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यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है। प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उत्तर ऐसा दियाः वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए शंका समाधान व प्रश्नोत्तर की कला में निष्णात होना आवश्यक है। कार्य क्षेत्र में आठ दस वर्ष तक कार्य करने का अनुभव होने पर जिसने इस कला में कोई सिद्धि प्राप्त नहीं की, उसको सफल मिशनरी तथा विद्वान् नहीं माना जा सकता। उसके लिए बोलना व लिखना एक व्यवसाय है। उसका जीवन उद्देश्यहीन जानो। यह कार्य वही कर सकता है जिसमें मिशन की पीड़ा होगी। जिसमें ज्ञान उजाला करने की ललक होगी। उसमें उत्तर देने की कला का अविर्भाव होगा ही। श्री पं. रामचन्द्र जी देहलवी एक बार पानीपत पधारे। एक घण्टे तक व्यायान दिया। फिर आधा घण्टा शंका समाधान के लिए दिया करते थे । एक श्रोता ने पूछा, आपके अपने से थोड़ा पहले यहाँ ठाकुर जी का तुलसीजी से विवाह हुआ है। भक्तों ने हर्षोल्लास से उसमें भाग लिया। आपका इसके बारे में क्या विचार है?

पण्डित जी ने कहा, ‘‘जितनी यहाँ के भक्तों को इस विवाह पर प्रसन्नता हुई मुझे उससे भी कहीं अधिक हो रही है। यह विवाह ऋषि दयानन्द जी की मान्यता के अनुसार जाति बन्धन तोड़कर हुआ है।’’

यह उत्तर सुनकर श्रोताओं ने करतल ध्वनि से इसका स्वागत किया। फिर बोले, ‘‘विवाह का प्रयोजन सन्तान की उत्पत्ति है। ये जोड़ी अभागी ही रहेगी । ये ऊत ही रहेंगे। इनके सन्तान तो होगी नहीं।’’ इस पर फिर करतल ध्वनि हुई। सारी नगरी में पण्डित जी के इस उत्तर की चर्चा होने लगी। यह है उत्तर देने की कला की मौलिकता।

‘मैं और मेरा आचार्य दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

देश व संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं फिर हमें उनमें से ही किसी एक मत को चुन कर उसका अनुयायी बन जाना चाहिये था। यह वाक्य कहने व सुनने में तो अच्छा लगता है परन्तु यह एक प्रकार से सार्थक न होकर निरर्थक है। हमें व प्रत्येक मनुष्य को यह ज्ञान मिलना आवश्यक है कि वह कौन है, कहां से आया है, मरने पर कहां जाता है, किन कारणों से उसे अपने माता-पिता से जन्म मिला, किसी धनिक के यहां जन्म क्यों नहीं हुआ, धनिक का निर्धन के यहां क्यों नहीं हुआ, किसने इस संसार को बनाया है और कौन इसका धारण, पोषण व संचालन करता है? संसार को बनाने वाली वह सत्ता कहां है, दिखाई क्यों नहीं देती, उसका नाम क्या है? क्या किसी ने कभी उसको देखा है? हम स्वयं अपनी मर्जी से पैदा नहीं हुए हैं, जिसने हमें उत्पन्न किया है, उसका हमें जन्म देने का उद्देश्य क्या था व है? ऐसे अनेकानेक प्रश्नों के सही समाधानकारण उत्तर जहां से प्राप्त हों जिनसे जीवन का उद्देश्य जानकर उसकी प्राप्ति के सरल समुचित साधनों का ज्ञान मिलता है, मनुष्य को उसी धर्म का धारण पालन करना चाहिये। ऐसा न करके मनुष्य अपने जीवन का सदुपयोग नहीं करता और हो सकता है व होता है, वह सुदीर्घ काल, सैकड़ों, हजारों व लाखों वर्ष तक नाना प्रकार के दुःखों व निम्न से निम्न योनियों में जन्म लेकर दुःखों से आक्रान्त रहे।

हमने अपने मित्रों की प्रेरणा से पौराणिक परिवार में जन्म लेने पर भी आर्यसमाज के सत्संगों में भाग लेना आरम्भ किया और उसके साहित्य मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश, पंच-महायज्ञविधि आदि का अध्ययन किया। वैदिक विद्वानों व सच्चे महात्माओं के प्रवचनों को सुनकर व साहित्य को पढ़कर हमारे उपर्युक्त सभी प्रश्नों वच भ्रमों का समाधान हो गया जो अन्यथा नहीं हो सकता था। अतः हमारा कर्तव्य बनता था कि हमें जो सत्य ज्ञान मिला है, उससे हम अपने मित्रों व अन्यों को भी लाभान्वित करें। अतः इस कर्तव्य भावना से अधिकारी विद्वान न होने पर भी हमने अपना स्वाध्याय जारी रखा और लेखन के द्वारा अनेकानेक विभिन्न विषयों पर, जो जो हमें सत्य प्रतीत हुआ, उसे लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। आज हम अपने बारे में यह कह सकते हैं कि हम स्वयं से परिचित हैं। मैं कौन हूं, क्या हूं, कहां से आया हूं, कहां-कहां जा सकता हूं, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है, उसकी प्राप्ति के साधन क्या हैं, यह संसार किससे बना और कौन इसे चला रहा है? ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर मिला जिसका पूर्ण श्रेय मेरे आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती को है। संक्षेप में हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर इस संक्षिप्त लेख में देने का प्रयास करते हैं।

मैं जीवात्मा हूं जो कि एक चेतन तत्व है। चेतन होने के कारण ही मुझे सुख व दुःख की अनुभूति होती है। मैं एकदेशी हूं अर्थात् व्यापक नहीं हूं। शास्त्रों ने जीवात्मा का परिमाण बताया है। यह अत्यन्त सूक्ष्म है। एक शास्त्रकार ने कहा है कि हमारे सिर के बाल का अग्रभाग लें, फिर उसके 100 टूकड़े करें, फिर इन सौ में से एक टुकडें के भी सौ टुकड़े करें, इसका एक टुकड़ा अर्थात् सिर के बाल के अग्रभाग का दस सहस्रवां टुकड़ा जीवात्मा के लगभग बराबर व उससे भी सूक्ष्म होगा। यह बात विचार, चिन्तन व गवेषणा से सत्य सिद्ध होती है। मैं अर्थात् जीवात्मा अनादि, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी सत्यासत्य का जानने वाला होता है परन्तु अविद्यादि कुछ दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। ज्ञान कर्म जीवात्मा के दो लक्षण कहे जा सकते हैं। सृष्टिकाल में सभी जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मानुसार जन्म भोग प्राप्त होते हैं। इस जन्म में हमें जो माता-पिता, संबंधीं व अन्य परिस्थितियां, सुख-दुःख आदि मिले हैं वह अधिकांशतः पूर्व जन्मों के कर्मों के फलों जिसे प्रारब्ध कहते हैं व इस जन्म के क्रियमाण कर्मों के कारण प्राप्त हुए  हैं। हमें जन्म, सुख-दुःख रूपी भोगों को देने वाली, वस्तुतः एक सत्ता ईश्वर है। ईश्वर ही सृष्टि को बनाने व धारण-पोषण अर्थात् संचालित करने वाली सत्ता है। ईश्वर परम धार्मिक है। वह सत्य, दया व करूणा से सराबोर है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव सर्वदा समान रहते हैं, उनमें विपरीतता कभी नहीं आती। संसार में ईश्वर से इतर अत्यन्त सूक्ष्म मूल प्रकृति है, यह चेतन न होकर जड़ है।  यह प्रकृति ईश्वर व जीव की ही तरह अनादि, नित्य, अविनाशी है तथा अत्यन्त सूक्ष्म, सत्व-रज-तम गुणों वाली है। यइ ईश्वर के अधीन होती है। इसे सृष्टि का उपादान कारण कहते हैं। ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है। इस प्रकृति को ही ईश्वर परिवर्तित कर वर्तमान सृष्टि अर्थात् नाना सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, पृथिवी आदि का निर्माण सृष्टि काल के आरम्भ में करता है। इसी प्रकार के निर्माण वह इससे पूर्व के कल्पों में करता रहा है तथा इस कल्प के बाद के कल्पों में भी करेगा। यह सृष्टि 4 अरब 32 करोड़ वर्षों तक इसी प्रकार से विद्यमान रहती है। इस गणना का आरम्भ ईश्वर द्वारा सृष्टि का निर्माण करने के दिन से होता है। इसके बाद पुरानी हो जाने के कारण इसकी प्रलय अवस्था आती है जब यह छिन्न भिन्न होकर अपनी मूल अवस्था, जो सत्व, रज व तम गुणों वाली अत्यन्त सूक्ष्म होती है, में परिवर्तित हो जाती है। यह प्रलयावस्था भी 4 अरब 32 करोड़ वर्षों तक रहती है, जो कि ईश्वर की रात्रि कहलाती है तथा जिसके पूरा होने पर ईश्वर पुनः सृष्टि बनाता है और प्रलय से पूर्व की जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार वा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में जन्म देता है।

 

ईश्वर के बारे में यह जानना भी उचित होगा कि ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्द स्वरूप है। वह निराकार व सर्वव्यापक है। वह किसी एक स्थान, आसमान, समुद्र आदि में नहीं रहता अपितु सर्वव्यापक है। वह सर्वज्ञ अर्थात् सभी विषयों का पूर्ण ज्ञान रखता है और सर्वशक्तिमान है। वह न्यायकारी व दयालु भी है। वह सनातन, नित्य, अनादि, अनुत्पन्न, अजर, अमर, अभय, नित्य व पवित्र है। वह सर्वव्यापक व अतिसूक्ष्म होने के कारण सब जीवात्माओं के भीतर भी विद्यमान व प्रविष्ट है। अतः जीवात्मा का कर्तव्य है कि वह स्वयं व ईश्वर के सत्य स्वरूप को जाने। यह सत्य स्वरूप हमने सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों से ही जाना है। अन्य सभी ग्रन्थों व मत-मतान्तरों की पुस्तकों को पढ़ने से अनेक सन्देह उत्पन्न होते हैं जिनका वहां निवारण नहीं होता। सत्यार्थ प्रकाश में सभी बातें, मान्यतायें व सिद्धान्त महर्षि दयानन्द जी ने वेदों व वैदिक ग्रन्थों से लेकर मानवमात्र के हित व सुख के लिए सरल आर्यभाषा हिन्दी में वेद प्रमाण, युक्ति व प्रमाणों आदि सहित प्रस्तुत की हैं। यदि वह यह ग्रन्थ संस्कृत में लिखते तो फिर हम संस्कृत जानने के कारण उससे लाभान्वित हो पाते और तब हम अज्ञानी ही रहते और मतमतान्तरों का अपना कारोबार यथापूर्व चलता रहता। हमारा कर्तव्य है कि हम ईश्वर को जानकर उसकी उपासना करें। यद्यपि ईश्वर हमारी आत्मा में व्यापक है, अतः उपासना अर्थात् वह हमारे निकट तो सदा से है परन्तु उपासना में ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित है। यह स्तुति, प्रार्थना व उपासना ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन ही है जैसे कि किसी से उपकृत होने पर हम धन्यवाद कहते हैं। उपासना करने से हमारे गुण-कर्म-स्वभाव सुधर कर ईश्वर के गुणों के अनुरूप यथासम्भव हो जाते हैं। ईश्वर ने हमारे लिये यह विशाल संसार बनाया, इसे चला रहा है, इसमें हमारे सुख के लिए नाना प्रकार की भोग सामग्री बनाई है और हमें मानव जन्म व माता-पिता-बन्धु-बान्धव-इष्टमित्र-आचार्य-ऋषि आदि प्रदान किये हैं। अतः कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा कर्तव्य है अन्यथा हम कृतघ्न होंगे। यदि हम किसी की कोई सहायता करते हैं तो हम भी चाहते हैं कि वह हमारे प्रति कृतज्ञता का भाव रखे। इस भावना की अभिव्यक्ति का नाम ही उपासना है जिसमें स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित है। नियमित यथार्थ विधि से उपासना करने से ही ईश्वर का जीवात्मा में साक्षात्कार भी होता है। यह अतिरिक्त फल उपासना का होता है। ईश्वर साक्षात्कार की अवस्था के बाद जीवन मुक्ति का काल होता है जिसमें मनुष्य उपकार के कार्यों को करता हुआ कर्मों के बन्धन में नहीं फंसता और मृत्यु आने पर जन्म मरण से मुक्त होकर ब्रह्मलोक अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करके ईश्वर के सान्निध्य से आनन्द का भोग करता है। यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है जो सच्चे ईश्वर को जानकर उपासना करने से प्राप्त होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही हमारा जन्म हुआ है। सृष्टि के आरम्भ से सभी ऋषिमुनि विद्वान इस पथ पर चले हैं और हमें भी उनका अनुकरण अनुसरण करना है। इस पथ पर चलने के लिए महर्षि दयानन्द की शिक्षा है कि हमारे सभी कार्य व व्यवहार सत्य पर आधारित होने चाहिये। वह सत्याचार को ही मनुष्यों का यथार्थ व अनिवार्य धर्म बताते हैं। इसके विपरीत असत्य व दुष्टाचार ही अधर्म है।

 

ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक यह समस्त ज्ञान सृष्टि क्रम के अनुकूल व साध्य कोटि का है और वेदों व ऋषि मुनियों के जीवन व उनके सत्य उपदेशों से प्रमाणित है। इसके विपरीत ज्ञान व क्रियायें अज्ञान व मिथ्याचार हैं। यह ज्ञान मुझे मेरे आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती से प्राप्त हुआ है। महर्षि दयानन्द का जन्म गुजराज के राजकेाट जिले के एक कस्बे टंकारा में पिता श्री कर्षनजी तिवारी के यहां 12 फरवरी, सन् 1825 को हुआ था। 14 वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन उन्होंने पिता के कहने से कुल परम्परा के अनुसार शिवरात्रि का व्रत किया था। देर रात्रि शिवलिंग पर चूहों को उछलते-कूदते देखकर उन्हें मूर्तिपूजा की असारता व मिथ्या होने का ज्ञान हुआ था। कुछ काल बाद उनकी एक बहिन व चाचा की मृत्यु होने पर उन्हें वैराग्य हो गया था। 21 वर्ष तक उन्होंने माता-पिता के पास रहते हुए संस्कृत, यजुर्वेद व अन्य ग्रन्थों का अध्ययन किया था। 22 वर्ष की अवस्था में वह सच्चे ईश्वर व मुक्ति के उपायों की खोज व उनके पालन के लिये गृहत्याग कर देशभर में विद्वानों, साधु-सन्यासियों, योगियों के सम्पर्क में आये। मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द से उन्होंने आर्ष संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त प़द्धति से अध्ययन कर सन् 1863 में गुरू की आज्ञा से संसार से धार्मिक व सामाजिक क्रान्ति सहित समग्र अज्ञान व अन्धकार दूर करने के लिये कार्य क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। उन्होंने मौखिक प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान, शास्त्रार्थ, शंका समाधान, ग्रन्था लेखन द्वारा देश भर में घूम घूम कर प्रचार किया। प्रचार के निमित्त ही उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य संस्कृत व हिन्दी में, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि आदि अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन किया। नवम्बर, 1869 में उन्होंने काशी के 30 से अधिक शीर्षस्थ सनातनी विद्वानों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया था। मूर्तिपूजा वेद सम्मत सिद्ध नहीं हो सकी थी न ही आज तक हो पायी है। उनके अनेक विरोधियों ने उन्हें जीवन में अनेक बार विष दिया। ऐसी ही विष देने की एक घटना जोधपुर में घटी। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती के अनुसार इस षडयन्त्र में अंग्रेज सरकार भी सम्मिलित रही हो सकती है। इसके परिणाम स्वरूप 30 अक्तूबर, 1883 को दीपावली के दिन अजमेर में उनका देहावसान हो गया। उन्होंने जिस प्रकार से अपने प्राण त्यागे उससे लगता है कि यह कार्य उन्होंने शरीर के जीर्ण होने पर ईश्वर की प्रेरणा से स्वतः किया। स्वामी जी ने अज्ञान, अंधविश्वासों का खण्डन किया, सामाजिक विषमता को दूर किया, स्त्री व शूत्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिया, विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार तथा समाज से सामाजिक विषमता और अस्पर्शयता को समाप्त किया। लोगों को ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान कराकर सच्ची ईश्वर भक्ति सिखाई और जीवन मुक्ति के लिए मृत्यु व मोक्ष के सत्य स्वरूप का प्रचार किया। देश की आजादी भी उनके प्रेरणाप्रद विचारों व आर्यसमाज के सदस्यों वा अनुयायियों के पुरूषार्थ की देन है।

 

 मेरे आचार्य दयानन्द मेरे ही नहीं अपितु सम्पूर्ण संसार के आचार्य हैं। उन्होंने अज्ञानान्धकार में डूबे विश्व को सत्य ज्ञान रूपी अमृत ओषधि का पान कराया और उसे मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा की। मैं अपने आचार्य का कोटि कोटि ऋणी हूं। संसार के सभी लोग भी उनके ऋणी हैं परन्तु अपनी अविद्या, अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ दुराग्रह आदि कारणों से उससे लाभ नहीं ले पा रहे हैं। संसार के प्रत्येक मनुष्य को महर्षि दयानन्द रचित साहित्य का अध्ययन कर, मतमतान्तरों अज्ञानी धर्मगुरूओं के चक्र में फंस कर, अपने जीवन को सफल करना चाहिये। ईश्वर सबको सदबुद्धि प्रदान करें। महर्षि दयानन्द को कोटिशः नमन।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

माई भगवती जीःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु

एक से अधिक लोगों ने यह प्रश्न पूछा है कि आपने ऋषि जीवन में माई भगवती जी को माई लिखा है। हमने औराी कई लेखों में ऐसा ही पढ़ा है परन्तु दयानन्द संदेश दिल्ली में किसी ने उसे ‘लड़की’ लिखा है। वह ‘हरियाणा’  ग्राम की थी परन्तु उस लेखक ने उसके ठिकाने का भी कुछ और ही नाम लिखा है। यथार्थ इतिहास क्या है?

हमारी विनीत विनती तो यही है कि हमने जो कुछ भी लिखा है इतिहास की प्रमाणिक सामग्री के प्रमाण देकर लिखा है। ‘प्रकाश’ जैसे प्रतिष्ठित पत्र की फाईल देाकर समाचार का स्कैनिंग करवाकर दिया है। स्वामी श्रद्धानन्द जी उसे माई जी लिखते हैं। अब दिल्ली राजधानी का कोई रिसर्च स्कालर अपनी रिसर्च का चमत्कार दिखा दे तो उसकी मनोकामना को पूरा करने में हम क्यों बाधक बनें। माई जी विधवा साध्वी थी। लड़की नहीं थी। इतिहास का मुँह चिढ़ाने से क्या लाभ? आर्य समाज का दुर्भाग्य जो इतिहास प्रदूषण की फैक्टरियाँ धड़ाधड़ गप्पें सप्लाई कर रही हैं। गुरुमुख हार गया, जग जीता। हम अपनी हार स्वीकार करते हैं।

सबसे बड़ी प्रामाणिक विषय सूची? यशस्वी विद्वान् लेखक तथा विचारक श्रीयुत सत्येन्द्रसिंह जी आर्य ने एक गभीर चिन्ताछोड़कर पं. भगवद्दत्त जी द्वारा सपादित सत्यार्थप्रकाश की विस्तृत विषय सूची की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘ऐसी सूची पण्डित जी की कोटि काविद्वान् ही बना सकता है। यह अति कठिन कार्य सबके बस की बात नहीं है।’’

यह सुनकर इस सेवक ने उन्हें बताया कि यह सूची पण्डित जी ने नहीं बनाई थी। यह कठिन कार्य श्री विजय कुमार आर्य जी (श्री अजय आर्य के पिताजी) की श्रद्धा व पुरुषार्थ का फल है। वह यह सुनकर दंग रह गये। तब उन्हें बताया गया कि विजय जी ने अपना नाम नहीं दिया था।हम ऐसे ही विचार विमर्श कर रहे थे कि विजय जी ने स्वयं हमें यह जानकारी दी थी । यह घटना हमने किसी पुस्तक में कभी दी भी थी। पण्डित जी के जीवन काल में हमें इसकी पूरी जानकारी थी।

तब श्री सत्येन्द्र जी को बताया कि सत्यार्थप्रकाश की प्रथम, प्रामाणिक और विस्तृत विषय-सूची लाहौर के दृढ़ आर्य डाक्टर देवकीनन्दन जी ने कभी बनाई थी। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम उर्दू अनुवाद में इसे पढ़कर व्यक्ति दंग रह जाता है। अब तो पं. उदयवीर जी शास्त्री की कोटि के विद्वान् ने उससे भी कहीं आगे की विषय सूची बना दी है।

जीवन की सुवास: स्वामी आत्मानन्द जी महाराज- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

जीवन की सुवासः स्वामी आत्मानन्द जी महाराज एक बार आर्यसमाज देहरादून के एक कार्यक्रम में आमन्त्रित किये गये। समाज के अधिकारियों को यह पता था कि उन्हें रक्तचाप का रोग है। समाज के सज्जनों ने स्वामी जी महाराज से बड़ी श्रद्धा भक्ति से कहा कि सब अतिथियों के भोजन की समुचित व्यवस्था कर दी गई है। आपको रक्तचाप रहता है। आपको वही भोजन मिलेगा जो डाक्टरों ने आपके लिये निर्धारित कर रखा है। अब आप बतायें डाक्टर ने आपको क्या लेने केलिए कहा है। वैसा ही भोजन बन जायेगा।

स्वामी जी ने कहा, मैं भी वही भोजन लूँगा जो अन्य सज्जन लेंगे। मेरे लिये पृथक् से कुछ न बनाया जाये। समाज के अधिकारियों ने बार-बार आग्रह पूर्वक स्वामी जी से अपनी बात कही। यह भी कहा कि हमें इसमें असुविधा नहीं । आप बता दें कि क्या बनाया जावे।

स्वामी जी ने क हा,‘‘मैं जानता हँॅू कि आपका समाज सपन्न है। आपमें सामर्थ्य है परन्तु मैं साधु हूँ। मुझे छोटे बड़े सब समाजों में जाना पड़ता है। यदि अपनी इच्छा के अनुसार भोजन की मांग करुंगा तो लोग क्या कहेंगे? यह साधु तो अपने ही ढंग का भोजन चाहता है। इससे क्या सन्देश जाायेगा? मैं भोजन तो वही लूँगा जो सब लेंगे। जो वस्तु अनुकूल नहीं होगी वह थोड़ी लूँगा।’’

इस घटना को आधी शतादी से भी अधिक समय हो गया। यह प्रेरक प्रसंग श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने सुनाया। वह इसके प्रत्यक्षदर्शी हैं। इस प्रसंग से एक आदर्श संन्यासी, एक महामुनि, यशस्वी दार्शनिक के जीवन की सुवास आती है।स्वामी जी ने देहरादून के आर्यों पर अपने जीवन की अमिट व गहरी छाप छोड़ी । सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले सब छोटे बड़े व्यक्तियों के लिये यह घटना एक बहुत बड़ी सीख है।

श्री तैलंग स्वामी की कहानीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उ.प्र. से एक सुयोग्य आर्य युवक आशीष प्रताप सिंह ने चलभाष पर श्री तैलंग स्वामी की राष्ट्रधर्म में छपी कहानी पर प्रकाश डालने की मांग की। उन्हें बताया गया कि इस लेख पर परोपकारी में सप्रमाण विवेचन किया जा चुका है। श्रीयुत भावेश मेरजा गुजराती भाषा में एक पठनीय लेख में तैलंग स्वामी की कहानी की शव परीक्षा कर चुके हैं। संक्षेप से नये प्रमाणों के साथ उक्त गढ़न्त पर विचार किया जाता है। महर्षि दयानन्द जी ने वैदिक धर्म ध्वजा फहराने , एकेश्वरवाद के प्रचारार्थ, मूर्तिपूजा आदि अंधविश्वासों के उन्मूलन के लिये काशी पर सात बार चढ़ाई की। काशी शास्त्रार्थ में भले ही पण्डितों ने बहुत धाँधली मचाई थी परन्तु काशी के पण्डितों में एक हड़कप सा मच गया।

राष्ट्रधर्म के लेखानुसार तब तैलंग स्वामी का पत्र लेकर उनका कोई व्यक्ति ऋषि से मिला। पत्र में क्या था? यह राष्ट्रधर्म के लेखक को कतई ज्ञान नहीं। पत्र पढ़ते ही ऋषि दयानन्द ने काशी नगरी छोड़ दी। तब पण्ड़ितों की जान में जान आई। उस काल के पत्रों से यही प्रमाणित होता है। कोई भी ये प्रमाण देख ले।

प्रश्न यह है कि तैलंग स्वामी का पत्र पढ़ते ही महर्षि ने काशी से प्रस्थान कर दिया, लेखक ने किस आधार पर लिख दिया। साधु कहीं किसी नगर को चिपक कर तो रहता नहीं । यह कहानी आज तक किसी ने लिखी नहीं औरकही नहीं। तैलंग स्वामी की चर्चा उस काल के साहित्य व किसी पत्रिका में तो किसी ने की नहीं। काशी शास्त्रार्थ के पण्ड़ितों के जमघट में उसका नाम तक नहीं मिलता। ऋषि  इसके पश्चात् छह  बार काशी आये और हर बार शास्त्रार्थ की चुनौती देकर अपनी हुँकार सुनाते रहे। अन्तिम बार जब काशी आये तब श्री मुन्शी इन्द्रमणि जी को लिखा कि शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार करके कोई भी पण्डित सामने नहीं आया। यह है इस कहानी की पोल पट्टी।

काशी शास्त्रार्थ के बारह वर्ष पश्चात् कोलकाता में पुनः देश भर के पौराणिक ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर ऋषि के विरोध में लाया गया । उस जमघट में भी तैलंग स्वामी का नाम नहीं मिलता।

काशी शास्त्रार्थ के छह वर्ष पश्चात् आर्यसमाज की स्थापना हुई। इस काल में जब ऋषि के साथ कोई संगठन नहीं था तब सागर पार के कई देशों में ऋषि पर लेख छपते रहे। ऐसे दस्तावेज हमने खोज लिये हैं। इन में महर्षि की पर्याप्त चर्चा है। काशी शास्त्रार्थ की भी चर्चा है। विरोध की भी चर्चा है परन्तु तैलङ्ग स्वामी का नामोलेख तक कहीं नहीं है। इससे प्रमाणित हो गया कि यह कहानी एक मनगढ़न्त गप्प है। दस्तावेजों में यह भी लिखा मिलता हे कि स्वामी दयानन्द काशी शास्त्रार्थ के उसी विषय (मूर्तिपूजा) पर शास्त्रार्थ करनेके लिए ललकार रहा है कि वेद के प्रमाण मूर्तिपूजा सिद्ध करने की किसी में हिमत हो तो आकर शास्त्रार्थ कर ले परन्तु देश भर के किसी भी विद्वान् में उसका सामना करने का साहस नहीं है।

प्रयाग से छपने वाले Tribune ट्रियून पत्र में भी एक लेा में ऐसा ही छपा मिलता है। इससे अधिक हम इस विषय में क्या लिखें। गप्पें गढ़-गढ़ कर कोई अपने अहं की तुष्टि करना चाहता है तो उसे कौन रोक सकता है?

‘आर्यसमाज के यशस्वी साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

Jigyasu JI

आज चिन्तन करते समय हमारा ध्यान आर्य साहित्य के लेखन, सम्पादन, उर्दू से हिन्दी अनुवाद व प्रकाशन में क्रान्ति करने वाले आर्यजगत के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की ओर गया तो ध्यान आया कि वर्तमान में उर्दू, अरबी व फारसी का ज्ञान रखने वाले विद्वानों में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी न केवल अग्रणीय है अपितु उनके समान हमें उन जैसा दूसरा कोई विद्वान दिखाई ही नहीं देता। हम जानते हैं कि आर्यसमाज वेद और वैदिक साहित्य को प्रमाणित मानता है और वह सब केवल संस्कृत भाषा में ही है। उर्दू, फारसी व अरबी भाषा में आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व का कोई वैदिक धर्म विषयक प्रमाणिक साहित्य नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि महर्षि दयानन्द जी की कालजयी कृतियां हैं जिन्हें उन्होंने संस्कृत में लिखने की योग्यता होने पर भी देश व जाति के हित में आर्य भाषा हिन्दी में लिखा है। देश के स्वतन्त्र होने के बाद उर्दू का प्रभाव व पठन-पाठन कम होकर नाम मात्र का रह गया। शायद इसी कारण आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने उर्दू, अरबी व फारसी के अध्ययन को गौण समझा व माना है। उन्होंने अंग्रेजी पर तो पर्याप्त श्रम किया परन्तु उर्दू आदि की निश्चय ही उपेक्षा की। यह उपेक्षा इस कारण से हमें हानिकर प्रतीत होती है कि महर्षि दयानन्द के 30 अक्तूबर, सन् 1883 को मुक्तिधाम जाने के बाद पंजाब में उर्दू भाषा का अत्यधिक प्रभाव, पठन-पाठन, प्रचार व प्रसार रहा है। इस कारण हमारे अधिकांश विद्वान उर्दू, फारसी व अरबी भाषाओं के अच्छे जानकार रहे हैं और उन्होंने यहां की आर्य जनता के लाभार्थ उर्दू में ही प्रभूत आर्य साहित्य की रचना की है। पंजाब की उर्दू जानने व समझने वाली जनता के लिये हमारे इन आर्य विद्वानों सत्यार्थ प्रकाश सहित वेदों भाष्य के कुछ भाग का अनुवाद भी उर्दू में किया व कुछ अन्य मौलिक साहित्य जिनमें भजन आदि भी सम्मिलित हैं, का लेखन व प्रकाशन हुआ है। महर्षि दयानन्द जी के बाद जिन विद्वानों ने संस्कृत व हिन्दी के साथ-साथ उर्दू का साहित्य लेखन, सम्पादन व प्रचार-प्रसार आदि कार्यों में उपयोग किया उनमें हम स्वामी श्रद्धानन्द, रक्तसासक्षी पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महाशय कृष्ण, महात्मा नारायण स्वामी, मेहता जैमिनी, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, कुंवर सुखलाल जी, स्वामी अमरस्वामी, पं. शान्ति प्रकाश जी, मास्टर लक्ष्मण आर्य, प्रो. उत्तमचन्द शरर जी आदि विद्वानों को सम्मिलित कर सकते हैं। इन विद्वानों मे से अनेकों ने उर्दू के माध्यम से साहित्य की साधना व सेवा की है। हम यह भी जानते है कि आरम्भ में आर्य जगत के अनेक पत्र व पत्रिकायें यथा सद्धर्म प्रचारक, आर्य मुसाफिर, आर्य गजट, प्रकाश, मिलाप व प्रताप आदि उर्दू में ही प्रकाशित होते रहे हैं। अतः यह स्वाभाविक ही है कि आर्यसमाज की बहुमूल्य इतिहास विषयक सामग्री हमारे तत्कालीन उर्दू के पत्रों व ग्रन्थों में सुरक्षित व उपलब्ध है। जो विद्वान उर्दू नहीं जानता, वह उस दुर्लभ व महत्वपूर्ण सामग्री से लाभान्वित नहीं हो सकता। हमने जिन विद्वानों के नाम लिखे हैं, उसी परम्परा में हमारे ऋषि भक्त विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी हैं। आपने अपने उर्दू व फारसी आदि भाषा ज्ञान तथा तप व पुरूषार्थ पूर्वक साहित्यिक अनुंसधान कार्य कर दुर्लभ व महत्वपूर्ण आर्य साहित्य में सर्वाधिक वृद्धि की है और ऐसा कीर्तिमान बनाया है कि जिसे प्राप्त करना भविष्य के किसी विद्वान के लिए स्यात् सम्भव न हो।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने महर्षि दयानन्द और आर्य समाज से संबंधित समस्त उर्दू साहित्य, ग्रन्थ, पुस्तक व पत्र-पत्रिकाओं आदि का आलोडन कर बहुमूल्य साहित्य प्रदान कर आर्य जगत की जो सेवा की है उससे उन्होंने आर्यसमाज व आर्य जाति के इतिहास में  अपना अमर स्थान बना लिया है। उनकी सेवाओं से आर्यसमाज धन्य हुआ है। हम आर्यसमाज के समस्त विद्वानों व प्रचारकों का आवाह्न करते हैं कि वह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की साहित्य सेवाओं का उचित मूल्यांकन करें और उनका सार्वजनिक सम्मान न सही, एक पत्र लिखकर ही उन्हें कहें कि आपने साहित्य के माध्यम से जो अपूर्व व प्रभूत सेवा की है उसके लिए आर्यसमाज और हम आपके आभारी हैं और आपके व आपके परिवार के लिए हार्दिक शुभकामनायें व्यक्त करते हैं। हमें लगता है कि यह कार्य अत्यन्त आवश्यक है जो प्रत्येक आर्य समाज के विद्वान व सदस्य को अपने सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अवश्य करना चाहिये, ऐसा हम अनुभव करते हैं। यदि श्री जिज्ञासु जी किसी कारण आर्यसमाज को न मिले होते तो आर्यसमाज उनके द्वारा किये गये इन सभी महत्वपूर्ण कार्यों से वंचित रहता। इसके लिए ईश्वर का कोटिशः धन्यवाद है।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी वर्तमान के अन्य आर्य विद्वानों से काफी कुछ भिन्न प्रकार का व्यक्तित्व रखते हैं। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सर्वात्मा समर्पित हैं। ईश्वर और वेद भक्ति, महर्षि दयानन्द का शिक्षामय जीवन, दयानन्दजी सहित पूर्व ऋषियों व विद्वानों का साहित्य और आर्य महापुरूषों के प्रेरणाप्रद जीवन ही उनकी शक्ति का मुख्य आधार है। इससे प्राप्त शक्ति से ही उन्होंने आर्यसमाज में अपूर्व व प्रभूत साहित्य सृजन का कार्य करके नया कीर्तिमान बनाया है। उन्होंने जितनी स्वलिखित, अनुदित व सम्पादित साहित्यिक सामग्री प्रदान की है, उससे वह वर्तमान के आर्यजगत के सभी विद्वानों में प्रथम स्थान पर खड़े दिखाई देते हैं। विषय की भिन्नताओं के कारण सभी विद्वानों का अपना-अपना महत्व हम समझते हैं परन्तु एक स्कूल के शिक्षक के रूप में सेवा व पारिवारिक दायित्व के साथ वेद व आर्यसमाज के प्रचार, लेखन, अनुसंधान व अनुवाद आदि कार्यों को साथ-साथ निभाते हुए साहित्य का जो विशाल भण्डार हमारे सामने प्रस्तुत किया है, वह आने वाली पीढि़यों के मार्गदर्शन और प्रेरणा का स्रोत बनेगा। आरम्भ से ही हमारा यह विचार रहा है कि वैदिक विद्वान किसी समूह विशेष का नहीं होता। विद्वान सर्वत्र पूज्यते के अनुसार विद्वान सबका पूज्य होता है। इसी के आधार पर हम प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी को भी आर्यसमाज की एक महान विभूति और समाज के सभी अनुयायियों व विद्वानों का पूज्य मानते हैं। हमने यदा-कदा यह भी अनुभव किया है कि कुछ विद्वानों में एक दूसरे के प्रति राग व द्वेष होता है। यह उचित नहीं है। हम महर्षि दयानन्द के शिष्य हैं और हमें उनका ही अनुकरण करना चाहिये। राग, द्वेष व पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सभी विद्वानों का अन्य सभी विद्वानों के प्रति सम्मान, आदर, प्रशंसा, वन्दना का भाव होना चाहिये तथा प्रत्येक को परस्पर पे्ररक व सहयोगी होना चाहिये। हम जिज्ञासु जी को ऐसा ही मानते हैं और आशा करते हैं कि महर्षि दयानन्द के प्रति समर्पित विद्वानों के प्रति वह व सभी विद्वान ऐसा ही भाव रखते हैं व रखेंगे।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु सम्प्रति 84 वर्ष की वय पूरी कर वयोवृद्ध हैं फिर भी वह एक युवक की तरह लेखन, अनुवाद, सम्पादन व प्रचार कार्यों में लगे हुए हैं। हमें जानकारी मिली है कि सम्प्रति वह मेहता जैमिनी जी की उर्दू पुस्तक गोमाता प्राणादाता का अन्तिम ईक्ष्यवाचन कर रहे हैं। यह ग्रन्थ विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नईसड़क, दिल्ली से प्रकाशित होकर कुछ ही दिनों, श्रावणी पर्व अथवा कृष्णजन्माष्टमी पर्व पर उपलब्ध होने की सम्भावना है। जिज्ञासु जी ने इस उर्दू पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद कर गोमाता के महत्व पर उपलब्ध अन्य नवीन सामग्री का समावेश भी उसमें कर दिया है। इस पुस्तक के अनुवाद व प्रकाशन की प्रेरणा हमें प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु लिखित व प्रकाशित मेहता जैमिनी के जीवनचरित को पढ़ते हुए हुई थी जिसके लिए हमने प्रकाशक श्री अजय आर्य जी से निवेदन किया था। जिज्ञासु जी सतत साहित्य के अनुसंधान तथा ऊहापोह में लगे रहते हैं। महर्षि दयानन्द के एक भक्त ठाकुर मुकुन्द सिंह द्वारा सन् 1890 के लगभग उर्दू में प्रकाशित एक 200 पृष्ठीय दुर्लभ ग्रन्थ को भी उन्होंने अलीगढ़ के आर्य बन्धुओं की सहायता से प्राप्त कर लिया है। इस पुस्तक में एक पूरा अध्याय गोमाता के महत्व पर है। इसके अनुवाद कार्य को आप आरम्भ करने वाले हैं। एक आर्यबन्धु द्वारा महाराणा रणजीत सिंह जी पर लिखित पुस्तक भी अपने प्राप्त की है। इस आर्यबन्धु ने अपनी 18 वर्ष की आयु में महाराणा रणजीत सिंह के दर्शन किये थे। इस ग्रन्थ व इसमें विशेषकर आर्यसमाज के लिए लाभप्रद स्थलों के अनुवाद व प्रकाशन की भी आपकी योजना है। इसके साथ ही आप आचार्य वेदपाल जी द्वारा सम्पादित महर्षि दयानन्द के पत्र व विज्ञापनों के अद्यतन संशोधित प्रकाशनाधीन संस्करण के प्रूफ संशोधन व उन पत्रों को महर्षि के जीवन चरित्रों आदि से मिलानकर उसे पाठकों के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने के कार्य में भी जुटे हैं। इससे पूर्व यही कार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. भगवद्दत्त जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी तथा श्री मामराज जी ने भी किया है। हम यह भी कहना चाहेंगे कि परोपकारिणी सभा को इसका प्रकाशन करते समय इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये कि इससे रामलाल कपूर ट्रस्ट के हितों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े जिसने महर्षि दयानन्द के पत्र-व्यवहार का प्रकाशन चार भागों में किया हुआ है।

प्रा. जिज्ञासु जी पाक्षिक पत्र परोपकारी, अजमेर में कुछ तड़पकुछ झड़प नाम से स्तम्भ लिखते हैं। इस शीर्षक से आप प्रत्येक अंक में कुछ प्रमुख ऐतिहासिक, विलुप्त, दुर्लभ व नई जानकारी से पाठको को अवगत कराते हैं। इस बार के अंक में आपने बताया है कि महर्षि दयानन्द अंग्रेजी न्यायालय का अपमान करने वाले पहले भारतीय थे। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितम्बरअक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शब्दों में व्यक्त किया था-‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी (भारतीय) की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं। इसी लेख से यह भी ज्ञात होता है कि आपकी दो नई पुस्तकें इतिहास की साक्षी, महर्षि दयानन्द सरस्वती और पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी के सम्बन्ध और प्रसाद’ (उर्दू के महाकवि प्रो. तिलोकचन्दमहरूमके अपने एक प्रसिद्ध शिष्य महाकविमहाशय जैमिनीशरशार को लिखे पत्रों का संग्रह) प्रकाशित हुई हैं। परोपकारी के अगस्त-द्वितीय अंक में यह महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गई है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा महाराष्ट्र के सूपा में गुरूकुल स्थापित किया गया था। विगत माह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु अपनी यात्रा में यहां पधारे। इस गुरूकुल, सूपा में कभी महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आकर रहे थे। यह कुछ संक्षिप्त उदाहरण हमने दिये हैं। पत्रिका में उनके दोनों लेख अतीव महत्वपूर्ण हैं। शायद अन्य विद्वानों से ऐसे लेखों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

जिज्ञासु जी में आर्यसमाज के कार्यों के लिये जो दीवानापन और जुनून है, उससे जुड़ी घटना को प्रस्तुत कर हम लेख को विराम देंगे। जिज्ञासु जी का विगत 11 सितम्बर, 2014 को डा. धर्मवीर जी आदि के साथ केरल की प्रचार यात्रा पर जाने का कार्यक्रम था। 9 सितम्बर को आप कुछ विचारों में खोए हुए अबोहर में पैदल कहीं जा रहे थे। वहीं आसपास कुछ लोग झगड़ रहे थे। अचानक एक लकड़ी का टुकड़ा तेज गति से आकर आपके सिर से टकराया जिससे रक्त प्रवाह होने लगा। घाव काफी गहरा था। डाक्टरों ने आठ टांके लगाकर स्वास्थ्य लाभार्थ आपको पूर्ण विश्राम की सलाह दी। इस स्थिति में भी आप घर पर रूके नहीं और अगले दिन 10 सितम्बर को दिल्ली आ गये जबकि आपकी धर्मपत्नी जी ने आपको बहुंत समझाया। 14 सितम्बर, 2015 को आपने केरल के कार्यक्रम में भाग लिया। केरल में चिकित्सकों ने आपकी चोट की मरहम पट्टी की और इस स्थिति में यात्रा करने को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया। इस पर भी आप केरल से जोधपुर होते अबोहर वापिस लौटे और लेखन व प्रवचन आदि का कार्य भी निरन्तर करते रहे। यह महर्षि व पं. लेखराम जी वाला जज्बा आपमें है जिससे आपकी ईश्वर-वेद व ऋषि भक्ति की झलक मिलती है। सभी ऋषिभक्तों को जिज्ञासु जी के जीवन की इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिये। इस वर्ष के आरम्भ में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी श्री लक्ष्मण जिज्ञासु, गाजियाबाद के पुत्र के नामकरण संस्कार में सम्मिलित हुए थे। अनेक अन्य आर्य विद्वान भी इस आयोजन में उपस्थित थे। इस अवसर पर डा. धर्मवीर जी ने जिज्ञासु जी को आर्यसमाज के भीष्म पितामह कहकर सम्बोधित किया। जिज्ञासु जी के लिए प्रयुक्त यह शब्द व उपधि उचित ही है। उन्होंने जीवन भर पं. लेखराम व अन्य प्रसिद्ध विद्वानों की परम्परा का निर्वाह किया है। उनके उत्तराधिकारी की आर्यसमाज को प्रतिक्षा है। ईश्वर से हमारी विनती है कि वह जिज्ञासु जी को स्वस्थ रखें और वह दीर्घायु हों तथा इसी उत्साह से अनुसंधान, लेखन, सम्पादन, अनुवाद व प्रकाशन का कार्य करते हुए ऋषि ऋण चुकाते रहे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वर्तमान शिक्षा में समग्र वैदिक विचारधारा को सम्मिलित करना सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास और देशोन्नति के लिए आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सभी नागरिकों, नेताओं व सुधी जनों का कर्तव्य हैं कि वह देश की अधिक से अधिक उन्नति पर विचार करें और अच्छे-अच्छे सुझाव समाज व देश को दें। देश में जो लोग व शक्तियां देश व सर्वहितकारी विचारों व योजनाओं का किसी भी कारण से विरोध करें, देश की शिक्षित प्रजा को मत-सम्प्रदाय-पन्थ आदि से ऊपर उठकर सामूहिक रूप से असरदार विरोध करना चाहिये जिससे उनकी हिम्मत पस्त हो जाये। देश की सभी समस्याओं का हल और उन्नति का मूल मन्त्र क्या है? इसका उत्तर बहुत सरल है और वह यह है कि देश के सभी लोगों के लिए एक समान व सत्य मूल्यों पर आधारित ऐसी शिक्षा जिससे देश के सभी मनुष्यों का पूर्ण बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक विकास हो। अविद्या का नाम व विद्या की वृद्धि होनी चाहिये। यह सिद्धान्त धर्म, ज्ञान व विज्ञान के सभी क्षेत्रों पर लागू होता है। अत्यधिक स्वतन्त्रता व इसके नाम पर कुछ भी करने की छूट किसी को नहीं होनी चाहिये। हर कार्य मर्यादित हो और उसकी उपेक्षा व उल्लघंन दण्डनीय हो। यदि ऐसा होता है तो हमें सच्चरित्र, देश भक्त व समाज का सुधार करने की भावना रखने वाले बड़ी संख्या में युवक व युवतियां मिल सकती हैं जिससे देश की तस्वीर बदल सकती है। इसके साथ ही आजकल समाज में धर्म के नाम पर जो व्यापार व दुश्चरित्रता की घटनायें घट रही हैं एवं भोले-भाले लोगों का शोषण हो रहा है, उसको नियन्त्रित करने में भी सहायता मिल सकती है। यदि अन्धविश्वास व मिथ्या मान्यताओं के मकड़़जाल की वर्तमान स्थिति को निर्मूल नहीं किया गया तो यह देश के भविष्य के लिए घातक हो सकती है।

शिक्षा क्या होती है? शिक्षा हमारी बुद्धि का परिष्कार करने वाली व उसको शोभा प्रदान करने वाली ज्ञान से युक्त एक ऐसी ओषधि है जिससे मनुष्य का जीवन अज्ञान व अविद्या के रोग से मुक्त रहता है व जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में सफल होता है। वेद ज्ञान रहित शिक्षा मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास करने में असफल है यह हमने विगत अनुभवों से देखा है। मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, आचार्य चाणक्य व महर्षि दयानन्द पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि इनका निर्माण वैदिक शिक्षा द्वारा ही हुआ था। वैदिक शिक्षा की महत्ता यह है कि इससे मनुष्य को अपने जन्म के कारणों व उद्देश्य का पता चलता है जो कि अन्य किसी भी शिक्षा पद्धति से सम्भव नहीं है। वैदिक शिक्षा पद्धति से शिक्षित व दीक्षित बालक व विद्यार्थी मानव बनता है, दानव नहीं। दानव शब्द का अर्थ गलत व बुरे काम करने वाला मनुष्य कर सकते हैं। यदि वैदिक शिक्षा में शिक्षित व्यक्ति भी कोई गलत काम करता है तो यह उसके अपने अत्यन्त बुरे संस्कारों, सामाजिक वातावरण व पढ़ाने वाले अध्यापकों की अध्यापन क्षमता में कमी के कारण होता है। हम यहां एक आर्य संन्यासी के जीवन का एक उदाहरण देते हैं। यह स्वामीजी गुरूकुल खोलने के लिए भूमि की तलाश में किसी ग्राम में आकर किसी मैदान के बडे वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। वहां के भूस्वामी एक जमींदार अपने घोड़े पर आते हैं और स्वामीजी से प्रश्नोत्तर करते हैं। स्वामीजी ईश्वर भक्त थे, अतः क्रोधी व अहंकारी कोटि के मनुष्यों से उन्हें कोई भय नहीं था। दूसरी ओर यह जमींदार क्रोधी व अंहकारी प्रवृत्ति के थे। स्वामीजी ने उसका व्यवहार देखा तो उसकी उपेक्षा की और उसे फटकार दिया। आग बबूला होकर वह घर लौटा। पत्नी ने उनकी दशा देखी तो कारण पूछा? कारण जानकर उस देवी ने कहा कि जीवन में अभी तक आपको कोई दिव्य पुरूष नहीं मिला जिसके कारण आपके स्वभाव में क्रोध व अहंकार आदि अवगुण विद्यमान हैं। जिस व्यक्ति ने आपको फटकारा है वह कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकता। जाईये, उनसे क्षमा याचना कर उनकी योग्य सेवा पूछिये? पत्नी की सलाह उन्हें ठीक लगी और वह स्वामीजी के पास आकर अपने कृत्य पर क्षमाप्रार्थी हुए। उसी व्यक्ति ने स्वामी जी को सैकड़ों बीघा भूमि दान की जहां बाद में एक गुरूकुल बना। ऐसी ही एक घटना में एक जमीदार श्री अमन सिंह ने कांगड़ी ग्राम की अपनी 1400 बीघा जमीन महात्मा मुंशी राम, बाद में स्वामी श्रद्धानन्द, को गुरूकुल कांगड़ी के निर्माण के लिए निःशुल्क प्रदान की थी। मनुष्य के जीवन में ऐसा सात्विक परिवर्तन वैदिक विचारों व संस्कारों के उद्भव से ही होता है। यह तो एक घटना का प्रभाव है। यदि पूरे वेद की शिक्षायें किसी मनुष्य को प्राप्त हो जायें तो वह वैदिक विद्वान व ऋषि कोटि का आप्त पुरूष बन सकता है, जो ईश्वर के बाद सबका पूजनीय होता है।

वैदिक शिक्षा की एक विशेषता यह है कि इसमें सत्य पर अधिक बल दिया जाता है। बालक व विद्यार्थी के जीवन से उसके दुर्गुणों व दुव्र्यस्नों को दूर करने के लाभ व हानियों से परिचय कराया जाता है। प्रातः 4 बजे उठकर शौच, वायुसेवन व व्यायाम से आरम्भ कर ईश्वर का ध्यान-संध्या-उपासना, तदन्तर अग्निहोत्र-यज्ञ व दिन में सभी आवश्यक विषयों का अध्ययन कराया जाता है। सन्ध्या व ध्यान इसलिये किया जाता है कि हमारे दुष्ट दुर्गुण हमसे दूर होकर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव हमारे जीवन में प्रविष्ट हों। ऐसा व्यक्ति ही महात्मा, सज्जन, धर्मात्मा, विद्वान व पूजनीय कहलाता है। गुरूकुल व वैदिक शिक्षा का विद्यार्थी शुद्ध शाकाहारी भोजन जिसमें गोदुग्ध व फल आदि भी होते हैं, ही करता है। आज हम समाज में पढ़े लिखे लोगों द्वारा असत्य व्यवहार यथा दुष्टता, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार आदि के अनेक उदाहरण देखते हैं। इसका कारण केवल बाल्यावस्था में बच्चाचें को वैदिक संस्कारों का न दिया जाना है। जितने दोषी ऐसे बुरे कार्य करने वाले व्यक्ति होते हैं, उतना ही दोष इनकी शिक्षा प्रणाली का है। यह ऐसा ही है कि कोई किसी अविद्वान से अध्ययन कर विद्वान बनना चाहे। शिक्षा एकांगी न होकर सर्वांगीण होनी चाहिये। हमें वर्तमान शिक्षा एंकागी लगती है और वर्तमान शिक्षा और वैदिक शिक्षा का समन्वित रूप ही सर्वांगीण प्रतीत होता है। यदि वैदिक शिक्षा में कोई त्रुटि या कमी होती तो इसके द्वारा राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य जैसे देवता और माता सीता, रूकमणी, गार्गी, सती अनुसूया जैसी देवियां का निर्माण हुआ होता। आधुनिक काल में भी हम स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी सर्वानन्द, पं. बुद्धदेव मीरपुरी, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि विद्वानों को देखते हैं तो हमें वैदिक शिक्षा का महत्व पता चलता है। इन लोगों ने वैदिक संस्कारों को प्राप्त कर देश व जाति के सुधार व निर्माण के जो कार्य किये हैं, उनसे देश की उन्नति व विद्या के प्रचार प्रसार में बहुत योगदान किया है।

वैदिक शिक्षा के अध्ययन व पाठ्यक्रम पर महर्षि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में प्रकाश डाला है। वर्तमान शिक्षा के साथ उसका सामंजस्य कर उसका समावेश वर्तमान सरकारी व प्राइवेट विद्यालयों की शिक्षा में होना चाहिये। वैदिक शिक्षा की एक विशेष देन ईश्वरोपासना है। यह ईश्वरोपासना एक ऐसी साधना है कि जिसमें ईश्वर के समस्त गुणों का चिन्तन कर स्तुति की जाति है। संसार के सभी गुणों की पराकाष्ठा ईश्वर में है। ईश्वरोपासना से ईश्वर के सभी गुण उपासना करने वाले मनुष्य के जीवन में स्वतः आना आरम्भ हो जाते हैं। स्तुति-प्रार्थना-उपासना का अर्थ ही ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का वेद एवं वैदिक साहित्य के आधार पर विचार कर उसे अपने जीवन में धारण करना है। जो व्यक्ति उपासना तो करते हैं परन्तु उनमें ईश्वर के श्रेष्ठ गुणों का समावेश नहीं होता उनकी उपासना दिखावा मात्र होती है। महर्षि मनु ने ऐसे मनुष्यों को श्रेष्ठ मनुष्यों के समूह से पृथक कर उन्हें निम्न व्यक्तियों के समूह में रखने का विधान किया हुआ है। वैदिक शिक्षा का एक अनिवार्य विषय आर्ष संस्कृत का ज्ञान है। देश बालक हिन्दी अंग्रेजी तथा क्षेत्रीय भाषायें पढ़ सकते हैं तो वह ईश्वर प्रदत्त विश्व की सभी भाषाओं की जननी वैदिक संस्कृत को भी अवश्य पढ़ सकते हैं। इसका विरोध धर्मान्ध व्यक्ति ही कर सकते हैं। संस्कृत का ज्ञान जीवन को सफल बनाने के लिए अति आवश्यक है। अतः देश भर में इसका प्रचार व अनिवार्यता होनी चाहिये तभी शिक्षा से शुभ परिणाम हमारे सामने आयेंगे। यदि संस्कृत नहीं पढ़ेगें तो देश का वेद व विशाल वैदिक साहित्य अनुपयोगी हो जायेगा जिसकी रचना हमारे सभी पूर्वजों ने हमारे हित को ध्यान में रखकर की थी। इससे हम सब अपने पूर्वजों के कृतघ्न होंगे। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये। इस कार्य की अपेक्षा वर्तमान में किसी भी विचारधारा वाली सरकार से नहीं की जा सकती। सबके अपने अपने पूर्वाग्रह हैं। आर्य समाज गुरूकुलों के माध्यम से यथाशक्ति यह कार्य कर रहा है जो कि प्रशंसनीय है।

वैदिक शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य मनुष्य का चरित्र निर्माण है। जो व्यक्ति जीवन में बुरे काम करता है वह अपने माता-पिता, आचार्य व कुल को दूषित करता है। ऐसी सन्तानें प्रशस्य न होकर निन्दनीय होती हैं। आजकल तो ऐसे दूषित कार्य साधारण लोग नहीं अपितु धर्मात्मा व महात्मा कहलाने वाले लोग कर रहे हैं। ऐसा वर्तमान शिक्षा, सामाजिक वातावरण, विदेशी मूल्यों व मान्यताओं को प्राथमिकता तथा कुछ अन्य कारणों से है। इन कारणों को दूर करने का एक ही उपाय वैदिक शिक्षा का वर्तमान शिक्षा में पूर्ण समावेश करने का हमने उपर्युक्त पंक्तियों में दिया है। ऐसा करके मनुष्यों के चरित्र निर्माण सहित देशोन्नति का लक्ष्य तो प्राप्त होगा ही, साथ हि मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष को भी प्राप्त करने में आगे बढ़ेगा। इन्हीं पंक्तियों के साथ हम लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

गूञ्जा संसार सारा, स्वामी तेरा जयकार – राजेन्द्र जिज्ञासु

गूञ्जा संसार सारा, स्वामी तेरा जयकार :- परोपकारी के मई पास के द्वितीय अङ्क में इस स्तभ में अमरीका से प्रकाशित बाइबल के नये संस्करण के कुछ अवतरण देकर महर्षि की विश्वव्यापी दिग्विजय की चर्चा की गई थी। कुछ लोग समाचार पत्रों में अपने प्रचार के लिए भ्रूण हत्या समेलन व पद्यात्रायें निकालते हैं। उनको सैद्धान्तिक दिग्विजय व वैचारिक क्रान्ति में कोई रूचि नहीं। आज उसी क्रम को आगे चलाते हैं। महर्षि ने अमैथुनी सृष्टि, आदि सृष्टि में अनेक युवा स्त्री पुरुषों की उत्पत्ति का जब सिद्धान्त संसार के सामने रखा तो ऋषि का उपहास उड़ाया गया। लोग आर्यों पर हँसते भी थे और इस नियम पर शास्त्रार्थ भी किया करते थे।

अभी कुछ सप्ताह पूर्व टी.वी. में एक मौलाना जी ने कहा था कि आदम हमारे पैगबर थे। आदम व हौआ माई से मानव जाति की उत्पत्ति हुई। अब पाठकों को यह ध्यान देना चाहिये कि अब तक बाइबल में यह पढ़ते आये थे, And God said, Let us make man in our own image.’’ अर्थात् परमात्मा ने कहा कि अपने सदृश मनुष्य को बनाते हैं। तब एक पुरुष (आदम) को बनाया गया। अब अमरीका से छपे बाइबल में हम पढ़ते हैं, “And god said, Let us make Human Beings in our likeness.’’ अर्थ अपने सदृश्य मनुष्यों का सृजन करते हैं। अब यहाँ अनेक स्त्री पुरुषों की उत्पत्ति की घोषणा हो रही है। फिर आगे अगली आयत में भी इस कथन को दोहराते हुए लिखा है,  ,  “ So God created human beings in his own image, in the image of god He created them.’’ यहाँ भी अनेक स्त्री पुरुषों को बनाने की पुष्टि की गई है। बाइबल में यह पाठ भेदवन्दनीय है। यह स्वागत योग्य है। आदि सृष्टि के ये मनुष्य भ्रमण करते थे। भाग दौड़ करते थे। फल अन्न सब वनस्पतियों का सेवन करते थे। ये सब कार्य शिशु नहीं जवान ही कर सकते हैं। नंगे-नंगे शिशुओं को लज्जा नहीं आती। लज्जा जवानों को आती है तब इन नंगे स्त्री पुरुषों ने वृक्षों की छाल से अपनी नग्नता को ढका।

आर्यों। पूरे विश्व में ऋषि की इस दिग्विजय का जोर शोर से प्रचार करो। पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, पं. रामचन्द्र देहलवी के वंश के दिवंगत विद्वान् आज होते तो मैं एक-एक के चरण स्पर्श करके उन्हें बधाई देता। यह मूर्तिपूजक मण्डल, ऋषियों की विजय पताका फहराने वाले हमारे शास्त्रार्थ महारथियों की उपलधियाँ क्या जाने। यह स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी भाषण का ही ढोल बजाना जानता है। सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में है । उसे यह क्या समझे?

गुजरात प्रचार यात्रा का सन्देश : डॉ धर्मवीर

कोई भी किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता। हमारी यह गुजरात यात्रा भी निष्फल नहीं रही। यात्रा का मूल उद्देश्य था ऋषि दयानन्द की यात्रा का स्मरण और ऋषि के विचारों को नई पीढ़ी तक पहुँचाना। संसार में मनुष्य अपने लोगों की और अपने जैसे लोगों की इच्छा रखता है। प्रथम अपनापन जन्म से आता है, माता-पिता बच्चे को अपना समझते हैं, बच्चा माता-पिता को अपना समझता है। परिवार के विस्तार में भाई-बहन के बाद सबन्धी आते हैं, जिनको मनुष्य अपना मानता है। इसके बाद इससे बड़ा दायरा जाति के रूप में आता है। जन्म से अपनापन यहीं तक रहता है। इसके बाद अपनेपन के बहुत क्षेत्र हैं। क्षेत्र, भाषा, धर्म, राजनीति, व्यापार, व्यवसाय में जहाँ-जहाँ समानता है, मनुष्य उस-उसके साथ अपनापन जोड़ता है। इनकी अपनेपन की सीमा होती है। इस समानता में विचारों की समानता सबसे बड़ा वर्ग बनाती है। इन्हीं विचारों के आधार पर मनुष्य का संगठन बनता है। इन संगठन, संस्था, परिवारों को हम अपना और दूसरे का मानकर व्यवहार करते हैं। जब मनुष्य आज के जीवन से परे के जीवन की बात करता है तो ऐसे विचारों के संगठन को हम धर्म, मत, सप्रदायों की श्रेणी में लेते हैं। सभी संस्थाओं में विचारों के आधार पर बनने वाली संस्थाओं का रूप व्यापक होता है।

जन्मगत संस्थायें तो रक्त सबन्धों से बंधी होती हैं, उनके व्यापक होने में लबे समय की आवश्यकता होती है। क्षेत्रीय या क्षेत्रीयता, भाषा, कार्य पर आधारित संगठनाी कार्य क्षेत्र तक सीमित रहते हैं। विचारों पर आधारित संगठन, संस्थायें, अपने भौगोलिक परिवेश से बाहर भी जा सकती हैं। हम देखते हैं कि जो इस्लाम अरब में उत्पन्न हुआ, वो आज संसार में बड़े भाग में फैल गया है। यही बात हम ईसाइयत के विषय में घटित होती देखते हैं। येरुशलम से विश्व के अनेक देशों की यात्रा ईसाइयत ने की है। भारत में उत्पन्न बौद्ध धर्म भारत से पूर्व के देशों चीन, जापान आदि में आज भारत से भी अधिक लोगों का धर्म है। जैन मत भारत से बाहर तो बहुत नहीं है परन्तु भारत में बड़ी संया में इस मत के मानने वाले लोग हैं। इस प्रकार अपनेपन का सबसे अच्छा आधार है- समान विचार का होना।

जैसे जन्मगत सबन्ध प्राकृतिक होने के साथ हमारी सुरक्षा और साधनों का आधार होते हैं। जब तक ये आधार रहता है, ये सबन्ध हमें स्वीकार्य होते हैं। जैसे ही हमें अपनी सुरक्षा और सपत्ति पर छिनने, नष्ट होने का भय लगने लगता है, तब ये सबन्ध हमारे लिए व्यर्थ हो जाते हैं। अतएव देश में जितने विवाद और झगड़े होते हैं वे अधिकांश परस्पर सबन्धियों में होते हैं। उनमें भी एक परिवार में, एक माता-पिता से उत्पन्न भाई-बहनों में सबसे अधिक विवाद देखे जाते हैं। जब हमारा परिवार एक नहीं रह सकता तो गोत्र, जाति की एकता की बात करना व्यर्थ है। सभी तभी तक एक हैं जब तक सबके स्वार्थ सिद्ध होते हैं। स्वार्थ हानि होने पर कोई किसी के साथ रहना नहीं चाहता।

जन्मगत, सबन्धगत और जातिगत संस्थाओं की यह स्थिति है, वहाँ विचारगत सबन्धों का भी यही हाल है। अनेक विचार हैं तो भिन्नाी हैं। भिन्न हैं तो परस्पर विरोध भी होगा। एक मत दूसरे मत का विरोध करता है तो स्वार्थ के अतिरिक्त कोई कारण नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में विचार का आधार भी सपूर्ण रूप से अपनेपन का आधार नहीं बनता। एक विचार के लोग दूसरे विचार वालों को विरोधी और शत्रु मानकर व्यवहार करते हैं, तब इसके विस्तार की भी सीमा है। ऐसे विचार कितने भी बढ़ जायें, उनमें भी स्वार्थवश संघर्ष सदा ही होते रहते हैं, होते रहेंगे। प्रश्न उठता है क्या कोई ऐसा विचार भी हो सकता है जिसमें सबका समावेश किया जा सकता है? इसके लिये हमको अपना पिछला इतिहास देखना होगा, वही हमारी समस्या का समाधान कर सकता है।

इतिहास में क्या कोई ऐसा विचार है जिसके स्वीकार करने से सबका कल्याण हो सकता है। क्या सबका विचार एक ही हो सकता है? इतिहास में निर्णायक स्थिति ऐसी हैं जहाँ पर विचार को अन्तिम रूप से अपना आधार बनाया गया है, वहाँ भी विचार को दो भागों में विभक्त किया गया। जो सबके कल्याण की कामना करता है। जिसके स्वीकार करने से सबका भला होना निश्चित है। दूसरा विचार है जो अपना भला करता है, उसको दूसरे के भले-बुरे की चिन्ता नहीं है। इस प्रकार संसार में दो विचार हैं- अच्छे या बुरे। बुरे विचार बुरे इसलिये होते हैं कि अपना भला करने में दूसरे का बुरा हो जाता है या करना पड़ता है। भले विचार की कसौटी है, अपना भला उसे अन्यों की भलाई में लगता है। अच्छे और बुरे धर्म की यही कसौटी है। बुरे विचारों का प्रचार नहीं करना पड़ता, उन्हें सिखाना नहीं पड़ता, बताने की भी आवश्यकता नहीं होती। इसके विपरीत अच्छे विचारों को निरन्तर बताना पड़ता है, सबको बताना पड़ता है।

सब मत-मतान्तरों के रहते ऋषि दयानन्द को क्या आवश्यकता पड़ी कि पुराने प्रचलित विचारों को छोड़कर उन्होंने लोगों को नये विचारों को स्वीकार करने के लिये प्रेरित किया। पहली बात ऋषि दयानन्द के विचार प्रचलित विचारों से न केवल भिन्न थे अपितु नितान्त विरोधी थे। ऐसी परिस्थिति में या तो प्रचलित विचार अच्छे थे तो स्वामी दयानन्द के विचार गलत होने चाहिए। यदि ऋषि दयानन्द के विचार ठीक हैं तो दूसरे मत-पन्थों के विचारों को मिथ्या या अनुचित कहने का साहस करना चाहिए। ऋषि दयानन्द ने अपने विचारों को सत्य माना और प्रचलित विचारों को मिथ्या घोषित किया। इस घोषणा को हम सत्य कैसे मानें, कैसे स्वीकार करें कि आज प्रचलित मत-पन्थ मिथ्या हैं? यह बात हमारे कहने मात्र से तो मान्य नहीं होगी, न केवल प्रमाण देने मात्र से बात बन सकती है। शास्त्र का प्रमाण तो केवल उसको स्वीकार्य होता है जो शास्त्र को प्रमाण कोटि में मानता हो। जो शास्त्र को स्वीकार ही नहीं करता उसे मिथ्या कहता है ऐसा व्यक्ति कैसे कहेगा कि कौन सा विचार ठीक है और कौन सा विचार गलत है?

हम भली प्रकार से समझते हैं कि संसार में अच्छे और बुरे दो ही प्रकार के विचार हैं, इनसे दो ही कार्य सिद्ध होते हैं, स्वार्थ और परोपकार यही एक ऐसी कसौटी है जिसे पढ़ा या अनपढ़, सभी मनुष्य जान सकते हैं कि दुनिया में क्या अच्छा है या क्या बुरा है? धर्म, अधर्म इस अच्छे-बुरे का पर्यायवाची ही तो है। इसी कारण जो अच्छा है, उसे सत्य और उसे ही धर्म कहा जाता है। इसके विपरीत जो बुरा है, असत्य है, वही अधर्म है। स्वामी दयानन्द धर्म की परिभाषा ही यह करते हैं, जिस कार्य या जिस विचार को सभी अच्छा मानते हैं, वही धर्म है। जिस विचार को कुछ लोग अच्छा मानते हैं, ठीक मानते हैं और बाकी ठीक नहीं मानते हैं, वह धर्म न हीं हो सकता। यही कसौटी ऋषि दयानन्द और उनके धर्म पर भी लागू होती है।

संसार के जितने भी धर्म हैं और जितने भी धर्म गुरु हैं, अपने विचार को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, वे सर्वोच्च व्यक्ति हैं परन्तु ऋषि दयानन्द धर्म को अपने कथन से न जोड़कर धर्म की कसौटी बताते हैं, जो बात कसौटी पर खरी उतरती है, वही धर्म है। इससे धर्म-अधर्म की परीक्षा करने का अधिकार सब धार्मिक लोगों को मिल जाता है। धर्म की परीक्षा करने के लिए धर्म जानने का भी अधिकार मिलता है। यही मौलिक अन्तर है ऋषि दयानन्द के धर्म में और अन्य धर्म गुरुओं के बताये चलाये धर्म में। कोई भी धर्म गुरु अपने शिष्यों को न गुरु की परीक्षा करने का अधिकार देता है न उसके विचारों की परीक्षा करने का ही अधिकार देता है।

संसार के मनुष्यों में बड़ा बनने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है। यही भाव गुरु में भी होता है। गुरु शद ही बड़े और भारी का पर्यायवाचक है। संसार में सभी बड़े बनने की इच्छा वाले लोग जब बड़ा बनने का प्रयास करते हैं तो उनके पास एक ही उपाय होता है, वे बड़े बन सकते हैं, जब कोई उनके पास छोटा हो। छोटा-बड़ा शद सापेक्ष है, जब तक कोई छोटा न हो, कोई बड़ा नहीं बन सकता। पशु में भी बड़ा-छोटा होता है। वहाँ बल से ही बड़ा बना जाता है, दुर्बल को भगाकर-मारकर जानवर बड़ा शक्तिशाली अधिकार सपन्न बनता है। उसी प्रकार मनुष्य भी बड़ा बनने के लिए दूसरे को कमजोर-दुर्बल बनाने का यत्न करता है। कोई दुष्ट व्यक्ति अपने को बड़ा सिद्ध करता है, तो अपनी दुष्टता से सबको पीड़ित करता है। वह सब को दुःखी कर सकता है, इसलिए बड़ा है। धनवान दूसरों के धन को छीनकर अपने पास अधिक धन संग्रह कर लेता है, तभी सबसे बड़ा धनी बन जाता है। बलवान भी सबको पराजित करके स्वयं सबसे बड़ा, स्वयं को सबसे बड़ा बलवान घोषित करता है।

मनुष्यों की यही प्रवृत्ति गुरु बनने वाले लोगों में है। ऐसे गुरु अपने शिष्यों में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिये, अपने ज्ञान को अन्तिम घोषित करते हैं। अपने शिष्यों को गुरु की या गुरु के विचारों की परीक्षा करने का अधिकार नहीं देते। जो कुछ ईसा ने कहा है- उसको चुनौती देने की सोचना भी गलत है। इस्लाम के संस्थापक मोहमद साहब का तो कहना ही क्या। वहाँ रसूल के बिना खुदा का मूल्य ही कुछ नहीं है। वे खुदा की बन्दगी में अपनी बन्दगी भी अपने अनुयायियों से कराते हैं। उन्होंने अपने भक्तों की बुद्धि पर अंकुश लगाया हुआ है। मोहमद इस्लाम के अनुयायी को सोचने का अधिकार नहीं देते। जो कुरान में कहा गया वही सच और अन्तिम है। जो मोहमद ने किया वही आदर्श भी है। आज संसार में ईसा के अनुयायियों की संया प्रथम स्थान पर और मोहमद के अनुयाइयों की दूसरे स्थान पर है। ये दोनों धर्म गुरु धर्म संसार के सबसे बड़े धर्म गुरु हैं परन्तु इनको बड़ा बनने के लिये उन्हें अपने भक्तों, अनुयायियों को, शिष्यों को छोटा बनाना पड़ा तब ये गुरु बड़े बन सके। आज जो कुछ उपद्रव संसार में देखा जा रहा है, उसका कारण है मनुष्य के सोचने पर, उसकी बुद्धि पर अंकुश लगाना। महाभारत के बाद में भारत के धर्म गुरुओं का भी यही हाल है। किसी भी मत-सप्रदाय में गुरु को बड़ा बनने के लिए शिष्यों को छोटा, मूर्ख, अज्ञानी रखना अनिवार्य है। कोई धर्म गुरु नहीं कहता- मेरी बात पर विचार करके स्वीकार करना। मेरे से अच्छी बात कहीं और मिल जाये तो उसे भी मान लेना। वहाँ तो गुरु जी ने कहा वह अन्तिम सत्य है, उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

ऋषि दयानन्द इसके अपवाद हैं। वे अपने अनुयायियों को अपने धर्म की परीक्षा करने का अधिकार देते हैं। वे अपने विचारों की परीक्षा करने का निर्देश देते हैं। कैसे परीक्षा करनी चाहिए? परीक्षा करने का प्रकार भी अपने ग्रन्थों में दिया है। स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं तो उसके प्रतिपादित करने के लिए परीक्षा का उपाय भी बतलाते हैं। सभी धर्मों के बारे में जानना, सबकी अच्छाई-बुराई का वर्णन करना और वैदिक धर्म से उसकी तुलना करना तब निर्णय देना। इससे श्रेष्ठ और वैज्ञानिक विधि अच्छे-बुरे को समझने की दूसरी नहीं हो सकती। यहाँ गुरु ने कहा है इसलिये कोई बात स्वीकारनी है, यह आदेश नहीं है, गुरु ने ठीक बात कही है इसलिये मानने योग्य है, यह मानने वाले का निर्णय है, उसका विवेकाधिकार है। कोई मनुष्य गुरु की परीक्षा करेगा, कैसे करेगा, उसको पहले जानना पड़ेगा। विवेक करने की योग्यता अर्जित करनी पड़ेगी। यह योग्यता कौन देगा? शिष्य में यह योग्यता कैसे आयेगी? इसका उत्तर है- यह योग्यता गुरु ही देगा, गुरु शिष्य को ज्ञानवान बनायेगा, तभी वह विवेक करने योग्य बन सकेगा।

स्वामी जी ने मनुष्य को बुद्धिमान बनाने के लिये विवेक को कुण्ठित करने वाली अज्ञान बढ़ाने वाली बातों से जनता को अवगत कराया। ज्ञान में आर्ष-अनार्ष भेद बताया, वेदाध्ययन का अधिकार दिया। समाज में जन्मगत जाति-पांति, ऊँच नीच, छुआछूत, बालविवाह जैसी कुप्रथाओं का खण्डन किया। अनाथ तथा अवैध समझी जाने वाली सन्तानों को सुरक्षा, समान, समानता का अधिकार दिया। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, गुरुडम, गुरु को ईश्वर मानने जैसी परपराओं का खण्डन किया। अपने देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति का गौरव स्थापित किया। गौरक्षा, कृषि, स्वराज्य, स्वतन्त्रता आदि राष्ट्रीय सन्दर्भों से देश की जनता को जाग्रत कराया।

हम देखते हैं आज के गुरु शिष्यों को मूर्ख बनाकर स्वयं बुद्धिमान् बनते हैं। शिष्यों को अज्ञानी रख कर अपने ज्ञान का डंका बजाते हैं। ऋषि दयानन्द इस युग के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो सबको अधिकार सपन्न बनाकर अधिकारी बनते हैं। सब शिष्यों को ज्ञानी बनाकर गुरु बनने में विश्वास करते हैं। अपने अनुयायी को परीक्षा का उपाय बताकर परीक्षा करने का अधिकार देकर उत्तीर्ण होने वाले गुरु हैं। स्वामी दयानन्द का बड़प्पन औरों से इसी अर्थ में भिन्न है। लोग दूसरे की आँख फोड़कर लाठी देने का पुण्य कमाते हैं, ऋषि दयानन्द अन्धे को आँख देकर उसकी लाठी छुड़वा देते हैं। इस प्रकार बड़ा बनने के लिए एक प्रकार है, दूसरों को छोटा बनाना है। दूसरा प्रकार सबको बड़ा बनाकर बड़ा बनना। पहले प्रकार में मनुष्य स्वयं को बड़ा बनाता है, दूसरे प्रकार में उसे दूसरे बड़ा कहते हैं। आपको लगता है तो आप उसे बड़ा मानिये, नहीं लगता तो आप स्वतन्त्र हैं। परन्तु बड़ा बनाने के पहले उपाय में शिष्य स्वतन्त्र नहीं बाध्य हैं।

ऋषि दयानन्द ने सबको वेदाध्ययन का अधिकार देकर सबको बड़ा बनने का मार्ग प्रशस्त किया यही उनके बड़ा होने का कारण है। जो लोग अपने शिष्यों को मूर्ख रखते हैं, वे कालान्तर में स्वयं मूर्ख बन जाते हैं और समाज और राष्ट्र को भी मूर्ख बना देते हैं, जैसा आज भारत में और सारे विश्व में हो रहा है। आज की परिस्थिति में ऋषि दयानन्द के विचारों की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, बढ़ती ही रहेगी, घटेगी नहीं। इन विचारों से या तो स्वार्थी द्वेष करते हैं जिनके पाखण्ड पर चोट पड़ने से उनकी आजीविका नष्ट होती है, अथवा अज्ञानी लोग जिनको इन विचारों के महत्त्व का पता नहीं है, वे ही ऐसे प्रलाप कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द तो शास्त्र की बात कहते हैं। शास्त्र की सुरक्षा, ज्ञान की वृद्धि, भक्तों-शिष्यों को ज्ञानी बनाकर ही हो सकता है। ज्ञान की वृद्धि शास्त्र जानने वालों के निर्माण और उनकी संया में वृद्धि से ही हो सकती है। अतएव कहा गया है –

ब्रह्म आयुष्मत् तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्।

– धर्मवीर

 

‘धार्मिक अंधविश्वासों का कारण सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय न करना’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अंधविश्वास को किसने जन्म दिया है? विचार करने पर ज्ञात होता है कि अविद्या और अज्ञान से अन्धविश्वास उत्पन्न होता है। अन्धविश्वास दूर करने का उपाय क्या है, इस पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि ज्ञान व विद्या से अन्धविश्वास दूर होते हैं। ज्ञान व अविद्या कहां मिलती है? इसका उत्तर है कि सदग्रन्थों का स्वाध्याय करने से ज्ञान व विद्या की प्राप्ति होती है। अतः अन्धविश्वास से बचने वा रक्षा के लिये सदग्रन्थों का स्वाध्याय आवश्यक है। सद्ग्रन्थ कौन से हैं और कौन से ग्रन्थ सद्ग्रन्थ नहीं है, इसका निर्धारण साधारण लोग नहीं कर सकते अपितु छल-कपट-स्वार्थ-अविद्या रहित शुद्ध हृदय वाले विद्वान ही कर सकते हैं।  विद्वानों की अनेक श्रेणियां हैं। पुराण व अन्य मत-मतान्तरों के ग्रन्थों के अध्ययन से अज्ञान व अविद्या उत्पन्न होने से अन्धविश्वास बढ़ते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम समाज व देश विदेश में होने वाली नाना घटनाओं में पाते रहते हैं। साधारण मनुष्यों के स्वाध्याय का सबसे उत्तम ग्रन्थ कौन सा है? इसका उत्तर है कि जिसमें अज्ञान, अविद्या व अन्धविश्वास से युक्त भ्रान्तिपूर्ण बातें न हों तथा इसके विपरीत ज्ञान व विद्या उत्पन्न करने वाली बातें हो उसे ही हम सद्ज्ञान युक्त ग्रन्थ की संज्ञा दे सकते हैं। ऐसे वेद, ज्योतिष, दर्शन, उपनिषद, स्मृति आदि अनेक ग्रन्थ हैं परन्तु संसार में सबसे उत्तम व सरल ग्रन्थ एकमात्र सत्यार्थ प्रकाश ही है।

 

प्रश्न किया जा सकता है कि सत्यार्थ प्रकाश ही अन्धविश्वासों से मुक्त ग्रन्थ है, इसका क्या प्रमाण है? इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि यह एक सत्यान्वेषी महापुरूष महर्षि दयानन्द सरस्वती का लिखा हुआ ग्रन्थ है जिन्होंने अपना सारा जीवन सत्य की खोज, योग व ईश्वरोपासना तथा अध्ययन व अध्यापन में अर्पित किया तथा जो समाज, देश व मनुष्यमात्र सहित प्राणीमात्र के कल्याण की भावना से भरे हुए थे। यह महर्षि दयानन्द ने अपना सारा जीवन सच्चे ईश्वर, मृत्यु से बचने के उपायों, धर्म, समाज, देशहित की सभी बातों की खोज में लगाया और वह उसमें सफल हुए थे। वह इस कार्य में इसलिए सफल हो सके कि उन्हें वेद और वैदिक व्याकरण के सच्चे गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती मिले जिनका सारा जीवन ही सत्य की खोज व भ्रान्तिपूर्ण विषयों से सम्बन्धित सत्य के निर्णय में व्यतीत हुआ था। दोनों गुरू शिष्य ने मिलकर 3 वर्ष तक सच्चे ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति के स्वरूप तथा धर्म कर्म विषयक सभी विषयों पर गम्भीरता से चिन्तन किया। उनका मार्गदर्शक ईश्वरीय ज्ञान वेद था। वेद ईश्वरीय ज्ञान कैसे है? इसका एक उत्तर तो यह है कि यह संसार की सबसे प्राचीनतम पुस्तक होने के साथ ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को सीधे ईश्वर से इसका ज्ञान मिला था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में बड़ी संख्या में युवा स्त्री-पुरुष उत्पन्न हुए थे। माता-पिता आरम्भ में होते नहीं हैं, अतः सृष्टिकर्त्ता ईश्वर बिना माता-पिता के अमैथुनी सृष्टि करता है जो अण्डज व जरायुज न होकर उद्भिज सृष्टि के अनुरूप होती है। इन उत्पन्न मनुष्यों को अपने जीवन के कर्तव्यों को जानने, समझने व करने के लिए भाषा सहित ज्ञान की आवश्यकता थी। ज्ञान व भाषा वर्तमान में सभी को माता-पिता व आचार्यों से मिलती है। सृष्टि के आरम्भ में यह तीनों ही नहीं थे। केवल एक चेतन सत्ता ईश्वर थी जिसने इस संसार को बनाया था। दूसरी कार्य प्रकृति वा सृष्टि थी जिससे यह संसार बना था परन्तु जड़ व ज्ञानहीन होने से यह मनुष्यों को ज्ञान देने में सर्वथा असमर्थ होती है।

 

यह संसार ज्ञान व शक्ति के समन्वय तथा तप-पुरूषार्थ का परिणाम है जिसमें प्रकृति की भूमिका उपादान कारण के रूप में होती है। संसार को बनाने हेतु जिस ज्ञान की आवश्यक थी उसमें सब सत्य विद्यायें सम्मिलित थी। संसार की विशालता को देखकर उस चेतन व ज्ञानवान सर्वज्ञ शक्ति की विशालता व सर्वव्यापकता के भी दर्शन होते हैं। ज्ञानवान व सर्वव्यापक होने से उस शक्ति ईश्वर को सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न मनुष्यों को ज्ञान देने में कोई कठिनाई नहीं थी। अतः उसने मनुष्यों की आत्माओं में अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से प्रेरणा द्वारा ज्ञान को स्थापित कर दिया। उस ज्ञान के कारण मनुष्य परस्पर बोलने लगे व आपस में सभी प्रकार के व्यवहार होने आरम्भ हो गये। सृष्टि को बनाने वाला ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात् सर्वज्ञानमय होने के कारण उसका दिया हुआ वेद भी सब सत्य विद्याओं से युक्त है। इसमें अज्ञान का लेश भी नहीं है। इन तथ्यों का साक्षात्कार विद्यासम्पन्न तथा योग सिद्ध विद्वान समाधि अवस्था में करते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी वेद व ईश्वर में निहित सत्य ज्ञान का साक्षात्कार किया और उसके आधार पर ही उन्होंने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की रचना की। अपने मन व मस्तिष्क से मत-मतान्तरों की बातों, पूर्वाग्रहों व निजी हितों से मुक्त होकर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से सत्यार्थप्रकाश में निहित विषयों की सत्यता का साक्षात ज्ञान होता है जिसकी साक्षी स्वयं हमारी अर्थात् पाठक की आत्मा देती है। सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन कर उसे समझ लेने पर सभी मत-मतान्तरों की अच्छी व बुरी बातों का ज्ञान मनुष्यों को हो जाता है जिससे वह अन्धविश्वासों से मुक्त व विद्या व ज्ञान से युक्त हो जाते हैं। ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप के ज्ञान सहित अध्ययनकर्ता को अपने कर्तव्यों का ज्ञान भी हो जाता है। हमारे इस विवेचन से यह ज्ञात हुआ कि ईश्वर ज्ञान का देने वाला आदि स्रोत है। इसके बाद जो भी ग्रन्थ व पुस्तकें अस्तित्व में आई हैं वह सब ऋषि-मुनियों व साधारण मनुष्यों रचित पुस्तकें हैं। जिन ग्रन्थों में ईश्वर व सत्पुरूषों की प्रशंसा है, वह पठनीय हैं और जिसमें एक दूसरे की निन्दा व भ्रान्तियुक्त कथन व सृष्टिक्रम के विरूद्ध अविश्वनीय तर्क व युक्ति विरूद्ध बातें हैं वह पुस्तकें व ग्रन्थ साधारण मनुष्यों द्वारा लिखित होने से त्याज्य हैं। वह प्रमाण कोटि में नहीं आते हैं। ऐसे ग्रन्थ विष सम्पृक्त अन्न के समान होते हैं। महर्षि दयानन्द ने समस्त वैदिक साहित्य से ज्ञान का आलोडन कर प्राप्त हुए सत्य ज्ञान को सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ में प्रस्तुत किया था। इसे पढ़कर निष्पक्ष भाव से इसके संसार का अन्धविश्वास निवारण व सभी आधयात्मिक व सांसारिक सत्य व यथार्थ ज्ञान को प्रदान करने वाला अपूर्व सर्वोत्तम ग्रन्थ कहा जा सकता है।

 

अतः सफल जीवन व्यतीत करने के लिए किसी भी मत, सम्प्रदाय व पन्थ में न फंस कर यदि सत्यार्थ प्रकाश व अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ा जाये तो मनुष्य अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित अन्धी श्रद्धा व आस्था से भी बच सकता है। जो व्यक्ति ईश्वर से प्राप्त मनुष्य जीवन में सत्य को जानने व उसे धारण करने का प्रयत्न नहीं करता व परम्परागत मतों को आंख मूंद कर यथावत् स्वीकार कर लेता है, उसका जन्म लेना इसलिए व्यर्थ सिद्ध होता है कि परमात्मा से प्राप्त सत्य व असत्य का विवेचन करने के लिए प्राप्त बुद्धि का उसने सदुपयोग नहीं किया है। वैदिक विचारधारा जिसका पूरा पोषण सत्यार्थ प्रकाश में हुआ है, उसके अनुसार मनुष्य जीवन का उद्देश्य अभ्युदय व निःश्रेयस (मोक्ष प्राप्ति) है। इन दोनों की प्राप्ति वैदिक विचाराधारा के अनुसार जीवनयापन कर धर्मअर्थकाममोक्ष के रूप में होती है। अतः जीवन के कल्याण व सफलता के लिए सत्यार्थ प्रकाश व वैदिक साहित्य के इतर ग्रन्थों का सजग होकर विवेकपूर्वक अध्ययन करना चाहिये। यह भी बताना है कि सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर एक माह में जो अधिकांश ज्ञान प्राप्त होता है वह समस्त वैदिक साहित्य के द्वारा कई वर्षों में होता है। अतः सत्यार्थप्रकाश वैदिक वांग्मय का सार व अर्वाचीन मत-मतान्तरों के यथार्थ स्वरूप का परिचय कराने वाला दुर्लभ व मूल्यावान ग्रन्थ है। एक कवि की दो पंक्तियां लिखकर इस लेख को विराम देते हैं।

 

भरोसा कर तू ईश्वर पर तुझे धोखा नहीं होगा।

यह जीवन बीत जायेगा, तुझे रोना नहीं होगा।।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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