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‘विजयादशमी पर्व पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श जीवन के अनुरूप स्वयं को बनाने का व्रत लें’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ओ३म्

विजयादशमी पर्व से हमारे पूर्वजों व देशवासियों ने मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन व उनके कृतित्व को जोड़ा है। यद्यपि आश्विन शुक्ला दशमी को मनाई जाने वाली विजयादशमी का श्री रामचन्द्र जी की लंकेश रावण पर विजय की तिथि से कोई ऐतिहासिक सम्बन्ध नहीं है, परन्तु भारत की वैदिक धर्म व संस्कृति के आदर्श होने के कारण और विजयादशमी का पर्व प्राचीन काल से क्षात्र धर्म से जुड़ा होने के कारण क्षात्र धर्म के मूर्त व आदर्श रूप मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को स्मरण करने का दिवस तो निश्चय ही है। यदि क्षात्र धर्म के पर्व पर श्री रामचन्द्र जी को स्मरण न किया जाये तो उनके समान अन्य कम ही हैं जिन्हें हम स्मरण कर सकते हैं और उनके जीवन से प्रेरणा ले सकते हैं। हम समझते हैं कि आज के दिन हमें योगेश्वर श्री कृष्ण और उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को स्मरण कर उनके जीवन से भी प्रेरणा ग्रहण करने का व्रत लेना चाहिये। इससे न केवल हमारा जीवन लाभान्वित होगा वरन देश और समाज को भी लाभ होगा। यह नहीं भूलना चाहिये कि श्री रामचन्द्र जी ने ऋषियों के यज्ञों में विघ्न डालने वाले असुरों व राक्षसों का नाश किया था जिससे विश्व का कल्याण करने वाले यज्ञों की रक्षा हुई थी। इन्हीं यज्ञों को उन्नीसवीं सदी में वेदों के तलस्पर्शी विद्वान आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने पुनः प्रचलित किया है। विजयादशमी का दिन आज हमें श्री रामचन्द्र जी के जीवन से प्रेरणा लेने सहित यज्ञों की रक्षा करने व स्वयं यज्ञ एवं उनके आदर्शों को अपने जीवन में धारण करने की भी अपेक्षा करता हुआ प्रतीत होता है। श्री रामचन्द्र जी में जो ज्ञान, बल, आचरण था वह वेदों की शिक्षा, ऋषि-मुनियों की संगति व यज्ञों के कारण था। अतः हमें भी वेदाध्ययन कर अपने जीवन में ज्ञान व बल की वृद्धि करने के साथ उनका आचरण करना है और ईश्वरीय ग्रन्थ वेद और वेद ज्ञान के वाहक ऋषियों की आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन पंचमहायज्ञों को धारण व आचरण में लाकर, इससे स्वयं उन्नत होकर संसार को भी उन्नत करना है।

 

श्री रामचन्द्र जी का जीवन इस लिए भी अनुकरणीय है कि उन्होंने देश व समाज से आसुरी व राक्षसी प्रवृत्तियों को दूर करने के साथ देश के ऋषि-मुनियों को सताने व उनके यज्ञीय कार्यों में बाधा डालने वाले राक्षसी स्वभाव के लंकापति राजा रावण को दण्डित किया था। सत्य की रक्षा के लिए दुष्टों को दण्डित करना आवश्यक होता है नहीं तो सत्य का व्यवहार समाप्त होकर देश व समाज में अनुशासन नहीं रहता और इससे धार्मिक व सदाचारी लोगों को दुःख व कष्ट होता है। हमारा देश श्री राम व श्री कृष्ण जी की सन्तानें है। इस कारण कि हमारे सबके पूर्वज राम व कृष्ण से जुड़े हुए हैं। यह इस कारण भी है कि प्राचीन काल में गुण, कर्म व स्वभावानुसार वर्ण परिवर्तन होता था। ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र बन जाते थे और क्षत्रिय व वैश्य गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार अनेक उन्नत व निम्न वर्णों को प्राप्त होते थे। अतः श्री राम व श्री कृष्ण सभी वर्णों के साझे पूर्वज हैं और हम उन्हीं की सन्ततियां हैं। अतः हमें उनको ही आदर्श मानकर उनका अनुकरण व अनुसरण करना है। यह भी हमारा कर्तव्य व धर्म है।

 

हम जानते हैं कि श्री राम व श्री कृष्ण यज्ञों के प्रेमी थे। यज्ञ परोपकार का सर्वश्रेष्ठ कार्य व उदाहरण हैं। इससे वायु शुद्ध होती है और पर्यावरण को लाभ होता है। वायु शुद्ध करने का यज्ञ के समान दूसरा उपाय संसार में वैज्ञानिकों के पास भी नहीं है। यज्ञ का मुख्य आधार गोघृत है। अतः गोपालन सहित व गोरक्षा भी यज्ञ से जुड़ी हुई है। इसलिये प्रत्येक वैदिक धर्मी राम व कृष्ण के अनुयायी को यज्ञ की रक्षा करने हेतु स्वयं इसको प्रतिदिन सम्पन्न करना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने दीर्घ काल से बन्द यज्ञ की परम्परा को वैदिक काल के अनुसार प्रचलित कर इसे सरल व सर्वत्र सुलभ करा दिया है। सभी आर्य विचारधारा के लोग प्रतिदिन यज्ञ करते ही हैं। यज्ञकर्ता, गोपालक व गोरक्षक ही वस्तुतः श्री राम व श्री कृष्ण के अनुयायी कहलाने के अधिकारी हैं।  इस पर सभी सनातन धर्मी भाईयों को विचार करना चाहिये और ओ३म् नाम तथा वेद के विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों के अन्तर्गत संगठित होकर वेदों, सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार व प्रसार करना चाहिये। यह ध्यान में रखना चाहिये कि संसार में केवल वेद और वैदिक धर्म ही ऐसी जीवन शैली हैं जो विश्व से अशान्ति, अधर्म तथा पाप को मिटा कर शान्ति, धर्म व शुभ कर्मों को स्थापित कर सकती हैं।

 

संसार में बहुत से महापुरूष व वैज्ञानिक आदि हुए हैं। हम जब भी किसी महापुरूष या वैज्ञानिक की जयन्ती मनाते हैं तो हम क्या करते हैं? उनके जीवन, विचारों, गुणों व कार्यों को स्मरण कर उनमें संशोधन, सवंर्धन व प्रचार की प्रेरणा प्राप्त कर उसके प्रसार का ही तो व्रत लेते हैं। अतः विजयादशमी पर्व पर भी हमें ऐसा ही करना है। हमें श्री राम चन्द्र जी व श्री कृष्ण जी के जीवन पर विचार करना है और उनके जीवन, कार्यों व आदर्शों को जानकर उनकी प्राप्ति को अपने जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य बनाना है। ऐसा करके हम कुछ-कुछ उनके जैसे बन सकते हैं। केवल उनके नाम का कीर्तन करने से कोई लाभ किसी को नहीं होता। विजया दशमी का पर्व मनाते हुए सर्वोत्तम विधि यही है कि हम अपने घरों में वृहत्त यज्ञ-अग्निहोत्रों का आयोजन करें जिससे परिवार व समाज का वातावरण शुद्ध व पवित्र हो और इससे सभी को स्वास्थ्य व मन की प्रसन्नता का लाभ हो। इसके साथ श्री राम, श्री कृष्ण, चाणक्य, महर्षि दयानन्द, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर, मदन लाल ढ़ीगरा, शहीद ऊधम सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव आदि का स्मरण कर उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिये।

 

इन संक्षिप्त शब्दों के साथ हम सभी बन्धुओं को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अज्ञान और अंधविश्वास आध्यात्मिक उन्नति में बाधक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ओ३म्

मनुष्य के जीवन का उद्देश्य सांसारिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करना है। यदि कोई मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति की उपेक्षा कर केवल सांसारिक उन्नति में प्रयत्नशील रहता है तो यह उसके लिए एकांगी होने से घातक ही कही जा सकती है। आध्यात्मिक उन्नति से मनुष्य सुख व शान्ति के साथ आत्मा की जन्म जन्मान्तरों में उन्नति व जन्म मरण के दुःखों से मुक्ति प्राप्त करता है और सांसारिक उन्नति से क्षणिक व अल्पकालिक सुखों को प्राप्त कर शुभ व अशुभ कर्मों का संचय कर इनके फलों के भोग में फंस कर जन्म जन्मान्तरों में दुःख पाता है। मनुष्य सांसारिक उन्नति तक इस लिए सीमित रहता है कि उसे इस उन्नति के लाभ व हानि एवं आध्यात्मिक उन्नति के महत्व का ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान आध्यात्मिक गुरू, शास्त्र, ग्रन्थों व इनके स्वाध्याय से प्राप्त होता है जिसके लिए आज के मनुष्यों के पास समय नहीं है। आज के भौतिक दृष्टि से सम्पन्न व सफल मनुष्यों का अन्धानुकरण ही समाज के शेष मनुष्य करते हैं जिससे वह भी इन लोगों के कारण अपना वर्तमान व भावी जन्मों को बड़ी सीमा तक हानि पहुंचाते हैं।

 

अन्धविश्वास, अन्धी श्रद्धा तथा ज्ञानरहित आस्था सत्य ज्ञान के विरुद्ध विश्वासों को कहते हैं। ईश्वर का अस्तित्व है, उसे मानना सत्य ज्ञान और न मानना व कुतर्क करना अन्धविश्वास व अन्धी आस्था है। इसी प्रकार ईश्वर तो है परन्तु वह कैसा है, इस विषय में लोगों की अपनी-अपनी मान्यताओं जिनमें कुछ बातें सत्य व कुछ असत्य होती हैं। यह असत्य बातें ही अज्ञान, ज्ञानरहित आस्था व अन्धी श्रद्धां होती हैं। आज के ज्ञान व विज्ञान के युग में यह अन्धविश्वास व अन्धी आस्थायें समाप्त हो जानी चाहियें थी परन्तु इनको मानने वाले गुरू वा आचार्यों के अज्ञान, स्वार्थ व कुतर्कों के कारण इनके अनुयायी अन्धकार में फंसे हैं जिससे इनका मानव योनि का अनमोल जीवन मूल उद्देश्य व उसकी प्राप्ति से दूर चला गया है व चला जाता है। इससे जो हानि होती है वह गुरू व चेले, दोनों को ही होती है क्योंकि ईश्वर के कर्म-फल विधान के अनुसार जिसने जैसा कर्म किया है उसका तदनुरूप फल उसे मिलता है। अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं। अर्थात जीवात्मा को अपने किये हुए शुभ अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने होंगे।  यदि कोई गुरू कहलाने वाला व्यक्ति अपने अनुयायी को असत्य व अज्ञान से युक्त रखता है तो इसके लिए वह भी दोषी है। यह भी जानने योग्य है कि अज्ञानी व स्वामी मनुष्य चाहे वह किसी कुल में जन्में हों, धर्म गुरू कहलाने के योग्य नहीं होते। धर्मगुरू कहलाने के लिए मनुष्य का धर्म का यथार्थ ज्ञान रखने वाला, निर्लोभी तथा परोपकारी भाव वाला होना आवश्यक है। अज्ञानी व स्वार्थी गुरू के दोष व अन्धविश्वासों से युक्त शिक्षायें अशुभ कर्म व पाप की श्रेणी में होती हैं जिसका फल उसको जन्म-जन्मान्तर में दुःखों के भोग के रूप में ही प्राप्त होना है। अतः सभी गुरूओं को स्वयं में विवेक जागृत कर अशुभ कर्मों से बचना चाहिये जिससे उनकी स्वयं की रूकी हुई आध्यात्मिक उन्नति यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति में बदल जाये।

 

सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति के लिए सत्य ज्ञान की आवश्यकता होती है। सांसारिक ज्ञान आजकल की अनेक स्कूली पुस्तकों आदि में मिल जाता है। इससे इतर सामाजिक व्यवहार व आध्यात्मिक ज्ञान के लिए हमें स्वाध्याय की श्रेष्ठ पुस्तकों की सहायता लेनी चाहिये। हमने अपने अनुभव से जाना है कि इसके लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, उपनिषद, मनुस्मृति, 6 दर्शन, चार वेद उनके भाष्य आदि उत्तम ग्रन्थ है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए हम इसके दो भाग कर सकते हैं। प्रथम भाग में अध्यात्म से जुड़े ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का ज्ञान, जन्म व मृत्यु का प्रयोजन, नाना प्राणी योनियों में जीवात्मा का जन्म, सृष्टि की उत्पत्ति का प्रयोजन, आध्यात्मिक उन्नति के साधनों व उपायों का ज्ञान आते हैं। द्वितीय भाग में आध्यात्मिक उन्नति के सत्य साधनों व उपायों को जानकर तदानुसार साधना व आचरण करना है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए मनुष्य को अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान को अपनाना अर्थात् आचरण में लाना होगा। कुछ-कुछ तो यह सभी सांसारिक लोग मानते व आचरण करते हैं परन्तु उच्च आध्यात्मिक उन्नति के लिए इसे पूर्णरूप से पालन करना आवश्यक है। यदि इसमें से किसी एक व सबको, कुछ व अधिक छोड़ते व पालन नहीं करते, तो उतनी-उतनी मात्रा में हम ईश्वर से दूर होते जाते हैं जिसका परिणाम आध्यात्मिक गिरावट होकर अशुभ कर्मों को करना व उसमें फंसना ही होता है। अतः सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय कर इन सब साधनों को गहराई से जानकर इसका पालन करना चाहिये जिससे अभ्युदय व निःश्रेयस की यात्रा सुगम रूप से अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर चल व आगे बढ़ सके। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक गुरू भक्त अपने गुरू के ज्ञान व उसके जीवन तथा आचरण पर भी पूरा ध्यान रखे और विचार करे कि वह उसे उचित व सत्य शिक्षा व मार्गदर्शन दे रहा है या नहीं। यदि वह अपने गुरु की ओर से आंखे बन्द रखेगा तो उसका शोषण होता रहेगा जिसका परिणाम उसकी आध्यात्मिक उन्नति न होकर भावी जीवन में हानि के रूप में सामने आयेगा।

 

यह भी विचार करना चाहिये कि धर्म क्या है व किसे कहते हैं। हमारा अध्ययन अनुभव बताता है कि धर्म सत्य के पालन को कहते हैं। हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिये। उन कर्तव्यों के पालन में हानि लाभ की बुद्धि रखकर सच्ची निष्ठा से उनका पालन करना ही धर्म होता है। अज्ञानी मनुष्य अपने कर्तव्य से भी पूर्णतः परिचित नहीं होता। इसके लिए ही सच्चा गुरू वा स्वाध्याय सहायक होते हैं। परन्तु यदि गुरू स्वयं अज्ञानी हो, साथ में स्वार्थी भी हो व अपने अनुयायी से भौतिक द्रव्यों की अपेंक्षा करता हो तो वह अपने अनुयायी, शिष्य व भक्त का सही मार्गदर्शन नहीं कर सकता। आजकल अनेक धार्मिक ग्रन्थ में सच्ची शिक्षाओं की कमी होने के साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं जो धर्म कर्म से सम्बन्ध न रखकर, मनुष्य-मनुष्य को आपस में दूर करती व बांटती हैं। लोगों ने इन्हें भी धर्म समझ रखा है जो कि उनका अपना भारी अज्ञान है। धर्म का उद्देश्य तो श्रेष्ठ मानव का निर्माण होता है। वेद में इसे कहा गया है कि ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम् इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही ईश्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा को क्रमशः एकएक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्ववेद का ज्ञान दिया था जिनमें ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान का ज्ञान है। वेदों में कोई भी बात अज्ञान, अन्धविश्वास, अन्धी आस्था, कुरीति, पाखण्ड, सामाजिक विषमता, सामाजिक अन्याय आदि की नहीं है। चारों वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। अतः चारों वेद, उनके व्याख्या व टीका ग्रन्थ व्याकरण, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय व अध्ययन करना चाहिये क्योंकि यह सब वेद मूलक ग्रन्थ हैं और इनके बनाने वाले वेदों के मूर्धन्य विद्वान व पूर्ण ज्ञानी मनुष्य थे।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार किया और वेदों पर आधारित सत्य ज्ञान से पूर्ण ग्रन्थों की रचना की। उनका उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके मत व पन्थ से छुड़ाना नही था अपितु वह सभी मनुष्यों में ज्ञान व विवेक उत्पन्न करना चाहते थे जिससे वह अपने जीवन के बारे में सही निर्णय ले सकें और सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति कर सकें जो कि मनुष्यों के मत-मतान्तरों में फंसे होने से नहीं हो पाती। आध्यात्मिक उन्नति करने वाले मनुष्य के लिए दो मुख्य कर्तव्य हैं जिनमें प्रथम है ईश्वरोपासना वा सन्ध्या तथा दूसरा दैनिक अग्निहोत्र। इन दोनों को करके ही मनुष्य की सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति होती है। सन्ध्या को करना आत्मा की उन्नति का सर्वश्रेष्ठ साधन उपाय है। इसमें ईश्वर जीवात्मा के स्वरूप का चिन्तन, ईश्वर के उपकारों का स्मरण, परोपकार सेवा करने के व्रत लेना अपने सभी श्रेष्ठ कार्यों को ईश्वर को समर्पित कर उससे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की प्राप्ति की प्रार्थना करना होता है। सन्ध्या करने वाले व्यक्ति को यदि ईश्वर व जीवात्मा के साथ प्रकृति वा सृष्टि के सत्य स्वरूप का ज्ञान नहीं है तो उसे आशातीत सफलता नहीं मिल सकती। अतः इसके लिए सत्य ग्रन्थों सत्यार्थ प्रकाश, स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश वा आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्यक करना चाहिये। स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश वा आर्योद्देश्यरत्नमाला ग्रन्थ तो अत्यन्त लघु ग्रन्थ हैं। इन्हें एक या दो घण्टे में ही पढ़ा, समझा जाना जा सकता है। इससे जो लाभ होता है वह हमारे विचार से बड़े से बड़े पोथे पढ़ने पर भी शायद् नहीं होता। हम सभी मित्रों का आह्वान करते हैं कि वह सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का व्रत लें। वैदिक विधि से साधना कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करने में सफल हों। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी की महर्षि दयानन्द को श्रद्धांजलि’ -मनमोहन कुमार आर्य,

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महर्षि दयानन्द समस्त विश्व के गुरू वा आचार्य थे। उन्होंने पक्षपात रहित होकर संसार के सभी मनुष्यों के प्रति भ्रातृभाव रखते हुए उनके कल्याण की भावना से वेदों के ज्ञान से उनका शुभ करने के लिए वेद प्रचार का प्रशंसनीय व अपूर्व कार्य किया था। बहुत से मताग्रही लोगों ने उनके यथार्थ अभिप्राय को जानने का प्रयास नहीं किया और उनके विरोधी बन गये। हम विदेशी मतों व सम्प्रदायों की बात तो क्या करें, स्वयं हमारे देश के वेद को मानने वाले पौराणिक लोगों ने उनका विरोध ही नहीं किया अपितु अनेक लोगों ने उनके प्राणहरण की अनेक बार कुचेष्टायें की। महर्षि ने जब वेद प्रचार कार्य आरम्भ किया था, तभी से वह जानते थे कि देश व विदेशी मतों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उनका विरोध करेंगे और उनके प्राण संकटग्रस्त रहेंगे। इस पर भी उन्होंने वेद प्रचार के मार्ग को चुना था क्योंकि सत्य को जाने, अपनायें व धारण किये बिना मनुष्य जाति की उन्नति सम्भव नहीं थी। यह सब कुछ होने पर भी अनेक मत-मतान्तरों के अनेक सुधी व निष्पक्ष लोगों ने स्वामी जी व उनके कार्यों के महत्व को समझा था और उन्होंने निःसंकोच भाव से उसे सार्वजनिक रूप से प्रकट भी किया था। ऐसे ही एक युगपुरूष हिन्दी के साहित्यकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी थे। आज हम उनकी महर्षि दयानन्द को दी गई श्रद्धाजलि के शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस श्रद्धाजंलि में प्रस्तुत शब्दों को बार-बार पढ़ने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यदि संसार के सभी मतावलम्बी निष्पक्ष होकर महर्षि दयानन्द व उनके कार्यों का अवलोकन करते तो भले ही वह उनके अनुयायी बनते या न बनते, परन्तु उनका निष्कर्ष अवश्य ही महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के विचारों के अनुरूप होता। यहां यह भी उल्लेख कर दें कि हम कुछ समय पूर्व उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी के महर्षि दयानन्द के चित्र को अपने घरों में लगाने के समर्थन व यह चित्र लगाना मूर्तिपूजा न होकर उन्हें किस प्रकार से उनके कर्तव्यों की प्रेरणा करता है, सम्बंधी विचारों को प्रस्तुत कर चुके हैं।  उसकी पुष्टि महावीर प्रसाद द्विवेद्वी जी के लेख से भी हो रही है। अब द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत विचार प्रस्तुत हैं:

 

‘‘सनातन धर्मावलम्बियों की सन्तति होने और देवीदेवताओं के सम्मुख सिर झुकाने पर भी मेरे हृदय में श्री स्वामी दयानन्द जी सरस्वती पर अगाध श्रद्धा है। वे बहुत बड़े समाजसंस्कर्ता, वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता तथा समयानुकूल भाष्यकर्त्ता और आर्य संस्कृति के बहुत बड़े पुरस्कर्ता थे। उन्होंने जिस समाज की संस्थापना की है, उससे भी अपने देश, अपने धर्म और अपनी भाषा को बहुत लाभ पहुंच रहा है। मैं स्वामी जी की विद्वता और उनके कार्यकलाप को अभागे भारत के सौभाग्य का सूचक चिन्ह समझता हूं। उनका चित्र चिरकाल तक मेरे नेत्रों के सामने रहकर मेरी आत्मा को बल का तथा मेरे बैठने के कमरे को शोभा का, दान देता रहा है। स्वामी जी के विषय में इससे अधिक लिखने की शक्ति इस समय मेरे जराजीर्ण शरीर में नहीं। अतएव

 

धन्यंच प्राज्ञमूर्धन्यं दयानन्दं दयाधनम्।

                        स्वामिनं तमहं वन्दे वारं वारंच सादरम्।।

 

हम अपने पौराणिक विद्वानों से पूछना चाहिते हैं कि क्या वह श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के इस कथन से असहमति रखते हैं? जो व्यक्ति महर्षि दयानन्द सरस्वती के किसी व किन्हीं विचारों से असहमति रखते हैं वह स्वयं से प्रश्न करें कि क्या उन्होंने निष्पक्ष भाव से महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन किया है? हमारे पास ऐसे अनेकों प्रमाण हैं कि जब किसी निष्पक्ष पौराणिक विद्वान ने महर्षि दयानन्द के विचारों व सिद्धान्तों का निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया तो वह सदा सदा के लिए उनका अनुयायी बन गया। अनेक मतों में भी उनके ऐसे अनुयायी हुए या बने हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए हम स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती का नाम प्रस्तुत करते हैं जो कट्टर पौराणिक साधू थे परन्तु रोगग्रस्त होने पर एक आर्यसमाजी द्वारा उनकी सेवा सुश्रुषा करने और विदाई के समय उस बन्धु द्वारा उन्हें कपड़ें में लपेट कर सत्यार्थप्रकाश भेंट करने और उनसे विनती करने कि जब समय मिले इस पुस्तक को अवश्य पढ़े। सेवाभावी आर्यसमाजी भक्त के इन शब्दों व विपदकाल में उनकी सेवा ने स्वामीजी को पुस्तक पढ़ने के लिए विवश किया और पुस्तक पढ़ने के बाद स्वामी जी पूरी तरह बदल गए और महर्षि दयानन्द के अनुयायी बन गये। उन्होंने मृत्यु पर्यन्त आर्य सन्यासी बनकर देश व वैदिक धर्म की अनेकविध प्रशंसनीय सेवा की। उनका उत्तम कोटि का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सन्मार्ग दर्शन सभी वेद प्रेमियों के लिए पठनयी एवं संग्रहणीय है। एक नही ऐसे अनेकों उदाहरण हैं। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘न्यायकारी व दयालु ईश्वर कभी किसी का कोई पाप क्षमा नहीं करता।’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं, चेतन व जड़ पदार्थ। चेतन पदार्थ भी दो हैं एक ईश्वर व दूसरा जीवात्मा। ईश्वर संख्या में केवल एक हैं जबकि जीवात्मायें संख्या में अनन्त हैं। ईश्वर के ज्ञान में जीवात्माओं की संख्या सीमित है परन्तु अल्पज्ञ जीवात्माओं की अल्प शक्ति होने के कारण वह बड़ी संख्या अनन्त ही होती है। चेतन पदार्थों में ज्ञान व कर्म, दो गुण पाये जाते हैं। सर्वथा ज्ञानहीन सत्ता चेतन नहीं हो सकती, वह सदैव जड़ ही होगी। इसी प्रकार से ज्ञान से युक्त सत्ता जड़ नहीं हो सकती वह सदा चेतन ही होगी। दो प्रकार की चेतन सत्ताओं में से एक सत्ता सर्वव्यापक है तो दूसरी एकदेशी है। सर्वव्यापक सत्ता सर्वज्ञ है और एकदेशी सत्ता अल्पज्ञ अर्थात् अल्पज्ञान वाली है। यह दोनों चेतन सत्तायें तथा एक तीसरी जड़ सत्ता प्रकृति, यह तीनों अनादि, अनुत्पन्न व नित्य हैं। अनादि होने के कारण इनका कभी अन्त वा नाश नहीं होगा। यह सदा से हैं और सदा रहेंगी। इसी कारण आत्मा को अनादि व अमर कहा जाता है। ईश्वर सर्वव्यापक होने के साथ निराकार, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ भी है। सर्वज्ञ का अर्थ है कि ईश्वर में ज्ञान की पूर्णता व पराकाष्ठा है, न्यूनता किेचित नहीं है। यह सर्वज्ञता उसमें स्वाभाविक है और अनादि काल से है तथा अनन्त काल तक अर्थात् सदैव बनी रहेगी। ईश्वर सत्व, रज व तम गुणों वाली, त्रिगुणात्मक सूक्ष्म प्रकृति से इस सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है और अवधि पूरी होने पर प्रलय भी करता है। ईश्वर ही समस्त प्राणी जगत का उत्पत्तिकर्ता और पालनकर्ता है जिसमें मनुष्य व सभी पशु, पक्षी आदि प्राणी सम्मिलित है। यह भी जानने योग्य है कि ईश्वर से अधिक व उसके समान कोई सत्ता ब्रह्माण्ड में नहीं है। ईश्वर एक है और वह अपने समस्त कार्य स्वयं, अकेला व स्वतन्त्र रूप से करता है। उसे अपने कार्यों के सम्पादन में किसी अन्य जड़ व चेतन सत्ता अर्थात् प्रकृति व जीवात्माओं की अपेक्षा नहीं है। प्रकृति व सृष्टि उसके पूर्ण रूप से वश में है तथा जीव कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में ईश्वरीय व्यवस्था में परतन्त्र है।

 

ईश्वर में अनन्त गुण हैं जिनमें उसका न्यायकारी होना व दयालु होना भी सम्मिलित है। दयालु होने के कारण कुछ भावुक व स्वार्थी प्रकृति के लोग अविवेकपूर्ण बात कह देते हैं कि ईश्वर दयालुता के कारण जीवात्माओं के पापों को क्षमा कर देता है। पापों को क्षमा करने की बात ईश्वर के स्वभाव के सर्वथा विपरीत है। ईश्वर किसी मनुष्य के किसी कर्म को दयालु होने पर कदापि किंचित क्षमा नहीं करता और न हि कर सकता है। यदि वह किसी के पापों को क्षमा करेगा तो फिर वह न्यायकारी न होकर अन्यायकारी कहा जायेगा। यह अन्याय उस मनुष्यादि प्राणी के प्रति होगा जिसके प्रति अपराध व पाप हुआ है। दया का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि दयालु व्यक्ति किसी बुरा काम करने वाले व्यक्ति के काम को क्षमा कर दे। यदि कोई ऐसा करता है तो वह उस व्यक्ति का अपराधी होता है जिसके प्रति अपराध हुआ है। हम यह सभी जानते हैं कि अपराध को क्षमा करने से अपराध की प्रवृत्ति कम होने के स्थान पर बढ़ती है। दूसरी बात यह भी है कि जिस व्यक्ति के प्रति अपराध किया गया है, वह निर्दोष व्यक्ति भी अपराध क्षमा करने वाले के प्रति अविश्वास की भावना रखने लगता है जो कि उचित ही है। यदि ईश्वर ऐसा करेगा तो उसके प्रति भी यही विचार बनेंगे। मनुष्य तो अपने राग, द्वेष, हठ, दुराग्रह, स्वार्थ व अविद्यादि दोषों से ऐसा कर सकता है परन्तु सर्वशक्तिमान व सबके सब कर्मों का साक्षी परमात्मा ऐसा नहीं कर सकता। हम देखते हैं कि संसार में अपने धार्मिक मतों की मान्यताओं के अनुसार उन उन मतों का ईश्वर अपने भक्तों के पापों को क्षमा कर देता है, ऐसा कहा जाता व प्रचार किया जाता है। इसका एक प्रयोजन यह भी लगता कि उस मत के लोग दूसरे मत के लोगों को फंसा कर अपने मत में लाना चाहते हैं और अपने मत के लोग दूसरे सच्चे मतों में न चले जायें, यह उनका उद्देश्य होता है। अब उनसे प्रश्न है कि यदि उन मतों के अनुयायियों के पापों को उनके ईश्वर ने क्षमा कर दिया है तो फिर वह रोगी क्यों होते है, दुःख क्यों भोगते हैं, किस कारण उनकी इच्छायें पूरी नहीं होती, वह धन व सुख की कामना करते हैं, अधिकांश को वह नहीं मिलता, इसका क्या कारण है? जब कोई पाप बचा ही नहीं तब भी मनुष्य का दुःखी होना उस मत के ईश्वर का पापरहित जीवात्माओं के प्रति अन्याय ही कहा जायेगा। अब उसी दयालुता कहां गईं। किसी बात का दुःख उन मनुष्यों को मिल रहा है, जिनके पाप क्षमा कर दिये गये हैं? इसका एक ही कारण है कि ईश्वर एक है और वह सभी मतों के अनुयायियों को एक समान रूप से कर्मों के फल प्रदान करता है। दुःख हमारे जाने व अनजाने, इस जन्म व पूर्व जन्म में किये गये कर्मों का परिणाम होते है, और ईश्वर उन्हें किसी भी स्थिति में क्षमा नहीं करता। यदि हमारे पूर्व कृत बुरे कर्मों व पापों को ईश्वर क्षमा कर देता तो हम ज्ञान, स्वास्थ्य, साधनों व धन आदि में पूर्णतया सन्तुष्ट व सुखी होते। किसी को भी कोई क्लेष, कष्ट व दुःख नहीं होता। हमें अपनी किसी इच्छित वस्तु का किेंचित अभाव व कमी न होती। ऐसा न होने का कारण यही है कि हमारा प्रारब्ध व इस जन्म के कर्म ही हमारे इच्छित भोगों की प्राप्ति में बाधक हैं। यह भी स्पष्ट कर दें कि एक बार पाप हो जाने पर वह किसी पौराणिक पूजा व क्रिया से भी समाप्त नहीं हो सकता। उसका तो केवली एक ही उपाय है प्रायश्चित। प्रायश्चित करने में किसी धर्म गुरू आदि की आवश्यकता नहीं है। प्रायश्चित स्वयं किया जाना है। उसमें तो अपने उस कर्म की भर्तस्ना व निन्दा करनी है जिससे की भविष्य में वह पाप न हो। किये पाप का फल तो प्रायश्चित करने पर भी भोगना ही होता है क्योंकि यदि उसका फल ईश्वर नहीं देगा तो वह न्यायकारी नहीं रहेगा। हां पाप का फल देते हुए, और क्षमा प्रार्थना को अस्वीकार कर भी ईश्वर दयालु ही रहता है जिस प्रकार माता-पिता व आचार्य बच्चों के दोषों को दूर करने के लिए दण्ड देते समय उनके हित के लिए व अपनी दया प्रदर्शित करने के कारण ही उसे दण्ड देते हैं। दण्ड का उद्देश्य सुधार है, हां अकारण दण्ड देना अनुचित है जो कि ईश्वर कभी किसी के प्रति नहीं करता।

 

आईये, वेदों के महान विद्वान, विश्व गुरू व धर्मवेत्ता महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश में लिखे एतद् विषयक प्रकरण पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। महर्षि ने प्रश्न प्रस्तुत किया है कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि (ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा) नहीं करता। जो पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाय, और सब मनुष्य महापापी हो जायें, क्योंकि क्षमा की बात सुन कर ही उन को पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक-अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन को भी भरोसा हो जाय कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे ओर जो अपराध नहीं करते, वे भी अपराध करने से न डर कर, पाप करने में प्रवृत हो जायेंगे। इसलिये सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं। (प्रश्न) जीव स्वतन्त्र है वा परतन्त्र? (उत्तर) अपने कर्तव्य कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र हैं। स्वतन्त्रः कर्त्ता यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र है। जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कर्त्ता है। (प्रश्न) स्वतन्त्र किस को कहते हैं? (उत्तर) जिस के आधीन शरीर, प्राण, इन्द्रिय और अन्तःकरणादि हों। जो स्वतन्त्र न हो तो उस को पाप-पुण्य का फल प्राप्त कभी नहीं हो सकता। क्योंकि, जैसे भृत्य, स्वामी और सेना, सेनाध्यक्ष की आज्ञा अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों को मार के अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और आधीनता से काम सिद्ध हों तो जीव को पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी प्रेरक परमेश्वर होवे। स्वर्ग-नरक, अर्थात् सुख-दुःख की प्राप्ति भी परमेश्वर को होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्र विशेष से किसी को मार डाला तो वही मारने वाला पकड़ा जाता है, और वही दण्ड पाता है, शस्त्र नहीं। वैसे ही पराधीन जीवन पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसलिये अपने सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र, परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसलिये कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है। (प्रश्न) जो परमेश्वर जीव को न बनाता और सामर्थ्य न देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिए परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है। (उत्तर) जीव उत्पन्न कभी नहीं हुआ, अनादि है। ईश्वर और जगत् का उपादान कारण, नित्य है। जीवात्मा का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाये हुए हैं, परन्तु वे सब जीव के आधीन हैं। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वही भोक्ता है, ईश्वर नहीं। जैसे किसी ने पहाड़ से लोहा निकाला, उस लोहे को किसी व्यापारी ने लिया, उस की दुकान से लोहार ने ले तलवार बनाई, उससे किसी सिपाही ने तलवार ले ली, फिर उस से किसी को मार डाला? अब यहां जैसे वह लोहे को उत्पन्न करने, उस से लेने, तलवार बनाने वाले और तलवार को पकड़ कर राजा दण्ड नहीं देता किन्तु, जिसने तलवार से मारा, वही दण्ड पाता है। इसी प्रकार शरीरादि की उत्पत्ति करने वाला परमेश्वर उस के कर्मों का भोक्ता नहीं होता, किन्तु जीव को भुगाने वाला होता है। जो परमेश्वर कर्म कराता होता तो कोई जीव पाप नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्ररेणा नहीं करता। इसलिए जीव अपने काम करने में स्वतन्त्र है। जैसे जीव अपने कामों के करने में स्वतन्त्र है, वैसे ही परमेश्वर भी अपने कामों के करने में स्वतन्त्र है। अर्थात् जीवों के पाप-पुण्य रूपी कर्मों के फल देने में ईश्वर स्वतन्त्र है, वह जीवों के पापों को क्षमा नहीं करता और इससे उसकी दया में किंचित हानि नहीं उत्पन्न होती।

 

हम समझते हैं कि ईश्वर के न्याय व दया का स्वरूप पाठकों को स्पष्ट विदित हो गया होगा। दोनों पृथक पृथक है। संसार में कोई मनुष्य किसी मत व सम्प्रदाय को माने, परन्तु जो अशुभ व पाप कर्म वह करेगा उसका दण्ड उसको ईश्वर अवश्य देगा और जीवों को वह भोगना ही पड़ेगा। कोई जीव अपने अशुभ व पाप कर्म के फल से बच नहीं सकता और न संसार में कोई मनुष्य, धर्मगुरू बचा सकता है, ईश्वर भी किसी को बिना पाप का फल भोगे, छोड़ नहीं सकता। जब ऐसा है तो फिर बुरे कर्म करें ही क्यों? इसी कारण हमारे पूर्वज वेदों का ज्ञान प्राप्त कर ऋषि व विद्वान बनते थे और पाप नहीं करते थे। जब से संसार में अनेकानेक मतों की वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में अशुभ-पाप कर्म भी बढ़े हैं। कर्म-फल सिद्धान्त को जानकर मनुष्य पाप करने से बच सकता है और पवित्रात्मा बनकर लोक-परलोक में उन्नति कर सकता है। अन्त में यह भी कहना चाहते हैं कि कई बार लोग अपने दुःखों से दुःखी होकर इसके लिए ईश्वर को दोष देते हैं। वह कहते हैं कि हमने इस जन्म में तो कोई बुरा कर्म किया नहीं फिर हमें यह भीषण दुःख कयों? उनकी यह भी दलील होती है कि उनकी जानकारी में बुरे कर्म करने वाले सुखी हैं। इसका कारण हमारे पिछले जन्म के कारण ही सम्भावित होते हैं। हम भूल चुके हैं परन्तु ईश्वर कुछ भी भूलता नहीं है। कर्म-फल सिद्धान्त भी यही है कि कर्मों के फल जन्म-जन्मान्तर में भोगे जाते हैं। अतः दुःखी व्यक्ति को ईश्वर में विश्वास रखते हुए यह सोचकर सन्तोष करना चाहिये कि जो कर्म भोग लिए वह तो कम हो ही गये और शेष कर्म भी ईश्वर को याद करते हुए भोग कर समाप्त हो जायेंगे। अन्य कोई उपाय भी हमारे पास नहीं है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द, सत्यार्थ प्रकाश और आर्यसमाज मुझे क्यों प्रिय हैं?’ -मनमोहन कुमार आर्य

सृष्टि के आरम्भ से लेकर अद्यावधि संसार में अनेक महापुरूष हुए हैं। उनमें से अनेकों ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं या फिर उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं का संग्रह कर उसे ग्रन्थ के रूप में संकलित किया है। हम उत्तम महान पुरूष को प्राप्त करने के लिए निकले तो हमें आदर्श महापुरूष के रूप में महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रतीत हुए। हमने उन्हें अपने जीवन में सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष के रूप में स्वीकार किया है। ऐसा नहीं कि उनसे पूर्व उनके समान व उनसे उत्कृष्ट पुरूष या महापुरूष, महर्षि, ऋषि, योगी आदि उत्पन्न ही नहीं हुए। हमारा कहना मात्र यह है कि हमारे सम्मुख जिन महापुरूषों के विस्तृत जीवन चरित्र उपलब्ध हैं, उनमें से हमने महर्षि दयानन्द को अपने जीवन का सत्य, यथार्थ व आदर्श पथ प्रदर्शक पाया है। न केवल हमारे अपितु वह विश्व के सभी मनुष्यों के सच्चे हितैषी, विश्वगुरू व पथप्रदर्शक रहे हैं व अपने ग्रन्थों व कार्येां के कारण अब भी हैं। विश्व के लोगों ने अपनी अज्ञानता व कुछ निजी कारणों से उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया। महर्षि दयानन्द के अतिरिक्त हम अन्य महापुरूषों यथा श्री रामचन्द्र जी, योगेश्वर श्री कृष्ण चन्द्र जी, आचार्य चाणक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह जी, बंदा बैरागी और सभी आर्य विद्वानों व प्रचारकों को भी अपना आदर्श मानते हैं।

 

संसार में सृष्टि के आरम्भ से अद्यावधि अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है। गणनातीत ग्रन्थों में एक ग्रन्थ वेद भी है जिसके बारे में हमें महर्षि दयानन्द जी से पता चला कि वह मनुष्यों व ऋषियों की रचना नहीं अपितु ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में चार सर्वाधिक पवित्र ऋषि आत्माओं अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को संसार के तत्कालीन व भावी मनुष्यों के कल्याण व उद्धार के लिए ईश्वर ने अपने अन्तर्यामी स्वरूप से दिया था। उस ज्ञान को ही स्मरण कर व अन्यों में प्रचार कर इन चार ऋषियों व इनसे पढ़कर ब्रह्माजी ने प्रथम वेदों का प्रचार व प्रसार किया था और तब जो परम्परा आरम्भ हुई थी, उसका ही निर्वहन महर्षि दयानन्द ने ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में किया। महर्षि दयानन्द के आविर्भाव से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का प्रसिद्ध महायुद्ध हो चुका था। इसके परिणामस्वरूप विश्व की अपने समय की एकमात्र सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति की कालान्तर में अप्रत्याशित अवनति हुई थी। वेद विलुप्ति के कागार पर थे। वेदों के सत्य अर्थ तो प्रायः विलुप्त ही हो चुके थे तथा उनके स्थान पर कपोल कल्पित भ्रान्त अर्थ प्रचलित थे। वैदिक धर्म व संस्कृति में भी अनेक विकार आकर यह अन्धविश्वासों, कुरीतियों, पाखण्डों व सामाजिक असमानताओं सहित शिक्षा व ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत अधिक अवनत अवस्था में आ गई थी। यही कारण था देश व देश से बाहर अनेक अवैदिक मतों का प्रादुर्भाव हो चुका था। सभी मत सत्य व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों से युक्त थे। इन मतों के कारण लोग परस्पर मित्र भाव न रखकर एक दूसरे के प्रति शत्रु भाव ही प्रायः रखते थे। दिन प्रतिदिन इसमें वृद्धि हो रही थी। ऐसा कोई महापुरूष उत्पन्न नहीं हुआ था जो इनमें एकता के सूत्र की तलाश करता और उसका प्रस्ताव कर अपने मिथ्या विश्वासों और मान्यताओं को छोड़कर सत्य का ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का आह्वावन करता। यह काम महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने अपने समय में अपनी पूरी शक्ति व प्राणों की बाजी लगाकर किया जिसका परिणाम आज का पूर्व की तुलना में अधिक उन्नत विश्व कहा जा सकता है जिसमें अनेक अन्धविश्वास कम व दूर हुए हैं, सामाजिक कुरीतियां व विषमतायें कम व दूर हुई हैं और ज्ञान-विज्ञान देश-विदेश में नित्य नई ऊंचाईयों को छू रहा है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व संकल्प, इच्छा शक्ति, वेद ज्ञान, साहस, वीरता, देश प्रेम, प्राणीमात्र के हित को सम्मुख रख कर विश्व कल्याण के लिए वेदों की ओर लौटने का सन्देश दिया। उन्होंने बताया कि वेद ईश्वर प्रदत्त सत्य व प्रमाणिक ज्ञान है। उनकी मान्यता थी कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है तथा वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ, बुद्धिमान, ईश्वर को मानने वाले सच्चे व निष्पक्ष लोगों का परम कर्तव्य व धर्म है। वेदों की सत्यता और प्रमाणिकता के साथ ही वेदों की प्रासंगिकता और सर्वांगपूर्ण धर्म की पुस्तक होने का प्रबल समर्थन उन्होंने युक्ति व तर्कों सहित अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया है। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि उनके अनेक ग्रन्थ हैं जो सत्यार्थ प्रकाश की मान्यताओं व सिद्धान्तों के पूरक हैं। उनके साहित्य से सिद्ध होता है कि वेद पूर्णरूपेण सर्वांगपूर्ण धर्म ग्रन्थ हैं। धर्म की जिज्ञासा के लिए अन्य किसी ग्रन्थ की मनुष्यों को अपेक्षा नहीं है क्योंकि वेद ईश्वरीय सत्य वाक् होन से स्वतः प्रमाण और संसार के अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं अर्थात् सत्य व प्रमाणिकता में वेदों के समान संसार का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। हां, भाषा आदि के ज्ञान की दृष्टि से वेदों के संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य-अन्य भाषाओं में भाष्य व टीकाओं की सहायता ली जा सकती है। सत्यार्थ प्रकाश को भी हम संसार के सभी मनुष्यों का एक आदर्श धर्म ग्रन्थ कह सकते हैं जिसमें वेदों की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए मनुष्यों के मुख्य-मुख्य कर्तव्यों पर प्रकाश डालने के साथ अकर्तव्य, अन्धविश्वासों व मिथ्या मान्यताओं का परिचय देकर उनका त्याग करने की प्रेरणा भी दी गई है। सत्यार्थ प्रकाश में ऐसा क्या है जो हमें सर्वाधिक प्रिय है? इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत करते हैं।

 

सत्यार्थ प्रकाश का आरम्भ महर्षि दयानन्द ने विस्तृत भूमिका लिख कर दिया है। इससे महर्षि दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाश की रचना करने का उद्देश्य तथा पुस्तक में सम्मिलित किये गये विषयों का ज्ञान होता है। वह लिखते हैं कि उनका इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान, आप्तों (धर्म विशेषज्ञों) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरुप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। महर्षि दयानन्द ने भूमिका में इन वाक्यों में जो कुछ कहा है, उसका उन्होंने पूरे सत्यार्थ प्रकाश में पूरी निष्ठा से पालन किया है। हम समझते हैं कि इस प्रयोजन व उद्देश्य से शायद ही कोई धर्म ग्रन्थ लिखा गया हो और यदि लिखा भी गया है तो सम्प्रति उनमें अनेक अशुद्धियां व असत्य मान्यतायें, अन्य मतों के प्रति विरोध व शत्रुता का भाव, छल, कपट, लोभ व बल पूर्वक उनका धर्मान्तरण करने का विचार व अनुमति जैसे अमानवीय विचार विद्यमान है जिससे संसार में अशान्ति उत्पन्न हुई है।

 

सत्यार्थ प्रकाश के पहले समुल्लास व अध्याय में हम ईश्वर के मुख्य निज नाम सहित उसके सत्य स्वरूप व 100 से कुछ अधिक नामों व उन नामों के तात्पर्य के बारे में सविस्तार जानकारी प्राप्त करते हैं। इससे वेदों में अनेक ईश्वर व देवता होने की बात निरर्थक व असत्य सिद्ध होती है तथा यह विदित होता है कि एक ही ईश्वर के असंख्य गुण-कर्म-स्वभाव व सम्बन्धों के कारण उसके अनेक नाम हैं। इस अध्याय को समझ लेने पर जहां ईश्वर का सत्य स्वरूप जानकर आत्मा की तृप्ति होती है वहीं ईश्वर के स्वरुप, नाम व कार्यों के विषय में भिन्न भिन्न ग्रन्थों में जो मिथ्या व अन्धविश्वासयुक्त कथन है, उसका भी निराकरण हो जाता है। दूसरे अध्याय में माता-पिता व आचार्यों द्वारा कैसी शिक्षा दी जाये इसका ज्ञान कराया गया है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण व मनुष्य व समाज के धारण व व्यवहार करने योग्य है। तीसरा समुल्लास पढ़कर ब्रह्मचर्य का महत्व व उससे लाभ, पठन पाठन वा अध्ययन-अध्यापन सहित सत्य व असत्य ग्रन्थों का भी परिचय मिलता है और पढ़ने वा पढ़ाने की रीति का भी ज्ञान होता है। सत्यार्थ प्रकाश के चैथे समुल्लास में युवावस्था में विवाह और गृहस्थ आश्रम के सद् सद् व्यवहारों की शिक्षा दी गई है। पांचवा अध्याय गृहस्थाश्रम का निर्वाह कर इसके कर्तव्यों व दायित्वों से मुक्त होकर वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम में प्रवेश व उसके महत्व व विधान को विस्तार से समझाया गया है। इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ का छठा अध्याय प्रजा व राजधर्म विषय पर है जिसमें वेद व मुख्यतः मनुस्मृति के आधार पर शासन व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है जिसे पढ़कर अनेक बातों में यह वर्तमान की व्यवस्था से भी श्रेष्ठ प्रतीत होती है। सातवां समुल्लास ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद और ईश्वर के स्वरूप के बारे में वेद, युक्ति, तर्क तथा ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाल कर श्रोता की इस विषय में पूर्ण सन्तुष्टि कराता है जिससे संसार के अन्य एतदसम्बन्धी ग्रन्थ निरर्थक से प्रतीत होते हैं। आठवां समुल्लास वैदिक सृष्टि विज्ञान से सम्बन्धित है जिसमें जगत की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर ज्ञान व विज्ञान से परिपूर्ण प्रकाश डाला गया है। यह ज्ञान संसार के अन्य सभी धर्म ग्रन्थों में प्रायः नदारद है जिससे उनकी न्यूनता व अपूर्णता प्रकट होती है।

 

सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्धन तथा मोक्ष, जन्म, मृत्यु, लोक व परलोक की ज्ञान से पूर्ण व्याख्या प्रश्नोत्तर शैली में कर वैदिक ज्ञान का संसार से लोहा मनवाया गया है। दसवें समुल्लास में आचार, अनाचार, भक्ष्य और अभक्ष्य आदि अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। ग्याहरवां समुल्लास भारतवर्षीय नाना मत-मतान्तरों की अज्ञानपूर्ण मान्यताओं का परिचय कराता है और साथ हि उनका युक्ति व प्रमाणों से खण्डन किया गया है जिसका उद्देश्य सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग कराना मात्र है। बारहवें, तेरहवें व चैदहवें समुल्लासों में क्रमशः चारवाक-बौद्ध-जैन, ईसाई व मुस्लिम मत का विषय प्रस्तुत कर सत्य के ग्रहणार्थ उनकी कुछ मान्यताओं का परिचय दिया गया है। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करने पर मनुष्य को अपने कर्तव्य व धर्म का पूर्ण बोध होने के साथ अन्य मतों का परिचय भी मिलता है। सत्यार्थ प्रकाश के अनुरूप अन्य कोई ग्रन्थ संसार में नहीं है। इससे सत्य धर्म का निर्णय करने व उसका पालन करने का ज्ञान होता है जिससे मानव जीवन सफल होता है। सत्यार्थ प्रकाश वेदों पर आधारित ग्रन्थ है, इसमें दी गई मान्यतायें सार्वभौमिक है और विश्वस्तर पर इनका पालन होने से अशान्ति दूर होकर विश्व में शान्ति की स्थापना की पूर्ण सम्भावना परिलक्षित होती है। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर मनुष्य सत्य विधि से ईश्वरोपासना करने वाला भक्त, वायु-जल-पर्यावरण का शुद्धि कर्ता, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों-सच्चे-संन्यासियों की सेवा करने वाला, देश भक्त, समाज सेवी, ज्ञान-विज्ञान का पोषक व धारणकर्ता, स्त्रियों केा आदर व सम्मान देने वाला तथा वैदिक गुणों से धारित स्त्रियों को माता के समान मानकर उनका सम्मान करने वाला आदि अनेकानेक गुणों वाला मनुष्य निर्मित होता है। यह कार्य सत्यार्थ प्रकाश व वेद करते हैं जो अन्य किसी प्रकार से नहीं होता। सत्यार्थ प्रकाश का उद्देश्य किसी मत-मतान्तर का विरोध न कर केवल सत्य को प्रस्तुत करना व उसका पालन करने के लिये लोगों को प्रेरित करना है, यही इस ग्रन्थ की संसार के अन्य सभी ग्रन्थों से विशिष्टता है। हम सत्यार्थ प्रकाश को देवता कोटि के मनुष्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में सर्वोत्तम ग्रन्थ पाते हैं, इसलिये हमें यह ग्रन्थ सर्वाधिक प्रिय है। इसके लेखक महर्षि दयानन्द में आदर्श महापुरूष के सभी दिव्य गुण क्रियायें विद्यमान होने उन्होंने समाज, देश विश्व की उन्नति के लिए जो अवदान वा योगदान दिया है, इस कारण उन्हें सर्वोत्तम आदर्श महापुरूष मानते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने वैदिक विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। आर्यसमाज ने वेदों के प्रचार प्रसार, कुरीति उन्मूलन, सामाजिक विषमता दूर कर समरसता स्थापित करने सहित देश को स्वतन्त्र कराने में प्रमुख भूमिका अदा की है। सम्प्रति समय के साथ कुछ शिथिलतायें भी संगठन में आयीं हैं जिसको दूर करना नितान्त आवश्यक है जिससे कि प्रभावशाली तरीके से वेदों का प्रचार प्रसार हो और संगठन सुदृढ़ एवं आदर्श बने। महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पूर्ण अंहिसात्मक संगठन है और पे्रम व सदभावपूर्वक ज्ञान का प्रचार करता है। इसके मूल में अपनी संख्या बढ़ाने हेतु हिंसा, लोभ, लालच, छल व प्रपंच वर्जित हैं। यह प्राणी मात्र के प्रति दया रखता है। कोई भी सच्चा आर्यसमाजी मांसाहार व मदिरापान, अण्डे व अभक्ष्य पदार्थों का सेवन नहीं करता। आर्यसमाज व वैदिक धर्म के दरवाजे सभी मतों के अनुयायियों के लिये खुले हैं। कोई भी यहां आकर सदाचरण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना कर सफलता प्राप्त कर सकता है। आर्यसमाज ने दलितों सहित सभी वणों के बन्धुओं वैदिक विद्वान बनाने के साथ पुरोहित बनाया है और सभी स्त्रियों को वेद विदुषी भी बनाया है। अनेक कार्यों में यह भी उसका अभूतपूर्व कार्य है। हम यहां यह भी कहना चाहते हैं कि विश्व भर में चर्चित योग वेदों की ही देन हैं। महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का आधार वेद ही हैं। संसार का कोई मनुष्य यह नहीं कह सकता कि वह योग को स्वीकार नहीं करता। सबके जीवन में कहीं अधिक कहीं कुछ कम योग समाया हुआ है। किसी किसी रूप में आसान, व्यायाम प्राणायाम सभी करते हैं। योग के दो अंग यम नियम तथा इनके उपांग अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान को भी प्रायः संसार के सभी लोग मानते इन पर आचरण करते हैं। अतः हमारा मानना है कि संसार के सभी मतों के लोग आंशिक रूप से योग करते हैं। जो योग से परहेज करते हैं उन्हें योग को पूर्णतया अपने जीवन का अंग बनाना चाहिये। इसमें उन्हीं का लाभ कल्याण है। हम यह भी कहना चाहते हैं कि हम आज जो कुछ हैं, उसमें महर्षि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश और आर्यसमाज की महत्वपूर्ण भूमिका है। लेख विस्तृत हो गया है अतः इन्हीं शब्दों के साथ हम लेखनी को विराम देते हैं और सभी पाठकों से आग्रह करते हैं कि सत्यार्थप्रकाश का जीवन में बार-बार पाठ करें। इससे आपको वह मिलेगा जो संसार के अन्य ग्रन्थों का अध्ययन करने से नहीं मिल सकता।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘माता-पिता, आचार्य, चिकित्सक व किसान आदि की तरह धर्म प्रचारक का असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

खण्डन किसी बात को स्वीकार न कर उसका दोष दर्शन कराने व तर्क व युक्तियों सहित मान्य प्रमाणों को उस मान्यता व विचार को खण्डित व अस्वीकार करने को कहते हैं। हम सब जानते हैं कि सत्य एक होता है। अब मूर्तिपूजा को ही लें। क्या मूर्तिपूजा जिस रूप में प्रचलित है, वह ईश्वरपूजा का सत्य स्वरूप है? इस मूर्तिपूजा के पक्ष व विपक्ष के प्रमाणों, तर्कों व युक्तियों को प्रस्तुत कर जो प्रमाण, तर्क व युक्तियां अखण्डनीय होती है, वही सत्य होता है। मूर्तिपूजा करने वाले बन्धुओं को यदि इसे प्रमाणिक, तर्क व युक्ति संगत सिद्ध करने के लिए कहा जाये तो वह ऐसा नहीं कर सकते। दूसरी ओर वेदों के विद्वान व धर्म के मर्मज्ञों से जब इसकी चर्चा करते हैं तो वह मूर्तिपूजा को ईश्वर की पूजा, सत्कार, उसकी उपासना आदि के रूप में स्वीकार नहीं करते। वह बताते हैं कि ईश्वर की पूजा व उसका सत्कार करने की पद्धति मूर्तिपूजा नहीं किन्तु उससे सर्वथा भिन्न योग, ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन, मनन व वेद विहित कर्मों को करना, निषिद्ध कर्मों को न करना आदि है। सृष्टि के आरम्भ से खण्डन-मण्डन की परम्परा चली आयी है। खण्डन प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में किया जाता है। प्रत्यक्ष में यह उपदेश, लेखन तथा शास्त्रार्थ की चुनौती आदि के द्वारा होता है। परोक्ष रूप में प्रचलित प्रथाओं को स्वीकार न कर बिना उपदेश व प्रवचन, लेखन व चुनौती दिए नई परम्पराओं को अपनाना या उन्हें प्रवृत्त करना भी एक प्रकार से विद्यमान मिथ्या परम्पराओं, असत्य धार्मिक मान्यताओं आदि का खण्डन ही होता है।

 

संसार के प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक परिवार होता है जिसमें अनिवार्य रूप से माता पिता होते हैं। माता से सन्तान का जन्म होता है। माता-पिता दोनों मिलकर अपनी सन्तान, पुत्र व पुत्री का पालन करते हैं। उन्हें अच्छे संस्कार देने का प्रयत्न करते हैं। पुत्र द्वारा गलती करने, पढ़ाई न करने, किसी का अनादर करने, क्रेाध, चोरी, चुंगली तथा अस्वास्थ्यप्रद भोजन करने आदि पर ताड़ना करते हैं। यह भी एक प्रकार का खण्डन ही है। जब हम विद्यार्थी थे और हमारा परीक्षा का परिणाम आता था तो माता-पिता उसे देखकर प्रसन्न होने के बजाय जिन विषयों में सबसे कम नम्बर होते थे, उसका उल्लेख कर निराशा व्यक्त करने के साथ कुछ शिक्षा देते थे। यह भी एक प्रकार से खण्डन व मण्डन ही होता था जिससे हम स्वयं का सुधार करते थे। जो बच्चे कुसंगति करते हैं, माता पिता येन केन प्रकारेण अपने बच्चें को कुसंगति से निकालने में तत्पर रहते हैं। क्या यह उस बच्चे के अनुचित व्यवहार का खण्डन नहीं है? यदि वह सराहना करते तो वह मण्डन कहलाता। सराहना न होने के स्थान पर आलोचना व डांट पड़ रही है, अतः यह भी खण्डन का एक प्रकार है और बालक के जीवन निर्माण के लिए आवश्यक व अनिवार्य है।

 

आचार्य की ब्रह्मचारी व शिष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वस्तुतः आचार्य वह होता है जो अपने ब्रह्मचारी, शिष्य वा विद्यार्थी को सद् आचरण की शिक्षा देकर द्विज बनाता है। द्विज का अर्थ बुद्धिमान, ज्ञानवान, विद्यावान तथा संस्कारित होना है। ज्ञान के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जिसे वेद के नाम से सारा संसार जानता है। आचार्य अपने ब्रह्मचारी को वेदों का ज्ञान कराता है। इसके साथ सभी प्रकार से उसे आध्यात्मिक ज्ञान के साथ सांसारिक ज्ञान की शिक्षा भी देता है। अपने इस कर्तव्य को सुचारू रूप से पूरा करने के लिए उसे विद्यार्थी के जीवन में से बुरे संस्कारों को चुन-चुन कर दूर करना होता है। जीवन में जितने अच्छे गुण होते हैं, उतने ही उसके विपरीत, बुरे गुण व दोष भी होते हैं। आचार्य को दोषों का खण्डन तर्क व युक्ति व शास्त्र प्रमाणों के आधार पर अपने विद्यार्थी पर करना होता है और इसके साथ उसे शास्त्रों की शिक्षा व महापुरूषों के जीवनों का ज्ञान कराकर ज्ञान, चरित्र व पुरूषार्थ का महत्व प्रतिपादन करना उसका दैनन्दिन कार्य होता है। अच्छे शिष्य व अच्छे गुरू के मिलन से ब्रह्मचारी श्रेष्ठ गुणों को धारण कर यशस्वी बनता है। इस प्रकार अवगुणों की आलोचना, निन्दा, भत्र्सना करना गुरू वा आचार्य का एक प्रकार से खण्डन करना ही है जिससे श्रेष्ठ विद्यार्थी बनता है।

 

आईये, चिकित्सक के बारे में भी कुछ विचार कर लेते हैं। चिकित्सक के पास रोगी व्यक्ति स्वयं ही जाता है और चिकित्सक से रोग को दूर करने की प्रार्थना करता है। विद्वान चिकित्सक रोग के कारण का पता लगाता है और रोगी को कुपथ्य को छोड़ने व पथ्य को अपनाने का परामर्श देता है। इसके साथ उस रोग के शमन की ओषधि भी वह रोगी को देता है जिससे कुछ ही समय बाद रोगी ठीक हो जाता है। रोग की साधारण स्थिति में पथ्य व ओषधि के सेवन से स्वस्थ हुआ जाता है। रोग यदि कुछ पुराना है व उसकी तीव्रता अधिक हो तो ओषधियों को इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है। कई बार शरीर के अन्दर कुछ विकृतियां हो जाती हैं। परीक्षा कर चिकित्सक ऐसे रोगों की शल्य क्रिया करता है जिससे रोगी रोगमुक्त होकर स्वस्थ हो जाता है। यहां चिकित्सक द्वारा रोग के कारणों को जानकर जिन पदार्थों के सेवन से रोगी को मना किया जाता है, वह एक प्रकार से खण्डन ही है। इसी प्रकार से रोगी व्यक्ति को अपनी पुरानी जीवन शैली में कुछ परिवर्तन भी करना होता है। जिन चीजों को छोड़ने की सलाह चिकित्सक देता है वह भी उनका खण्डन करना ही है। ऐसा किये बिना व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता। शल्य क्रिया में तो कई बार विकृत अंग व विकृति को काटकर शरीर से पृथक कर दिया जाता। इस खण्डन से ही मनुष्य स्वस्थ होकर अपने जीवन को सुख व आनन्द के साथ व्यतीत करने में समर्थ होता है। यह खण्डन रोगी के हित में आवश्यक होता है और कोई इसे बुरा नहीं कहता। सभी इसका समर्थन करते हैं।

 

किसान का मुख्य कार्य अपने खेतों को जोतना, उसमें खाद डालना, भूमि को जल से सिंचित करना, बीज बोना व उसके बाद फसल की निराई व गुडाई करना होता है जिससे अधिक से अधिक उपज प्राप्त की जा सके। कठोर भूमि को जोतकर उसे कोमल बनाया जाता है। यह कठोरता का खण्डन करना है जिससे भूमि कोमल होती है। जल से सिचिंत करना भी भूमि की कठोरता को कम करने के लिए होता है अन्यथा बीज उगेगा नहीं और फसल का इच्छित उत्पादन नहीं हो पाने से किसान को क्लेश होगा। यह कठोर भूमि को कोमल करना अर्थात् भूमि को संस्कारित करना कठोरता के गुण का खण्डन ही है। इसी प्रकार से निराई व गुडाई कर खरपतवार को दूर करना भी उनका खण्डन ही होता है। बिना खण्डन के आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं। यदि किसान भूमि को कोमल करने के लिए हल नहीं चलायेगा, सिंचित नहीं करेगा और निराई व गुडाई नहीं करेगा, जो कि खण्डन हैं, तो वह बाद में पछतायेगा व दुःखी होगा। इस प्रकार खण्डन के परिणाम से ही आशा के अनुरूप खाद्यान्न का उत्पादन होता है।

 

अब धर्म प्रचारक के कार्य पर विचार करते हैं। धर्म प्रचारक का कार्य मनुष्य के धर्म वा कर्तव्यों का प्रचार करना है जिसको करके वह न केवल सुखी जीवन ही व्यतीत करे अपितु जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को भी प्राप्त करने में अग्रसर हो। इसके लिए पाप कर्मों को छोड़ना और अधिक से अधिक पुण्य कर्मों को करना होता है। विद्याध्ययन करने के पश्चात ब्रह्मचर्य युक्त पुरुषार्थी जीवन व्यतीत करते हुए यथासमय पंचमहायज्ञों को करना ही धर्मपूर्वक सुख प्राप्ति अर्थात् अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति का मार्ग है। आजकल लोगों ने परजन्म वा निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष के बारे में सोचना ही छोड़ दिया है। कर्मों का बन्धन एक प्रकार की जेल होती है और इसके विपरीत मुक्ति, मोक्ष या निःश्रेयस होता है। दार्शनिक दृष्टि से यह निष्कर्ष प्राप्त होता हैै कि बन्धन में पड़ा व्यक्ति कभी न कभी स्वतन्त्र था और जो स्वतन्त्र अर्थात् मोक्ष में हैं वह बन्धन से ही मोक्ष में गये हैं और अवधि पूरी कर वापिस पुनः बन्धन में लौटेंगे। जिस प्रकार एक सरकारी कर्मचारी अवकाश की अवधि पूरा करने पर पुनः अपने कार्य पर लौट कर आता है, उसी प्रकार से बन्धन से मुक्त होकर जीवात्मा मुक्ति को और मुक्ति की अवधि पूरी होने पर पुनः बन्धन अर्थात् मनुष्य का जन्म धारण करता है। आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान महात्मा आर्यभिक्षु जी अपने प्रवचन में सुनाते थे कि एक गोपालक ने सेवक को गाय को खोलने का आदेश दिया। वहां एक दार्शनिक खड़ा था, उसने अपनी डायरी में लिखा कि गाय बन्धी होगी। एक अन्य घटना में गोपालन सेवक को गाय को बांधने को कहता है। दार्शनिक यह सुनकर अपनी डायरी में नोट करता है कि गाय खुली रही होगी। इससे बन्धन व मोक्ष का अनुमान होता है। धर्म प्रचारक का मुख्य कार्य मनुष्यों को धर्म अर्थात् सद्कर्मों का ज्ञान कराना और असद् कर्मो से छुड़ाना है जिससे उनका जीवन अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त कर सके। इसके लिए मनुष्यों को अशुभ कर्मों को छोड़ना और शुभ कर्मों को धारण करना होगा। शुभ कर्म वेद विहित कर्मों को कहते हैं। वेद निषिद्ध वा वेद विरोधी कर्म अशुभ या पाप कर्म कहलाते हैं। इन अशुभ व पाप कर्मों को छुड़ाने के लिए सच्चे धर्म प्रचारकों के पास इनका दोष दर्शन अर्थात् खण्डन करने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है। यह अलोचना व खण्डन धर्म प्रचारक के अपने हित के लिए नहीं अपितु उस निषिद्ध व विरुद्ध मान्यता के मानने वाले व्यक्ति के हित व कल्याण के लिए किया जाता है। यदि ऐसा नहीं होगा तो मनुष्य यथार्थ सुख, ईश्वरीय आनन्द व मोक्ष आदि से सदा सदा के लिए दूर हो जायेगा। महर्षि दयानन्द के खण्डन का उद्देश्य भी लोगों को असत्य से हटाकर सत्य में स्थित व स्थिर करना था। वह अपने उद्देश्य में आंशिक रूप से सफल भी हुए। यदि वह खण्डन न करते तो आज हम भी किसी एक मत के अनुयायी बन कर अज्ञान, असत्य, अन्धविश्वास, कुरीति व असभ्याचरण से ग्रस्त होते। उन्होंने हमें अज्ञान के कूप से निकाल कर ज्ञान के आकाश में स्थित किया। इस प्रकार असत्य व अज्ञान से युक्त धार्मिक मान्यताओं का धर्म प्रचारकों द्वारा खण्डन करना सर्वथा उचित है। हां, यदि कोई अपने मत के विस्तार व लाभ के लिए अज्ञान का प्रचार प्रसार करता है तो वह अनुचित व हेय है। विद्वानों को प्रीतिपूर्वक उनका युक्ति व प्रमाणों से खण्डन कर असत्य को छुंड़वाना व सत्य को मनवाना चाहिये। यदि असत्य अवैदिक मतों का खण्डन किया गया तो मतों की संख्या में वृद्धि होकर यह अनन्त की ओर अग्रसर होगी जिससे मनुष्य भ्रान्त होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से वंचित हो जायेंगे। अतः सत्य की स्थापना सब मनुष्यों को सुख मोक्ष लाभ के लिए असत्य का खण्डन आवश्यक एवं अपरिहार्य है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर, माता-पिता, आचार्य, वायु, जल व अन्न आदि देवताओं का ऋणी मनुष्य’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

मनुष्य इस संसार में पूर्व जन्म के प्रारब्ध को लेकर जन्म लेता है। माता-पिता सन्तान को जन्म देने व पालन करने वाले होने से सभी सन्तानें इन दो चेतन मूर्तिमान देवताओं की ऋणी हैं। माता अपनी सन्तान को दस महीनों तक गर्भ में रखकर उसे जन्म देने योग्य बनाती है, इससे उसे जो कष्ट होता है वह सन्तान पर उसका ऋण होता है जिसे सन्तान सारा जीवन उसकी आज्ञा पालन, सेवा सुश्रुषा करे तो भी आंशिक ही अदा कर सकता है। इसी प्रकार से पिता का भी अपनी सन्तान के जन्म व पालन, भोजन-छादन, शिक्षा दीक्षा में योगदान करने से दूसरा सबसे बड़ा ऋण होता है। सभी मनुष्य अपने आचार्यों से ज्ञान प्राप्त कर सत्य व असत्य सहित कर्तव्याकर्तव्य व उचित अनुचित का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः इस ज्ञान के दाता होने से सन्तान अपने गुरूओं व आचार्यों के भी ऋणी होते हैं। यदि अच्छे आचार्य न मिलें तो मनुष्य पशुओं के समान ही होता है। सन्तान सहित इन तीनों माता-पिता-आचार्यों को उत्पन्न करने, सृष्टि की उत्पत्ति कर उसका संचालन करने तथा माता के गर्भ में सन्तान का निर्माण करने आदि के कारण सभी सन्तानें वा मनुष्य ईश्वर के भी ऋणी हैं। ईश्वर का ऋण तो ऐसा है कि जिससे सम्भवतः कोई कभी उ़ऋण ही नहीं हो सकता। यह भी सुखद आश्चर्य है कि ईश्वर एक ऐसी सत्ता है जो अपने किसी उपकार वा ऋण की आपूर्ति की अपने अमृत पुत्रों मनुष्यों से किंचित अपेक्षा नहीं करती तथापि हम सदा सर्वदा के लिए ईश्वर के ऋणी तो हैं ही।

 

ईश्वर, माता, पिता, आचार्य आदि चेतन देवता हैं परन्तु सृष्टि में अग्नि, वायु, जल व अन्न आदि मुख्य जड़ देवता हैं। इनसे भी हम जीवन भर लाभ लेते रहते हैं। अग्नि के बिना संसार के प्रायः सभी व अनेक कार्य ठप्प हो जायें। यह अग्नि हमारे शरीर में विभिन्न रूपों में विद्यमान है जिससे हमारा शरीर चलता है। प्रकाश भी एक प्रकार से अग्नि का ही एक परिवर्तित रूप है। सूर्य की अग्नि व ताप से ही हमारे अन्न, फल व ओषधियों आदि की उत्पत्ति होती है। चन्द्रमा के द्वारा ओषधियों व फलों में नाना प्रकार के रस भरे जाते हैं जिनके सेवन से हमारा शरीर स्वस्थ व बलवान बनता है। इसके बाद वायु पर विचार करें तो वायु हमारे जीवन का प्रमुख आधार है। पृथिवी के चारों ओर और ऊपर मीलों तक विद्यमान वायु ही हमारे प्राणों व जीवन का आधार है। यदि कुछ सेकेण्ड्स या मिनट, पल व क्षणों तक हमें शुद्ध वायु न मिले तो हमारा जीवन समाप्त हो जाता है। हम हर पल व क्षण, श्वास वा प्राणों द्वारा वायु लेते हैं अर्थात् शुद्ध आक्सीजनयुक्त वायु को लेते व अशुद्ध, विकृत व प्र प्रदुषित वायु जो कार्बन डाइआक्साइड की अधिक मात्रा लिये हुए होती है, उसे छोड़ते हैं। इससे हम ईश्वर द्वारा उत्पन्न वायु जो प्राणीमात्र के लिए है, उसे प्रदुषित कर एक प्रकार से प्रकृति व पर्यावरण को प्रदुषित कर उसके संचालन में बाधा उत्पन्न करते हैं। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम जितनी वायु को अपने निमित्त से प्रदुषित करते हैं, उतनी वा उससे अधिक वायु को शुद्ध करें परन्तु हम न तो इसको जानने व उसके उपाय करने का प्रयास ही करते हैं और न ही हममें वैसी बुद्धि ही है। हमने देखा है कि आर्यसमाज में विद्वानों के प्रवचनों को सुनकर वा पुस्तकें पढ़कर लोग वायु शुद्धि हेतु किए जाने वाले यज्ञों के प्रति सहमत व सन्तुष्ट तो हो जाते हैं, परन्तु फिर भी अपनी प्रवृत्ति व अनेक अच्छे व अनावश्यक कार्यों से व्यस्त बनाये अपने जीवन में यज्ञ करने के समय व साधन एकत्र कर उसका अनुष्ठान करते नहीं दीखते। इसका कारण जो दृष्टिगोचर वा समझ में आता है, वह है कि हम अपने शरीर का अन्तः वा बाह्य मार्जन भली प्रकार से नहीं करते हैं। यदि हमारा अन्तःकरण शुद्ध, परिष्कृत वा मार्जित होगा तो हम निश्चय ही यज्ञ को न केवल जानने का प्रयास करेंगे अपितु जानकर उसका अनुष्ठान भी अवश्य करेंगे जिस प्रकार हम उन सभी कार्यों को करते हैं जिनसे हमें किसी न किसी प्रकार का प्रत्यक्ष लाभ दृष्टिगोचर होता है। हमारे विद्वान चिन्तन, मनन, तर्क व विवेचन सहित वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कर यह भी निष्कर्ष निकाल कर हमें बताते हैं कि यदि हम उचित व आवश्यक मात्रा में प्रतिदिन वायु, जल, वर्षाजल आदि की शुद्धि नहीं करेंगे तो हम जन्म व मरण के चक्र से कभी भी छूट नहीं सकते। यज्ञ के अतिरिक्त यदि हम कुछ अन्य अच्छे कर्म करते हैं तो उससे वायु, जल, अन्न, अग्नि आदि का ऋण कम वा समाप्त नहीं हो जाता। इसके लिए तो हमें अवश्यमेव अग्निहोत्र यज्ञ करना ही होगा। यदि नहीं करेंगे तो हमने जितनी मात्रा में वायु, जल, अग्नि व अन्न आदि का उपभोग अपने मनुष्य जीवन में किया है, उसका जो ऋण हम पर बनता है, उसके परिणामस्वरूप ऋण चुकाने या भोग भोगने के लिए हमें बार-बार जन्म लेना ही होगा। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि ईश्वर हमारे सभी असंख्य अर्थात् अनन्त पूर्व जन्मों में हमारा साथी रहा है और भविष्य के अनन्त सभी जन्मों में भी मित्र, सखा, पथप्रर्दशक व साथी रहेगा। वह एक पल के लिए भी हमें विस्मृत नहीं करता। हम उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना करें या न करें, तथापि वह सभी का कल्याण कर सबको सुख देता है। वह हमें अर्थात् एक सूक्ष्म चेतन पदार्थ जीव को मनुष्य जन्म देकर मानव और महामानव तक बना देता हैं, क्या हमें उसको स्मरण कर उसका धन्यवाद नहीं करना चाहिये? प्रत्येक मनुष्य वा जीवात्मा को अपने उस सनातन शाश्वत सखा को न केवल जानना, स्मरण करना व कृतज्ञ ही होना चाहिये अपितु उसकी सेवा व आज्ञा पालन में अपना तन, मन व धन सब कुछ समर्पित कर देना चाहिये। यह समर्पण ही हमें जन्म-मरण से मुक्ति प्रदान करने में सहायक होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति अपने मत-मजहब-सम्प्रदाय को भूल कर ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर एक शाश्वत् व सनातन मित्र की तरह उस ईश्वर का स्वागत, सत्कार व उसका आतिथ्य करना चाहिये। यह हमारे अपने लिए अति शुभ परिणामकारी होगा।

 

अब इन सभी ऋणों से उऋण होने पर विचार करते हैं। ईश्वर का ऋण ईश्वरोपासना व उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर और साथ हि ईश्वर के दिये वेदों के ज्ञान का अध्ययन व उसका प्रचार व प्रसार कर चुकाया व कुछ कम किया जा सकता है। यह कार्य प्रत्येक मनुष्य के लिए धर्म व कर्तव्य के समान है व आवश्यक है। इसके लिए सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना भी मनुष्य का धर्म व कर्तव्य है। महर्षि दयानन्द ने हमारी सहायता के लिए ईश्वरोपासना सम्पादित करने के लिए हम पर दया व करूणा प्रदर्शित करते हुए सन्ध्या की एक पुस्तक लिखी है जो अति महत्वपूर्ण है। समस्त वेद भाष्य का अध्ययन कर जो-जो कर्तव्य उसमें बतायें गये हैं उन सबका पालन करना उन्होंने मनुष्य का धर्म वा कर्तव्य बताया है। मातापिता के ऋण से उऋण होने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इसके लिए तो माता-पिता के प्रति समस्त जीवन कृतज्ञता की भावना व बुद्धि रखना, अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार उनकी तन, मन व धन से सेवा करना, उनसे सद्व्यवहार करना, समय पर उन्हें भोजन कराना, उनके लिए वस्त्र आदि का प्रबन्ध करना व रोगों में उनके उपचार व स्वास्थ्य लाभ का प्रबन्ध करना आदि कार्यों को करके हम माता-पिता के ऋण को कम कर सकते हैं व कुछ सीमा तक उऋण हो सकते हैं। इसी प्रकार से हमारे आचार्यगण हमें जो ज्ञान देते हैं उनका भी हम पर ऋण होता है। उसके निवारणार्थ हमें उनके प्रति आदर व सम्मान की बुद्धि रखते हुए उनकी भी समय-समय देखभाल व उनका प्रिय करना चाहिये। इसके लिए उनकी जो भी उचित आवश्यकतायें हों, उन्हें पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसका दूसरा प्रकार यह भी है कि ऐसे अन्य लोग जो आचार्य रहे हैं वा साधु-सन्यासी आदि होकर समाज, देश व विश्व के कल्याण की भावना से भ्रमण कर लोगों का उपकार करते हैं, उनकी अन्न, जल, वस्त्र सहित धन आदि से सेवा की करें। हमें स्वयं भी यथाशक्ति वैदिक ज्ञान अर्थात् सत्य का प्रचार व प्रसार करना उचित है। इससे हमारा अतिथि वा आचार्य ऋण कम होकर उतर सकता है। न केवल विद्यार्थी वा छात्र जीवन में ही आचार्यों व विद्वानों की संगति की जाती है अपितु गृहस्थी होकर भी इनकी संगति कर इनके ज्ञान व अनुभवों से लाभ उठाना चाहिये। यज्ञ के तीन प्रमुख अर्थों देवपूजा, संगतिकरण व दान में तो देवपूजा = विद्वानों का सम्मान तथा उनका संगतिकरण का साक्षात् विधान विद्यमान है। ऐसा करके ही जीवन यशस्वी व सफल होता है। इस देवपूजा व संगतिकरण से ही स्वामी दयानन्द ऋषि व महर्षि बने और उन्होंने विश्व का कल्याण किया। उन्होंने ज्ञान व विज्ञान का इतना दान किया है कि सृष्टि के अन्त अर्थात् प्रलय काल तक सारे संसार के मनुष्य व अन्य सभी प्राणी इससे लाभान्वित होते रहेंगे।

 

वायु, अग्नि, जल व अन्न आदि देवता जड़ होने पर भी ईश्वर द्वारा उनकों सौंपे गये कार्यों को बखूबी कर रहे हैं। इन सभी जड़ देवताओं के ऋण से उऋण होने के लिए ईश्वर ने वेद में मनुष्यों को यज्ञ करने की प्ररेणा व  आदेश दिया है। ईश्वर की आज्ञा की पूत्यर्थ महर्षि दयानन्द सहित हमारे पूर्व ऋषियों व मनीषियों ने यज्ञ का विधान बनाकर हमें प्रदान किया है। हमें यज्ञ विज्ञान का अध्ययन कर उसका स्वयं पालन करने के साथ उसका प्रचार व प्रसार भी करना चाहिये जिससे हम इन सभी जड़ देवताओं के ऋण से उऋण हो सके। हम यह भी समझते हैं कि आज के आधुनिक युग में संसार में यदि कोई श्रेष्ठ जीवन पद्धति है तो वह वैदिक जीवन पद्धति ही है जिसमें सभी सद्कार्यों को करने की छूट असद्कार्यों से बचने करने का निर्देंश है। यदि हम इस जीवन पद्धति को नहीं अपनायेंगे तो इसका अर्थ यह होगा कि हम जीवात्मा की अमरता व ईश्वर के शाश्वत् कर्म-फल विधान को विस्मृत कर रहे हैं। ऐसा करके हम जन्म जन्मान्तरों में दुःख के भागी होंगे। आईये, ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ को करते हुए हम ईश्वर से मांग करें कि ‘‘हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः। अर्थात् ईश्वर हमारे जप, उपासना सहित अनेक कर्मों के अनुसार हमें धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की सिद्धि शीघ्र प्रदान करें।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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“यज्ञ क्या होता है और कैसे किया जाता है?” -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कार्य वा कर्म को कहते हैं। आजकल यज्ञ शब्द अग्निहोत्र, हवन वा देवयज्ञ के लिए रूढ़ हो गया है। अतः पहले अग्निहोत्र वा देवयज्ञ पर विचार करते हैं। अग्निहोत्र में प्रयुक्त अग्नि शब्द सर्वज्ञात है। होत्र वह प्रक्रिया है जिसमें अग्नि में आहुत किये जाने वाले चार प्रकार के द्रव्यों की आहुतियां दी जाती हैं। यह चार प्रकार के द्रव्य हैं- गोधृत व केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थ, मिष्ट पदार्थ शक्कर आदि, शुष्क अन्न, फल व मेवे आदि तथा ओषधियां वा वनस्पतियां जो स्वास्थ्यवर्धक होती हैं। अग्निहोत्र का मुख्य प्रयोजन इन सभी पदार्थों को अग्नि की सहायता से सूक्ष्मातिसूक्ष्म बनाकर उसे वायुमण्डल व सुदूर आकाश में फैलाया जाता है। हम सभी जानते हैं कि जब कोई वस्तु जलती है तो वह सूक्ष्म परमाणुओं में परिवर्तित हो जाती है। परमाणु हल्के होते हैं अतः वह वायु मण्डल में सर्वत्र वा दूर-दूर तक फैल जाते हैं। वायु मण्डल में फैलने से उनका वायु पर लाभप्रद प्रभाव होता है। जिस प्रकार दुर्गन्धयुक्त वायु स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद व मन के लिए अप्रिय होती है उसी प्रकार से गोघृत व केसर, कस्तूरी आदि नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों के जलने से वायु का दुर्गन्ध दूर होकर वह सुगन्धित, स्वास्थ्यप्रद व रोगनाशक हो जाती है। इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप यज्ञ से पूर्व की वायु के गुणों में वृद्धि होकर वह स्वास्थ्यवर्धक, रोगनिवारक, वर्षाजल को शुद्ध करने वाली, प्रदुषण निवारक, वर्षा जल पर आश्रित अन्न व वनस्पतियों को स्वास्थ्यप्रद करने, यहां तक की अच्छी सन्तानों को जन्म देने में भी सहायक होती है।

 

अग्निहोत्र यज्ञ करने के लिए हम घर में एक यज्ञकुण्ड वा हवनकुण्ड का प्रयोग करते है जो तली में छोटा व ऊपर की ओर बड़ा व खुले मुख वाला होता है। यह पूरा यज्ञ कुण्ड टीन, लोहे व ताम्बे का बना होता है। भूमि खोद कर भी यज्ञ कुण्ड बनाया जा सकता है। आम, पीपल, गुग्गल, कपूर व पलाश आदि अनेक प्रकार के स्वास्थ्य व पर्यावरण के हितकर काष्ठों की समिधाओं को यज्ञ कुण्ड के आकार में काट कर उन्हें यज्ञकुण्ड में रखा जाता है। कपूर को यज्ञ में प्रयुक्त घृताहुति वाली चम्मच में रखकर उसे दीपक के द्वारा प्रदीप्त किया जाता है। इस प्रक्रिया को करते हुए वेद मन्त्र को बोलकर अग्नि का आधान यज्ञकुण्ड के बीच समिधाओं में किया जाता है। जब अग्नि प्रज्जवलित हो जाती है तो यज्ञ के विधान के अनुसार परिवार का एक व अधिक सदस्य घृत की और कुछ हवन सामग्री वा साकल्य जिसका वर्णन ऊपर किया गया है, को लगभग पांच-पांच ग्राम या कुछ अधिक मात्रा में लेकर उसकी आहुतियां वेद मन्त्रों को बोलकर यज्ञ की अग्नि में डाली जाती हैं जिससे अग्नि में पड़ कर वह आहुतियां पूर्णतया जलकर व सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल जायें। जिन मन्त्रों को शुद्ध उच्चारित कर आहुतियां दी जाती हैं, उनके अन्त में स्वाहा बोला जाता है। मन्त्र बोलने का प्रयोजन यह है कि इससे यज्ञ करने के लाभ यजमान वा यज्ञकत्र्ता को विदित हो जाये और साथ ही उन मन्त्रों के कण्ठस्थ हो जाने से उनकी रक्षा व सुरक्षा हो सके। इस प्रकार न्यून से न्यून प्रतिदिन प्रातः व सायं सोलह-सोलह व अधिक आहुतियां देने का विधान हमारे पूर्वजों व ऋषियों ने किया है। इस प्रकार से यज्ञ अग्निहोत्र करने में मात्र 10 से 15 या अधिकतम 20 मिनट का समय लगता है। इस प्रक्रिया से वायुमण्डल शुद्ध हो जाता है। यज्ञ की गर्मी से घर का वायु हल्का होकर ऊपर व खिड़कियों-रोशनदानों से बाहर चला जाता है और बाहर का शुद्ध व हितकर वायु घर के अन्दर प्रवेश करता है। इससे घर में रहने वाले सभी सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा वा निरोग रहता है। परिवार के किसी भी सदस्य को रोग नहीं होते और यदि किसी कारण से हों भी जायें तो अल्प मात्रा में उपचार करने से वह शीघ्र ठीक हो जाते हैं। घृत एवं यज्ञ सामग्री के अनेक पदार्थ किटाणु नाशक भी हैं। यज्ञ करने से जल, वायु आदि में व घर में यत्र-तत्र जो सूक्ष्म हानिकारक किटाणु छिपे होते हैं, वह भी नष्ट हो जाते हैं। शुद्ध वायु मिलने से मनुष्यों का स्वास्थ्य अच्छा होता है व उनके शरीर बलवान, रोगमुक्त व स्वस्थ होते हैं। यज्ञ करने के अनेक अदृश्य लाभ भी होते हैं जो यज्ञ में वेद मन्त्रों के द्वारा की जाने वाली प्रार्थनाओं के अनुरूप प्राप्त होते हैं। ऋषियों ने अपनी गवेषणा व अनुसंधान से यहां तक कहा कि यज्ञ करने वाले के अगले पुनर्जन्म में यह आहुतियां उसको अनेकविध लाभ पहुंचाती हैं। हमारी गवेषणा के अनुसार यह लाभ ईश्वर जीवात्मा को प्रदान करता है। यह जानना भी जरूरी है कि वेद मन्त्र ईश्वर के द्वारा प्रदत्त व निर्मित है। वेदों की कोई भी बात अज्ञान व असत्य नहीं है। वेद मन्त्रों में असम्भव प्रार्थनायें भी नहीं है जो उसके अनुरूप व्यवहार करने से पूर्ण वा सिद्ध न हों। वेद की प्रार्थनायें सत्य व ज्ञान से परिपूर्ण हैं। अतः वेदों में जो कहा गया है वह जीवन में अवश्य प्राप्त होता है अथवा वह सभी लाभ उसको प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति यज्ञ को करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि यज्ञ को करते समय जब यज्ञकुण्ड की अग्नि मन्द होने लगे तो उसमें आवश्यकतानुसार समिधायें रखते रहना चाहिये जिससे हमारी आहुतियां तेज वा प्रचण्ड अग्नि से सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश में दूर दूर तक पहुंचती रहे।

 

अब यज्ञ करने की विधि भी जान लेते हैं। प्रातःकाल यज्ञ से पूर्व तथा सायंकाल यज्ञ के पश्चात सन्ध्योपासना करने का विधान है। सन्ध्या का अर्थ है कि ईश्वर का भलीभांति ध्यान कर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना। सन्ध्या की सर्वांगपूर्ण अति उत्तम विधि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने पंच महायज्ञ विधि व संस्कार विधि पुस्तकों में प्रस्तुत की है। सन्ध्या के बाद तथा जब सूर्योदय हो गया हो, तब अग्निहोत्र किया जाता है। सबसे पहले गायत्री का मन्त्र का पाठ कर लेना चाहिये जिससे मन यज्ञ करते समय इधर-उधर न भागे और यज्ञ में ही एकाग्र रहे। इसके बाद तीन आचमन अर्थात् अल्प मात्रा में जल पीने का विधान है जो आचमन के मन्त्रों को बोलकर किये जाते हैं। इससे कफ आदि की निवृत्ति होकर वाणी का उच्चारण शुद्ध होता है। इसके पश्चात बायें हाथ की अंजलि में जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से शरीरस्थ इन्द्रियों के स्पर्श करने का विधान है। इस प्रक्रिया द्वारा ईश्वर से इन्द्रियों व शरीर के स्वस्थ, निरोग व बलवान होने की प्रार्थना है। तत्पश्चात 8 स्तुति-प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों का उनके अर्थ को विचार करते हुए या पृथक से बोल कर गायन वा उच्चारण करने का विधान है। इसके बाद दीपक जला कर उससे कपूर को प्रज्जवलित कर यज्ञ कुण्ड में उस कपूर की अग्नि का आधान मन्त्रों को बोलकर किया जाता है जो मात्र 25 से 30 सेकेण्ड्स में हो जाता है। अग्न्याधान के बाद चार मन्त्रों को बोलकर काष्ठ की 3 समिधायें प्रदीप्त अग्नि पर रखने का विधान है। समिदाधान के बाद एक ही मन्त्र को पांच बार बोल कर घृत की आहुतियां दी जाती हैं। तत्पश्चात चारों दिशाओं में जल सिंचन का विधान है। यह सभी कार्य पृथक पृथक मन्त्रों को बोल कर किये जातें हैं। जल सिंचन के बाद घृत की दो आघाराज्य व दो आज्यभाग आहुतियां दी जाती हैं। इसके बाद दैनिक यज्ञ की आहुतियां दी जाती हैं। प्रातः काल की 12 आहुतियां एवं सायं काल की भी 12 आहुतियां हैं। इनके बाद यज्ञकर्त्ता यजमान यदि अधिक आहुति देना चाहें तो गायत्री मन्त्र को बोलकर देने का विधान है। इसके बाद पूर्णाहुति तीन बार ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा। बोलकर की जाती है। इससे पूर्व यदि यजमान स्विष्टकृदाहुति प्राजापत्याहुति देना चाहे तो सम्बन्धित मन्त्रों को बोल कर दे सकता है। इस प्रकार से दैनिक यज्ञ सम्पन्न होता है। बहुत से लोग प्रातः व सायं यज्ञ न कर सायंकाल के 4 मन्त्रों को भी प्रातःकाल के यज्ञ में सम्मिलित कर आहुतियां दे देते हैं। इस प्रकार से यज्ञ पूर्ण हो जाता है। यज्ञ के बाद हिन्दी में यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्जवल कीजिए, छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिए यह यज्ञ प्रार्थना भी की जा सकती है और उसके बाद शान्तिपाठ का मन्त्र बोलकर यज्ञ समाप्त हो जाता है। यह अग्निहोत्र वा देवयज्ञ करने की विधि व विधान है। यह भी ध्यान रखना अत्यावश्यक है यज्ञ पूर्णतः अंहिसात्मक कर्म है, इसमें किंचित किसी प्राणी की हिंसा निषिद्ध है। ऐसा होने यज्ञ यज्ञ न होकर पापकर्म बन जाता है।

 

सभी मनुष्य श्वास में मुख्यतः आक्सीजन लेते और कार्बन डाइआक्साइड गैस छोड़ते हैं। इससे वायु प्रदुषित होती है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने प्रयोजन से की गई दूषित वायु को शुद्ध करे। इसी प्रकार हम अपने निजी प्रयोजन से वायु सहित प्रकृति को भी प्रदूषित करते हैं। हमारा कर्तव्य है कि रोग व दुःखों से बचने व अन्यों को बचाने के लिए हम वायु, जल व प्रकृति को शुद्ध रखें व यज्ञ आदि क्रिया कर सबको शुद्ध करें। जो मनुष्य, स्त्री व पुरूष, ऐसा नहीं करता वह पाप का भागी होता है। यज्ञ न करना पाप करना है क्योंकि इससे हमारे द्वारा किये गये भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषणों से अन्य प्राणियों को दुःख होता है। यदि मनुष्य इस जन्म व परजन्मों में सुखी होना चाहता है तो उसे यज्ञ अवश्य करना चाहिये। यज्ञ का अन्य कोई विकल्प नहीं है। यदि नहीं करेगा तो कालान्तर में परिणाम ईश्वर की व्यवस्था से इसके सम्मुख अवश्य आता है। इसके साथ ही यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से भी अनेक प्रकार से भी वंचित हो जाता है।

 

धर्म की एक शब्द की एक परिभाषा है ‘‘सत्याचरण सत्याचरण में माता-पिता की सेवा सुश्रुषा सहित प्राणिमात्र पर दया व उनके भोजन का प्रबन्ध करने के साथ, विद्वान अतिथियों की सेवा, उनसे सद्व्यवहार, उनका अन्न, धन, वस्त्र दान द्वारा सम्मान एवं यथासमय ईश्वरोपासना-सन्ध्या व अग्निहोत्र कल्याण के हितैषी सब मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। जो करेगा वह ईश्वर से इन कर्मों का लाभ व फल पायेगा और जो नहीं करेगा वह ईश्वरीय दण्ड का भागी होगा। यह हमने बहुत संक्षेप में अग्निहोत्र देव यज्ञ पर प्रकाश डाला है। यज्ञ पर बहुत साहित्य उपलब्ध है। यज्ञ सर्वश्रेष्ठ कर्म को कहते हैं। इसका अर्थ है देवों की पूजा, उनसे संगतिकरण और सबको पात्रतानुसार दान देना। इसके अनुसार माता-पिता-आचार्यों व विद्वानों का सम्मान व सेवा-सत्कार भी यज्ञ है। इनके साथ संगतिकरण कर उनके ज्ञान व अनुभव को प्राप्त करना और उससे जनकल्याण व प्राणियों का हित करना भी यज्ञ है। इसी प्रकार से अपनी सामथ्र्यानुसार सुपात्रों को अधिक से अधिक दान देकर देश व समाज को समरस, एकरस व गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार यथाशक्ति सुख-सुविधायें प्रदान करना भी यज्ञ के अन्तर्गत आता है। लेख को समाप्त करने पर यह अवगत कराना है कि इस लेख में स्थानाभाव के कारण हम यज्ञ के मन्त्रों को प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। इसके लिए पाठक नैट पर उपलब्ध पुस्तक को डाउनलोड कर सकते हैं या आर्यसमाज के पुस्तक विक्रेताओं से क्रय कर सकते हैं। सहायतार्थ यूट्यूब पर उपलब्घ वीडियोज् को भी देखा जा सकता है। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन, तर्क, विवेचना और सम्यक् ज्ञान-ध्यान के बिना ईश्वर प्राप्त नहीं होता’ -मनमोहन कुमार आर्य

संसार में किसी भी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसे देखकर व विचार कर कुछ-कुछ जाना जा सकता है। अधिक ज्ञान के लिये हमें उससे सम्बन्धित प्रामाणिक विद्वानों व उससे सम्बन्धित साहित्य की शरण लेनी पड़ती है। इसी प्रकार से ईश्वर की जब बात की जाती है तो ईश्वर आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होता परन्तु इसके नियम व व्यवस्था को संसार में देखकर एक अदृश्य सत्ता का विचार उत्पन्न होता है। अब यदि ईश्वर की सत्ता के बारे में प्रामाणिक साहित्य मिल जाये तो उसे पढ़कर और उसे तर्क व विवेचना की तराजू में तोलकर सत्य को पर्याप्त मात्रा में जाना जा सकता है। ईश्वर का ज्ञान कराने वाली क्या कोई प्रमाणित पुस्तक इस संसार में है, यदि है तो वह कौन सी पुस्तक है? इस प्रश्न का उत्तर कोई विवेकशील मनुष्य ही दे सकता है। हमने भी इस विषय से सम्बन्धित अनेक विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ा है। उन पर विचार व चिन्तन भी किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि संसार की धर्म व ईश्वर की चर्चा करने वाली पुस्तकों में सबसे अधिक प्रमाणित पुस्तक ‘‘चार वेद” ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। इसके साथ ही वेदों की अन्य टीकाओं सहित वेदों पर आधारित दर्शन एवं उपनिषद आदि ग्रन्थ भी हैं। इन ग्रन्थों वा ईश्वर के स्वरूप विषयक ग्रन्थों का वेदानुकूल भाग ही प्रमाणित सिद्ध होता है। वेद के बाद सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका प्रमुख हैं। इनकी विशेषता यह है कि इन्हें एक साधारण हिन्दी भाषा का जानने वाला व्यक्ति पढ़कर ईश्वर के सत्यस्वरूप से अधिकांशतः परिचित हो जाता है और इसके बाद केवल योग साधना द्वारा उसका साक्षात्कार करने का कार्य ही शेष रहता है।

 

किसी भी मनुष्यकृत पुस्तक की सभी बातें सत्य होना सम्भव नहीं होता अतः यह कैसे स्वीकार किया जाये कि वेद में सब कुछ सत्य ही है? इसका उत्तर है कि हम संसार की रचना व व्यवस्था में पूर्णता देखते हैं। इसमें कहीं कोई कमी व त्रुटि किसी को दृष्टिगोचर नहीं होती। दूसरी ओर मनुष्यों की रचनाओं को देखने पर उनमें अपूर्णता, दोष व कमियां दृष्टिगोचर होती हैं। अतः मनुष्यों द्वारा रचित सभी पुस्तकें व ग्रन्थ अपूर्णता, अशुद्धियों, त्रुटियों व कमियों से युक्त होते हैं। इसका मुख्य कारण मुनष्यों का अल्पज्ञ, ससीम व एकदेशी होना है। यह संसार किसी एक व अधिक मनुष्यों की रचना नहीं है। सूर्य मनुष्यों ने नहीं बनाया, पृथिवी, चन्द्र व अन्य ग्रह एवं यह ब्रह्माण्ड मनुष्यों की कृति नहीं है, इसलिए कि उनमें से किसी में इसकी सामथ्र्य नहीं है। यह एक ऐसी अदृश्य सत्ता की कृति है जो सत्य, चित्त, दुःखों से सर्वथा रहित, अखण्ड आनन्द से परिपूर्ण, सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि निर्माण के अनुभव से परिपूर्ण, जीवों के प्रति दया व कल्याण की भावना से युक्त, अनादि, अज, अमर, अजर व अभय हो। ऐसी ही सत्ता को ईश्वर नाम दिया गया है। उसी व ऐसी ही अदृश्य सत्ता से मनुष्यों को सृष्टि के आदि में ज्ञान भी प्राप्त होता है। यह ऐसा ही कि जैसे सन्तान के जन्म के बाद से माता-पिता अपनी सन्तानों को ज्ञानवान बनाने के लिए सभी उपाय करना आरम्भ कर देते हैं। यदि संसार में व्यापक उस सत्ता से आदि मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त न हो तो फिर उस पर यह आरोप आता है कि वह पूर्ण व ज्ञान देने में समर्थ नहीं है अर्थात् उसमें अपूर्णता या कमियां हैं।

 

हम संसार में वेदों को देखते है और जब उसका अध्ययन कर उसकी बातों पर विचार करते हैं तो यह तथ्य सामने आता है कि वेदों की कोई बात असत्य नहीं है। वेदों की एक शिक्षा है मा गृधः अर्थात् मनुष्यों को लालच नहीं करना चाहिये। लालच के परिणाम हम संसार में देखते हैं जो अन्ततः बुरे ही होते हैं। एक व्यक्ति धन की लालच में चोरी करता है। एक बार व कई बार वह बच सकता है, परन्तु कुछ समय बाद पकड़ा ही जाता है और उसकी समाज में दुर्दशा होती है। वह अपने परिवारजनों सहित स्वयं की दृष्टि में भी गिर जाता है। इस एक शिक्षा की ही तरह वेदों की सभी शिक्षायें सत्य एवं मनुष्यों के लिए कल्याणकारी हैं। महर्षि दयानन्द चारों वेदों व वैदिक साहित्य के अधिकारी व प्रमाणिक विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों की एक-एक बात पर विचार किया था और सभी को सत्य पाया था। उसके बाद ही उन्होंने घोषणा की कि वेद सृष्टि की आदि में परमात्मा के द्वारा आदि चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया गया ज्ञान है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, इन नामों से उपलब्ध मन्त्र संहितायें सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। इसमें परा विद्या अर्थात् आध्यात्मिक विद्यायें भी हैं और अपरा अर्थात् सांसारिक विद्यायें भी हैं। महर्षि दयानन्द की इस मान्यता को चुनौती देने की योग्यता संसार के किसी मत व मताचार्य में न तो उनके समय में थी और न ही वर्तमान में हैं। इसकी किसी एक बात को भी कोई खण्डित नहीं कर सका, अतः वेद मनुष्यकृत ज्ञान न होकर अपौरूषेय अर्थात् मनुष्येतर सत्ता से प्राप्त, ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध हंै। इसका प्रमाण महर्षि दयानन्द व आर्य विद्वानों का किया गया वेद भाष्य एवं अन्य वैदिक साहित्य है। यह ज्ञान सृष्टि के सभी पदार्थों जिनमें पूर्णता है, उसी प्रकार से पूर्ण एवं निर्दोष है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि संसार का कोई मत अपने मत की पुस्तक को सत्यासत्य की कसौटी पर न स्वयं ही परीक्षा करता है और न किसी को अधिकार देता है। अपनी पुस्तकों के दोषों को छिपाने के सभी ने अजीब से तर्क गढ़ लिये हैं जिससे उसके पीछे उनकी संशय वृत्ति का साक्षात् ज्ञान होता है। इसी कारण वह सत्य ज्ञान से दूर भी है और यही संसार की अधिकांश समस्याओं का कारण है।

 

किसी भी वस्तु के अस्तित्व को पांच ज्ञान इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अन्तःकरण वा आत्मा के द्वारा होने वाले ज्ञान व अनुभवों से ही जाना जाता है। यह संसार कब, किसने, कैसे व क्यों बनाया, इसका निभ्र्रान्त व युक्तियुक्त उत्तर किसी मत के विद्वान या वैज्ञानिकों के पास आज भी नहीं है। इसके अतिरिक्त चारों वेद बार-बार निश्चयात्मक उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह सारा संसार इसको बनाने वाले ईश्वर से व्याप्त है। यह चारों वेद संसार का सबसे प्राचीन ज्ञान व पुस्तकें हैं। यह महाभारतकाल में भी थे, रामायणकाल व उससे भी पूर्व, सृष्टि के आरम्भ काल से, विद्यमान हैं। अतः वेदों की अन्तःसाक्षी और संसार को देख कर तर्क, विवेचना व ईश्वर का ध्यान करने पर ईश्वर ही वेदों के ज्ञान का दाता सिद्ध होता है। इस कसौटी को स्वीकार कर लेने पर संसार के सभी जटिल प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं जिनका उल्लेख महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अपूर्व व अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया है।

 

ईश्वर विषयक तर्क व विवेचना हम स्वयं भी कर सकते हैं और इसमें 6 वैदिक दर्शनों योग-सांख्य-वैशेषिक-वेदान्त-मीमांसा और न्याय का भी आश्रय ले सकते हैं जो वैदिक मान्यताओं को सत्य व तर्क की कसौटी पर कस कर वेदों के ज्ञान को अपौरूषेय सिद्ध करते हैं। अतः ईश्वर का अस्तित्व सत्य सिद्ध होता है। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर संसार की उत्पत्ति की गुत्थी भी सुलझ जाती है। यदि ईश्वर है तो यह सृष्टि उसी की कृति है क्योंकि अन्य ऐसी कोई सत्ता संसार में नही है जो ईश्वर के समान हो। सृष्टि रचना का निमित्त कारण होने से प्राणीजगत, वनस्पति जगत व इसके संचालन का कार्य भी उसी से हो रहा है, यह भी ज्ञान होता है। वेदाध्ययन, दर्शन व उपनिषदों आदि वैदिक साहित्य का अध्ययन कर लेने पर जब मनुष्य ईश्वर, वेद, जीव व प्रकृति आदि विषयों का ज्ञान करता है तो ईश्वर की कृपा से इन सबका सत्य स्वरूप ध्याता व चिन्तक की आत्मा में प्रकट हो जाता है। इस ध्यान की अवस्था को योग दर्शन में समाधि कहा गया है। समाधि और कुछ नहीं अपितु वैदिक मान्यताओं को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना में लम्बी लम्बी अवधि तक विचार मग्न रहना व इसके साथ मन का ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य विषय को स्मृति में न लाना ही समाधि कहलाती है। इस स्थिति को प्राप्त करने का सभी मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये। अन्य मतों में बिना तर्क व विवेचना के उस मत की पुस्तक की मान्यताओं को न, नुच के मानना ही कर्तव्य बताया जाता है जबकि वैदिक धर्म व केवल वैदिक धर्म में इस प्रकार का किंचित बन्धन नहीं लगाया गया है। साधक व उपासक को स्वतन्त्रता है कि हर प्रकार से ईश्वर के अस्तित्व को जांचे व परखे और असत्य का त्याग कर सत्य को ही ग्रहण करे।

 

अतः निष्कर्ष में यह कहना है कि ईश्वर के यथार्थ ज्ञान के लिए विचार व चिन्तन के साथ वेद, वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन और योगाभ्यास करते हुए विचार, ध्यान, चिन्तन व उपासना कर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अनेक ग्रन्थ लिखकर यह कार्य सरल कर दिया है। स्वाध्याय के आधार पर हमारा यह भी मानना है कि वैदिक धर्मी स्वाध्यायशील आर्यसमाजी ईश्वर को जितना पूर्णता से जानता व अनुभव करता है, सम्भवतः संसार के किसी मत का व्यक्ति अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि वहंा आधेय के लिए आधार वैदिक धर्म की तुलना में कहीं अधिक दुर्बल है। आईये, वेदाध्ययन, वैदिक साहित्य के अध्ययन, सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों का बार-बार अध्ययन करने सहित योगाभ्यास का व्रत लें और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को सिद्ध कर जीवन को सफल करें, बाद में पछताना न पड़े।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

भागो शैतान आया !

सहीह बुखारी जिल्द ४ हदीस ५२३ पृष्ठ संख्या ३३२

जबीर बिन अद्बुल्लाह  से रिवायत है कि मुहम्मद साहब ने कहा कि रात होने लगे  तो  अपने बच्चों को घर के अन्दर रखें क्योकि रात को शैतान घूमता है . घर का दरवाजा बंद कर लिया जाये और अल्लाह का नाम लें क्योंकि शैतान बंद दरवाजा नहीं खोलता.

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सहीह बुखार्री में यही हदीस जिल्द सात में भी आयी है :

 

सहीह बुखारी जिल्द ७  हदीस ५२७  पृष्ठ संख्या ३६२

जबीर बिन अब्दुल्लाह से रिवायत है कि जब शाम हो अर्थात  जब रात होने लगे तो बच्चों को बाहर जाने से रोकें क्योंकि उस समय शैतान घूमता है .घर के दरवाजे बंद कर लें और अल्लाह का नाम लें . अपनी मसक ( पुराने ज़माने में पानी भरने के काम में आता था जो पशु की खाल से बना होता था . अभी भी रेगिस्तान में भेड़ आदि चराने वाले इसका प्रयोग करते हैं ) का मुंह बाँध दो  और अल्लाह का नाम लो अपने बर्तनों को ढक दो  और अल्लाह का नाम लो और दीपक बुझा दो .

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विचार करने की आवश्यकता यह है मुसलमानों को शैतान का इतना डर क्यों सताता है?

शैतान केवल मुसलमानों को ही तंग क्यों करता है ?

अल्लाह मियां शैतान से अपने सही रास्ते पर चलने वाले मुसलमानों को बचाने के लिए कुछ करते क्यों नहीं हैं ?

इन हदीसों में शैतान से डर केवल बच्चों के लिए लिखा है ? क्या शैतान सर्व्यापक है जो हर बच्चे के पास शैतान के पहुँचने और नुक्सान पहुँचाने का डर रहता है? लेकिन ऐसा आजतक ये सुनने  में भी  नहीं आया कि शैतान ने किसी के बच्चे को नुकसान पहुंचाया हो ? किसी मोमीन ने न तो ये शिकायत की है की उसके बच्चे को शैतान ने नुक्सान पहुँचाया यदि नुकसान पहुंचाया होता तो पुलिस में जाकर इत्तिला करता. यहाँ तक की मुस्लिम देशों की किसी अदालत में भी शैतान के ऊपर कोई मुकदमा दाखिल हुआ .

आतंकवाद के इस युग में जहाँ आतंकवादियों के पास भी एटमी हथियार हैं वहां मुस्लिम देशों के पास तो इनकी भरमार है. यदि शैतान का इतना ही खौफ है, कि अल्लाह मियां को रसूल के माध्यम से लोगों को हिदायत देनी पड़ती है , इन आतंकवादियों और मुस्लिम देशों को चाहिए की इन हथियारों को शैतान के खिलाफ काम में लें ?

एक प्रश्न ये भी जहन में आता है कि शैतान मुसलमान बच्चों को पहचानता कैसे होगा क्या नाम पूछता होगा ? क्या कपड़े उतार के ……….. या कोई और तरीका इस्तमाल करता है .

कमाल की बात है कि शैतान बच्चों को नुकसान  तो पहुंचा सकता है लेकिन बंद दरवाजा नहीं खोल सकता ? ये बड़ी अजीब कहानी है ? फिर अल्लाह मियां ने यहाँ ये भी नहीं बताया की शैतान किस उम्र तक के बच्चों को नुकसान पहुंचा सकता है . बच्चा होने की कुछ उम्र भी तो निश्चित की होगी और फिर उस उम्र की पहचान करने के लिए शैतान क्या उनका जन्म प्रमाण प्रत्र  देखता है ?

 

अब ऊपर दी हुयी दोनों हदीसों के साथ यह हदीस भी पढ़िए :

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सहीह बुखारी हदीस ३९७ जिल्द ८ , पृष्ठ २६४ :

इब्न अब्बास से रिवायत है कि रसूल ने फरमाया यदि तुम में से कोई भी अपनी बेगम से हमबिस्तर हो तो वो कहे “बिस्मिल्लाह अल्लाहुम्मा जन्निब्ना श शैतान वा जन्नीबी श शैतान मा राज़क्ताना “ और यदि किसी  युगल को इस तरह संतान की प्राप्ति होती है तो उसे शैतान कभी हानि नहीं पहुचा पायेगा.

बुखारी   ने इस  हदीस को जिल्द ९ में भी लिखा है. हदीस संख्या ४९३

 

ये हदीस इस बात की तरफ इशारा करती है कि मुसलमान शैतान को लेकर इतने खौफ जदा हैं कि अपनी बेगम के साथ में एकान्त के पलों में भी शैतान को याद करना पड़ता है .

ये देख कर तो ये ही लगता है कि अल्लाह और रसूल पर ईमान क्या लाये चैन से बेगम के साथ कुछ पल गुजारना भी भरी पढ़ गया .

हे अल्लाह ! तुमने अपने बन्दों पर ऐसा अज़ाब क्यों डाला ! कम से कम बेगम के साथ तो चैन से समय गुजारने दिया होता वहां भी शैतान का खौफ …….