आओ, (सुत्रामाणं) उत्कृष्ट त्राण करनेवाली, ( पृथिवीं) विस्तीर्ण, ( द्यां ) प्रकाशपूर्ण, (अनेहसं ) पापरहित, ( सुशर्माणं) उत्तम सुख दनेवाली (अदितिं ) खण्डित न होनेवाली, ( सु-प्रणीतिं ) शुभ उत्कृष्ट नीतिवाली, (सु-अरित्रां) उत्कृष्ट चप्पुओंवाली, (अनागसं ) अपराध-रहित, निर्दोष, । ( अस्रवन्तीं) न चूनेवाली, छिद्ररहित (दैवींनावं) दैवी नाव । पर ( आ रुहेम) आ चढ़े ( स्वस्तये ) कल्याण के लिए।
सांसारिक यातनाओं का विकराल समुद्र धाड़े मार रहा है। ज्वार बढ़ता ही जा रहा है। लगता है यह सारी धरती को ही निगल लेगा। ईष्र्या-राग-द्वेष की भयङ्कर लहरों का आघात प्रतिघात हो रहा है। हिंसा-उपद्रवों के मगरमच्छ मुँह फाड़ रहे हैं। दम्भ छल-प्रपञ्च की दीर्घकाय ह्वेल मछलियाँ निगलने को तैयार हैं। काम-क्रोध, आधि-व्याधि की नोकीली चट्टानें छलनी करने को खड़ी हैं। लोभ-मोह के विषैले जलजन्तु ग्रसने की ताक लगाये हैं। कौन कह सकता है क्या होनेवाला है? लगता है सर्वनाश उपस्थित है। यदि अपने को सुरक्षित करना चाहते हो तो नौका पर सवार हो जाओ। पर यह लकड़ी के तख्तों की या लोहे की चादर की नौका क्या लहरों के थपेड़ों को सह सकेगी? और यह छोटी-सी नौका भला कितनों को अपने अन्दर बैठा पायेगी! इन सांसारिक नौकाओं और जलपोतों से काम नहीं चलेगा। दैवी नौका तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। यह है प्रभुदेव की शरण-रूप नौका। यह नाव बहुत विस्तीर्ण है, धरती के सब लोग इसमें समा सकते हैं। आओ, इस अभयदायिनी नाव पर सवार हो जाएँ। आओ, समय रहते इस नौका को पकड़ लो, फिर पछताने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा। |
यह प्रभु शरण की नाव ‘सुत्रामा’ है, सब विपदाओं से बचा सकनेवाली है। यह ‘पृथिवी’ है, सुविशाल है। यह ‘द्यौ’ है, करोड़ों विद्युत्-प्रदीपों-जैसे दिव्य प्रकाशवाली है। यह दुनियाबी पाप-वासनाओं से शून्य है। इसमें सुख ही सुख है, दुःख का लव-लेश तक नहीं है। यह मत सोचो कि यह टूट जाएगी, तब हमारा क्या होगा? यह ‘अदिति’ है, अखण्डनीय है। यह ‘सु-प्रणीति’ है, सुन्दर उत्तम राह पर चलनेवाली है। यह ‘सु-अरित्रा’ है, इसमें सत्य, अहिंसा, त्याग, तपस्या, शान्ति, धृति, क्षमा, निर्भयता आदि के सुन्दर चप्पू लगे हुए हैं, जिनसे यह बीच में ही न डुबा कर निश्चित रूप से पार पहुँचानेवाली है। यह ‘अनागाः’ हैं, इसमें आकर जो बैठ जाते हैं, उनकी अपराधवृत्ति समाप्त हो जाती है। यह ‘अस्रवन्ती’ है, छेदोंवाली नहीं है, जिससे यह आशङ्का हो कि इसमें विपदाओं का पानी भर जाने पर कहीं यह डूब न जाए। इस दैवी नाव पर चढ़ जाने में स्वस्ति ही स्वस्ति है, कल्याण ही कल्याण है। आओ, इस दैवी नौका पर चढ़कर अपनी हितसाधना कर लें।
हनुमान जी जिनको महावीर जी भी कहा जाता है हिन्दू समाज में एक विशेष स्थान रखते हैं। राम के साथ वे रामायण के सर्वप्रमुख पात्र हैं। राम को यदि हनुमान जी का सहयोग प्राप्त न हुआ होता तो राम को सीता का पता लगाना भी सम्भव नहीं था तथा रावण के साथ युद्ध में राम का विजय होना भी संदिग्ध हो जाता। लक्ष्मण शक्ति के बाद संजीवनी बूटी की खोज करना और उसे लाकर उसको पुनर्जीवित करना हनुमान जी के ही उद्योग का फल था अन्यथा राम को लक्ष्मण जी के जीवन की आशा ही नहीं रह गयी थी।
हनुमान जी को अकेले लंका में जाकर वहां सीता जी का पता लगाना, रावण के द्वारा बन्दी बनाये जाने पर सारी लंका में हल-चल मचा देना जिसे कवियों ने अपनी भाषा में आग लगा देना लिखा है जो हनुमान जी की वीरता, धीरता, राजनीतिज्ञता, चतुरता एवं शारीरिक बल का अद्भुत प्रमाण उपस्थित करता है।
भारतीय आर्य जाति में हनुमान जी का अत्याधिक आदर है। उनकी मूर्तियाँ व चित्र सर्वत्र इस देश में प्रतिष्ठा के साथ लगाये व पूजे जाते हैं। उनके महान् ब्रह्मचर्य की गाथायें बालकों को सुनाकर सच्चरित्रवान बनने के उपदेश दिये जाते हैं। सारे संस्कृत साहित्य में उनको महान् आदित्य ब्रह्मचारी के रूप में आदर के साथ स्मरण किया गया है। महर्षि बाल्मीकि ने संस्कृत में तथा अन्य भाषाओं की रामायणें भी राम के साथ-साथ हनुमान जी के शौर्य पर्ण वर्णन की गाथाओं से भरी पड़ी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर हनुमान आर्य जाति के परममान्य आदरणीय एवं अनुकरणीय चरित्रवान् महान व्यक्ति हुए हैं तथा सम्पूर्ण समाज उनको अपना पूर्वज गौरव के साथ स्वीकार करता है।
महावीर हनुमान जी का कोई जीवन चरित्र पृथक् कभी नहीं लिखा गया है। कुछ एक छोटी जीवनियां उनकी एक दो स्थानों से छपी थीं किन्तु वे अधूरी एवं बिना विशेष खोज के साथ लिखी गयी थी। पौराणिक साहित्य में भी हनुमान जी के विषय में अनेक पुराणकारों अनेक प्रकार के परस्पर विरुद्ध विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें हनुमान जी के उज्जवल रूप करने के स्थान पर उनको कलंकित करने का प्रयत्न किया गया है। साथ ही वे विवरण इतने बुद्धि विरुद्ध भी हैं कि उनको पढ़कर उनके लेखकों की बुद्धि पर तरस भी आता है। हनुमान जी को तुलसीदास जी ने तो स्पष्टतया “कपि” लिखकर पशु अर्थात् बन्दर ही घोषित कर दिया है जबकि दूसरे रामायण लेखकों ने उनको वैदिक आदर्शों से ओत-प्रोत महामानव प्रतिपादित किया है। हम प्रथम हनुमान जी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न पौराणिक ग्रन्थों के कुछ विवरण उद्दधृत करते हैं।
शिवपुराणमेंहनुमानजीकीउत्पत्ति
शिव पुराण शतरुद्र संहिता अध्याय २० में हनुमान जी की उत्पत्ति निम्न प्रकार से लिखी हुई है।
(शिवपुराण) अर्थ-एक समय गुण युक्त लीला करने वाले प्रभु शिवजी ने विष्णु का मोहिनी रूप देखा ॥३॥ तो कामदेव के बाणों से ताड़ित हुए शिवजी ने अपने आपको काम से व्याकुल किया और रामचन्द्र जी के कार्य के निमित्त अपना वीर्य गिराया ॥४॥ तब आदर से रामचन्द्र जी के कार्य के अर्थ मन से शिवजी के द्वारा प्रेरणा किये हुए उन सप्त ऋषियों ने उस वीर्य को पत्ते पर स्थापित किया ॥५॥ उन महर्षियों ने वह शिवजी का वीर्य गौतम की पुत्री अन्जनी में (उसके कान में घुसेड़ कर ) रामचन्द्र जी के कार्यार्थ प्रवेश किया ॥६॥ उस समय उस वीर्य से महाबली तथा पराक्रम युक्त बानर के शरीर वाले हनुमान नामक शिवजी उत्पन्न हुए ॥७॥
इस कथा में हनुमान जी को शिवजी के वीर्य से उत्पन्न होने के कारण उन्हें शिवजी का अवतार बताया गया है किन्तु जो तरीका ऊपर लिखा है वह सर्वथा मिथ्या है। अंजनी के साथ शिवजी का विषय भोग होकर यदि गर्भाध न दिखाकर हनुमान जी की उत्पत्ति पुराणकार ने दिखाई होती तब तो बात कुछ ठीक-ठीक बन भी जाती, किन्तु शिवजी का मोहनी स्त्री रूपधारी विष्णु को देखकर वीर्यपात हो जाना और सप्तर्षियों का उस वीर्य के झरते ही उसे पत्ते या दौने में जमा कर लेना तथा उसे अंजनी के कान में घुसेड़ कर अंजनी के गर्भाधान हो जाना यह बात बताना व उस गर्भ से हनुमान बालक की पैदायश का लिखना स्पष्ट चन्डूखाने की गल्प है। स्त्री के न तो कान में होकर गर्भाध न हो सकता है और न भागते हुए शिवजी के वीर्यपात होने पर उस वीर्य को जमा करने के लिए लोटा, कटोरा या दौना लिए पहले ही से सप्तर्षियों के वहाँ तैयार रहने की बात ही सच्ची मानी जा सकती है तथा यह भी नहीं हनुमान जी बन्दर नहीं थे माना जा सकता है कि शिवजी को कोई भयंकर प्रमेह का रोग होगा।
भागवत में हनुमान जी की उत्पत्तिइस कथा के मिथ्या होने की पुष्टि भागवत पुराण से ही हो जाती है उसमें तथा एक स्थान पर स्कन्द पुराण अध्याय ८, श्लोक १२ में लिखा है कि एक बार विष्णु के मोहिनी अवतार के सुन्दर रूप को देखकर शिवजी कामातुर होकर मोहिनी को पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग पड़े। मोहनी भी भागी, भागते-भागते वह नंगी हो गयी इसी दौड़ में एक बार तो शिवजी ने उसे पीछे से पकड़कर अपनी जांघों पर गिरा लिया किन्तु वह फिर भी छूटकर भाग निकली और शिवजी उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागते चले गये। शिवजी का उसी कामातुर अवस्था में भागते-भागते वीर्यपात हो गया।
यत्रयत्रपतन्ह्यांरेतस्तस्यमहात्मनः।तानिरूप्यश्चहेम्नश्चक्षेत्रण्यांसन्महीपते ॥ ३३॥
वह वीर्य जहां-जहां भी पृथ्वी पर गिरा वहां-वहां सोने व चाँदी की खानें बन गईं।।
भागवत की यह कथा विस्तार से हमने अपनी पुस्तक हनुमान जी बन्दर नहीं थे “शिवलिंग पजा क्यों*?” में शिव वीर्य से सोने चाँदी की उत्पत्ति नामक शीर्षक से दी है, वहां देखी जा सकेगी। इस कथा में शिवजी के वीर्यपात होने की बात तो लिखी है तथा उसमें सोना चाँदी की उत्पत्ति का विवरण भी दिया है, न कि सप्तर्षियों के द्वारा उसे कटोरा, गिलास या पत्तों पर जमा करके अन्जनी के कान में डालकर हनुमान को पैदा कराने की बेतुकी घटना दी है।
इस प्रकार उपरोक्त हनुमान जी की उत्पत्ति की शिव पुराण की कथा भागवत के विरुद्ध होने से हम गल्प (गपोड़ा) मानते हैं। वह ऐतिहासिक तथ्य नहीं मानी जा सकती है। आकाश में सप्तर्षि मण्डल सात तारों के समूह ‘का नाम है जो उत्तर दिशा में ध्रुव के चारों ओर आकाश में घूमा करता है। वह आदमी नहीं जो किसी का वीर्य या रज इकट्ठा करने को शिवजी के साथ-साथ घूमता फिरता था।
भविष्यपुराणमेंहनुमानजीकीउत्पत्ति
शिवोऽपि च स्वपूर्वार्द्धान्जातो वै सानसोत्तरे।गिरो यत्र स्थितादेवी गौतमस्य तनूद्भवा॥३१॥
अर्थ-एक बार शिवजी मानसोत्तर वर पर्वत पर गये। वहाँ केसरी की पत्नी अन्जना रहती थी। शिवजी का तेज (वीर्य) केसरी के मुंह में चला गया और उससे कामातुर हनुमान जी बन्दर नहीं थे होकर केसरी अन्जना से भोग करने लगा। इसी बीच में वायु ने भी केसरी के शरीर में प्रवेश किया और वह बलपूर्वक उसके प्रभाव से बारह वर्ष तक अन्जना से विषय भोग करता रहा। इस लम्बे मैथुन से अन्जना के गर्भ रह गया और एक वर्ष बाद उसने वानर की सी शक्ल वाले हनुमान जी को जन्म दिया, जोकि अत्यन्त कुरूप था इससे माता ने उसे त्याग दिया। हनुमान बालक ने बलपूर्वक सूर्य को निगल लिया। महादेव जी देवताओं के साथ वहाँ आ गये किन्तु वज्र से ताड़ित होने पर भी उन्होंने सूर्य को नहीं छोड़ा। तब सूर्य ने भयभीत होकर बचाओ बचाओ (त्राहि त्राहि ) की, तब उसके दीन वचनों को सुनकर रावण ने हनुमान जी की पूँछ पकड़कर खींचा। इस पर हनुमान ने सूर्य को तो छोड़ दिया परन्तु क्रोधित होकर रावण से युद्ध करने लगे और एक साल तक मल्ल युद्ध उससे करते रहे। रावण थक गया और डरकर तथा हनुमान जी से पिटकर वहाँ से भाग गया। ___ भविष्य पुराण की इस कथा में शिवजी का वायु (तेज) केसरी के मुंह में घुसने की बात लिखी है तथा वायु ने भी केसरी के शरीर से प्रविष्ट होकर अन्जनी को केसरी के साथ-साथ भोगा था। इस प्रकार भविष्य पुराण, हनुमान जी के तीन बाप बताता है। शिवजी, वायु तथा केसरी जी। पैदा होते ही हनुमान ने जमीन से भी १३ लाख गुना बड़े सूर्य को निगल लिया जो कि ९ करोड़ मील दूर है। वहाँ रावण भी न जाने कहाँ से टपक पड़ा और सूर्य के मुकाबले में पिद्दी-सा रावण एक साल तक बालक हनुमान से मल्ल युद्ध करता रहा, यह सारी की सारी पुराणकार की कोरी गप्प है। इस कथा से हनुमान जी के बारे में एक ही बात सार रूप में मिलती है कि वह केसरी पिता से अन्जनी माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। केसरी, अन्जनी तथा हनुमान जी तीनों मनुष्य थे, पशु नहीं थे, यह बात भी इससे इसलिए स्पष्ट है कि रावण मनुष्य था उसका एक वर्ष तक किसी भी पशु के साथ लगातार मल्लयुद्ध सम्भव नहीं था, मल्ल युद्ध मनुष्यों की कला है, बन्दरों की नहीं है। दूसरी बात यह है कि बन्दरियाँ एक दर्प अथवा ९ या ८ माह तक गर्भ धारण नहीं किये रहती है। समस्त बन्दर जाति का गर्भ काल ६ महीने से अधिक नहीं होता है। पुराण के अनुसार अन्जनी ने हनुमान का गर्भ एक वर्ष तक धारण किया था जोकि स्त्रियों के औसत काल ९ या १० माह के समीप है। विशेष अवस्था में स्त्रियों का गर्भकाल ११ या १२ माह तक खिंच जाता है। इस आधार से भी अन्जनी मानव जाति की स्त्री थी।
तीसरी बात यह भी समझने की है कि किसी बन्दर ‘ का नाम केसरी तथा बन्दरिया का नाम अन्जनी नहीं होता है। नाम रखने की परम्परा बोलचाल के लिए सम्बोधन के रूप में केवल मनुष्य जाति में ही होती है पशुओं में न तो वाणी अथवा स्पष्ट उच्चारण की सामर्थ्य होती है और न उसकी एक-दूसरे को पुकारने के लिए सम्बोधन के रूप में नाम रखने की परम्परा होती है। एक-एक बन्दर के साथ कई-कई दर्जन बन्दरियाँ भोगने को उसकी मण्डली में होती हैं जबकि केसरी व अन्जनी पति-पत्नी थे। लगन के साथ कामातुर होकर पत्नी के साथ रमण करने और दीर्घकाल तक रहते रहने की बात मनुष्य जाति में ही सम्भव है। कवि ने उस दीर्घकाल की अवधि को अपनी कल्पना से १२ वर्ष बढ़ाकर लिख दी है यह केसरी की मैथुन शक्ति को बढ़ाकर दिखाने के लिए किया गया है। बन्दर का मैथुन अवधि लिखने की न तो आवश्यकता होती है और न ही इतनी अवधि की सीमा हो सकती है। पशु योनि में शिवजी का जन्म हुआ तो उससे शिवजी की महत्ता नहीं बढ़ेगी। अत्यन्त पाप कर्म करने वाले महापापी मनुष्यों को उनके अशुभ कर्मों का फल भोग कराने तथा कुसंस्कारों का विनाश करने के लिए पशु आदि निकृष्ट योनियों में जन्म धारण परमात्मा कराता है। बन्दरों की योनि में शिवजी ने जन्म लेकर मानव जाति अथवा बन्दरों की कोई सेवा पथ प्रदर्शन किया हो ऐसी भी कोई बात हनुमान जी के जीवन में देखने में नहीं आई है। उनके जीवन की प्रमुख घटना सीता जी का लंका में जाकर पता लगाना और रामचन्द्र जी की ओर से युद्ध करना मात्र रही है।
एक बार लक्ष्मण जी के युद्ध में मूर्च्छित हो जाने पर संजीवनी बूटी नाम की औषधि खोज कर लाने का काम उन्होंने किया था। उनके जीवन की केवल वही घटनायें हैं जो किसी अवतार के लिए शोभाजनक नहीं। सीता जी की खोज करना एक गुप्तचर का कार्य था, लड़ना सैनिक का पेशा होता है, औषधि लाना सेवक का धर्म है, इनमें अवतारपन की कोई बात नहीं थी।
राम ने भी हनुमान जी को वेदादि शास्त्रों तथा व्याकरण एवं संस्कृत विद्या का महान विद्वान् माना था। जब राम लक्ष्मण सीता के हरण पर वियोग से व्यथित सुग्रीव के स्थान की ओर जा रहे थे तो सुग्रीव ने दूर इन अजनबी नवागन्तुकों को देखकर इनकी वास्तविकता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को उनके पास भेजा। हनुमान जी ब्रह्मचारी का रूप धारण करके राम जी के पास गये और उनसे वार्तालाप करके उनका परिचय पूछा तो राम ने लक्ष्मण से कहा था
अर्थ-हे लक्ष्मण! यह (हनुमान जी) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं। जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है। इन्होंने निश्चय पूर्वक सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वार्तालाप में कोई भी अशुद्ध शब्द नहीं बोला है॥२९॥ इससे स्पष्ट है कि हनुमान जी वेदों एवं व्याकरण के प्रकाण्ड पंडित थे।
हनुमान जी शब्दशास्त्र (व्याकरण) के महान पण्डित थे श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटूरूपिणाम। शब्दशास्त्रमशेषेण श्रुतं नूनमनेकधा॥१७॥ अनेकभाषितं कृत्सनं न किञ्चिदपशब्दितम्। ततः प्राह हनूमन्तं राघवो ज्ञान विग्रहः॥१८॥
(अध्यात्म रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १)
राम ने कहा “हे लक्ष्मण! इस ब्रह्मचारी को देखो। अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्दशास्त्र (व्याकरण) कई बार भली प्रकार पढ़ा है॥१७॥ देखो! इसने इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई। विदिता नौ गुणा विद्वान् सुग्रीवस्य महात्मनः॥३७॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३)
लक्ष्मण जी ने हनुमान जी को कहा कि हे विद्वान्! हमको महात्मा राजा सुग्रीव के गुण ज्ञात हैं।
हनुमानजीसर्वशास्त्रोंकेपण्डितथे
महर्षि अगस्त ने रामजी से कहा पराक्रमोत्साहमति प्रताप, सौशील्यमाधुर्य्य नया नयैश्च। गम्भीर्य चातुर्य सुचीर्य्यधैर्खे:, हनूमंतः कोऽस्ति लोके॥४३॥
सर्वासु विद्यासु तपो विधाने, प्रस्पर्धतेऽयंहि गुरु सुराणाम्॥४६।।
(बाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ३६ )
अर्थ-पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, नम्रता, न्याय, अन्याय का ज्ञान, गम्भीरता, चतुरता, बल और धैर्य में हनुमान जी के समान लोक में कोई भी मनुष्य नहीं है॥४३॥
अध्ययन काल में वे व्याकरण पढ़ते हुए इतने व्यस्त रहते थे कि सूर्य सामने होकर पीछे चला जाता था अर्थात् प्रात:काल से सायंकाल हो जाता था, तब तक वह पढ़ते ही रहते थे। और इतने समय में जितने में सूर्य उदयाचल से अस्ताचल पर्वत तक पहुंचता था वे एक दिन में बड़े-बड़े ग्रन्थ को कण्ठस्थ करने में अनुपम थे।॥४५॥
हनुमान जी ने सूत्र, वृत्ति, वार्तिक भाष्य, साधन और संग्रह सहित सब पढ़ा है। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों ( वेदांगों ) छन्द आदि में भी वे अद्वितीय विद्वान् हैं। समस्त विद्याओं तथा तपस्या में यह हनुमान जी गुरु बृहस्पति के समान हैं॥४६॥
बाल्मीकि रामायण के उपरोक्त उद्धरण हनुमान जी को बन्दर सिद्ध नहीं करते हैं वरन् वे उनको मनुष्य, ब्रह्मचारी, विद्वान्, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता, महान वैयाकरण व धुरन्धर वेदज्ञ घोषित कर रहे हैं। यह गुण बन्दर में नहीं हो सकते हैं। बन्दर का गला इतना सिकुड़ा हुआ होता है कि वह स्पष्ट शब्दोउच्चारण नहीं कर सकता। इसीलिए आवश्यकता होने पर बन्दर केवल किलकारी मारता है। चीखता है। अत: महान् विद्वान् राजा सुग्रीव के सचिव (मन्त्री) को बन्दर बताना उनका ही नहीं अपितु, आर्य सभ्यता का अपमान करना है तथा अपनी बुद्धि हीनता का परिचय देना है बन्दर राजा लोगों के मन्त्री नहीं हुआ करते हैं। राज्य मन्त्री मनुष्य ही होते हैं।
हनुमान जी के श्वेत वस्त्र ततः शाखान्तरे लीनं दृष्ट्वा चलित मानसा। वेष्टतार्जुन वस्त्र तं विद्युत्सघांत पिंगलम्॥१॥
(बाल्मीकिरामायणसुन्दरकाण्ड३१)
ऊपर वृक्ष की शाखाओं में छिपे हुए हनुमान जी को देखकर जानकी जी घबरा गईं। हनुमान जी उस समय श्वेत वस्त्र पहने हुए गोरे शरीर वाले ऐसे लगते थे जैसे बिजली चमकती है। ___मनुष्य ही वस्त्र पहिनते हैं बन्दर कभी वस्त्र नहीं पहना करते हैं। हनुमान जी का वस्त्र पहिनना उन्हें मनुष्य बताता सुग्रीव मनुष्य था अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छद्म चारिणः॥२२॥
( बाल्मीकिरामायणकिष्किन्धाकाण्डसर्ग२)
अपने बारे में सुग्रीव ने कहा कि कपट वेष में घूमने वाले शत्रुओं का मनुष्यों को अवश्य ही भेद जानना चाहिए।
सुग्रीव का अपने को मनुष्य बताना यह प्रमाणित करता है कि समस्त वानर जाति मनुष्य थी।
अर्थ-राजा सुग्रीव सुन्दर स्वर्ण के सिंहासन पर बैठा हुआ था। और उस पर बहुमूल्य सुन्दर बिछौना बिछा हुआ था।
सोने के घड़े अप: कनक कुम्भेषु निधाय विमला जलः॥३३॥
शुभंषभश्रृनगैश्च कलशश्चैव कांचनेः॥३४॥
अभ्यषिन्चन्त सुग्रीवं प्रसन्नेक सुगन्धिना॥३५॥
सलिलेन सहस्त्राक्ष बसवा वासवं यथा॥३६॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २६)
स्वर्ण के कलशों में पवित्र जल भर कर सुगन्धित जल से सुग्रीव को बानर लोग इस तरह स्नान कराने लगे जैसे बसुगण इन्द्र को स्नान कराते हैं।
सोने के छत्र और चंवर तस्य पाण्डुरमाजु हृश्छत्रंहेम परिष्कृतम्। शुक्ले च वाल व्यंजने हेम दण्डे यशस्करे॥२३॥
(बाल्मीकिरामायणकिष्किन्धाकाण्डसर्ग२६)
जब सुग्रीव का राज्याभिषेक हुआ तब कुछ बानरों ने उसके ऊपर स्वर्ण से जड़ा हुआ धवल छत्र लगाया और कुछ ने सोने की डण्डी वाला चंवर और पंखा भी ढुलाया। उपरोक्त चन्द प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि बानर लोग बन्दर नहीं थे, वे मनुष्य थे, आभूषण तथा वस्त्र पहिनते थे, राजसिंहासन पर बैठते थे, स्वर्ण का प्रयोग करते थे, जबकि बन्दरों को इन सबकी कोई आवश्यकता नहीं होती है।
बानरों का यज्ञोपवीत धारण करना ततोऽग्नि विधिवद्दत्वसोप सव्यं चकार ह॥५॥
(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २५) __
अंगद ने बाली के शव को विधिवत् अग्नि देकर अपना वज्ञोपवीत दाहिने कन्धे पर रख लिया। ___ “अपसव्य” का अर्थ होता है यज्ञोपवीत को दाहिने कन्धे पर लेना। यज्ञोपवीत हमेशा बायें कन्धे पर रहता है उसे दायें पर लेने को “अपसव्य” करना कहते हैं। ___बन्दर जाति के पशु यज्ञोपवीत नहीं पहन सकते हैं। यह केवल यज्ञ के अधिकारी मनुष्यों को ही धारण करने का शास्त्रीय अधिकार है। इससे सिद्ध है कि बानर जाति मनुष्यों की क्षत्रीय वंश की दक्षिणीय शाखा थी।
मृतक पुरुषों का ही अन्त्येष्टि संस्कार किया जाता है, बानर जाति के मनुष्यों में यह प्रथा होना भी उनको मनुष्य प्रमाणित करती है।
पति (बाली) को हत्त देखकर तारा अति दुखी होकर मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ देर बाद चैतन्य होने पर वह बाली को ‘आर्य पुत्र’ कहकर रुदन करने लगी।
इससे स्पष्ट है कि बानर लोग आर्य पुत्र (आर्य जाति के) मनुष्य ही थे, पशु नहीं थे। __ बानर जाति आज भी विद्यमान है। वनों में विचरण करने वाले, वनों में रहने वाले लोग बानर कहे जाते थे।
राजस्थान के बाड़मेर क्षेत्र में आज भी बानर जाति के क्षत्रीय लोग निवास करते हैं, रांची (मध्य प्रदेश) के आसपास उरांव और मुण्डा नाम की दो जातियां निवास करती हैं जिनके गोत्र वानर और भुल्लूक हैं ये उन्हीं रामायण और भुल्लक कालीन उस देश की मानव जातियों के वंशज हैं।
“कपि” शब्द का अर्थ संस्कृत के प्रसिद्ध कोषकार आप्टे ने अपने कोष में ‘कपि’ शब्द का अर्थ -सुगन्धि, हाथी, सूर्य और शिलारस लिखे हैं। सम्भव है सूर्यवंशी क्षत्रिय जाति के वंशज होने से इन वनवासी एवं पर्वतीय जाति के लोगों को बानर या कपि शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा हो, जिसे ठीक प्रकार से न समझने के कारण बन्दरों की भाँति पशु जाति का मान लिया गया है।
हनुमान जी अपने समाज के अत्यन्त प्रतिष्ठित, महान विद्वान् महान शूरवीर योद्धा, सेनापति तथा सुग्रीव के राजमन्त्री थे। उनकी अद्भुत योग्यता की सर्वत्र बड़ी धाक थी। सव ओर उन्हीं की पुकार होती थी। प्रत्येक कार्य में उनसे परामर्श लिया जाता था। राजा तथा प्रजा में उनकी अत्यन्त पूछ होने के कुछ लोगों ने यह समझ लिया है कि उनके जानवरों जैसी लम्बी पूंछ (दुम) लगी हुई थी। वास्तविक अर्थ का अनर्थ लोगों ने अपनी नासमझी से कर दिया है। मनुष्य और पशुओं में पूंछ भेदक चिन्ह है पशुओं की पूंछ (दुम) होती है। मनुष्यों के दुम नहीं होती है। कहा जाता है कि विद्वानों की बड़ी भारी पूछ होती है सर्वत्र वे पूछे जाते हैं, उनका महान यश तथा विद्वता उनकी पूछ का कारण होती है। भाषा के शब्दों को समझना चाहिए।
जब हनुमान जी लंका में सीता से मिलने के बाद पकड़ लिए गए तो वे अपनी बुद्धि व शारीरिक बल से सारी लंका में एक प्रबल हलचल (क्रांति) पैदा कर आये थे जिससे सारी लंका जलने लगी थी। यह बात करने का एक प्रकार है। यदि यह कहा जाये कि चीन ने आक्रमण करके सारे भारत में आग लगा दी सर्वत्र क्रोध की लहर दौड़ने लगी थी, तो इसका यही अर्थ होगा कि जनता की विचारधारा में एक तीव्र आक्रोश तथा बदला लेने की भावना पैदा हो गई थी। यह अर्थ नहीं होगा कि चीन ने दियासलाई जलाकर मिट्टी का तेल डालकर सारे भारत में जगह-जगह भौतिक आग लगा कर लपटें पैदा कर दी थीं। जिन लोगों ने हनुमानजी को पशु तथा उनको पूंछवाला लिखा है, उन्होंने उनका अपमान किया है।
ताराकीयोग्यता
यह यहां एक प्रमाण बानरों की स्त्रियों के विषयों में उनकी योग्यता को दिखाने के लिए प्रस्तुत करते हैं, तारा की योग्यता के विषय में लिखा है :
सुषेण दुहिता चेयम अर्थ सूक्ष्म विनिश्चये। औत्यातिके च विविधे सर्वत परिनिष्ठता॥१३॥
हे सुग्रीव! सुषेण की पुत्री तारा तुम्हारे सामने बैठी है। इनकी योग्यता तुमको ज्ञात ही है, यह अत्यन्त सूक्ष्म और पेचीदे राजकीय प्रश्नों का निर्णय करने में तथा अनेक राजनैतिक गुत्थियों को सुलझाकर राज्य को व्यवस्थित बनाने के कार्य में अत्यन्त कुशल है। जिस कार्य में यह अनुमति देवे उसे अवश्य करो उससे कभी असफलता नहीं मिलेगी। ___भारतवर्ष की महान स्त्रियों के अन्दर यह राज्य संचालन मंत्रणा देना पेचीदा बातों का निर्णय देना आदि गुण होते थे: यह गुण पशु जाति की बन्दरियों में कभी भी संभव नहीं थे और न कभी होंगे।
इस प्रकार हमने यह बताया है कि हनुमान जी मनुष्य थे, क्षत्रिय जाति के रत्ल थे, भारतीयों के गौरवमय पूर्वज थे। उनके बारे में जो भी भ्रम देश में पैदा कर दिए गए हैं उनका निवारण हो जाना चाहिए, हनुमान जी के विषय में बाल्मीकि रामायण ही सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रन्थ है। उनके समकालीन महर्षि बाल्मीकि की रचना होने से ऐतिहासिक दृष्टि से माननीय है। तुलसी रामायण अकबर के राज्य में अब से लगभग ३०० वर्ष पूर्व की रचना होने से ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक न होने से मान्य नहीं है।
महावीर हनुमान जी के पिता का नाम केसरी तथा माता का नाम अन्जनी देवी था। वे बानर क्षत्रीय वंश के आर्य मानव थे, आर्यों के वंशज थे।
हनुमान जी के विषय में सम्भवतः किसी जैन ग्रन्थ में हमने कहीं लिखा देखा है कि वे राजा सुग्रीव के दामाद थे। सुग्रीव की पुत्री पदमप्रभा से उनका विवाह हुआ था। पर इस विषय का कोई प्रमाण हमको संस्कृत साहित्य के अन्दर दृष्टि में नहीं आया है।
आध्यात्मिक रामायण में एक स्थान पर लिखा है कि जब रामचन्द्र जी चौदह वर्ष के वनवास की अवधि पूर्ण करके लंका विजय के पश्चात अयोध्या को वापिस लौटे थे तो उन्होंने भरत जी को अपने आने की सूचना देने के लिए हनुमान जी को आगे भेज दिया था। भरत जी को जब राम के आने का शुभ समाचार हनुमान जी ने दिया तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और हनुमान जी से बोले
अर्थ-भरत जी ने तुरन्त ही प्रियवादी हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और आनन्द के कारण उमड़े हुए अश्रु जलों से उस बानर श्रेष्ठ को सींचने लगे।।५९॥
(वे वोले ) भैया! तुम कोई देवता हो या मनुष्य हो जो दया करके यहां आये हो? हे सौम्य! इस प्रिय समाचार के सुनाने के बदले मैं तुम्हें एक लाख गौ, अच्छे-अच्छे सौ गांव और समस्त आभूषणों युक्त परम सुन्दरी सोलह कन्यायें देता हूं।५०-६१॥
यहां भरत जी ने हनुमान जी को मनुष्य या देवता कहा था बन्दर या देवता नहीं माना था। यदि बन्दर माना होता तो इस प्रकार का दान कभी न देते। तभी तो उन्होंने गौए, गांव व कन्यायें उनको पुरस्कार में भेंट स्वरूप दी थी। यदि हनुमान जी बन्दर (पशु) होते तो गौओं के थन चंबा जाते, गांवों को उजाड़ डालते तथा औरतों के लंहगे, ब्लाउज फाड़-फाड़कर उनकी ऐसी दुर्गति बनाते कि देखने वालों को भी भरत जी की त्रुटि पर, ऐसा दान देने पर तरस आता, किन्तु बन्दर को तो औरतों की जगह पर सौ दो सौ बन्दरियां देना ही ठीक रह सकता था। गायें, ग्राम व कन्यायें मनुष्यों के ही प्रयोग की वस्तु हैं अतः भरत जी का हनुमान जी को यह दान देना भी उनको मनुष्य ही घोषित करता है।
इतने प्रमाणों की उपस्थिति में आशा है अब आगे कभी कोई व्यक्ति महानात्मा हनुमान जी को पूंछ वाला बन्दर वंशीय मानने का दुस्साहस नहीं करेगा।
( इषम्) अन्न को, ( ऊर्जी ) रस को, ( ऋतस्य योनिम्) जल के भण्डार को, (महिषस्यधाराम्) महान् सूर्य की प्रकाशधारा को ( अहं ) मैंने ( इतः ) इस अग्नि नामक परमात्मा से ( आदम् ) पाया है। यह सब (मा) मुझमें, ( गोषु ) गौओं में, (तनूषु) सब शरीरधारियों में (आ विशतु ) प्रवेश करे। ( जहामि ) छोड़ देता हूँ (सेदिम्) विनाश को, (अनिराम्) अन्नाभाव को और (अमीवाम् ) रोग को।।
क्या तुम जानना चाहते हो कि ‘अग्नि’ नामक प्रभु से हमने क्या-क्या पाया है? बहुत-सी वस्तुएँ गिनायी जा सकती हैं, जो प्रभु ने हमें दी हैं। मन्त्र में संकेतमात्र किया गया है, विस्तार हम स्वयं कर सकते हैं। पहली वस्तु, जो प्रभु से हमने पायी है, वह ‘इष्’ अर्थात् अन्न या भोज्य पदार्थ है। तुम कहोगे कि अन्न तो हमें किसान देता है। नहीं, तुम भूल करते हो। किसान तो केवल अन्न के दाने धरती में डाल देता है। जिन दानों को वह बोता है, वे कहाँ से आते हैं। तुम कहोगे, उन्हें भी किसान ही पैदा करता है। किन्तु सर्वप्रथम अन्न का दाना किसान के पास कहाँ से आया? किसी किसान के बिना बोये ही परमेश्वर ने धरती में उगा दिया। उसके बाद किसान एक दाने से अनेक दाने उत्पन्न करने लगा। एक दाने से अनेक दाने पैदा करने में भी सम्पूर्ण श्रेय किसान को नहीं है। अन्न के उत्पन्न होने में जो प्राकृतिक प्रक्रिया होती है, वह प्रभु द्वारा ही सम्पन्न की जाती है। मिट्टी, पानी, ताप आदि के संयोग से अन्न का दाना अंकुरित होता है, पौधा बनता है, बढ़ता है, दाने देता है।
दूसरी वस्तु जिसके लिए हम जगदीश्वर के ऋणी हैं, वह ‘ऊर्ज’ अर्थात् रस है। रस में गोरस, इक्षुरस, फूलों-फलों के रस, बादाम-तिल आदि स्नेह-द्रव्यों के रस सब आ जाते हैं। इन अन्नों तथा रसों से हमारे शरीर का पोषण होता है। तीसरी वस्तु जो प्रभु से हमें प्राप्त हुई है वह है, ‘ऋत की योनि’ अर्थात् जल का भण्डार। स्रोतों, नदियों, समुद्रों, बालों, पर्वतों में प्रभु ने ही जल का भण्डार भरा है, जो बिना मूल्य के हमें निरन्तर प्राप्त होता रहता है। प्रभु से मिली चौथी वस्तु है, महान् सूर्य की प्रकाश-धारा, जो हमारे लिए जीवन का स्रोत है। प्रभु-प्रदत्त ये सब वस्तुएँ हमें प्राप्त होती रहें, गाय आदि पशुओं को प्राप्त होती रहें, सब देहधारियों को प्राप्त होती रहें । इनके प्राप्त होते रहने से हम विनाश, दुर्भिक्ष और व्याधियों से बचे रहें।
पाद–टिप्पणियाँ
१. ऋत=जल, निघं० १.१२
२. महिष=महान्, निघं० ३.३
३. आदम्=आदाम्। आ-दा, लुङ्। आ को ह्रस्व छान्दस।
४. सेदिं=हिंसाम्। षद्लु विशरणगत्यवसादनेषु, भ्वादिः, कि प्रत्यय ।
५. इरा=अन्न, निघं० २.७। अनिरा=अन्नाभाव।
प्रभु ने हमें क्या-क्या दिया है? -रामनाथ विद्यालंकार
ब्राह्मणासुः पितरः सोम्यासः शिवे न द्यावापृथिवीऽअनेहसा। पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नोऽअघशसऽईशत॥
-यजु० २९ । ४७
( सोम्यास:१) शान्ति के उपासक ( ब्राह्मणास:२) ब्राह्मण जन और (पितरः) रक्षक क्षत्रियजने ( नः शिवाः ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( अनेहसा ) निर्दोष निष्पाप (द्यावापृथिवी ) पिता-माता (नः शिवे ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( ऋतावृधः पूषा ) सत्य को बढ़ानेवाला पोषक राजा व न्यायाधीश (दुरितात् ) अपराध एवं पाप से (नःपातु ) हमारी रक्षा करे। हे परमात्मन् ! ( रक्ष) हमारी रक्षा कर। (अघशंसःनःमाकिः ईशत ) पापप्रशंसक दुष्टजन हम पर शासन न करे।
हम चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र पूर्णतः सुव्यवस्थित हो। गुण-कर्मानुसार वर्णव्यवस्था और आश्रमव्यवस्था राजकीय आदेश से प्रचलित हो, जिससे सब अपने-अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहें। सौम्य, वेदज्ञ, शास्त्रमर्यादा के वेत्ता ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मण ज्ञान और सदाचार का प्रजा में प्रचार प्रसार करते रहें, राज्य के शिक्षा-स्तर को उन्नत करते रहें, प्रजा के दुरितों का ध्वंस करते रहें। रक्षक क्षत्रियवर्ग चोरों, लुटेरों, आतंकवादियों, आततायियों तथा शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करते रहें। इस प्रकार राष्ट्र का ब्रह्मबल और क्षात्रबल मिल कर सबको समुन्नत करता रहे। वेद में सामाजिक दृष्टि से द्यावापृथिवी का अर्थ पिता-माता होता है, द्यौ पिता है, पृथिवी माता है। देश के पिता माताओं का कर्तव्य है कि वे स्वयं निष्पाप हों तथा प्रजा को भी निष्पाप होने की प्रेरणा करते रहें। इस प्रकार प्रजा के लिए शिव और मंगलकारी हों।
पूषा, अर्थात् प्रजापोषक राजा को भी चाहिए कि वह राज्य में न्यायालयों के विकास द्वारा पापों और अपराधों से प्रजा को बचाये। ऐसी व्यवस्था हो कि पापियों और अपराधियों को न्यायालय द्वारा समुचित दण्ड मिले तथा सत्कर्मियों को सम्मानित करके प्रोत्साहित किया जाए। ऐसा न हो कि राजा और न्यायाधीश ही पाप और अपराध के प्रशंसक होकर प्रजा में पापों तथा अपराधों को प्रोत्साहन देने लगें तथा शासन में रिश्वतखोरी आदि कदाचार व्याप्त होकर शासन कु-शासन होजाए। पूषा को मन्त्र में ‘ऋतावृध’ कहा गया है, इससे सूचित होता है कि राजा और न्यायाधीश का कर्तव्य है कि वे सत्य को बढ़ावा दें और असत्य की निन्दा करें।
प्रजा को भी सावधान रहना चाहिए कि जब राजा और राजमन्त्रियों का निर्वाचन होने लगे, तब ऐसे व्यक्तियों को ही मत प्रदान करे, जो न स्वयं किसी पाप या अपराधवृत्ति में फंसे हुए हों और न ही पाप और अपराध के प्रशंसक हों। सदाचारी, सत्यव्रती, पापविद्रोही ‘पूषा’ के द्वारा ही राष्ट्र में सत्कर्मों की वृद्धि और दुराचारों की विनष्ट हो सकती है। ऐसे ही पूषा के द्वारा राष्ट्र में सत्य, बृहत्त्व, ऋत, उग्रत्व, दीक्षा, तप, यज्ञ आदि पृथिवीधारक तत्त्वों का विकास और अपराधी तत्त्वों का विनाश हो सकता है।
( देव सवितः ) हे प्रकाशक प्रेरक जगदीश्वर! आप ( प्रसुव यज्ञं ) प्रेरणा दीजिए जीवन-यज्ञ को, (प्रसुव यज्ञपतिम् ) प्रेरणा दीजिए यज्ञपति आत्मा को ( भगाय) भग की प्राप्ति के लिए। (दिव्यः) दिव्य, ( गन्धर्व:१) लोकों तथा इन्द्रियों को धारण करनेवाला, ( केतपू:२) प्रज्ञा एवं विचारों को पवित्र करनेवाला वह सविता देव (केतंनःपुनातु ) हमारी प्रज्ञा तथा विचारों को पवित्र करे। ( वाचस्पतिः ) वाणी का स्वामी एवं पालनकर्ता वह परमेश्वर ( नः वाचंः ) हमारी वाणी को ( स्वदतु ) मीठा बनाये।।
हे मेरे परम प्रभु ! तुम दानी, द्युतिमान्, प्रकाशक, मोदमय, आनन्ददाता होने से ‘देव’ कहलाते हो। हृदयों में शुभ प्रेरणा करने के कारण तुम्हारा नाम ‘सविता’ है। हे सविता देव! मैं * भग’ प्राप्त करना चाहता हूँ। धर्म, धन, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य आदि जो भी भजनीय ऐश्वर्य है, वह भग कहलाता है। तुम इस ‘भग’ की प्राप्ति के लिए मेरे जीवन-यज्ञ को प्रेरित करते रहो। जीवन-यज्ञ को चलानेवाला जो यज्ञपति मेरा आत्मा है, उसे भी तुम उक्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति के लिए सदा उत्प्रेरित करते रहो।
हे मेरे सविता प्रभु ! तुम दिव्य हो, अलौकिक हो, तुम्हारी झाँकी तुम्हारे भक्त को भी दिव्य बना देनेवाली है। हे देव ! तुम ‘गन्धर्व’ हो। जैसे तुम विश्ववर्ती गौओं को अर्थात् लोक लोकान्तरों को धारण करनेवाले हो, वैसे ही देहवर्ती गौओं के अर्थात् इन्द्रियादि अङ्गोपाङ्गों के भी धारणकर्ता हो । केनोपनिषद् में शिष्य ने आचार्य से प्रश्न किया है कि यह मन किससे प्रेरित होकर गति करता है, यह वाणी किससे प्रेरित होकर पदार्थों के वर्णन में प्रवृत्त होती है, चक्षु-श्रोत्र आदि इन्द्रियों को कौन देव विषयों के ग्रहण में प्रवृत्त करता है? आचार्य ने उत्तर दिया है कि वह मन का भी मन है, प्राण का भी प्राण है, वाणी की भी वाणी है, चक्षु का भी चक्षु है, श्रोत्र का भी श्रोत्र है, उसी परम प्रभु से प्रेरित होकर ये सब धृत हैं तथा अपने-अपने ग्राह्य विषयों में प्रवत्त हो रहे हैं। इसीलिए उस प्रभु को ‘गन्धर्व’ कहते हैं। वह सविता प्रभु केतपू:’ भी है, मनुष्य के विचारों को, प्रज्ञाओं को, सङ्कल्पों को पवित्र करनेवाला है। वह मेरे भी विचारों को, प्रज्ञाओं को, सङ्कल्पों को पवित्र कर देवे। वही ‘वाचस्पति’ भी है, हमारी वाणी का स्वामी भी है। अतः वह हमारी वाणी को स्वादिष्ठ बनाये, मिठास से भर दे ।।
इस प्रकार सविता जगदीश्वर से संवल पाकर हमारा यज्ञपति आत्मा मानस एवं सामाजिक यज्ञ रचाये और आध्यात्मिक एवं भौतिक सर्वविध ऐश्वर्यों से धनी होकर लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो।
पाद-टिप्पमियाँ
१. गन्धर्वः–यो गाः पृथिवी: इन्द्रियाणि वा धरतीति गन्धर्वः । गोशब्दस्य| गंभावः ।।
२. केतं विज्ञानं पुनातीति केतपूः । कित ज्ञाने, जुहोत्यादिः ।
३. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।।ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।
यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार
है राजन् ! आप ( ब्रह्मणे ) वेद, ईश्वर और विज्ञान के प्रचार के लिए ( ब्राह्मणं ) वेदेश्वरविज्ञानविद् ब्राह्मण को, ( क्षत्राय ) राज्यसञ्चालन के लिए तथा आपत्ति से रक्षा के लिए ( राजन्यं) क्षत्रिय को, ( मरुद्भ्यः२) वृष्टिजन्य कृषिकर्मऔर पशुपालन के लिए ( वैश्यं ) वैश्य को, ( तपसे ) सेवारूप तप के लिए (शूद्रं ) शूद्र को, ( तमसे ) अन्धकार में काम करने के लिए ( तस्करं ) चोर को, (नारकाय ) नरक के कष्ट के लिए (वीरहणं ) वीरों के हत्यारे को, ( पाप्मने ) पाप के लिए ( क्लीबं) नपुंसक को, (आक्रयायै ) आक्रमण क्रिया के लिये ( अयोगू) लोहे के शस्त्रास्त्र चलानेवाले को, (कामाय ) कामजन्य विषयभोग के लिए (पुंश्चलू ) व्यभिचारिणी वेश्या को और (अतिक्रुष्टाय ) अति निन्दा या प्रशंसा के लिए (मागधं) भाट को [उपयुक्त जानिए तथा इनकी यथायोग्य कार्यों में नियुक्ति कीजिए या इनसे यथायोग्य व्यवहार कीजिए।]
सफलता प्राप्त करने की यह नीति है कि जिस कार्य के लिए जो योग्यतम मनुष्य हो उसे उस कार्य में नियुक्त किया जाना चाहिए। यदि हम वेद, ब्रह्मविद्या, ज्ञान-विज्ञान, योगविद्या आदि का प्रचार-प्रसार कराना चाहते हैं, तो उसके लिए योग्य व्यक्ति वह है जो गुणकर्मानुसार ब्राह्मण हो। मनु ने ब्राह्मण के कर्म अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान देना-लेना लिखे हैं। भगवद्गीता में शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और अस्तिक्य ब्राह्मण के कर्तव्य बताते गये हैं। स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि ये १५ कर्म और गुण ब्राह्मणवर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहिएँ। इन कर्मों को करने-कराने के लिए ब्राह्मण ही उपयुक्त है। क्षात्रधर्म के लिए क्षत्रिय की नियुक्ति करनी चाहिए। क्षत्रिय का मुख्य कर्तव्य है प्रजा की रक्षा करना, युद्ध उपस्थित होने पर पलायन न करना। अत: सैनिक, सेनापति, राजपुरुष सम्राट् आदि पदों पर क्षत्रिय को रखना उचित है। मरुतों के लिए वैश्य को जानो। मरुतों के अनेक अर्थ होते हैं, जिनमें पशु तथा अन्न अर्थ भी हैं। अतः यहाँ मरुतों से पशुपालन, व्यापार तथा कृषि ग्राह्य है। इन कर्मों के लिए वैश्य को नियुक्त करना चाहिए। सेवारूप तप के लिए शूद्र योग्य है। अन्धेरे में किये जानेवाले चोरी आदि कार्य के लिए चोर उत्तरदायी होता है। अतः चोरी होने पर चोर की धर-पकड़ की जानी चाहिए। यह आशय भी लिया जा सकता है कि कहीं अन्धेरे में कार्य करवाने की आवश्यकता हो, तो चोर को चोरी के कर्म से हटा कर प्रशिक्षित करके उससे अन्धेरे में किये जानेवाले कार्य करवाये जाने चाहिएँ। नारकीय कष्ट के लिए वीरों का हत्यारा उपयुक्त है, अतः उसे नारकीय यातनाएँ देने के लिए कारागार में डाला जाना चाहिए। नङ्गे होकर नाचना आदि नपुंसक लोग सभ्य समाज में करते हैं, अतः उसके लिए उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए अथवा सुधार कर ऐसे कार्य करने से रोकना चाहिए। आक्रमण-क्रिया के लिए वे लोग योग्य हैं, जो लोहे के बने शस्त्रास्त्र लेकर चलते हैं, अतः उस कार्य के लिए उन्हें नियुक्त करना चाहिए। कामजन्य विषयभोग व्यभिचारिणी वेश्याएँ करती हैं, अतः उन्हें आजीविका के लिए प्रशासन की ओर से अन्य कार्य दिया जाना चाहिए, फिर भी लुकाछिपी इस कार्य को करती रहें तो उन्हें तथा जो उनके पास जाते हों, उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए। किसी की अत्यन्त निन्दा या अत्यन्त प्रशंसा भाट लोग करते हैं, अतः उनके साथ यथोचित व्यवहार करके उन्हें इस कार्य से विरत करना चाहिए।
सम्राट् का कर्तव्य है कि कौन किस प्रशस्त कार्य के योग्य है, यह जानकर उसे उस कार्य में प्रवृत्त करे और कौन किस दुराचार के लिए उत्तरदायी है, यह जानकर उसका सुधार करे या उसे दण्डित करे।
पाद-टिप्पणियाँ
१. (ब्रह्मणे) वेदेश्वरविज्ञानप्रचाराय (ब्राह्मणम्) वेदेश्वरविदम्-द० ।।
२. (मरुद्भ्यः ) पश्वादिभ्यः प्रजाभ्यः-द० । पशवो वै मरुतः मै०
हे आदित्य परमेश्वर ! ( श्रीः च लक्ष्मीः च ) श्री और लक्ष्मी ( ते पल्यौ ) मानो तेरी सहचरियाँ हैं, ( अहोरात्रे ) दिन-रात ( पाश्र्वे ) मानो पाश्र्ववर्ती अनुचर हैं, (नक्षत्राणिरूपम् ) नक्षत्र मानो तेरे रूप को सूचित करते हैं। (इष्णन् ) मैं इच्छुक हूँ, अतः (इषाण) तू मुझे दे। ( अमुं मे इषाण ) वह मुक्तिलोक मुझे दे, (सर्वलोकंमेइषाण) सकल लोक, सकल लोक का ऐश्वर्य मुझे प्रदान कर।
ध्यान से देखो, आदित्य तो जड़ वस्तु है, उसके अन्दर एक चेतन पुरुष बैठा दिखायी दे रहा है, जो उसका सञ्चालन करता है। जगदीश्वर ही वह पुरुष है। हे जगदीश्वर! आप ही आदित्य के अन्दर बैठे हुए सब ग्रह उपग्रहों का सञ्चालन कर रहे हैं। आप तेजस्वी हैं, मनस्वी हैं, महान् सम्राट् हैं। सम्राट् के समान आपकी पूजा हो रही है। जैसे किसी मानव सम्राट् की सेवा करनेवाली सहचरियाँ होती हैं, ऐसे ही श्रीऔर लक्ष्मी मानो आपकी सेविकाएँ हैं। श्री से शोभा, कान्ति, तेजस्विता, आभा सूचित होती है और लक्ष्मी से सम्पदा । आप सबसे बड़े श्रीमान् और लक्ष्मीवान् हैं। जैसे किसी मानव सम्राट् के पार्श्ववर्ती अनुचर होते हैं, ऐसे ही दिन-रात मानो आपके पार्श्ववर्ती अनुचर हैं। चमकीले नक्षत्र मानो आपके रूप को सूचित करते हैं। द्यावापृथिवी (अश्विनौ) मानो आपका खुला हुआ मुख है। इस प्रकार सारी ही प्रकृति मानो आपके अङ्गोपाङ्ग बनी हुई है या आपकी अङ्गरक्षिका का कार्य कर रही है। पर्वत आपके पहरेदार हैं, नदियाँ मानो आपके पग धोती हैं, समुद्र मानो आपकी गम्भीरता का प्रतिनिधित्व करते हैं। वृक्ष-वल्लरी मानो आपको छाया प्रदान करते हैं। अन्तरिक्ष वर्ती विद्युत् मानो आपका प्रकाशस्तम्भ है। सूर्य-चन्द्रमा मानो आपके नेत्र हैं। दिशाएँ मानो आपकी ज्ञानवाहिनी नाड़ियाँ हैं। तस्तुत: तो आप ‘अकाय’ हैं, भौतिक शरीर से रहित हैं। न आपकी सहचारियाँ हैं, न अनुचर हैं, न आपका मुख है, न आपके अङ्गरक्षक हैं, न पहरेदार हैं। यह सब आलङ्कारिक वर्णन है और यहाँ व्यङ्ग्योत्प्रेक्षा अलङ्कार का सौन्दर्य है । |
हे महान् सम्राट् ! मैं आपके सम्मुख भिक्षुक के रूप में आया हूँ, आप मुझे भिक्षा दीजिए। मैं सकल लोकों का ऐश्वर्य पाना चाहता हूँ, मुझे सकल लोकों का ऐश्वर्य प्रदान कीजिए। सकल लोकों के ऐश्वर्य से तात्पर्य है विपुल ऐश्वर्य । साथ ही मैं मुक्तिलोक में भी जाना चाहता हूँ, आप मुझे मुक्ति प्रदान कीजिए। वेद सांसारिक सम्पदा और मोक्षसम्पदा दोनों में समन्वय करता है।
पाद–टिप्पणियाँ
१. इष्णन्=इच्छन् अहमस्मि । विकरणव्यत्यय, शप् के स्थान पर श्वा ।
२. इषाण, इष आभीक्ष्ण्ये। आभीक्ष्ण्यं पुनः पुनर्दानम्, देहि।
परम पुरुष परमेश्वर ( त्रिपाद्) तीन पादों से, तीन चतुर्थांशों से ( ऊर्ध्वः उदैत् ) संसार से ऊपर उठा हुआ है, लोकातिक्रान्त है, ( इह पुनः ) इस संसार में तो (अस्यपादःअभवत् ) इसका, इसकी महिमा का एक पाद अर्थात् चतुर्थाश ही विद्यमान है। ( ततः ) उसी एक पाद से ( विष्व ) विविध लोकों में गया हुआ वह (साशनानशने अधि) भोग भोगनेवाले चेतन प्राणी-जगत् में और भोग-रहित अचेतन जगत् में (व्यकामत) अभिव्याप्त है।
मैं भी पुरुष हूँ और मेरा भगवान् भी पुरुष है। अन्तर केवल इतना है कि मैं तो विशेषणरहित केवल ‘पुरुष’ हूँ, और मेरा भगवान् ‘परम पुरुष’ है। मैं पुरुष इस कारण हूँ कि मैं अपनी शक्ति से शरीररूप पुरी में परिपूर्ण हूँ और मेरा प्रभु पुरुष इस कारण है कि वह ब्रह्माण्डरूप पुरी में परिपूर्ण है। यास्काचार्य ने ‘पुरुष’ शब्द की निष्पत्ति तीन प्रकार से की है-‘पुरि सीदति, पुरि शेते, पूरयति अन्त: ५, परमेश्वर ब्रह्माण्ड पुरी में स्थित है, ब्रह्माण्ड-पुरी में शयन करता है, अन्तर्यामी होकर सबको अपनी सत्ता से परिपूर्ण करता है। यह पुरुष परमेश्वर चतुष्पाद्’ कहलाता है। किसी चौकी या पशु के चारों पैर विद्यमान रहें, तो वे चौकी या पशु पूर्ण कहलाते हैं, ऐसे ही परमेश्वर की पूर्णता को बताने के लिए उसे ‘चतुष्पाद् कह दिया जाता है। प्रस्तुते मन्त्र में कहा गया है कि परमेश्वर के उन चार पादों में से तीन पाद तो इसे ब्रह्माण्ड से ऊपर हैं, पंरिदृश्यमान सकल ब्रह्माण्ड की विभूति तो उसके केवल एक पाद से ही सम्पन्न हो रही है। उस एक पाद से ही वह *साशन’ और ‘अनशन’ जगत् में अपना विक्रम दिखा रहा है। साशन और अनशन का अर्थ है भोग करनेवाला और भोग न करनेवाला अर्थात् चेतन और जड़ जगत्। चेतन जगत् की महिमा पर दृष्टि डालो। यह आत्मा, प्राण, मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रियों का चेतन पुतला मानव-शरीर कैसे बड़े-बड़े आत्मोपयोगी और लोकोपयोगी कार्य कर लेता है ! इस चेतन मानव ने प्रत्येक क्षेत्र में अद्भुत आविष्कार किये हैं। यातायात के लिए वायुयान और जलपोत बनाये हैं, आत्मरक्षा और शत्रु-विजय के लिए युद्धोपयोग शास्त्रास्त्र बनाये हैं। रोगों से छुटकारा दिलाने के लिए ओषधियाँ आविष्कृत की हैं। मानव से अतिरिक्त चेतन गाय, घोड़े, हाथी आदि पशुओं, रंग-बिरंगी चिडियों तथा अन्य जन्तुओं में भी कैसी करामात भरी हुई है। यह तो है ‘साशन’ अर्थात् चेतन जगत् की कथा। ‘अनशन’ या जड़ जगत् में भी आश्चर्यजनक चित्रकला भरी पड़ी है। बादल, नदियाँ, सागर, स्रोत, झरने, वृक्ष, लताएँ, सूर्य, चाँद, सितारे सब आदर्श कलाकृति के नमूने हैं। इनमें प्राणियों के उपयोग की सामग्री भरी पड़ी है। यह सब चेतन और जड़ जगत् की महिमा उस परम पुरुष के चार पादों में से केवल एक पाद का माहात्म्य है। इससे उस पुरुष की महान् महिमा हम कुछ-कुछ अनुमान कर सकते हैं। आओ, श्रद्धापूर्ण नमन करते हैं हम उस ‘परम पुरुष’ को।
पाद-टिप्पमियाँ
१. उद्-इण् गती, लङ् लकार।
२. विषु विविधम् अञ्चति गच्छतीति विष्वङ्।
३. अशनेन भोगेन सहितं साशनम्, न अशनेन भोगेन सहितम् अनशनम्।
( तद् एव ) वही परमात्मा ( अग्निः ) अग्नि कहाता है, ( तद् आदित्यः ) वही आदित्य कहाता है, ( तद् वायुः ) वही वायु कहाता है, ( तद् उ ) वही ( चन्द्रमाः) चन्द्रमा कहाता है। ( तद् एव शुक्रं ) वही शुक्र, ( तद् ब्रह्म ) वही ब्रह्म, ( ता: आपः ) वही आपः, ( स प्रजापतिः ) और वही प्रजापति कहाता है। |
वेद में अनेक देवों का वर्णन देख कर बहुदेवतावाद की शङ्का होती है। अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र, पूषा, त्वष्टा आदि नानी देवों की चर्चा तथा उनकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना वेद करता है। उसका समाधान ऋग्वेद में किया गया है और प्रस्तुत मन्त्र में भी है। ऋग्वेद कहता है कि इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, सुपर्ण, गरुत्मान्, यम, मातरिश्वा सब एक ही सत्स्वरूप परमेश्वर के नाम हैं, ये पृथक्-पृथक् देव नहीं हैं।” यजुर्वेद का प्रस्तुत मन्त्र कह रहा है कि ”वही एक परमेश्वर अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा नामों से वर्णित होता है, वही शुक्र है, वही ब्रह्म है, वही आपः है, वही प्रजापति है।” परमेश्वर के विभिन्न नाम उसके विभिन्न गुण-कर्म-स्वभावों को सूचित करते हैं। ‘अग्नि’ नाम गत्यर्थक अगि धातु से नि प्रत्यय करने पर बनता है। गति के ज्ञान, गमन और प्राप्ति अर्थ होते हैं। ज्ञानस्वरूप, सर्वगत और प्राप्तियोग्य होने से परमेश्वर ‘अग्नि’ कहलाता है। उसका नाम ‘आदित्य’ इस कारण है कि वह प्रलयकाल में ब्रह्माण्ड की सब वस्तुओं का आदान कर लेता है। वह ‘वायु’ इस कारण कहलाता है, क्योंकि वायु के समान अनन्तबलशाली और सर्वधर्ता है। आह्लादार्थक चदि धातु से ‘चन्द्रमाः’ नाम सिद्ध होता है। परब्रह्म आनन्दस्वरूप और आह्लाददायक होने से चन्द्रमाः’ नाम से वर्णित होता है। उसे आशुकारी और शुद्ध होने से ‘शुक्र’ कहते हैं। सबसे अधिक महान् होने के कारण वह ब्रह्म’ कहाता है। उसकी महिमा अपार है, प्रकृति में, मानव शरीर में, अध्यात्म में सर्वत्र वह महामहिम लोकाधिपति के रूप में प्रख्यात है। सर्वव्यापक होने से वह ‘आप:’ नाम से प्रसिद्ध है। (आप्लू व्याप्तौ)। ‘आप:’ का अर्थ जल भी होता है। जलों के समान शान्तिदायक, रसमय और संतरण करानेवाला होने से भी वह ‘आप:’ है। समस्त प्रजाओं का अधिपति होने के कारण वह प्रजापति-पदवाच्य है। मानव सम्राट् की प्रजाएँ तो अपने राष्ट्र तक सीमित होती हैं, परब्रह्म ही प्रजाएँ सकल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, जिनका वह चक्रवर्ती सम्राट्, स्वराट् और विराट् कहलाता है।
वेदों में नाना देवों का वर्णन देख कर हम भ्रान्ति में न पड़े। अनेक देव एक ही देवाधिदेव परब्रह्म के विभिन्न गुण कर्म-स्वभावों को सूचित करनेवाले नाम हैं। आओ, नाना नामों से हम उस प्रभु की उपासना करें, उसके साम्राज्य और वैभव का वर्णन करें।
वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्। तस्मिन्नूिद सं च वि चैति सर्वः सऽओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु॥
-यजु० ३२.८
( वेनः ) इच्छुक, पूजक, मेधावी मनुष्य ही ( तत् गुहा निहितं सत् ) उस गुहा में निहित अर्थात् गुह्य परब्रह्म परमेश्वर को ( वेद ) जानता है, ( यत्र ) जिसमें ( विश्वं ) ब्रह्माण्ड ( एकनीडं भवति ) एक घोंसले में निहित के समान होता है। ( तस्मिन् ) उस परमेश्वर के अन्दर ( इदं सर्वं ) यह सकल विश्व ( सम् एति ) प्रलयकाल में समा जाता है, और ( वि एति च ) सृष्टिकाल में उससे पृथक् हो जाता है। ( सः विभूः ) वह व्यापक परमेश्वर ( प्रजासु ) प्रजाओं के अन्दर ( ओतः प्रोतः च ) ओत-प्रोत है।
परब्रह्म परमेश्वर सर्वसाधारण के लिए ऐसा ब्रह्म है, जो मानो किसी गम्भीर गुफा में रहता हो, जहाँ किसी की पहुँच न हो। उसके दर्शन वही कर सकता है, जिसमें उसके दर्शन के अनुकूल विशिष्ट योग्यता हो। ‘वेन’ मनुष्य को ही उसके दर्शन हो सकते हैं। वेन धातु वैदिक निघण्टु कोष में इच्छा, गति और अर्चना अर्थों में पठित है। ईश्वर-दर्शन के लिए सर्वप्रथम तो मनुष्य के अन्दर दर्शन की उत्कट इच्छा या अभीप्सा होनी चाहिए। उसके हृदय में प्रभु-दर्शन की लौ लगी होनी चाहिए। दूसरे उसकी गतिविधि बाह्य जगत् की ओर न होकर प्रभु की ओर होनी चाहिए। तीसरे उसमें प्रभु की अर्चना में आनन्द लेने की निपुणता होनी चाहिए। निघण्ट में ही ‘वेन’ शब्द मेधावी-वाचक शब्दों में भी पठित है। अतः ईश्वर-दर्शक को ईश्वर–सम्बन्धी शास्त्रों में गहन चिन्तन एवं पाण्डित्य भी होना चाहिए। ऐसा योगाभ्यासी साधक ही प्रभु का साक्षात्कार कर सकता है। | कैसा है वह परमेश्वर ? उसके अन्दर सारा विश्व ऐसे ही निवास करता है, जैसे पंछी घोंसले में रहता है। सकल विश्व का वह घोंसले के समान आश्रयस्थान है । मन्त्र के अन्त में उसके विषय में यह कहा गया है कि प्रलयकाल में उसी के अन्दर सब कुछ समा जाता है, और सृष्टिकाल में उसके अन्दर से निकल आता है। परन्तु यह स्थापना तो वेदान्तदर्शन की है। यदि ऐसा मान लें, तो ईश्वर जगत् का उपादान कारण सिद्ध होता है, जबकि त्रैत दर्शन के अनुसार है वह जगत् का निमित्त कारण। मण्डक उपनिषदः कहती है कि यह जगत परमेश्वर के अन्दर से ऐसे ही निकलता है, जैसे मकड़ी के अन्दर से जाला निकलती है, और फिर उसी में समा जाता है । मन्त्र का कथन भी इसी कथन से मिलता-जुलता है। जगत् यदि प्रलयकाल में परमेश्वर में समा जाता है और सृष्टिकाल में उसमें से बाहर निकल आता है, तो परमेश्वर जगत् का निमित्त कारण नहीं हो सकता, इस शङ्का का उत्तर मकड़ी के दृष्टान्त से ही मिल जाता है। मकड़ी तो आत्मा का नाम है, आत्मा में से जाला नहीं निकलता, अपितु मकड़ी के शरीर में से जाला निकलता है। इसी प्रकार जगत् परमेश्वर में नहीं समाता, न उसमें से निकलता है, अपितु परमेश्वर का जो शरीर प्रकृति है उसमें प्रलयकाल में जगत् समाता है और सृष्टिकाल में प्रकृति में से बाहर आ जाता है। अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति है, न कि ब्रह्म।
पाद-टिप्पणियाँ
१. वेनति=इच्छति, गच्छति, अर्चति, निघं० २.६, २.१४, ३.१४ ।। २. वेन:=मेधावी, निघं० ३.१५ । ३. यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च । मु० उप० १.२.७