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मृत्यु के पश्चात् जीव की गति – रामनाथ विद्यालंकार

mrityu ke pashchat aatma ki gati1मृत्यु के पश्चात् जीव की गति  – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता सवित्रादयः । छन्दः विराड् धृतिः ।।

सविता प्रथमेऽहन्नग्निर्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदित्यश्चतुर्थे । न्द्रमाः पञ्चमऽऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे। मित्रो नवमे वरुणो दशुमऽइन्द्रएकादशे विश्वेदेवा द्वादशे ॥

 -यजु० ३९.६

 हे मनुष्यो ! इस जीव को शरीर छोड़ने पर ( सविता ) सूर्य ( प्रथमे अहन्) पहले दिन, ( अग्निः ) अग्नि (द्वितीये ) दूसरे दिन, (वायुः ) वायु ( तृतीये ) तीसरे दिन, ( आदित्यः ) मास ( चतुर्थे ) चौथे दिन, ( चन्द्रमाः) चन्द्रमा ( पञ्चमे ) पाँचवे दिन (ऋतुः ) ऋतु ( षष्ठे) छठे दिन, ( मरुतः ) मनुष्यादि प्राणी ( सप्तमे) सातवें दिन, ( बृहस्पतिः ) बड़े-बड़ों का पालक सूत्रात्मा वायु ( अष्टमे ) आठवें दिन, ( मित्रः ) प्राण ( नवमे ) नौवें दिन, (वरुणः ) उदान (दशमे ) दसवें दिन, ( इन्द्रः ) विद्युत् ( एकादशे ) ग्यारहवें दिन, (विश्वेदेवाः ) सब दिव्य उत्तम गुण ( द्वादशे ) बारहवें दिन प्राप्त होते हैं।

“हे मनुष्यो ! जब ये जीव शरीर को छोड़ते हैं, तब सूर्यप्रकाश आदि पदार्थों को प्राप्त होकर, कुछ काल भ्रमण कर, अपने कर्मों के अनुकूल गर्भाशय को प्राप्त शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं। तभी पुण्य-पाप कर्म से सुख-दुःखरूप फलों को भोगते हैं।”” “जब यह जीव शरीर को छोड़ सब पृथिव्यादि पदार्थों में भ्रमण करता, ‘जहाँ-तहाँ प्रवेश करता और इधर-उधर जाता हुआ कर्मानुसार ईश्वर की व्यवस्था से जन्म पाता है, तब ही सुप्रसिद्ध होता है।”२ हे मनुष्यो ! जो जीव पापाचरणी हैं वे उग्र, जो धर्मात्मा हे वे शान्त, जो भय  देनेवाले हैं वे भीम, जो भय को प्राप्त हैं वे भीत, जो अभय देनेवाले हैं वे निर्भय, जो अविद्यायुक्त हैं वे अन्धकारावृत, जो विद्वान् योगी हैं वे प्रकाशयुक्त, जो अजितेन्द्रिय हैं वे चञ्चल (धुनि), जो जितेन्द्रिय हैं वे अचञ्चल, अपने-अपने कर्मफलों को सहते-भोगते, संयोग-विक्षेप को प्राप्त हुए जगत् में नित्य भ्रमण करते हैं, ऐसा जानो।”३ ५५ जो जीव शरीर को छोड़ते हैं वे वायु और ओषधि आदि पदार्थों में भ्रमण करते-करते गर्भाशय को प्राप्त होके नियत समय पर शरीर धारण करके प्रकट होते हैं।”४ “हे देह का अन्त करनेवाले जीव! तू सोमलता आदि वा यवादि ओषधियों के मध्य गर्भरूप से रहता है। पीपल आदि वनस्पतियों के मध्य गर्भरूप से रहता है, प्राण वा जलों के मध्य गर्भरूप से रहता है।'”, ” हे जीवो ! जब तुम शरीर को छोड़ो तब यह भस्मीभूत होकर पृथिवी आदि पञ्चतत्त्वों में मिल जाये। तुम और तुम्हारे आत्मा माता के शरीरों में गर्भाशय में प्रविष्ट होकर पुनः शरीर धारण कर विद्यमान होवो।’१६ हे इच्छादि-गुणप्रकाशित जीव! तू जलों और पथिवी के सदन में फिर-फिर प्राप्त होके इस माता के गर्भाशय में शयन करके इसके लिए मङ्गलकारी हो, जैसे बालक माता की गोद में शयन कर उसके लिए मङ्गलकारी होता है।’

जब पाप बढ़ जाता पुण्य न्यून होता है, तब मनुष्य को जीव पश्वादि नीच शरीर और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है, तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्य-जन्म होता है। इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्रीवाले होते हैं और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग होता है, पुनः पाप-पुण्य के तुल्य रहने से (उत्तम) मनुष्यशरीर में आता और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है।”

“जब शरीर से निकलता है, उसी का नाम ‘मृत्यु’ और शरीर के साथ संयोग होने का नाम जन्म है। जब शरीर छोड़ता तब यमालय’ अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है। वह जीव वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है, जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा गर्भ में स्थित हो शरीर धारण कर, बाहर आता है।’ १९ ।

पादटिप्पणियाँ

१. यजु० ३९.४ दे०भा०, भावार्थ ।

२. यजु० ३९.५ दे०भा०, भावार्थ।

३. यजु० ३९.७ दे०भा०, भावार्थ ।

४. यजु० १२.३६ दे०भा०, भावार्थ।

५. यजु० १२.३७ दे०भा० का पदार्थ स्वरचित ।

६. यजु० १२.३८ दे०भा० भावार्थ, संशोधिते ।।

७-८. स०प्र०, समु० ९

मृत्यु के पश्चात् जीव की गति  – रामनाथ विद्यालंकार

आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार

aayu bhar karm yog me laga rah

आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः दीर्घतमाः । देवता आत्मा। छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

कुर्वन्नेवेह कर्मणि जिजीविषेच्छतः समाः एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति कर्म लिप्यते नरें

-यजु० ४० । २

आत्मा (इह ) इस संसार में ( कर्माणि कुर्वन् एव ) कर्मों को करता हुआ ही (शतंसमाः ) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। ( त्वयि ) तेरे विषय में (एवं ) ऐसा ही विधान है ( इतः अन्यथा न ) इससे भिन्न नहीं है। ( नरे) मनुष्य में (कर्मलिप्यते न ) कर्म लिप्त नहीं होता, उससे चिपट नहीं जाता।।

कुछ मनुष्य यह सोचते हैं कि कर्म तो बन्धन में डालनेवाला है, इसलिए कर्म को तिलाञ्जलि देकर खाली बैठे रहो। उन्हें सावधान करती हुई भगवद्गीता कहती है कि कोई भी मनुष्य बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता। प्रकृति के गुणों से बाधित होकर उसे कर्म करना ही पड़ता है। जो कर्मेन्द्रियों को कर्मों से रोक कर मन से इन्द्रियों के विषयों को स्मरण करता रहता है, वह मूढ़ मनुष्य मिथ्याचारी कहलाता है। इसके विपरीत जो जितेन्द्रिय होकर असक्त रहकर कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग में लगा रहता है, वह विशिष्ट पुरुष कहलाता है। निश्चय ही कर्म अकर्म से अधिक उत्कृष्ट है। जो कर्म न करने का आग्रह करता है, उसकी शरीर-यात्रा भी नहीं चल सकती।’

‘कर्म तीन प्रकार के होते हैं-सात्त्विक, राजस और तामस । जो कर्म आसक्तिरहित होता है, बिना राग-द्वेष के किया जाता है और जिसमें फलेच्छा की उत्कटता नहीं होती वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। जो कर्म फलेच्छा की उत्कटता के साथ या अहंभाव के साथ किया वजाता है वह राजस कर्म कहलाता है। जौ कर्म हानि, लाभ, उपकार, अपकार, क्षय, हिंसा, पौरुष आदि का विचार किये बिना मोहवश किया जाता है, वह तामस कर्म होता है।”

इनमें सात्त्विक कर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है। यहाँ शङ्का यह हो सकती है कि कर्म करेंगे तो कर्मलेप अवश्यंभावी है। कर्म, कर्म के बाद उसका फल, फिर कर्म और कर्मफल, इस प्रकार यह श्रृंखला कभी समाप्त नहीं होगी। कर्म के बन्धन में ही हम बंधे रहेंगे, उससे मुक्ति कभी नहीं होगी। इस कर्मफल से बचने के लिए हम कर्म से विरत होना चाहते हैं। न रहेगा बांस, न रहेगी बांसुरी।। |

इस शङ्का का उत्तर यह है कि कर्म द्विविध होते हैं निष्काम कर्म और सकाम कर्म । जो कर्म किसी सांसारिक भोग की इच्छा न रखकर केवल परमेश्वर की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है, वह निष्काम कर्म होता है, उससे मोक्ष और ईश्वरसान्निध्य के अनन्त सुख की प्राप्ति होती है, उससे सांसारिक, फल प्राप्त नहीं होते। इसके विपरीत जो कर्म धर्मपूर्वक अर्थ और काम की सिद्धि के लिए किया जाता है, वह सकाम कर्म होता है। उससे लौकिक सुख प्राप्त होते हैं। यदि किसी की इच्छा कर्मलेप से बचने की है, तो यह निष्काम कर्म करे और जो सांसारिक सुख प्राप्त करना चाहता है वह धर्मपूर्वक सकाम कर्म करे। दोनों ही मार्ग ठीक हैं, सकाम कर्म से भी लोकोपकार और सदाचार प्रशस्त होता है । मन्त्र में कर्म मनुष्य में लिप्त नहीं होता’ कहा है, वह निष्काम कर्म के विषय में है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. भगवद्गीता ३ । ५-८

२. वही १८ । २३-२५

३. स्वामी दयानन्द, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषय-विचार, कर्मकाण्ड

प्रकरण ।

४. (कर्माणि) धम्र्याणि वेदोक्तानि निष्कामकृत्यानि-दे० ।।

आयु भर कर्मयोग में लगा रह – रामनाथ विद्यालंकार

आर्य समाज और इस्लाम : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

arya samaj aur islamआर्य समाज इस्लाम नही है और इस्लाम भी आर्य समाज नहीं है किन्तु फिर भी दोनों में काफी समानता है।

– इस्लाम के आगमन के पूर्व लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके थे | अरब ने भी मोहम्मद,जो इस्लाम के महान पैगम्बर थे, उनके वहाँ अवतार लेने के पूर्व मनुष्य की सहस्त्रों पीढियों को देखा था । कुरान का मनुष्य के पास अवतरण होने से पहले क्या ये दीर्घकाल बिना रौशनी के था ? कम से कम इस्लाम के समर्थक ऐसा कहते हैं। वे पूर्व इस्लामिक काल को जमाना-ए-जहालत अर्थात् अज्ञानता वाला काल कहते हैं । यह कल्पना से परे है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा ने जो प्रकाशों का प्रकाश है संसार को इतने दीर्घकाल तक अंधकार में रहने दिया होगा । हमारी सृष्टि के बहुपूर्व पृथ्वी पर दो महान प्रकाश पुँज प्रदान किये गये थे सूर्य एवं चन्द्र, एक वह जिसके चारों और हमारी पृथ्वी चक्कर काटती थी, और दूसरा वह जो पृथ्वी के चक्कर काटता था । यदि सूर्य अथवा चन्द्र नहीं होते, तो हमारी भौतिक दृष्टि व्यर्थ होती या यूँ कहें कि अस्तित्व में ही नही होती । प्राकृतिक सूर्य एवं चन्द्र के विषय में जो सत्य है वही आध्यात्मिक प्रकाशपुंजों के समान ही सत्य है।

भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का ही प्रतिरूप है । क्या आप यह सोचते हैं कि ईश्वर जो यह सहन नहीं कर सका कि हमारी प्राकृतिक आँखें सूर्य के प्रकाश के बिना एक पल भी रह सकें, उसने चाहा होगा कि करोडों वर्षों तक मनुष्य की करोडों पीढियां आयें और जाएं,जन्म लें और मरे बिना किसी आध्यात्मिक अथवा नैतिक प्रकाश के। किस प्रकार के पुरूष एवं स्त्रियां वे थीं जो पूरा अध्यात्मिक अथवा नैतिक अंधकार में विचरण करती रही । और किस प्रकार का वह ईश्वर, था जो उन्हें प्रकाश दे सकता था पर दिया नहीं ? क्यों वह इतनी देर उपेक्षा करता रहा? क्यों उसने करोडों वर्षों को व्यतीत होने दिया इसके पहले कि वह मानवता को प्रकाश का उपहार प्रदान कर सके ?

– इस्लाम इन प्रश्नों का उत्तर नही दे सकता है पर आर्य समाज दे सकता है|आर्य समाज एक शताब्दी पुरानी संस्था है । परन्तु वे सिद्धान्त जिन्हे यह मन में बैठाती है किसी भी प्रकार नये नही हैं। यह मौलिकता का कोई दावा नही पेश करती है । यह कहती है कि संसार में प्रारम्भ से ही ईश्वर ने मानव जाति को वेदों के नाम से पुकारे जाने वाले अपने ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया है । वैदिक शिक्षायें हमारी पीढियों को सीधी अथवा माध्यम द्वारा, दृश्य अथवा अदृश्य व्यक्त अथवा समाविष्ट रूप से अनेको मार्गो से प्राप्त हुई हैं । बहुधा हम उपलब्ध प्रकाश के उदगम स्थान को खोज पाने में असमर्थ होते हैं और अधिकतर ऐसा ही होता है । पर फिर भी हम बिना प्रकाश के कभी भी नही छोड दिये जाते हैं।

जिस प्रकार इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद साहब थे ठीक उसी प्रकार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द थे । परन्तु जबकि अगले ने मानव जाति के श्रेष्ठों में विशिष्ट स्थान पर होने का ईश्वर का पैगम्बर होने का जिसके समान न कोई हुआ और न कोई होगा, का दावा पेश किया परन्तु पिछले ने ऐसा कोई भी दावा प्रस्तुत नहीं किया। उन्होने केवल पुराने वैदिक सिद्धान्तों को पुनर्जिवित करना चाहा जिन्हें कुछ समय पूर्व से भूला दिया गया था। जबकि मोहम्मद ने ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ होने का दावा किया,स्वामी दयानन्द ने उपदेश दिया कि मनुष्य को किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नही है।

मोहम्मद की महानता कहाँ पायी जाती है ? निश्चित रूप से वे महान थे, क्योकि यही वे थे जिन्होने असभ्य एवं बर्बर अरबियों को नियन्त्रित किया तथा उन्हें विश्व प्रसिद्ध शक्ति के रूप में परिणित किया । इस्लाम की लहर एक बार इतनी शक्तिशाली थी कि इसने पूरब अथवा पश्चिम में इसके मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को बहा दिया । यह सम्पूर्ण दक्षिणी यूरोप उत्तरी अफ्रिका तथा एशिया के बृहत भाग में प्रसार पाया इसने भारत पर भी आक्रमण किया इसे अनेकों शताब्दियों तक अपनी दासता में रखा । पर भारतीय सभ्यता की विशेषता ने भारत को तोड़ने मे एक कठोर शिला बना दिया । निसन्देह इसने भारत की दुर्बलता का अत्याधिक शोषण किया । परन्तु हिन्दु समाज तथा हिन्दु सभ्यता में अन्तर्भूत शक्तियां हैं जो इसे सभी

आँधी-तूफानों को झेल पाने में समर्थ बनाती हैं। जबकि अफगानिस्तान फारस, अरब एवं मिश्र देश शत-प्रतिशत इस्लामिक है। केवल एक चौथाई भारतीयों ने इसे अपनाया । और अभी उनमें वृद्धि की सम्भावना कमतर होती जा रही है । किस वस्तु ने इस्लाम को अरब में सफल बनाया ? वह तीन वस्तुएं हैं।

१. उस विशाल रेतीले प्रायद्वीप के वासियों की घोर अज्ञानता।

२. अरबी समाज कीअत्याधिक अव्यवस्थित अवस्था ।

३. मोहम्मद की युद्धरत जातियों को प्रभावित तथा नियंत्रित करने की असाधारण योग्यता।

एक बार अरब में सफल होकर मोहम्मद के अनुयायियों ने पडोसी देशों पर आक्रमण किया और आक्रमणकारियों का प्रहार इतना शक्तिशाली था और आक्रामित लोग इतने असंगठित थे कि वे इस्लामिक प्रभावों के आगे तुरन्त झुक गये। पर भारत में इस्लाम आंशिक रूप में सफलीभूत था । भारत पूर्णतया असंगठित था जब इस्लामिक आक्रमण हुए थे । यद्यपि शारीरिक रूप में अधिक दुर्बल नहीं वरन कुछ विषयों में निश्चित रूप से सबल,भारतीय शासकों तथा भारतीय जनता ने उस वैधानिक शक्ति को खो दिया था जो एक मात्र इस्लामिक लहर को झेल सकता था । परन्तु भारत को एक स्पष्ट लाभ था । वह था भारत का उच्च स्तरीय दर्शन एवं नैतिकता जिसने बाहरी दुर्बलता का विरोध न कर अपना वर्चस्व बनाये रखा । ऐसे बहुधा होता है कि अति सुसंस्कृत लोग कुछ दुर्बलताओं को समय के साथ समाहित कर लेते हैं और इस प्रकार अल्प सभ्य पर शारीरिक रूप से दृढ, शत्रु के हाथों पराभव स्वीकार करते है । भारत के साथ ठीक ऐसी ही स्थिति थी । इसका दर्शन तथा धर्म यद्यपि प्रत्येक अत्युत्कृष्ट होकर भी निहित शक्ति को खो चुके थे। पुरोहित समाज अत्यन्त बलशाली था । अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा एवं जाति गर्व ने भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों को ग्रास बना लिया था । मुसलमानों का धर्म नया था । इस्लामी खलीफों ने अफगान आक्रमणकारियों की गृद्ध दृष्टि भारत की सम्पदा पर पाकर इसे एक वरदान के रूप में देखा और इसलिए एक पत्थर से दो शिकार करने के उद्देश्य से उन्होने उन पर धर्म के रक्षक का सम्मान प्रदान किया।

अब यही मोहम्मद-बिन-कासिम तथा गजनी के महमूद जैसे धर्मरक्षकों ने भारत पर आक्रमण किया, हिन्दु मन्दिरों को धूल-धुसरित किया, भारतीय सम्पदा को उड़ा ले गये और बदले में यहाँ इस्लाम को छोड गये । भारतीय राजकुमार एवं जनता इस प्रकार असंगठित थे और उन दिनों का हिन्दू धर्म इस प्रकार स्वांगी कर्मकाण्डपरक था कि वनिस्पत कि अनेकों शताब्दियों तक अविराम संघर्ष चले, इस्लामिक लहर के थपेड़ों को रोक भी नहीं सका । इस सम्बन्ध में दो वस्तुएं विचारणीय हैं –

प्रथम -कि हिन्दु धर्म इस्लाम का विरोध नहीं कर सका ।

द्वितीय-कि इस्लाम, हिन्दु धर्म को समूल नष्ट नहीं कर सका, दोनों तथ्यों की अपनी व्याख्या है और इसी के प्रकाश में आर्य समाज एवं इस्लाम के सम्बन्ध की गवेषणा करनी है । भारत पर इस्लामी आक्रमण अपने प्रकार के प्रथम नहीं थे । उनसे अनेकों शताब्दियों पूर्व ग्रीकों, हूणों तथा अन्य विदेशियों ने हिन्दुओं के साथ अपनी शक्ति का प्रयास किया था । महान ग्रीक मेसिडोनिया के अलेक्जेन्डर ने १२ अथवा १३ वीं शताब्दी पूर्व हिन्दु राजकुमार पोरस को परास्त किया था । यह पराभव हिन्दु राजकुमारों के ईर्ष्या तथा असंगठित होने के कारण था । पर हिन्दुधर्म स्वयं में इतना ठोस था कि एक विजय ग्रीकों के लिए कुछ विशेष स्थान नहीं बना सका और बिना समय व्यर्थ किए हिन्दु सभ्यता ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया । हूण आए तथा भारत में बस गये, पर शीघ्र ही हिन्दु राष्ट्रीयता के अपने में आत्मसात कर लेने के गुण के कारण उन्होने अपनी पहचान विलय कर दी । हिन्दु धर्म एवं हिन्दु दर्शन, हिन्दु आदर्श एवं हिन्दु समाजशास्त्र इतने शक्तिशाली थे कि विदेशियों को अपना मस्तक उनके समक्ष सम्मानपूर्वक झुकाना ही पड़ा और उनके गले-लगाने वाले प्रभाव के आधीन होना ही पडा।

यही इस्लाम की पूर्वकाल की कहानी है । पर उस समय तक जबकि इस्लाम ने उत्थान किया, हिन्दु समाज विखण्डित हो गया था। हिन्दु धर्म कुछ चयनित व्यक्तियों का एकाधिकार बनकर रह गया । हिन्दुओं का आत्मसात कर लेने का गुण दुर्बल हो गया। हिन्दु समाज की ठोस दीवारों में दरारें पड गयी । हिन्दुओं के अधिसंख्य भाग को मुख्य अधिकारों से वंचित कर दिया गया । उच्च वर्णो एवं दलित वर्णो ने आपस में सम्बन्ध विच्छेद कर लिया । सम्बन्धों में आये ढीलेपन ने पूरी हिन्दु समाज की रचना को ही क्षीण बना दिया । मुसलमानों में इतनी कुरीतियां नहीं थीं बल्कि वे अधिक दृढ थे और शक्तिशाली थे। उनका भ्रातृत्व अधिक ठोस था और इसी कारण उन्होने जब हिन्दुओ पर आक्रमण किया तो वे पिछले आक्रमण का सफलता पूर्वक विरोध नही कर सके और इस्लाम किसी प्रकार भारत में प्रवेश कर ही गया। पर इस्लाम ने विजय को सहज नही पाया यद्यपि शारीरिक रूप से और कुछ स्थितियों में समाजिक रूप से दृढतर उनकी नैतिकता तथा धर्म एवं दर्शन अत्यन्त दुर्बल थे । इसी कारण यद्यपि अस्थायी रूप में विजयी होकर भी वे डुबते हुए हिन्दु धर्म के बीच भी अधिक प्रगति नहीं कर सके । जहाँ कही भी एवं जब कभी भी मुस्लिम वशंज उदार एवं संयत हुए हिन्दुधर्म ने उन्हे प्रभावित करना प्रारम्भ किया । एवं जब कभी भी एक मुस्लिम राजकुमार कट्टर हुआ तभी आत्मोत्सर्ग का हिन्दु आदर्श ने प्रतिक्रिया प्रस्तुत की, एवं हिन्दु धर्म की ज्वाला को प्रज्वलित रहने दिया । यह हिन्दुओं के त्रुटिपूर्ण समाजिक रीति-रिवाज ही थे जिन्होनें अकबर महान एवं दारा को खुले तौर पर हिन्दु बनने से रोका । पर यह हिन्दु धर्म के आन्तरिक गुण थे जिन्होनें विचारवान एवं उदार मुस्लिमों को आकर्षित होने से नहीं रोक सके । यदि रिवाजों की अपार खाडी नही होती जैसा कि ग्रीको एवं हूणों के दिनों में नही था भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहा होता तथा यवन विजेता जो अफगानिस्तान, फारस,अरब अथवा तुर्की से यहां आये थे वे स्पष्टतया हिन्दुओं में मिल गये होते। पर इस प्रकार की घटनायें नियति में नही थीं । और भारत आज जो है सो है। हिन्दु उच्च आदर्शों एवं उच्च दर्शनशास्त्र परन्तु भयानक दुर्बलताओं के पोशक हैं । कुछ मुसलमान अनेकों समाजिक सुविधाओं सहित पर अगणित आध्यात्मिक वरदानों से रहित हैं । ये दो महान सम्प्रदाय एक दूसरे के नजदीकी तथा सहयोगी बन सकती थी।

परन्तु इनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी भिन्न मानसिकता है जो इस खाई को पटने नहीं देता । प्रत्येक अपने को देवताओं का प्रिय, कुलीनतम तथा भव्यतम तथा दूसरों से अधिक उच्चकोटि का सोचता है। हिन्दु मुस्लिमों को निरर्थक धर्म त्यागी समझते है जिनमें से किसी के भी पास सदगुण नही रह गया हो और उनके पुनः अवतार के पश्चात ही उद्धार की सम्भावना रह गयी हो मुसलमान हिन्दुओं को केवल जो काफिर अथवा विधर्मी समझते हैं शीघ्र अथवा विलम्ब से धर्मान्तरण के ही योग्य हैं। आर्य समाज मध्य में स्थित रहकर खाई को पाटने का प्रयास करती है । प्रथमतः आर्य समाज ने हिन्दु समाज में ऐसे परिवर्तन लाये है जिसने मुसलमानों के अवगुणों को या तो  आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप से दूर कर दिया है । पहले कोई भी हिन्दु अपने पवित्र ग्रन्थों, विशेषकर वेदों को, अहिन्दुओं को पढने की अनुमति नहीं देते थे । आर्यसमाज प्रत्येक पवित्र पुस्तकों का सभी मुसलमानों अथवा अन्यों को स्वछन्दभाव से शिक्षा देती है।।

द्वितीयतः कोई भी मुसलमान किसी भी परिस्थिति में हिन्दु धर्म को गले नही लगा सकता था । आर्य समाज ने सभी बन्धनों को तोड दिया और वैदिक आस्था का दरवाजा सभी के लिए खुला छोड दिया।

‘तृतीयतः आर्य समाज ने निःसन्देह यह सिद्ध कर दिया है कि मूर्तिपूजा जिससे इस्लाम इतनी घृणा करता है वह वैदिक विचारधारा के अन्तर्गत नहीं है प्रत्युत विलम्बित उदगम का अन्ध विश्वास है और इसलिए त्याज्य है । पर इस्लाम के लिए भी इसका एक सन्देश है । यह इस्लाम के साथ सहमत है कि मूर्तिपूजा अनुचित  है । परन्तु यह बल देती है कि इस्लाम एकदम से मूर्ति पूजा ट्रा नहीं कर सकती है जब तक कि यह पैगम्बर को ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ के रूप में देखती है।

यह शैक्षिक हित का प्रश्न है कि कौन सा स्थान इस्लाम में पैगम्बर को प्राप्त है ? पवित्र इस्लामिक धर्मग्रन्थ के विद्यार्थी इस बिन्द पर विभिन्न मत के हो सकते हैं । सम्भवतया मुहम्मद ने पूजा की विषय वस्तु पर स्वयं को इतना महत्वपूर्ण बनना पसन्द नहीं किया होता । सम्भवतया उनकी यह हार्दिक इच्छा रहती कि ईश्वर के सिवाय किसी अन्य की पूजा हो परन्तु तथ्य यह है कि अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों ने अन्य महान पुरूषों के अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों की ही तरह ईश्वर को पष्ठभमि में रखकर पैगम्बर को प्रधानता दी । यदि हम घटनाओं में इतिहास को जिन्होने महान पैगम्बर की मृत्यु का अनुसरण आज तक किया, गम्भीरता से अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी अर्थात पैगम्बर का नाम एवं महत्ता ने सभी विचारों को ग्रहण लगा दिया होता । कलमा अथवा पूजा का प्रारूप अन्य कर्मकाण्डों के साथ जो धर्म के मुख्य तथ्यों का निर्माण करता है । पैगम्बर को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान देता है । मुसलमानों द्वारा बहुधा उच्चारित की गयी आयत देखिये

गर मौहम्मद की जलवा नुमाई न होती। तो हार्गिज खुदा की खुदाई  न होती ॥

यदि मोहम्मद की महिमागान न हुई होती तो भले -मानव कभी भी प्रमुखता में नही आते यही एक विशिष्ट मुस्लिम मस्तिष्क का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व है । तार्किक अथवा आध्यात्मिक रूप से मोहम्मद ने पैगम्बर शब्द का क्या अर्थ निकाला यह एक प्रश्न है । पर पैगम्बर के विषय में आधुनिक इस्लामिक विचारधारा ने इस्लाम को व्यक्तिपूजक के रूप में कमतर कर दिया है जो किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं है और अनेकों विषयों में मूर्ति पूजा से भी निम्नतर है । यह अवश्य स्मरण किया जाना चाहिये कि व्यक्ति पूजा ही मूर्तिपूजा की पूष्ठ भूमि में रहा है । मूर्तिपूजा सर्वदा व्यक्ति पूजा का परिणाम रहा है। इसी कारण मूर्तिपूजा के विरूद्ध भंयकर धर्मयुद्ध के बदले इस्लाम इसे मिटा नही सका और इसका अवतरण बार बार दस सहस्त्रों विभिन्न रूपों में जैसे समाधि पूजा काला पत्थर पूजा, कागज पूजा (ताजियाओं) और इसी प्रकार अनेकों वस्तुओं की पूजा में हुआ।

धर्म के क्षेत्र में व्यक्ति पूजा से अधिक विनाशकारी कुछ भी नहीं है । यह दासत्व तथा कट्टरपन की मानसिकता उत्पन्न करती है जो सच्चे धर्म के प्रबल शत्र हैं । फिर भी श्रेष्ठ कितना भी महान हो उसके अच्छे गुण शीध्र ही पृष्ठभूमि में विलीन हो जायेंगे और उसकी दुर्बलताएं उसके अनुयायियों के लिए पूजा की वस्तुएं हो जायेंगी । इस्लाम से सम्बन्ध के सिवा यह और कहीं अधिक सत्य नहीं है । मोहम्मद एक महान पुरूष थे पर फिर भी एक व्यक्ति थे । उनके अपने दृढ अभिप्राय साथ ही दुर्बलता से भरे हुए थे । ईश्वर के सिवा कोई भी पूर्ण नहीं है और चूंके मोहम्मद ईश्वर नहीं थे, उनमे अपूर्णतायें थी। उनके श्रेष्ठ गुणों की खोज कोई बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है जबकि उनकी त्रुटियों का अनुकरण जन समुदाय द्वारा किया जाता है।

आर्य समाज के संस्थापक ने इस बन्धन से सुरक्षा के उपाय किये हैं । उनके उद्देश्य की श्रेष्ठता तथा जीवन की शुद्धता ने स्वामी दयानन्द को अनुयायियों द्वारा आराध्य बनाया । परन्तु एक विषय पर उन्होने अधिक बल दिया कि वह उतने भले थे जितना कि एक व्यक्ति हो सकता है फिर भी उनके विचार अन्धविश्वास की वस्तु न बनें ।

 

इन्ही शिक्षाओं के माध्यम से ईश्वर के अतिरिक्त अन्य उपासनाओं को समूल नष्ट किया जा सकता है । मनुष्य ईश्वर के अलावा अन्य वस्तुओं की उपासना क्यों करता है ? मानवीय इतिहास तथा मानवीय दर्शन शास्त्र बताते हैं कि समय के अन्तराल में नायक अर्द्धदेव तथा अर्द्धदेव देवता का रूप धारण कर लेते है । किसी भी पुराण विद्या से सम्बन्धित प्रतिभाये अर्द्धदेवों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपने समय में अन्ध विश्वास से प्रतिपादित रहस्यों से घिरे हुए थे । यही अर्द्धदेवों ने , कुछ धर्मो में पैगम्बर के नाम से पुकारे गये , लोगो को सत्य ईश्वर के उपासना से भटकाया है । यद्यपि तथ्य यह है कि प्रारम्भ में उन्होने अपने को ईश्वर का सच्चा उपासक होने का दावा पेश किया । इन्ही मुख्य विचारों पर इस्लाम एवं आर्य समाज के मध्य अपसरण है, देखिये

१. आर्य समाज का मत है कि दैवी शक्तियाँ संसार के आरम्भ में ही प्रकट होती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य का अवतरण सांसारिक प्रकाश का उदगम स्त्रोत । इस्लाम का विश्वास है कि दैवी प्रेरणा अन्य मानवीय संहिताओं की तरह निराकरण तथा परिवर्तन के आधीन है । परन्तु उच्चतम असंगति जिसे इस्लाम परिवर्तन तथा प्रगति के समय अनुमति देता है वह है कि प्रेरणायें कुरान में पूर्णता प्राप्त करती हैं और मोहम्मद अन्तिम पैगम्बर थे । ऐतिहासिक खोज साधारणतया सिद्ध करते हैं कि कुरान में अनेकों गुण है केवल यह छोडकर कि यह नया है । इसकी शिक्षायें विद्युतीय प्रभावकारी हैं । पैगम्बर के व्यक्तित्व के अतिरिक्त कुछ भी नही ऐसा है जिसका अन्य धार्मिक पौराणिक गाथाओं में चिन्ह भी नहीं पाया जा सकता । आर्य समाज कुरान के सभी उपदेशों को अस्वीकृत नही करता है । ये बातें अधिक पुरानी पुस्तकों में भी उपलब्ध हैं यह उसका मानना है और अनेकों ऐसी बातें हैं जो प्राचीन काल में अस्तित्व में थी पर उनका कुरान में अथवा कुरान की आधुनिक व्याख्या में स्थान नही है ।

२. इस्लाम में जीवात्मा का कोई महत्व नहीं है यहाँ तक कि स्वतंत्र आस्तित्व भी नही ईश्वर शून्य से आत्मा की सृष्टि करता है। क्यों ? ईश्वर जानता हैं । कैसे? ईश्वर जानता है । किस सीमा तक ? ईश्वर जानता है । आर्य समाज आत्मा को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करता है । यह अनन्त है और जगत का केन्द्र बिन्दु है । आत्मा के हित में ही ईश्वर विश्व की रचना करता है यह दैवी हाथों की कठपुतली नही है।

यह हमारी नियति को साचें में ढालता है । यह उत्तरदायी है। इस्लाम आत्मा के अस्तित्व को केवल संयोग मानता है । परन्तु आर्य समाज की धारणा है कि वर्तमान जीवन उस प्रारम्भहीन एवं अन्तहीन जीवन का केवल अंश मात्र है । कर्म विधान तथा पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसी तथ्य पर निर्भर है।

३. आर्य समाज आस्था एवं तर्क में समन्वय करता है जबकि इस्लाम पहले को दूसरे से वर्चस्व देती है । इस्लाम का अर्थ आस्था है जो धर्मान्धता की और अग्रसारित करता है । इस्लाम का दूसरे धर्मो के प्रति धारणा अथवा धार्मिकता इस तथ्य का ज्वलन्त उदाहरण है।

क्या आर्य समाज इस्लाम विरोधी है ? उतना नहीं जितना लगता है । प्रत्येक संस्था के कुछ उद्देश्य हैं। यह सहयोगी के प्रति मित्रवत हैं और उनके प्रति विरोधी हैं जो इसके कार्यो में बाधा डालते

यह केवल आर्य समाज के ही लिए सत्य नहीं है प्रत्यत इस्लाम ईसाईयत तथा औरों के लिए भी क्या इस्लाम आर्य समाज का विरोधी है आर्य समाज स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वतंत्र कर्म का पोषक है । क्या इस्लाम भी इनका समर्थन करता है ? तब कितना भी अन्य विषयों पर मतभेद हो, इस्लाम को आर्य समाज से अथवा एक दूसरे से भय नही है।

परन्तु दुर्भाग्यवश इस्लाम इसका अनुसरण नहीं करता है । पिछले दिनों में इस्लाम के अनुयायियों ने पुस्तकालयों को इस आधार पर जला डाला कि उनमें कान के विरूद्ध वस्तुएं हैं, वे अवांछित हैं और यदि कुरान से सम्बन्धित भी हैं तो अनावश्यक हैं।

इस्लाम की यही धारणा अभी भी स्पष्ट है विशेष कर भारत में आर्य समाज वास्तव में उन सभी का विरोधी है जो वैयक्तिक अन्तरात्मा को स्वतंत्र नहीं छोडते हैं । ॥ इति ।।

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  बन्धुः ।  देवता  रुद्रः ।  छन्दः  आर्षी विराट् पङ्किः।

अर्व रुद्रमंदीमह्यवं देवं त्र्यम्बकम् यथा नो वस्यसंस्करद्यथा नः श्रेयसस्करद्यथा नो व्यवसाययात्

-यजु० ३।५८ |

हम (रुद्रं) रुद्र परमेश्वर से (अव अदीमहि) अपने दोषों और दु:खों का क्षय करवा लें, (त्र्यम्बकं देव) त्र्यम्बक देव से (अव अदीमहि) पापाचरणों का क्षय करवा लें, (यथा) जिससे, वह (नः) हमें (वस्यसः४) औरों से अच्छा नगरनिवासी (करत्) कर दे, (यथा) जिससे, वह (नः) हमें (श्रेयसः) प्रशस्ततर (करत्) कर दे, (यथा) जिससे, वह (नः) हमें (व्यवसाययात्) व्यवसायी और निश्चयात्मक बुद्धिवाला कर दे। |

आओ, रुद्र प्रभु से हम अपने दोष दूर करवा लें, त्र्यम्बक देव से अपने दोष दूर करवा लें । रुद्र परमेश्वर का नाम है, क्योंकि वह दुष्टों को दण्ड देकर रुलाता है। यदि हम उसकी दण्ड-शक्ति का ध्यान रखेंगे, तो दुष्टता करना छोड़ देंगे। सत्योपदेश करने के कारण भी वह रुद्र कहलाता है। उसके सत्योपदेश सुन कर भी हम दोषों को त्याग देंगे। त्र्यम्बक पौराणिक सम्प्रदाय में त्रिनेत्र होने के कारण महादेव को कहते हैं, कामदेव को भस्म करने के लिए उन्होंने एक नेत्र अपने मस्तक में निकाल लिया था। किन्तु महादेव परमेश्वर का तो अशरीरी होने से एक भी नेत्र नहीं है। वे तो बिना नेत्र के ही सबको देखते हैं। यदि आलङ्कारिक दृष्टि से देखें तो त्रिनेत्र क्या, वे तो सहस्राक्ष हैं। अत: सृष्टि, स्थिति, प्रलय तीनों को गति देने के कारण मन, बुद्धि, आत्मा तीनों को उपदेश देने के कारण तथा तीनों कालों में एकरस ज्ञान रखने के कारण परमेश्वर त्र्यम्बक कहलाते हैं । जब हम यह ध्यान करेंगे कि परमेश्वर इतना महान् है कि सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का धारण

और यथासमय उसकी प्रलय भी वह अकेला ही करता है, तब हम सोचेंगे कि वह हमें दुष्टता का दण्ड भी दे सकता है, अत: हमारे दोष दूर हो जायेंगे। उसके उपदेश से भी हमारे मन, बुद्धि, आत्मा निर्दोष होंगे। उसका ज्ञान सब कालों में एकरस रहता है, यदि हम दोष करेंगे, तो उसे वह कभी भूलेगा नहीं और हमें दण्ड अवश्य देगा, यह विचार भी हमें निर्दोष बनाने में सहायक होगा। परमेश्वर देव है, दानी है, दीप्तिमान् है, दीप्ति देनेवाला है। अतः वह हमें सद्गुणों का दान करेगा, हमें सद्गुणों से देदीप्यमान करेगा, इस विश्वास से भी हम निर्दोष हो सकेंगे। निर्दोष होने पर शक्तिमान् होकर हम प्रभु-कृपा से तथा पुरुषार्थ से आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दु:खों को भी दूर कर सकेंगे।

जब तक हम दोषों, अपराधों एवं पापों में संलग्न रहेंगे, तब तक किसी राष्ट्र प्रदेश या नगर के स्थायी निवासियों की श्रेणी में भी हम नहीं आ सकते । त्र्यम्बक रुद्र के ध्यान से अपनी-अपनी अपराधवृत्तियों और पापवृत्तियों को नष्ट करवाकर ही हम स्वागतयोग्य प्रशस्त निवासी होने का प्रमाणपत्र पा सकते हैं। त्र्यम्बक रुद्र का पारसमणिसदृश सम्पर्क लोहे के तुल्य हमें सुवर्णसदृश, प्रशस्त तथा ‘ श्रेयान्’ बना सकता है, रुद्र प्रभु के साथ सम्पर्क से पूर्व जो हमारी स्थिति और योग्यता थी, उसकी अपेक्षा हमें बहुत ऊँचा उठा सकता है। त्र्यम्बक रुद्र प्रभु हमें व्यवसायात्मिका बुद्धिवाले, असमञ्जस की स्थिति में तुरन्त सही निर्णय कर लेने में समर्थनिश्चयात्मक वृत्तिवाले और व्यवसायी भी बना सकते हैं, क्योंकि वे स्वयं इन गुणों से युक्त हैं। कौन मनुष्य किस कोटि के अपराध, दुष्कर्म या पाप का पात्र है और उसे क्या दण्ड मिलना चाहिए, तथा कौन मनुष्य किने सुकर्मों का कर्ता है और उसे क्या सत्फल या पुरस्कार दिया जाना चाहिए इसका वे त्वरित निर्णय कर लेते हैं। हम भी उनसे शिक्षा लेकर किसी भी समस्या का त्वरित समाधान करनेवाले बनें ।

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. अदीमहि सर्वाणि दुःखानि क्षाययेम नाशयेम। दीङ् क्षये, लिङ्र्थे

| लङ्-द० ।।

२. ये ऽ तिशयेन वसन्ति ते वसीयांसः तान्, छान्दस ईकारलोपः-द० ।

३. करत् कुर्यात्, लेट् लकार।

४. श्रेयसः अतिशयेन प्रशस्तान्-द० ।।

५. व्यवसाययात् निश्चयवतः कुर्यात्-द० । वि-अव-षो अन्तकर्मणि,

णिच्, लेट् ।।

६. रुद्रं दुष्टानां रोदयितारं परमेश्वरम्-द० ।।

७. रुतः सत्योपदेशान् राति ददाति यः । -ऋ० १.११४.३–० ।।

८. पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः ।।

९. सहस्रशार्षा पुरुषः सहस्राक्षः । -ऋ० १०.९०.१

१०.त्रीन् सृष्टिस्थितिप्रलयान् अम्बयति गमवति यः सः ।

त्रीन् मनोबुद्ध्यात्मनः अम्बति उपदिशति यः सः ।

११.अमति येन ज्ञानेन तदम्बे, त्रिषु कालेषु एकरसं ज्ञानं यस्य तम्-द० |

त्रयम्बक देव की उपासना – रामनाथ विद्यालंकार

राजकीय भाग को स्वेच्छा से अर्पण – रामनाथ विद्यालंकार

राजकीय भाग को स्वेच्छा से अर्पण – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  बन्धुः ।  देवता  रुद्रः ।  छन्दः  निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

एष ते रुद्र भागः सह स्वस्राम्बिक तं जुषस्व स्वाष ते रुद्र भागऽआखुस्ते पशुः ॥

-यजु० ३ । ५७

हे (रुद्र) राजन् ! (एषः) यह (ते भागः) आपका भाग है, जिसे हम (स्वस्रा अम्बिकया सह) अपनी बहिन, माता आदि के साथ देते हैं । (तं) उस भाग को, आप (जुषस्व) स्वीकार कीजिए। हे (रुद्र) नगरपालिकाध्यक्ष ! (एषः) यह (ते भागः) आपका भाग है, उसे आप स्वीकार कीजिए। (आखुः) चूहा, चूहे की प्रवृत्तिवाला मनुष्य (ते) आपके लिए (पशुः) पशुतुल्य है।

सभी राष्ट्रों में राजा की ओर से प्रजा पर कुछ कर (टैक्स) लगाये जाते हैं, जिनसे प्राप्त आय को राजा-प्रजा की ही सार्वजनिक भलाई के लिए व्यय करता है। प्रजा यदि छल से उन करों को देने से बचती है, तो यह सार्वजनिक दृष्टि से एक अपराध है। यदि हम अपने ऊपर लगे आयकर, बिक्रीकर, चुङ्गीकर आदि को कर्तव्य समझकर राजकोष में भेजते रहें, तो उससे हमारा ही कल्याण होगा। जैसे सूर्य समुद्र से जल लेकर उसे सहस्रगुणा बढ़ाकर भूमि पर बरसाती है, वैसे ही राजा सबसे थोड़ा-थोड़ा धन कर रूप में लेकर प्रजा की भलाई में लगा कर उसे सहस्रगुणित रूप में प्रजा पर बरसा देता है।

मन्त्र में प्रजा ‘रुद्र’ नाम से राजा और नगरपालिकाध्यक्ष को सम्बोधित कर रही है। इन्हें रुद्र इस कारण कहते हैं, क्योंकि ये प्रजा के ‘रुत्’ अर्थात् रोग, दु:ख आदि का द्रावण या विनाश करते हैं। हे राजन् ! अपनी आय में से यह आपका भाग निकाल कर हम प्रसन्नतापूर्वक आपकी सेवा में अर्पित करते हैं। हमारी बहिन, माता आदि की हमसे अलग कर योग्य आमदनी है, तो उनसे भी आपका नियत भाग हम आपको दिलाते हैं। उसे आप गृहीत कीजिए। जो कर नगरपालिका हम पर लगाती है, वह कर हम नगरपालिकाध्यक्ष को देते हैं।

हे राजन् ! और हे नगरपालिकाध्यक्ष ! आपके राज्य और नगर में जो ‘आखु’ अर्थात् चूहे की प्रवृत्तिवाला है, वह आपके लिए पशुतुल्य है। जैसे चूहे अनाज, मेवे आदि चुरा कर अपने बिल में भर लेते हैं, ऐसे ही जो राजदेय धन की चोरी करके अपने पास उसका संग्रह करता रहता है, वह चूहा है। उसे राजा और नगरपालिकाध्यक्ष पशुतुल्य मान कर प्रताडित और दण्डित करते हैं। | यह द्रष्टव्य है कि पौराणिक साहित्य में अम्बिका रुद्र की बहिन (स्वसा) नहीं, अपितु पत्नी है। इसी प्रकार चूहा रुद्र का वाहन न होकर गणेश का वाहन है। ब्राह्मणकार अम्बिका को रुद्र की बहिन ही मानते हैं । भाष्यकार महीधर की व्याख्यानुसार अम्बिका रुद्र की बहिन है, जब क्रूर रुद्र की किसी विरोधी को मारने की इच्छा होती है, तब वह अपनी क्रूर बहिन अम्बिका द्वारा उसे मरवाता है। अम्बिका शरद् ऋतु का रूप धारण करके उसका संहार कर देती है। रुद्र और अम्बिका को उनका भाग देने से उनकी क्रूरता शान्त हो जाती है। उन्हें अर्पित करने के बाद जो शेष हविर्भाग रहता है, उसे चूहे के बिल में डाल देना चाहिए।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्रजानामेव भूत्यर्थ स ताभ्यो बलिमग्रहीत् । सहस्त्रगुणमुत्स्रष्ट्रमादत्ते हि रसं रविः || -रघवंश

२. रुतं रोगदु:खादिकं द्रावयति अपगमयतीति रुद्रः (रुत्+द्रु गतौ) ।।

३. अम्बिका ह वै नामास्य स्वसा, तयास्यैष सह भागः । श० २.६.२.९

राजकीय भाग को स्वेच्छा से अर्पण – रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का क्रय-विक्रय – रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का क्रय-विक्रय  – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  और्णवाभः ।  देवता  यज्ञः ।  छन्दः  आर्षी अनुष्टुप् ।

पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरार्पत। वस्नेव विक्रीणावहाऽइषमूर्ज शतक्रतो॥

-यजु० ३।४९

(दर्वि) हे सुवा! तू (पूर्णा) घृत से भरी हुई (परापत) यज्ञकुण्ड में जाकर गिर। वहाँ से (सुपूर्णा) खूब भरी हुई (पुनः आ पत) फिर हमारे पास आ । इस प्रकार हे (शतक्रतो) सैंकड़ों यज्ञों के कर्ता इन्द्र परमेश्वर ! हम (वस्ना इव) जैसे मूल्य से किसी वस्तु का क्रय-विक्रय किया जाता है, वैसे ही (इषम्) अन्न, रस आदि तथा (ऊर्जम्) बल, प्राण, स्वास्थ्य आदि (वि क्रीणावहै) विशेषरूप से खरीदें।

क्या तुम सोचते हो कि यज्ञ में घृत से भरी हुई खुवा जब अग्नि में घृत उंडेलती है, तब हमारे पास वापिस आती हुई वह खाली होती है? यदि ऐसा सोचते हो तो तुम भ्रम में हो। यदि ऐसा होता तो वेदादि शास्त्रों में यज्ञ की असीम महिमा वर्णित न होती। यज्ञ तो देने-लेने का व्यापार है। उसमें व्यय भी है, आय भी है। भौतिकता की दृष्टि से देखें तो हम अग्नि को हवि देते हैं, बदले में अग्नि जल-वायु की शुद्धि करके तथा हमारे शरीर में श्वास के साथ स्वास्थ्यवर्धक हवि का अंश पहुँचा कर हमें स्वास्थ्य तथा दीर्घायुष्य प्रदान करता है।

अग्नि की ऊर्ध्वगामी ज्वालाओं से हम ऊर्ध्वगामी होने की प्रेरणा लेते हैं। अग्नि के ताप और प्रकाश से हम तपस्वी और प्रकाशवान् होने का सन्देश ग्रहण करते हैं। अग्नि के मलिनताओं को भस्म करने के गुण से हम अपने पाप-ताप को भस्म करने का व्रत लेते हैं। जब हम ‘इन्द्राय स्वाहा’ बोलकर इन्द्र को आहुति प्रदान करते हैं, तब शतक्रतु इन्द्र से अर्थात् इन्द्र प्रभु के सृष्ट्युत्पत्ति, सृष्टिसञ्चालन, ऋतु-निर्माण, संवत्सर-रचना, जल-वाष्पीकरण, वृक्षारोपण, पुष्प-विकास, नदी-प्रवाह, ग्रहोपग्रह-व्यवस्था, तारकावलि-प्रकाशन आदि शत-शत यज्ञों की साधनारूप खुवा से हम यज्ञभावना को अपने अन्दर जागृत करते हैं।

इस प्रकार यज्ञ की खुवा जब अग्नि में आहुति डाल कर वापिस आती है, तब वह खाली नहीं होती, प्रत्युत वह स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, ऊध्र्वज्वलन, तप, प्रकाश, निष्पापता, त्याग, आस्तिकता आदि से भरपूर होती है। जितनी बार सुवा से हम अग्नि में हवि का त्याग करते हैं, उतनी ही बार वह उत्तम ऐश्वर्यों से भरी-पूरी होती हुई हमारे पास वापिस आकर उन ऐश्वर्यों को हमारे मानस में उंडेल देती है। इस प्रकार जैसे कोई मूल्य देकर बदले में बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त करता है वैसे ही अग्नि में हवि देकर बदले में हम नाना भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेते हैं। एवं यह क्रय विक्रय का व्यापार अग्निहोत्र में निरन्तर चलता रहता है।

इस मन्त्र के दयानन्दभाष्य के भावार्थ में लिखा है-“जो मनुष्यों द्वारा सुगन्धि आदि द्रव्य अग्नि में होम किया जाता है। वह ऊपर जाकर वायु, वृष्टिजल आदि को शुद्ध करके पुनः पृथिवी पर आ जाता है, जिससे यव आदि ओषधियाँ शुद्ध होकर सुख और पराक्रम को देनेवाली हो जाती हैं। जैसे व्यापारी रुपया आदि दे-लेकर अन्न आदि अन्य द्रव्यों को खरीदते-बेचते हैं, वैसे ही अग्नि में द्रव्यों की आहुति देकर वृष्टि, सुख आदि को खरीदता है और वृष्टि, ओषधि आदि को लेकर पुनः वृष्टि के लिए अग्नि में होम करता है।”

यज्ञ का क्रय-विक्रय  – रामनाथ विद्यालंकार

 

पाप – मोचन – रामनाथ विद्यालंकार

पाप-मोचन

ऋषिः प्रजापतिः ।  देवता  मरुतः (मनुष्याः) । छन्दः  स्वराड् अनुष्टुप् ।

यद् ग्रामे यदरण्ये यत् सभायां यदिन्द्रिये। यदेनश्चकृमा व्यमिदं तदवेयजामहे स्वाहा

-यजु० ३ | ४५

(यद्) जो (ग्रामे) ग्राम में, (यद्) जो (अरण्ये) जङ्गल में, (यत्) जो (सभायां) सभा में, (यत्) जो (इन्द्रिये) चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों के विषय में, (यद्) जो अन्य किसी के विषय में भी (एनः) पाप या अपराध (वयं चकृम) हम करते हैं (तत्) उसे (इदं) यह (अ वयजामहे) हम दूर कर रहे हैं, (स्वाहा) यह कैसा उत्तम व्रत है।

हम जाने या अनजाने कुछ न कुछ पाप या अपराध करते ही रहते हैं। कभी हम ग्रामविषयक अपराध करते हैं। ग्राम के मुखिया का कहना नहीं मानते, ग्राम-पञ्चायत के निर्णयों की उपेक्षा करते हैं, ग्राम को स्वच्छ, साफ-सुथरा नहीं रखते, ग्राम की पवित्र नैतिकता को कलङ्क लगाते हैं, ग्रामवासियों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, ग्राम की बहू-बेटियों के साथ शिष्ट व्यवहार नहीं करते, ग्राम की आदर्श स्वायत्त शासनव्यवस्था भङ्ग करते हैं, ग्राम के अतिथियों के साथ अभद्रता करते हैं, ग्राम के बुजुर्गों का अनादर करते हैं, ग्राम के कूपों-जलाशयों को मलिन करते हैं, ग्राम के पशुओं को कष्ट देते हैं। कभी हम वन-विषयक अपराध या पाप करते हैं। वृक्ष हमारे वनों की बहुमूल्य सम्पदा हैं।

वे वनभूमि को सुदृढ़ रखते हैं, वर्षा में कारण बनते हैं, फल-फूल आदि देते हैं, वायुमण्डल को सरस, सुगन्धित, शीतल बनाते हैं। उन्हें हम यदि काट कर नष्ट करते हैं, तो पाप करते हैं। इसी प्रकार वन-विषयक राजनियमों की उपेक्षा करके वन के पशुओं को मारना, चोरी से वन का सामान लाना, वन के सौन्दर्य को नष्ट करना आदि भी वन सम्बन्धी अपराध हैं। कभी हम सभा-विषयक अपराध करते हैं। सभा में सभापति के आदेश का उल्लङ्घन करना, सदस्यों के साथ अनुचित व्यवहार करना, सभा में अहितकर परामर्श देना, सभा को शान्ति से न चलने देना आदि सभा के अपराध हैं। कभी हम चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से सम्बद्ध अपराध करते हैं। आँख से अभद्र देखना, कान से अभद्र सुनना, रसना से अभक्ष्य पदार्थ चखना, नासिका से अभद्र सँघना, त्वचा से अभद्र स्पर्श करना, हाथों से अभद्र कार्य करना, इन्द्रियों को दुर्बल करना, इन्द्रियों के रुग्ण हो जाने पर उन्हें पुनः स्वस्थ करने के उपाय न करना आदि इन्द्रियापराध हैं। ग्राम, जङ्गल, सभा और इन्द्रियों के विषय में ही नहीं, अपितु माता, पिता, गुरुजन, अतिथिजन, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति भी हम बहुत से अपराध या पाप करते रहते हैं।

परन्तु आज से हम यह व्रत लेते हैं कि सभी पापों और अपराधों से हम स्वयं को बचायेंगे। व्रत दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचायक होता है। दृढ़ सङ्कल्प-बल द्वारा हम निश्चय ही समस्त अपराधों से बचे रहेंगे। प्रजापति प्रभु की कृपा से हमारा व्रत सफल हो और हम निष्पाप एवं निरपराध जीवन जी सकें।

पाप-मोचन

पादटिप्पणी

१. चकृमा–संहिता में ‘अन्येषामपि दृश्यते’ पा० ६.३.१३७ से दीर्घ।।

पाप-मोचन

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः आसुरिः।   देवता  अग्निः ।  छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

आर्गन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तमम्। अग्ने सम्राडुभि द्युम्नमुभि सहुऽआयच्छस्व

-यजु० ३।३८


हम (आ अगन्म) आये हैं (विश्ववेदसम्) विश्ववेत्ता, (अस्मभ्यं वसुवित्तमम्) हमें सर्वाधिक धन प्रदान करने वाले आपकी शरण में । हे (अग्ने) अग्रणी जगदीश्वर ! (सम्राट्) हे विश्वसम्राट् ! आप (अभि) हमारे प्रति (द्युम्नम्) यश और (अभि) हमारे प्रति (सहः) बल (आ यच्छस्व) प्रदान कीजिए।

संसार में जितने प्रकार के पदार्थ हैं, उतनी ही विद्याएँ हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के पदार्थ की अपनी-अपनी विशेषता है। इस प्रकार असंख्य विद्याएँ हैं। ब्रह्माण्ड में ज्ञान का समुद्र लहरा रहा है। कोई किसी विद्या का विज्ञानी है, कोई किसी का। विज्ञानी पण्डितों में भी तारतम्य है। ज्ञान में कुछ कमर तक पानी के सरोवर के समान होते हैं, कुछ मुखपर्यन्त पानी वाले सरोवर के समान और कुछ लबालब भरे हुए डुबकी लगाने, तैरने और स्नान करने योग्य सरोवर के समान ज्ञान से लबालब भरे होते हैं। संसारी ज्ञानियों के ऊपर ज्ञानियों का ज्ञानी, विश्वविज्ञ ‘विश्ववेदस्’ अग्नि परमेश्वर विद्यमान है। सबका अग्रणी होने के कारण वह अग्नि है, और विश्ववेत्ता होने के कारण विश्ववेदस्’ कहलाता है। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद मुनि सनत्कुमार के पास विद्याध्ययनार्थ जाते हैं। पूछने पर वे बताते हैं कि मैं चारों वेद, इतिहास, पुराण, वेदों के वेद व्याकरण आदि १९ विद्याओं में पारङ्गत हो चुका हूँ। सनत्कुमार कहते हैं कि ये सब तो लौकिक विद्याएँ हैं, ‘नाम’ हैं। नाम से बढ़ कर वाक् है, वाक् से बढ़ कर मन है इत्यादि विस्तार करते हुए वे ‘भूमा’ तक पहुँचा देते हैं। अन्त में ब्रह्मपुर तथा ब्रह्म तक ले जाते हैं।

इससे ज्ञात होता है कि लौकिक विद्याएँ भी अन्तिम नहीं हैं, उनसे भी परे अध्यात्मविद्या या ब्रह्मविद्या है। मनुष्य एक-दो विद्याओं में अपूर्ण पण्डित होकर ही स्वयं को विद्वान् मानने लगते हैं। उसकी तुलना में परमेश्वर का ज्ञान कितना अगाध है, इसी कारण वह ‘विश्ववेदाः’ है, सब लौकिक और आध्यात्मिक विद्याओं का पूर्ण विद्वान् है ।।

परमेश्वर का दूसरा विशेषण मन्त्र में ‘वसुवित्तम’ है, अर्थात् वह सबसे बड़ा ‘वसुवित्’ है। वसु धन का नाम है, ‘वित्’ में लाभार्थक विद धातु है, ‘तमप्’ प्रत्यय अतिशय अर्थ में है। वह हमें सबसे बढ़कर धन प्राप्त करानेवाला है। सांसारिक धनपति तो हमें सामान्य और अल्प धन ही प्राप्त कराते हैं, परमेश्वर अग्नि, जल, वायु, भूमि, सूर्य, विद्युत्, वर्षा आदि ऐसे विशिष्ट धन प्राप्त कराता है, जिनके बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते। इसके अतिरिक्त वह विद्या, विनय, सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक धन भी हमें प्रदान करता है। | वह जगदीश्वर ही हमारा असली ‘सम्राट्’ है। हे सम्राट् ! हे राजाधिराज ! तुम हमारा जीवन ऐसा उज्ज्वल कर दो कि हमें ‘द्युम्न’ मिले, हम यश के भागी हों और शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक बल भी हमें प्रदान करो। हे सम्राट् ! हम तुम्हारी प्रजाएँ हैं।

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वं सर्वं वेत्ति जानातीति विश्ववेदाः तम् । ‘विदिभुजिभ्यां विश्वे’ उ० ४.२३९ से असि प्रत्यय ।

२. वसूनि लौकिकानि आध्यात्मिकानि च धनानि वेदयति प्रापयतीति विश्ववित्, अतिशयेन विश्ववित् विश्ववित्तमः तम् ।

३. द्युम्नं द्यातते: यशो वा अन्नं वा । निरु० ५.५

४. ओ-दाण् दाने, ‘षा घ्रा ध्मा स्था०’ पा० ७.३.१८ से दाण को यच्छ आदेश।

५. सह:=बल, निघं० २.९ ।

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः मेधातिथिः । देवता बृहस्पतिः । छन्दः आर्षी गायत्री ।

यो रेवान् योऽअमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्द्धनः। स नः सिषक्तु यस्तुरः॥

-यजु० ३। २९

(यः) जो बृहस्पति जगदीश्वर (रेवान्) विद्या आदि धनों से युक्त है, (यः) जो (अमीवहार) आत्मिक एव शारीरिक रोगों को नष्ट करने वाला, (वसुवित्) ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाला, और (पुष्टिवर्धनः) पुष्टि बढ़ानेवाला है, तथा (यः तुर:) जो शीघ्रकारी है (सः) वह (नः सिषक्तु) हमें प्राप्त हो।

क्या तुम गर्व करते हो अपनी विशाल बहुमंजिली कोठियों पर, गगनचुम्बी रत्नजटित महलों पर, विस्तृत भूमिक्षेत्र पर, अपार धन-दौलत पर, हरे-भरे रसीले फलों वाले बाग बगीचों पर ? यह तुम्हारा गर्व क्षण- भर में चूर हो जायेगा, जब तुम बृहस्पति परमेश्वर के समस्त ब्रह्माण्ड में फैले हुए अपार ऐश्वर्य पर दृष्टि डालोगे। सूर्य, नक्षत्र और इनके असंख्य ग्रह। उपग्रहों को थोड़ी देर के लिए आँख से ओझल करके भी अपनी छोटी-सी भूमि के ऐश्वर्य को ही देख लो, तो भी तम्हारा ऐश्वर्यशाली होने का गर्व समाप्त हो जायेगा।

पृथिवी पर फैली हुई प्रभु की सम्पदा सोना, चाँदी, रत्न, हीरे, मोती, पन्ने, विविध बहुमूल्य पदार्थों की खाने, नदियाँ, पर्वत, समुद्र, स्रोत, झरने, वनस्पतियाँ, रङ्ग-विरङ्गे पुष्प, रसभरे फल, अमृत पेय से अपनी छोटी-सी सम्पत्ति की तुलना तो करो। फिर यह भी सोचो कि जिस सम्पदा को तुम अपनी कह रहे हो वह भी तो तुम्हारी नहीं, प्रभु की ही बनायी और दी हुई है। तब शीष झुक जाएगा तुम्हारा उस ‘रेवान्’, अर्थात् रयिमान् यो धनवान् प्रभु के सम्मुख। फिर केवल भौतिक धनों का ही नहीं, अपितु विद्या, न्याय आदि धनों को भी वह स्वामी है। अन्य अनेक गुण भी उसके अन्दर हैं। वह ‘अमीवहा’ है, हमारे आत्मिक, मानसिक और शारीरिक रोगों को हर कर हमें स्वस्थ बनानेवाला है। प्रभुकृपा की रोगह अद्भुत बूटी के बिना ब्रह्माण्ड में फैली हुई असंख्यों बूटियाँ और उनके प्रयोक्ता सहस्रों चिकित्सकों की अनवरत चिकित्सा विफल हो जाती है। फिर इस बात को भी मत भूलो कि पृथिवी पर फैली हुई असंख्य ओषधियाँ भी तो प्रभु की ही उत्पन्न की हुई हैं।

प्रभु ‘वसुविद्’ भी है, आध्यात्मिक और भौतिक धन मनुष्य को प्राप्त करानेवाला तथा धन-कुबेर बनानेवाला भी वही है। बृहस्पति प्रभु ‘पुष्टिवर्धन’ भी है, हमारी आत्मिक और शारीरिक पष्टि की पूँजी को बढ़ानेवाला भी है। वह प्रभ ‘तुरः’ है, त्वराशील है, हर क्षेत्र में त्वरा करनेवाला है। उसकी त्वरा या शीघ्रकारिता के बिना ब्रह्माण्ड के कार्य अलस गति से चलते हुए कभी पूर्ण ही न हों। सूर्योदय, चन्द्रोदय, ऋतुचक्र प्रवर्तन, ब्रह्माण्डलीलाप्रचालन सबको वह त्वराशील प्रभु ही करा रहा है। परन्तु परमेश्वर के इन गुणवर्णनों से कोई कार्य सिद्ध होनेवाला नहीं है, जब तक स्वयं अपने अन्दर इन गुणों को धारण न करें।

इसीलिए भाष्यकार महर्षि दयानन्द स्वामी इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं-”मनुष्य जैसी प्रार्थना ईश्वर से करते हैं, वैसा उन्हें पुरुषार्थ भी करना चाहिए। ईश्वर ‘रेवान्’ अर्थात् विद्या आदि धनवाला है, ऐसा विशेषण कह सुन कर कोई कृतकृत्य नहीं हो सकता, अपितु उसे स्वयं भी परम पुरुषार्थ द्वारा विद्या आदि धन की वृद्धि और रक्षा निरन्तर करनी चाहिए। जैसे परमेश्वर अविद्या आदि रोगों को दूर करनेवाला है, वैसे मनुष्यों को भी उचित है कि स्वयं भी अविद्या आदि रोगों को निरन्तर दूर करें । जैसे वह सबकी पुष्टि को बढ़ाता है, वैसे मनुष्य भी सबके पुष्टि आदि गुणों को निरन्तर बढ़ावें । जैसे वह शीघ्रकारी है, वैसे ही मनुष्य भी अभीष्ट कार्य त्वरा से करें ।”

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

पादटिप्पणियाँ

१. (रेवान्) विद्याधनवान्–द०।।

२. (अमीवहा) योऽमीवान् अविद्यादिरोगान् हन्ति सः-द० ।

३. वसुवित्-यो वसूनि धनानि वेदयति प्रापयति सः, विदुल लाभे।

४. (पुष्टिवर्धनः) पुष्टिं शरीरात्मबलं धातुसाभ्यं च वर्द्धयतीति-द० ।

५. तुर:-तुर त्वरणे, जुहोत्यादिः, शीघ्रकारी।

६. सिषक्तुषच समवाये, छान्दस रूप ।

कैसा है वह वृहस्पति प्रभु ? – रामनाथ विद्यालंकार

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

ऋषिः  अवत्सारः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  आर्षी त्रिष्टुप् ।

तुनूपाऽअग्नेऽसि तुन्वं मे पाह्यायुर्दाऽअग्नेऽस्यायुर्मे देहि वर्षोदाऽ अग्नेऽसि वर्षों में देहि।अग्ने यन्मे न्वाऽनं तन्मऽआपृण।।

-यजु० ३ । १७

(अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर और भौतिक अग्नि! तुम ( तनूपाः असि ) शरीरों के पालक व रक्षक हो, अतः ( मे तन्वं पाहि ) मेरे शरीर को पालित-रक्षित करो। (अग्ने ) हे परमात्मन् तथा अग्नि-विद्युत्-सूर्य रूप अग्नि! तुम ( आयुर्दाः असि ) आयु देने वाले हो, अत: ( मे आयुः देहि ) मुझे आयु दो। ( अग्ने ) हे परमेश्वर तथा उक्त अग्नियो ! तुम ( वच्चदा: असि ) वर्चस् देने वाले हो, अतः (मे वर्चः३ देहि ) मुझे वर्चस् दो। ( यत् ) जो ( मे तन्वाः ) मेरे शरीर का ( ऊनं ) न्यून है ( तत् मे ) मेरे उस सामर्थ्य को ( आ पृण) पूर्ण करो।।

प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मैं सुपालित और सुरक्षित रहूँ, मुझ पर दैवी आपदाएँ न आयें, भूकम्प, अतिवृष्टि, नदी की बाढ़ों आदि का शिकार में न होऊँ, मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो, मैं यशस्वी-वर्चस्वी बनूं, मेरे अन्दर जो न्यूनताएँ हैं, वे न रहें। किन्तु इसका उपाय क्या है? इसका उपाय है ‘अग्नि’ । अग्नि अग्रनायक, तेजस्वी, महिमाशाली परमेश्वर का नाम भी है और भौतिक अग्नि को भी अग्नि कहते हैं। भौतिक अग्नि में पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्ष की विद्युत् और द्युलोक का सूर्य सभी आ जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी जहाँ-कहीं अग्नि-तत्त्व है, वह भी अग्नि से गृहीत हो जाता है।

हे अग्नि! तू शरीरों का रक्षक है, मेरे शरीर की भी रक्षा कर। संसार में जितने भी जड़-चेतन शरीर हैं, वे सब ईश्वरीय छत्रछाया से ही रक्षित– पालित हो रहे हैं, अतः ईश्वर की वह छत्रछाया मेरे शरीर को भी प्राप्त होती रहे। इसके अतिरिक्त भौतिक अग्नि भी शरीरों की रक्षा कर रहा है। आग, बिजली और सूर्य हमारे कितने अधिक काम आने वाले तत्त्व हैं। कल्पना कीजिए ये तीनों हमसे छिन जाएँ तो न हम भोजन पका सकेंगे, न घरों, कारखानों आदि में विद्युत् का प्रकाश पा सकेंगे, न हमें दिन में सूर्य का प्रकाश मिलेगा, सदा हम रात्रि से ही घिरे पड़े रहेंगे। इन तीनों प्रकार की अग्नियों का प्रयोग करके सदा हम पालित-रक्षित होते रहें। साथ ही यदि शत्रु हमारी हिंसा करने का मनसूबा बाँधे, तो आग्नेयास्त्रों से उन्हें पराजित करके भी हम रक्षित होते रहें।

हे अग्नि! तू दीर्घायुष्य देनेवाला है, मुझे भी दीर्घायुष्य प्रदान कर। जगदीश्वररूप अग्नि के नियमों का हम पालन करते रहें, तो भी हमें दीर्घायुष्य प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त तीनों प्रकार की भौतिक अग्नियों से लाभान्वित होकर भी हम दीर्घायु हो सकते हैं। अल्पायु होने में शारीरिक और मानसिक रोग बहुत बड़े कारण हैं। वैज्ञानिकों ने तीनों अग्नियों द्वारा रोगनिवारण के अनेक उपाय आविष्कृत किये हैं। चिकित्सकों द्वारा उन उपायों को अपने शरीर पर प्रयोग करवा कर भी हम दीर्घायुष्य पा सकते हैं।

हे अग्नि! तू वर्चस् को देनेवाला है, मुझे भी वर्चस्विता प्रदान कर। वर्चस् में ब्राह्म तेज, आत्मबल, विद्या और विद्वत्ता का तेज आदि आते हैं। परमेश्वराग्नि सब वर्चस्विताओं का स्रोत और पुञ्ज है। उसकी वर्चस्विताओं को अपना आदर्श बना कर हम भी वर्चस्वी बन सकते हैं। आग, विद्युत् और सूर्य के बल और प्रकाश का चिन्तन भी हमें वर्चस्वी बना सकता है।

हे अग्नियो ! मेरे शरीर में, शारीरिक अङ्गों में, रक्तसंस्थान, पाचनसंस्थान, मलविसर्जनसंस्थान, मन, मस्तिष्क आदि में जो कोई न्यूनता आ गयी है, बुद्धिबल, शौर्य आदि की कमी हो गयी है, उसे भी तुम दूर कर दो, जिससे मेरा शरीर संस्कृत, निर्दोष, सबल और प्रफुल्ल होकर अपने आत्मा को भी उपकृत करता रहे और परोपकार में भी संलग्न रहे।

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

पादटिप्पणियाँ

१. (तनूपाः) यस्तनूः सर्वपदार्थदेहान् पाति रक्षति स जगदीश्वरः पालनहेतुर्भोतिको वा-द०भा० ।

२. (वर्षोदा:) यो वर्षो विज्ञानं ददाताति, तत्प्राप्तिहेतुर्वा-द०भा० ।

३. (वर्च:) विद्याप्राप्तिं दीप्तिं वा-द०भा० ।

४. पृण-पृ पालनपूरणयोः, क्रयादिः ।

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना