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पण्डित चमूपति जी की कुरआन-विषयक एक भविष्यवाणी

      “हम भविष्यवाणी करते हैं कि कुरान की जो नई व्याख्या लिखी जायेगी उसके ठीक (दुरुस्त) होने की कसौटी ऋषि दयानन्द की समीक्षा होगी। कुछ अहले इस्लाम अपनी कम फ़हमी (भूल भ्रान्तियों) के कारण सत्यार्थप्रकाश के चौदहवें समुल्लास: का विरोध कर तो बैठते हैं, परन्तु उन्हें ज्ञान ही नहीं कि सत्यार्थप्रकाश का चौदहवाँ समुल्लास: यात्रियों का वह मार्गदर्शक शंखनाद है, जो इस्लाम के काफिले को ठीक मान्यताओं की ओर तेज पग उठाने की प्रेरणा दे रहा है।

      काफ़िले वालो ! शंखनाद की ध्वनि को सुनो तथा ध्येयधाम की ओर पग उठाओ।”

[द्रष्टव्य, चौदहवीं का चाँद (उर्दू पुस्तक) लेखक पण्डित चमूपति, पृष्ठ १८७]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[📖 साभार ग्रन्थ – कवीर्मनीषी पण्डित चमूपति – राजेंद्र जिज्ञासु]

प्रस्तुति –  🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

गौतम-अहिल्या और इन्द्र-वृत्रासुर की सत्यकथा । ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्दिष्ट ‘गौतम-अहल्या और इन्द्र-वृत्रासुर’ की आलंकारिक कथा का वास्तविक स्वरूप न समझ कर पुराणों में इसका अत्यन्त बीभत्स रूप में वर्णन किया है। 

      ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार इन्द्र नाम सूर्य का है और गौतम चन्द्रमा का, तथा अहल्या नाम रात्रि का है। अहल्या-रूपी रात्रि और गोतम-रूपी चन्द्रमा का आलङ्कारिक पति-पत्नी भाव का कथन है। इन्द्र=सूर्य को अहल्या का जार इसलिये कहते हैं कि सूर्य के उदय होने पर रात्रि नष्ट हो जाती है। इस कथा का यही तात्पर्य निरुक्त में भी दर्शाया है –

      🔥”आदित्योऽत्र जार उच्यते रात्रेर्जरयिता। ३।५” 

      🔥”रात्रिरादित्यस्योदयेऽन्तर्धीयते। १२।११” 

      इन्द्र-वृत्रासुर कथा में भी इन्द्र नाम सूर्य का है। उसे त्वष्टा भी कहते हैं। वृत्र नाम निघण्टु में मेघ-नामों में पढ़ा है। जब वृत्र-मेघ बढ़ कर आकाश मण्डल को ढांप लेता है तब इन्द्र (त्वष्टा) इस पर अपनी वजरूपी किरणों से आघात करता है। वृत्र मर कर=बादल बरस कर पानी के रूप में भूमि पर गिर पड़ता है। निरुक्त २।१६-१७ तथा शत॰ १।१।३।४-५ में इस कथा का यही आलंकारिक रूप वर्णित है। 

      इन दोनों कथानों का वास्तविक स्वरूप ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्य प्रकरण में भी दर्शाया है। ऋषि ने मार्गशीर्ष शुदि १५ सं० १६३३ के दिन वेदभाष्य के विषय में जो विज्ञापन छपवाया था, उसमें भी इसका शुद्ध स्वरूप दर्शाया है। देखो ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भाग १, पूर्ण[१] ७४॥

[📎पाद टिप्पणी १. पुस्तक में ‘पूर्ण’ के स्थान पर ‘पृष्ठ’ अंकित था, जो की मुद्रण दोष प्रतीत होता। हमने इसे ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन से मिलान करके सही कर दिया है – 🌺 ‘अवत्सार’]

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

(📖 साभार ग्रन्थ – ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास)

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वर्तमान परमाणु (एटम) की उत्पत्ति और वेद -ब्रह्यचारी अग्निव्रत नैष्ठिक

जिस समय डाल्टन का परमाणुवाद संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ उस समया एटम (परमाणु) को किसी भी पदार्थ का मूल कण माना जाने लगा परन्तु इलेक्ट्रोन आदि की खोज से डाल्टन का परमाणुवाद इतिहास की बात होकर रह गया। एटम को विखण्डित करते-करते आज मूल कण कहे जाने वाले कणों की संख्या दौ सौ के लगभग ही हो चुकी है। इन कणों को भी वैज्ञानिक उत्पन्न कर रहा है, दूसरों में परिवर्तित कर रहा है उदासीन पाई मैसोन की त्रिज्या १० से, मानी जा रही है तब इन्हें कैसे मूलकण माना जाये ?

            आज एटम का स्टेण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रारूप में छः क्वार्क (u, d, c, b, t) तथा छः लैप्टोन (इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन, टाऊन, इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो, म्यूऑन-न्यूट्रिनो तथा टाऊन-न्यूट्रिनो) ये मूल कण कहे जा रहे है। अन्य मूल कणों को इन्हीं से निर्मित माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है-

All evidences point to the fact that the leptons have no internal structure and are point particles. They are considered more elementary than handrons which have internal structure ¼quark-structure½ Leptons and quarks seem to be at the same level of elementriness.

            ¼Atomic & Nuclear Physics – Vol. II S.N. Ghoshal-New Delhi, P.९०५½

            अर्थात् लप्टोन तथा क्वार्क कणों की आन्तरिक संरचना नहीं होती इस कारण ये कण प्रोटीन, न्यूट्रोन आदि कणों की अपेक्षा अधि कमूल कण हैं। इसके आगे यही ग्रन्थकार लिखता है-

            Each type of Lepton is associated with a neutrino. The elementriness

            अर्थात् प्रत्येक लेप्टान के साथ लगभग शून्य द्रव्यमान का कण न्यूट्रिनों संयुक्त होता है। इस कण के बारे में ब्रिटिश वैज्ञानिक लिखते हैं-

            Every particles is accompanies by another particles called neutrino which mass in rest is zero. It is high energy particles. Its speed is equal to light speed.

            ¼Atomic energy-macmillon & Co.Ltd.-London-१९६२½

            अर्थात् विरामावस्था में शून्य द्रव्यमान वाला न्यूट्रिनो कण प्रत्येक कण के साथ संयुक्त होता है जिसमें उच्च ऊर्जा होती है तथा प्रकाश वेग गति करता है।

            प्रश्न यह है कि क्या न्यूट्रिनो तथा उसके संयोगी कणों का संयोग अनादि है? ऐसा हो ही नहीं सकता तब ये कण भी विशेषकर वे जिसके साथ न्यूट्रिनों का संयोग अनिवार्य है, मूलकण नहीं हो सकता तब सिद्ध है कि लेप्टोनों का निर्माण कभी न कभी हुआ है। इसी प्रकार क्वार्क कणों के साथ ग्लूऑन कणों की कल्पना की जाती है। जिस आधार पर लेप्टोनों का अनादित्व असिद्ध हुआ उसी प्रकार क्वार्कों का भी अनादित्व असिद्ध होगा। तब जो कण अनादि नहीं हो सकते वे मूल कण भी कैसे कहे जा सकते हैं? फिर वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक कण गतिशील ही होता है। वेद भी ऐसा स्पष्ट रूपेण कहता है। विज्ञान और वेद दोनों ही यह भी मानते हैं कि कणीय गति से ही कणों की सत्ता है।

            वायवायाहि दर्शते मे सोभा अरंकृताः तेषां पाहि-ऋग्वेद १/२/१

            मंत्र बतला रहा है कि गति गुण ने ही संसार भर के मूर्तिमान पदार्थों को सजा रखा है और वही इनकी रक्षा भी कर रहा है।

            विज्ञान के शब्दों में-

Only Few are stable, such as the proton, electron, neutrino, positron, photon, and poton, the rest are all unstable.

            ¼ Atomic & Nuclear Physics-S.N.GHOSHAL, P.९०१½

            निश्चित ही गति की सत्ता अनादि नहीं है तब वर्तमान में मूलकण कहे जाने वाले कणों में से कोई भी कण आद्य अवस्था में विद्यमान नहीं था। जब इनका अस्तित्व गति के अभाव में समाप्त हो जाता है तब ये कण किसमें परिवर्तित हो जाते हैं उस सत्ता को मूलावस्था क्यों न माना जाय? प्रश्न यह भी है कि बिना गति इन कणों की सत्ता रहती नहीं और वैज्ञानिक इन कणों का द्रव्यमान विराम अवस्था में ही मापते और बतलाते हैं तब क्यों कर इन्हें विराम में प्राप्त कर पाते हैं? फिर वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि गतिशील कण का द्रव्यमान अपेक्षाकृत वर्धमान होता जाता है। इससे सिद्ध है कि ऊर्जा में कुछ न कुछ द्रव्यमान अवश्य होता है।

            अब वैज्ञानिक सृष्टि की आदिम अवस्था में इन कणों का निर्माण स्वीकार करते हैं, वे मानते हैं कि प्रारम्भ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कल्पनातीत ताप था।

            Thus at the time + १०-४५ after zero time the temperature was about १०-३२ K. Between + १०-३५ s only rwo of the fundamental interactions were operative. These were the unfield strong weak force and the gravitati onal force. A type of very heavy particles are called the X-Bosons exited during the period, which  helped change the quarks into leptons and vikce weasa———-As we approached the time + १०-१०s there is defreezing of the strong plus electron weak interaction is and the two interactions now appear as Distinct. So there are now the there fundamental interaction – gravitational strong nuclear and electro weak in operation. W+ and Zo Bos appear at + १०-१० s The electron weak interaction begin to defreeze electro-megnetic and weak forces become seperated now we have all the four distinct interactions operative. Between १०-६s -१०-४s there is another transition. The neutrons and the protons being to take shape due to the combination of the quark. So that the fundamental particles are produed familiar to us in the present day universe begin to appear.

            At about + १०-३s the temp has fallen to ८*१० १० K. Hundrads of different elementry particles are produced by collisions at the available energy.

            At the time zero plus there minutes the temp is about to ७० times, that found in the core of the sun. This is when the protons and neutrons begin to combine to from the complet nueclai.

            The formation of the atoms came much later at the time zero plus ५००००० years. The universe cooled down sufficiently so that electrons and the nuclei could join together to from the atoms.

            { Atomic and Nuclear Physics – Page ९५१-५२}

            उपर्युक्त उदाहरण पर विचारने से निम्न तथ्य सामने आते हैं-

१.        आदिम अवस्था का ताप सूर्य के केन्द्रीय ताप का १ करोड़ अरब गुना था, जो वर्तमान में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं सम्भव नहीं होगा।

२.        उस ताप में अत्यन्त तेजी से गिरावट आती है।

३.        उस समय किसी भी प्रकार के कण नहीं होते हैं। कहा गया है कि सर्वप्रथम उत्पन्न बोसोन कण लेप्टोन को क्वार्क तथा क्वार्कों को लेप्टोनों में परिवर्तित करते हैं।

४.        लगभग ५ लाख वर्ष में एटम का निर्माण हो पाता है।

५.        पूर्व में दो ही बल थे जो बाद में चार बलों में विभक्त हो गये। उपर्युक्त बिन्दुओं की समीक्षा से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं-

१.  वह उच्चतम ताप कैसे, किसमें तथा किसके द्वारा उत्पन्न हुआ? यदि ईश्वरीय सत्ता को भी यह प्रश्न शेष रहेगा कि ताप किस प्रकार तथा किस उपादान पदार्थ से उत्पन्न किया गया। यह ताप वाली स्थिति अनादि तो हो नहीं सकती तब उपर्युक्त प्रश्न अनुत्तरित रहेगे ही।

२.  उस ताप में इतनी तेजी से गिरावट आना भी कैसे हुआ? केवल ३ मिनट में ताप १० ३२ K से लगभग ३-४ अरब K तक पहुंच जाना अप्रत्याशित सा प्रतीत होता है। केवल तीन मिनट में नाभिकों का निर्माण हो जाना जबकि एटम के निर्माण में ५ लाख वर्ष, लगे, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती।

३.  बोसोनों की उत्पत्ति के पश्चात् क्वार्क से लेप्टान तथ लेप्टान से क्वार्क बनने के सिद्धान्त में अन्योन्य आश्रय का दोष आयेगा। इन दोनों में कौन प्रथम, इसका उत्तर कैसे दिया जायेगा? फिर जो प्रथम बना तो किससे और यदि दोनों एक साथ कैसे बने और जिससे भी बने उसी से फिर क्यों नहीं बने ?

            जैसा कि हम विचार कर चुके हैं कि अब तक मूलकण कहे जाने वाले कणों में से मूलकण कोई प्रतीत नहीं होता, हाँ ग्लूऑन, न्यूट्रिनों, फोटोन जैसे कुछ कण अवश्य ही ज्ञान कणों में प्राथमिक प्रतीत होते हैं।

                        -: अब हम वैदिक विचारधारा को प्रस्तुत करें:-

            सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि सृष्टि सृजन के पूर्व अर्थात् आदिम अवस्था क्या थी?

            गीर्णिभुवनं तमसापगूढ़म……………ऋग्वेद १०१/८८/२

            अर्थात् उस समय सब कुछ निगला हुआ सा और अंधकार से आवृत था।

            तम आसीत्तमसागूढ़मग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। ऋग्वेद १०/१२९/३

            अर्थात् सबको लीन किये हुये चिन्ह रहित तथा अंधकार से आवृत और सब ओर व्याप्त यह प्रकृति थी।

            नासदासीनों सदासीत्तदानीं नासीद्वजः ऋग्वेद-१०/१२९/१

            अर्थात् उस समय शून्य रूप असत् आकाश भी नहीं था क्योंकि उसका व्यवहार नहीं था और न ही सत् अर्थात् सत्व, रज, तम से बना प्रधान ही था अथवा उस समय अभाव रूप असत् तथा भावरूप व्यक्त जगत् दोनों ही नहीं थे। और न रजस् अर्थात् परमाणु ही थे। इसी को  भगवान मनु ने इस प्रकार कहा-

            आसीदिदं तमोभूतम प्रज्ञातम लक्षणम्।

            अग्रतक्र्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।। मनु १/५

            अर्थात् उस समय की अवस्था पूर्णतः अन्धकारमय, न जानने योग्य, लक्षणविहीन, तर्क न करने योग्य प्रसुप्त जैसी थी। कोई ध्वनि, प्रकाश, गति आदि कुछ भी नहीं था।

            इसके साथ

            ऽस्वधया तदेकम्…………………..ऋ. १०/१२९/२

            अर्थात् वह परमात्मा स्वधा (प्रकृति ) के साथ रहता है क्योंकि

            योऽस्याधयक्षः………………………..ऋ. १०/१२९/७

            अर्थात् वह परमात्मा ही इस सृष्टि का अध्यक्ष है, वही इसकी रचना, पालन तथा धारण आदि करता है। वेद यह भी स्पष्ट करता है कि उपर्युक्त अवस्था न केवल स्थान विशेष में बल्कि…………..

            तिरश्र्वीनोक्तितो रश्मिरेषामधः रिवदासीदुपरि स्विदासीत्……………. -ऋ. १०/१२९/५

            उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार करने पर निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं-

१.        वह अवस्था पूर्णतः अंधकार व प्रसुप्त होने से अव्यक्त एवं अज्ञेय ही होती है। जिस प्रकार हम किसी वस्तु को निगल लेते हैं तब निगली हुई वस्तु का अभाव तो नहीं होता परन्तु वह छिप जाती है। इसी प्रकार उस समय सब कुछ अंधकार द्वारा निगला हुआ होता है। अंधकार, शांत, निष्क्रियता की सीमा इतनी कि उससे अधिक ब्रह्माण्ड में कहीं एवं कभी सम्भव नहीं हो सकती।

वैज्ञानिक प्रारम्भिक अवस्था को अत्यन्त तप्त, तेजस्वी बतलाते हैं जहां प्रकाश एवं ऊष्मा की चरम सीमा है जो कहीं तथा कभी उसके पश्चात् कल्पित भी नहीं की जा सकती जबकि वैदिक विचारधारा इसके ठीक विपरीत है अर्थात् उस समय इतना शैत्य जितना कभी और कहीं भी इस ब्रह्माण्ड में इस अवस्था के पश्चात् सम्भव नहीं है।

२.        उस समय एटम आदि नहीं होते हैं। यहां ‘परमाणु’ शब्द का अर्थ एटम या अणु (मॉलीक्यूल) आदि ही है न कि सबसे सूक्ष्म कण भगवान यास्क के शब्दों में-

अर्थात् प्रकाश एवंज ल का सूक्ष्मतम कण वा लोक को रजस् कहते हैं। प्रकाश का सूक्ष्म कण फोटोन जल का एक अणु अर्थात् किसी भी साधन से दृष्टि में आने योग्य कण वा लोक लोकान्तर। ये सभी उस समय अविद्यमान थे।

३.        उस समय जो भी मूलकण होते हैं, वे सलिल अवस्था जैसे होते हैं। ‘‘सलति गच्छति निम्नं देशं सलिलम्’’ अर्थात् जो नीचे की ओर सरकता है, फिसलता है ‘सलिल’ कहलाता है। इस का तात्पर्य यह नहीं कि उस समय ऐसी अवस्था वास्तव में होती है बल्कि यहां आशय मात्र यह है कि कण परस्पर किसी भी प्रकार के चिपचिपेपन से रहित अर्थात् एक दूसरे पर पूर्णतः फिसलने योग्य होते हैं। पूर्णतः पारस्परिक बन्धन (आकर्षण या प्रतिकर्षण) रहित। और यह सलिल भी कैसा था।-

आपं वा इयमग्रे सलिल…………………….मासीत् तै. १/१/३/५

अर्थात् प्रारम्भ में यह ‘आपस्’ ही सलिल था। और आपस् क्या है-

अिर्वाइदं सर्वमाप्तम्……………….शतपथ १/१/१/१४

अर्थात् ऐसा पदार्थ सर्वत्रव्याप्तथा और भी-

अगृता ह्यापः……………………..-शत. ३/९/४।१६

            अर्थात् वह आपस् अमृत था अर्थात् अनादि था ऊपर, नीचे, दांये, बांये सर्वत्र वह सलिल रूपी मूलपदार्थ भरा रहता है। इसी कारण आकाश अर्थात् अवकाश का अभाव बताया गया है।

४.        इस अवस्था को वेद ‘स्वधा’ नाम से सम्बोधित करता है।

स्वधा शब्द का अर्थ है- ‘‘स्वं दधातीति स्वधा’’ अर्थात् जो स्व को धारण करती है। अब स्व क्या है-

स्वरित्यसौ (द्यु) लोकः-शत. ८/७/४/५

अन्तो वै स्वः – ऐत. ५/२०

अर्थात् द्यु को धारण करने वाली। यहां ‘द्यु’ शब्द का अर्थ विद्युत् से है अर्थात् जो विद्युत को धारण करने वाली है।-

यजुर्वेद ३३/२२ के शब्दों में- ‘‘अमृतानि तस्थौ’’ अर्थात् विद्युत रूपी ‘स्वधा’ कहा।

            इस स्वधा को शतपथकार ने और भी स्पष्ट किया-

            स्वधाकांर पितरः (उपजीवन्ति) – शत. १४/८/१

            मत्र्याः पितरः – शत. २/१/३/४

            अर्थात् जो उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं, वे पदार्थ वा कण पितर कहलाते हैं तथा वे पितर स्वधा के कारण ही जीवित रहते हैं अर्थात् वह पदार्थ जिसके आश्रय पर विनाशी कण निर्भर हैं, स्वधा कहलाता है और इसी का अपर नाम प्रकृति है।

५.        इस अव्यक्त स्वधा प्रकृति के साथ परमात्मा चेतन तत्व सदैव रहता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियन्त्रक व संचालक है। उसके बिना उस निष्क्रिय, शान्त, अन्धकारावृत मूलपदार्थ प्रकृति में क्रिया का होना सर्वथा असम्भव है।

अब प्रकृति की इस स्थिति के गुणों पर विचार करते हैं। वर्तमान विज्ञान इस स्थिति तक विचार नहीं पाया है। वेद उस अव्यक्त प्रकृति को ‘‘त्रितस्य धारया” -ऋ. ९/१०२/३ तथा ‘त्रिधातु’ – ऋ. १/१५४/४ कहकर तीन सत्व, रजस् तथा तमस् का बोध करा रहा है। वेद में अनेकत्र प्रकृति के त्रैत का उल्लेख है।

            इस त्रैत को भी ‘सलक्ष्मा’ ऋ. १०/१२/६ कहकर साम्यावस्था वाली सिव् कर रहा है प्रकृति के त्रैत और उसकी साम्यावस्था विषय में भगवत्कपिलर्षि ने लिखा-

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः – सांख्य दर्शन १/२६

            अर्थात् सत्व, रजस् तथा तमस् की साम्यावस्था का नाम, प्रकृति है। अब यह विचारणीय है कि सत्व, रजस् तथा तमस् क्या है? इनकी साम्यावस्था क्या है? कुछ आर्य विद्धान् प्रोटोन, इलेक्ट्रोन तथा न्यूट्रोन को क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् मानते रहे हैं परन्तु अब इलेक्ट्रोन को छोड़कर अन्य कणों की मौलिकता विज्ञान ने असिद्ध कर दी है। हमारीदृष्टि में इलेक्ट्रोन भी मूल कण नहीं है।

            अब क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् पर विचार करते हैं-

            ‘‘प्रीत्यप्रीति विषादाद्यैर्गुणाना मन्योन्य वैधम्र्यम्” – सां. द. १/९२

            ‘‘प्रकाशशीलं सत्वं क्रियाशीलं रजः स्थितिशीलं तमः” – यो. द. २/१८

            प्र व्यासर्षि भाष्य अर्थात् सत्व प्रीति आकर्षण एवं प्रकाश युक्त, रजस् अप्रीति (प्रतिकर्षण) तथा क्रियाशीलता युक्त तमस् विषाद् (उदासीनता) युक्त तथा स्थितिशील है। सांख्य सिद्धान्त में ख्यातिर्लब्ध आर्य विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इनके अतिरिक्त अन्य गुणों का भी वर्णन किया है। यथा-सत्व = लघु, रजस् = चल तथा प्रवर्तन, तमस् = उदासीन एवं अकर्मण्य।

            अर्थात् ऐसा कण जो प्रकाश तथा आकर्षण का अधिष्ठान होते हुये लघु हो, सत्व, ऐसा कण जो क्रियाशीलता गति तथा प्रतिकर्षण का अधिष्ठान हो, रजस् तथा ऐसा कण जो गुरूता तथा निष्क्रियता का अधिष्ठान हो तमस्, साथ में ये सभी आदि मूलकण होवें। वर्तमान में कहे जाने वाले मूलकणों में से न्यूट्रिनों, फोटोन तथा ग्लूऑन की स्थिति कुछ मूल प्रतीत होती है। फोटोन जैसा सत्व, न्यूट्रोन जैसा रजस् तथा ग्लूऑन जैसा तमस् हो सके परन्तु फोटोन में आकर्षण न्यूट्रोन में प्रतिकर्षण जब तक सिद्ध न हो तथा ग्लूऑन का स्वरूप पूर्ण स्पष्ट न हो तब तक ऐसी तुलना उचित नहीं कही जा सकती। विज्ञान जो भी सिद्ध वा प्राप्त करे, हमारी मान्यता है कि मूल प्रकृति उन मूलकणों का समूदाय है संयोग नहीं जो परस्पर पूर्णबन्धन सहित, शान्त एवं उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं। इस पूर्ण शिथिल, शान्त अंधकार में-

            ‘‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति” (तै. उप.)

            ‘‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि’’ -ऋ. १०/१२९/४

            अर्थात् परमात्मा सर्वप्रथम सृष्टि रचना करने की कामना करता है। किसी भी कार्य के लिये सर्वप्रथम इच्छा का होना अनिवार्य है परन्तु परमात्मा की इच्छा, ज्ञान व क्रिया सब स्वभाविक होते हैं।

            ‘‘स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च” – श्रे्व. उप.

            ळम जिस प्रकार की इच्छा करते हैं, उस प्रकार की इच्छा नहीं बल्कि जीवों के पालनार्थ ( भोग एवं मोक्ष हेतु) इच्छा करता है। भगवान मनु ने कहा-

            ‘‘व्यंजयत्रिदम्……………………….प्रादुरासीतमोनुदः।’’ -मनु. १/६

            अर्थात् उस अंधकारमयी प्रकृति का प्रेरक इस जगत् को प्रकटावस्था में लाता हुआ परमात्मा प्रकट हुआ। सर्वप्रथम उसने क्या किया-

            ‘‘यानि, त्रीणि बृहन्ति येषां चतुर्थं विनियुक्त वाचम्।’ – अथ. ८/९/३

            अर्थात् जो तीन (सत्व, रजस् तथा तमस्) हैं उनमें चैथा ब्रह्म वाक् नियुक्त कर देता है। यहां यह वाक् का अर्थ सामान्य नहीं होकर गूढ़ अर्थ है।

            ‘‘बाग्वै भर्गः।’’ -शतपथ १०/३/४/१०

            अर्थात् भर्ग (तेज) ही वाक् है, तब अर्थ हुआ कि वह परमात्मा तेजहीन इन तीनों को तेज युक्त कर देता है जगा देता है।

            ‘‘तस्मिन् प्रजापतौ सर्वाणि यानि त्रीणि’’ – अथर्व- १०/७/४०

            कहकर सत्व, रजस् तथा तमस् को परमात्मा की ज्योति रूप जड़ शक्तियां कहा है। इस तेज को ही ऋग्वेद में अग्नि नाम दिया है।

            ‘‘यस्मिन् देवा विदथे मादयन्ते’’ -ऋ. १०/१२/७

            ‘‘यस्मिन् देवा मन्मनि संचरन्ति’’ -ऋ. १०/१२/८

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि के शक्तिशाली एवं सक्रिय होने पर ही सभी दिव्य शक्तियां गति और क्रिया का संचार करती हैं। इस विद्युद्रूपाग्नि को मानव कभी जान भी सके परन्तु उस ईश्वरीय तेज को कभी परीखित वा निरीक्षित नहीं किया जा सकेगा। यजुर्वेद में……………….

            ‘‘द्यौरासीत्पूर्वचिति’’……………२३/५४ का भाष्य करते हुये भगवान् दयानन्द कहते हैं कि विद्युत पहिला संचय है। ऋ. ४/१/११ में कहा- स जायत प्रथमः अर्थात् वह विद्युद्रूपाग्नि सर्वप्रथम उत्पन्न होता है ऐसा प्रतीत होता है कि कारणावस्था में परमात्मा द्वारा तेज प्रदान करने से मूल उपादान में क्षोभ उत्पन्न होता है जिससे तीन तीनों गुणों का अन्तर्निहित भाव उत्पन्न होता है आकर्षण, प्रतिकर्णण, प्रकाशशीलता, क्रियाशीलता, गुरूता, लघुता आदि सभी गुण अस्तित्व में आ जाते हैं अथवा जो अन्तर्मुखी थे वे बहिर्मुखी हो जाते हैं। यहां विद्युत् की उत्पत्ति संकेत है परन्तु वास्तव में विद्युत् की उत्पत्ति नहीं होती। वेद विद्युत को ‘प्रत्ना’ (ऋ. ६/६२/५) अर्थात् पुरातन मानता है। यजुर्वेद ३/१६ में भी महर्षि के भाष्य में इसे प्राचीन और अनादि कहा है। त बवह प्रथम अवस्था अव्यक्त होना मात्र है।

            प्रश्न यह हो सकता है कि सभी गुण अव्यत्त वा साम्य कैसे रहते हैं? यह अत्यन्त रहस्यमय तथ्य है कि जिसका उद्घाटन सम्भव प्रतीत मुझे तो नहीं होता। हां इतना भी कहूंगा कि वर्तमान विज्ञान भी व्यक्त ऊर्जा के भी स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सका है तब अव्यक्त को स्पष्ट कर देना क्यों कर सम्भव है? कोई बताये कि स्थितिज ऊर्जा के लिये कोई पिण्ड जब नीचे गिरने लगता है और उसकी स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन होता है। मान लें उस पिण्ड ने नीचे गिरकर किसी वस्तु को तोड़ दिया तब वह ऊर्जा कहां गयी? प्रोटोन तथा न्यूट्रोन की अधिकता वा न्रूवता से कोई वस्तु आवेशित हो जाती है। कोई बताये कि इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि में आवेश क्यों होता है आवेश का स्परूप क्या होता है, सर्वप्रथम इसे कौन उत्पन्न करता है, ये प्रश्न हैं जिनका समाधान नहीं हो सका है तब अव्यक्त को व्यक्त करवाना कैसे सम्भव है? आज तक इलेक्ट्रोन के स्वरूप को भी पूर्णतः जान नहीं पाये जबकि इसके प्रयोग से संसार में विराट् क्रान्ति खड़ी हो गयी तब मूलावस्था में गुणों की साम्यता का स्वरूप दर्शाना क्योंकर हो सकता है?

            कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रकृति का प्रत्येक कण तीनों गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) का युग्म है जिनके संयोग विशेष से धन ऋण वा उदासीन कण अस्तित्व में आते हैं। मेरे विचार से इस मान्यता का यह दोष होगा कि आवेश का युग्म अनादि नहीं हो सकता तब प्रकृति का अनादित्व असिद्ध होगा, जो अनेक प्रश्नों को जन्म देगा। इस कारण प्रत्येक कण को स्वतंन्त्र ही मानना होगा और उन्हीं कणों को सत्यार्थ प्रकाश में परमाणु कहा है। कोई यह कहे कि विद्युत् का प्रथम प्राकट्य कैसे होता है? तो इसका उत्तर यह है कि चेतन कत्र्ता के रहते तो यह होना सम्भव है परन्तु इसके बिना अवश्य ही असम्भव रहेगा। मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि प्रारम्भ में अत्युच्च ताप के अस्तित्व को कैसे सम्भव मानते हैं? यह अवस्था तो नियन्त्रक एवं नियामक सत्ता परमात्मा के सहाय से भी सम्भव नहीं। हां कुछ कालोपरान्त अवश्य सम्भव है। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नत होगा वैदिक प्रक्रिया को अवश्य स्वीकार करेगा। अब इसके पश्चात्

            ‘‘प्रकृतेर्महान्……………………………’’-सां.द. १/२६

१.        शब्द तन्मात्रा:- इस तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानी गयी है। शब्द तन्मात्रा शब्द ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूप है जिसके स्वरूप का निर्धारण करना अति दुष्कर कार्य है। आकाश कोई पदार्थ विशेष न होकर शून्य वा अवकाश का ही नाम है। ऋषि दयानन्द जी का कहना है- ‘‘वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें’’ (सत्यार्थ प्रकाश-अष्टम समुल्लास)

भगवान कणादर्षि ने शब्द को आकाश का गुण बतलाया है। इस आधार पर अनेक विद्वान् आकाश को शून्य न मानकर पदार्थ विशेष मानते हुए कहते हैं कि गुण शून्य नहीं तो गुणी शून्य क्योंकर हो सकता है? मेरे विचार से वे कणाद ऋषि का आशय नहीं समझते । आचार्य ने शब्द को आकाश का गुण उस प्रकार सहज भाव से नहीं माना है जिस प्रकार अन्य गुण-गुणियों के सम्बन्ध दर्शाये हैं बल्कि अन्य किसी भी भूत का गुण सम्भव न मानकर आकाश के ही शेष रह जाने पर -‘‘परिशेषालिंगमा-काशास्य’’ वै. द. २/१/२७

            इसके आगे आचार्य ने आकाश का समवाय वा असमवाय कोई कारण नहीं माना और न ही आकाश के वायु आदि के समान परमाणु ही स्वीकार किये हैं।

            भगवत्कणाद ने काल, दिशा के समान आकाश को भी निष्क्रिय माना है। मेरे विचार से इन तीनों का व्यवहारार्थ ही उपयोग है। यह न किसी का उपादान है और न उसका कोई उपादान है। इसका मुख्य लिंग आचार्य लिखते हैं-

            ‘‘निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिंगम्।’’ – वै. द. २/१/२०

            अर्थात् निकलना, प्रवेश करना, इस प्रकार की क्रिया का सम्भव होना, आकाश का लिंग है। ऐसे ही गुण कुछ सर आलीवर लाज ने ईथर रूपी आकाश के बताये हैं परन्तु वे इसे पदार्थ विशेष मानते हैं साथ ही ईथर को सर्वव्यापक, प्रसार संकुचन से पूर्णतः रहित मानते हैं, जो उचित नहीं।

२.        स्पर्श तन्मात्रा:- स्मर्तव्य है कि आकाश शून्य है परन्तु शब्द तन्मात्रा शून्य नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि सर्वप्रथम उस तामस् प्रधान अहंकार में शब्द (नाद) उत्पन्न होता है। वैसे महत् अवस्था से ही गति का प्रादुर्भाव मानना होगा अन्यथा अहंकार की उत्पत्ति भी सम्भव न हो परन्तु वह गति क्षेत्रीय सम्पीडन, अक्षीयचक्रण वा कम्पन के रूप में ही हो सकती है।

वायु की भांति उन कणों का स्वेच्छया गति करना, उस समय (प्रारम्भ में) सम्भव नहीं इसी कारण ‘‘आकाशाद्वायुः’’ – तै. उप.

            अर्थात् आकाश से वायु उत्पन्न होता है अर्थात् नाद से हलचल उत्पन्न होना ही वायु का उत्पन्न होना है। कणों की हलचल के समय ही अवकाश उत्पन्न हो जाता है, वहीं आकाश कहलाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार की स्थिति में ही वायव्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और उसी स्थिति में विभिन्न कणों का निर्माण होता है। तथा हाईड्रोजन आयनों के निर्माण तक की प्रक्रिया तक की प्रक्रिया स्पर्श तन्मात्रा निर्माण के अन्तर्गत माना जा सकता है। ये सभी कण विशाल गैसीय मेघ के रूप में परिवर्तित हुये। तदुपरान्त-

३.        रूप तन्मात्रा:- सम्भवतः दृश्य प्रकाश के सूक्ष्मतम फोटोन को रूप तन्मात्रा कहते हैं। अब तक जो ऊर्जा थी, उसे अदृश्य तरंगो के रूप ही माना जा सकता है। स्थान-स्थान पर हाईड्रोजन आयनों के संलयन से नेब्यूलाओं को निर्माण होने लगा इसे ही ‘‘वायोरग्निः’’ – तै. उप. कहा। और भी

‘‘अग्निना अग्निः समिध्यते’’ – ऋ. १/१२/६

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि से अग्नि प्रकट होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऊर्जा की उत्पत्ति का यह एक नया मार्ग खुल जाता है। जो अब तक जारी है। तब तक ऊर्जा का निरन्तर पतन हो रहा था अब इससे स्थायित्व वा वृद्धि का एक नया स्त्रोत खुल जाता है।

अर्थात् प्रकृति से महत् तत्व का निर्माण होता है इसी को भगवान मनु ने ‘मन’ कहा है। यह महत् तत्व सम्भवतः फोटोन, न्यूट्रिनों एवं ग्लूऑन से पूर्व की स्थिति हो क्योंकि साम्यावस्था भंग होने मात्र से ही महत् तत्व का निर्माण होता है इस कारण ये फोटोन आदि की पूर्वावस्था जिनमें उपर्युक्त सत्वादि गुण हों, होगी। इन तीनों को सात्विक, रजस् तथा तामस् महत् कह सकते हैं। तदुपरान्त- ‘‘महतोऽहंकारः’’ -सां. द. १/२६

            अर्थात् उस महत् तत्व तीन प्रकार का होता है विचारपूर्वक यह प्रतीत होता है कि फोटोन, न्यूट्रिनों तथा ग्लूऑन की स्थिति यहां बन जाती है सम्भव है एक्स वा गामा जैसी किरणों का निर्माण प्रथम होता है और इन्हीं के फोटोन प्रथम निर्मित होते हों। मेहता रिसर्च इन्सटीट्यूट प्रयाग में अन्तराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक डॉ. अशोक सेन का स्ट्रिंग सिद्धान्त यहां प्रारम्भ होता हो परन्तु यहां तक प्रकाश ऊष्मा तो है परन्तु दृश्य प्रकाश की उत्पत्ति अभी वैदिक विचारधारा से तो नहीं मानी जा सकती क्योंकि दृश्य प्रकाश-रूप तन्मात्रा का ही अपर नाम हो सकता है तथा इन से ही लेप्टानों विशेषकर इलेक्ट्रोन, पाजिट्रॉन को भी अहंकार के अन्तर्गत मान सकते हैं, की उत्पत्ति होती है। सात्विक अहंकार गौण तथा तामस की प्रधानता से क्वार्क आदि कणों का भी निर्माण होता है। पुनरपि क्वार्क आदि कणों को अहंकार के अन्तर्गत ही समाहित किया जायेगा। ‘ अहंकार शब्द का अर्थ है जो व्यक्त किया जा सके। अब से पूर्व यद्यपि अव्यक्त अवस्था कब की ही भंग हो गयी परन्तु ऐसी अवस्था जिसे विज्ञान वा बुद्धि द्वारा व्यक्त किया जा सके, वह अहंकार ही है।

            ऐसा प्रतीत होता है कि यहां तक उत्पन्न कण अपने प्रतिकणों से मिलकर अपार ऊर्जा पैदा करते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि फोटोन आदि की अधिकता ही उस ऊर्जा का कारण हो जो भी हो मन का वह स्वरूप दृश्य नहीं होगा। इन्हीं प्रक्रियाओं के चलते तन्मात्राओं की उत्पत्ति भी होती जाती है-

            ‘‘अहंकारात् पंचतन्मात्राणि’’ – १/२६ सां. द.

            अर्थात् अहंकार से पांच तन्मात्रायें उत्पन्न होती हैं जिनमें से शब्द तन्मात्रा की उत्पत्ति अहंकार के प्रथम चरण में ही हो जाती प्रतीत होती है।

            प्रश्न यह है कि सूक्ष्म तन्मात्रा क्या होती है अथर्ववेद १/३३/१, ३ में सूक्ष्म तन्मात्राओं के गुण निम्न प्रकार दर्शाये हैं।

            (हिरण्यवर्णाः) अर्थात् व्यापनशील और कमनीय गुणों वाली (यासु सविता यासु अग्निः जातः) जिनमें सूर्य और पार्थिव अग्नि उत्पन्न हुई (याः) जिन (आपः अग्नि द्धिरे) तन्मात्राओं ने विद्युद्रूपाग्नि को गर्भ के सामन धारण किया है (यासां देवाः दिवि भक्षम्) जिन तन्मात्राओं का सब प्रकाशमय पदार्थ आकाश में भोजन करते हैं।

            इससे निम्न तथ्य उद्घाटित होते हैं-

१.  तन्मात्रायें सम्पूर्ण अवकाश रूपी आकाश में फैली रहती हैं।

२.  तन्मात्रायें कमनीय स्वरूप वाली अर्थात् आकर्षण-प्रतिकर्षण आदि बलों से युक्त होती हैं। फोटोन से लेकर नाभिक वा एटम वा आयन इन सबको तन्मात्रायें कह सकते हैं।

३.  सूर्य और पार्थिव अग्नि उनमें होती हैं अर्थात् इनके अन्दर ही नाभिकीय संलयन आदि क्रियाओं के होने से प्रकाशमय पदार्थों द्वारा तन्मात्राओं का भोजन करना लिखा है।

            ‘तन्मात्रा’ शब्द का अर्थ है- उतना सा, सूक्ष्म सा अर्थात् जिसका अपना कोई वैशिष्ट्य हो उसके और सूक्ष्म होने से समाप्त हो जाये। प्रतीत होता है कि भगवत्कणाद का परमाणु है।

            तन्मात्राओं के भेदः

            पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति क्रमशः होती है।

            तन्मात्राओं को प्रकाश में भक्षण करने की बात यही कि हाईड्रोजन का भक्षण हीलियम तथा ऊर्जा की उत्पत्ति होती है इसके उपरान्त ब्रह्माण्ड में अनेकत्र नेब्यूलाओं का निर्माण हो जाता है-

            ‘‘यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत।

            अत्रा समुद्र आ गुढ़हमः सूर्यमाजभर्तन।’’ – ऋ. १०/७२/७

            अर्थात् जब दैवी शक्तियां मेघों की तरह लोकों को अपने परमाणुओं से पूरित करती हैं, तब आकाश में निगूढ़ सूर्य को चमका देते हैं। अन्यच-

            ‘‘प्रसीमादित्यो असृजद्विधंर्ता ऋतं सिन्धवो वरूणस्य यन्ति’’        -ऋ. २/२८/४

            अर्थात् सभी ओर विविध लोकों का धारक सूर्य (हिरण्यगर्भ) उदक, नदी और मेघों को प्राप्त होते हैं। यहां उदक, नदी तथा मेघ जल के नहीं बल्कि वह सूर्य ही आग का विशाल समुद्र होता है

 जिसमें अनेक आग्नेय धारायें होती है। अन्दर होने वाली प्रक्रिया के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय खगोलज्ञ डॉ. जयन्त विष्णु नार्लीकर का मानना है- हाईड्रोजन का संलयन होकर हीलियम के नाभिक पुनः कार्बन पुनः तारे के संकुचन से तारे के ताप में वृद्धि होकर कार्बन तथा हीलियम मिलकर ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व नियॉन, सल्फर, नाईट्रोजन से लेकर लोहा आदि सभी तत्व बनते हैं-………………(विज्ञान, मानव और ब्रह्माण्ड, १९९९) इसी प्रक्रिया का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है-

            ‘‘तमिद्गर्भ प्रथमदध्र आपो यत्र देवा समगच्छन्त।।’’ – १०/८२/६

            अर्थात् उस विराट् में स्थित हिरण्यगर्भ को प्रकृति परमाणु पहिले धारण करते हैं जिसमें समस्त पदार्थ संगत होते हैं।

            इस प्रकार वर्तमान में कहे जाने वाले सभी तत्वों के परमाणुओं को निर्माण नेब्यूलाओं में होता रहता है। अब तक सम्पन्न प्रक्रिया में लाखों वर्ष लगते हैं।

            हम इस पर गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि वर्तमान विज्ञान तथा वैदिक विचारधारा इस विषय में बहुत भिन्न नहीं है। हां वैदिक विचारधारा वर्तमान प्रचलित विज्ञान की विचारधारा से कुछ आगे है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करेगा, उसे अपनी अवधारणायें परिवर्तित वा स्पष्ट करके वैदिक विचारधारा के अनुकूल आने को विवश होना होगा। अन्त में विषय के अधिकारी विद्वानों की सेवा विनम्र निवेदन है कि लेखक सिद्ध नहीं बल्कि साधक है। न्यूनतायें सम्भव हैं। विद्धान उनको दूर करने का ही यत्न करेंगे ऐसी आशा है।

                                                            प्रधान, आर्य समाज भीनमाल

                                                                                    जनपद-जालौर (राजस्थान) ३४३०२९

वेदों का वनस्पति-विभाग -सुश्री सूर्या देवी आचार्या

सृष्टि के पदार्थों का वर्णीकरण या विभाजन इतना सरल, सुकर नहीं है जितना कि हम समझते हैं, क्योंकि पदार्थ निर्माता परमात्मा अनन्त ज्ञान वाला है अतः उसके निर्माण भी अनन्त हैं दुज्र्ञेय हैं। पृथिवी के जिन पदार्थों को हम अहर्निश देखते हैं, उनमें बाहुल्य उन पदार्थों का होता है जिनके हम नाम तक नहीं जानते, गुण, कर्म को जानता तो दूर की बात है, उनमें कुछ एक ही ऐसे पदार्थ होते हैं जिनके रूप, रंग, नाम, गुण आदि से परिचय रखते हैं, पुनरपि हमारे ऋषि मुनियों ने पदार्थों के वर्गीकरण में उनके विभाजन में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, अपनी ऊहा से तीनों लोकों के पदार्थों का स्वरूप वैदिक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है।

            पृथिवी के जिन पदार्थों को वृक्ष, पेड़, बेल, तृण, घास, फूस आदि नामों से पहचानते हैं और नित्य रोपते, उखाड़ते, रौंदते, फेंकते हैं उनका विभाजन आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत ग्रन्थों में तथा अन्य चिकित्सकीय शास्त्रों में वनस्पति, ओषधि आदि नामों से किया जाता है। वनस्पतियों का यह विभाजन सुगन्धित छिलके वाली, फल-फूल या बीज की समानता रखने वाली गोंद पाली गांठदार जड़ वाली इत्यादि प्रकार के आधारों पर किया है।

            चरक में इन वनस्पतियों का विभाग औद्रिद द्रव्य के नाम से चतुर्धा वर्णित है-

            भौममौषधमुद्दिष्टम् औद्रिदं तु चतुर्विधम्।

            वनस्पतिर्वीरूधश्र्व वानसपत्यस्तथौषधिः।

            फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतानैर्वीरूधः स्मृताः।।

                                                                                                चरक. सू. १। ७०, ७१ ।।

            अर्थात् वनस्पति, वीरूध, वानस्पत्य और ओषधि ये चार प्रकार के औद्रिद द्रव्य हैं। फलवाले पौधे, वनस्पति, जिनमें फल और फूल दोनों प्रकार होते हैं वे वानस्पत्य, फल पकने बाद नष्ट होने वाले औषधि तथा बहुत विस्तार वाले वीरूध कहे जाते हैं।

            इसी प्रकार सुश्रुत में भी-

           तासां स्थावराश्र्वतुर्विधाः- वनस्पतियोवृक्षावीरूधऔषधय इति। तासु अपुष्पाः फलवन्तो वानस्पत्यः। पुष्पफलवन्तो वृक्षाः। प्रतानवत्यः स्तम्बिन्यश्र्व वीरूधः, फलपाकनिष्ठा ओषधय इति।                                            -सुश्रुत.सू. १।३७।।

            अर्थात् स्थावर द्रव्य चार प्रकार के हैं-वनस्पति, वृक्ष, वीरूध और ओषधि। जिन पौधों में पुष्प् न हो फल आते हों वे वनस्पति जिनमें पुष्प, फल दोनों आते हो, वह वृक्ष जो फैलने वाले और गुल्म=झाड़ वाले हैं वे वीरूध तथा जो फलों के पकने तक ही जीवित रहते हैं अर्थात् पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ते हैं उन्हें ओषधि कहा जाता है। चरक और सुश्रुत के वचनों में कुछ थोड़ा सा अन्तर है। चरक जिसे वानस्पत्य कहता है सुश्रुत उसे वृक्ष नाम से अभिहित करता है।

            पाणिनीय सूत्र ‘‘विभाषौषधि वनस्पतिभ्यः’’पा. ८।४।६ के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य ने भी वनस्पतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- फलीवनस्पतिज्र्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः लतागुल्माश्र्व विरूधः।।  – कशिका, ८।४।६।।

            इस वचन की व्याख्या करते हुये न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पदमञ्चजरीकार हरदत्त मिश्र ने वनस्पतिः = उदुम्बर, प्लक्ष, अश्र्वत्थ आदि, पुष्पोपगाः = वेतस् बाँस आदि, फलोपगाः = उदुम्बर, प्लक्ष आदि तथा पुष्पफलोपगाः = आम्र इत्यादि वृक्ष होते हैं, अर्थात् जो वपस्पति होता है वह निश्चित वृक्ष होता है, और जो वृक्ष होता है उसका निश्चित रूप से वनस्पति होना आवश्यक नहीं है। औषध्यः = शालि = धान, गेहूं कदली आदि, लता – मालती इत्यादि, गुल्माः = हृस्व शाखाओं वाले होते हैं और वीरूधः = बहुत व पत्तों वाले कहलाते हैं ऐसा व्याख्यान किया है।

            मनु महाराज ने भी वनस्पतियों का विभाग दर्शाया है-

            उद्रिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः बहुपुष्पफलोपगाः।

            अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः।

            पुष्पिणः फलिनश्रै्वव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः।

            गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः।

            बीजकाण्डरूहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च।।

                                                                                                – मनु. १।४६, ४७, ४८

            बीज तथा शाखा से लगने वाले स्थावन जीव उद्रिज होते हैं। फल के पकने पर जिनके पौधे नष्ट हो जाते हैं और जिनमें बहुत फल, फूल लगते हैं वे ओषधि कहाते हैं, बिना फूल लगे फलने वालों को वनस्पति और फूल लगने के बाद फलने वाले को वृक्ष कहते हैं।

            इस प्रकार लोक में फल, फूल आदि के आधार पर वनस्पति, वीरूध, ओषधि आदि का विभाजन पृथक्-पृथक् किया गया है, यानी इनका जातिगत भेद स्थापित किया गया है, पर वेदों में वनस्पति, वीरूध औषधि आदि शब्द पर्याय रूप में ही आये हुए हैं अतः वनस्पतियों के विभाग का फल, फूल आदि के आधार पर स्पष्ट संकेत नहीं प्राप्त है अपितु वनस्पतियों के रंग, रूप, गुण आदि द्वारा उनका विभाजन स्पष्ट लक्षित होता है।

            वैसे तो चारों वेदों में ही औषधियों का वर्णन है तथापि अथर्ववेद में बहुलता से दृष्टिगोचर होता है, एतदर्थ ही अथर्ववेद भैषज्य वेद भी कहा जाता है।

            वनस्पतियों के वर्गीकरण के लिये अथर्ववेद के ८ वें काण्ड का ७ वाँ सूक्त विशेष रूप से द्रष्टव्य है। सांकेतिक सूक्त में रूप, रंग, आकार द्वारा वनस्पतियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

रूपभेद- प्रस्तृणती स्ताम्बिनीरेकशुगाः प्रतन्वतीरोषधीरा वदामि।

अंशुमतीः काण्डिनीर्या विशाखा ह्नयामि ते वीरूधो वैश्र्वदेवी रूग्राः पुरूषजीवनीः।।                                                                                                                        – अर्थव. ८।७।४।।

            प्रस्तृणतीः = (स्तृञ् आच्छादने) बहुत छादन करने वाली अर्थात् मूल से ही विभिन्न शाखाओं में फैलने वाली अनार, मेंहदी आदि, स्तम्बिनीः = (स्था + अम्बच्, इनिः) एक तने रूप खम्भे वाली अशोक, कदम्ब आदि, एकशुगाः = एक अकुर, कोपल वाली, आक आदि, प्रतन्वतीः = बहुत फैली हुई ब्राह्मी, हेलेञ्चा, पुदीना आदि, ओषधीः = ओषधियों को, आ वदामि = (मैं परमात्मा या वैद्य) आदेश देता हूँ, बुलाता हूँ, तथा याः = जो, अंशमतीः = काटों वाली, नागफनी, भटकटैय्या, ऊँटकटारा आदि, काण्डिनीः = बहुत काण्ड = शाखा वाली ईख, सरकण्डा, दूर्वा आदि, विशाखाः = शाखाहीन खजूर, ताड़ आदि (विगताः शाखाः) तथा शाखा सहित आम, अमरूद आदि (विशिष्टाः शाखाः), वैश्र्वदैवीः = सभी धारण कराने वाली, वीरूधः = विशेष रूप से उगती हुई ओषधियाँ (विशेषण रोहन्तीति वीरूधः) ते ह्नयामि = तुम्हारे लिये बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में रूप भेद सेऔषधियों का वर्णन है। विभिन्न शाखा, एक तना, काँटा आदि विशेषण औषधियों के रूप को बता रहे हैं। मन्त्र में  ‘ओषधी’ तथा ‘वीरूधः’पद आये हैं जो लोकोक्त अर्थों के वाचक नहीं है। अपितु वनस्पति इस सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हैं।

            रंगभेद- या बभ्रवो याश्र्व शुक्रा रोहिणीरूत पृश्रयः।

            असिक्रीः कृष्णा ओषधीः सर्वा अच्छावदामसि।।                                                                                                -अथर्व. ८।७।१।।

            याः = जो, बभ्रवः = भूरे रंग वाली पोषण, धारण करने वाली, कत्था आदि (डुभृञ् धारणपोषणयोः) याश्र्व = और जो, शुक्राः = श्वेत रंग वाली, वीर्य बढ़ाने वाली, सफेद फूल की कटेरी आदि, रोहिणीः = लाल रंग की अथवा स्वास्थ्य उत्पन्न करने वाली, कुटकी, मजीठ आदि (रूह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च) उत = और, पृश्नयः = चितकबरी (व्याघ्र रूपं वै पृश्निः त्रै. ४।२।२४) , असिक्नीः = श्याम = नील वर्ण वाली, अबद्ध शक्ति वाली, बाकुची आदि, कृष्णाः = आकर्षण करने वाली, काले वर्ण वाली पिपरामूल, पीपल आदि, औषधीः = औषधियाँ हैं, सर्वाः = उन सबको, अच्छ्रावदामसि = अच्छे प्रकार, मैं वैद्य आदेश देता हूँ।

            यह मन्त्र ओषधियों को रंगभेद से वर्णन कर रहा है। औषधीः शब्द सामान्य अर्थ वाली है, फल पाकान्त ओषधि के लिये नहीं।

            टाकर भेद- मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरूधां बभूव।

            मधुमत् पर्णं मधुमत् पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो

            घृतमत्रं दुहृतां गोपुरोगवम्।।                                                -अथर्व. ८।७।१२।।

            आसां वीरूधाम् = इन ओषधियों का, मूलं मधुमत् = जड़ माधुर्य वाला, अग्रम् = ऊपरीभाग – सिरा, मधुमत् = माधुर्य युक्त, मध्यमम् = मध्य भाग, मधुमत् = माधुर्य युक्त, पर्णम् = पत्ते, मधुमत् = माधुर्य वाले, पुष्पम् = फूल, मधुमत् = मधुर्य वाले, बभूव = हैं, आसाम् = इन ओषधियों का, अमृतस्य भक्षः = अमृत का भोजन है अर्थात् अमरता देने वाला है मधोः संभक्ताः = मधुरता से परिपूर्ण हैं, गोपुरोगवम् = गौओं का पालन करने वाले या गौओं का प्राधान्य मानने वाले इन ओषधियों से , घृतम् = घी, अन्नम् = अन्न का, दुहृताम् = दोहन करें।

            यहाँ ओषधियों का आकार रूप से वर्णन है तथा गौओं को इन ओषधियों का भक्षण कराके घृतादि पदार्थ ग्रहण करें, यह निर्दिष्ट किया है। मन्त्र का ‘वीरूधाम्’ पद सामान्य रूप से ओषधि अर्थ में प्रयुक्त है। प्रतान विशिष्ट वनस्पतियों के  लिये नहीं।

            यावतीः कितयीश्रे्वमाः पृथिव्यामध्योषधीः।

            ता मा सहसुपण्र्यो मृत्योर्मृञ्चन्त्वहंसः।।                           -अथर्व. ८।७।१३।।

            यावतीः = जितनी, च = और, कियतीः = कितनी भी अर्थात् विभिन्न परिमाण वाली, इमाः = ये, पृथिव्याम् अधि = पृथिवी के ऊपर, ओषधिः = ओषधियाँ है, ताः = वे, सहस्त्रपण्र्यः = सहस्त्र पत्तों वाली, हजार प्रकार से पोषण करने वाली, सफेद दूब आदि (प पालनपूरणयोः) मा = मुझको, मृत्योः = मृत्यु से अहंसः = पाप से, मुञ्चन्तु = छुड़ावें।

            यहाँ पत्तों के आकार रूप से ओषधियों का वर्गीकरण है, और ‘ओषधी’ पद सामान्य अर्थवाला है, फल पाकान्त अर्थ वाला नहीं।

            मुमुचाना ओषधयोऽग्नेर्वैश्वानरादधि।

            भूमिं संतन्वतीरित यासां राजा वनस्पतिः।                        -अथर्व. ८।७।१६।।

            मुमुचानाः = रोगों को छुड़ाने वाली, ओषधयः = ओषधियाँ हैं वे, वैश्वानरात् अग्नेः = सब मनुष्यों को ले जाने वाले, प्रेरक अग्रगणी परमेश्वर से, अधि = अधिकृत होकर, भूमिम् = भूमि पर, सन्तन्वतीः विस्तृत होती हुई दूब, पुनर्नवा आदि लतायें, इतः = गई हुई हैं, यासाम् = जिन ओषधियों का, राजा = राजा, वनस्पतिः = सोम है (सोमो वै वनस्पतिः मै. १।१०।९।।)

            परमेश्वर द्वारा विस्तृत की हुई जो ओषधियाँ हैं, जो रोगों को दूर करती हैं उनका फैलने के आकार रूप से वर्णन है। मन्त्र में आये ‘ओषधयः’ एवं ‘वनस्पतिः’ पद लोक प्रसिद्ध अर्थ वाले नहीं हैं।

            पुष्पवतीः प्रसूमतीः फलिनीरफला उत।

            संमातर इव दुह्नामस्मा अरिष्टतातये।                  -अथर्व. ८।७।२७।।

            पुष्पवतीः = पुष्पों वाली, प्रसूमतीः = सुन्दर, कोमल पलव अकुर वाली, फलिनीः = फलवाली, उत = और, अफलाः = फलरहित ओषधियाँ, संमातर इव = सहयोगी माताओं के समान, अस्मै = इस रूग्ण मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण के लिये, स्वास्थ्य के लिये, दुहाम् = दूध देवें।

            यह मन्त्र भी फूलों वाली, पलवों वाली, फलों वाली एवं बिना फलवाली ओषधियों का आकार भेद से वर्णन कर रहा है।

           गुणभेद- जीवलां नघारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्।    अरून्धतीमुन्नयन्तीं पुष्पां मधुमतीमिह हुवेऽस्मा अरिष्टतातये।

                                                                                                           -अथर्व. ८।७।६।।

            जीवलाम् = जीवन देने वाली, नघारिषाम् = कभी भी हानि न करने वाली, जीवन्तीम् = प्राण धारण करने वाली, गिलोय आदि, अरून्धतीम् = बाधा न डालने वाली, चोट आदि प्रहारों को भरने वाली, औधा हेली, भंगरैला आदि, उन्नन्तीम् = उन्नत बनाने वाली, पुष्पाम् = फूलों वाली, मधुमतीम् = माधुर्य रस वाली, ओषधीम् = ताप नाशक, अन्नादि ओषधि को (ओषद् (दहत्) धयन्तीति वा ओषति दहति एनाः धयन्तीति वा, दोष धयन्तीति वा। निरू. ९।२६। धेर पाने) इह = यहाँ, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण करने के लिये, अहम् = परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में जीवन आदि देने वाली ओषधियों के गुणों का वर्णन है। मन्त्र का ‘ओषधीः’ शब्द सामान्य वनस्पति वाचक है।

            इहा यन्तु प्रचेतसो मेदिनीर्वचसो मम।

            यथेमं पारमामसि पुरूषं दुरितादधि।।                      -अथर्व. ८।७।७।।

            प्रचेतसः = चेतनता देने वाली, मेदिनीः = प्रीति करने वाली, (ञमिदा स्नेहने + अच्, इनिः, डीष्) रूक्षता हटाकर स्निग्धता प्रदान करने वाली ओषधियाँ, इह = यहाँ मेरे पास, मम वचसा = मुझ चिकित्सक के वनन के साथ अर्थात् चिकित्सा का विचार करने पर, आयन्तु = आवें, यथा = जिससे, इमं पुरूषम् = इस मनुष्य को दुरितात्, अधि = कष्ट से ऊपर, दूर, पारयामसि = पार लगा दूँ।

            यह मन्त्र भी ओषधियों के गुणों का वर्णन कर रहा है।

            उन्मुञ्चन्तीर्विवरूणा उग्रा या विषदूषणीः।

            अथो बलासनाशनीः कृत्यादूषणीश्र्व यास्ता इहा यन्त्वोषधीः।

                                                                                                             -अथर्व. ८।७।१०।।

            याः = जो, उन्मुञ्चन्तीः = रोग से मुक्त करने वाली, विवरूणाः = विशेष करके स्वीकार करने योग्य, उग्राः = तीक्ष्ण, बल, गन्ध रसादि वाली, विषदूषणीः = विष हरण करने वाली, इलायची आदि, अथ = और, यः = जो, बलासनाशनीः = बल गिराने वाले सन्निपात, कफ आदि को नाश करने वाली ( बल + असु क्षेपणे + अण्, बलम् अस्यति क्षिपतीति = बलासः, तस्य नाशनीः इति बलासनाशनीः), च = और, कृत्यादूषणीः = हिंसा, पीड़ा मिटाने वाली अजवाइन, लाक्षा गुग्गुल आदि (कृञ् हिंसायाम् + क्यप्, टाप), ओषधीः = ओषधियाँ हैं ताः = वे, आयन्तु = आवें, प्राप्त होवें।

            यहाँ पर विष नाशक औषधियों के गुणों का वर्णन है। ‘ओषधिः’ पद का पूर्वतम् सामान्य अर्थ है।

            उत्पत्ति भेद- अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः।

                           व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णश्रृड्ग्यः।।    -अथर्व. ८।७।९।।

            अवकोल्बाः = पीड़ा को जलाने वाली, नष्ट करने वाली, शैवाल, काई ये युक्त (अव हिंसायाम् +वुन्, टाप्, उल्वम् ऊर्णोतेः वृणोतेर्वा रिरू. ६।३६। ऊर्णुन्ध्या वृञ् + वन्, वस्य बः रेफस्य लत्वम्, वकारस्य उत्वम् इति उल्बाः)  उदकात्मानः = जल जीवन वाली, जलकुम्भी, कमल, सिंघाड़ा आदि, तीक्ष्णशृड्ग्यः = तीक्ष्ण काट करने वाली, तीक्ष्ण अग्रभाग वाली गोखुरू आदि, ओषधयः = ओषधियाँ, दुरितम् = रोग को, वि ऋषन्तु = बाहर रिकालें (ऋषी गतौ)।

            यह मन्त्र जलीय ओषधियों का उत्पत्ति भेद से वर्णन करता है। ‘ओषधीः’ पद सामान्यार्थक है।

            या रोहन्त्यागिरसीः पर्वतेषु समेषु च।

            ता नः पयस्वतीः शिवा ओषधीः सन्तु शं हृदे।                    -अथर्व. ८।७।१७।।

            आगिरसी = अग्नि, विद्युत् आदि गुणों से युक्त या अगों में रस भरने वाली, पर्वततेषु = पर्वतों में, च = और, समेषु = चैरस भू प्रदेशों में, रोहन्ति = उगती हैं, ताः = वें, पयस्वतीः = दुग्ध तथा रस वाली, शिवाः = कल्याण करने वाली,

 ओषधीः = ओषधियाँ, नः = हमारे, हृदे = हृदय के लिये शम् = शान्तिदायक, सन्तु – होवें।

            इस मन्त्र में पर्वत आदि स्थानों में होने वाली ओषधियों का औत्पत्तिक भेद दर्शाया है। ‘ओषधीः’ पद का अर्थ पूर्ववत् है।

  ओषधि प्रधान भेद- अश्र्वत्थो दर्भो वीरूधां सोमो राजामृतं हविः।   वीहिर्यवश्र्व भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्र्यौ।।

                                                                                                -अथर्व. ८।७।२०।।

            अश्र्त्थः = ‘‘वृक्षों में’’ पीपल, दर्भः = ‘‘तृणों में’’ दाभ, कांस, वीरूधाम् = ‘‘लताओं में’’ (विशेषेण रून्धन्ति अन्यान् वृक्षान् इति वीरूधः) सोमः = सोमलता, राजा = ओषधि राज है, अमृतम् = ‘‘प्राकृतिक द्रव पदार्थों में’’ जल (अमृतमिति उदक नाम, निघं. १।१२), हविः = ‘‘जगमज वस्तुओं में’’ यज्ञीय घृत और ‘‘अन्नों में’’ व्रीहि = चावल, च = और, यवः = जौ, तथा दिवस्पुत्रौ = ‘‘आकाशीय पदार्थों में’’ द्यौलोक के पुत्र सूर्य और चाँद, अमत्र्यौ भेषजौ = अगर भेषज हैं, भय निवारक पदार्थ हैं (भेषं भयं जयति = भेषजम्)।

            इस मन्त्र में अश्र्वत्थ, दर्भ, सोमलता आदि को महा औषधि के रूप में वर्णित किया है। विरूधाम् पद वनस्पति सामान्यार्थ का द्योतक है।

            ऋतु भेद- अग्नेर्धासो अपां गर्भों या रोहन्ति पुनर्णघ्वाः।

            ध्रुवाः सहस्त्रनाम्नीर्भेषजीः सन्त्वाभृताः ।। – अथर्व. ८।७।८।।

            अग्नेः = अग्नि का (जठराग्नि का). घासः = जो, पुनर्णवाः = बार-बार नवीन औषधियाँ, ऋतु-ऋतु में, रोहन्ति = उगती हैं वे, ध्रवाः = दृढ़ गुणवाली, सहस्त्रनाम्नीः = हजारों नामों वाली, आभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, भेषजीः = भय निवारक औषधियाँ, सन्तु = प्राप्त होवें।

            मन्त्र में प्रति ऋतु में पुनः पुनः होने वाली औषधियों का संकेत है जो मनुष्य के लिये उपयोगी हैं तथा शरीर बल बढ़ाने वाली हैं।

            उज्जिहीध्वे स्तनयत्यभिक्रन्दत्योषधीः।

            यदा वः पृश्निमातरः पर्जन्यो रेतसावति।                           -अथर्व. ८।७।२१।।

            पृश्निमातरः = पृथिवी को माता मानने वाली अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न होने वाली (इयं पृथिवी वै पृश्निः तै. ब्रा. १।४।१।५), ओषधीः = ओषधियों, उज्जिहीध्वे = तुम खड़ी हो जाती हो, उत्पन्न हो जाती हो (ओहाड्. गतौ) यदा = जब, पर्जन्यः = मेघ, स्तनयति = गरजता है, अभ्रिक्रन्दति = कड़कता है और वः = तुमको, रेतसा = जल से (रेतः उदक नामसु, निघ. १।१२) अवति = तृप्त करता है (अव तृप्तौ)।

            इस मन्त्र में वर्षा ऋतु में होने वाली औषधियों का संकेत है। औषधीः समान्यार्थक है।

            उपयोग भेद- वराहो वेद वीरूधं नकुलो वेद भेषजीम्।

                          सर्पा गन्धर्वा या विदुस्ता अस्या अवसे हुवे।।                   -अथर्व. ८।७।२३।।

            वराहः = सूअर, वीरूधम् = औषधी को, वेद = जानता है, नकुलः = नेवला, भेषजीम् = रोग जीतने वाली, भय दूर करने वाली औषधियों को, वेद = जानता है, सर्पाः = साँप् और गन्र्धवाः = गौ-पृथिवी को धारण करने वाले अर्थात् = भूमि में बिल बनाकर रहने वाले चूहे, छछुन्दर, गोह आदि प्राणी (गौः इति पृथिव्याः नामधेयम् निघ. १।१), याः = जिन औषधियों को, विदुः =जानते हैं, ताः = उन को, अस्मै = इस पुरूष के लिये, अवसे = रक्षा हेतु, मैं वैद्य अथवा परमेश्वर, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            मन्त्र में जंगली पशुओं, जन्तुओं द्वारा उपयोग में ली जाने वाली औषधियों का उपयोग भेद से वर्णन है। यहाँ बताया गया है कि जिन कन्द आदि औषधियों को सूअर आदि उपयोग में लाते हैं, बलिष्ठ बनते हैं उनसे मनुष्यों को भी अपना उपचार करना चाहिये। मन्त्र में ‘वीरूधम्’, ‘भेषजीम्’ पद पर्यायार्थक हैं।

            याः सुपर्णा आगिरसीर्दिव्या या रघटो विदुः।

            वयांसि हंसा या विदुर्याश्र्व सर्वे पतत्रिणः।।

            मृगा या विदुरोषधीस्ता अस्मा अवसे हुवे।।                        -अथर्व. ८।७।२४।।

            याः = जिन, आगिरसीः = अगों में गति लाने वाली तथा अग्नि, विद्युत् आदि गुणों वाली औषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = गरूड़, गिद्ध आदि, याः दिव्याः = जिन दिव्य ओषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = आकाश में उड़ने वाले पक्षी (रघि गतौ + अच्, अट गतौ + क्पि् = रघटः, रघे गन्तवे आकाशे अटन शीलाः = रघटः), विदुः = जानते हैं, याः = जिनको, वयांसि = जिन ओषधियों को मृगाः = सभी पंख वाले जीव, विदुः = जानते हैं, याः ओषधीः = जिन ओषधियों को मृगाः = वन्य पशु, विदुः = जानते हैं, ताः = उन सबको, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अवसे = रक्षणार्थ, मैं परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लेता हूँ।

            यह मन्त्र भी औषधियों के उपयोग भेद का वर्णन कर रहा है। गरूड़ आदि पक्षी जिन औषधियों को व्यवहार में लाते हैं उनसे विष नाश, दूर दृष्टि, स्फूर्ति आदि का लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ लेना चाहिये यह मन्त्र में स्पष्ट किया गया है। ‘ओषधीः’ पद का पूर्ववत् सामान्य अर्थ है।

            यावतीनामोषधीनां गावः प्राश्नन्त्यध्न्या यावतीनामजावयः।

            तावतीस्तुभ्यमोषधीः शर्म यच्छन्त्वाभृताः।।                                -अथर्वं. ८।७।२५।।

मारने योग्य गौवें और, यावतीनाम् = जितनी औषधियों का, अजावयः = भेड़, बकरियाँ, प्राश्नन्ति = चारा करती हैं, खाती हैं, तावतीः = वे सभी अभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, ओषधीः औषधियों, तुभ्यम् = तुझ मनुष्य को, शर्म = सुख, यच्छुन्तु – देवें।

            इस मन्त्र में गाँव, नगर में रहने वाले पशुओं द्वारा चारा के रूप में उपयोग में आने वाली औषधियों का वर्णन है। ‘ओषधीः’ औषधीनाम्, पद सामान्य अर्थ वाले हैं।

            यावतीषु मनुष्या भेषजं भिषजो विदुः।

            तावतीर्विश्र्व भेषजीरा भरामि त्वामभि।।                                       -अथर्व, ८।७।२६।।

            यावतीषु = जितनी ओषधियों में, भिषजः मनुष्याः = वैद्य लोग (भिषज् चिकित्सायाम् क्विप्, भिषक्), भेषजम् = चिकित्सा, विदुः = जानते हैं, तावतीः = उतनी, विश्र्वभेषजीः = सब रोगों को जीतने वाली ओषधियों को, त्वाम् अभि = तुम्हारी ओर मैं परमात्मा और वैद्य, आभरामि = लाता हूँ।

            मन्त्र में वैद्य जनों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली क्वाथ, कषाय, चूर्ण, अवलेह, भस्म आदि औषधियों का वर्गीकरण है।

            अथर्ववेद के उपर्युक्त सूक्त में विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्गीकरण अपने ढंग का है। जिन औषधियों को लोक में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि अलग-अलग नामों से विभाजित करके जाना जाता है। उन्हें वेद में रूप, रंग, आकार, गुण, उत्पत्ति, औषधि महौषधि प्राधान्य = ऋतु एवं उपयोग के आधार पर विभाजित किया गया है।

            तात्पर्य यह हुआ वेद में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि शब्द जो उद्धिज पदार्थों का ज्ञान करा रहे हैं वे परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं, जैसा कि मन्त्रों में आये वीरूध, वनस्पति आदि पदों से स्पष्ट है। यानी वनस्पति आदि शब्द फल वाले पौधों के लिये ही प्रयुक्त नहीं है अपितु सामान्यतः पौधे अर्थ में प्रयुक्त हैं अर्थात् वे शब्द यौगिकता, व्यापकता के अर्थ को लिये हुये हैं, यथा- वनस्पति- वनानां पाता वा पालयिता वा। निरू. ८।३।।

            जो वन = जल को, रस को सुरक्षित रखते हैं वे वनस्पति।

            औषधी- औषद् (दहत्) धयन्तीति वा, औषधि एनाः धयन्तीति वा। दोषं धयन्तीति वा। निरू. ९।२६।।

            जलते हुये अर्थात् ताप को जो पीते हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं तथा जो दोष को पीते हैं वे औषधि हैं।

            वीरूध- विशेषण रून्धन्ति, रोहन्तीति वा वीरूधः। निरू. ६।३।९।।

            जो विशेष रूप से रोकते हैं या उगते हैं वे वीरूध हैं।

            इन व्युत्पत्तियों के अनुसार इन शब्दों का पर्यायवाचित्व समुचित है, और उपर्युक्त विभाग ही वनस्पतियों का वेदोक्त वर्गीकरण है जिसे वेद से ही जानना चाहिये।

            वैसे रोगानुसार औषधियों के निर्माणनुसार, अन्य कई और विभाग बन सकते हैं जो वस्तुतः औषधियों के गुणादि वर्गीकरण में ही समाहित हो जाते हैं।

पाणिनि कन्या महाविद्यालय, वाराणसी- १० (उ. प्र.)

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य–डॉ. कृष्णलाल

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य (पदार्थ विद्या के विशेष सन्दर्भ में) -डॉ. कृष्णलाल

आधुनिक विज्ञान की सभी गवेषणाओं का लक्ष्य सृष्टि के तत्वों के मूल तक पहुंचना है। विज्ञान समस्त दृष्टि में क्या, क्यों और कैसे की खोज करता है। सभी पदार्थों में कोई मूल तत्व, अपरिवर्तित गुण की खेज करके विज्ञान यथार्थ की गहराई तक उत्तर कर सूक्ष्मेक्षिका द्वारा मूल सूत्र को ढूँढता है। एक ओर इससे जहां नये तथ्य उद्घाटित होते हैं, वहीं उस सूत्र को मानवता के उपकार में लगाया जा सकता है।

            वेद के अनुसार सृष्टि का मूल सूत्र ही ऋत और सत्य है जो सब ओर समिद्ध तप या उष्णता से उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से व्यक्त संसार से पहले अव्यक्त प्रकृतिरूप रात्रि उत्पन्न होती है (विद्यमान रहती है) और गतिशील सूक्ष्म कणों के रूप में व्यापक जल बनता है।

            ऋत वह मूलभूत तत्व है जो निरन्तर अपने स्वाभाविक रूप में गतिशील रहता है। वह गति प्रत्येक पदार्थ की गति, सापेक्ष गति भी हो सकती है, वह काल अबाध गति भी हो सकती है और वही प्रत्येक पदार्थ या तत्व के केन्द्र में विद्यमान परमाणुओं की गति भी हो सकती है। सार यह कि इस गति के बिना सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस समय की स्थिति में सत् असत् का विश्लेषण हो ही नहीं सकता।

            थ्जसे उपरिनिर्दिष्ट मन्त्र में समुद्र अर्णव कहा गया है उसके मूल में भी गति (ऋ-क्षत) तत्व विद्यमान है। इसे ही एक अन्य स्थल पर सब देवों (तत्वों) का मिलना अथवा गति करना कहा गया है।

            उपर्युक्त ऋत के साथ-साथ सत्य भी सृष्टि के आधार में स्थायी तत्व है। ऋत गतिशील या गति प्रदान करने वाला तत्व है तो सत्य वास्तविकता है, अरितत्व है। (सन्तमर्थमाययति)। सम्भवतः दोनों तत्वों के इस मौलिक तथा सभी पदार्थों के आधार में समान महत्व के कारण बहुत स्थानों पर वेद में ही इन दोनों का प्रयोग पर्यायवाची रूप में भी हुआ है।

            अथर्ववेद (१२.१.१) के अनुसार पृथ्वी को धारण करने वाले ये दो प्रमुख तत्व हैं। सम्य जहाँ बृहत् महान् या व्यापक हैं, वहीं ऋत् उग्र, कठोर, शाश्र्वत है। ‘एक अन्य मन्त्र’ में कहा गया है कि पृथ्वी सत्य के द्वारा थामी गई है.. द्युलोक भी सत्य के द्वारा थामा गया है, ऋत अर्थात् निरन्तर गति से आदित्य अपने स्थान पर स्थिर है। इसी प्रकार ऋत से ही सोम (चन्द्रमा) द्युलोक में स्थित है।

            ऋत गति है क्योंकि सभी आदित्यादि ज्योतिःपिण्ड अपने-अपने मार्ग में निश्चित गति करते हैं। इस गति के प्रतीक रूप में ऋत की व्याख्या निरूक्त में जल के रूप में सब ओर पहुंचने वाला बताकर दी गई है। ऋत के मूल में गत्यर्थक ऋ धातु है। सदा एक ही स्थिति में निर्विकार रहने वाले परमेश्वर की तुलना में समस्त व्यक्त सृष्टि में गति मूल तत्व है। साम्यावस्था में सृष्टि हो ही नहीं सकती। जब तत्व, रजस्, तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होता है, तभी सृष्टि का आरम्भ होता है। विक्षोभी अथवा हलचल गति का ही दूसरा नाम है। यह गति प्रत्येक तत्व के एक-एक कण में विद्यमान है जिसके नाभिक अथवा केन्द्र में निरन्तर प्रोटोन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन गति करते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इनसे भी सूक्ष्म परमाणुओं का पता लगाया है जिन्हें न्यूट्रॉन नाम दिया गया है। इन न्यूट्रॉन का प्रतिकण भी होता है। इन दोनों में से एक अपने कक्ष पर दक्षिणावर्त घूमना है तो उसका प्रतिकण वामावर्त घूमता है। यह अत्यधिक ऊर्जा का कण है। इसकी गति प्रकाश की गति के समान होती है।

            एक मन्त्र में नदियों (धाराओं) की गति के बताने के लिए ऋत शब्द प्रयुक्त है और सूर्य को सत्य का विस्तार करने वाला कहा गया है। क्या यहाँ नदियों से सूक्ष्म कणों की धाराओं की गति अभिप्रेत नहीं हे? अन्यथा भी ऋत गति का द्योतक तो है ही।

            जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये ऋत और सत्य दोनों ही नाम वेदों में ही अनेक स्थानों पर समानार्थक हो गये हैं। एक मन्त्र में सत्य के साथ असत्य के अर्थ में अनृत के प्रयोग से इस तथ्य की पुष्टि होती है। वह मन्त्र आपः (व्यापक सृष्टि-जल) के सम्बन्ध में बताता है कि सूक्ष्म वाष्प-कणों के रूप में यह जल सम्पदा मध्यमस्थान (अन्तरिक्ष) में व्यास (आप्) रहता है और वहीं अपनी व्याप्ति के द्वारा वरूण (व्यापक परमेश्वर) सबका राजा होकर पहुँचा रहता है और वहीं से समस्त जनों के सत्य और असत्य आचरणों को देखता रहता है।

            वैदिक दृष्टि से सत्याचरण के साथ-साथ सत्य वास्तविक तत्व भी है। तभी तो अन्यत्र कहा गया है कि प्रजापति ने सत्य और असत्य (अवास्तविक) दोनों को अलग किया और केवल सत्य (वास्तविकता) में श्रद्धा (विश्वास) का आधान किया, अनृत (अवास्तविक, मिथ्या) में नहीं।

            पदार्थों की ऊपरी, बाह्म रूप-रचना देख्कार जिसे हम वास्तविक समझ बैठते हैं, वास्तविक तत्व वह नहीं है। उस वास्तविक तत्व को जानने पर पहचानने के लिए ऊपरी अवारनण हटाकर उसके पीछे देखना पड़ता है। तब वास्तविक सत्य तत्व ज्ञान होता है। वही तत्व सृष्टि के सभी पदार्थों के मूल में है।

            अग्नि भी अपने स्वरूप से और अपने दाहक तथा दान और आदान (हु दानादानयोः) -अग्नि सभी कुछ लेकर भस्म करके वायुमण्डल में उसका प्रभाव और दग्ध पदार्थों का भस्म देता है करने वाले तत्वों से युक्त है और क्रान्त (स्थूल दृष्टि से न देखे-जाने योग्य) कार्य करता है। इसलिए वह सत्य है और अद्भुत कीर्ति वाला है। विज्ञान उसके इस स्वरूप को समझ उसके विविध प्रयोग करता है। अगिन का स्वरूप सत्य इसलिए भी है क्योंकि विद्युत् और सूर्य में भी यही रूप होने के कारण उन्हें भी अग्नि ही कहा गया है।

            वेद सभी पदार्थों, या मौलिक भौतिक तत्वों में एक ऋत, सदास्थायी सूत्र कहाँ है और अनृत मिथ्या तत्व कौन सा है, इसकी खोज करता हे। वहां प्रेरणा दी गई है कि पृथ्वी और आकाश को प्रत्यक्ष जानने वाले विद्वान् इस तथ्य का अन्वेषण करें क्योंकि विज्ञान का रहस्य इस अन्वेषण में छिपा हुआ है।

            इससे अगले मन्त्र में फिर ऋत की खोज कर स्वर मुखर हुआ है क्योंकि वहाँ फिर प्रश्न है कि हे देवो अथवा मूल तत्वों, तुम्हारे ऋत (शाश्र्वत नियम) का स्थान क्या है और सर्वव्यापक वरूण (आवरक तत्व) की दृष्टि कहाँ है? हम महान् अर्यमा (शत्रुओं के नियामक सूर्य) के किस सत्य मार्ग से दुरूह ग्रन्थियों का उत्क्रमण करें। निश्चय ही हम शाश्र्वत नियम का मार्ग है।

            ऋत ही ऐसा तत्व है जो पदार्थों को उनके मूल रूप में स्थिर रखता है। इस मूलभूत स्थिरता, शाश्र्वतरूपता का नाम ऋत है। इसके विपरीत पदार्थों का परिवर्तनशील रूप अनृत है। यह रूप आयु से सीमित है। वा.सं. ७.४० के मन्त्र ‘‘एष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वा’’ की व्याख्या करते हुए शतपथ में कहा गया है कि ब्रह्म ही ऋत है, ब्रह्म ही मित्र है, ब्रह्म ही ऋत है। वरूण ही आयु है, वरूण संवत्सर है (क्योंकि वह परिवर्तनशील है), वरूण ही संवत्सर है, आयु है।

            बृहस्पति, परमेश्वर (बृहतां पाता वा पालयिता वा) भी ऋतप्रजात (ऋ. २.२३.१५) है क्योंकि उससे ही ऋत, शाश्र्वत नियम का जन्म होता है। अग्रि को भी ऋतप्रजात कहा गया है क्योंकि वह ऋत का वाहक है (ऋ. १.६५.५) उसके मूल में शाश्र्वत नियम निरन्तर रहता है, जल से सम्बद्ध विद्युत् रूप अग्नि में भी वही शाश्र्वत तत्व विद्यमान रहता है। ऋ. १०.६७.१ में भी बुद्धि को ऋतप्रजाता कहा गया है क्योंकि वही उत्तम स्थिति में ऋत को उत्पन्न करती है। उत्कृष्ट रूप मे बुद्धि, अध्याम अथवा विज्ञान के माध्यम से ऋत का ही अन्वेषण करती है।

            इसी क्रम में उषा को भी ऋतपा और ऋतेजा कहा गया है क्योंकि वह शाश्र्वत नियम का पालन करती हुई चलती है।

                        ऋत को सभी पदार्थों की आद्य शक्ति के रूप में देखा गया है। यह शक्ति विनाशकारक भी है। वैज्ञानिक इस विषय में निश्चित ज्ञान रखते हैं कि ऋतरूप परमाणुओं के विखण्डन में कितनी शक्ति निहित है जो विनाशक भी हो सकती है। यही नहीं, ऋत के, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ के मूल सूक्ष्म तत्व के धारणस्थान सुदृढ़ और सुनिश्चित होते हैं। एक-एक पदार्थ-शरीर के लिए वे ही बहुत आह्लादक अर्थात् उसे उसके रूप में धारणा कर महत्व प्रदान करने वाले होते हैं। अन्न भी उस ऋत का फल है और ऋत से ही गौएं (सूर्य-किरणें) ऋत में (शाश्र्वत नियम में) प्रविष्ट होती हैं। सार यह कि वेद के अनुसार प्रत्येक पदार्थ, और उसकी गति में मूल तत्व के रूप में ऋत विद्यमान है। विस्तार के कारण बहुत रूपों वाले पृथ्वी और अनतरिक्ष को पृथ्वी बताकर उन्हें गम्भीर कहा गया है क्योंकि उनमें विद्यमान प्रत्येक तत्व का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है। ये दोनों ही परम गौएं कही जाती हैं जो ऋत अर्थात् शाश्र्वत तत्व के लिए (उसके नियमानुसार) दोहन करती हैं अर्थात्  असंख्य पदार्थों को उत्पन्न करती रहती हैं (प्रकट करती हैं)।

                        एक मन्त्र में अग्नि (परमेश्वर) को सम्बोधित करके कहा गया है कि अविनाशिनी, अखण्ड रूप में बहने वाली, मधुर जलों वाली दिव्य नदियाँ (अर्थात् सर्वत्र व्याप्त जलकण) ऋत या शाश्र्वत नियम से प्रेरित होकर सदैव बहने के लिए धारण की गई है, निरन्तर गति करती है।

            जिन नदियों का वर्णन ऊपर किया गया है, ये सामान्य जल की नदियाँ नहीं हैं। ये अमर हैं और अबाधित हैं। इससे संकेत मिलता है कि ये सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्माण्ड में व्याप्त सूक्ष्म जलकणों (आपः) की धारायें हैं जो ऋत (शाश्र्वत नियम, निरन्तर गति) से प्रेरित हैं। यह गति ऐसी है जैसी युद्ध के लिए सदैव तैयार घोड़े की होती है, अर्थात् निरन्तर गति है। ऋत निरन्तर गति का ही नाम है।

            सूर्यरूपी पौरूषयुक्त बलिष्ठ अग्नि वृषभ अर्थात् वर्षा के रूप में कामनाओं का वर्षक है। वह भी ऋत से अर्थात् निरन्तर गतिरूपी शाश्र्वत नियम से लिपटा हुआ अर्थात् युक्त है। वह स्पन्दित न होता हुआ अथवा स्तिमित गति से विचरण करता है। सबकी आयु को धारण करने वाला वह वर्षक पृश्नि अन्तरिक्षरूपी ऊध का दोहन करता है और शुक्र अर्थात् बलिष्ठ जल की वृष्टि करता है।

            इससे अगले ही मन्त्र में ऋत (नियमित गति) के साथ अंगिरसों (वायु सहित विद्युतों), गौओं (किरणों), ऊषा, सूर्य और अग्नि का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस ऋत के द्वारा ही अंगिरस विद्युत् मेघ का भेदन करते हुए उसे (खाली करके) दूर फेंक देते हैं और (गतिशील) किरणों के साथ संयुक्त होकर प्रशंसित होते हैं, वे नेतृत्वगुणयुक्त (ऋतपालक) उषा के पास रहते हैं और जब (उषा का तीव्र प्रकाश रूप) अग्नि प्रकट होता है तो सूर्य दिखाई देता है। अग्नि, सूर्य, उषा-तीनों अग्निरूप होने के कारण ऋत (शाश्र्वत गतिमय नियम) से ही सम्बद्ध हैं। सब प्राणियों के सुख के लिए उनकी यह क्रिया-प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। मन्त्र से मेघस्थ विद्युत, वायु और अग्नि का गतियुक्त स्थायी सम्बन्ध स्पष्ट होता है।

            बहुत काव्यात्मक शब्दों में एक मन्त्र मं प्रश्न किया गया है। कि पहले वाला (पुराना) ऋत कहाँ गया और नया कौन उसे धारणा करता है? द्युलोक और पृथ्वी-ये दोनों ही मेरे लिए उस तत्व को जानती हैं (और बताती हैं)।

            मरूत् (विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार से चलने वाली वायएँ) ऋतसाप हैं अर्थात् ऋत से संयुक्त हैं। वे ऋत अर्थात् शाश्र्वत नियम के अनुसार चलती हैं। इस ऋत के द्वारा ही वे सत्य को प्राप्त होती हैं। मेघ, वर्षा, विद्युत, आदि के माध्यम से उनका सत्य स्वरूप प्रकट होता है, उनके वास्तविक कार्य उनके दीर्घकालिक हित से प्रकट होते हैं। कारण यह है कि वे शुचिज मा हैं, उनका जन्म ही पवित्रता से पवित्रता के लिए हुआ है। वे पवित्र हैं। अथवा वे ज्वलनशील तत्वों से युक्त हैं।

            उषाओं को ऋत (शाश्र्वत नियम) से युक्त घोड़ों अर्थात् किरणों के द्वारा सब लोकों पर फैल जाने वाली कहा गया है। किरणों की यह गति ही ऋत है-यह ऐसा ऋत है जिससे विज्ञान ज्योतिःपिण्डों की दूरी मापता है। विज्ञान के शाश्र्वत नियम के अनुसार सदा से ये उषायें एक सी हैं; अतः इसके लिए यह कहना असम्भव है कि इनमें से कौन सी पुरानी है और वह कहां है? वे सब एक जैसी चमक वाली चलती हैं और जीर्ण न होने वाली वे नये पुराने के भेद से नहीं जानी जातीं। विज्ञान भी इन्हीं शाश्र्वत रूपों और नियमों की खोज करता है। उषाओं के पीछे एक ही तत्व की समानता है जिसे ऋत कहा जाता है। उसके प्रकाश में, गति में, काल में, स्वरूप में वही एक समान तत्व विद्यमान रहता है। उसे ही सत्य कहा जाता है।

            इस प्रसंग में उषा का ‘ऋतावरी’ विशेषण ध्यान देने योग्य है जिससे स्पष्ट होता है कि उषा ऋत अथवा शाश्र्वत नियम अथावा सत्य को धारण करने वाली है और उससे ही प्रकाशित होने वाली या उसको अपने व्यवहार से प्रकाशित करने वाली है। यह ऋत अथवा सत्य उषा के मूल रूप सूर्य से ही अनुप्रेरित है। अनेक वेदमन्त्रों में उषा/उषाओं के प्रसंग में ‘ऋतावरी’ विशेषण का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार विद्युत और अन्तरिक्ष ऋतावरी है, द्युलोक और पृथ्वी भी ऋतावरी है क्योंकि सबके पीछे ऋत अथवा सत्य-नियम कार्य कर रहा है। ये दोनों बलिष्ठ हैं, देवों-विभिन्न दानादिगुणयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करने वाली (और इस प्रकार) ये यज्ञ को आगे ले जाने वाली बढ़ाने वाली हैं।

            इसी प्रकार सूर्य और पवन अथवा रस और ज्योतिरूप अश्र्वितनौ भी ऋत अथवा शाश्र्वत नियम से बढ़ने वाले बताये गये हैं। मित्रावरूणौ अर्थात् सूर्य और वायु भी सत्यनियम से बढ़ने वाले हैं।

            सूर्य के विभिन्न रूप तथा वरूण (व्यापक प्रकाश वाला और अन्धकाररोधक), मित्र (मित्र के समान हितकारी और सुखकरग) तथा अर्यमा (शत्रुओं को नियन्त्रित करने वाला) ऋत से युक्त हैं, अपनी क्रियाओं और गति में ऋत का स्पर्श करने वाले, गतिशील जनों को आगे ले जाने वाले, शोभनदानी और शोभन नेतृत्व करने वाले हैं।

           इस प्रकार वेद में ऋत और सत्य देवों अथवा दानादिगुणयुक्त प्राकृतिक पदार्थों के मूल में बताये गये हैं। उनके पीछे शाश्र्वत नियम और सतत गति की प्रच्छन्न प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है

पाद -टिप्पणी

१. त्रतं च सत्यं चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत। रान्न्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।। ऋ.१०.१९०.१

२. नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्। ऋ. १०.१२९.१

३. तभिद्गर्भं प्रथमं दघ्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे। ऋ. १०.६३.६

४. सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं……………………पृथिवीं धारयन्ति।

५. सत्येनोत्तभिता भूमिः सत्येनोत्तभिता द्यौः। ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिष्ठितः।। ऋ. १०.८५.१

६. ऋतभित्युदकनाम। प्रत्यृतं भवति। नि. २.२५

७. Every particle is accompanied by another particle called neutrino. It is high energy particle. Its speed is eqyal to hight speed. ¼ Atomic energy-Macmillon and Co. Ltd., London½

८. ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यः। ऋ. १.१०५.१२

९. यासां राजा वरूषो याति सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम्। ऋ. ९.४९.३

१०. दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः। अश्रद्धामनुतेऽदधाच्छद्वां सत्ये प्रजापतिः।। वा.सं. १९.७७

११. हिरण्यमवेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।। वा.सं. ४०.१७

१२. अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। ऋ. १.१.५

१३. अप्येते उत्तरे ज्योतिषी अग्नी उच्येते। निरूक्त ७.१६

१४. अभी ये देवाः स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः।

   कद्व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ।। ऋ. १.१०५.५

१५. कद्व ऋतस्य धर्णसि कद्वरूणस्य चक्षणम्। कदर्यम्णो महस्पथाति महस्पथाति कामेम दूढ्यः ।। ऋ. १.१०५.६

१६. ब्रह्म वा ऋतं ब्रह्म हि मित्रो ब्रह्मो ह्यृतं वरूण एवायुः संवत्सरो हि

   वरूणः संवत्सर आयुः। श. ब्रा. ४.१.४.१०

१७. ऋ. १.११३.१२

१८. ऋतस्य हि शुरूधः सन्ति पूर्वी। ऋ. ४.२३.८

१९. ऋतस्य दृव्व्हा धरूणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि।

      ऋतेन दीर्घ मिषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा विवेशुः ।। ऋ. ४.२३.९

२०. ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते।। ऋ. ४.२३.१०

२१. ऋतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने।

       बजी न सगेंषु प्रस्तुभानः प्र सदमित्स्त्रवितवे दधन्युः।। ऋ. ४.३.१२

२२. ऋतावरि – ऋ. २.१.१, ऋतावरी – ऋ. ६.६१.९, ऋ. ३.५४.४, ३.६१.६, ऋ. ४.५२.२, ऋतावरीम्   – ऋ. ५.८०.१, ऋतावरीः – ३.५६.५

२३. ऋ. १.१६०.१

२४. ऋ. ४.५६.२ देवी देवेभिर्यजते यजत्रैरमिनती तस्थतुरूक्षमाणे।

ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरकैः।।

२५. ऋ. १.४७.१ (ऋतावृधा) तुं अश्र्विनौ यद्व्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषान्यः।

(रिरूक्त १२१)

२६. ऋ. १.२.८ (ऋतावधौ)

२७. ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जने जने।

सुनीथासः सुदानवोंऽहोश्चिदुरूचक्रयः ।। ऋ. ५.३७.४

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः सोमाहुतिः । देवता अग्निः । छन्दः स्वराडू आर्षी त्रिष्टप्।

पुर्नस्त्वादित्या रुद्रा वसवः सन्धि पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥

-यजु० १२।४४

हे ( वसुनीथ) स्वास्थ्य आदि ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले यज्ञाग्नि! ( पुनः त्वा ) पुनः तुझे (यज्ञैः ) यज्ञों से ( आदित्या:१) त्रिवेदी विद्वान्, (रुद्राः२) द्विवेदी विद्वान्, ( वसवः३) एकवेदी विद्वान् ( समिन्धताम् ) प्रज्वलित करें, ( पुनः ) पुनः ( ब्रह्माण:४) चतुर्वेदी विद्वान् [प्रदीप्त करें](घृतेन ) घृत से ( त्वं ) तू ( तन्वं) शरीर को (वर्धयस्व) बढ़ा। (सत्याः सन्तु) सत्य हों (यजमानस्य कामाः ) यजमान की कामनाएँ।

यजमान ने किन्हीं पवित्र महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर सकाम यज्ञ आरम्भ किया है। यज्ञवेदि को हल्दी, रोली आदि से सजा कर यज्ञकुण्ड में घृतदीपक से अग्नि प्रज्वलित की है। यह अग्नि प्रकाश, ज्ञानज्योति, प्रगति, स्फूर्ति, अग्रगामिता, विघ्नदाह, राक्षसी वृत्तियों के भस्मीकरण, ऊध्र्वारोहण आदि का प्रतीक है। घृताहुति से यह बल पाता है और इसकी ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद और रोगहर पदार्थों के प्रज्वलन से यह पर्यावरण को शुद्ध करता है। मानस में मनुष्य से देव बनने की तरङ्गे उठाता है, सङ्कल्प को दृढ़ करता है। और ध्येय में सफल होने की प्रेरणा करता है। यह अग्नि ‘वसुनीथ’ कहलाता है, क्योंकि स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, प्राणशक्ति मनोबल आदि ऐश्वर्यों को प्राप्त कराता है और उनका उन्नयन करता है। जीवन में एक बार ही इसे प्रज्वलित करना पर्याप्त नहीं है, अतः मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि याज्ञिकजन जीवन में पुनः पुन: इसे प्रज्वलित किया करें। इन याज्ञिकों को यहाँ चार श्रेणियों में विभक्त किया गया है, वसु, रुद्र, आदित्य और ब्रह्मा । वसु एकवेदी, रुद्र द्विवेदी, आदित्य त्रिवेदी और ब्रह्मा चतुर्वेदी याज्ञिक हैं। यज्ञ घृत और चतुर्विध हवन-सामग्री से तो लाभ पहुँचाता ही है, इसके अतिरिक्त यजमान और पुरोहितों को जितना अधिक वेदमन्त्रों का अर्थबोध होगा, उतना ही अधिक आन्तरिक लाभ भी ये प्राप्त कर-करा सकेंगे। एक, दो, तीन या चारों वेदों का मन्त्रार्थ समझते हुए जो यज्ञ करता है, वह यज्ञ का केवल भौतिक लाभ ही नहीं प्राप्त करता, अपितु सद्गुण, विवेक, कर्त्तव्यबोध, ज्ञानवृद्धि, ईश्वरभक्ति, अमृतवर्षा, अन्नमय-प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय कोषों की बलवत्ता आदि का लाभ भी प्राप्त करता है। वह मन्त्रार्थ को अपने और समाज के जीवन में क्रियान्वित करने का व्रत भी व्रतपति अग्नि से और व्रतपति परमेश्वर से ग्रहण करता है। हे यज्ञाग्नि! तू घृतादि की आहुतियों से अपनी और यजमान की, दोनों की तनूवृद्धि कर, दोनों का शरीरवर्धन कर! हे यजमान ! यज्ञ में उपस्थित समस्त यज्ञप्रेमियों का, विद्वानों का, पुरोहितों का, वेद का और परमेश्वर का तुझे यह आशीर्वाद है कि यजमान की कामनाएँ सत्य हों, पूर्ण हों, फलित हों-”सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ।”

पादटिप्पणियाँ

१-४.( वसव:) प्रथमे विद्वांसः, (रुद्राः) मध्यस्था:, (आदित्या:)पूर्णविद्याबलयुक्ताः, (ब्रह्माण:) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मा इति संज्ञां प्राप्ताः द० |

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः ।

इडामग्ने पुरुससनिं गोः शश्वत्त्तमहर्वमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुतिर्भूत्वस्मे॥

-यजु० १२।५१

( अग्ने ) हे तेजस्वी परमेश्वर ! ( हवमानाय ) मुझ प्रार्थी के लिए ( इडाम् ) भूमि, अन्न और गाय तथा ( पुरुदंसं ) अनेक कर्मों को सिद्ध करनेवाली ( गो:४ सनिं ) वाणी की देन ( शश्वत्तमं ) निरन्तर ( साध ) प्रदान कीजिए। (नः सूनुः ) हमारा पुत्र ( तनयः५) वंश आदि का विस्तार करनेवाला और ( विजावा ) विविध ऐश्वर्यों का जनक ( स्यात् ) हो ( सा ) ऐसी ( ते सुमतिः ) आपकी सुमति ( अस्मे ) हमारे लिए ( भूतु ) होवे।

हे अग्नि! हे अग्रनायक तेजस्वी परमेश्वर ! हम आपसे कुछ याचना कर रहे हैं, करबद्ध होकर प्रार्थना कर रहे हैं, वह हमारी प्रार्थना कृपा करके आप पूर्ण कीजिए। क्या कहते हो? अपने आचार्य के वचन सुनो-”यही प्रार्थना का मुख्य सिद्धान्त है कि जैसी प्रार्थना करे वैसा ही कर्म करे।७।। अतः जो कुछ माँगते हो उसे पाने का स्वयं पुरुषार्थ करो। पुरुषार्थ तो हम करेंगे भगवन्, किन्तु पहले आपका आशीर्वाद तो ले लें । प्रार्थना द्वारा आपसे दृढ़ सङ्कल्प, कर्म के प्रति तत्परता, उत्साह, प्रेरणा, सफलता का आशीर्वाद आदि प्राप्त होते हैं। प्रार्थना करके हम उन्हें ही प्राप्त करना चाहते हैं। फिर कृतकार्य होने के लिए पुरुषार्थ में जुट जायेंगे और आपके आशीर्वाद से प्रार्थित वस्तुओं को प्राप्त करके ही रहेंगे। पहली वस्तु, जो हम माँगते हैं, वह है ‘इडा’। इडा का अर्थ है भूमि, अन्न और  गाय । हमें निवास के लिए, खेती करने के लिए, बाग-बगीचे लगाने के लिए, कल-कारखाने खोलने के लिए और शिक्षणालय, औषधालय आदि चलाने के लिए भूमि दीजिए। अन्न, अर्थात् सकल शुद्ध आरोग्यकारी भोज्य पदार्थ दीजिए और दूध-दही-माखन आदि की पूर्ति के लिए दुधारू गाय दीजिए। दूसरी हमारी प्रार्थित वस्तु है ‘गोः सनिः’। गो शब्द निघण्टु में वाणीवाचक शब्दों में भी पठित है। वाणी की देन भी हमें चाहिए। वाणी पुरुदंसाः’ है, अनेक कार्यों को सिद्ध करनेवाली है। वेदादि शास्त्रों की वाणी, गुरुजनों की वाणी, अनुभवी संन्यासियों की वाणी मूर्ख को भी विद्वान्, अधार्मिक को भी धर्मात्मा, आतङ्कवादी को भी मित्र बना देती है। वाणी की यह देन नैरन्तर्य के साथ हमें प्राप्त होती रहे। हम कभी वाणी से और वाणी के लाभों से वञ्चित न हों। तीसरी वस्तु हम यह माँगते हैं कि हमारा पुत्र ‘तनय’ हो, वंश के यश का विस्तार करनेवाला हो। वह ‘विजावा’ अर्थात् विविध ऐश्वर्यो का जनक भी हो। धन-सम्पदा का ऐश्वर्य, वीरता का ऐश्वर्य, विद्या का ऐश्वर्य, प्रताप का ऐश्वर्य, अहिंसा का ऐश्वर्य, सत्य का ऐश्वर्य, ब्रह्मचर्य का ऐश्वर्य आदि ऐश्वर्यों की उसके पास झड़ी लगी हो।

हे अग्निदेव! हे तेजस्वी परमेश! ऐसी आपकी सुमति हमारे ऊपर रहे कि हम समस्त वांछित वस्तुओं को पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते रहें और संसार में सर्वाधिक समुन्नत होकर जीवनयापन करें।

पादटिप्पणियाँ

१. हृञ् स्पर्धायां शब्दे चे, सम्प्रसारण, पूर्वरूप होने पर हृ=हु, शानच् ।

२. इडा=पृथिवी, अन्न, गाय, निघं० १.१, २.७, २.११।।

३. पुरूणि बहूनि दंसांसि (कर्माणि) भवन्ति यस्मात्–द० ।

४. इडा=वाकु, निघं० ३.११ ।।

५. तनोति विस्तारयति वंशं यशश्च यः स तनयः।

६. विजावा विविधैश्वर्यजनकः-द०।।

७. अयमेव प्रार्थनाया मुख्यः सिद्धान्तः, यादृशीं प्रार्थनां कुर्यात् तादृशमेवकर्माचरदिति । य०भा० ३.३५ का भावार्थ।

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार 

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विरूपः । देवता सूर्य: । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।

चित्रं देवानामुर्दगदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।। आणू द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षसूर्य’ऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥

-यजु० १३ । ४६

( देवानाम् ) दीप्तिमान् किरणों का (चित्रम् अनीकम् ) चित्रविचित्र सैन्य ( उदगात् ) उदित हुआ है। यह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः ) वायु, जल और अग्नि का अथवा प्राण, उदान और जाठराग्नि का ( चक्षुः ) प्रकाशक एवं प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने (आअप्राः२) आपूरित कर दिया है ( द्यावा पृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा ( अन्तरिक्ष ) अन्तरिक्ष को। ( सूर्यः ) सूर्य ( आत्मा ) आत्मा है ( जगतः ) जङ्गम का ( तस्थुषः च ) और स्थावर का।

देखो, रात्रि के अन्धकार को चीरता हुआ प्रभात खिल रहा है। सूर्य-रश्मियों का चित्र-विचित्र सैन्य उदित हुआ है। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखायी दे रहा है। तरु, वल्लरी, सदन, अट्टालिकाएँ, स्तूप राजप्रासाद सब दीप्ति से जगमगाने लगे हैं। अन्धेरा गिरि-कन्दराओं में जाकर छिप गया है। शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन का स्पर्श शरीर को सुखद लग रहा है। नदियों और सरोवरों के जल पर झिलमिलाती हुई दिवाकर की किरणें दर्पण में झाँकती हुई-सी प्रतीत हो रही हैं। अग्नि की ज्वालाएँ अपनी ज्योति के स्रोत सूर्य को देख कर शरमाती हुई-सी लग रही हैं। यही रश्मिपुञ्ज सूर्य, वायु, जल और अग्नि का तथा शारीरिक प्राण, उदान और जाठराग्नि का भी चक्षु है, प्रकाशक है, प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने अपनी किरणों  से द्युलोक, पृथिवीलोक और अन्तरिक्षलोक को आपूरित कर लिया है। सचमुच यह सूर्य जङ्गम और स्थावर का आत्मा है, प्राण है, जीवन है। इसी सूर्य से मानव आदि प्राणी प्राण प्राप्त करते हैं, इसी सूर्य से वृक्ष-वनस्पति जीवन धारण करती हैं। इसी सूर्य से जङ्गम-स्थावर स्थिति पाता है। यही सूर्य हमारी भूमि का आधार है, यही मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि ग्रहों का आधार है, यही सूर्य इन ग्रहों के उपग्रह भूत चन्द्रों का आधार है। यह तो बाह्य जगत् की लीला है।

अन्तर्जगत् की ओर भी दृष्टि डालो। परमात्मसूर्य की प्रकाशमय दिव्य किरणों का जाल आत्मलोक पर छा रहा है। आत्मलोक पर प्रभात उदित हो रहा है। तामसिकता का अन्धकार विनष्ट हो गया है। इस अन्त:प्रकाश ने प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय लोक को भी प्रकाशित कर दिया है। आत्मा, मन और शरीर को इस परमात्मसूर्य ने पूर्णतः आपूरित कर लिया है। यह परमात्मसूर्य जङ्गम मनोवृत्तियों का और ज्ञानेन्द्रियों का तथा कर्मेन्द्रियों एवं अन्नमय शरीर का प्राण है। हे साधको! इस परमात्मसूर्य से दिव्य प्राण, जीवन और जागृति प्राप्त करो, अन्त:करण को प्रकाशित करो।

पाद-टिप्पणियाँ

१. मित्रस्य प्राणस्य, वरुणस्य उदानस्य-२० ।।

२. आप्रा:=ओ अप्राः, प्रा पूरणे, लङ्।

जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार 

मानव को किन कार्यों के लिए नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता प्रजापतिः । छन्दः विराड् ब्राह्मी जगती ।

त्रिवृदसि त्रिवृते त्वा प्रवृदसि प्रवृते त्वा विवृदसि विवृते त्वा सवृदसि सवृते त्वाऽऽक्रमोऽस्याकूमार्य त्वा संक्रमोऽसि संक्रमार्य त्वोत्क्रमोऽस्युत्क्रमा त्वोत्क्रान्तिरस्युत्क्रान्त्यै त्वाधिपतिनो र्जार्ज जिन्व।।

-यजु० १५ । ९

हे मनुष्य ! तू (त्रिवृद् असि ) ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों तत्वों के साथ वर्तमान है, अतः ( त्रिवृते त्वा ) इन तीनों की वृत्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( प्रवृत् असि) प्रवृत्तिमार्ग में जाने योग्य है, अतः ( प्रवृते त्वा ) प्रवृत्तिमार्ग पर चलने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( विवृद् असि ) विविध उपायों से उपकार करनेवाला है, अत: (विवृते त्वा ) विविध उपायों से उपकार के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (सवृद्असि) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बना सकनेवाला है, अत: ( सवृते त्वा ) अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (आक्रमःअसि ) शत्रुओं पर आक्रमण कर सकनेवाला है, अतः ( आक्रमाय त्वा ) शत्रुओं पर आक्रमण करने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( संक्रमः असि ) संक्रमे करनेवाला है, अतः ( संक्रमाय त्वा ) संक्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू (उत्क्रमः असि ) उत्क्रमण करनेवाला है, अतः ( उत्क्रमाय त्वा ) उत्क्रमण के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( उत्क्रान्तिः असि ) उत्क्रान्ति करनेवाला है, अत: (उत्क्रान्त्यै त्वा ) उत्क्रान्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( अधिपतिना ऊर्जा ) अधिरक्षक बलवान्  द्वारा (ऊर्जी ) बल को (जिन्व) प्राप्त कर।

हे मानव ! क्या तू जानता है कि तू संसार का सर्वोत्कृष्ट प्राणी है। तुझे अपनी सर्वोत्कृष्टता के अनुरूप ही कर्म करने हैं। तू त्रिवृत्’ है, ज्ञान-कर्म-उपासना तीनों की योग्यता रखता है। अतः तुझे उत्कृष्ट ज्ञान, उत्कृष्ट कर्म और उत्कृष्ट उपासना तीनों के सम्यक् सम्पादन के लिए नियुक्त करता हूँ। अकेला ज्ञान या अकेला कर्म कुछ अर्थ नहीं रखता, ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म ही श्रेष्ठ फल उत्पन्न करता है। उपासना भी ज्ञानपूर्वक ही होती है, अकेली उपासना छलावा है। अत: तू तीनों का जीवन में यथोचित मेल रख कर ही कार्य कर। दूसरी बात जिसकी ओर मैं तेरा ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ, वह यह है कि संसार में जीवनयापन के दो मार्ग हैं-एक प्रवृत्तिमार्ग और दूसरा निवृत्तिमार्ग। निवृत्तिमार्ग के अनुयायी लोग यह चाहते हैं कि हम सांसारिक कार्यों से उपरत होकर अहं ब्रह्मास्मि’ का ही जप करते रहें। परन्तु यह आत्मप्रवंचना है। सांसारिकता को सर्वथा छोड़ा नहीं जा सकता। प्रवृत्तिमार्ग कहता है कि जिस स्थिति में हमारे जो कर्तव्य हैं, उनका हमें पालन करना चाहिए। कुमारावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास सबके अपने-अपने शास्त्रोक्त कर्तव्य है। उन्हें करते हुए कुछ समय हम धारणा-ध्यान-समाधि के लिए भी निकालें । यह प्रवृत्तिमार्ग ही मैं तेरे लिए निर्धारित करता हूँ। इस मार्ग में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है, सामञ्जस्य है।

यह भी ध्यान रखें कि तेरे अन्दर विविध उपायों से उपकार करने का सामर्थ्य है। अत: तू विविध उपायों से जीवन में परोपकार करता रह। कभी तू निर्धन को धन देकर उसका उपकार कर, कभी तू मूक को वाणी देकर, बधिर को श्रवण देकर, पंगु को टाँग देकर, रोगी को स्वास्थ्य देकर उनका उपकार करे। कभी तू अशिक्षित को शिक्षा देकर, मूर्ख को विद्वान् बना कर उसका उपकार कर। कभी तू पीड़ित की।  पीड़ा हर कर, विपद्ग्रस्त की विपत्ति हर कर उसका उपकार कर। हे मानव ! याद रख, अन्यों के साथ मिलकर सङ्गठन बनाने की शक्ति भी तेरे अन्दर है, अत: अन्यों को साथ लेकर सङ्गठन बना, संस्था खड़ी कर, संस्थान खोल और उन सङ्गठनों, संस्थाओं तथा संस्थानों के द्वारा ऐसा कार्य कर दिखा जिस पर संसार तुझे साधुवाद दे। इस भूतल पर तेरे अनेक शत्रु भी हो सकते हैं। तू उनकी दाल मत गलने दे। उन पर आक्रमण कर और उन्हें पराजित करके विजयदुन्दुभि बजा । तेरे अन्दर संक्रमण की शक्ति भी है। संक्रमण का तात्पर्य है, अन्यों के साथ सम्पर्क करके उनके अन्दर अपने गुण समाविष्ट करना । यदि ऐसा तू करेगा, तो नास्तिकों को आस्तिक, हिंसकों को अहिंसक, निर्बलों को बली, लुटेरों को साधु और शत्रुओं को मित्र बना सकेगा। तेरे अन्दर उत्क्रमण का सामर्थ्य है, अत: उत्क्रमण भी कर। उत्क्रमण का अर्थ है, ऊपर उछलना, जिस स्तर पर खड़ा है, उससे ऊपर के स्तर पर पहुँचना और इस प्रकार उपरले उपरले स्तर पर पहुँचते-पहुँचते सर्वोन्नत शिखर पर पहुँच जाना। तू उत्क्रान्ति भी कर सकता है, अतः उत्क्रान्ति भी कर। उत्क्रान्ति से अभिप्रेत है जनसमूह को लेकर उच्च दिशा में क्रान्ति कर दिखाना। जैसे किसी पराधीन देश के वासियों द्वारा मिलकर पराधीनता की जंजीर तोड़कर स्वराज्य पा लेना।

हे मानव! किसी बलवान् और प्राणवान् को अधिपति बना कर, अपना संरक्षक बना कर बल तथा प्राणशक्ति प्राप्त कर और संसार को बदल दे।

मानव को किन कार्यों के लिए  नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार 

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः दीर्घतमा: । देवता वरुण: । छन्दः क. आर्षी त्रिष्टुप्,| र. निवृद् अनुष्टुप् ।।

कमापो मौषधीहिंसीर्धाम्नोधाम्नो राजॅस्ततो वरुण नो मुञ्च। यदाहुघ्न्याऽइति वरुणेति शपमहे ततो वरुण नो मुञ्च। ‘सुमित्रिया नऽआपओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु। योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः

-यजु० ६ । २२

हे ( वरुण राजन् ) वरणीय राजन् ! ( मा अपः ) न जलों को, ( मा ओषधीः ) न ओषधियों को ( हिंसीः ) हिंसित या दूषित करो। ( धाम्नः धाम्नः ) प्रत्येक स्थान से (ततः) उसे हिंसा या प्रदूषण से ( नः मुञ्च ) हमें छुड़ा दो। (शपामहे ) हम शपथ लेते हैं कि ( यद् आहुः ) जो यह कहते हैं कि । गौएँ ( अघ्न्याः इति ) अघ्न्या हैं, न मारने-काटने योग्य हैं, । ( ततः ) उससे ( वरुण ) हे श्रेष्ठ राजन् ( नो मुञ्च ) हमें मत छुड़ा। (सुमित्रियाः) सुमित्रों के समान हों ( नः ) हमारे लिए ( आपः ) जल और ( ओषधयः ) ओषधियाँ, ( दुर्मित्रियाः तस्मै सन्तु ) दुर्मित्रों के समान उसके लिए हों (यःअस्मान्द्वेष्टि) जो हमसे द्वेष करता है, ( यं च वयं द्विष्मः ) और जिससे हम द्वेष करते हैं।

हे मानव ! यदि तू शुद्ध सागपात खाना चाहता है और शुद्ध जल पीना चाहता है, तो जल और ओषधियों को न प्रदूषित कर, न समाप्त कर । प्रदूषित जल पीने और प्रदूषित ओषधियों तथा उनके पत्र, पुष्प, अन्न, फल, फली आदि के खाने से यह पवित्र नर-तन मलिनताओं और रोगों का अड्डा बन जाएगा। यदि जल और ओषधियाँ दुर्लभ हो जाएँ, तब तो मनुष्य का जीवन ही विपत्ति में पड़ जाएगा। हे श्रेष्ठ राजन् ! हे प्रजा द्वारा प्रजा में से बहुसम्मति द्वारा चुने हुए राजन् ! धाम धाम में, स्थान-स्थान में इस जल-प्रदूषण और ओषधि प्रदूषण तथा जल-विनाश और ओषधि-विनाश से लोगों को राजनियम द्वारा रोकिये। साथ ही राष्ट्र में गौओं का संरक्षण भी आवश्यक है, अतः जनता से प्रतिज्ञा करवाइये, हस्ताक्षर अभियान प्रारम्भ करवाइये कि कहीं भी गोवध न हो, गौएँ मारी-काटी न जाएँ न ही गोमांस का भक्षण और व्यापार हो। यदि कोई गोमांस खाता है, तो उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाए। जल और ओषधियाँ हमारे साथ मित्र जैसा आचरण करें, अर्थात जैसे मित्र मित्र को लाभ पहुँचाता है। वैसे ही शुद्ध जल और शुद्ध ओषधि-वनस्पतियाँ हमें लाभ पहुँचाएँ, शरीर की भूख-प्यास मिटाएँ, शरीर को स्वस्थ रखें और शरीर को पुष्ट करें। परन्तु समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो पर्यावरणशुद्धि की ओर कुछ ध्यान नहीं देते, जान-बूझकर कूपों, सरोवरों तथा नदियों का जल प्रदूषित करते हैं, वनस्पतियों-ओषधियों को दूषित जल से सींचते हैं, दूषित खाद देते हैं वे जल और ओषधियों के भी द्वेषी हैं, हमारे भी द्वेषी हैं। उनके प्रति जल और ओषधियाँ मित्रवत् नहीं, अपितु दुर्मित्र या शत्रु के समान आचरण करें। हम जल और ओषधियों से मित्रवत् व्यवहार करते हैं, अत: हमें सुख दें, जो उनसे अमित्रवत् व्यवहार करते हैं, उनके प्रति वे भी अमित्र हों। तभी उन्हें शिक्षा मिलेगी।

जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार