेवे –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।
द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यदि कृष्ण ने साडी देकर नग्न होने से बचाया – तो भाई – इन श्लोक के अनुसार तो द्रौपदी अर्धनग्न हो चुकी थी – तभी क्यों नहीं बचा लिया ? या फिर जब दुःशासन बाल पकड़कर जबरदस्ती द्रौपदी को खींच रहा था – और द्रौपदी कृष्ण को आवाज़ लगा बुला रही थी – तब ही क्यों नहीं कृष्ण ने बचा लिया ?

क्या कृष्ण जी इस बात का इन्तेजार कर रहे थे की – कब दुःशासन साडी खींचे और मैं चमत्कार दिखाऊ ?

क्या कृष्ण द्रौपदी की पहली आवाज़ सुनकर ही नहीं बचा सकते थे ? यदि पहली आवाज़ पर ही बचा लिया होता – तो ये धूर्तो ने जो मिलावट करने की कोशिश की – वो होती ही नहीं –

आगे देखिये –

वनपर्व मेँ जब श्रीकृष्ण जंगल मेँ पांडवोँ से मिलने गए थे। वहाँ श्रीकृष्ण ने बताया की वेँ द्युतसभा मेँ जो कुछ भी हुआ था उससे अनभिज्ञ है। उन्होने ये भी कहा की अगर वेँ वहाँ मौजुद होते तो युधिष्ठिर को ऐसा कभी नही करने देतेँ। युधिष्ठिर ने पुछा की उस वक्त वेँ कहाँ थे तब श्रीकृष्ण ने बताया की उस वक्त शाल्व ने अपने प्रचंड ‘सौभ’ विमान से द्वारका पर उपर से बमबारी शुरु कर द्वारका जला रहा था, इसलिए श्रीकृष्ण उसे मारने के लिए गए थे, जब वो विमान का संहार करके वापिस आए तब उन्हे सात्यकी से खबर मिली की द्युतसभा मेँ युधिष्ठिर जुए मेँ सारा राज्य हार गया और इसलिए वेँ दौडते पांडवोँ से मिलने जंगल मेँ आए।

आगे किसी जगह दु:खी द्रौपदी भी युधिष्ठिर, अर्जुन और अपने भाई को कोसते हुए कहती है की उनमेँ से कोई भी उसकी विटंबना रोकने नहीँ आया इसलिए उनमेँ से कोई भी उसका अपना नहीँ है। वो उधर खडे श्रीकृष्ण को भी कहती है की तुम भी मेरी मदद के लिए नहीँ आए इसलिए कृष्ण तुम भी मेरेँ नहीँ। अगर कृष्णने सचमेँ वस्त्रावतार लिया था तब द्रौपदी क्या उन्हे ऐसे शब्द कहती?

ये सारी घटनाओ से ज्ञात होता है की द्रौपदी का चीरहरण हुआ नहीं था – मात्र कुछ धूर्तो ने कृष्ण के चमत्कार को दर्शाने के लिए ये सब मनगढ़ंत बात गढ़ी है –

एक आखरी पोस्ट और आएगी – जिसमे इस द्यूतपर्व में मिलावट की पूरी स्थति आपके सामने आ जाएगी

अपनी सभ्यता और संस्कृति पर स्वयं ही मिथ्या दोष न गढ़े।

कृपया सत्य को जानिये –

 

वेदो की और लौटिए

ईश्वर का वैदिक स्वरुप – ईश्वर, जीव और प्रकृति – तीनो कारण स्वयं सिद्ध और अनादि हैं

संस्कृत भाषा में परमात्मा = परम + आत्मा तथा जीवात्मा = जीव + आत्मा दो शब्द हैं।

परमात्मा शब्द का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ आत्मा

और जीवात्मा का अर्थ है प्राणधारी आत्मा

आत्मा शब्द दोनों के लिए आता है और बहुधा परम-आत्मा तथा जीव-आत्माओ का भेदभाव किये बिना समस्त जीवनतत्वो के लिए व्यवहृत किया जाता है।

परमात्मा और जीवात्माओं के कार्यो में इतनी समानता है [मगर दोनों के कार्य क्षेत्र निसंदेह अत्यंत विभिन्न हैं] की प्रायः इनके सम्बन्ध के विषय में भ्रम हो जाता है और इस भ्रम के कारन दर्शनशास्त्र तथा धर्म दोनों क्षेत्रो में बाल की खाल निकाली जाती है।

खासतौर पर ईश्वर को ना मानने वाले लोग मनुष्य को ही “सिद्ध” व “ईश्वर” का दर्ज देकर अपनी अल्पज्ञता के कारण ऐसा विचार लाते हैं –

वैदिक ईश्वर का स्वरुप कैसा है और जीव का स्वरुप कैसा है – जब इस प्रकार की चर्चा की जाती है तब आवश्यक हो जाता है इस प्रकृति के बारे में भी कुछ जाना जाए – तो आइये – इस विषय पर कुछ विचार करे –

इस कार्यरूप सृष्टि में तीन नियम बहुत ही स्पष्ट रूप से दीखते हैं :

पहिला – इस सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ नियमपूर्वक, परिवर्तनशील है।

दूसरा – प्रत्येक जाती के प्राणी अपनी जाती के ही अंदर उत्तम, माध्यम और निकृष्ट स्वाभाव से पैदा होते हैं।

तीसरा – इस विशाल सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है वह सब नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है।

पहिला नियम : सृष्टि नियमपूर्वक परिवर्तनशील है इसका अर्थ जो लोग सृष्टि को स्वाभाविक गुण से परिवर्तनशील मानते हैं वे गलती पर हैं क्योंकि स्वाभाव में परिवर्तन नहीं होता ऐसे लोग भूल जाते हैं की परिवर्तन नाम है अस्थिरता का और स्वाभाव में अस्थिरता नहीं होती क्योंकि उलटपलट, अस्थिर ये नैमित्तिक गुण हैं स्वाभाविक नहीं। इसलिए सृष्टि में परिवर्तन स्वाभाविक नहीं। इसकी एक बड़ी वजह ये भी है की यदि प्रकृति में परिवर्तन स्वाभाविक माने तो ये अनंत परिवर्तन यानी अनंत गति माननी पड़ेगी और फिर एकसमान अनंत गति मानने से संसार में किसी भी प्रकार से ह्रासविकास संभव नहीं रहेगा किन्तु सृष्टि में बनने और बिगड़ने की निरंतर प्रक्रिया से सिद्ध होता है की सृष्टि का परिवर्तन नैमित्तिक है सवभविक नहीं, इसीलिएि इस परिवर्तनरुपी प्रधान नियम के द्वारा यह सिद्ध होता है की सृष्टि के मूल कारणों में से यह एक प्रधान कारण है जो खंड खंड, परिवर्तन शील और परमाणुरूप से विद्यमान है। परन्तु यह परमाणु चेतन और ज्ञानवान नहीं हैं इसकी बड़ी वजह है की जो भी चेतन और ज्ञानवान सत्ता होगी वो कभी दूसरे के बनाये नियमो में बंध नहीं सकती बल्कि ऐसी सत्ता अपनी ज्ञानस्वतंत्रता से निर्धारित नियमो में बाधा पहुचाती है – जहाँ तक हम देखते हैं परमाणु बड़ी ही सच्चाई से अपना काम कर रहे हैं – जिस भी जगह उनको दूसरे जड़ पदार्धो में जोड़ा गया – वहां आँख बंद करके भी कार्य कर रहे हैं जरा भी इधर उधर नहीं होते इससे ज्ञात होता है की इस सृष्टि का परिवर्तनशील कारण जो परमाणु रूप में विद्यमान है ज्ञानवान नहीं बल्कि जड़ है – इसी जड़, परिवर्तनशील और परमाणु रूप उपादान कारण को माया, प्रकृति, परमाणु मेटर आदि नामो से कहा जाता है और संसार के कारणों में से एक समझा जाता है

दूसरा नियम : सभी प्राणियों के उत्तम और निकृष्ट स्वाभाव हैं। अनेक मनुष्य प्रतिभावान, सौम्य और दयावान होते हैं, अनेक मुर्ख उद्दंड और निर्दय होते हैं। इसी प्रकार अनेक गौ, घोडा आदि पशु स्वाभाव से ही सीधे होते हैं और अनेक शेर, आदि क्रोधी और दौड़दौड़कर मारने वाले होते हैं यहाँ देखने वाली बात है की ये स्वभावविरोध शारीरिक यानी भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक है, जो चैतन्य बुद्धि और ज्ञान से सम्बन्ध रखता है। लेकिन ध्यान देने वाली है ये ज्ञान प्राणियों के सारे शरीर में व्याप्त नहीं है, क्योंकि यदि सारे शरीर में ये ज्ञान व्याप्त होता तो किसी का कोई अंग भंग यथा अंगुली, हाथ, पैर आदि कट जाने पर उसका ज्ञानंश कम हो जाना चाहिए लेकिन वस्तुतः ऐसा होता नहीं इसलिए यह निश्चित और निर्विवाद है की ज्ञानवाली शक्ति जो प्राणियों में वास करती है वो पुरे शरीर में व्याप्त नहीं है प्रत्युत वह एकदेशी, परिच्छिन्न और अनुरूप ही है क्योंकि सुक्षतिसूक्ष्म कृमियों में भी मौजूद है दूसरा तथ्य ये भी है की यदि पुरे शरीर में ज्ञानशक्ति मौजूद होती तो जैसे शरीर का आकर बढ़ता है वैसे उस शक्ति को भी बढ़ना पड़ता जबकि ऐसा होता नहीं और ये शक्ति परमाणुओ के संयोग से भी नहीं बनी क्योंकि ऊपर सिद्ध किया गया की ज्ञानवान तत्व, परमाणु संयुक्त होकर नहीं बन सकता और न ही ये हो सकता है की अनेक जड़ और अज्ञानी परमाणु एकत्रित होकर परस्पर संवाद ही जारी रख सकते हो। यदि कोई मनुष्य ब्रिटेन में जिस समय पर गाडी दौड़ा रहा है – तो उसी समय पूरी दुनिया में मौजूद इंसान उस गाडी और मनुष्य को नहीं देख पा रहे इसलिए प्राणियों में मौजूद ज्ञानवान शक्ति, अल्पज्ञ है, एकदेशी है, परिच्छिन्न है। इसलिए इस शक्ति को जीव, रूह और सोल के नाम से जानते हैं।

इस विस्तृत सृष्टि में जो कुछ कार्य हो रहा है, वह नियमित, बुद्धिपूर्वक और आवश्यक है। सूर्य चन्द्र और समस्त ग्रह उपग्रह अपनी अपनी नियत धुरी पर नियमित रूप से भ्रमण कर रहे हैं। पृथ्वी अपनी दैनिक और वार्षिक गति के साथ अपनी नियत सीमा में घूम रही है। वर्षा, सर्दी और गर्मी नियत समय में होती है। मनुष्य और पशुपक्ष्यादि के शरीरो की बनावट वृक्षों में फूलो और फलो की उत्पत्ति, बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज का नियम और प्रत्येक जाती की आयु और भोगो की व्यवस्था आदि जितने इस सृष्टि के स्थूल सूक्ष्म व्यवहार हैं, सबमे व्यवस्था, प्रबंध और नियम पाया जाता है। नियामक के नियम का सब बड़ा चमकार तो प्रत्येक प्राणी के शरीर की वृद्धि और ह्रास में दिखलाई देता है। क्यों एक बालक नियत समय तक बढ़ता और क्यों एक जवान धीरे धीरे ह्रास की और – वृद्धावस्था की और बढ़ता जाता है इस बात का जवाब कोई नहीं दे सकता यदि कोई कहे की वृद्धि और ह्रास का कारण आहार आदि पोषक पदार्थ हैं, तो ये युक्तियुक्त और प्रामाणिक नहीं होगा क्योंकि हम रोज देखते हैं एक ही घर में एक ही परिस्थिति में और एक ही आहार व्यवहार के साथ रहते हुए भी छोटे छोटे बच्चे बढ़ते जाते हैं और जवान वृद्ध होते जाते हैं तथा वृद्ध अधिक जर्जरित होते जाते हैं। इन प्रबल और चमत्कारिक नियमो से सूचित होता है की इस सृष्टि के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म, सर्वव्यापक, परिपूर्ण और ज्ञानरूपा चेतनशक्ति विद्यमान है जो अनंत आकाश में फ़ैल हुए असंख्य लोकलोकान्तरो का भीतरी और बाहरी प्रबंध किये हुए हैं। ऐसा इसलिए तार्किक और प्रामाणिक है क्योंकि नियम बिना नियामक के, नियामक बिना ज्ञान के और ज्ञान बिना ज्ञानी के ठहर नहीं सकता। हम सम्पूर्ण सृष्टि में नियमपूर्वक व्यवस्था देखते हैं, इसलिए सृष्टि का यह तीसरा कारण भी सृष्टि के नियमो से ही सिद्ध होता है। इसी को परमात्मा, ईश्वर खुदा और गॉड कहते आदि अनेक नामो से पुकारते हैं हैं जिसका मुख्य नाम ओ३म है।

सृष्टि के ये तीनो कारण स्वयंसिद्ध और अनादि हैं।

मेरे मित्रो, ज्ञान और विज्ञान की और लौटिए,

सत्य और न्याय की और लौटिए

वेदो की और लौटिए….

आओ लौट चले वेदो की और।

ईश्वर विचार – तर्क आधार पर ईश्वर की सिद्धि

जब हम संसार में किसी पदार्थ को देखते हैं तो हमें उस में दो प्रकार के पदार्थ प्रतीत होते हैं – एक परिणामी दूसरे अपरिणामी।

जितने साकार पदार्थ हैं वे सब परिणामी और जितने निराकार पदार्थ हैं वे अपरिणामी हैं।

परन्तु जब हम इन साकार पदार्थो में प्रथम मनुष्य शरीर को देखते हैं तो यह शरीर माता पिता के संयोग से उत्पन्न होता है बढ़ता है घटता है और अंत को नष्ट हो जाता है इससे हमें क्या अनुमान होता है जो पैदा हुआ है वो नष्ट भी होगा जिस में परिणाम है वह पैदा हुआ है। जब परिणामी पदार्थो को उत्पत्ति वाला सिद्ध कर लेते हैं तो हम व्यष्टि पदार्थ अर्थ एक व्यक्ति को छोड़ कर समष्टि जगत को देखते हैं तो यह ही परिणाम प्रतीत होता है की अवयवी के अवयव परिणाम को प्राप्त होते हैं वह अवयवी भी परिणामी होता है क्योंकि सम्पूर्ण अवयवो का नाम अवयवी है जब हम इस प्रकार सूक्ष्म विचार करते हैं तो हमें जगत परिणामी प्रतीत होने लगता है हम जगत के परिणामी होने से उसकी उत्पत्ति का अनुमान कर लेते हैं यद्यपि मध्य अवस्था में उसकी उत्पत्ति का बोध अनुमान के बिना नहीं होता फिर भी शब्द प्रमाण से जगत हुतपन्न हुआ और जगत, संसार, सृष्टि इसके पर्यायवाचक जितने शब्द दिए जाते हैं सब के अर्थ उत्पत्ति वाले के हैं।

जब हमने जगत को उत्पत्ति वाला अनुभव किया तो हमारा विचार वह होता है की यह उत्पत्ति स्वाभाविक है या नैमित्तिक दूसरे हम जिस पदार्थ की उत्पत्ति जिस पदार्थ से देखते हैं उसका लय भी उसी पदार्थ में होता है इस से कार्यरुप सब पदार्थो में अनित्यता और कारणरूप पदार्थो में नित्यता का बोध होता है जब हम पांच भूतो में अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में सब पदार्थो का लय देखते हैं तो उन्ही पंच पदार्थो से इस जगत की उत्पत्ति का विचार करते हैं.

यद्यपि कार्य अवस्था इन पदार्थो की अनित्य है परन्तु कर्णावस्था में यह नित्य होते हैं जब हम जगत के उपादान कारण निमित्त भी हैं अथवा जगत पंचभूतों ही से उत्पन्न हुआ वा इन के बिना कोई और भी पदार्थ है ?

जब हम पृथ्वी को विचरते हैं तो जड़ प्रतीत होती है जल भी ज्ञानशून्य है अग्नि भी ज्ञान नहीं रखती वायु में भी ज्ञान का अभाव वही प्रतीत होता है आकाश ज्ञान से हीं है इस प्रकार के विचार से हम सम्पूर्ण भूतो को ज्ञान से रहित पाते हैं।

परन्तु जब हम संसार में जो सोने के बने गहने में सोने और गुण और चांदी में चांदी के गुण पाते हैं इस से हमको बोध होता है की कारण के गुण अनुकूल कार्य में गन रहते हैं। जब भूतो में ज्ञान गुण नहीं हैं तो उसके कार्यरूप जगत में भी ज्ञान नहीं हो सकता और जगत में मनुष्यो को ज्ञान से युक्त देखते हैं तो शीघ्र विचार उत्पन्न होता है की यह ज्ञान गुण किसका है ?

बहुत से लोग खासकर चार्वाकी कहते हैं पृथक भूतो में तो चैतन्यता नहीं किन्तु संयोग से उत्पन्न होती है यहाँ ध्यान देने वाली बात है की जो गुण एक एक में न रहे वह संयोग से उत्पन्न नहीं होता जैसे मैदे में मधुरता नहीं – जल में मधुरता नहीं उत्पन्न होती – चीनी में मधुरता है – जल में मिलाने से तुरंत मधुरता उत्पन्न हो जाती है।

दूसरे रेल के इंजन में पृथ्वी है, जल है, अग्नि है, वायु है, आकाश है परन्तु ज्ञानशक्ति नहीं है, मृतक शरीर में पांचो ज्ञानशक्ति का आधार कोई दूसरी वास्तु है। जब हम इस प्रकार सृष्टि में जड़ चैतन्य को दो स्वरूप करके विचार लेते हैं तो हमको सृष्टि में इनका संयोग और सृष्टि में स्वाभाव से संयोग है या निमित्त से यह विचार उत्पन्न होता है। जब हम बाज़ार जाते हैं तो हम को कभी कहीं ईंटे गिरी पड़ी पाती है तो हम अनुमान से जान जाते हैं ये स्वाभाविक गिरी होंगी। परन्तु यदि किसी स्थान पर १० की निश्चित संख्या में गिन गिन के किसी ने राखी हैं तो इससे यह सिद्ध होता है की जहाँ पर नियम हैं वह नैमित्तिक और जो वे नियम हैं वह स्वाभाविक हैं।

जब सृष्टि में नियम को देखते हैं तो इसके हर एक पदार्थ में नियम प्रतीत होता है, मनुष्य स्त्री के संयोग से लड़का उत्पन्न होता है, घोडा घोड़ी के संयोग से घोडा ही होता है, घोड़ी और गधे के संयोग से खच्चर – इसी प्रकार सब पदार्थ नियमानुसार प्रतीत होते हैं, गर्मी में देश घंटे की रात और सर्दी में १४ घंटे की – कहने का तात्पर्य जिधर देखो उधर नियम बंध रहा है फिर इसे किस युक्ति से स्वाभाविक माने ?

दूसरा जो स्वाभाविक गुण हैं वे सर्वदा एक रास रहते हैं वे बिना किसी निमित्त के बदलते नहीं जैसे जल का स्वाभाव शीतल है वह बिना अग्नि संयोग के उष्ण न होगा – इससे सिद्ध है की जल में उत्पन्न वह उष्णता अग्नि की है – न की जल की – इससे सिद्ध है की पंचभूतों में ज्ञान नहीं – ना ही वे स्वयं से संयोग वियोग कर ही सकते हैं क्योंकि पंचभूत जड़ पदार्थ हैं –

इसलिए भूतो के स्वाभाव से तो जगत की उत्पत्ति असंभव है – इसलिए यह निश्चित किया जाता है की जगत का निमित्त कारण ज्ञानशक्ति संपन्न सर्वशक्तिमान कोई ना कोई अवश्य ही है।

जब हम इस प्रकार ईश्वर को मानेंगे तो कुछ लोगो को शंका उत्पन्न होगी की –

ईश्वर ने जगत उत्पन्न किया है तो ईश्वर को किसने उत्पन्न किया ?

इसका उत्तर है की –

परिणामी पदार्थ कार्य होते हैं उनको कारण की अपेक्षा होती है यदि ईश्वर परिणामी हो तो उसका भी कारण हो मगर ईश्वर नित्य है अपरिणामी है – उसका कर्ता नहीं हो सकता।

यदि कोई कहे ईश्वर कहाँ है ?

तो उत्तर यही ठीक है रहने का ठिकाना एकदेशी के लिए होता है – विभु के लिए नहीं –

इसलिए ईश्वर निराकार शक्ति है जो जगत का निमित्त कारण है

इति सिद्धम

न जहर, न मांसाहार, दूध है अमृत

दूध – मधुर, स्निग्ध, रुचिकर, स्वादिष्ट और वात-पित्त नाशक होता है। यह वीर्य,

बुद्धि और कफ वर्धक होता है। शीतलता, ओज, स्फूर्ति और स्वास्थ्य प्रदायक होता है।

स्त्री और गाय का दूध गुण-धर्म की दृष्टि से समान होता है। उसमें विटामिन ए और
खनिज तत्व होते हैं, जो रोगों से लड़ने की ताकत (प्रतिरोधक क्षमता) प्रदान करते हैं
और आंखों का तेज बढ़ाते हैं। दूध एक पूर्ण आहार है। शरीर को पुष्ट और स्वस्थ रखने के
लिए जितने तत्वों की जरूरत होती है, वे सभी उसमें पाए जाते हैं।

दूध रक्त नहीं है। इसका सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण तो यह है कि दूध में जो केसीन
नामक प्रोटीन मौजूद रहता है, वह खून और मांस में नहीं पाया जाता। जो रक्त कणिकाएं
(डब्ल्यूबीसी, आरबीसी) और प्लेटलेट्स खून में पाए जाते हैं, वे दूध में नहीं होते। यह बात
साइंसदानों ने दूध का बेंजोइक टेस्ट करके बताई है। यह परीक्षण किसी भी पैथोलॉजी लैब
में किसी भी डॉक्टर से कराकर देखा जा सकता है। दूध एनिमल प्रॉडक्ट होने पर भी रक्त-
मांस से बिल्कुल अलग एक शुद्ध रस है।

कोई यह तर्क दे सकता है कि दूध में वही प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स और
शर्करा आदि तत्व पाए जाते हैं, जो खून में पाए जाते हैं, इसलिए दोनों एक हैं। लेकिन अगर
यह तर्क सही है, तो वे सभी तत्व हरे या भिगोए हुए सोया, गेहूं, चना आदि अनाज में
भी पाए जाते हैं, लिहाजा उन्हें भी मांसाहार कहना पड़ेगा, जो कि सही नहीं होगा।

यह सही है कि जेनेटिक ब्लू प्रिंट के मुताबिक अपनी-अपनी प्रजाति की मां का दूध सबसे
अच्छा होता है इसलिए गाय का बछड़ा गाय का दूध, बकरी का मेमना बकरी का दूध,
बिल्ली का बच्चा बिल्ली का दूध और शेरनी का बच्चा शेरनी का दूध पीता है। इस प्रकार
सभी स्तनधारी प्राणियों की मांएं अपने बच्चों के पोषण और विकास के लिए दूध देती हैं।

लेकिन यह भी सदियों से आजमाई हुई बात है कि जिन प्राणियों की मां नहीं होती या दूध
नहीं दे पाती, गाय उनकी मां बन जाती है। गाय का दूध सभी प्राणियों के अनुकूल पड़ता है
और पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जा सकता है। इसके उलट अन्य प्राणियों का दूध
प्रतिकूल और अपर्याप्त होने से सभी के काम नहीं आता। लेकिन याद रखें कि दूध
मां का हो या गाय का, उसका सेवन करने की एक निश्चित मात्रा होती है। यदि उससे
अधिक ग्रहण किया जाएगा, तो हानि पहुंचाएगा। इसलिए ‘हितमित भुख’ यानी थोड़ा और
हितकारी भोजन करने को कहा गया है। अति तो हर चीज की बुरी होती है। यह कह कर
भी दूध को खारिज नहीं किया जा सकता कि वह छह से आठ घंटे में पचता है। बहुत
सी ऐसी शक्तिवर्धक चीजें (बादाम, काजू, मूंगफली आदि) हैं, जिन्हें पचने में इससे
ज्यादा समय लगता है।

शिशु अवस्था में लेक्टॉस एंजाइम का पर्याप्त मात्रा में स्त्राव होता है। वे ही एंजाइम दूध
को पचाते हैं, इसलिए बच्चों का वह पूर्ण आहार होता है, लेकिन जैसे-जैसे उम्र
बढ़ती जाती है, लेक्टॉस एंजाइम का स्त्राव घटता जाता है। फिर भी लगातार दूध पीने
वालों को यह पचता रहता है। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया में क्लिनिकल
इम्यूनोलॉजी के प्रोफेसर डॉ. ट्यूबर का कहना है कि जो वयस्क आदतन दूध और उससे
बने उत्पादों का सेवन करते हैं, उनके लेक्टॉस एंजाइम सक्रिय बने रहते हैं और दूध
पचता रहता है। लेकिन जो बचपन के बाद दूध का सेवन बंद कर देते हैं, उनमें इस एंजाइम
का संश्लेषण बंद हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों को दूध पीने के बाद डायरिया और पेट दर्द
की शिकायत हो सकती है। लेकिन दूध नहीं पचा सकने वाला व्यक्ति अगर (चावल,
रोटी आदि के साथ) थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते हुए क्रम से दूध का सेवन करता है, तो एंजाइम
की मात्रा सुधर जाती है और दूध पचने लगता है।

दूध इतना अधिक होता है कि उसे दुहा जाना जरूरी है। हानाह शोध संस्थान के डॉक्टर
वाइल्ड का कहना है कि अगर दूध दुहा न जाए, तो स्तन ग्रंथियों पर बुरा असर पड़ता है।
इससे स्तन कोशिकाएं मरने लगती हैं। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि बछड़े को पेट भर
दूध मिले। इंजेक्शन का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए।

दूध का उपयोग अनादिकाल से हो रहा है। हमारे महापुरुष इसी अमृत को पीकर बड़े हुए।
इसलिए दूध के आलोचकों को न सिर्फ तथ्यों से, बल्कि परंपरा से भी सबक लेना चाहिए।

ईश्वर नियंता है, न्यायकारी है, आधीन नहीं

मित्रो,

आज बात करते हैं सिद्धांतो और नियमो की – क्योंकि बिना इनके न तो धर्म संभव है न ही ज्ञान –

वैदिक विचार – ईश्वर ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो सृष्टि नियम और सिद्धांत विरुद्ध हो – क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ है – न्यायकारी है – सत्य है – ज्ञानी है आदि आदि।

कुछ हिन्दू भाई धर्म तत्त्व से अनभिज्ञ होकर सृष्टि नियम व सिद्धांतो को ताक पर रखकर ईश्वर पर केवल दोष सिद्ध करके उसे न्यायकारी परमात्मा को अन्यायकारी और नियम विरुद्ध चलने वाला मान बैठते हैं – जिससे वो खुद ही नहीं जान पाते की ईश्वर क्या है – आइये एक छोटे से उदहारण से समझने की कोशिश करते हैं –

सिद्धांत क्या हैं और नियम क्या हैं – पहले ये समझना होगा –

सिद्धांत – जो अटल हो – सत्य हो – तर्कपूर्ण हो – जिनसे सिद्ध किया जाता है – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

नियम – जो नियमित हो – जिनमे परिवर्तन न होता हो – जो मान्य हो – सत्य और न्याय पर आधारित हो – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

2 + 2 = 4 ये एक बहुत छोटा सा सवाल है जिसे एक पहली कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी आसानी से हल कर सकता है – ये सवाल जिसका जवाब सैद्धांतिक और नियमानुसार नहीं बदल सकता – एक ही जवाब आएगा चाहे किसी भी प्रकार सिद्ध किया जाये।

यदि हम भी इस सवाल का उत्तर देंगे तो यही होगा – क्योंकि यह न्याय और सिद्धांतो की बात है – इसका कतई मतलब ये नहीं निकल सकता की हम इस सिद्धांत के आधीन हैं।

आधीनता और स्वाधीनता चेतन तत्वों में ही चरितार्थ हो सकती है – जड़ तत्वों में नहीं। क्योंकि सिद्धांत और नियम जड़ तत्व हैं – इसलिए कोई चेतन वस्तु इनके आधीन नहीं हो सकती।

अब कुछ लोग कहेंगे क्योंकि भारतीय संविधान है वो जड़ है मगर एक जज उसके आधीन है। तो यहाँ दो बाते समझने वाली हैं –

१. क्योंकि संविधान है – तो उसको किसीने बनाया होगा – और बनाने वाला चेतन होगा क्योंकि विचार और कर्म चेतन में ही संभव है जड़ में नहीं। इसलिए यदि आप कहो की कोई जज भारतीय संविधान के आधीन है तो पहले तो आपको यही सिद्धांत स्वीकार करना पड़ेगा की ईश्वर है क्योंकि इस सृष्टि के नियम और सिद्धांत स्वयं नहीं बन सकते उनको बनाने वाली कोई सत्ता होनी चाहिए जो चेतन हो इसलिए ईश्वर है।

२. जज आधीन नहीं, स्वतंत्र है क्योंकि वो अपने विवेक और न्याय से फैसला करता है। यदि जज किसी के आधीन हो तो न्याय नहीं कर सकता क्योंकि न्याय करने के लिए नियम होने चाहिए इसलिए वो नियमानुसार ही न्याय करेगा यदि नियमानुसार न्याय न करे तो पक्षपाती और दुष्ट कहलाये फिर उसको जज कोई कैसे कहे ? इसलिए की ईश्वर न्यायकारी है और न्याय के लिए नियम चाहिए क्योंकि वो सबको एकसमान न्याय करता है पक्षपात नहीं इसलिए वो नियंता है –

नियंता आधीन नहीं होता – नियंता नियम से न्याय करता है इसीलिए वो स्वतंत्र होना चाहिए – बिना स्वतंत्र हुए वो नियमपूर्वक न्याय नहीं कर सकता।

जीव नियमो के आधीन है क्योंकि जीव को कर्मो के फल भोग करने हैं। और ईश्वर स्वतंत्र है इसलिए नियमानुसार कर्मो के फल, जीव को भोग करवाता है।

अतः ईश्वर सर्वज्ञ, न्यायकारी है इसलिए स्वतंत्र है।

जीव अल्पज्ञ है, कर्मो के फल भोग हेतु परतंत्र है।

जगत और जगत का कारण जड़ है।

नमस्ते

शिवलिंग – ईश्वर के कल्याणकारी और मंगलमय होने का प्रमाण

कुछ लोग लिंग शब्द की व्याख्या ठीक नहीं करते –

कुछ लिंग शब्द की व्याख्या ही गलत करते हैं –

कुछ ऐसे भी हैं जो लिंग शब्द की व्याख्या अपने अनुरूप करते हैं –

अब पता नहीं ये अति विशिष्ट ज्ञानी – कौन से ज्ञान का प्रदर्शन करते है ?????

सदैव अर्थ का अनर्थ ही करते हैं –

उनमे कुछ ऐसे भी हैं जो बस केवल लिंग शब्द की व्याख्या कर “शिवलिंग” को सिद्ध करना चाहते हैं – जब इन व्यख्याकारो से इस शब्द के अर्थ का प्रमाण मांगो की ये अर्थ कहाँ से किस आधार पर किया तो वो उनके पास होता नहीं – फिर और ज्ञान का प्रदर्शन कर अपशब्द और भद्दी भद्दी गालियाँ शुरू हो जाती हैं – जब पुराणो से “शिवलिंग” बताओ तो मानते नहीं – बस अपना अनर्थ ही सिद्ध करने का प्रयोजन करते हैं जो ठीक विदित नहीं होता –

आइये देखते हैं – लिंग का अर्थ आखिर है क्या ???

लिंग का अर्थ होता है “प्रमाण” –
ब्रह्म सूत्र के चौथे अध्याय के पहले पाद का दूसरा सूत्र है-

“लिंगाच्च”

वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आया है. सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से बना है. शतपथ ब्राह्मण-5-2-2-3 में इन्हें सप्तदशः प्रजापतिः कहा है. मन बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ पांच वायु. इस लिंग शरीर से आत्मा की सत्ता का प्रमाण मिलता है. वह भासित होती है. आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी के सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंशों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन बुद्धि की रचना होती है. आकाश सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंश से श्रवण ज्ञान, वायु से स्पर्श ज्ञान, अग्नि से दृष्टि ज्ञान जल से रस ज्ञान और पृथ्वी से गंध ज्ञान उत्पन्न होता है. पांच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पांव, बोलना. गुदा और मूत्रेन्द्रिय के कार्य सञ्चालन करने वाला ज्ञान.
प्राण अपान,व्यान,उदान,सामान पांच वायु हैं. यह आकाश वायु, अग्नि, जल. और पृथ्वी के रज अंश से उत्पन्न होते हैं. प्राण वायु नाक के अगले भाग में रहता है सामने से आता जाता है. अपान गुदा आदि स्थानों में रहता है. यह नीचे की ओर जाता है. व्यान सम्पूर्ण शरीर में रहता है. सब ओर यह जाता है. उदान वायु गले में रहता है. यह उपर की ओर जाता है और उपर से निकलता है. सामान वायु भोजन को पचाता है.

आइये अब देखते हैं शिव का अर्थ क्या होता है –

“मंगलमय और कल्याणकर्ता”

अब इन दोनों अर्थो को मिला कर देखिये –

शिव + लिंग = मंगलमय और कल्याणकर्ता + प्रमाण

तो इससे सिद्ध है की शिवलिंग का अर्थ हुआ

वह ईश्वर जो मंगलमय और कल्याणकर्ता है उसका यह प्रमाण है की – मृत्यु के उपरान्त प्राणी की आत्मा को आवृत्त रखनेवाला वह सूक्ष्म शरीर जो पाँचों, प्राणों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्मभूतों, मन, बुद्धि और अहंकार से युक्त होता है परन्तु स्थूल अन्नमय कोश से रहित होता है। लोक-व्यवहार में इसी को सूक्ष्म-शरीर कहते हैं। विशेष—कहते हैं कि जब तक पुनर्जन्म न हो या मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक यह शरीर बना रहता है।

शिव कल्याणकर्ता है – मंगलमय है इसीलिए वह ईश्वर (शिव) यह कर्मफल व्यवस्था है कि आप जब तक मोक्ष प्राप्त न कर लो – इस हेतु आपका पुनर्जन्म होता रहेगा – और ये सूक्ष्म शरीर इसी लिए प्रमाण है की आप स्थूल शरीर से उत्तम कर्म करते हुए मोक्ष प्राप्त करो – इसी कारण ईश्वर को शिव अर्थात कल्याणकारी कहा जाता है।

यह है वैज्ञानिक और वेदो के आधार पर “शिवलिंग” का अर्थ –

वह शिवलिंग नहीं जिसका पुराणो में बड़ा ही अश्लील चित्रण मिलता है –

मैं सभी हिन्दू भाइयो से विनम्र प्रार्थना करता हु कृपया सत्य को जाने – वेदो को पढ़िए – ज्ञान और विज्ञानं की और लौटिए – दुराग्रह को त्याग कर सत्य को जाने और शिव को शिव (मंगलमय और कल्याणकर्ता) ही जाने – अन्य नहीं –

नमस्ते –