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‘मर्यादा पुरूषोत्तम एवं योगेश्वर दयानन्द’-मनमोहन कुमार आर्य

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ओ३म्

मर्यादा पुरूषोत्तम एवं योगेश्वर दयानन्द


 

महर्षि दयानन्द को 13, 15 और 17 वर्ष की आयु में घटी शिवरात्रि व्रत, बहिन की मृत्यु और उसके बाद चाचा की मृत्यु से वैराग्य उत्पन्न हुआ था। 22 वर्ष की अवस्था तक वह गुजरात प्राप्त के मोरवी नगर के टंकारा नामक ग्राम में स्थित घर पर रहे और मृत्यु पर विजय पाने की ओषधि खोजते रहे। जब परिवार ने उनकी भावना को जाना तो विवाह करने के लिए उन्हें विवश किया। विवाह की सभी तैयारियां पूर्ण हो गई और इसकी तिथि निकट आ गई। जब कोई और विकल्प नहीं बचा तो आपने गृह त्याग कर दिया और सत्य ज्ञान की खोज में घर से निकल पड़े। आपने देश भर का भ्रमण कर सच्चे ज्ञानी विद्वानों और योगियों की खोज कर उनकी संगति की और संस्कृत व शास्त्रों के अध्ययन के साथ-साथ योग का भी क्रियात्मक सफल अभ्यास किया। योग की जो भी सिद्धियां व उपलब्धियां हो सकती थी, उन्हें प्राप्त कर लेने के बाद भी उनका आत्मा सन्तुष्ट न हुआ। अब उन्हें एक ऐसे गुरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकायें और भ्रमों को दूर कर सके। मनुष्य की जो सत्य इच्छा होती है और उसके लिए वह उपयुक्त पुरूषार्थ करता है तो उसकी वह इच्छा अवश्य पूरी होती है और ईश्वर भी उसमें सहायक होते हैं। ऐसा ही स्वामी दयानन्द के जीवन में भी हुआ और उन्हें प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती का पता मिला जो मथुरा में संस्कृत के आर्ष व्याकरण एवं वैदिक आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन कराते थे। सन् 1860 में आप उनके शरणागत हुए और अप्रैल 1863 तक उनसे अध्ययन व ज्ञान की प्राप्ति की। अध्ययन पूरा कर गुरू दक्षिणा में स्वामीजी ने अपने गुरू को उनकी प्रिय लौंगे प्रस्तुत की। गुरूजी ने भेंट सहर्ष स्वीकार की और दयानन्द जी को कहा कि वेद और वैदिक धर्म, संस्कृति व परम्परायें अवनति की ओर हैं और विगत 4-5 हजार वर्षों में देश व दुनियां में मनुष्यों द्वारा स्थापित कल्पित, अज्ञानयुक्त, अन्धविश्वास से पूर्ण मान्यतायें व परम्परायें प्रचलित हो गईं हैं। हे दयानन्द ! तुम असत्य का खण्डन तथा सत्य का मण्डन कर सत्य पर आधारित ईश्वर व ऋषियों की धर्म-संस्कृति व परम्पराओं का प्रचार व उनकी स्थापना करो। स्वामी दयानन्द ने अपने गुरू की आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार किया और कहा कि गुरूजी ! आप देखेंगे कि यह आपका अंकिचन शिष्य व सेवक आपसे किये गये अपने इस वचन को प्राणपण से पूरा करने में लगा हुआ है। ऐसा ही हम अप्रैल, 1863 से अक्तूबर, 1883 के मध्य उनके जीवन में घटित घटनाओं में देखते हैं।

 

इस घटना के बाद स्वामी दयानन्द ने देश भर का भ्रमण किया। वेदों पर उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रित किया। उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास किये। उन्होंने इंग्लैण्ड में प्रथम बार प्रो. फ्रेडरिक मैक्समूलर द्वारा प्रकाशित चारों वेद मंगाये। उन्होंने चारों वेदों का गहन अध्ययन किया और पाया कि वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा की आत्माओं में सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ईश्वर द्वारा प्रकट, प्रेरित, प्रविष्ट व स्थापित किये गये थे। उन्होंने यह भी पाया कि वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत में भारी अन्तर है। लौकिक संस्कृत के शब्द रूढ़ हैं जबकि वेदों के सभी शब्द नित्य होने के कारण घातुज या यौगिक हैं। उन्होंने यह भी जाना कि वेदों के शब्दों के रूढ़ अर्थों के कारण अर्थ का अनर्थ हुआ है। उन्होंने पाणिनी की अष्टाध्यायी, काशिका, पंतंजलि के महाभाष्य, महर्षि यास्क के निघण्टु और निरूक्त आदि ग्रन्थों की सहायता से वेदों के पारमार्थिक एवं व्यवहारिक अर्थ कर एक अपूर्व महाक्रान्ति को जन्म दिया और अपने पूर्ववर्ती पौर्वीय व पाश्चात्य वैदिक विद्वानों के वेदार्थों की निरर्थकता व अप्रमाणिकता का अनावरण कर सत्य का प्रकाश किया। महर्षि दयानन्द ने अपनी वेद विषयक मान्यताओं और सिद्धान्तों, जो कि शत प्रतिशत सत्य अर्थों पर आधारित हैं, का प्रकाश किया और इसके लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, संस्कृत वाक्य प्रबोध, व्यवहारभानु आदि अनेकानेक ग्रन्थों का सृजन किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का यह कार्य मर्यादा पालन के साथ-साथ मर्यादाओं की स्थापनाओं का कार्य होने से इतिहास में अपूर्व है जिस कारण वह मर्यादाओं के संस्थापक होने से मर्यादा पुरूषोत्तम विशेषण के पूरी तरह अधिकारी है। इतना ही नहीं, उन्होंने वैदिक मर्यादा की स्थापना के लिए वेदों के संस्कृत व हिन्दी में भाष्य का कार्य भी आरम्भ किया। सृष्टि के आरम्भ से उनके समय तक उपलब्ध वेदों के भाष्यों में आर्ष सिद्धान्तों, मान्यताओं व परम्पराओं से पूरी तरह से समृद्ध कोई वेद भाष्य संस्कृत वा अन्य किसी भाषा में उपलब्ध नहीं था। मात्र निरूक्त ग्रन्थ ऐसा था जिसमें वेदों के आर्ष भाष्य का उल्लेख व दिग्दर्शन था। महर्षि दयानन्द ने उसका पूर्ण उपयोग करते हुए एक अपूर्व कार्य किया जो उन्हें न केवल ईश्वर की दृष्टि में अपितु निष्पक्ष संसार के ज्ञानियों में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करता है।

वेदों का प्रचार प्रसार ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य सिद्ध होता है। धन कमाना व सुख भोगना गौण उद्देश्य हैं परन्तु मुख्य उद्देश्य वेदों का अध्ययन व अध्यापन, प्रचार व प्रसार, उपदेश व शास्त्रार्थ, सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, ऊंच-नीच की भावनाओं से मुक्त होकर सबको समान मानना व दलित व पिछड़ों को ज्ञानार्जन व धनोपार्जन में समान अधिकार दिलाना, अछूतोद्धार व दलितोद्धार आदि कार्य भी मनुष्य जीवन के कर्तव्य हैं, यह ज्ञान महर्षि दयानन्द के जीवन व कार्यों को देख कर होता है। आज देश व समाज में वेदों का यथोचित महत्व नहीं रहा जिस कारण समाज में अराजकता, असमानता, विषमता, अज्ञानता, अन्धविश्वास, परोपकार व सेवा भावना की अत्यन्त कमी, दुखियों, रोगियों व निर्धनों, भूखों, बेरोजगारों के प्रति मानवीय संवेदनाओं व सहानुभूति में कमी, देश भक्ति की कमी या ह्रास आदि अवगुण दिखाई देते हैं जिसका कारण वेदों का अप्रचलन, अप्रचार व अवैदिक विचारों का प्रचलन, प्रचार व प्रभाव है। यह बात समझ में नहीं आती कि जब वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए, वेदों से पूर्व संसार में कोई ग्रन्थ रचा नहीं गया और न प्राप्त होता है, वेदों की भाषा व उसके विचारों व ज्ञान का अथाह समुद्र जो मानव जाति के लिए कल्याणकारी है, फिर भी उसे भारत व संसार के लोग स्वीकार क्यों नहीं करते? हम संसार के सभी मतावलम्बियों से यह अवश्य पूछना चाहेंगे कि आप वेदों से दूरी क्यों बनाये हुए हैं? क्या वेद कोई हिंसक प्राणी है जो आपको हानि पहुंचायेगा, यदि नहीं फिर आपको किस बात का डर है? यदि है तो वह निःसंकोच भाव से क्यों नहीं बताते? महर्षि दयानन्द का मानना था जिसे हम उचित समझते हैं कि यदि सारे संसार के लोग वेदों का अध्ययन करें, समीक्षात्मक रूप से गुण-दोषों पर विचार करें और गुणों को स्वीकार कर लें तो सारे संसार में शान्ति स्थापित हो सकती है। अशान्ति व विरोध का कारण ही विचारों व विचारधाराओं की भिन्नता है, कुछ स्वार्थ व अज्ञानता है तथा कुछ व अधिक विषयलोलुपता एवं असीमित सुखभोग की अभिलाषा व आदत है। महर्षि दयानन्द यहां एक आदर्श मानव के रूप में उपस्थित हैं और वह हमें इतिहास में सभी बड़े से बड़े महापुरूषों से भी बड़े दृष्टिगोचर होते हैं। अतः यदि उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कहा जाये तो यह अत्युक्ति नहीं अपितु अल्पयुक्ति है। उन्होंने स्वयं तो सभी मानवीय मर्यादाओं का पालन किया ही, साथ हि सभी मनुष्यों को मर्यादा में रहने वा मर्यादाओं का पालन करने के लिए प्रेरित किया और उससे होने वाले धर्म, अर्थ, काम मोक्ष के लाभों से भी परिचित कराया।

 

आईये, अब स्वामी दयानन्द जी के योगेश्वर होने के स्वरूप पर विचार करते हैं। हम जानते है कि संसार में एक सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता ईश्वर है और वही योगेश्वर भी है। उसके बाद हमारे उन योगियों का स्थान आता है जिन्होंने कठिन योग साधनायें कीं और ईश्वर का साक्षात्कार किया। यह लोग सच्चे योगी कहला सकते हैं। अब विद्या को प्राप्त करने के बाद विद्या का दान करने का समय आता है। यदि कोई सिद्ध योगी योग विद्या का दान नहीं करता व अपने तक सीमित रहता है तो वह स्वार्थी योगी ही कहला सकता है। महर्षि दयानन्द ने देश भर में घूम-घूम कर योगियों की संगति की, योग सीखा और उसमें वह सफल रहे। इतने पर ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। इसके बाद भी उन्होंने विद्या के ऐसे गुरू की खोज की जो उनकी सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर कर दें। इस कार्य में भी वह सफल हुए और उन्हें विद्या के योग्यतम् गुरू प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती प्राप्त हुए। उनसे उन्हें पूर्ण विद्या का दान प्राप्त हुआ और वह पूर्ण विद्या और योग की सिद्धि से महर्षि के उच्च व गौरवपूर्ण आसन पर विराजमान होकर भूतो भविष्यति संज्ञा के संवाहक हुए। स्वामी श्रद्धानन्द ने उन्हें बरेली में प्रातः वायु सेवन के समय समाधि लगाये देखा था। महर्षि जहां-जहां जाते व रहते थे, उनके साथ के सेवक व भृत्य रात्रि में उन्हें योग समाधि में स्थित देखते थे। उनके जीवन में ऐसे उदाहरण भी है कि वेदों के मन्त्रों का अर्थ लिखाते समय उन्हें जब कहीं कोई शंका होती थी तो वह एक कमरे में जाते थे, समाधि लगाते थे, ईश्वर से अर्थ पूछते थे और बाहर आकर वेदभाष्य के लेखकों को अर्थ लिखा देते थे। जीवन में वह कभी डरे नहीं, यह आत्मिक बल उन्हें ईश्वर के साक्षात्कार से ही प्राप्त हुआ एक गुण था। अंग्रेजों का राज्य था, सन् 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम हो चुका था, उस समय वह 32 वर्ष के युवा संन्यासी थे। उन्होंने उस संग्राम में गुप्त कार्य किये जिसका विवरण उन्होंने कभी प्रकट नहीं किया न उनके जीवन के अनुसंधानकर्ता व अध्येता पूर्णतः जान पाये। इसके केवल संकेत ही उनके ग्रन्थों में वर्णित कुछ घटनाओं में मिलते हैं। इस आजादी के आन्दोलन के विफल होने पर उन्होंने पूर्ण विद्या प्राप्त कर पुनः सक्रिय होने की योजना को कार्यरूप दिया और अन्ततः वेद प्रचार के नाम से देश में जागृति उत्पन्न की। अन्तोगत्वा 15 अगस्त, 1947 को देश अंग्रेजों की दासता से स्वतन्त्र हुआ। उनके योगदान का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि स्वराज्य को सुराज्य से श्रेष्ठ बताने वाले प्रथम पुरूष स्वामी दयानन्द थे और उनके आर्य समाजी विचारधारा के अनुयायियों की संख्या आजादी के आन्दोलन में सर्वाधिक थी। लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, महादेव रानाडे, क्रान्ति के पुरोधा श्यामजी कृष्ण वर्मा, पं. राम प्रसाद बिस्मिल, शहीद सुखदेव आदि सभी उनके अनुयायी व अनुयायी परिवारों के व्यक्ति थे। महर्षि दयानन्द को इस बात का भी श्रेय है कि उन्होंने योग को गृहत्यागी संन्यासी व वैरागियों तक सीमित न रखकर उसे प्रत्येक आर्य समाज के अनुयायी के लिए अनिवार्य किया। आर्य समाज के अनुयायी जो ईश्वर का ध्यान सन्ध्या करते हैं वह अपने आप में पूर्ण योग है जिसमें योग के आठ अंगों का समन्वय है। स्वयं सिद्ध योगी होने और योग को घर-घर में पहुंचाने के कारण स्वामी दयानन्द योगेश्वर के गरिमा और महिमाशाली विशेषण से अलंकृत किये जाने के भी पूर्ण अधिकारी है।

 

महर्षि दयानन्द के वास्तविक स्वरूप को जानने व मानने का कार्य इस देश के लोगों ने अपने पूर्वाग्रहों, अज्ञानता व किन्हीं स्वार्थों आदि के कारण नहीं किया। इससे देश वासियों व विश्व की ही हानि हुई है। उन्होंने वेदों के ईश्वर प्रदत्त ज्ञान को सारी दुनियां से बांटने का महा अभियान चलाया लेकिन संकीर्ण विचारों के लोगों ने उनके स्वप्न को पूरा नहीं होने दिया। आज आधुनिक समय में भी हम प्रायः रूढि़वादी बने हुए हैं। आत्म चिन्तन व आत्म मंथन किये बिना किसी धार्मिक व सामाजिक विचारधारा पर विश्वास करना रूढि़वादिता है जो देश, समाज व विश्व के लिए हितकर नहीं है। हम अनुभव करते हैं कि शिक्षा में मजहबी शिक्षा की पूर्ण उपेक्षा कर वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ तर्क, युक्ति, सृष्टिक्रम के अनुकूल ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप का अध्ययन सभी देशवासियों को अनिवार्यतः कराया जाना चाहिये। मनुष्य ईश्वर को कैसे प्राप्त कर सकता है, उसे प्राप्त करने की योग की विधि पर भी पर्याप्त अनुसंधान होकर प्रचार होना चाहिये जिससे हमारा मानव जीवन व्यर्थ सिद्ध न होकर सार्थक सिद्ध हो। लेख के समापन पर हम मर्यादा पुरूषोत्तम और योगश्वर दयानन्द को कोटिशः नमन करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘मैं और मेरा परमात्मा’-मनमोहन कुमार आर्य

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ओ३म्

मैं और मेरा परमात्मा


 

एक शाश्वत प्रश्न है कि मैं कौन हूं। माता पिता जन्म के बाद से अपने शिशु को उसकी बौद्धिक क्षमता के अनुसार ज्ञान कराना आरम्भ कर देते हैं। जन्म के कुछ समय बाद से आरम्भ होकर ज्ञान प्राप्ति का यह क्रम  विद्यालय, महाविद्यालय आदि से होकर चलता रहता है और इसके बाद भी नाना प्रकार की पुस्तकें, धर्मोपदेश, व्याख्यान, पुस्तकों का अध्ययन व स्वाध्याय तथा भिन्न प्रकार की साधनाओं आदि से ज्ञान में वृद्धि होती रहती है। सब कुछ अध्ययन कर लेने के बाद भी यदि किसी शिक्षित बन्धु से पूछा जाये कि कृपया बतायें कि आप कौन हैं या मैं कौन हूं,   क्या हूं, कहां से माता के गर्भ में आया, फिर मेरा जन्म हो गया, युवा व वृद्ध होने के बाद किसी दिन मेरी मृत्यु हो जायेगी। मृत्यु के बाद मेरा अस्तित्व रहेगा या नहीं। यदि नहीं रहेगा तो क्यों नहीं रहेगा और यदि रहेगा तो कहां व किस प्रकार का होगा, आदि प्रश्नों का समाधान कर दें, तो हम समझते हैं कि आजकल की शिक्षा में दीक्षित किसी व्यक्ति के लिए इन साधारण प्रश्नों का समाधानकारक उत्तर देना सरल कार्य नहीं होगा। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि आजकल की शिक्षा अधूरी व अपूर्ण हैं। इसी कारण से लोग आध्यात्मिक जीवन का त्याग कर भौतिक जीवन शैली को अपनाने को विवश हुए हैं। इसके लिए हम तो यहां तक कहेंगे कि हमारे सभी धर्माचार्य इस बात के दोषी हैं कि उन्होंने देश विदेश में आत्मा सम्बन्धी सत्य ज्ञान को स्वयं भी प्राप्त नहीं किया और फिर प्रचार की बात तो बाद की है। जो लोग इस बात का दावा करते हैं कि वह इन प्रश्नों के उत्तर जानते हैं तो फिर वह इनका प्रचार क्यों नहीं करते, क्यों वह भौतिक व आडम्बर पूर्ण जीवन में व्यस्त व तल्लीन हैं, तो इसका उत्तर नहीं मिलता। वह ज्ञान किस काम का जिसका धारक व्यक्ति उसे अन्य किसी न तो दे और न प्रचार करें। विद्या तो दान देने से बढ़ती है और यदि उसे अपने तक सीमित कर दिया जाये तो व्यवहार में न होने के कारण वह स्वयं भी भूल सकता है और उसके बाद तो उसका विलुप्त होना अवश्यम्भावी है।

 

इन सभी प्रश्नों के उत्तर पहले वेद एवं वैदिक साहित्य के आधार पर जान लेते हैं। पहला प्रश्न कि मैं कौन और क्या हूं, इसका उत्तर है कि मैं एक जीवात्मा हूं जो अजन्मा, चेतन तत्व, सूक्ष्म, नित्य, अमर व अविनाशी, एकदेशी, कर्मानुसार जन्म व मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ, ईश्वर साक्षात्कार कर मुक्ति को प्राप्त होने वाला व मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर पूर्व जन्म के अवशिष्ट कर्मों का फल भोगने के लिए जन्म धारण करने वाला है। मेरी यह सत्ता ईश्वर व मूल प्रकृति से सर्वथा भिन्न व स्वतन्त्र है। माता के गर्भ में आने में ईश्वर की प्रेरणा काम करती है। ईश्वर की प्रेरणा से पहले जीवात्मा जो पूर्व जन्म की किसी योनि में मृत्यु को प्राप्त कर अपने कर्मानुसार नये जन्म की प्रतीक्षा में है, पिता के शरीर में आता है। सन्तानोत्पत्ति से पूर्व गर्भाधान के अवसर पर यह पिता के शरीर से माता के शरीर में आता है। माता के शरीर या गर्भ में प्रसव की अवधि तक रहकर यह पुत्र या पुत्री के रूप में जन्म लेता है। शास्त्र यह भी बताते हैं कि जब हमारी मृत्यु होती है, उस समय यदि हमारे पुण्य कर्म पाप कर्मों के बराबर या अधिक होते हैं तो मनुष्य जन्म और यदि पुण्य कर्म कम होते हैं तो फिर पशु, पक्षी व अन्य निम्न योनियों में ईश्वर के द्वारा जन्म मिलता है। इस प्रकार से माता के गर्भ में आने के रहस्य का समाधान हमारे ऋषियों ने शास्त्रों में किया है जो पूर्णतः तर्क व युक्ति संगत है। हमारी जब भी मृत्यु होगी तो हमारे अजन्मा व अमर होने के कारण हमारा अस्तित्व समाप्त नहीं होगा अपितु हम शरीर से निकल कर इस वायु मण्डल व आकाश में एक जीव के रूप में सर्वव्यापक परमात्मा के साथ रहेगें। यह निवास हमें ईश्वर द्वारा पुनः जन्म देने के लिए हमारी भावी माता के गर्भ में भेजने के समय तक रहेगा। यहां यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि यदि ऐसा है तो फिर हमें व अन्यों को पूर्व जन्म की बातें याद क्यों नहीं रहतीं। इसका उत्तर है कि हमारा जो मनुष्य जीवन है उसमें हम एक समय में एक ही बात को स्मरण रख सकते हैं। क्योंकि हम वर्तमान में इस जन्म की बातों व समृतियों से भरे हुए रहते हैं, इस कारण पूर्व जन्म की बातें स्मरण नहीं आतीं। दूसरा कारण है कि मृत्यु के बाद हमारा पुराना शरीर व उसमें हमारा जो मन, बुद्धि व चित्त था वह इस जन्म में बदल जाता है और उस जन्म से इस जन्म में बोलना सीखने की लम्बी अवधि में हम पुरानी बातों को भूल जाते हैं। यदि विचार करें तो हमें आज की ही बातें याद नहीं रहती। हम जो बोलते हैं, यदि कुछ मिनट वा एक घंटे बाद उसे पूरा का पूरा दोहराना हो तो हम पूर्णतः वही शब्द और वही वाक्य दोहरा नहीं सकते हैं। इसका कारण जो शब्द हम बोलते हैं, उसका क्रम साथ-साथ भूलते जाते हैं। हमने प्रातः क्या भोजन किया, दिन में क्या किया, किन-किन से मिले, क्या बातंे कीं, क्या पढ़ा, यदि कुछ लिखा तो क्या लिखा, उसे पूरा का पूरा, वैसा का वैसा, क्रमशः नहीं दोहरा सकते। रूक रूक कर याद करते हैं फिर भी बहुत सी बातें व उनका क्रम भूल जाते हैं। पूर्व दिनों व उससे पहले की घटनाओं को याद करने की बात ही कुछ और है। जब हमें अपने पूर्व के एक सप्ताह के व्यवहार का पूरा ज्ञान व स्मृति नहीं होती तो यदि पूर्व जन्म की स्मृति भी न रहे तो यह कौन से आश्चर्य की बात है। यह साध्य कोटि में है, असम्भव नहीं। अतः पूर्व जन्म के बारे में यह युक्ति कि हमें पूर्व जन्म की बातें याद क्यों नहीं होती, कोई अधिक बलवान तर्क नहीं हैं। अतः इस चिन्तन से हमें अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया जो कि वेद शास्त्र सम्मत, बुद्धि, युक्ति आदि से प्रमाणित है।

 

अब हम अपने परमात्मा को भी जानने का प्रयास करते हैं। हम सभी अपने चारों ओर माता-पिता, कुटुम्बी, मित्रों और सामाजिक बन्धुओं को देखते हैं। इसके साथ हम पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, अग्नि आदि भिन्न प्रकार के तत्वों को भी देखते हैं। इन्हें देख कर विचार आता है कि सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि व मनुष्य, पशु व पक्षी, वनस्पति, नदी, जल, वायु, अग्नि आदि को किसने बनाया है? मनुष्य व अन्य किसी योनि के प्राणियों ने तो बनाया नहीं? किस सत्ता के द्वारा यह बनाये गये हैं, इसका विचार कर निर्णय करना आवश्यक होता है। इसका उत्तर है कि जिस सत्ता ने हमें बनाया है, उसी ने वृक्ष आदि वनस्पतियों व इस सारे जगत एवं इसके सूर्य, पृथिवी, चन्द्र आदि ग्रह-उपग्रहादि सहित उन सभी सांसारिक पदार्थों को भी बनाया है जो कि कोई मनुष्य नहीं बना सकता। ऐसे पदार्थ जो संसार में हैं परन्तु मनुष्यों द्वारा नहीं बनाये जा सकते हैं वह अपौरूषेय रचनायें कहे जाते हैं। इनकी रचना या उत्पत्ति ईश्वर व परम-पुरूष परमात्मा से होती है। अत यहां पुनः वही प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि उसने बनायें हैं तो वह दिखाई क्यों नहीं देता। उसका उत्तर भी यही है कि सर्वातिसूक्ष्म होने से वह दिखाई नहीं देता। आंखों से केवल स्थूल पदार्थ ही दिखाई देते हैं, सूक्ष्म व परमसूक्ष्म पदार्थ नहीं। वायु और इसमें विद्यमान अणु-परमाणु किसी को कहां दिखाई देते हैं फिर भी इनका अस्तित्व है और सभी इसको स्वीकार करते हैं। त्वचा से स्पर्श होने पर वायु की अनुभूति होती है। इसी प्रकार ईश्वर का दिखाई देना भी उसके कार्यों को देखकर किया जाता है। यदि हम एक सुन्दर सा फूल देखते हैं तो हमें उसकी सुन्दरता व सुगन्ध आकर्षित करती है। हम कितना ही प्रयास कर लें, हम उसी प्रकार की रचना नहीं कर सकते। अतः रचना को देखकर रचयिता का अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है।

 

यहां एक विज्ञान व दर्शन का नियम भी कार्य करता है जिसे यदि समझ लिया जाये तो गुत्थी हल हो जाती है। नियम यह है कि किसी भी पदार्थ के गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। हम फूल के रूप में फूल के रंग-रूप का ही तो दर्शन करते हैं। परन्तु यह तो रंग-रूप व बनावट तो उस फूल के गुण है न की फूल। गुणों का दर्शन हो रहा है न की गुणी का। इसके समान गुण हमें जहां मिलते हैं हम उसे अमुक नाम का फूल कह देते है परन्तु हमें उस फूल नामी गुणी का प्रत्यक्ष नहीं होता। इसी प्रकार से ईश्वर के गुणों को देखकर उसकी पहचान की जाती है। जैसे की सूर्य में इसकी रचना को देखकर ईश्वर का ज्ञान होता है। सूर्य की रचना उस परमात्मा नामी गुणी का गुण है। इसी प्रकार से फूल को देखकर इसके रचयिता ईश्वर का ज्ञान विवेकशील मनुष्यों को होता है। ऐसा ही सभी जगहों पर माना जा सकता है। दर्शनकार ने ईश्वर की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिससे यह संसार जन्म लेता है, जो इसको चलाता है और जो अवधि पूरी होने पर इसका संहार या प्रलय करता है, उसी को ईश्वर कहते हैं। इसी प्रकार से किसी वस्तु के बनाने में तीन कारण होते हैं। पहला निमित्त कारण, दूसरा उपादान कारण और तीसरा साधारण कारण कहलाता है। एक घड़े के निर्माण में कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी उपादान कारण व कुम्हार का चाक व उन्य उपकरण साधारण कारण कहे जाते हैं। इसी प्रकार से संसार को बनाने में ईश्वर निमित्त कारण, मूल प्रकृति उपादान कारण है। मनुष्य को अल्पज्ञ व अल्पशक्तिवान होने से साधारण कारणों, उपकरण आदि का सहारा लेना पड़ा है परन्तु ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वान्तरर्यामी व सर्वशक्तिमान होने के कारण उसे साधारण कारणों के रूप में उपकरणों आदि की आवश्यकता नहीं होती। इससे ज्ञात होता है कि संसार की उत्पत्ति ईश्वर से होती है। इसको यदि विस्तृत रूप से जानना हो तो कह सकते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। यह ईश्वर का स्वरूप व उसके गुण आदि हैं। यही हमारे परमात्मा का भी स्वरूप है। इसी परमात्मा के द्वारा हमारा यह संसार बना है। इसी से हमारा जन्म व मृत्यु और पुनर्जन्म होता है। हमें हमारे कर्मानुसार जन्म देने के लिए हम ईश्वर के ऋणी है। इस ऋण को चुकाने के लिए हमें ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर उसके गुणों का चिन्तन व ध्यान करना है जिससे हमें सत्य व असत्य का ज्ञान हो सके। सत्य का आचरण ही धर्म कहलाता है जिसे वेद व सत्यार्थ प्रकाश आदि शास्त्रों को पढ़कर जाना जा सकता है। आजकल हमारे देश व विश्व में सत्य के साथ असत्य ज्ञान की पुस्तकें भी धर्म ग्रन्थ के नाम से प्राप्तव्य हैं। साधारण ही नहीं अपितु शिक्षित जनों के लिए भी सत्य का निर्धारण करना कठिन कार्य है। इसके लिए वेद, उपनिषद तथा दर्शन आदि ग्रन्थों सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व संस्कार विधि आदि ग्रन्थ परम सहायक हैं। यदि हम इनका नियमित स्वाध्याय करें तो फिर हमें कहीं किसी गुरू के पास जाने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान हमारी आत्मा में स्वतः उतर आता है। इसका लाभ लेकर हम सत्य का निर्धारण कर सत्य का पालन कर सकते है और अपने जीवन को सफल कर सकते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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अम्बेडकर द्वारा मनु स्मृति के श्लोको के अर्थ का अनर्थ कर गलत या विरोधी निष्कर्ष निकालना (अम्बेडकर का छल )

डा. अम्बेडकर ने अपने ब्राह्मण वाद से घ्रणा के चलते मनुस्मृति को निशाना बनाया और इतना ही नही अपनी कटुता के कारण मनुस्मृति के श्लोको का गलत अर्थ भी किया …अब चाहे अंग्रेजी भाष्य के कारण ऐसा हुआ हो या अनजाने में लेकिन अम्बेडकर जी का वैदिक धर्म के प्रति नफरत का भाव अवश्य नज़र आता है कि उन्होंने अपने ही दिए तथ्यों की जांच करने की जिम्मेदारी न समझी |
यहाँ आप स्वयम देखे अम्बेडकर ने किस तरह गलत अर्थ प्रस्तुत कर गलत निष्कर्ष निकाले –
(१) अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बोद्ध विरोधी सिद्ध करना –
(क) पाखण्डिनो विकर्मस्थान वैडालव्रतिकान् शठान् |
हैतुकान् वकवृत्तीश्र्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ||(४.३०)
डा . अम्बेडकर का अर्थ – ” वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे ) को सम्मान न दे|”
” मनुस्मृति में बोधो और बुद्ध धम्म के विरुद्ध में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है |”
(अम्बेडकर वा. ,ब्राह्मणवाद की विजय पृष्ठ. १५३)
शुद्ध अर्थ – पाखंडियो, विरुद्ध कर्म करने वालो अर्थात अपराधियों ,बिल्ली के सामान छली कपटी जानो ,धूर्ति ,कुतर्कियो,बगुलाभक्तो को अपने घर आने पर वाणी से भी सत्कार न करे |
समीक्षा- इस श्लोक में आचारहीन लोगो की गणना है उनका वाणी से भी अतिथि सत्कार न करने का निर्देश है |
यहा विकर्मी अर्थात विरुद्ध कर्म करने वालो का बलात विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बोद्ध कर लिया |विकर्मी का विधर्मी अर्थ किसी भी प्रकार नही बनता है | ऐसा करके डा . अम्बेडकर मनु को बुद्ध विरोधी कल्पना खडी करना चाहते है जो की बिलकुल ही गलत है |
(ख) या वेदबाह्या: स्मृतय: याश्च काश्च कुदृष्टय: |
सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता: स्मृता:|| (१२.९५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जो वेद पर आधारित नही है, मृत्यु के बाद कोई फल नही देती, क्यूंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अन्धकार पर आधारित है| ” मनु के शब्द में विधर्मी बोद्ध धर्मावलम्बी है| ” (वही ,पृष्ठ१५८)
शुद्ध अर्थ – ‘ वेदोक्त’ सिद्धांत के विरुद्ध जो ग्रन्थ है ,और जो कुसिधान्त है, वे सब श्रेष्ट फल से रहित है| वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्ध्कार एवं दुःख में फसाने वाले है |
समीक्षा- इस श्लोक में किसी भी शब्द से यह भासित नही होता है कि ये बुद्ध के विरोध में है| मनु के समय अनार्य ,वेद विरोधी असुर आदि लोग थे ,जिनकी विचारधारा वेदों से विपरीत थी| उनको छोड़ इसे बुद्ध से जोड़ना लेखक की मुर्खता ओर पूर्वाग्रह दर्शाता है |
(ग) कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान|
विकर्मस्थान् शौण्डिकाँश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् || (९.२२५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जो मनुष्य विधर्म का पालन करते है …….राजा को चाहिय कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे | “(वही ,खंड ७, ब्राह्मणवाद की विजय, पृष्ठ. १५२ )
शुद्ध अर्थ – ‘ जुआरियो, अश्लील नाच गाने करने वालो, अत्याचारियों, पाखंडियो, विरुद्ध या बुरे कर्म करने वालो ,शराब बेचने वालो को राजा तुरंत राज्य से निकाल दे |
समीक्षा – संस्कृत पढने वाला छोटा बच्चा भी जानता है कि कर्म, सुकर्म ,विकर्म ,दुष्कर्म इन शब्दों में कर्म ‘क्रिया ‘ या आचरण का अर्थ देते है | यहा विकर्म का अर्थ ऊपर बताया गया है | लेकिन बलात विधर्मी और बुद्ध विरोधी अर्थ करना केवल मुर्खता प्राय है |
(२) अशुद्ध अर्थ कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करना –
(क) सेनापत्यम् च राज्यं च दंडेंनतृत्वमेव च|
सर्वलोकाघिपत्यम च वेदशास्त्रविदर्हति||(१२.१००)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – राज्य में सेना पति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है|’ (वही पृष्ठ १४८)
शुद्ध अर्थ- ‘ सेनापति का कार्य , राज्यप्रशासन का कार्य, दंड और न्याय करने का कार्य ,चक्रवती सम्राट होने, इन कार्यो को करने की योग्यता वेदों का विद्वान् रखता है अर्थात वाही इसके योग्य है |’
समीक्षा – पाठक यहाँ देखे कि मनु ने कही भी ब्राह्मण पद का प्रयोग नही किया है| वेद शास्त्र के विद्वान क्षत्रिय ओर वेश्य भी होते है| मनु स्वयम राज्य ऋषि थे और वेद ज्ञानी भी (मनु.१.४ ) यहा ब्राह्मण शब्द जबरदस्ती प्रयोग कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करने का प्रयास किया है |
(ख) कार्षापण भवेद्दण्ड्यो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेद्दण्ड्य: सहस्त्रमिति धारणा || (८.३३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जहा निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दंडनीय है , उसी अपराध के लिए राजा एक सहस्त्र पण से दंडनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे या नदी में फैक दे ,यह शास्त्र का नियम है |(वही, हिन्दू समाज के आचार विचार पृष्ठ२५० )
शुद्ध अर्थ – जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक कार्षापण का दंड है उसी अपराध में राजा के लिए हज़ार गुना अधिक दंड है | यह दंड का मान्य सिद्धांत है |
समीक्षा :- इस श्लोक में अम्बेडकर द्वारा किये अर्थ में ब्राह्मण को दे या नदी में फेक दे यह लाइन मूल श्लोक में कही भी नही है ऐसा कल्पित अर्थ मनु को ब्राह्मणवादी और अंधविश्वासी सिद्ध करने के लिए किया है |
(ग) शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते |
द्विजातिनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते|| (८.३४८)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जब ब्राह्मणों के धर्माचरण में बलात विघ्न होता हो, तब तब द्विज शस्त्र अस्त्र ग्रहण कर सकते है , तब भी जब द्विज वर्ग पर भयंकर विपति आ जाए |” (वही, हिन्दू समाज के आचार विचार, पृष्ठ २५० )
शुद्ध अर्थ:- ‘ जब द्विजातियो (ब्राह्मण,क्षत्रिय ,वैश्य ) धर्म पालन में बाँधा उत्पन्न की जा रही हो और किसी समय या परिस्थति के कारण उनमे विद्रोह उत्पन्न हो गया हो, तो उस समय द्विजो को शस्त्र धारण कर लेना चाहिए|’
समीक्षा – यहाँ भी पूर्वाग्रह से ब्राह्मण शब्द जोड़ दिया है जो श्लोक में कही भी नही है |
(३) अशुद्ध अर्थ द्वारा शुद्र के वर्ण परिवर्तन सिद्धांत को झूटलाना |
(क) शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवागानहंकृत: |
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्रुते|| (९.३३५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” प्रत्येक शुद्र जो शुचि पूर्ण है, जो अपनों से उत्कृष्ट का सेवक है, मृदु भाषी है, अंहकार रहित हैसदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है (अगले जन्म में )  उच्चतर जाति प्राप्त करता है |”(वही ,खंड ९, अराजकता कैसे जायज है ,पृष्ठ ११७)
शुद्ध अर्थ – ‘ जो शुद्र तन ,मन से शुद्ध पवित्र है ,अपने से उत्क्रष्ट की संगती में रहता है, मधुरभाषी है , अहंकार रहित है , और जो ब्राह्मणाआदि तीनो वर्णों की सेवा कार्य में लगा रहता है ,वह उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है|
समीक्षा – इसमें मनु का अभिप्राय कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का है ,जिसमे शुद्र उच्च वर्ण प्राप्त करने का उलेख है , लेकिन अम्बेडकर ने यहाँ दो अनर्थ किये – ” श्लोक में इसी जन्म में उच्च वर्ण प्राप्ति का उलेख है अगले जन्म का उलेख नही है| दूसरा श्लोक में ब्राह्मण के साथ अन्य तीन वर्ण भी लिखे है लेकिन उन्होंने केवल ब्राह्मण लेकर इसे भी ब्राह्मणवाद में घसीटने का गलत प्रयास किया है |इतना उत्तम सिधांत उन्हें सुहाया नही ये महान आश्चर्य है |
(४) अशुद्ध अर्थ करके जातिव्यवस्था का भ्रम पैदा करना 
(क) ब्राह्मण: क्षत्रीयो वैश्य: त्रयो वर्णों द्विजातय:|
चतुर्थ एक जातिस्तु शुद्र: नास्ति तु पंचम:||
डा. अम्बेडकर का अर्थ- ” इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मनु चातुर्यवर्ण का विस्तार नही चाहता था और इन समुदाय को मिला कर पंचम वर्ण व्यवस्था के पक्ष में नही था| जो चारो वर्णों से बाहर थे|” (वही खंड ९, ‘ हिन्दू और जातिप्रथा में उसका अटूट विश्वास,’ पृष्ठ१५७-१५८)
शुद्ध अर्थ – विद्या रूपी दूसरा जन्म होने से ब्राह्मण ,वैश्य ,क्षत्रिय ये तीनो द्विज है, विद्यारुपी दूसरा जन्म ना होने के कारण एक मात्र जन्म वाला चौथा वर्ण शुद्र है| पांचवा कोई वर्ण नही है|
समीक्षा – कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था ,शुद्र को आर्य सिद्ध करने वाला यह सिद्धांत भी अम्बेडकर को पसंद नही आया | दुराग्रह और कुतर्क द्वारा उन्होंने इसके अर्थ के अनर्थ का पूरा प्रयास किया |
(५) अशुद्ध अर्थ करके मनु को स्त्री विरोधी कहना |
(क) न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविध्यो न बालिश:|
होता स्यादग्निहोतरस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा||( ११.३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” स्त्री वेदविहित अग्निहोत्र नही करेगी|” (वही, नारी और प्रतिक्रान्ति, पृष्ठ ३३३)
शुद्ध अर्थ – ‘ कन्या ,युवती, अल्पशिक्षित, मुर्ख, रोगी, और संस्कार में हीन व्यक्ति , ये किसी अग्निहोत्र में होता नामक ऋत्विक बनने के अधिकारी नही है|
समीक्षा – डा अम्बेडकर ने इस श्लोक का इतना अनर्थ किया की उनके द्वारा किया अर्थ मूल श्लोक में कही भव ही नही है | यहा केवल होता बनाने का निषद्ध है न कि अग्निहोत्र करने का |
(ख) सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया |
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तह्स्त्या|| (५.१५०)
डा. अम्बेकर का अर्थ – ” उसे सर्वदा प्रसन्न ,गृह कार्य में चतुर , घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिय |”(वही ,पृष्ठ २०५)
शुद्ध अर्थ -‘ पत्नी को सदा प्रसन्न रहना चाहिय ,गृहकार्यो में चतुर ,घर तथा घरेलू सामान को स्वच्छ सुंदर रखने वाली और मित्यव्यी होना चाहिय |
समीक्षा – ” सुसंस्कृत – उपस्करया ” का बर्तनों को स्वच्छ रखने वाली” अर्थ अशुद्ध है | ‘उपस्कर’ का अर्थ केवल बर्तन नही बल्कि सम्पूर्ण घर और घरेलू सामान जो पत्नीं के निरीक्षण में हुआ करता है |
(६) अशुद्ध अर्थो से विवाह -विधियों  को विकृत करना 
(क) (ख) (ग) आच्छद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्|
आहूय दान कन्यायाः ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तित:||(३.२७)
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते|
अलकृत्य सुतादान दैव धर्म प्रचक्षते||(३.२८)
एकम गोमिथुंनं द्वे वा वराददाय धर्मत:|
कन्याप्रदानं विधिविदार्षो धर्म: स उच्यते||(३.२९)
डा अम्बेडकर का अर्थ – बाह्म  विवाह के अनुसार किसी वेदज्ञाता को वस्त्रालंकृत पुत्री उपहार में दी जाती थी| देव विवाह  था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था | आर्ष विवाह के अनुसार वर, वधु के पिता को उसका मूल्य चूका कर प्राप्त करता था|”( वही, खंड ८, उन्नीसवी पहेली पृष्ठ २३१)
शुद्ध अर्थ – ‘वेदज्ञाता और सदाचारी विद्वान् कन्या द्वारा स्वयम पसंद करने के बाद उसको घर बुलाकर वस्त्र और अलंकृत कन्या को विवाहविधिपूर्वक देना ‘ बाह्य विवाह’ कहलाता है ||’
‘ आयोजित विस्तृत यज्ञ में ऋत्विज कर्म करने वाले विद्वान को अलंकृत पुत्री का विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना’ दैव विवाह ‘ कहाता है ||”
‘ एक या दो जोड़ा गाय धर्मानुसार वर पक्ष से लेकर विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना ‘आर्ष विवाह ‘ है |’ आगे ३.५३ में गाय का जोड़ा लेना वर्जित है मनु के अनुसार
समीक्षा – विवाह वैदिक व्यवस्था में एक संस्कार है | मनु ने ५.१५२ में विवाह में यज्ञीयविधि का विधान किया है | संस्कार की पूर्णविधि करके कन्या को पत्नी रूप में ससम्मान प्रदान किया जाता है | इन श्लोको में इन्ही विवाह पद्धतियों का निर्देश है | अम्बेडकर ने इन सब विधियों को निकाल कर कन्या को उपहार , दक्षिणा , मूल्य में देने का अशुद्ध अर्थ करके सम्मानित नारी से एक वस्तु मात्र बना दिया | श्लोको में यह अर्थ किसी भी दृष्टिकोण से नही बनता है | वर वधु का मूल्य एक जोड़ा गाय बता कर अम्बेडकर ने दुर्भावना बताई है जबकि मूल अर्थ में गाय का जोड़ा प्रेम पूर्वक देने का उलेख है क्यूंकि वैदिक संस्कृति में गाय का जोड़ा श्रद्धा पूर्वक देने का प्रतीक है |
अम्बेडकर द्वारा अपनी लिखी पुस्तको में प्रयुक्त मनुस्मृति के श्लोको की एक सारणी जिसके अनुसार अम्बेडकर ने कितने गलत अर्थ प्रयुक्त किये और कितने प्रक्षिप्त श्लोको का उपयोग किया और कितने सही श्लोक लिए का विवरण –

 

 उपरोक्त
वर्णन के आधार पर स्पष्ट है कि अम्बेडकर ने मनु स्मृति के कई श्लोको के गलत अर्थ प्रस्तुत कर मन मानी कल्पनाय और आरोप गढ़े है | ऐसे में अम्बेडकर निष्पक्ष लेखक न हो कर कुंठित व्यक्ति ही माने जायेंगे जिन्होंने खुद भी ये माना है की उनमे कुंठित भावना थी | जो कि इसी ब्लॉग पर बाबा साहब की बेवाक काबिले तारीफ़ नाम से है | इन सब आधारों पर अम्बेडकर के लेख और समीक्षाय अप्रमाणिक ही कही जायेंगी |
संधर्भित पुस्तके – (१) मनु बनाम अम्बेडकर-डा. सुरेन्द्र कुमार
(२) मनुस्मृति और अम्बेडकर – डा.के वी पालीवाल …..

 

ताज महल ही बाक्की रह गया था !

taajmahl and azam

आज आजमखान की मांग टीवी पर देखने को मिली ये नेता जी ताजमहल को वक्फ बोर्ड को देने की मांग कर रहे थे, जिसे एक इमाम ने समर्थन देते हुए यह भी कह दिया है की ताजमहल में ५ वक्त की नमाज भी होनी चाहिए, आजमखान कह रहे है की ताजमहल को वक्फ बोर्ड को सौंप दिया जाए क्योंकि यह एक मकबरा है और मकबरा होने के नाते इस पर वक्फ बोर्ड का हक़ बनता है, वक्फ बोर्ड को सौंपने से इससे होने वाली आमदनी से मुसलमानों की तालीम में उपयोग में लिया जा सके, और इसकी आमदनी से कम से कम दो यूनिवर्सिटी बन सकती है, बड़ा अचरज हुआ इनकी बेबुनियाद मांग को देख कर, क्या इन्हें सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी कम लगती है, क्या देश की हजारों मस्जिदों से इतना धन भी प्राप्त नहीं होता की मुसलमानों की तालीम का अच्छे से बंदोबस्त किया जा सके, क्या इन मस्जिदों से प्राप्त धन का उपयोग कुरान में बताये जिहाद पर ज्यादा खर्च होता है ? इसलिए इन्हें अब ताजमहल का पैसा चाहिए |

तालीम की बात आई तो सोचा इनकी तालीम पर थोड़ी रौशनी डाल दी जाए तो आम जनता को कुछ जानकारी मिले और सेकुलरो की आँख की पट्टी खुल सके, इनकी तालीम की जानकारी मिलने के बाद हिन्दू-मुस्लिम भाई भाई शायद बोलना भी पाप लगने लगेगा, आइये आपको मदरसों की तालीम का दर्शन कराते है |

भारतीय मदरसों में भारत में स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा तो दी ही जाती है, यदि यही शिक्षा देनी है तो मदरसों की क्या जरुरत है, यह शिक्षा तो सरकारी स्कूलों में निःशुल्क दी जाती है, और उसमें ऐसा कोई कानून नहीं है की उसमें मुसलमान नहीं पढ़ सकते है हर कोई पढ़ सकता है तो अलग से मदरसा क्यों ?

मदरसों में स्कूली शिक्षा के अलावा एक शिक्षा और दी जाती है जिसे ये खुदाई पुस्तक कहते है, कुरान!! जी हाँ !! मदरसों में कुरानी की तालीम दी जाती है, इस तालीम को पाने के बाद कोई मुस्लिम हिन्दू- मुस्लिम भाई भाई का राग तो कतई नहीं अलापेगा !

ऐसा क्या है कुरान में जो मुसलमान इसकी तालीम पाने के बाद जिहादी बन जाता है, यह सोचने की जरुरत है इसी की जानकारी हम इस लेख में देना चाहते है

देखिये कुरान की तालीम

और जब इरादा करते हैं हम ये की हलाक अर्थात कत्ल करें किसी बस्ती को, और हुक्म करते है हम दौलतमंदों को उसके की, पास! नाफ़रमानी करते हैं, बीच उसके | बस! साबित हुई ऊपर उसके मात गिज़ाब की, बस! हलाक करते हैं हम उनको हलाक करना |
(कुरान मजीद, सुरा ६, रुकू २, आयत ६ )

और देखिये इससे अगली आयत में कहा गया है की-
और बहुत हलाक किये हैं हमने क्यों मबलगो? तुम्हारा खुदा तो जब उसे किसी बस्ती के हलाक करने का शौक चढ़ आये तब उसमें रहने वाले दौलतमंदों को नाफ़रमानी करने अर्थात आज्ञा न मानने वाले का हुक्म दे ! या यूँ कह सकते हैं की इसके इस हुक्म की तामिल करें नाफ़रमानी करो तो उन्हें और उनके साथ बस्ती में रहने वाले बेगुनाहों, मासूम बच्चों तक को अपना शौक पूरा करने के लिए हलाक अर्थात कत्ल करें !

और देखिये
और कत्ल कर दो, यहाँ तक की ना रहे फिसाद, यानी गलबा कफ्फार का ||
(कुरान मजीद, सुरा अन्फाल, आयत ३९)
मुशिरकों को जहाँ पाओ कत्ल कर दो और पकड़ लो और घेर लो और हर घात की जगह पर उनकी ताक में बैठे रहो …….||
(कुरान मजीद, सुरा तौबा, आयत ५)
इस आयत का नतीजा यदि देखना है तो देखो कश्मीरी पंडितों के साथ क्या हुआ था, केवल एक पत्र दिया गया की घर खाली करों एक दिन का समय है अन्यथा मार दिए जाओगे, और काफी संख्या में कश्मीरी पंडित मार दिए गए या भगा दिए गए,

और देखिये

ऐ नबी ! मुसलमानों को कत्लेआम अर्थात जिहाद क लिए उभारो ……||
(कुरान मजीद, सुरा अन्फाल, आयत ६५)

जब तुम काफिरों (गैर मुसलमान) से भीड़ जाओ तो उनकी गर्दन उड़ा दो, यहाँ तक की जब उनको खूब कत्ल कर चुको, और जो जिन्दा पकडे जाएँ, उनको मजबूती से कैद कर लो
(कुरान मजीद, सुरा मुहम्मद, आयत ४)

ऐ पैगम्बर! काफ़िरों और मुनाफिकों से लड़ो और उन पर सख्ती करो, उनका ठिकाना दोज़ख है, और वह बहुत ही बुरी जगह है |
(कुरान मजीद. सुरा तहरिम, आयत ९)

यह नजराना है कुरान से आपके लिए इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ भरा पड़ा है इस खुदाई पुस्तक में, अब कहिय जनाब ! यहाँ आपका क्या कहना है ? इन आयतों में क्या यहाँ धर्म के विरोधियों, जालिमों और बदमाशों के कत्ल करने इजाजत नहीं है | बल्कि स्पष्ट तौर पर काफ़िरों को कत्ल करने का निर्देश है, और आप ये जानते हैं की “काफिर” बद्चलनों, बदमाशों, चोरों, डाकुओं, लुटेरों और दुष्टों आदि को नहीं बल्कि उनको कहा जाता है जो की हजरत मोहम्मद साहब को खुदा का रसूल ना मानें, चाहे वो शख्स कितना भी नेक चलन, अच्छे आचरण वाला भला आदमी ही क्यों न हो ?
परन्तु चाहे जनता दुष्टाचरण करने वाली भी हो, दुनियाभर की बुराइयां उसमें मौजूद हों, परन्तु वह हजरत मोहम्मद साहब को खुदा का रसूल मान ले, बस! समझों की वह मोमिन बने बनाये हैं |

इतना कुछ जानने के बाद भी यदि आप मदरसों में दी जाने वाली तालीम के पक्षधर है, तो आपसे बड़ा धर्म का दुश्मन कौन हो सकता है, आजमखान साहब मदरसों की तालीम से इतना मोह कैसे है क्या मुज्जफरनगर दंगों से भी बड़ा काण्ड करने की इच्छा है क्या ??

अब ये सवाल तो स्वयं आजमखान चाह कर भी नहीं दे सकते है खैर मदरसों की चल चलन हम तो भलीं भांति जानते है बाकी पाठकगण समझदार है लेख पढ़े कुछ खामियां हो तो अवगत जरुर कराये

और हाँ !! अपना सेकुलरिज्म का चश्मा जरुर उतार लें !!

औ३म

नमस्ते

महिलाओ के प्रति कुरान का दृष्टिकोण

women in islam 2

मुसलमान कहते है भारत में कुरान की जरुरत इसलिए हुई की यहाँ अत्याचार, मारकाट, औरतों पर जुल्म चरम पर था, उस स्थिति को सुधारने के लिए भारत में कुरान की जरूरत हुई, कुरान को खुदाई पुस्तक बताकर उसे भारतीय जनता का उधारक बताया है, जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है, यदि कुरान को केवल उपरी नजर से भी पढ़ा जाए तो सच्चाई सामने आ जायेगी

सच यह है की भारतीय जनता को गुमराह करने के लिए ये उलजुलूल तर्क कुरान में दिए है, भारत देश जिसमें रहने वाले लोग वैदिक धर्मी थे, यही एक मात्र धर्म है संसार में जिसमें औरत को पूजनीय बताया गया है, वेद का एक-एक मन्त्र पढ़ लिया जाए तो भी उसमें औरत के लिए गलत कुछ नहीं लिखा है, यही एक मात्र देश है जहाँ नारी को पुरुष के समकक्ष अधिकार दिए गए है
वही दूसरी और वो मजहब जो कुरान को मानता है, वहां औरत पर जुल्म इतने है की ह्रदय काँप जाए, औरत को भोग की वस्तु बना कर उसको तरह तरह से अप्राकृतिक रूप से भोगने के आदेश दिए हुए है, १०-१० बच्चे पैदा करने तक मजबूर किया जाता है, एक पुरुष अनेकों महिलाओं से निकाह कर सकता है, वो भी केवल अपनी काम इच्छा की पूर्ति के लिए, इस्लाम का शरियत कानून देख लों जो औरतों पर ऐसे अत्याचार करता है की सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है, संक्षिप्त में आपको इस्लाम में महिलाओं की स्थिति के दर्शन कराते है

कुरान में गैर इस्लामी लोगों को मारने, काटने की बहुत जगह आज्ञा दी गई है, और सबसे ज्यादा अत्याचार करने की आज्ञा है तो वो है औरतों पर, इस खुदाई पुस्तक में औरत को भोग का साधन मात्र बताया गया है, लुटने, भोगने की चीज बताया है, आइये देखते है खुदा के औरतों पर जुल्म:-

धर्म के अनुसार औरत पर जुल्म करने वाले को जालिम और दुष्ट कहा गया है, और जो खुदा अपनी ही प्रजा (स्त्रियों) पर जुल्म ढाने, उनसे व्यभिचार करने, बलात्कार करने का हुक्म दे तो क्या वह जालिम और दुष्ट नहीं है?

देखिये कुरान में कहा गया है की–
या अय्युह्ल्लजी-न आमनू कुति-ब……..||
(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रुकू २२ आयत १७८)

ऐ ईमान वालों ! जो लोग मारे जावें, उनमें तुमको (जान के) बदले जान का हुक्म दिया जाता है| आजाद के बदले आजाद और गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले औरत|
इसमें हमारा एतराज इस अंश पर है की “औरत के बदले औरत” पर जुल्म किया जावे | यदि कोई बदमाश किसी की औरत पर जुल्म कर डाले तो उस बदमाश को दण्ड देना मुनासिब होगा किन्तु उसकी निर्दोष औरत पर जुल्म ढाना यह तो सरासर बेइन्साफी की बात होगी | ऐसी गलत आज्ञा देना अरबी खुदा को जालिम साबित करता है, न्यायी नहीं |

वल्मुहसनातु मिनन्निसा-इ इल्ला मा………||
(कुरान मजीद पारा ५ सुरा निसा रुकू ४ आयत २४)
ऐसी औरतें जिनका खाविन्द ज़िंदा है उनको लेना भी हराम है मगर जो कैद होकर तुम्हारे हाथ लगी हों उनके लिए तुमको खुदा का हुक्म है …… फिर जिन औरतों से तुमने मजा उठाया हो तो उनसे जो ठहराया उनके हवाले करो | ठहराए पीछे आपस में राजी होकर जो और ठहरा लो तो तुम पर इसमें कुछ उर्ज नहीं | अल्लाह जानकर हिकमत वाला है

समीक्षा

निर्दोष औरतों को लुट में पकड़ लाना और उनसे व्यभिचार करने की खुली छुट कुरानी खुदा ने दे दी है, क्या यह अरबी खुदा का स्त्री जाती पर घोर अत्याचार नहीं है ? क्या वह व्यभिचार का प्रचारक नहीं था, फीस तय करके औरतों से व्यभिचार करने तथा फीस जो ठहरा ली हो उसे देने की आज्ञा देना क्या खुदाई हुक्म हो सकता है ? अरबी खुदा और कुरान जो औरतों पर जुल्म करने का प्रचारक है क्या समझदार लोगों को मान्य हो सकता है ?

और देखिये इस्लामी पुस्तक कुरान बीबियों को किस तरह काम पूर्ति का साधन मानती है,
अपनी बीबियों के साथ पीछे से संभोग करना, क्या यह भी कोई शराफत की बात है जिसकी आज्ञा खुदा ने दी ?
देखिये कुरान में कहा गया है की—
निसा-उकुम हरसुल्लकुम फअतु……….||
(कुरान मजीद पारा २ सुरा बकर रुकू २८ आयत २२३)

तुम्हारी बीबियाँ तुम्हारी खेतियाँ है | अपनी खेती में जिस तरह चाहो (उस तरह) जाओ | यह अल्लाह का हुक्म है |
पीछे से सम्भोग करने का आशय दो तरीकों से है, एक तो प्राकृत सम्भोग से है दुसरा अप्राकृतिक सम्भोग अर्थात –गुदा मैथुन से है, हम मानते हैं इनमें से कोई भी हो दोनों ही गलत है |
चरक और सुश्रुतु की मान्यतानुसार अगर उलटे सीधे तरीकों से सम्भोग किया जाएगा तो उनके द्वारा पैदाशुदा संतान भी उलटी-सीधी अर्थात विकारित ही पैदा होगी |
जैसे की पीछे से प्राकृत सम्भोग करने पर वायु का दबाव अधिक रहने के कारण कष्टदायक होता है तथा संतान भी विकलांग ही पैदा होती है |
रही बात गुदा मैथुन की ? उसका समर्थन तो कुरान में साफ़ शब्दों में किया गया है
देखिये-
“कुरान मजीद सुरा बकर पारा-२, रुकू २८, आयत २२३”
जिसमें अल्लाह ताला ने कहा है की—
“औरतें तुम्हारी खेतियाँ है जिधर से चाहो उधर से जाओ“ तथा “तफसीरे कबीर जिल्द २, हुज्जतस्सलिसा, सफा २३४, मिश्र छापा”
जिसमें गुदा मैथुन अर्थात इग्लामबाजी का स्पष्ट आदेश मौजूद है |
अतः पीछे से सम्भोग करने का तात्पर्य दोनों तरह से माना जा सकता है, जो मानवता, नैतिकता व् ईश्वरीय नियम के विरुद्ध है |

ऐसी कई कुरानी खुदा की आज्ञा कुरान में दी है यह तो केवल कुरानी खुदा की फिल्म का ट्रेलर है पूरी फिल्म आपको www.aryamantavya.in पर इस्लाम से सम्बंधित पुस्तकों में मिल जायेगी

जिस कुरान की जरुरत भारत में औरतों पर अत्याचार को रोकने के लिए बताई है वही कुरान भारत जैसे धार्मिक देश में जहाँ पर नारी को पूजनीय बताया गया है वही पर यह कुरान औरत पर बलात्कार आदि जैसे अत्याचारों को बढ़ावा देने का कारक बन गई है, पाठकगण अपनी बुद्धि विवेक का उपयोग करें और हो सके तो कुरान का स्वयं भी अध्ययन करें ताकि आप स्वयं दूध का दूध पानी का पानी कर सके यदि कुरान पढने का समय नहीं दे पाते है, तो आप www.aryamantavya.in इस साईट पर आये ताकि हम आपका इस्लाम के जुल्म से भरे चेहरे का दर्शन करा सके

पाठकगण अपनी प्रतिक्रिया जरुर दें

नमस्ते
औ३म्

AryaMantavya – आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम) – AryaMantavya – आर्य मंतव्य | aryamantavya
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‘ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण’ – मनमोहन कुमार आर्य

god and soul

ओ३म्

ईश्वर जीवात्मा के अस्तित्व के प्रमाण


 

बच्चा जब संसार में जन्म लेता है तो वह न तो अपनी भावना को बोल कर कह सकता है और न अपने आप उठ-बैठ सकता है, चलना फिरना तो उसका कई महीनों व एक वर्ष का हो जाने पर आरम्भ होता है। माता-पिता बच्चे को बोलना सिखाते हैं, उठना-बैठना व चलना-फिरना सिखाते हैं। इस परम्परा पर दृष्टि डाले तो हम सृष्टि के आरम्भ में पहुंच जाते हैं। हमारे आदि पूर्वजों के माता पिता नहीं थे। आदि का अर्थ ही प्रारम्भ की अवस्था है। वैदिक साहित्य इसका उत्तर देता है कि आदि सृष्टि में युवा स्त्री व पुरूष पैदा हुए थे। यह सृष्टि अमैथुनी सृष्टि थी जिसका अर्थ होता कि बिना माता-पिता की सृष्टि। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन्हें फिर किसने जन्म दिया? इसका उत्तर है कि माता पिता के न होने से यह जन्म इस संसार को बनाने व चलाने वाले “ईश्वर” ने दिया था। अब हमारे नास्तिक बन्धु कहेंगे कि सिद्ध करो कि ईश्वर है? हम पूछते हैं कि हम मान लेते हैं कि ईश्वर नहीं है। नास्तिक बन्धु हमें बतायें और सिद्ध करें कि ईश्वर के न होने पर यह सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी, गृह व उपग्रह व प्राणिजगत आदि संसार कब, किससे व कैसे बना? कौन इसे चला रहा है? इसका उत्तर न ईश्वर को न मानने वालों के पास है और न वैज्ञानिकों के पास ही। इसका उत्तर न होना ही ईश्वर के होने का प्रमाण है क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त इसका कोई उत्तर है ही नहीं। कोई भी उत्पत्ति किसी न किसी उत्पत्तिकर्ता के द्वारा ही होती है। यदि उत्पत्तिकर्ता दिखाई न दें तो उसे ढूढंना चाहिये न कि उसके अस्तित्व से इनकार करना। हमारे सामने भी यह प्रश्न आया कि ईश्वर दिखाई तो देता नहीं फिर उसे क्यों माना जाये? हमने स्वयं से तर्क किया तो उत्तर मिला कि यदि रचना है तो उसका रचयिता होना आवश्यक है।

 

दूसरा प्रश्न कि यदि वह है तो दिखाई क्यों नहीं देता?  इसका उत्तर यह मिला कि अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ आंखों से दिखाई नहीं देते परन्तु उनका अस्तित्व होता है। आजकल माइक्रोस्कोप से ऐसे जीवाणु व सूक्ष्म कीट आदि तथा रक्त के सूक्ष्म कणों को देखा जाता है जिसको हमारी आंखे देखने में अपनी असमर्थता प्रकट करती है। अतः ईश्वर सूक्ष्म है इस सम्भावना का ज्ञान इन तर्कों से होता है। अब वह सत्ता संसार में रहती कहा हैं? इसका उत्तर भी तर्क से यह प्राप्त हुआ कि यह ब्रह्माण्ड अनन्त है। इसका न कोई ओर है न छोर। ब्रह्माण्ड में अनेक सूर्य व सौर्य मण्डल होने और इनकी संख्या अनन्त होने के प्रमाण हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी बहुत ही आधुनिक दूरबीनों की सहायता व विवेचन से प्राप्त किये हैं। रचना जहां होती है वहां रचयिता का होना आवश्यक होता है। इस जानकारी पर तर्क करने से सिद्ध हुआ कि ईश्वर सर्वव्यापक, निराकार, सर्वदेशी, सर्वातिसूक्ष्म व सर्वान्तर्यामी है। अब इस प्रश्न पर विचार किया गया कि ईश्वर यदि है तो वह उत्पन्न कैसे हुआ, तर्क ने उत्तर दिया कि वह अनादि, अजन्मा और नित्य है। उत्पन्न सत्ता को उत्पत्तिकर्ता चाहिये और उत्पन्न सत्ता अमर या अविनाशी या नाशरहित नहीं हो सकती। यदि ईश्वर को उत्पत्तिधर्मा मानते हैं तो उसका नाश व मृत्यु भी माननी पड़ेगी, फिर एक अन्य उससे बड़े ईश्वर को मानना होगा जिसने उस ईश्वर को उत्पन्न किया था। और इस प्रकार से मानने से अनावस्था दोष आता है जिसका समाधान एक अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अनन्त अर्थात् जन्म व मृत्यु से रहित सत्ता को मानने से होता है। और विचार किया गया तो ज्ञात हुआ है कि वह सत्य, चेतन तत्व व आनन्द स्वरूपवान होना ही सम्भव है। यदि ऐसा न होगा तो ईश्वर कुछ कर ही न सकेगा। अब ईश्वर का स्वरूप निर्धारित हो जाने पर इसको सिद्ध करना है तो इसका सरल उपाय है कि आंखे बन्द करो और इन सब तर्कों व इसके विपरीत तर्कों का चिन्तन करो तो हमारी आत्मा में सत्य ज्ञान प्रकट हो जायेगा और वह वही होता है जिसे पूर्व तर्क के आधारित किया गया है। यहां इतना बताना आवश्यक है कि ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में यही स्वरूप हमारे वेदों, वैदिक साहित्य, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में वर्णित किया गया है। हम वेदों की एक बात का यहां और वर्णन करना चाहेंगे जिसमें कहा गया है कि यह अनन्त ब्रह्माण्ड ईश्वर के सर्वव्यापक आकार का 1/3 भाग ही है। ईश्वर के इसके अतिरिक्त 2/3 भाग में भी ईश्वर अपने आनन्द स्वरूप में स्थित है। हमें लगता वहां यदि किसी की पहुंच हो सकती है तो वह मोक्ष प्राप्त करने वाली जीवात्माओं की हो सकती है।

 

अब दूसरा प्रमाण है कि सृष्टि की आदि में जब युवा स्त्री व पुरूष उत्पन्न हुए तो उनको ज्ञान की आवश्यकता थी। ज्ञान भाषा में निहित होता है अतः भाषा की भी आवश्यकता थी अन्यथा आदि स्त्री-पुरूषों का जीवन आगे चल ही नहीं सकता था। यहां फिर केवल ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है और तर्क से उत्तर मिलता है कि ज्ञान व भाषा सिखाने व देने वाला यदि कोई है तो वह सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। अब यदि ऐसा है तो उसने जो ज्ञान दिया उसका प्राचीन साहित्य में उल्लेख होना चाहिये। उसका उल्लेख प्राचीनतम ब्राह्मण ग्रन्थों, मनुस्मृति, दर्शन ग्रन्थों व उपनषिदों आदि में मिलता है। यह सब एक मत से बताते हैं कि ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद है। वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानने की परम्परा आज तक चली आ रही है। आधुनिक काल में इसका प्रमाण पुरस्सर उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने वार्तालाप, उपदेशों, शास्त्रार्थों एवं सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों में दिया है जिसका अनुसंधान एवं विस्तार उनके अनुयायियों ने विगत 140 वर्षों में किया है। वेद का ज्ञान व उसकी भाषा का अध्ययन करने पर यह निष्कर्ष सामने आता है कि वेद कोई मानवी कृति नही हो सकती, इसका ज्ञान प्रबुद्ध अध्येता को सहज ही जाता है। यहां हम यह भी बताना चाहते हैं कि आरम्भ में मनुष्य भाषा बना नहीं सकता। यदि आपके पास एक भाषा हो तो उसमें अपभ्रंस होकर कुछ मिलती-जुलती भाषा व भाषायें तो बनाई जा सकती हैं परन्तु सर्वप्राचीन भाषा केवल ईश्वर द्वारा ही दी जाती है। यदि वह भाषा न दे तो मनुष्य कुछ भी कर ले, भाषा नहीं बना सकता। इसका उत्तर यह भी है कि जिस प्रकार शरीर के सभी अंग ईश्वर के बनाये हुए हैं। आज विज्ञान उन्नति के चरम पर पहुंच गया है पर क्या एक किसी वैज्ञानिक ने मनुष्य की एक छोटी सी आंख, नाक, कान व जिह्वा अथवा कोई अंग बना पाया है, इसका उत्तर है कि नहीं। जो ईश्वरीय रचनायें हैं वह ईश्वर ही करता है। मनुष्य वही कर सकता है जो उसके लिए सम्भव है। पहली अर्थात् सृष्टि की आदि भाषा बनाना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। हम चाहते हैं कि यदि किसी बन्धु को हमारी बात स्वीकार न करे तो वह चिन्तन करे और फिर अपने निष्कर्षों को भाषाविदों व ज्ञानविदों से शेयर करें और उनको सहमत कर लें, उसका सिद्धान्त सारी दुनियां में प्रचलित हो जायेगा। यदि आज भाषाविदों को भाषा की उत्पत्ति का निभ्र्रान्त उत्तर नहीं मिल रहा है तो इसका कारण यह है कि इसका उत्तर जो हमने पूर्व दिया है वही है और दूसरा कोई नहीं है। वैज्ञानिकों को कुछ समय बाद या भविष्य में कभी न कभी इस सिद्धान्त को सर्वसम्मति से स्वीकार करना ही होगा। यहां हम वेदों के आधार पर ईश्वर का संक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं जो स्वामी दयानन्द ने वेदों का गहन अध्ययन, योगाभ्यास व समाधि सिद्ध करने के बाद प्राप्त किया। वह है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, सर्वज्ञ, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही सब मनुष्यों के उपासना के योग्य है अन्य कोई जन्मधारी मनुष्य, महापुरूष या अवतार उपासना के योग्य नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि अजन्मा होने से वह कभी अवतार या मनुष्य के रूप में जन्म न लेता है और न ले सकता है।

 

ईश्वर के साक्षात्कार के विषय में हम यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे उपनिषदों के ऋषि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए उच्च कोटि के महापुरूष थे। मुण्डकोपनिषद् के ऋषि समाधि में ईश्वर की प्राप्ति का उल्लेख कर कहते हैं कि भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।। अर्थात् समाधि में ईश्वर-साक्षात्कार की अवस्था सिद्ध हो जाने पर जीवात्मा के हृदय की अविद्या-अज्ञानरूपी गांठ कट जाती है और सब संशय छिन्न होकर उसके दुष्ट व पाप कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी आत्मा के भीतर और बाहर व्यापक हो रहा परमात्मा में वह योगी वा उसका जीवात्मा निवास करता है और आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है।

 

मानव शरीर में ईश्वर की प्राप्ति के स्थान के विषय में समाधि को सिद्ध किए हुए महर्षि दयानन्द अपने ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय में लिखते हैं कि कण्ठ के नीचे और उदर से ऊपर तथा दोनों स्तनों के बीच में जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने (अर्थात् योग रीति से उपासना करने) से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।

 

ईश्वर को जान लेने के बाद अब जीवात्मा के अस्तित्व व स्वरूप पर विचार करते हैं। जीवात्मा भी एक स्वतन्त्र सत्ता है। यह ईश्वर का अंश नहीं है। हां, इसका कुछ स्वरूप व गुण ईश्वर के समान व कुछ विपरीत है। यह सत्य, चित्त, आकार रहित, अल्पज्ञ, एकदेशी, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता व उसके फलों को सुख व दुःख के रूप में भोक्ता आदि स्वभाव, स्वरूप व गुणों वाला है। ईश्वर ही इसे माता-पिता के माध्यम से मनुष्यादि योनियों में जन्म देता है और वृद्धावस्था व आयु पूरी होने पर मृत्यु के होने के अवसर पर शरीर से इसका सम्बन्ध विच्छेद करता है। इसको जानने व समझने के लिए भी सत्यार्थ प्रकाश एक सर्वोत्तम ग्रन्थ है जिसका सभी को अध्ययन करना चाहिये जिससे धार्मिक व आध्यात्मिक व अन्य सभी प्रकार के भ्रम व भ्रान्तियां दूर हो सकें। इस ग्रन्थ के मुकाबले में संसार में कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। इसको पढ़कर ही इसकी महत्ता का अनुमान किया जा सकता है। इन्हीं विचारों को यदि स्वयं पर लागू करें तो हम यह कहेंगे कि मैं वस्तुतः एक जीवात्मा हूं। मेरा जन्म कभी नहीं हुआ है। मैं हमेशा से हूं और हमेशा रहूंगा। ईश्वर की कृपा से मुझे कर्मानुसार बार-बार जन्म मिलेगा, आयु पूरी होने पर मेरी मृत्यु हेाती रहेगी। प्रारब्ध के अनुसार अनेकानेक योनियों में मेरा जन्म होता रहेगा। मेरे अब तक असंख्य जन्म हो चुके हैं। मैं संसार में विद्यमान सभी योनियों में कई-कई बार जन्म लेकर कर्मों का भोग कर चुका हूं। मैं कई बार मोक्ष में भी रहा हूं। कई बार पूर्व में मैं ईश्वर का साक्षात्कार कर चुका हूं। अनेकानेक बार साधू-संन्यासी, योगी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र भी रहा हूं एवं इनसे निकृष्ट क्षूद्र प्राणी भी। यह सब कर्मों का खेल है। इसे समझना है और आसक्तियों का त्याग कर ज्ञान की वृ़िद्ध करके सत्कर्मों को करके, ईश्वर उपासना से समाधि को सिद्ध करना है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार हो सके। ऐसा करके मेरा मोक्ष हो सकेगा। मोक्ष की अवस्था ब्रह्माण्ड के सभी जीवों की सबसे अधिक उन्नत अवस्था है। सभी को इसके लिए प्रयास करने चाहिये। मत-मतान्तरों के चक्र से मुक्त होकर सत्य ज्ञान की खोज करनी चाहिये और इस प्रकार से जाने गये सत्य मार्ग पर चलना चाहिये जो उन्नति की ओर ले जाता है। यदि हम मत-मतान्तरों की अन्धविश्वासों व अविद्याजन्य कर्म व उपासना पद्धतियों में फंसे रहे तो हमारा यह मानव जीवन व्यर्थ हो जायेगा और इस जन्म के बाद अगले जन्म में हमारा भविष्य निश्चय ही दुःखद होगा। सत्य पर चल कर हमारा यह जीवन भी उन्नत होता है व भावी जीवन भी। अतः हमें सत्य को जानना और उसको धारण कर सत्य-धर्म का ही आचरण करना है। यही वास्तविक मनुष्य धर्म है। वेद धर्म का साक्षात् रूप व ग्रन्थ हैं और इनकी शिक्षाओं के अनुरूप आचरण ही समस्त मानव जाति का कर्तव्य है। हम समझते है हमारे इस लेख से ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व को न मानने वाले बन्धुओं की आस्था व मिथ्या विश्वास का समाधान होगा एवं इस संक्षिप्त विवेचन से पाठको को लाभ होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘मनुस्मृति का सर्वग्राह्य शुद्ध स्वरूप’

vishuddha manusmriti

ओ३म्

मनुस्मृति का सर्वग्राह्य शुद्ध स्वरूप

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

समस्त वैदिक साहित्य में मनुस्मृति का प्रमुख स्थान है। जैसा कि नाम है मनुस्मृति मनु नाम से विख्यात महर्षि मनु की रचना है। यह रचना महाभारत काल से पूर्व की है। यदि महाभारत काल के बाद की होती तो हमें उनका जीवन परिचय कुछ या पूरा पता होता जिस प्रकार विगत 5,000 वर्षों में हुए विद्वानों व महर्षि पाणिनी इसहउ का ज्ञात होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनु महाभारत काल व उससे पूर्व ही हुए थे। महर्षि दयानन्द इन्हें सृष्टि के आदि काल में अमैथुनी सृष्टि के बाद ब्रह्माजी की पहली व दूसरी पीढ़ी का ऋषि स्वीकार करते हैं। यह उनके द्वारा रचित मनुस्मृति की विषय वस्तु से सिद्ध होती है। देश का संविधान व आचार संहिता आरम्भ में ही बनाये जाते हैं न कि मध्य में या बाद के वर्षों में। मनुस्मृति भी देश का एक प्रकार से संविधान है व सम्पूर्ण आचार शास्त्र है जो इसका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है। इसलिए इसे मानव धर्म शास्त्र की संज्ञा दी गई है। महर्षि दयानन्द का वैदिक साहित्य विषयक ज्ञान विगत 5,000 वर्षों में उत्पन्न वेदादि धर्मशास्त्र के पण्डितों व विद्वानों में अद्वितीय है। उनका वेद एवं वैदिक साहित्य का जितना अध्ययन व ज्ञान था उसके आधार पर उनके किसी निर्णय को बिना पुष्ट प्रमाणों के एकतरफा वनज.तपहीज अस्वीकार नहीं किया जा सकता और न सन्देह ही किया जा सकता है। यदि महर्षि दयानन्द को मनु विषयक कोई तथ्य ज्ञात न होता तो वह उसे प्रकट ही न करते और यदि करते तो यह अवश्य कहते कि मनु के सृष्टि के आदि में होने की सम्भावना है, इसके पुख्ता प्रमाण उपलब्ध नहीं है। परन्तु उन्होंने ऐसा नही कहा। इससे उनके द्वारा निश्चयात्मक रूप से कही बात को सत्य मानना ही होगा जो कि आप्त प्रमाण की कोटि में आती है।

 

मनु ने मनुस्मृति का प्रणयन क्यों किया? सृष्टि के आरम्भ में कुछ समय तक किसी विधि या नियमों अथवा दण्ड व्यवस्था की आवश्यकता नहीं थी। कालान्तर में आपस में विवाद होने लगे तो शासन व्यवस्था, न्याय व दण्ड व्यवस्था एवं समाज व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप देने की आवश्यकता पड़ी। उस समय मनु महाराज में पण्डितों व क्षत्रियोचित गुणों का अद्भुत सम्मिश्रण था। वह ऋषि कोटि के असाधारण विद्वान थे। तत्कालीन नागरिकों ने उनसे प्रार्थना की होगी कि हमारे परस्पर के विवादों का हल व समाधान कीजिए। उन्होंने वेदों के आधार पर निर्णय किया होगा क्योंकि वेद ज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञान व नीति विषयक ग्रन्थ व ज्ञान तो उस समय था नहीं। विवाद वृद्धि पर रहे होंगे तो उन्हें लगा होगा कि इसके लिए एक पूरा आचार, न्याय व दण्ड शास्त्र बनाना होगा जिससे समाज व देश के नागरिक सुव्यवस्थित होकर वेद मत के अनुसार जीवनयापन कर सके। महर्षि मनु वेदों के परम भक्त थे यह उनके द्वारा रचित मनुस्मृति के कुछ श्लोकों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है। मनु जी से पूर्व इस प्रकार का कोई ग्रन्थ अस्तित्व में नहीं था। यदि होता तो वह यह ग्रन्थ न बनाते अथवा उसमें ही संशोधन करते। इससे पूर्व यदि कोई ग्रन्थ व ज्ञान था तो वह केवल वेद ही थे। वह ऋषि थे और वेदों के मर्म को अच्छी तरह से जानते थे। उन्हें वेदों का ज्ञान आदि व प्रथम ऋषि ब्रह्माजी से प्राप्त हुआ था। अतः वेदों की सहायता से वेदों के अनुकूल उन्होंने मनुस्मृति ग्रन्थ की रचना की थी। इसका उद्देश्य यह था कि समाज की रचना पर प्रकाश पड़े। स्त्री-पुरूषों के बीच सामाजिक बन्धन व सम्बन्ध किस प्रकार के हों, इसका ज्ञान हो। सभी नागरिकों के कर्तव्य व अधिकार क्या व कैसे हों, क्या बातें अपराध की श्रेणी में आती हैं और कौन सी अपराध से मुक्त हैं, कृषि करने के क्या नियम हों, पशु-पालन की व्यवस्था किस प्रकार की होगी,  सन्ध्या व हवन तथा अन्य कर्तव्यों पर भी उन्होंने प्रकाश डालना था, आदि आदि। इस प्रकार से सामाजिक व राजधर्म सम्बन्धी सभी पहलुओं पर उन्होंने सारगर्भित प्रकाश डालते हुए सामाजिक नियमों का प्रणयन किया। यह ऐसा ही था जैसे कि भारत के स्वतन्त्र होने पर एक संविधान सभा के द्वारा इसके अध्यक्ष व सदस्यों ने परस्पर चर्चा करके संविधान की रचना की। यद्यपि प्राचीन काल में संविधान तो चार वेद थे परन्तु वेदों को सरलतम् रूप में मनुस्मृति द्वारा प्रस्तुत किया गया था। यह कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है जैसे हमें गाय माता से दुग्ध प्राप्त होता है। उस दुग्ध से गोपालक आवश्यकता के अनुसार दधि, नवनीत, घृत व मट्ठा आदि पदार्थों को बनाते है। वेद से इसी प्रकार से आवश्यकतानुसार सामाजिक नियमों का संग्रह महर्षि मनु जी ने किया जिसे ही आजकल मनुस्मृति कहा जाता है।

 

अब इस मनुस्मृति के अनुसार व्यवस्था को चलाना था। अतः जो इन नियमों व समाज संचालन के प्रावधानों को धारण कर सके ऐसे व्यक्ति की तलाश करनी थी। उस समय के योग्यतम व्यक्ति मनु जी ही थे। इसी लिए तो उनसे ही प्रार्थना की गई थी और उन्होंने ही इसका निर्माण भी किया। अतः उपलब्ध ज्ञान के अनुसार हमारा मानना है कि देश के राजा का पद भी सर्वसम्मति से उन्हें ही प्रजा द्वारा दिया गया था। इस प्रकार से पहली सामाजिक व शासन व्यवस्था भारत में अस्तित्व में आयी। हमारे मत का समर्थन इस बात से होता है कि महर्षि मनु को सर्वप्रथम राजा अर्थात् first law giver कहा जाता है। जयपुर के हाई कोर्ट और फ्रांस के सुप्रीम कोर्ट के बाहर राजर्षि मनु की मूर्ति की स्थापना कर उन्हें सम्मानित किया गया है।

 

आज हमारे पौराणिकों में जो मनुस्मृति उपलब्ध है उसका अध्ययन करने पर उसमें अनेकानेक बातें ऐसी हैं जिन्हें कोई भी बुद्धिजीवी व विवेकशील मनुष्य स्वीकार नहीं कर सकता। महर्षि दयानन्द के सामने भी यह स्थिति आई। उन्होंने पूरी मनुस्मृति का अध्ययन किया। जो बाते वेदानुकूल थी वह उनको ग्राह्य लगी और जो वेद व मानवता के विपरीत थी, उसका उन्होंने त्याग किया। विचार करने पर मनुस्मृति की वेद विरूद्ध मान्यताओं का कारण उन्हें समझ आया। कारण यह था कि महाभारतकाल के बाद वेदों के ज्ञान का सूर्य अध्ययन व अध्यापन में आई शिथिलता से धूमिल हो गया। अन्धकार में जिस प्रकार से वस्तु का दर्शन उसके शुद्ध स्वरूप में नहीं होता ऐसा ही मध्यकाल में ज्ञान के ह्रास के कारण अन्ध विश्वास, कुरीतियों व पाखण्डों का जन्म हुआ। कुछ अल्पज्ञानी स्वार्थी व साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के भी थे। मनुस्मृति की वेदों के बाद सर्वोपरि मान्यता थी। वेद देश के अनेक भागों के लोगों को सस्वर स्मरण व कण्ठाग्र थे। उसमें मिलावट करने का उनका साहस नहीं हुआ। ऐसे लोगों ने अपनी इच्छा व स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने अपने मत के श्लोक बनाकर मनुस्मृति के बीच में डालना आरम्भ कर दिया। हमें लगता है कि कुछ श्लोकों का मूल स्वरूप भी परिवर्तित व विकृत किया गया होगा। इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों मुद्रण की व्यवस्था तो थी नहीं। हाथ से ताड़ या भोज पत्रों पर लिखा जाता था। एक प्रति तैयार करने के लिए भी भागीरथ प्रयत्न करना पड़ता था। अतः ऐसे पठित अज्ञानी व अल्पज्ञानी, स्वार्थी, अन्ध विश्वासी एवं साम्प्रदायिक लोग अपनी इच्छानुसार अपनी हस्त-लिखित प्रतियों में अपने आशय व मत विषयक नये श्लोक बनाकर बीच-बीच में जोड़ देते थे। उसके बाद वह ग्रन्थ उन्हीं की मनोवृत्तियों वाले उनके शिष्यों के पास पहुंचता था तो वह भी उसमें स्वेच्छाचार करके कुछ नया जोड़ते थे और संशोधित प्रति तैयार कर लेते थे। फिर उसी प्रक्षिप्त अंशों सहित मनुस्मृति की कथा अज्ञानी व अंधविश्वासी श्रद्धालुओं में करते थे। इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी। हमें लगता है प्रक्षेप करते समय किसी प्रतिलिपि कर्ता ने अपने गुरूओं की आज्ञानुसार अच्छी बातें भी जोड़ी होगीं परन्तु मिथ्या प्रक्षेपों का क्रम मध्यकाल में स्वच्छन्दापूर्वक जारी रहा जिसका प्रमाण परस्पर विरोधी मान्यताओं का यह मनुस्मृति ग्रन्थ बन गया। यह सामान्य बात है कि जब भी कोई विद्वान कोई ग्रन्थ लिखता है तो उसमें विरोधाभास व परस्पर विरोधी मान्यतायें नहीं हुआ करती। पुनरावृत्ति का दोष भी नहीं होता। ऋषि व महर्षि तो साक्षात्कृतधर्मा होते हैं जिन्हें सत्य व असत्य का पारदर्शी ज्ञान होता है। उनके कथन व लेखन में असत्य, सामाजिक असमानता व विषमता व पुनरावृत्ति जैसी बातों का होना असम्भव है। यदि किसी प्राचीन ग्रन्थ में ऐसा पाया जाता है तो वह प्रक्षेपों के कारण होता है। हमारे पौराणिक बन्धुओं की मनुस्मृति इसी प्रकार की पुस्तक है। महर्षि दयानन्द को यह मनुस्मृति अपने विकृत रूप में मान्य नहीं थी। इसलिए उन्होंने बुद्धि संगत श्लोकों को ग्रहण किया और तर्क, युक्ति आदि प्रमाणों के विरूद्ध श्लोकों का त्याग किया। उनके बाद उनके परम भक्त व अनुयायी लाला दीपचन्द आर्य ने स्वस्थापित आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली की ओर से प्रक्षेपयुक्त मनुस्मृति पर अनुसंधान कार्य कराया जिसमें आर्य जगत के विद्वत शिरोमणि पं. राजवीर शास्त्री और डा. सुरेन्द्र कुमार की सेवायें ली गईं। इस अनुसंधान कार्य के सफलतापूर्वक समापन होने पर मनुस्मृति का शुद्ध स्वरूप सामने आया। एक वृहद समीक्षात्मक मनुस्मृति जिसमें शुद्ध व प्रक्षिप्त दोनों प्रकार के श्लोक टिप्पणियों सहित दिए गये हैं और दूसरी पुस्तक विशुद्ध मनुस्मृति जिसमें से प्रक्षिप्त पाये गये श्लोकों को हटा दिया गया है। यही विशुद्ध मनुस्मृति ही ग्राह्य है और इसी का स्वाध्याय करना चाहिये। हम पं. राजवीर शास्त्री जी के शब्दों में मनुस्मृति के महत्व एवं प्रक्षेप के कुछ कारणों को प्रस्तुत करने लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं जिसे आगामी पंक्तियों में प्रस्तुत करते हैं।

 

मनुस्मृति के महत्व पर पं. राजवीर शास्त्री लिखते हैं कि समस्त वैदिक वाडंमय का मूलाधार वेद है और समस्त ऋषियों की यह सर्वसम्मत मान्यता है कि वेद का ज्ञान परमेश्वरोक्त होने से स्वतः प्रमाण एवं निभ्र्रान्त है। इस वेद-ज्ञान का ही अवलम्बन एवं साक्षात्कार करके आप्तपुरूष ऋषि-मुनियों ने साधना तथा तप की प्रचण्डाग्नि में तपकर शुद्धान्तःकरण से वेद के मौलिक सत्य-सिद्धान्तों को समझा और अनृषि लोगों की हितकामना से उसी ज्ञान को ब्राह्मण, दर्शन, वेदांग, उपनिषद् तथा धर्मशास्त्रादि ग्रन्थों के रूप में सुग्रथित किया। महर्षि मनु का धर्मशास्त्र मनुस्मृति भी उन्हीं उच्चकोटि के ग्रन्थों में से एक है। जिसमें चारो वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि-उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, अठारह प्रकार के विवादों एवं सैनिक प्रबन्धन आदि का बहुत सुन्दर सुव्यवस्थित ढंग से वर्णन किया गया है। मनु जी ने यह सब धर्म-व्यवस्था वेद के आधार पर ही कही है। उनकी वेद-ज्ञान के प्रति कितनी अगाध दृढ़ आस्था थी, यह उनके इस ग्रन्थ को पढ़ने से स्पष्ट होता है। मनु ने धर्म-जिज्ञासुओं को स्पष्ट निर्देश दिया है कि धर्म के विषय में वेद ही परम प्रमाण है और धर्म का मूलस्रोत वेद है। मनु का यह धर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है, पुनरपि निश्चित समय बताना बहुत कठिन कार्य है। महर्षि दयानन्द ने मनु को सृष्टि के आदि में माना है – ‘यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई, उसका प्रमाण है।’ (सत्यार्थ प्रकाश)  यहां महर्षि का यही भाव प्रतीत होता है कि धार्मिक मर्यादाओं के सर्वप्रथम व्याख्याता मनु ही थे। मनु ने मानव की सर्वांगीण-मर्यादाओं का जैसा सत्य एवं व्यवस्थित रूप से वर्णन किया है, वैसा विश्व के साहित्य में अप्राप्य ही है।  मनु की समस्त मान्यतायें सत्य ही नहीं, प्रत्युत देश, काल तथा जाति के बन्धनों से रहित होने से सार्वभौम हैं। मनु का शासन-विधान कैसा अपूर्व तथा अद्वितीय है, उसकी समता नहीं की जा सकती। विश्व के समस्त देशों के विधान निर्माताओं ने उसी का आश्रय लेकर विभिन्न विधानों की रचना की है। मनु का विधान प्रचलित साम्राज्यवाद तथा लोकतान्त्रिक त्रुटिपूर्ण पद्धतियों से शून्य, पक्षपात रहित, सार्वभौम तथा रामराज्य जैसे सुखद शान्तिपूर्ण राज्य के स्वप्न का साकार करने वाला होने से सर्वोत्कृष्ट है। इसी का आश्रय करके सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर महाभारत पर्यन्त अरबों वर्षों तक आर्य लोग अखण्ड चक्रवर्ती शासन समस्त विश्व में करते रहे।

 

पं. राजवीर शास्त्री जी ने यद्यपि मनुस्मृति में प्रक्षेपों के 9 कारणों पर प्रकाश डाला है परन्तु हम यहां प्रमुख कारण का उन्हीं के शब्दों में उल्लेख कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ऐसे वेदानुकूल तथा मानव-समाज में प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठा प्राप्त धर्मशास्त्र की मान्यता को देखकर परवत्र्ती वाममार्ग आदि के स्वार्थी क्षुद्राशय लोगों ने अपनी मिथ्या बातों पर विश्वास कराने के लिये जहां ऋषि-मुनियों के नाम से विभिन्न ग्रन्थों की रचना की, वहां ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों में भी प्रक्षेप करने में संकोच नहीं किया। मनुस्मृति से भिन्न अनेक ऐसी स्मृतियों की रचना भी की, जिनका नाम महाभारत तक के प्राचीन साहित्य में कहीं नहीं मिलता। सामान्य जनता का धीरे-धीरे संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ रहना, एक वर्ग विशेष का ही संस्कृत पठन-पाठन पर पूर्णाधिकार हो जाना और प्रकाशनादि की व्यवस्था न होने से परम्परा से हस्तलिखित ग्रन्थों का ही पठन-पाठन में व्यवहार होने से प्रक्षेपकों को प्रक्षेप करने में विशेष बाधा नही हुई। उन्हें जहां भी अवसर मिला, वहीं पर प्रक्षिप्त श्लोकों का मिश्रण करने में वे प्रयत्नशील दिखायी देते हैं। कहीं पूर्ण श्लोक, कहीं अर्ध श्लोक और कहीं-कहीं तो एक चरण का ही प्रक्षेप श्लोकों में दिखायी देता है। यह प्रक्षेप बहुत ही चतुरता से किया गया है, जिसे सामान्य व्यक्ति तो क्या तत्कालीन विद्वान् भी समझ नहीं सके। धार्मिक परम्पराओं से अनुप्राणित, अन्धभक्त और गुरूडम के कारण श्रद्धा करके भारतीय जनता ने ऐसी काल्पनिक बातों को भी नतमस्तक होकर स्वीकार कर लिया।

 

लेख की सीमा का ध्यान रखते हुए उपसंहार में यह बताना भी उचित होगा कि मनुस्मृति में 11 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय सृष्टि तथा धर्म की उत्पत्ति पर है, दूसरा संस्कार एवं ब्रह्मचर्य आश्रम पर, तीसरा समावर्तन, विवाह, पंच-यज्ञ विधान पर, चैथा गृहस्थान्तर्गत आजीविकाओं और व्रतों के विधानों, पांचवा भक्ष्य-अभक्ष्य, प्रेत-शुद्धि, द्रव्य-शुद्धि व स्त्री धर्म विषय पर, छठा अध्याय वानप्रस्थ व संन्यास धर्म विषय पर, सातवां राजधर्म पर, आठवां राज-धर्मान्तर्गत व्यवहारों वा मुकदमों के निर्णय पर, नवां राजधर्मान्तर्गत व्यवहारों के निर्णय, दशवां चातुर्वण्र्य धर्मान्तर्गत वैश्य, शूद्र के धर्म तथा चातुर्वण्य-धर्म का तथा ग्यारहवां प्रायश्चित विषय पर है। प्रत्येक व्यक्ति को इस विशुद्ध मनुस्मृति ग्रन्थ को अवश्य पढ़ना चाहिये जिससे सभी प्रकार की भ्रान्तियां दूर होंगी। यदि हिन्दी भाष्य वा अनुवाद के साथ उपलब्ध विशुद्ध मनुस्मृति के कोई पाठक एक दिन में 15-20 पृष्ठ भी पढ लें, तो मात्र एक महीने से भी कम समय में इसे पूरा पढ़ा जा सकता है। विशुद्ध मनुस्मृति को प्रत्येक व्यक्ति को अवश्य पढ़ना चाहिये, विशेष कर उन लोगों को तो अवश्य पढ़ना चाहिये जो इस ग्रन्थ के आलोचक हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

                –मनमोहन कुमार आर्य

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‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’

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ओ३म्
‘आयुष्काम (महामृत्युंजय) यज्ञ और हम’
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सभी प्राणियों को ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर सत्य, चेतन, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, सर्वातिसूक्ष्म, नित्य, अनादि, अजन्मा, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है। जीवात्मा सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, आकार रहित, सूक्ष्म, जन्म व मरण धर्मा, कर्मों को करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला आदि स्वरूप वाला है। संसार में एक तीसरा एवं अन्तिम पदार्थ प्रकृति है। इसकी दो अवस्थायें हैं एक कारण प्रकृति और दूसरी कार्य प्रकृति। कार्य प्रकृति यह हमारी सृष्टि वा ब्रह्माण्ड है। मूल अर्थात् कारण प्रकृति भी सूक्ष्म व जड़ तत्व है जिसमें ईश्वर व जीवात्मा की तरह किसी प्रकार की संवेदना नहीं होती।

जीवात्मायें अनन्त संख्या में हमारे इस ब्रह्माण्ड में हैं। इनका स्वरूप जन्म को धारण करना व मृत्यु को प्राप्त करना है। मनुष्य जीवन में यह जिन कर्मों को करता है उनमें जो क्रियमाण कर्म होते हैं उसका फल उसको इसी जन्म में मिल जाता है। कुछ संचित कर्म होते हैं जिनका फल भोगना शेष रहता है जो जीवात्मा को पुनर्जन्म प्राप्त कर अगले जन्म में भोगने होते हैं। कर्मानुसार ही जीवों को मनुष्य व इतर पशु, पक्षी आदि योनियां प्राप्त होती हैं। मनुष्य योनि कर्म व भोग योनि दोनो है तथा इतर सभी पशु व पक्षी योनियां केवल भोग योनियां है। यह पशु पक्षी योनियां एक प्रकार से ईश्वर की जेल है जिसमें अनुचित, अधर्म अथवा पाप कर्मों के फलों को भोगा जाता है।

हम, सभी स्त्री व पुरूष, अत्यन्त भाग्यशाली हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा, दया तथा हमारे पूर्व जन्म के संचित कर्मों अथवा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य योनि प्राप्त हुई। इसका कारण है कि मनुष्य योनि सुख विशेष से परिपूर्ण हैं तथा इसमें दुख कम हैं जबकि इतर योनियों में सुख तो हैं परन्तु सुख विशेष नहीं है और दुःख अधिक हैं। वह उन्नति नहीं कर सकते हैं जिस प्रकार से मनुष्य योनि में हुआ करती है। हमें मनुष्य जन्म ईश्वर से प्राप्त हुआ है। यह क्यों प्राप्त हुआ? इसका या तो हमें ज्ञान नहीं है या हम उसे भूले हुए हैं। पहला कारण व उद्देश्य तो यह है कि हमें पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्मों अर्थात् अपने प्रारब्ध के अच्छे व बुरे कर्मों के फलों के अनुरूप सुख व दुःखों को भोगना है। दूसरा कारण व उद्देश्य अधिक से अधिक अच्छे कर्म यथा, ईश्वर भाक्ति अर्थात् उसकी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने के साथ यज्ञ-अग्निहोत्र, सेवा, परोपकार, दान आदि पुण्य कर्मों को करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपना ज्ञान भी अधिक से अधिक बढ़ाना होगा अन्यथा न तो हम अच्छे कर्म ही कर पायेंगे जिसका कारण हमारा यह जीवन व मृत्यु के बाद का भावी जीवन भी दुःखों से पूर्ण होगा। ज्ञान की वृद्धि केवल आजकल की स्कूली शिक्षा से सम्भव नहीं है। यह यथार्थ ज्ञान व विद्या वेदों व वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होती हैं जिनमें जहां वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं वहीं सरलतम व अपरिहार्य ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, व्यवहारभानु, संस्कार विधि आदि भी हैं। इन ग्रन्थों के अध्ययन से हमें अपने जीवन का वास्तविक उद्देश्य पता चलता है। वह क्या है, वह है धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है जो विचारणीय है। यह जीवात्मा की ऐसी अवस्था है जिसमें जीवन जन्म-मरण के चक्र से छूट कर मुक्त हो जाता है। परमात्मा के सान्निध्य में रहता है और 31 नील 10 खरब व 40 अरब वर्षों (3,11,04,000 मिलियन वर्ष) की अवधि तक सुखों व आनन्द को भोगता है। इसको विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना चाहिये।

ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया और उसके माध्यम से यज्ञ-अग्निहोत्र करने की प्रेरणा और आज्ञा दी। ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है। उसकी आज्ञा का पालन करना हमारा परम कर्तव्य है। हम सब मनुष्य, स्त्री व पुरूष वा गृहस्थी, यज्ञ क्यों करें? इसलिए की इससे वायु शुद्ध होती है। शुद्ध वायु में श्वांस लेने से हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है, हम बीमार नहीं पड़ते और असाध्य रोगों से बचे रहते हैं। हमारे यज्ञ करने से जो वायु शुद्ध होती है उसका लाभ सभी प्राणियों को होता है। दूसरा लाभ यह भी है कि यज्ञ करने से आवश्यकता व इच्छानुसार वर्षा होती है और हमारी वनस्पतियां व ओषधियां पुष्ट व अधिक प्रभावशाली होकर हमारे जीवन व स्वास्थ्य के अनुकूल होती हैं। यज्ञ करने से 3 लाभ यह भी होते हैं कि यज्ञ में उपस्थित विद्वानों जो कि देव कहलाते हैं, उनका सत्कार किया जाता है व उनके अनुभव व ज्ञान से परिपूर्ण उपदेशामृत श्रवण करने का अवसर मिलता है। यज्ञ करना एक प्रकार का उत्कृष्ट दान है। हम जो पदार्थ यज्ञ में आहुत करते हैं और जो दक्षिणा पुरोहित व विद्वानों को देते हैं उससे यज्ञ की परम्परा जारी रहती है जिससे हमें उसका पुण्य लाभ मिलता है। यज्ञ में वेद मन्त्रों का उच्चारण होता है जिसमें हमारे जीवन के सुखों की प्राप्ति, धन ऐश्वर्य की वृद्धि, यश व कीर्ति की प्राप्ति, ईश्वर आज्ञा के पालन से पुण्यों की प्राप्ति जिससे प्रारब्ध बनता है और जो हमारे परजन्म में लाभ देने के साथ हमारे मोक्ष रूपी अभीष्ट व उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ हमें मोक्ष के निकट ले जाता है। हमारे आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम तथा श्री योगेश्वर कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द भी यज्ञ करते कराते रहे हैं। महर्षि दयानन्द ने आदि ऋषि व राजा मनु का उल्लेख कर प्रत्येक गृहस्थी के लिए प्रातः सायं ईश्वरोपासना-ब्रह्मयज्ञ-सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र को अनिवार्य कर्तव्य बताया है। हम ऋषि-मुनियों व विद्वान पूर्वजों की सन्ततियां हैं। हमें अपने इन पूर्वजों का अनुकरण व अनुसरण करना है तभी हम उनके योग्य उत्तराधिकारी कहे जा सकते हैं। यह सब लाभ यज्ञ व अग्निहोत्र करने से होते हैं। अन्य बातों को छोड़ते हुए अपने अनुभव के आधार पर हम यह भी कहना चाहते हैं कि यज्ञ करने से अभीष्ट की प्राप्ति व सिद्धि होती है। उदाहरणार्थ यदि हम रोग मुक्ति, सुख प्राप्ति व लम्बी आयु के लिए यज्ञ करते हैं तो हमारे कर्म व भावना के अनुरूप ईश्वर से हमें हमारी प्रार्थना व पात्रता के अनुसार फल मिलता है अर्थात् हमारी सभी सात्विक इच्छायें पूरी होती हैं और प्रार्थना से भी कई बार अधिक पदार्थों की प्राप्ति होती है। इसके लिए अध्ययन व अखण्ड ईश्वर विश्वास की आवश्यकता है।

मृत्युंजय मन्त्र ‘त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्। उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।’ में कहा गया है कि हम आत्मा और शरीर को बढ़ानेवाले तथा तीनों कालों, भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता परमेश्वर की प्रतिदिन अच्छी प्रकार वेद विधि से उपासना करें। जैसे लता से जुड़ा हुआ खरबूजा पककर सुगन्धित एवं मधुर स्वाद वाला होकर बेल से स्वतः छूट जाता है वैसे ही हे परमेश्वर ! हम यशस्वी जीवनवाले होकर जन्म-मरण के बन्धन से छूटकर आपकी कृपा से मोक्ष को प्राप्त करें। यह मन्त्र ईश्वर ने ही रचा है और हमें इस आशय से प्रदान किया कि हम ईश्वर से इसके द्वारा प्रार्थना करें और स्वस्थ जीवन के आयुर्वेद आदि ग्रन्थों में दिए गये सभी नियमों का पालन करते हुए ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना को करके बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त हों। हम शिक्षित बन्धुओं से अनुरोध करते हैं कि वह यज्ञ विज्ञान को जानकर उससे लाभ उठायें।
-मन मोहन कुमार आर्य
निवासः 196 चुक्खूवाला-2
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श्रेष्ठ मानव जीवन का आधार – ‘वैदिक संस्कार’

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ओ३म्

श्रेष्ठ मानव जीवन का आधार – ‘वैदिक संस्कार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

संस्कार की चर्चा तो सभी करते व सुनते हैं परन्तु संस्कार का शब्दार्थ व भावार्थ क्या है? संस्कार किसी अपूर्ण, संस्काररहित या संस्कारहीन वस्तु या मनुष्य को संस्कारित कर उसका इच्छित लाभ लेने के लिए गुणवर्धन या अधिकतम मूल्यवर्धन value addition करना है। यह गुणवर्धन व मूल्यवर्धन भौतिक वस्तुओं का किया जाये तो वैल्यू एडीसन कहलाता है और यदि मनुष्य का करते हैं तो इसे ही संस्कार कह कर पुकारते हैं।

 

मनुष्य जन्म के समय शिशु शारीरिक बल व ज्ञान से रहित होता है। पहला कार्य तो अच्छी प्रकार से उसका पालन-पोषण द्वारा शारीरिक उन्नति करना होता है। इसे शिशु का शारीरिक संस्कार कह सकते हें। यह कार्य माता के द्वारा मुख्य रूप से होता है जिसमें पिता व परिवार के अन्य लोग भी सहायक होते हैं। बच्चा माता का दुग्ध पीकर, कुछ माह पश्चात स्वास्थ्यय व पुष्टिवर्धक भोजन कर तथा व्यायाम आदि के द्वारा शारीरिक विकास व वृद्धि को प्राप्त होता है। मनुष्य की पहली उन्नति शरीर की उन्नति होती है और इसके लिए जो कुछ भी किया जाता है वह भी संस्कार ही हैं। शारीरिक उन्नति के पश्चात सन्तान के लिए सुशिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा रहित सन्तान शूद्र, पशु वा ज्ञानहीन कहलाती है और शिक्षा प्राप्त कर उसकी संज्ञा द्विज अर्थात ज्ञानवान होती है और वह अपने प्रारब्ध व इस जन्म के आचार्यों द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बनकर देश व समाज की उन्नति में योगदान करता है। इस प्रकार से संस्कार की यह परिभाषा सामने आती है कि जीवन की उन्नति जो कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, के लिए जो-जो शिक्षा, वेदाध्ययन आदि कार्य व क्रियाकलाप किये जाते हैं वह संस्कार कहलाते हैं।

 

चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो कि सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वैदिक भाषा संस्कृत के ज्ञान सहित दिये गये थे। इन वेदों में ईश्वर ने वह ज्ञान मनुष्यों तक पहुंचाया जो आज 1,96,08,53,114 वर्ष बाद भी सुलभ है। यह वेदों का ज्ञान ही मनुष्य की समग्र उन्नति का आधार है। इस ज्ञान को माता-पिता और आचार्यों से पढ़कर मनुष्य की समग्र शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होती है। उदाहरण के रूप में हम आदि पुरूष ब्रह्माजी, महर्षि मनु, पतजंलि, कपिल, कणाद, गौतम, व्यास, जैमिनी, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द आदि ऐतिहासिक महापुरूषों को ले सकते हैं जिनकी शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक उन्नति का आधार वेद था। वेदाध्ययन यद्यपि वेदारम्भ और उपनयन इन दो संस्कारों के अन्तर्गत आता है परन्तु इन दोनों संस्कारों का महत्व अन्यतम है। नित्य आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का भी जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के आधार पर जिन सोलह संस्कारों का विधान है वह क्रमशः गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह-गृहस्थ, वानप्रस्थ-संन्यास व अन्त्येष्टि संस्कार हैं। इन संस्कारों को करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित, संस्कारित एवं ज्ञानवान होती है और जीवन के चार पुरूषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकती है। इनके साथ नित्य प्रति पंचमहायज्ञों यथा सन्ध्योपासना, दैनिक अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का करना अनिवार्य है। इन संस्कारों को विस्तार से जानने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत संस्कार विधि ग्रन्थ और इसके अनेक व्याख्या ग्रन्थ जिनमें संस्कार भास्कर और संस्कार चन्द्रिका आदि मुख्य हैं, का अध्ययन लाभप्रद होता है।

 

वैदिक धर्म और संस्कृति में वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन किए हुए युवक व युवति का विवाह योग्य सन्तान और देश के श्रेष्ठ नागरिकों की उत्पत्ति के लिए होता है। संसार के शिक्षित और अशिक्षित सभी माता-पिता अपनी सन्तानों को स्वस्थ, दीर्घायु, बलवान, ईश्वरभक्त, धर्मात्मा, मातृ-पितृ-आचार्य-भक्त, विद्यावान, सदाचारी, तेजस्वी, यशस्वी, वर्चस्वी, सुखी, समृद्ध, दानी, देशभक्त आदि बनाना चाहते हैं। इसकी पूर्ति केवल वैदिक धर्म के ज्ञान व तदनुसार आचरण से ही सम्भव है। आज की स्कूली शिक्षा में वह सभी गुण एक साथ मिलना असम्भव है जिससे ऐसे योग्य देशभक्त नागरिक उत्पन्न हो सकें। केवल वैदिक शिक्षा से ही इन सब गुणों का एक व्यक्ति में होना सम्भव है जिसके लिए अनुकुल सामाजिक वातावरण भी आवश्यक है। हमारे सभी वैदिक कालीन और कलियुग में महर्षि दयानन्द इन्हीं वैदिक संस्कारों में दीक्षित महात्मा थे। वेदों के ज्ञान के कारण ही हमारे देश में ऋषि, महर्षि, योगी, सन्त आदि हुए हैं। अन्य देशों में यह सब गुण किसी एक व्यक्ति में पूरी सृष्टि के इतिहास में नहीं देखे गये हैं। हमारे पौराणिक मित्र व बन्धु वेदों के अध्ययन व आचरण को त्याग कर पुराण सम्मत मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, छुआछूत, जन्म पर आधारित जातिवाद जैसे अवैदिक व अनुचित कृत्यों को करने में समय लगाते हैं। इन अवैदिक कृत्यों का जीवन से निराकरण केवल पक्षपातरहित होकर सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर सदविवेक से कार्य करने पर ही हो सकता है।

 

सन् 1947 में भारत विदेशी दासता से स्वतन्त्र हुआ। आवश्यकता थी कि देश में सर्वत्र, आध्यात्मिक जीवन में सत्य की प्रतिष्ठा हो, परन्तु इसके विपरीत धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त बना जहां ईश्वर के सत्य ज्ञान वेदों  को प्रतिष्ठा नहीं मिली। सभी मतों की पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। इन्हें संस्कारों व कुसंस्कारों का मिश्रण कहा जा सकता है। अलग-अलग उपासना पद्धतियों से परिणाम भी निश्चित रूप से अलग-अलग ही होंगे। सभी उपासना पद्धतियों से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होना असम्भव है। वह केवल वैदिक उपासना पद्धति से ही सम्भव है। अतः संस्कारों को केन्द्र में रखते हुए अपने जीवन को सत्य को ग्रहण करने वाला, असत्य को निरन्तर व हर क्षण छोड़ने के लिए तत्पर रहने वाला, सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करने वाला बनाना होगा। यह संस्कारों से ही सम्भव है और यह संस्कार मर्यादा पुरूषोत्तम राम व योगश्वर कृष्ण सहित हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती में रहें हैं जिनका हमें अनुकरण करना है। इन महापुरूषों के जीवन चरित का अध्ययन कर उनके गुणों को आत्मसात कर सुसंस्कारित हुआ जा सकता है।

 

निष्कर्ष यह है कि संस्काररहित मनुष्य पशु के समान होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को संस्कार विधि का गहन अध्ययन कर संस्कारों की विधि और उनके महत्व को जानना व समझना चाहिये। वेदाध्ययन कर वेदानुसार आचरण करना चाहिये। शारीरिक उन्नति पर ध्यान देना चाहिये। शुद्ध शाकाहारी व पुष्टिकारक भोजन करते हुए संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर व उसकी उपासना पद्धतियां – एक वा अनेक?’

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ओ३म्

विचार व चिन्तन

ईश्वर उसकी उपासना पद्धतियांएक वा अनेक?’

 

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

हम संसार में देख रहे हैं कि अनेक मत-मतान्तर हैं। सभी के अपने-अपने इष्ट देव हैं। कोई उसे ईश्वर के रूप में मानता है, कोई कहता है कि वह गाड है और कुछ ने उसका नाम खुदा रखा हुआ है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भाषाओं में एक ही संज्ञा – माता के लिए मां, अम्मा, माता, मदर, मम्मी या अम्मी आदि नाम हैं उसी प्रकार से यह ईश्वर के अन्य-अन्य भाषाओं व उपासना पद्धतियों में ईश्वर के नाम हैं। क्या यह ईश्वर, ळवक व खुदा अलग-अलग सत्तायें हैं? कुछ ऐसे मत भी हैं जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते तथा अपने मत के संस्थापकों को ही महान आत्मा मानते हैं जिनकी स्थिति प्रकारान्तर से ईश्वर के ही समान व ईश्वर की स्थानापन्न है। जहां तक सभी मतों का प्रश्न है, हमने अनुभव किया है कि सभी मतों के सामान्य अनुयायी अपनी बुद्धि का कम ही प्रयोग करते हैं। उन्हें जो भी मत के प्रवतर्कों व उसके नेताओं द्वारा कहा या बताया जाता है या जो उन्हें परम्परा से प्राप्त हो रहा है, उस पर आंखें बन्द कर विश्वास कर लेते हैं। उनकी वह आदत, कार्य व व्यवहार उनके अपने जीवन के लिए हानिकर ही सिद्ध होती है एवं इसके साथ यह देश व समाज के लिए भी अहित कर सिद्ध होती है। यहां यदि विचार करें तो यह ज्ञात होता है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बुद्धि तत्व लगभग समान रूप से दिया है। इस बुद्धि तत्व का प्रयोग व उपयोग बहुत कम लोग ही करना जानते हैं। आजकल बहुत से लोग ऐसे हैं जो विद्या का अध्ययन धनोपार्जन के लिए करते हैं। उनके जीवन का एक ही उद्देश्य है कि अधिक से अधिक धन का उपार्जन करना और उससे अपने व अपने परिवार के लिए सुख व सुविधा की वस्तुओं को उपलब्ध करना तथा उन सबका जी भर कर उपयोग करना। यह मानसिकता व सोच हमें बहुत ही घातक अनुभव होती है। एकमात्र धन की ही प्राप्ति में मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर उससे इतनी दूर चला जाता कि जहां से वह कभी लौटता नहीं है और उसका यह जीवन एक प्रकार से नष्ट प्रायः हो जाता है।

हम यह मानते हैं कि धन की जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है परन्तु जिस प्रकार से हर चीज की सीमा होती है उसी प्रकार से धन की भी एक सीमा है। उस सीमा से अधिक धन, धन न होकर हमारे पतन व नाश का कारण बन सकता है व बनता है। इस धन को अर्थ नहीं अपितु अनर्थ कहा जाता है। जिस प्रकार से भूख से अधिक भोजन करने पर उसका पाचन के यन्त्रों पर कुप्रभाव पड़ता है उसी प्रकार से आवश्यकता से कहीं अधिक धन का उपार्जन व संचय, जीवन व उसके उद्देश्य की प्राप्ति पर कुप्रभाव डालता है। हमारे ऋषि-मुनि-योगी साक्षात्कृतधर्मा होते थे जिन्हें अपने ज्ञान व विवेक से किसी भी क्रिया के परिणाम का पूरा ज्ञान होता था। उन्होंने एक सूत्र दिया कि जो व्यक्ति धन व काम की एषणा से युक्त है, उसे धर्म का ज्ञान नहीं होता। धर्म का सम्बन्ध हमारे दैनिक कर्तव्यों एवं आचार, विचार व व्यवहार से होता है। दैनिक कर्तव्य क्या हैं यह आज के ज्ञानी व विद्वानों तक को पता नहीं है। इन दैनिक कर्तव्यों में प्रातः उठकर शारीरिक शुद्धि करके ईश्वर के गुणों व स्वरूप का ध्यान कर निज भाषा एवं वेद मन्त्रों से अर्थ सहित सर्वव्यापाक व निराकार ईश्वर प्रार्थना की जाती है। उसका धन्यवाद किया जाता है जिस प्रकार से हम अपने सांसारिक जीवन में किसी से कृतज्ञ होने पर उसका धन्यवाद करते हैं। ईश्वर ने भी हमें यह संसार बना कर दिया है। हमें माता-पिता-आचार्य-भाई-बहिन-संबंधी-मित्र-भौतिक सम्पत्ति-हमारा शरीर-स्वास्थ्य आदि न जाने क्या-क्या दिया है। इस कारण वह हम सब के धन्यवाद का पात्र है। इन्हीं सब बातों पर विचार व चिन्तन करना, ईश्वर के गुणों व उपकारों का चिन्तन व ध्यान करना ही ईश्वर की उपासना कहलाती है। इससे मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। इससे निराभिमानता का गुण प्राप्त होता है। निराभिमानता से मनुष्य अनेक पापों से बच जाता है। दूसरा कर्तव्य यज्ञ व अग्निहोत्र का करना है। तीसरा कर्तव्य माता-पिता आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन है जिससे माता-पिता पूर्ण सन्तुष्ट हों। इसे माता-पिता की पूजा भी कह सकते हैं। इसके बाद अतिथि यज्ञ का स्थान आता है जिसमें विद्वानों व आचार्यों का पूजन अर्थात् उनका सम्मान व उनकी आवश्यकता की वस्तुएं उन्हें देकर उनको सन्तुष्ट करना होता हैं। अन्तिम मुख्य दैनिक कर्तव्य बलिवैश्वदेव यज्ञ है जिसमें मनुष्येतर सभी प्राणियों मुख्यतः पशुओं व कीट-पतंगों को भोजन कराना होता है।

हम बात कर रहे थे कि अनेकानेक मतों में अपने अपने गुरू व अपने-अपने भगवान हैं। सबकी पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। क्या वास्तव में ईश्वर भी अलग-अलग हैं व एक है? यदि एक है तो फिर सब मिलकर उसके एक सत्य स्वरूप का निर्धारण करके समान रूप से एक ही तरह से पूजा या उपासना क्यों नहीं करते? इसका उत्तर ढूढंना ही इस लेख का उद्देश्य है। ईश्वर केवल एक ही है, पहले इस पर विचार करते हैं। संसार में ईश्वर वस्तुतः एक ही है। एक से अधिक यदि ईश्वर होते तो न तो यह संसार बन सकता था और न ही चल सकता है। हम एक उदाहरण के लिए एक बड़े संयुक्त परिवार पर विचार कर सकते हैं। यदि परिवार का एक मुख्या न हो, समाज का एक प्रतिनिधि न हो, प्रान्त का एक मुख्य मंत्री न हो और देश का एक प्रधान न होकर अनेक प्रधान मंत्री हों तो क्या देश कभी चल सकता है? कदापि नहीं। आज हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं, यदि सभी दलों के या एक से अधिक दलों के दो-चार या छः प्रधान मंत्री बना दें तो देश की जो हालत होगी वही एक से अधिक ईश्वर के होने पर इस संसार या ब्रह्माण्ड की होने का अनुमान आसानी से कर सकते हैं। हम पौराणिक भगवानों को देखते हैं कि पुराणों की कथाओं में उनमें परस्पर एकता न होकर कईयों में इस बात का विवाद हो जाता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा है। वैष्णव स्वयं को शैवों से श्रेष्ठ मानते हैं और शैव स्वयं को वैष्णवों से श्रेष्ठ। अतः हमें हमारे प्रश्न का उत्तर मिल गया है कि संसार व ब्रह्माण्ड केवल एक सर्वव्यापक, चेतन सत्ता ईश्वर स ेचल सकता है, उनके सत्ताओं से कदापि नहीं। संसार का रचयिता, संचालक, पालक व प्रलयकर्ता ईश्वर केवल एक ही सत्ता है जो पूर्ण धार्मिक और सब प्राणियों का सच्चा हितैषी है और वह माता-पिता-सच्चे आचार्य के समान सबके कल्याण की भावना से कार्य करता है।

अब उपासना पद्धतियों की चर्चा करते हैं। उपासना का अर्थ होता है पास बैठना। जैसे विद्यालय में एक कक्षा में विद्यार्थी अगल-बगल में बैठते हैं। जहां गुरू सामने बैठ या खड़ा होकर उपदेश दे रहा होता है तो वह गुरू-शिष्य एक दूसरे की उपासना कर रहे होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सबके पास पहले से ही उपस्थित व मौजूद है। उसे मिलने या प्राप्त करने के लिए कहीं आना-जाना नहीं है। हमारा मन व ध्यान सांसारिक वस्तुओं में लगा रहता है जिसका अर्थ है कि हम उन-उन सांसारिक वस्तुओं की उपासना कर रहे होते हैं। यदि हम सभी सांसारिक विषयों से अपना मन व ध्यान हटाकर ईश्वर के गुणों व उसके स्वरूप में स्थिर कर लेते हैं तो यह ईश्वर की उपासना होती है। इसके अलावा ईश्वर की किसी प्रकार से उपासना हो नहीं सकती है। योग दर्शन में महर्षि पतंजलि जी ने भी ईश्वर की उपासना का यही तरीका व विधि बताई है। ध्यान अर्थात् ईश्वर के स्वरूप वा उसके गुणों का विचार व चिन्तन ध्यान करलाता है जो लगातार करते रहने से समाधि प्राप्त कराता है। समाधि में ईश्वर के वास्तविक स्वरूप व प्रायः सभी मुख्य गुणों का साक्षात् व निभ्र्रान्त ज्ञान होता है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः, अन्य दूसरा कोई मार्ग या उपासना पद्धति इस लक्ष्य को प्राप्त करा ही नही सकती। यही मनुष्य जीवन का और किसी जीवात्मा का परम लक्ष्य या उद्देश्य है। अतः ईश्वर की पूजा, उपासना, स्तुति व प्रार्थना आदि सभी की विधि केवल यही है और इसी प्रकार से उपासना करनी चाहिये व की जा सकती है। बाह्याचार आदि जो सभी मतों में दिखाई देता है वह पूर्ण उपासना न होकर आधी-अधूरी व आंशिक उपासना ही कह सकते हैं जिससे परिणाम भी आधे व अधूरे ही प्राप्त होते हैं। अतः सभी मनुष्यों को चाहें वह किसी भी मत, धर्म, सम्प्रदाय या मजहब के ही क्यों न हों, सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय एवं वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन, स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना चाहिये। यही ईश्वर की सही उपासना पद्धति है और इसी से ईश्वर की प्राप्ति अर्थात् साक्षात्कार होगा। ईश्वर केवल एक ही है और नाना भाषाओं में उसके नाना व भिन्न प्रकार के नाम यथा, ईश्वर, राम, कृष्ण, खुदा व गौड आदि शब्द उसी के लिए प्रयोग किये जाते हैं। ईश्वर का मुख्य नाम केवल एक है और वह है “ओ३म्” जिसमें ईश्वर के सब गुणों का समावेश है। इस ओ३म् नाम की तुलना में ईश्वर का अन्य कोई नाम इसके समान, इससे अधिक व प्रयोजन को प्राप्त नहीं कर सकता। “ओ३म्” का अर्थ पूर्वक ध्यान व चिन्तन करने से भी उपासना होती है और इससे समयान्तर पर मन की शान्ति सहित अनेकानेक लाभ होते हैं। रोगों का शमन व स्वास्थ्य लाभ भी होता है। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। पाठकों की निष्पक्ष प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत है।

मनमोहन कुमार आर्य

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