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‘स्वामी दयानन्द के चार विलुप्त ग्रन्थ’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

स्वामी दयानन्द ने सन् 1863 में मथुरा में प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से विद्यार्जन पूरा कर अज्ञान के नाश व विद्या की वृद्धि सहित असत्य व अज्ञान पर आधारित धार्मिक, सामाजिक व राजधर्म सम्बन्धी मान्यताओं का खण्डन और सत्य पर आधारित मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार व मण्डन किया था। वह उपदेश, प्रवचन वा व्याख्यानों द्वारा प्रचार के साथ अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों से वार्तालाप व शास्त्रार्थ भी करते थे। उन्होंने उन लोगों तक अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए जो उनके उपदेशों में सम्मिलित नहीं हो सकते थे, अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। ग्रन्थों का प्रणयन व प्रकाशन का एक कारण यह भी था, उनके जीवनान्त के बाद भी लोग उनके सत्य मन्तव्यों, विचारों सहित वैदिक सिद्धान्तों से लाभ उठा सकें। उनका साहित्य आज भी न केवल वैदिक मत के उनके अनुयायियों का मार्गदर्शन कर रहा है अपितु इससे अनेक गवेषक, शोधार्थी व अन्य मत के लोग भी लाभान्वित हुए हैं व हो रहे हैं। स्वामी जी ने बड़ी संख्या में ग्रन्थ लिखें हैं जिनमें प्रमुख हैं सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि। इस लेख में हम उनके कुछ लघु ग्रन्थों की चर्चा कर रहे हैं जो उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन के आरम्भिक काल में लिखे थे, उनका प्रकाशन भी हुआ था तथापि वह सुरक्षित नहीं रखे जा सके और सम्प्रति लुप्त व अनुपलब्ध हैं।

 

स्वामीजी के ज्ञात ग्रन्थों में चार लघु ग्रन्थ ऐसे हैं जो विलुप्त हुए हैं। यह ग्रन्थ हैं, सन्ध्या, भागवत-खण्डन, अद्वैतमत-खण्डन तथा गर्दभतापिनी-उपनिषद। सन्ध्या स्वामी दयानन्द जी द्वारा रचित ग्रन्थों में प्रथम पुस्तक है। इसकी रचना की भूमिका इस प्रकार है कि स्वामी दयानन्द जी लगभग तीन वर्ष (1860-1863) मथुरा में दण्डी श्री स्वामी विरजानन्द सरस्वती से विद्याध्ययन करके सन् 1863 में आगरा पधारे। यहां लगभग डेढ़ वर्ष तक निवास किया। यहां पर स्वामी जी ने सर्वप्रथम सन्ध्या की एक पुस्तक लिखी। इसे आगरे के महाशय रूपलाल जी ने छपवाकर प्रकाशित किया। इसके विषय में स्वामी दयानन्द जी के जीवनी लेखक पं. लेखराम जी द्वारा संगृहीत प्रमुख जीवनचरित्र में लिखा है कि स्वामी जी के उपदेश से एक सन्ध्या की पुस्तक, जिस के अन्त में लक्ष्मी-सूक्त था, छपवाई गयी और एक आने में बेची गई। समस्त नगर के लोगों ने बिना किसी पक्षपात के उन पुस्तकों को मोल लिया। कुछ पण्डितों ने इतना आक्षेप किया कि इस में विनियोग नहीं रखे गये, परन्तु सब ने ली और बाल-बच्चों को पढ़ाई। छपाई आदि का रुपया रूपलाल ने दिया। तीस हजार के लगभग इस की कापी छपी थी और डेढ़ हजार रुपया व्यय हुआ था। यह तीन वर्णों के लिए थी। आर्यसमाज के एक अन्य विद्वान पं. महेशप्रसाद जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि श्री स्वामी जी ने संवत् 1920 वि. (सन् 1863 .) में सबसे पहिले संध्या की पुस्तक आगरे में लिखी थी। वहीं के एक सज्जन महाशय रूपलाल जी ने डेढ़ सहस्र रुपया व्यय करके इसकी तीस सहस्र प्रतियां छपवाई थी और मुफ्त बांटी गईं थी। यह पुस्तक स्वामी दयानन्द की सर्वप्रथम कृति है। स्वामी जी महाराज-ईश्वर-भक्ति पर विशेष बल देते थे, अतएव उन्होंने अपने जीवन-काल में सन्ध्या की कई पुस्तकें प्रकाशित कीं। उनके द्वारा लिखित एक अन्य पुस्तक पंचमहायज्ञ विधि है जिसमें सन्ध्या व इसकी विधि को विस्तार से व प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। यही सन्ध्या आजकल आर्यसमाजों व आर्यसमाजियों द्वारा देश व विश्व भर में प्रयोग में लाई जाती है। सन्ध्या की यह पुस्तक आगरे के ज्वालाप्रकाश प्रेस में छपी थी। इसका आकार व प्रकार अज्ञात है।

 

भागवतखण्डन स्वामी जी का ऐसा लघु ग्रन्थ है जो सन् 1866 में प्रकाशित किया गया। आर्यजगत के प्रख्यात विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक इस विषय में लिखते हैं कि श्री स्वामी जी महाराज ने संवत् 1923 के आरम्भ में भागवत-खण्डनम् नाम दूसरी पुस्तक लिखी थी। भागवत के दो पुराण है। एक श्रीमद्भागवत (वैष्णवों का) और दूसरा देवीभागवत यह भागवत-खण्डन श्रीमद्भागवत नामक पुराण के खण्डन में लिखा गया था। श्रीमद्भागवत वैष्णव संप्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। अतः भागवत-खण्डन का दूसरा नाम वैष्णवमतखण्डन भी है। श्री पं. लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द के जीवनचरित्र में इसका उल्लेख भड़वाभागवत और पाखण्डखण्डन नाम से किया है। पं. लेखराम जी द्वारा संकलित जीवनचरित के हिन्दी संस्करण में इस पुस्तक का परिचय उपलब्ध होता है। उन्होंने लिखा है कि ‘पाखण्ड-खण्डन (सात) पृष्ठ की यह पुस्तक संस्कृत भाषा में स्वामीजी ने भागवत-खण्डन विषय पर लिखी। सं. 1921 व 1922 में जब वे दूसरी बार आगरा में रहे उसी समय का लिखा गया यह पुस्तक मालूम होता है। सब से पुरानी हस्तलिखित प्रति इसकी ज्येष्ठ द्वितीय 9 बृहस्पतिवार 1923 तदनुसार 7 जून सन् 1866 की लिखी हुई पं. छगनलालजी शास्त्री किशनगढ़ के पास विद्यमान है। अजमेर से वापस लौटकर सं. 1923 के अन्त में आगरे में ज्वालाप्रकाश प्रेस में पण्डित ज्वालाप्रसाद भार्गव के प्रबन्ध में इसकी कई हजार प्रतियां छपवायीं और 1 बैशाख सं. 1924 तदनुसार 12 अप्रैल सन् 1867 के मेला हरिद्वार पर इसे विना मूल्य वितरण किया। यह अत्यन्त सुन्दर और समयोचित ट्रैक्ट (पुस्तिका) उच्चकोटि की शुद्ध और ललित संस्कृत में है। यह पुनः प्रकाशित नहीं हुआ।’ महर्षि दयानन्द के एक अन्य जीवनी लेखक पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी ने भी भागवत-खण्डन के विषय में लिखा है। उन्होंने एक विशेष बात यह लिखी है कि इस पुस्तक की प्रतियां आगरा में बांटी गईं और शेष हरिद्वार में बांटने के अभिप्राय से साथ ले गये और इन्हें कुम्भ के मेले में वहां बांटा गया। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने पुस्तक विषयक एक महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि जिस काल में यह लघु पुस्तिका लिखी गई, उस समय राजपूताना तथा उत्तर भारत में श्रीमद्भागवत की कथा का बहुत प्रचलन था, अतः सबसे प्रथम इसी पुराण के खण्डन में यह पुस्तक छपवाई गई। यह भी लिख दंे कि सम्प्रति यह पुस्तक उपलब्ध है जिसका श्रेय पं. मीमांसक जी को ही है। यह पुस्तक पं. मीमांसक जी को काशी में सन् 1962 में तब उपलब्ध हुई जब वह वहां रामलालकपूर ट्रस्ट के पुस्तकालय में पुरानी पुस्तकों को टटोल रहे थे। वहां दैवयोग से अनायास उनकी दृष्टि ‘‘पाषंडि मुखमर्दन पुस्तक पर पड़ी जो इन्द्रप्रस्थ निवासी श्री विश्वेश्वरनाथ गोस्वामी नाम के एक पण्डित जी की लिखी हुई थी और इसका प्रकाशन मुरादाबाद के सुदर्शन यन्त्रालय में हुआ था। 62 पृष्ठों की इस पुस्तक में लेखक ने ऋषि दयानन्द विरचित भागवतखण्डन को अक्षरशः उद्धृत करके उसका खण्डन किया है। इस प्रकार यह पुस्तक सुरक्षित उपलब्ध हो गई जिसे पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने हिन्दी अनुवाद सहित रामलालकपूर ट्रस्ट से प्रकाशित कर दिया और अब यह उपलब्ध है व इन पंक्तियों के लेखक के पास भी है।

 

स्वामी दयानन्द जी लिखित एक अन्य विलुप्त पुस्तक अद्वैतमतखण्डन है जिसे उन्होंने काशी में ज्येष्ठ सं. 1927 अर्थात् जून, 1870 में लिखा था। यह पुस्तक सम्प्रति अनुपलब्ध वा विलुप्त है। पं. लेखराम जी संगृहीत स्वामी दयानन्द के जीवन चरित में इस लघुग्रन्थ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ‘यह ट्रैक्ट (लघु पुस्तिका) स्वामी जी ने काशी में शास्त्रार्थ सं. 2 (अर्थात् काशी शास्त्रार्थ) के पश्चात् छपवाया और यत्न करके कविवचनसुधा नामक हिन्दी के मासिक पत्र में संस्कृत भाषा में भाषानुवाद सहित मुद्रित कराया।’ सन्दर्भः कविवचनसुधा जिल्द 1 संख्या 14-15 13 जून सन् 1870। यह लाइट प्रेस बनारस में गोपीनाथ पाठक के प्रबन्ध से प्रकाशित हुआ। यह ट्रैक्ट नवीन-वेदान्त के दुर्ग को तोड़ने के लिये सैनिक बल से अधिक बलवान है। इस पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित नहीं हुआ। यह पुस्तक भी विगत लगभग 140 वर्षों से अनुपलब्ध वा विलुप्त है।

 

स्वामी दयानन्द जी का चैथा विलुप्त ग्रन्थ है गर्दभतापिनीउपनिषद्। इसका उल्लेख कर पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने लिखा है कि श्री स्वामीजी महाराज के जीवनचरित्र से विदित होता है कि उनका मुखारविन्द सदा प्रसन्न रहा करता था। वे अपने भाषणों से कभी-कभी श्रोताओं का मनोरंजन कराया करते थे। श्रोताओं के मनोरंजन के लिये उन्होंने ‘‘रामतापिनी, गोपालतापिनी आदि उपनिषदों के सदृश एक ‘‘गर्दभतापिनीउपनिषद् बनाई थी और कभी-कभी उसके वचन सुनाकर श्रोताओं का मनोरंजन किया करते थे। इस उपनिषद् का उल्लेख पं. देवेन्द्रनाथ संगृहीत जीवनचरित्र (भाग 1, पृष्ठ 279) में इस प्रकार किया है– ‘‘श्री स्वामी जी ने रामतापिनी और गोपालतापिनी उपनिषदों की तरह गर्दभतापनी उपनिषद् भी बना रखी थी, जिसमें से कभीकभी वचनों को उद्धृत करके सुनाया करते थे। मीमांसक जी इस पर टिप्पणी कर कहते हैं कि ‘यह वर्णन प्रयाग का है। इस बार श्री स्वामी जी महाराज द्वितीय आषाढ़ वदी 2 सं. 1931 को प्रयाग पधारे थे। अतः यह पुस्तक प्रयाग जाने से पूर्व ही रची गई होगी। दुःख है कि इसकी कोई प्रतिलितपि सुरक्षित नहीं रक्खी गई, अन्यथा वह बडे मनोरंजन की वस्तु होती।‘

 

महर्षि दयानन्द के साहित्य के प्रेमी जब भी उनके साहित्य का अध्ययन करते हैं तो इन तीन ग्रन्थों की उपलब्धता न होने से उनको पीड़ा होती है। यह बता दें कि महर्षि दयानन्द की प्रथम पुस्तक सन्ध्या की प्रति अडयार के राजकीय पुस्तकालय में है। वहां से श्री आदित्यपाल सिंह आर्य ने इसकी प्रति प्राप्त की थी। वह वर्षों तक उनके पास पड़ी रही। हमने उनसे प्राप्त करने का प्रयास किया तो जानकारी मिली कि वह पुस्तक उनसे उनके मित्र श्री पंडित उपेन्द्र राव राव ले गये थे। अब उनका देहान्त हो गया है अतः वह मिल न सकी। हमने भी अडयार स्थित पुस्तकालय को लिखा था परन्तु हमें वहां से कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ। अकोला के श्री राहुल आर्य इसकी प्राप्ति के लिए प्रयासरत है। महर्षि दयानन्द के इन विलुप्त हुए ग्रन्थों से यह शिक्षा मिलती है कि पुस्तकों के संरक्षण में कोताही नहीं करनी चाहिये। उसको सुरक्षित रखना आवश्यक एवं महत्वपूर्ण हैं। अन्यथा पछताना होता है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

यह नर-नाहर कौन था? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

यह घटना प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों की है। रियासत बहावलपुर

के एक ग्राम में मुसलमानों का एक भारी जलसा हुआ। उत्सव की

समाप्ति पर एक मौलाना ने घोषणा की कि कल दस बजे जामा

मस्जिद में दलित कहलानेवालों को मुसलमान बनाया जाएगा,

अतः सब मुसलमान नियत समय पर मस्जिद में पहुँच जाएँ।

इस घोषणा के होते ही एक युवक ने सभा के संचालकों से

विनती की कि वह इसी विषय में पाँच मिनट के लिए अपने विचार

रखना चाहता हैं। वह युवक स्टेज पर आया और कहा कि आज के

इस भाषण को सुनकर मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि कल कुछ

भाई मुसलमान बनेंगे। मेरा निवेदन है कि कल ठीक दस बजे मेरा

एक भाषण होगा। वह वक्ता महोदय, आप सब भाई तथा हमारे वे

भाई जो मुसलमान बनने की सोच रहे हैं, पहले मेरा भाषण सुन लें

फिर जिसका जो जी चाहे सो करे। इतनी-सी बात कहकर वह

युवक मंच से नीचे उतर आया।

अगले दिन उस युवक ने ‘सार्वभौमिक धर्म’ के विषय पर

एक व्याख्यान  दिया। उस व्याख्यान में कुरान, इञ्जील, गुरुग्रन्थ

साहब आदि के प्रमाणों की झड़ी लगा दी। युक्तियों व प्रमाणों को

सुन-सुनकर मुसलमान भी बड़े प्रभावित हुए।

इसका परिणाम यह हुआ कि एक भी दलित भाई मुसलमान

न बना। जानते हो यह धर्म-दीवाना, यह नर-नाहर कौन था?

इसका नाम-पण्डित चमूपति था।

हमें गर्व तथा संतोष है कि हम अपनी इस पुस्तक ‘तड़पवाले

तड़पाती जिनकी कहानी’ में आर्यसमाज के इतिहास की ऐसी लुप्त-

गुप्त सामग्री प्रकाश में ला रहे हैं।

उसका मूल्य चुकाना पड़ेगा

मुस्लिम मौलाना लोग इससे बहुत खीजे और जनूनी मुसलमानों

को पण्डितजी की जान लेने के लिए उकसाया गया। जनूनी इनके

साहस को सहन न कर सके। इसके बदले में वे पण्डितजी के प्राण

लेने पर तुल गये। आर्यनेताओं ने पण्डितजी के प्राणों की रक्षा की

समुचित व्यवस्था की।

 

हाँ, वेद में गो हत्यारे को मारने का आदेश है: डॉ. धर्मवीर

आजकल गो मांस खाने, न खाने को लेकर तथाकथित साहित्यकार, मानव अधिकारवादी, प्रगतिशील और कांग्रेस समर्थक राजनैतिक लोग प्रतिदिन ही शोर करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि इनको गाय, घोड़े से कुछ भी लेना देना नहीं है, इनका उद्देश्य हिन्दू विरोध है। इस देश में गत साठ वर्षों तक जो लोग सत्ता के साथ रहे और वहाँ से लाभ उठाते रहे, आज उनका सत्ता सुख छिन गया तो चिल्ला रहे हैं। यदि इन लोगों के अन्दर थोड़ी भी संवेदनशीलता या मनुष्यता होती तो जो कुछ आज मुस्लिम देशों में हो रहा है, उसका विरोध करने का साहस अवश्य करते। मूल रूप से ये लोग पाखण्डी हैं, इनको हिन्दू विरोध करने का आर्थिक लाभ मिलता था, मोदी सरकार के आने से वह बन्द हो गया, इस कारण इनका यह पीड़ा-प्रदर्शन उचित ही है। हिन्दू विरोध के नाम पर राष्ट्रद्रोह करना इनका स्वभाव बन चुका है।

जो लोग ऐसा कहते हैं कि हिन्दू लोग गौ की तुलना में मनुष्य का मूल्य नहीं समझते, किसी ने किसी जानवर को मार दिया तो क्या हो गया, जानवर का मनुष्य के सामने क्या मूल्य है? संसार के सभी प्राणी मनुष्य के लिए ही बने हैं। उन्हें मारने-खाने में कोई अपराध नहीं होता। संसार की सभी वस्तुयें मनुष्य के उपयोग के लिये बनी हैं, इसका यह अभिप्राय तो नहीं हो सकता कि आप उन्हें नष्ट कर दें। संसार के प्राणी भी मनुष्य के लिये हैं तो इनको मारकर खा जाना ही तो एक उपयोग नहीं है। पहली बात, जो भी संसार की वस्तुयें और प्राणी हैं, वे सभी मनुष्यों की साझी सपत्ति हैं, सबके लिये उनका उपयोग होना चाहिए। सबका हित सिद्ध होता हो, ऐसा उपयोग सबको करना उचित है। संसार की वस्तुओं का श्रेष्ठ उपयोग मनुष्य की बुद्धिमत्ता की कसौटी है। कोई मनुष्य घर को आग लगाकर कहे कि लकड़ियाँ तो मेरे जलाने के लिये ही हैं। लकड़ियाँ जलाने के काम आती है, परन्तु घर बनाने के भी काम आती हैं, उनका यथोचित उपयोग करना मनुष्य का धर्म है।

कोई भी मनुष्य किसी का अहित करके अपना हित साधना चाहता है तो उसको ऐसा करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। समाज में व्यक्तिगत आचरण की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सामाजिक परिस्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अधीन चलना होता है। जो लोग गाय का मांस खाने को अधिकार मानते हैं, वे मनुष्य का मांस खाने को भी अधिकार मान सकते हैं। समाज में कोई ऐसा करता है तो उसे अपराधी माना जाता है, उसे दण्डित किया जाता है, जैसा निठारी काण्ड में हुआ है। वैसे ही गाय भारत में हिन्दू समाज में न मारने योग्य कही गई है। आप कानून व नियम का विरोध करके गो मांस खाने को अपना अधिकार बता रहे हैं। एक वर्ग-बहुसंयक वर्ग जब गौ हत्या की अनुमति नहीं देता, तब यदि आप ऐसा करते हैं तो देश और समाज से द्रोह करना चाह रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में जब एक वर्ग नियम को मानने से इन्कार करता है तो दूसरा वर्ग भी नियम तोड़ने लगता है, जैसा कश्मीर में हुआ, यदि गोहत्या करना, गोमांस खाना इंजीनियर रशीद का अधिकार है तो गाय की रक्षा करने का और गोहत्यारे को दण्डित करना भी हिन्दू का अधिकार है। ये दोनों स्थिति समाज में अराजकता उत्पन्न करने वाली हैं, समाज के हित में नहीं है। हमें समाज के हित को सर्वोपरि रखना होगा। यदि गोहत्या करके एक अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता है तो दूसरा सूअर को लेकर आपकी भावनाओं को आहत करता है। यह संघर्ष निन्दनीय है।

जो लोग गोहत्या के पक्षधर हैं, वे अपने भोजन की चिन्ता में पूरे समाज के भोजन पर संकट उत्पन्न कर रहे हैं। गाय का मांस तो कुछ लोगों की आवश्यकता है, परन्तु गाय का दूध पूरे समाज की आवश्यकता है। यह मांस खाने वालों की भी आवश्यकता है। इन लोगों के मांस खाने से समाज में आज दूध का भयंकर संकट उत्पन्न हो गया है। आपको अपने परिवार में दूध चाहिए या नहीं, छोटे बच्चों को दूध चाहिए, बड़ों को, रोगियों को दूध चाहिए। घर में दूध, दही, मक्खन, घी, मिठाई, मावा, खीर, पनीर आदि में प्रतिदिन जितने दूध की आवश्यकता है, दूध का उत्पादन उसकी अपेक्षा बहुत थोड़ा हो रहा है, इसीलिये दूध, दही, मावा, पनीर, मिठाई में सब कुछ नकली आ रहा है। दूध से बनी हर वस्तु में आज मिलावट है, क्योंकि गौहत्या के निरन्तर बढ़ने से गाय, भैंस आदि पशु घट गये हैं। यदि यही क्रम जारी रहा तो आपके लिये सोयाबीन का आटा घोलकर पीने के अतिरिक्त कोई उपाय ही नहीं बचेगा।

गोमांस खाने और गोमांस के व्यापार के कारण देश गहरे संकट की ओर जा रहा है। भोजन में गोदुग्ध के पदार्थों को निकाल दिया जाय तो भोजन में कुछ बचता नहीं है। हम समझते हैं कि कारखानों, उद्योगों से समृद्धि आती है, समृद्धि का वास्तविक आधार पशुधन है। मनुष्य की जितनी आवश्यकताओं की पूर्ति पशुओं से प्राप्त होने वाली वस्तुओं से होती है, उतनी अन्य पदार्थों से नहीं होती। जीवित पशु हमें अधिक लाभ पहुँचाते हैं, मरकर तो पहुँचाते ही हैं। स्वयं मरे पशु का उपयोग कम नहीं अतः पशुवध की आवश्यकता नहीं है। गोदुग्ध और उससे बने पदार्थ जहाँ मनुष्य के लिये बल, बुद्धि के बढ़ाने वाले होते हैं, वहाँ मांस तमोगुणी भोजन है, इसलिये महर्षि दयानन्द ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है। इस भारत के नाश के लिये अंग्रेजों ने हमारी समृद्धि के दो सूत्र समझे थे और उनका पूर्णतः नाश किया था। प्रथम हमारी शिक्षा, हमारे विचार और चिन्तन के उत्कर्ष का आधार थी, उसे नष्ट किया तथा दूसरा पशुधन विशेष रूप से गाय जो हमारी समृद्धि का मूल थी, उसका नाश कर इस देश को दरिद्र बना गये। उन्हीं के दलालों के रूप में जो लोग इस देश में उन्हीं से पोषण पाते हैं, उन्हीं के इशारे पर काम करते हैं, उन्हीं का षड़यन्त्र है। वे गोमांस खाने  जैसी बातें उठाकर विवाद उत्पन्न करते हैं, विदेशों में देश की छवि खराब करते हैं।

गाय हमारे बीच हिन्दू-मुसलमान की पहचान नहीं है, गाय तो सब की है। गाय उपयोगिता की दृष्टि से दूध न देने पर भी उपयोगी है। उसके गोबर से खाद और गोमूत्र से औषध का निर्माण होता है। पिछले दिनों गाय पर किये जा रहे अनुसन्धानों ने सिद्ध कर दिया है कि गाय न केवल हमारी भोजन की समृद्धि को अपने दूध से बढ़ाती है, अपितु खेती की उर्वरा-शक्ति का संरक्षण भी गोबर की खाद से करती है। गोमूत्र से अमेरिका जैसे देश केंसर की दवा का निर्माण करते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में गाय की रक्षा के लिये बहुत प्रयत्न किया था। स्वामी जी ने गोहत्या के विरोध में करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने और गोहत्या बन्द करने का आन्दोलन चलाया था। स्वामी जी ने गोकरुणानिधि में एक गाय के जीवन भर के दूध से कितने लोगों का पालन-पोषण होता है तथा एक गाय के मांस से एक बार में कितने लोगों का पेट भरता है, इसकी तुलना करके गौ का अर्थशास्त्र समझाया था। गाय को हिन्दुओं ने पवित्र माना, यह केवल एक धार्मिक भावना का प्रश्न नहीं है। आज गाय के दूध के गुणों के कारण भारतीय गायों की नस्ल का संरक्षण ब्राजील और डेन्मार्क जैसे देशों में किया जा रहा है। वहाँ गौ संवर्धन का कार्य बड़े व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में हमारे देश में यह विवाद निन्दनीय और चिन्ताजनक है। भारतीय गायों की तुलना में विदेशी नस्ल की गायों के दूध में कितना विष है, इसका बहुत बड़ा अनुसन्धान हो चुका है। भारतीय गाय आज समाप्त होने के कगार पर है। ऐसी परिस्थिति में यह विवाद स्वयं प्रेरित नहीं कहा जा सकता। जो सामाजिक ताने-बाने को तोड़कर राष्ट्र की प्रगति को रोकना चाहते हैं, यह ऐसे लोगों का काम है।

भोजन की स्वतन्त्रता के नाम पर जो कानून को तोड़ना चाहते हैं, उन्हें यह भी अवश्य ही ज्ञात होगा कि स्वतन्त्रता की बात तो तब आती है, जब आपके पास कोई वस्तु  सुलभ हो। यदि कोई यह समझता है कि उसे गोमांस खाने की स्वतन्त्रता और अधिकार है तो क्या गोमांस खाने वालों के अधिकार से गोदुग्ध पीने वालों का अधिकार समाप्त हो जाता है। गोमांस और गोदुग्ध के अधिकार में गोमांस खाने की बात करना, दिमागी दिवालियेपन की पहचान है। नई वैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध किया है कि प्राणियों की हिंसा और निरन्तर बढ़ रही क्रूरता से पृथ्वी का पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। प्राणियों की हत्या करने का कार्य नई तकनीक और विज्ञान के प्रयोग से बहुत बड़े स्तर पर चलाया जा रहा है, उसमें क्रूरता भी उतनी ही बढ़ गई है। मनुष्य चमड़े के लोभ में पशुओं के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करता है और भोजन के नाम पर पशुओं को यातनायें देता है। इन यातनाओं से मनुष्य का स्वभाव क्रूर होता है। आजकल हमारे समाज में बच्चों से लेकर बड़ों तक, ग्राम से नगर तक सबके स्वभाव में असहिष्णुता और क्रूरता का समावेश हुआ है, उसका मुय कारण हमारे व्यवहार में आई हुई हिंसा है। जिन धर्मों में दया और संयम का स्थान नहीं है, उनको धर्म कहना ही उचित नहीं है, अहिंसा और संयम के बिना समाज में कभी भी मर्यादाओं की रक्षा नहीं की जा सकती। गौ आदि प्राणियों के रक्षण और पालन से समृद्धि के साथ सद्गुणों का भी समावेश होता है।

कुछ लोग गाय को माता कहने का मजाक बनाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि इन शदों का भावनात्मक मूल्य क्या है? भारतीय जब भी संसार के पदार्थों के गुणों को समझते हैं और उनसे लाभ उठाते हैं, उनके साथ आत्मीय भाव विकसित करते हैं। जिनके साथ मनुष्य का आत्मीय भाव होता है, मनुष्य उनकी रक्षा करता है, उन वस्तुओं से प्रेम करता है। हिन्दू भूमि को माता कहता है, गाय को माता कहता है, अपना पालन-पोषण करने वाली धरती आदि को माता कहता है। सबन्धों में बड़े गुरु, राजा आदि की पत्नी को माता कहता है। यह शद समान और उसके प्रति कर्त्तव्य का बोध कराने वाला है।

जो लोग गाय का मांस खाने को अपना अधिकार बताते हैं और तर्क देते हैं कि ईश्वर ने पशुओं को मनुष्य के खाने के लिये बनाया है, उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या सूअर को ईश्वर ने न बनाकर क्या मनुष्य ने बनाया है और सूअर भी यदि ईश्वर ने बनाया है तो क्या ईश्वर अपवित्र वस्तु व प्राणी बनाता है? वस्तु व प्राणियों की पवित्रता-अपवित्रता मनुष्य की अपेक्षा से होती है। परमेश्वर के लिये सारी रचना पवित्र ही है। जहाँ तक मनुष्य अपने को पवित्र समझें तो उन्हें योग दर्शन की पंक्ति का स्मरण करना चाहिए- मनुष्य का शरीर जन्म से मृत्यु तक अपवित्रता का पर्याय है। फिर कोई प्राणी रचना से कैसे पवित्र-अपवित्र है, परमेश्वर की साी रचना पवित्र है। मनुष्य अपने ज्ञान, रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार वर्गीकरण कर लेता है।

आज गौ को बचाने के लिए गोमांस के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता है। विदेशों में, विशेषकर खाड़ी के देशों को मांस का निर्यात होता है, मांस के व्यापारी धन के लोभ में अधिक-अधिक गोमांस का निर्यात कर रहे हैं। इस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। राज्य व्यवस्था में गोहत्या राज्य का विषय होने से प्रशासन में एक मत नहीं हो पा रहा है। भाजपा शासित राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबन्ध और इस अपराध के लिये दण्ड विधान है, दूसरे राज्यों में नहीं। इस कार्य को करने की आवश्यकता है।

अब एक बात सोचने की है, गोहत्यारे को मृत्युदण्ड बयान विवादित कैसे है? वेद में तो हत्यारे को मारने का विधान स्पष्ट है, विवादित बयान उनका हो सकता है जो लोग वेद में गो हत्या करने का विधान बताते हैं। वेद में हत्या का विधान होने से गो हत्यारे की हत्या तो हो नहीं जायेगी, क्योंकि भारत का शासन वेद के नियम से तो चलता नहीं है। यह तो भारत के संविधान से चलता है। कुरान में लिखा है कि काफिर को मारने वाले को खुदा जन्नत देता है, तो क्या लिखा होने से भारत में इसे लागू कर देंगे? वेद और कुरान में जो लिखा है, लिखा रहने दें, इससे परेशान होने की क्या आवश्यकता है, वेद तो कहता है- यदि कोई तुहारे गाय, घोड़े, पुरुष की हत्या करता है तो सीसे की गोली से मार दो। मन्त्र इस प्रकार है-

यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नासो अवीरहा।

– अथर्ववेद 1/16/4

– धर्मवीर

मियाँजी की दाढ़ी एक आर्य के हाथ में : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

1947 ई0 से कुछ समय पहले की बात है। लेखरामनगर

(कादियाँ), पंजाब में मिर्ज़ाई लोग 6 मार्च को एक जलूस निकालकर

बाज़ार में आर्यसमाज के विरुद्ध उज़ेजक भाषण देने लगे। वे 6

मार्च का दिन (पण्डित लेखराम का बलिदानपर्व) अपने संस्थापक

नबी की भविष्यवाणी (पण्डितजी की हत्या) पूरी होने के रूप में

मनाते रहे।

एक उन्मादी मौलाना भरे बाज़ार में भाषण देते हुए पण्डित

लेखरामकृत ऋषि-जीवन का प्रमाण देते हुए बोले कि उसमें ऋषिजी

के बारे में ऐसा-ऐसा लिखा है…….एक बड़ी अश्लील बात कह

दी।

पुराने आर्य विरोधियों के भाषण सुनकर उसका उत्तर  सार्वजनिक

सभाओं में दिया करते थे। एक आर्ययुवक भीड़ के साथ-साथ जा

रहा था। वह यही देख रहा था कि ये क्या  कहते हैं। भाषण सुनकर

वह उत्तेजित हुआ। दौड़ा-दौड़ा एक आर्य महाशय हरिरामजी की

दुकान पर पहुँचा-‘‘चाचाजी! चाचाजी! मुझे एकदम ऋषि-जीवन-

चरित्र दीजिए।’’ हरिरामजी ताड़ गये कि आर्यवीर जोश में है-

कोई विशेष कारण है। हरिरामजी तो वृद्ध अवस्था में भी जवानों

को मात देते रहे। ऋषि-जीवन निकाला। दोनों ही मिर्ज़ाई जलूस

की ओर दौड़े। रास्ते में उस युवक ज्ञानप्रकाश ने हरिरामजी को

भाषण का वह अंश सुनाया। मौलाना का भाषण अभी चालू था।

वह स्टूल पर खड़ा होकर फिर वही बात दुहरा रहा था।

हरिरामजी ने आव देखा न ताव, मौलानी की दाढ़ी अपने हाथों

में कसकर पकड़ ली। उसे ज़ोर से लगे खींचने। मौलाना स्टूल से

गिरे। दोनों आर्य अब दहाड़ रहे थे। ‘‘बोल! क्या  बकवास मार रहा

है? दिखा पण्डित लेखरामकृत ऋषि-जीवन में यह कहाँ लिखा

है? पहले ऋषि-जीवन में दिखा कहाँ लिखा है?’’

भारी भीड़ में से किसी मिर्ज़ाई को यह साहस न हुआ कि

लेखराम-श्रद्धानन्द के शेर से मियाँजी की दाढ़ी बचा सके। तब

कादियाँ में मुीभर हिन्दू रहते थे, आर्य तो थे ही 15-20 घर। इस

घटना के कई प्रत्यक्षदर्शी लेखक ने देखे हैं। ज़्या यह घटना साहसी

आर्यों का चमत्कार नहीं है? आर्यो! इस अतीत को पुनः वर्तमान

कर दो। लाला जगदीश मित्रजी ने बताया कि मौलाना का भाषण

उस समय लाला हरिरामजी की दुकान के सामने ही हो रहा था,

वहीं लाला हरिराम ने शूरता का यह चमत्कार दिखा दिया।

 

आर्यसमाज का एक विचित्र विद्वान्:  प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

महामहोपाध्याय पण्डित श्री आर्यमुनिजी अपने समय के भारत

विख्यात  दिग्गज विद्वान् थे। वे वेद व दर्शनों के प्रकाण्ड पण्डित थे।

उच्चकोटि के कवि भी थे, परन्तु थे बहुत दुबले-पतले। ठण्डी भी

अधिक अनुभव करते थे, इसी कारण रुई की जैकिट पहना करते थे।

वे अपने व्याख्यानों  में मायावाद की बहुत समीक्षा करते थे

और पहलवानों की कहानियाँ भी प्रायः सुनाया करते थे। स्वामी श्री

स्वतन्त्रानन्दजी महाराज उनके जीवन की एक रोचक घटना सुनाया

करते थे। एक बार व्याख्यान देते हुए आपने पहलवानों की कुछ

घटनाएँ सुनाईं तो सभा के बीच बैठा हुआ एक पहलवान बोल

पड़ा, पण्डितजी! आप-जैसे दुबले-पतले व्यक्ति को कुश्तियों की

चर्चा नहीं करनी चाहिए। आप विद्या की ही बात किया करें तो

शोभा देतीं हैं।

 

पण्डितजी ने कहा-‘‘कुश्ती भी एक विद्या है। विद्या के

बिना इसमें भी जीत नहीं हो सकती।’’ उस पहलवान ने कहा-

‘‘इसमें विद्या का क्या  काम? मल्लयुद्ध में तो बल से ही जीत

मिलती है।’’

पण्डित आर्यमुनिजी ने फिर कहा-‘‘नहीं, बिना विद्याबल के

केवल शरीरबल से जीत असम्भव है।’’

पण्डितजी के इस आग्रह पर पहलवान को जोश आया और

उसने कहा,-‘‘अच्छा! आप आइए और कुश्ती लड़कर दिखाइए।’’

पण्डितजी ने कहा-‘आ जाइए’।

 

सब लोग हैरान हो गये कि यह क्या हो गया? वैदिक

व्याख्यान माला-मल्लयुद्ध का रूप धारण कर गई। आर्यों को भी

आश्चर्य हुआ कि पण्डितजी-जैसा गम्भीर  दार्शनिक क्या  करने जा

रहा है। शरीर भी पण्डित शिवकुमारजी शास्त्री-जैसा तो था नहीं कि

अखाड़े में चार मिनट टिक सकें। सूखे हुए तो पण्डितजी थे ही।

रोकने पर भी पण्डित आर्यमुनि न रुके। कपड़े उतारकर वहीं

कुश्ती के लिए निकल आये।

 

पहलवान साहब भी निकल आये। सबको यह देखकर बड़ा

आश्चर्य हुआ कि महामहोपाध्याय पण्डित आर्यमुनिजी ने बहुत

स्वल्प समय में उस पहलवान को मल्लयुद्ध में चित कर दिया।

वास्तविकता यह थी कि पण्डितजी को कुश्तियाँ देखने की सुरुचि

थी। उन्हें मल्लयुद्ध के अनेक दाँव-पेंच आते थे। थोड़ा अभ्यास  भी

रहा था। सूझबूझ से ऐसा दाँव-पेंच लगाया कि मोटे बलिष्ठकाय

पहलवान को कुछ ही क्षण में गिराकर रख दिया और बड़ी शान्ति

से बोले, ‘देखो, बिना बुद्धि-बल के केवल शरीर-बल से कुश्ती के

कल्पित चमत्कार फीके पड़ जाते हैं।

 

मैं ब्रह्म नहीं, अल्प, चेतन व बद्ध जीवात्मा हूं’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

हम इस जड़-चेतन संसार में रहते हैं। यह सारा जगत हमारा परिवार है। सभी जड़ पदार्थ हमें अपने गुणों से लाभ पहुंचाते हैं।  हमें पदार्थों के गुणों को जानना है और जानकर उनका सदुपयोग करना है। हमारे वैज्ञानिकों ने यह कार्य सरल कर दिया है। उन्होंने जड़ पदार्थों को अन्यों की तुलना में कहीं अधिक जाना है और सभी पदार्थों के गुणों को जानकर उन्हें मानव जीवन को सहयोगी बनाने के लिए अनेक सुख-सुविधाओं की वस्तुएं बनाई हैं। उनके इस कार्य से हमारे पर्यावरण को भी हानि पहुंची है जिससे सारा संसार त्रस्त वा चिन्तित है। इससे बचने के उपाय खोजे जा रहे हैं। इसके साथ ही वैज्ञानिकों ने मानवता के विनाश की भी पर्याप्त सामग्री का निर्माण किया है जिसे युद्ध में प्रयोग होने वाली सामग्री कहा जा सकता है। हानिकारक रायायनिक खाद भी इनमें सम्मिलित है। यह सब होने पर भी हमारे वैज्ञानिक एवं हमारे मत-मतान्तरों के आचार्य मनुष्य व इसमें निवास करने वाली जीवात्मा को इसके के यथार्थ स्वरुप में अभी तक जान नहीं सके हैं। विज्ञान का क्षेत्र केवल भौतिक पदार्थों तक सीमित है। वर्तमान संसार में विज्ञान का विकास व उन्नति प्रायः पश्चिम के देशों में ही अधिक हुई है। वहां जो मत-मतान्तर प्रचलित हैं, वह एकांगी होने व ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरुप को पूर्णतया न जानने के कारण वैज्ञानिकों को सन्तुष्ट व सहमत नहीं कर सके जिससे वैज्ञानिकों ने ईश्वर व जीवात्मा के पृथक, अनादि, अमर, अविनाशी स्वरुप को मानना ही छोड़ दिया। इसके विपरीत आर्यावर्त्त भारत में आदि काल से ही ईश्वरीय ज्ञान वेदों की सुलभता के कारण यहां के ऋषि-मुनि व शिक्षित लोग ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरुप को जानते आये हैं और आत्मा की उन्नति के लिए वेद एवं वैदिक साहित्य के अनुसार जीवनयापन करते रहे हैं। महाभारत के बाद परा व अपरा अर्थात् आध्यात्मिक एवं भौतिक ज्ञान व विद्याओं का प्रचार प्रसार न होने के कारण अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हो गये जिसके परिणामस्वरुप भारत और दूरस्थ देशों में अज्ञान व अन्धविश्वास पर आधारित नाना मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये। इस कारण ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरुप लोगों की दृष्टि से ओझल हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध (1863-1883) में महर्षि दयानन्द ने व उसके बाद उनके अनुयायियों ने अपने पुरुषार्थ से वेदों के यथार्थ ज्ञान को प्राप्त किया और उसे देश व विश्व में फैलाया जिससे लोगों को ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान प्राप्त हुआ। इससे लाभ यह हुआ कि मनुष्य योनी में जीवात्मा अपने कर्तव्य-कर्मों का निर्धारण कर जीवन के लक्ष्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि के लिए प्रयत्न करते हुए इन्हें प्राप्त कर सकता है।

 

लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भारत में स्वामी शंकराचार्य जी हुए हैं जिन्होंने अद्वैत मत का प्रचार किया। उनके समय में बौद्ध व जैन मत ने अपनी जड़े जमा ली थी और बहुत से वैदिक धर्मी लोग इन मतों से आकर्षित होकर इनकी शरण में जा चुके थे। यह मत वैदिक मतावलम्बियों के समान ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे। इन मतों में ईश्वर के अस्तित्व के प्रति घोर अन्धकार होने के कारण इन्होंने ईश्वर को मानता व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना छोड़ दिया था। स्वामी शंकाराचार्य जी ने इनसे ईश्वर के स्वरुप को स्वीकार कराने के लिए शास्त्रार्थ किये और संसार में केवल एक ईश्वर ही है, अन्य कोई पदार्थ यथा जीवात्मा व भौतिक पदार्थ जैसे यह दीखते हैं, नहीं है, का प्रचार किया। वह शास्त्रार्थ में इन मतों से विजयी हो गये जिससे उनके मत को सभी बौद्ध व जैन मतानुयायियों को स्वीकार करना पड़ा था। स्वामी शंकराचार्य जी जीवात्मा को ईश्वर का अंश मानते थे जो अज्ञानता के कारण ईश्वर से पृथक व्यवहार करता है तथा ज्ञान हो जाने वा अविद्या के नष्ट होने पर ईश्वर में ही मिल जाता या उसका उसमें विलय और समावेश हो जाता है। फिर उस जीवात्मा वा ईश्वरांश का पृथक अस्तित्व नहीं रहता। प्रकृति व भौतिक पदार्थों के पृथक अस्तित्व को न स्वीकार कर वह इसे ईश्वर की माया मानते थे जो कि वस्तुतः अस्तित्वहीन पदार्थ है। महर्षि दयानन्द सत्य ज्ञान व विद्याओं के जिज्ञासु थे। उन्हें गुरु विरजानन्द जी से जो ज्ञान व शिक्षा मिली थी वह यह थी कि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति इन तीन पृथक-पृथक पदार्थों का अस्तित्व है। इन तीन शाश्वत व सनातन पदार्थो को त्रैतवाद के नाम से जाना व पुकारा जाता है। सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने इस अद्वैतवाद से जुड़े प्रश्नों को प्रस्तुत कर उनका समाधान किया है। इस लेख में भी हम वैदिक ज्ञान के आलोक में कुछ प्रश्नों के समाधान की चर्चा कर रहे हैं।

 

अद्वैतवादियों का जीव के विषय में पक्ष है कि जीव व ब्रह्म, पृथक नहीं अपितु एक हैं जिनकी संज्ञा ब्रह्म या ईश्वर है। इसलिए वह जीव व जीवात्मा का निरोध व निषेध करते हैं। वह कहते हैं कि जीव के अस्तित्व न होने से उसके आवरण में आने, जन्म लेने व बन्धन में फंसने का प्रश्न ही नहीं है। उनके अनुसार जीवात्मा ईश्वर के गुणों व उसके स्वरुप का साधक न होकर उसे ईश्वर वा ब्रह्म की साधना की किंचित अपेक्षा नहीं है। जीव न बन्धन से छूटने की इच्छा करता है और न जीव की कभी मुक्ति होती है क्योंकि जब जीव है ही नहीं तो उसका बन्धन मानना ही गलत है और जब जीव का बन्धन हुआ ही नहीं तो मुक्ति को मानने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। अद्वैतवादी मत के इन विचारों व मान्तयाओं को रेखांकित कर महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में उनका उत्तर वा समाधान प्रस्तुत किया है। वह कहते हैं कि नवीन वेदान्तियों का यह कहना सत्य नहीं है क्योंकि जीव का स्वरुप अल्प होता है, इसलिए वह आवरण में आता है। यह अल्प परिमाण व आवरण ऐसा है कि इसके कारण जीव को ईश्वर व संसार का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। इस अल्प स्वरुप व परिमाण वाला होने से जीव का मुनष्य आदि अनेक योनियों में जन्म होता है और वह जीव पाप रूप कर्मों को करके फल भोगरूप बन्धनों में फंसता है। इन बन्धनों से छूटने हेतु जीव अनेक साधनों को करता है। दुःख किसी भी जीवात्मा की पसन्द नहीं है, इस कारण सभी जीव दुःखों से छूटने के लिए प्रयत्न करते हैं। दुःखों से छूटने के लिए जीव जिन-जिन वेद व शास्त्र विहित साधनों का आश्रय लेता है, उनसे वह दुःखों से निवृत्त होते हुए मुक्ति को प्राप्त होकर परमानन्द परमेश्वर को प्राप्त होता है व सुख व आनन्द का भोग करता है।

 

अद्वैतवादी प्रश्न करते हैं कि सुख व दुःखों को भोगना देह और अन्तःकरण के धर्म हैं, जीव के नहीं। उनका कहना है कि जीव तो पाप पुण्य से रहित साक्षी मात्र है। शीत व उष्णता का अनुभव उनके अनुसार शरीरादि के धम्र्म हैं, आत्मा तो निर्लेप है। इन आरोपों व शंकाओं का वैदिक समाधान है कि देह और अन्तःकरण जड़ पदार्थ हैं और यह चेतन तत्व जीवात्मा से पृथक हैं। इन देह और अन्तःकरण को शीत व उष्णता का भोग व अनुभव नहीं होता ऐसे ही कि जैसे पत्थर को शीतलता और उष्णता का अनुभव व भोग नहीं होता है। जो चेतन मनुष्यादि प्राणी शीत व उष्ण पदार्थों को स्पर्श करता है, उसी को इनका अनुभव वा भोग प्राप्त होता है। पत्थर के समान ही मनुष्य के प्राण भी जड़़ हैं। न प्राणों को भूख लगती है न पिपासा, किन्तु प्राण वाले जीवात्मा को क्षुधा व तृषा (भूख व प्यास) लगती है। प्राणों के समान ही मनुष्य का मन भी जड़ है। न मन को हर्ष, न शोक हो सकता है किन्तु मन से हर्ष, शोक, दुःख, सुख का भोग मन अपने लिए नहीं अपितु जीव को कराता है वा जीव करता है। जैसे बाह्य क्षोत्रादि इन्द्रियों से अच्छे बुरे शब्दादि विषयों का ग्रहण करके जीव सुखी-दुःखी होता है वैसे ही अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार से संकल्प, विकल्प, निश्चय, स्मरण और अभिमान का करने वाला जीवात्मा दण्ड और मान्य का भागी होता है। उदाहरण के रुप में जैसे तलवार से मारने वाला मनुष्य वा जीवात्मा दण्डनीय होता है, तलवार नहीं होती वैसे ही देहेन्द्रिय अन्तःकरण और प्राणरूप साधनों से अच्छे बुरे कर्मों का कत्र्ता जीव सुख-दुःख का भोक्ता है। जीव कर्मों का साक्षी नहीं, किन्तु कत्र्ता व भोक्ता है। जीवात्मा ही अन्तःकरण व इन्द्रियों को भोग में प्रवृत्त करता है इसलिये कर्मों के पाप व पुण्य के अनुसार इनका भोक्ता भी जीवात्मा ही होता है। जीवात्मा वा मनुष्य के कर्मों का साक्षी तो एक अद्वितीय परमात्मा है। जो कर्म करने वाला जीव है वही कर्मों में लिप्त होता है। जीवात्मा न तो ईश्वर है और न जीवों अर्थात् अपने ही किए कर्मों का साक्षी मात्र हैं। ईश्वर ही साक्षी है और जीवात्मा कर्त्ता, भोक्ता व साक्षी है।

 

इस विवेचन से जीवात्मा का ईश्वर से पृथक अस्तित्व सिद्ध होता है। जीवात्मा साक्षी नहीं अपितु पाप-पुण्य रूपी कर्मों का कर्ता है और ईश्वर उसके कर्मों का साक्षी व फल प्रदाता है। मैं, मुनष्य, जीवात्मा हूं। मेरा शरीर मुझ जीवात्मा का शरीर है जो कर्मो को करने व फल भोगने के लिए ईश्वर से मिला है। जीवात्मा से शरीर व इसकी इन्द्रियों को प्रेरित कर कर्मों को करके मैं इनके फल भोग में फंसता हूं। सभी मनुष्यों को निरासक्त भाव से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना तथा दैनिक अग्निहोत्र आदि वेदविहित पुण्य कर्मों को करके अपनी जीवात्मा को बन्धन व दुःखों से मुक्त करना चाहिए और साथ हि परमानन्द स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधन व प्रयत्न करने चाहिये, तथा मैं ब्रह्म हूं, इस मिथ्या उक्ति से बचना चाहिये।।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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‘महर्षि दयानन्द के बहुप्रतिभावान् अद्वितीय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ईश्वर के सच्चे स्वरुप के जिज्ञासु तथा उसकी प्राप्ति के उपायों के अनुसंधानकर्त्ता थे। बाइसवें वर्ष में उन्होंने टंकारा जनपद मोरवी, गुजरात स्थित अपने सुखी व सम्पन्न परिवार का त्याग कर दिया था और देश भर में घूम कर सच्चे धार्मिक विद्वानों व योगियों की तलाश की।  जो विद्वान व योगी मिले तथा उनसे जो ज्ञान व मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, उसे उन्होंने ग्रहण किया। सन् 1857 की देश की आजादी के लिए जो क्रान्ति हुई, उसमें उनकी भूमिका व कार्यों कका प्रमाणिक ज्ञान उपलब्ध नहीं है। इसका कारण है कि यदि वह उसका वर्णन करते तो अंग्रेजों द्वारा उन्हें बगावत का दण्ड दिया जाता और वह देश सुधार का कार्य न कर पाते। इस प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय वह 32 वर्ष के युवा ब्रह्मचारी थे। उनके द्वारा लिखित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में व्यक्त विचारों से ज्ञात होता है कि वह इस आजादी की लड़ाई की कुछ घटनाओं के प्रत्यक्ष दर्शी थे और उनकी इसमें महत्वूपर्ण भूमिका हो सकती है। सन् 1860 में स्वामी दयानन्द अध्ययन के लिए मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरू विरजानन्द जी की कुटिया में पहुंचते हैं और लगभग 3 वर्ष तक अध्ययन कर वेद एवं वैदिक साहित्य के ज्ञान से सम्पन्न होते हैं। योग में प्रवीणता व उसके आठ अंगों व साधनों को वह पहलेे ही सिद्ध कर समाधि अवस्था तक पहुंच चुके थे। अब उनके लिए कुछ जानना शेष नहीं था। गुरू विरजानन्द की आज्ञा व प्रेरणा से उन्होंने देश में व्याप्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को दूर करने का व्रत लिया। वेदों के ज्ञान के आधार पर तुलना करने पर उन्हें मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहु विवाह, ब्रह्मचर्य का नाश वा इसका पालन न करना, स्त्री व शूद्रों को शिक्षा से दूर रखना व इनके लिए शिक्षा का निषिद्ध होना, जन्मना जातिवाद वा सामाजिक विषमता, देश में वेद व वैदिक साहित्य की शिक्षा की व्यवस्था न होना आदि कार्य न केवल वेद विरुद्ध लगे अपितु देश की पराधीनता व सभी कष्टों, अवनति का कारण भी यही अज्ञानता व अन्धविश्वास से पूर्ण कार्य सिद्ध हुए।

 

सन् 1863 में गुरु विरजानन्द जी से विदा लेकर वह वेदों व सद्ज्ञान के प्रचार में सर्वात्मा समर्पित हो गये।  एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे पर जाकर वहां कुछ दिन रहकर प्रचार करते थे। वैदिक मान्यताओं का युक्ति व तर्क तथा शास्त्रीय आधार पर मण्डन करते व मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि का खण्डन तथा स्त्री व शूद्रों सहित सभी की समान गुरुकुलीय पद्धति से शिक्षा का समर्थन करने के साथ जन्मना जातिवाद का भी खण्डन करते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अस्पर्शयता के कलंक को मिटाया और दलित बन्धुओं को वेदों सहित सभी प्रकार की शिक्षा का अधिकार देकर ऊंचा उठाया व गौरव दिलाया। इसी प्रकार से प्रचार करते हुए वह अगस्त, सन् 1880 में बांस बरेली पहुंचे और यहां जमकर प्रचार किया। इन दिनों स्वामी श्रद्धानन्द पूर्व नाम मुंशीराम अपने पिता, बांस बरेली के पुलिस कोतवाल नानकचन्द जी के साथ यहां रहते थे। मुंशीराम बचपन से ही अपने कुल की रीति से मूर्तिपूजा करते थे। सन् 1876 में वह काशी में पिता के साथ रहते थे तथा नियमित रुप से काशी विश्वनाथ मन्दिर में पूजा अर्चना के लिए जाया करते थे। एक दिन मन्दिर में पूजा अर्चना के लिए पहुंचे तो मन्दिर के पुलिस के पहरेदारों ने रोक लिया और बताया कि वहां रीवां की रानी साहिबा पूजा-अर्चना कर रही हैं। उनके जाने के बाद ही किसी भक्त को अन्दर जाकर पूजा करने की अनुमति है। ईश्वर की पूजा पर रानी के विशेषाधिकार की इस घटना के प्रभाव से मुंशीराम जी का मूर्तिपूजा के प्रति विश्वास समाप्त हो गया और वह नास्तिक बन गये। महर्षि दयानन्द का 14 वर्ष की अवस्था में शिवपूजा करते हुए मूर्तिपूजा से विश्वास समाप्त हुआ था और स्वामी श्रद्धानन्द का मूर्तिपूजा में कुछ समय के लिए बाधा डालने के कारण, मूर्ति के ईश्वर होने व उसमें किसी प्रकार की दिव्यता व शक्ति के होने का भ्रम दूर हुआ था। महर्षि दयानन्द को इस घटना से सच्चे ईश्वर की खोज की प्रेरणा मिलती है तो 20 वर्षीय युवक मुंशीराम इस घटना के प्रभाव से ईश्वर अविश्वासी वा नास्तिक बन जाता है। इसके बाद उनका झुकाव ईसाइयत की ओर होता है परन्तु अपने ईसाई पथप्रदर्शक को जब दुष्कर्म करते देखते हैं तो उनकी नास्तिकता में बची खुची कमी भी दूर होकर वह पूर्ण नास्तिक हो जाते हैं। उनके पिता नानकचन्द जी को मुंशीराम जी की इस स्थिति का पूरा ज्ञान है।

 

बांस बरेली में स्वामी दयानन्द जी के उपदेशों में उपद्रव रोकने व सुरक्षा की व्यवस्था का दायित्व मुंशीराम जी के नगर कोतवाल पिता को दिया जाता है। वह स्वयं श्रद्धावान पौराणिक कर्मकाण्डी व्यक्ति थे। स्वामी दयानन्द के उपदेशों में डियूटी देते हुए वहां वह बड़े-बड़े अंगे्रज अधिकारियों को देखते हैं और स्वामी दयानन्द के ईश्वर विषयक विचारों को सुनते हैं तो उन्हें विश्वास हो जाता है कि उनके पुत्र की नास्तिकता स्वामी दयानन्द जी के प्रवचन सुनकर दूर हो सकती है। स्वामी श्रद्धानन्द ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग का पथिक में इस सम्बन्ध में लिखा है कि रात को घर आते ही (पिताजी ने) मुझे कहा-‘‘बेटा मुंशीराम ! एक दण्डी संन्यासी आये हैं, बड़े विद्वान् और योगिराज हैं। उनकी वक्तृता सुनकर तुम्हारे संशय दूर हो जाऐंगे। कल मेरे साथ चलना। श्रद्धानन्द जी आगे लिखते हैं कि उन्होंने पिता को कह तो दिया कि चलंूगा परन्तु मन में वही भाव रहा कि केवल संस्कृत जाननेवाला साधु बुद्धि की बात क्या करेगा? दूसरे दिन बेगम बाग की कोठी में पिता जी के साथ वह पहुंचते हैं जहां व्याख्यान हो रहा था। उस दिव्य आदित्यमूर्ति (दयाननन्द) को देख कुछ श्रद्धा उत्पन्न हुई, परन्तु जब पादरी टी.जे. स्काट और दो-तीन अन्य युरोपियनों को उत्सुकता से बैठे देखा तो श्रद्धा और भी बढ़ी। अभी दस मिनट वक्तृता नहीं सुनी थी कि मन में विचार किया-यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते हुए युक्तियुक्त बातें करता है कि विद्वान् दंग हो जाएं। व्याख्यान परमात्मा के निज नाम ओ३म् पर था। वह पहले दिन का आत्मिक आह्लाद कभी भूल नहीं सकता। नास्तिक रहते हुए भी आत्मिक आह्लाद में निमग्न कर देना ऋषिआत्मा का ही काम था।

 

स्वामी दयानन्द जी की जिस घटना ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को सर्वाधिक प्रभावित किया वह व्याख्यान के दूसरे दिन स्वामी दयानन्द जी द्वारा खण्डन न करने की सलाह देने के विरुद्ध सार्वजनिक रूप से अंग्रेज कमिश्नर को कहे गये यह शब्द थे-‘‘लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट करो, कलक्टर क्रोधित होगा, अप्रसन्न होगा, गवर्नर पीड़ा देगा। अरे ! चक्रवर्ती राजा भी क्यों अप्रसन्न हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। इसके पीछे एक श्लोक नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारुतः।। (गीता 2/23) पढ़कर आत्मा की स्तुति की। न शस्त्र उसे काट सके, न आग उसे जला सके, न पानी उसे गला सके और न हवा उसे सुखा सके। वह नित्य, अमर है। फिर गरजते शब्दों में बोले-‘‘यह शरीर तो अनित्य है, इसकी रक्षा में प्रवृत्त होकर अधर्म करना व्यर्थ है। इसे जिस मनुष्य का जी चाहे नाश कर दे। फिर चारों ओर तीक्ष्ण दृष्टि डालकर सिंहनाद करते हुए कहा-‘‘किन्तु वह शूरवीर पुरुष मुझे दिखाओं जो मेरी आत्मा का नाश करने का दावा करे। जब तक ऐसा वीर इस संसार में दिखायी नहीं देता तब तक मैं यह सोचने के लिए तैयार नहीं हूं कि मैं सत्य को दबाऊंगा या नहीं। सारे हाल में सन्नाटा छा गया। रुमाल का गिरना भी सुनायी देता था। इस घटना ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। दूसरी प्रमुख घटना स्वामी श्रद्धानन्द जी के महर्षि दयानन्द जी से बांस बरेली में ही ईश्वर के अस्तित्व पर किए गए प्रश्न थे जिनका महर्षि दयानन्द से उत्तर सुनकर वह निरुत्तर हो गये। वह लिखते हैं-‘यद्यपि आचार्य दयानन्द के उपदेशों ने मुझे मोहित कर लिया था, तथापि मैं मन में सोचा करता था कि यदि ईश्वर और वेद के ढकोसले को पण्डित दयानन्द स्वामी तिलांजलि दे दें तो फिर कोई भी विद्वान् उनकी अपूर्व युक्ति और तर्कनाशक्ति का सामना करनेवाला रहे। मुझे अपने नास्तिकपन का उन दिनों अभिमान था। एक दिन ईश्वर के अस्तित्व पर आक्षेप कर डाले। पांच मिनट के प्रश्नोत्तर में ऐसा घिर गया कि जिह्वा पर मुहर लग गयी। मैंने कहा-महाराज ! आपकी तर्कना बड़ी लीक्ष्ण है। आपने मुझे चुप तो करा दिया, परन्तु यह विश्वास नहीं दिलाया कि परमेश्वर की कोई हस्ती (अस्तित्व) है। दूसरी बार फिर तैयारी करके गया परन्तु परिणाम पूर्ववत् ही निकला। तीसरी बार फिर पूरी तैयारी करके गया परन्तु मेरे तर्क की फिर पछाड़ मिली। मैंने फिर अन्तिम उत्तर वही दिया-महाराज ! आपकी तर्कनाशक्ति बड़ी प्रबल है। आपने मुझे चुप तो करा दिया, परन्तु यह विश्वास नहीं दिलाया कि परमेश्वर की कोई हस्ती है। महाराज पहले हंसे, फिर गम्भीर स्वर से कहादेखो, तुमने प्रश्न किये, मैंने उत्तर दियेयह युक्ति की बात थी। मैंने कब प्रतिज्ञा की थी कि मैं तुम्हारा विश्वास परमेश्वर पर करा दूंगा? (मुंशीराम!) तुम्हारा परमेश्वर पर विश्वास उस समय होगा जब वह प्रभु स्वयं तुम्हें विश्वासी बना देंगें। अब स्मरण आता है कि आगे लिखा उपनिषद्वाक्य उन्होंने पढ़ा था-नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो मेघया बहुनां श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम।। (कठोपनिषद 1/2/23)’’। इन पंक्तियों के लेखक को लगता है कि स्वामी दयानन्द जी से इस संवाद के परिणामस्वरुप श्रद्धानन्द जी की नास्तिकता अधिकांशतः समाप्त हो गई थी और शेष रही नास्तिकता कुछ समय बाद समाप्त हो गई। इस सत्संग का परिणाम भारत के लिए बहुत शुभ हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द जी न केवल स्वामी दयानन्द के अद्भुत विलक्षण अनुयायी बने अपितु उन्होंने देश में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना द्वारा वेदों सहित सभी विषयों की शिक्षा के प्रचार व सुधार के साथ देश की आजादी, समाज सुधार, आर्य व हिन्दू संगठन का कार्य, दलितोद्धार, बिछुड़े बन्धुओं की शुद्धि, निर्भीक साहसपूर्ण पत्रकारिता, अंग्रेजों के अन्यायकारी कार्यों का विरोध, प्रसिद्ध देशभक्तों व आर्यसमाज के विरुद्ध अंग्र्रेजों के मुकदमों आदि नाना कार्यों में अपना उल्लेखनीय योगदान किया। स्वामी श्रद्धानन्द संस्कृत-हिन्दी-अंग्रेजी-उर्दू के जानकार व सिद्ध लेखक भी थे।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग का पथिक की भूमिका में महर्षि दयानन्द के प्रति बहुत ही मार्मिक शब्दों का प्रयोग किया है जो हृदय को छूते हैं। उनके इस अनुपम श्रद्धा से युक्त शब्द-संग्रह को प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं-ऋषिवर (दयानन्द) ! तुम्हे भौतिक शरीर त्यागे 41 वर्ष हो चुके (यह शब्द स्वामी जी ने सन् 1925 में लिखे थे), परन्तु तुम्हारी दिव्य मूर्ति मेरे हृदयपट पर अब तक ज्योंकीत्यों अंकित है। मेरे निर्बल हृदय के अतिरिक्त कौन मरणधर्मा मनुष्य जान सकता है कि कितनी बार (चरित्र से) गिरतेगिरते तुम्हारे स्मरणमात्र ने मेरी आत्मिक रक्षा की है। तुमने कितनी गिरी हुई आत्माओं की काया पलट दी, इसकी गणना कौन मनुष्य कर सकता है? परमात्मा के बिना, जिसकी पवित्र गोद में तुम इस समय विचर रहे हो, कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में प्रचलित कितने पापों को दग्ध कर दिया है? परन्तु अपने विषय में मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे सत्संग ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से उठाकर सच्चा जीवनलाभ करने के योग्य बनाया? मैं क्या था इसे इस कहानी में मैंने छिपाया नहीं। मैं क्या बन गया और अब क्या हूं, वह सब तुम्हारी कृपा का ही परिणाम है। इसलिए इससे बढ़कर मेरे पास तुम्हारी जन्मशताब्दी (सन् 1925 .) पर और कोई भेंट नहीं हो सकती कि तुम्हारा दिया आत्मिक जीवन तुम्हें ही अर्पण करूं। तुम वाणी द्वारा प्रचार करने वाले केवल तत्ववेत्ता ही थे परन्तु जिन सच्चाइयों का तुम संसार में प्रचार करना चाहते थे उनको क्रिया में लाकर सिद्ध कर देना भी तुम्हारा ही काम था। भगवान् कृष्ण की तरह तुम्हारे लिए भी तीनों लोकों में कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया था, परन्तु तुमने भी मानवसंसार को सीधा मार्ग दिखलाने के लिए कर्म की उपेक्षा नहीं की। भगवन् मैं तुम्हारा ऋणी हूं, उस ऋण से मुक्त होना चाहता हूं। इसलिए जिस परमपिता की असीम गोद में तुम परमानन्द का अनुभव कर रहे हो, उसी से प्रार्थना करता हूं कि मुझे तुम्हारा सच्चा शिष्य बनने की शक्ति प्रदान करे।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन अनेक प्रेरणादायक घटनाओं से पूर्ण है। देश व जाति के सुधार के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पण किया। 23 दिसम्बर, 2015 को 89 वें बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धासुमन प्रस्तुत हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘मनुष्यों एवं प्राणियों के जातिभेद ईश्वर व मनुष्यकृत दोनों हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

ईश्वर ने इस संसार को अपने किसी निजी प्रयोजन से नहीं अपितु जीवों के कल्याणार्थ बनाया है। उसी ने सभी प्राणियों को उत्पन्न किया जिससे वह अपने प्रारब्ध अर्थात् पूर्व जन्मों के अवशिष्ट वा अनभुक्त कर्मों के सुख-दुःख रूपी फलों का भोग कर सकें और सद्कर्मों को करके उन्हें भविष्य में कोई दुःख न हो। मनुष्यों का एक उद्देश्य ईश्वर व उसकी कर्म-फल व्यवस्था को जानना भी है। इस व्यवस्था को जानकर और तदनुरूप पुरुषार्थयुक्त आचरण को करके उन्हें दुःखों से छूटने का प्रयत्न करना है। ईश्वर ने सृष्टि बनाने और जीवों को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीर देकर तो सभी मनुष्यों पर कृपा की ही है, इससे भी अधिक कृपा उसने सृष्टि के आरम्भ में जीवन को सुखी बनाने व दुःखों की निवृत्ति के उपाय सुझाने के साथ मोक्ष प्राप्ति की भी शिक्षा व ज्ञान (वेद) दिया है। सृष्टि के हमारे इस ग्रह पृथिवी पर प्राणियों की उत्पत्ति लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 सहस्र वर्ष पूर्व हुई थी। अब से लगभग 5-6 हजार वर्षों तक संसार में सभी लोग वैदिक धर्म की मान्यताओं के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करते थे। किन्हीं कारणों से व्यवस्था में कुछ विकार हुआ जो समय के साथ बढ़ता गया जिसका परिणाम महाभारत का महाविनाशकारी युद्ध हुआ। इसी से सामाजिक व राजैनैतिक सभी व्यवस्थायें कुप्रभावित हुईं। इसके प्रभाव से विगत पांच हजार वर्षों में धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक अर्थात् राजधर्म विषयक अनेकों विकृतियां उत्पन्न हुईं जिसका उदाहरण वर्तमान एवं इससे उससे पूर्व का भारत व विश्व का समाज रहा है। इन अनेक बुराईयों में से एक सामाजिक बुराई व विषमता मनुष्यों में जन्मना जातिवाद की है। इस व्यवस्था ने भारत का सर्वाधिक अहित व समाज का पतन किया है। आज भी यह जन्मना जातिवाद विद्यमान है परन्तु आज की परिस्थितियों में इसका पूर्व प्रचलित जटिल रूप काफी शिथिल हुआ है।

 

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने सन् 1863 में वेदों का पुनरुद्धार कर उनका प्रचार किया। वेद धर्म, समाज, राजधर्म व ज्ञान-विज्ञान सहित सभी सत्य विद्याओं के प्राचीनतम स्रोत व ग्रन्थ हैं। वर्तमान का जन्मना जातिवाद भी वेदों के मानने वाले महाभारत के उत्तरकालीन लोगों ने ही प्रचलित किया अथवा परिस्थितियोंवश ऐसा हो गया। अतः इसका निदान करने से पूर्व वेदों में समाज व्यवस्था का क्या स्वरूप है, यह देखना आवश्यक था। महर्षि दयानन्द महाभारत युद्ध के बाद वेदों के ऐसे प्रथम मर्मज्ञ विद्वान हुए हैं जिन्होंने वेदों के सत्य अर्थों को जाना था। उन्हें वेदों में पदे-पदे सत्य और मनुष्य जाति के कल्याण के ऐसे स्वर्णिम सूत्र प्राप्त हुए जिनका पालन न करने से ही संसार में अन्धकार छाया था। उन्होंने संसार से अज्ञान का अन्धकार दूर करने के लिए वेदों के ज्ञान वा शिक्षाओं के प्रचार को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया जिससे इस धराधाम पर रहनेवाली समस्त मानव जाति सुख व सम्मान के साथ अपना जीवन व्यतीत कर सके। उन्होंने वेद सम्मत सामाजिक व्यवस्था का भी अध्ययन किया और उसे अपने उपदेशों, वार्तालाप और सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के माध्यम से सबके कल्याणार्थ प्रस्तुत किया। उनके अनुसार वेद सभी मनुष्यों को उनके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अधिकार देते हैं। मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार चार विभाग किये जा सकते हैं और यह हैं ज्ञान प्रधान, बल प्रधान, वाणिज्य-व्यापार-कृषि-गोपालन के गुण प्रधान और गुणरहित व्यक्तियों का विभाग वा समूह। इनको क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र की संज्ञायें दी गई हैं। सामाजिक व्यवहार हेतु यह विभाग आवश्यक थे। आज भी इनका परिवर्तित रूप न केवल भारत अपितु विश्व भर में प्रचलित है जहां किसी व्यक्ति का महत्व उसके गुणों, कार्यों व स्वभाव से ही होता है। अध्यापक, राजा, सैनिक, पुलिस, डाक्टर, इंजीनियर, ड्राइवर आदि मनुष्य के गुणों व कार्यों का ज्ञान कराते हैं। इसे जाति कहें या न कहें, परन्तु यह चार वर्ण के समान मनुष्य के गुण-कर्म व स्वभाव के बोधक शब्द हैं। देश व समाज में मनुष्यों की रक्षा हेतु राज्याधिकारियों, सेना व पुलिस का अलग वर्ग है, शिक्षक, वैज्ञानिक, चिन्तक, अनेक विषयों के अलग अलग विद्वानों का अलग वर्ग है, भिन्न भिन्न व्यवसायों, कृषकों व पशु पालकों आदि का अलग वर्ग है और इनको सहयोग देने वाले अल्पज्ञानी, अल्प शक्ति वाले व व्यापार में अल्प ज्ञान व अनुभव वालों का अलग वर्ग है। मनुष्यों के यह चार वर्ण क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि व इनके अन्तर्गत भिन्न-भिन्न जातियां ही महाभारतकाल व उसके बाद जन्मना जातिवाद में परिवर्तित हो गये। रामायण व महाभारत इतिहास के प्राचीन प्रमुख ग्रन्थ हैं। इसमें सहस्रों मनुष्यों के नामों का उल्लेख है परन्तु किसी के नाम के साथ कोई वर्ण व जातिसूचक शब्द का प्रयोग देखने को नहीं मिलता जैसा कि आजकल प्रयोग किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है जन्मना जाति व जातिसूचक शब्दों का प्रयोग व प्रचलन महाभारत काल के बाद विगत 5 हजार वर्षों में हुआ है।

 

वेद सम्मत गुणकर्मस्वभाव पर आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में महर्षि दयानन्द जी ने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में विस्तार से लिखा है। वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था तथा जन्मना जातिवाद दोनों परस्पर एक दूसरे से भिन्न विरोधी हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के एकादश समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने जिज्ञासुओं की ओर से स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया है कि जाति भेद ईश्वरकृत है वा मनुष्यकृत? इसका वेद सम्मत उत्तर उन्होंने यह कहकर दिया है कि जातिभेद ईश्वरकृत और मनुष्यकृत भी हैं। अपने इस उत्तर पर वह स्वयं प्रश्न करते हैं कि कौन से जातिभेद ईश्वरकृत हैं और कौन से मनुष्यकृत हैं? इस प्रश्न का विस्तार से उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, जलजन्तु आदि जातियां परमेश्वरकृत हैं। जैसे पशुओं में गो, अश्व, हस्ति आदि जातियां, वृक्षों में पीपल, वट, आम्र, आदि, पक्षियों में हंस, काक, वकादि, जलजन्तुओं में मत्स्य, मकरादि जातिभेद हैं वैसे ही मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज जातिभेद हैं, यह भेद ईश्वरकृत हैं। परन्तु मनुष्यों में ब्राह्मणादि को सामान्य जाति में नहीं किन्तु सामान्य विशेषात्मक जाति में गिनते हैं। जैसा सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में वर्णाश्रम व्यवस्था के प्रकरण में उन्होंने लिखा है, वैसे ही गुण, कर्म, स्वभाव से वर्णव्यवस्था माननी अवश्य हैं। इसमें मनुष्यकृतत्व उनके गुण, कर्म, स्वभाव से पूर्वोक्तानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि वर्णों की परीक्षापूर्वक व्यवस्था करनी राजा (देश की सरकार) और विद्वानों (विद्यालयों महाविद्यालयों के प्राचार्य आदि) का (सम्मिलित) काम है। इसका तात्पर्य है कि जिसजिस मनुष्य में जैसी जितनी योग्यता हो उसका उसी के अनुसार राजा और विद्वानों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र वर्ण निर्धारित करना चाहिये और उसी के अनुसार समाज में व्यवहार होना चाहिये। ऐसा होने पर जन्मना जाति व्यवस्था स्वमेव निरर्थक हो जाती है और इससे उत्पन्न सभी प्रकार की सामाजिक विषमतायें दूर होती हैं। महर्षि दयानन्द के यह विचार जन्मना जाति के सर्वथा विपरीत एवं मनुष्यों में सद्गुणों के पोषक तथा विषमतारहित आधुनिक समाज के आधार हैं। महर्षि दयानन्द इसके आगे कहते है। कि भोजन भेद भी ईश्वरकृत और मनुष्यकृत है। जैसे सिंह मांसाहारी और अर्णाभैंसा घासादि का आहार करते हैं यह ईश्वरकृत और मनुष्यों में देश, काल, खाद्यवस्तु भेद से भोजनभेद मनुष्यकृत अर्थात् मनुष्यों द्वारा किए हुए हैं। 

 

महर्षि दयानन्द के इन विचारों से सुस्पष्ट है कि मनुष्यों में वर्तमान समय के अनुरूप जातिभेद वेदसम्मत न होकर उसके सर्वथा विरुद्ध हैं। अतः जातिसूचक शब्दों का जो प्रयोग किया जाता है वह अनुचित व अनावश्यक है। हां, मनुष्यों में गोत्र का प्रचलन ज्ञान-विज्ञान से पुष्ट है। यह मनुष्यों के विवाह आदि में लाभदायक होता है जिससे सन्तानों में बुद्धि व बल पराक्रम आदि नाना गुण उत्तम होते हैं। वर्तमान आधुनिक समय में जन्मना जाति व्यवस्था कुछ कमजोर अवश्य हुई है। आर्यसमाज की स्थापना व इसके द्वारा वेदों के प्रचार की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है जिसने जन्मना जातिवाद के विरुद्ध वैचारिक आन्दोलन किया। आज समाज में जाति-व्यवस्था की अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं के विपरीत अन्तर्जातीय व प्रेम विवाह आदि हो रहे हैं जिससे लगता है कि कुछ पीढि़यों के बाद यह समाप्त होकर इतिहास की वस्तु बन जायेगी। आर्यसमाज में सभी जन्मना जातियों के लोग हैं। इसका पुरोहित वर्ग भी वर्तमान की सभी जन्मना जातियों से युक्त है। आर्यसमाज ने ब्राह्मणों सहित क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र मानी जाने वाली जातियों के बच्चों को अपने गुरुकुलों में पूरी समानता प्रदान कर अध्ययन कराया जो बड़े-बड़े वैदिक विद्वान, पण्डित व संस्कृत भाषी बने हैं व अब भी बड़ी संख्या में देश भर में विद्यमान हैं। यह आर्यसमाज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रान्ति थी। यह भी लिख दें कि जो व्यक्ति आर्यसमाज का सदस्य बनता है वह वेदानुसार व गुण-कर्म-स्वभावानुसार ब्राह्मण ही होता है। ऐसा इसलिए कि उसे सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ करना होता है। यज्ञ करना व कराना, अध्ययन करना व कराना तथा दान देना व लेना, यह तीन कार्य ब्राह्मणों के मुख्य होते हैं। यह सभी कार्य आर्यसमाज के सभी सदस्य व अनुयायियों के किए जाने से आर्यसमाज के सभी अनुयायी कर्मणा वैदिक ब्राह्मण होते हैं।

 

मनुष्य जाति पशु-पक्षियों के समान ईश्वरकृत जाति है। इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि भेद राजा व विद्वानों द्वारा गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार किये जाते हैं। आज के समाज व आधुनिक व्यवस्था में न केवल भारत अपितु समस्त संसार में यह भेद दृष्टिगोचर हो रहे हैं जो नितान्त आवश्यक भी है। महर्षि दयानन्द के अनुसार जातिसूचक शब्दों का प्रयोग पूर्णतया अवैदिक है जो सामाजिक विषमता को जन्म देता है। महर्षि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ थे। उनके समान व उनसे अधिक वेदों का ज्ञाता महाभारत काल के बाद उत्पन्न नहीं हुआ। अतः वेदों की व्यवस्था की दृष्टि से महर्षि दयानन्द की बातें, मान्यतायें एवं सिद्धान्त न केवल प्रमाणित ही हैं अपितु वह देश, समाज सहित समूचे विश्व के लिए हितकारी में भी है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वैदिक धर्म में पिता का गौरव’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय प्रदत्त ज्ञान के ग्रन्थ हैं। इन वदों का सर्वाधिक प्रमाणित भाष्य महर्षि  दयानन्द सरस्वती एवं उनके द्वारा निर्दिष्ट पद्धति द्वारा उनके ही अनुवर्ती विद्वानों का किया हुआ है जिनमें पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. जयदेव विद्यालंकार, पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी,  पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य पं. रामनाथ वेदालंकार आदि का प्रमुख स्थान है। हमारा सौभाग्य है कि हमें पं. विश्वनाथ विद्यालंकार एवं आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी सहित अनेक विद्वानों का सान्निध्य प्राप्त रहा है। महर्षि दयानन्द ने स्त्रियों सहित जन्मना व कर्मणा शूद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकार दिया था। आर्यसमाज ने गुरूकुल खोलकर इन दोनों ही वंचित वर्गों को वेदाध्ययन कराया और अनेक वेद विदुषी एवं वैदिक विद्वान बनाये परन्तु पुरूषों में तो अनेक वेद भाष्यकार हुए परन्तु स्त्रियों में से किसी ने वेदों का भाष्य नहीं किया। हमने इसके लिए श्रद्धेय विदुषी बहन डा. आचार्या सूर्यादेवी वेदालंकृता जी से प्रार्थना की थी। अभी अपनी अनेक व्यस्तताओं के कारण वह इस ओर ध्यान नहीं दे सकी हैं। भविष्य में क्या होना है कोई नहीं जानता। वेदों में ईश्वर, माता, पिता, आचार्य, विद्वान संन्यासियों के गौरव से सम्बन्धित अनेक वचन व मन्त्र आते हैं। इन्हीं से प्रेरणा पाकर हमारे ऋषियों व विद्वानों ने भी अपने ग्रन्थों में इनके गौरव को विस्तार दिया है। इस लेख में हम आचार्य ब्रह्मचारी नन्द किशोर जी की पुस्तक पितृ गौरव के आधार पर पिता के गौरव विषयक कुछ शास्त्रीय वचनों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

पिता शब्द पा रक्षणे धातु से निष्पन्न होता है। यः पाति पिता  जो रक्षा करता है, वह पिता कहलाता है। कई बार हमारे अनेक मित्र, सामाजिक बन्धु, चिकित्सक, अधिवक्ता, रक्षाकर्मी व अनेक पारिवारिक संबंधी हमारी रक्षा की भूमिका में होते हैं। इससे वह पिता अर्थात् हमारी रक्षा की भूमिका में होते हैं। अतः पिता एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है। इसे केवल रूढ़ अर्थों में ही नहीं लिया जाना चाहिये अपितु चिन्तन-मनन कर इसके अनेक प्रयोगों पर विचार किया जाना व उन अर्थों को भी ग्रहण करना चाहिये। ऋषि यास्काचार्य प्रणीत ग्रन्थ निरुक्त के सूत्र 4/21 में कहा गया है-‘‘पिता पाता वा पालयिता वा निरुक्त 6/15 में कहा है –‘‘पितागोपिता अर्थात् पालक, पोषक और रक्षक को पिता कहते हैं।

 

मनुस्मृति वेदमूलक अति प्राचीन ग्रन्थ है। इसके 2/145  सूत्र में पिता के गौरव का वर्णन मिलता है। श्लोक है-उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन् माता गौरवेणातिरिच्यते।। श्लोक का अर्थ है कि दस उपाध्यायों से बढ़कर आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और एक हजार पिताओं से बढ़कर माता गौरव में अधिक है, अर्थात् बड़ी है। मनुस्मृतिकार ने जहां आचार्य और माता की प्रशंसा की है, उसी प्रकार पिता का स्थान भी ऊंचा माना है। मनुस्मृति के श्लोक 2/226 में ‘‘पिता मूर्त्ति: प्रजापतेः कहकर बताया गया है कि पिता पालन करने से प्रजापति (राजा व ईश्वर) का मूर्तिरूप है।

 

महाभारत के वनपर्व में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी माता व पिता के विषय में प्रश्नोत्तर हुए हैं जिसमें इन दोनों मूर्तिमान चेतन देवों के गौरव का वर्णन है। यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करते हैं कि का स्विद् गुरुतरा भूमेः स्विदुच्चतरं खात्। किं स्विच्छीघ्रतरं वायोः किं स्विद् बहुतरं तृणात्।। अर्थात् पृथिवी से भारी क्या है? आकाश से ऊंचा क्या है? वायु से भी तीव्र चलनेवाला क्या है? और तृणों से भी असंख्य (असीम-विस्तृत) एवं अनन्त क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि माता गुरुतरा भूमेः पिता चोच्चतरं खात्। मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।। अर्थात् माता पृथिवी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊंचा है। मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है और चिन्ता तिनकों से भी अधिक विस्तृत एवं अनन्त है। महाभारत में पिता को आकाश से भी ऊंचा माना है, अर्थात् पिता के हृदयआकाश में अपने पुत्र के लिए जो असीम प्यार होता है, वह अवर्णनीय है।

 

माता-पिता का अपने पुत्र के प्रति कितना प्रेम, स्नेह, मोह वा त्याग भाव होता है यह भारतीय इतिहास में माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्र श्रवण कुमार व अयोध्या नरेश राजा दशरथ के पुत्र राम के उदाहरणों से ज्ञात होता है। इन दोनों उदाहरणों में पुत्र का वियोग होने व दूर हो जाने पर दोनों पिताओं ने अपने प्राण त्याग दिये। इससे पिता के गौरव का अनुमान किया जा सकता है। महाभारत शा. 266/21 में कहा गया है कि पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीयन्ति देवता।। अर्थात् पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता ही सबसे श्रेष्ठ तपस्या है। पिता के प्रसन्न हो जाने पर सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं।

 

पद्मपुराण के 47/12-14 श्लोकों में भी पिता का गौरवगान मिलता है। ग्रन्थकार ने कहा है कि सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता। मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।।12।।  मातरं पितरं चैव यस्तु कुर्यात् प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन सप्त द्वीपा वसुन्धरा।।13।।  जानुनी करौ यस्य पित्रोः प्रणमतः शिरः। निपतन्ति पृथिव्यां सोऽक्षयं लभते दिवम्।।14।। इन श्लोकों का तात्पर्य है कि माता सर्वतीर्थमयी (दुःखों से छुड़ानेवाली तीर्थ) है और पिता सम्पूर्ण देवताओं का स्वरूप है, अतएव प्रयत्नपूर्वक सब प्रकार से मातापिता का आदरसत्कार करना चाहिए। जो मातापिता की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपों से युक्त सम्पूर्ण पृथिवी की परिक्रमा हो जाती है। मातापिता को प्रणाम करते समय जिसके हाथ, घुटने और मस्तक पृथिवी पर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है।

 

महाभारत के आदि पर्व के 3/37 श्लोक में तीन पिताओं का वर्णन है। श्लोक आता है कि शरीरकृत् प्राणदाता यस्य चान्नानि भुंजते। क्रमेणैते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मशासने।। इस श्लोक में बताया गया है कि जो गर्भाधान द्वारा शरीर का निर्माण करता है वह प्रथम, जो अभयदान देकर प्राणों की रक्षा करता है वह द्वितीय और जिसका अन्न भोजन किया जाता है वह तृतीय, यह तीनों पिता होते हैं।

 

पिता के गौरव से सम्बन्धित समस्त वैदिक साहित्य में अनेकानेक महत्वपूर्ण वचन भरे पड़े हैं। वेद और वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वालों को यह रत्न प्राप्त होते हैं। आज की युवा पीढ़ी वैदिक साहित्य के अध्ययन से विरत व दूर है जिससे आज अनेकों माता-पिता अपनी ही सन्तानों से सेवा व मात-पिता की पूजा के स्थान पर उनसे अवहेलना, उपेक्षा, निरादर व अनेक प्रकार से उत्पीड़न झेल रहे हैं। इस बुराई को केवल वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन व वैदिक विद्वानों की संगति व उपदेशों से ही दूर किया जा सकता है। आज की शिक्षा भी बच्चों व बड़े विद्यार्थियों को माता-पिता व आचार्य के यथार्थ गौरव को बताने में कोषों दूर है। जब तक संसार में वेद और वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि ग्रन्थों का प्रचार व आदर नहीं होगा और संसार के लोग मत-मतान्तरों की आधी-अधूरी व अनेकशः परस्पर विरोधी बातों से ऊपर नहीं उठेंगे, संसार का कल्याण होना दुष्कर है। संसार के सभी विद्वानों व शिक्षाविदों को अपने पूवाग्रहों व मत-मतान्तरों के मिथ्या विश्वासों से ऊपर उठकर सभी विद्यार्थियों को वैदिक शिक्षाओं से दीक्षित करने पर विचार करना चाहिये जिससे विश्व को भविष्य में कर्तव्यपरायण, देशप्रेमी, चरित्रवान्, परोपकारी, निष्पक्ष व सत्य न्यायाचरण करने वाली युवा पीढ़ी प्राप्त हो सके।

मनमोहन कुमार आर्य

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देश को गुमराह करने की कोशिश न करें! -शिवदेव आर्य

 

आज समाज में सर्वत्र नये-नये विवादों को जन्म मिलता जा रहा है। देखा जाये तो जो-जो वाद आज प्रचारित व प्रसारित हो रहे हैं, वह सत्यता में वाद नहीं है, वह तो सामान्य ही रूप हैं किन्तु कुछ तथाकथित राजनीतिज्ञों ने अपने स्वार्थी भावों को जागृत कर समस्त भारतवर्ष को घिनौनी चादर से व्याप्त करने का अकरणीय कदम आगे बढ़ाया है।

संसार में प्रायः हम सत्यता को देख नहीं पाते  जिसको हम सत्य स्वीकार करते हैं, उसके पीछे का दृश्य कुछ भिन्न ही होता है। हमारे नेत्रों पर अज्ञानता का ऐसा उपनेत्र लगा हुआ होता है कि हम जिस भी सत्य वस्तु को देखना चाहे वह असत्यमय ही दिखायी देती है।

अभी हाल में ही असहिष्णुता नये अवतार में अवतरित हो रही है। इसके सम्पूर्ण परिदृश्य को देखने से पहले जान लें कि असहिष्णुता क्या है? उसको सही स्वीकार करें अथवा गलत? क्या एक देश को अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित रखना चाहिए अथवा नहीं? क्या एक देश को अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए सहिष्णु नहीं होना चाहिए? यदि हम सहिष्णु हो सकते हैं तो देश के सीमाबल की क्या आवश्यकता है? सब कुछ समाप्त कर देना चाहिए, सभी सैनिकों को आदेश दे देना चाहिए कि वे अपने-अपने घरों में जाकर आराम करें, क्योंकि हम सहिष्णु हैं।

सहिष्णुता का सीधा-सा अर्थ है कि सहनं शीलं यस्य सः सहिष्णुः, तस्य भावः सहिष्णुता’ अर्थात् सहन करने का शील जिसका हो उसे सहिष्णुता कहते हैं।

आज जो हम लोगों को असहिष्णु होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है वह कुछ यूं है कि जबसे मोदी सरकार देश को उन्नति की राह पर ले जा रही है, वहाॅं विपक्षीदलों के पास विरोध करने का अथवा गलतियाॅं निकालने का कोई और रास्ता ही नहीं है। जब रास्ता न दिखा तब यूॅं कहना उचित समझा – वर्तमान सरकार हिन्दू समाज की पक्षधर है, और हिन्दूओं के कारण मुस्लिम व अल्पसंख्यकों का देश में रहना मुश्किल हो रहा है। इस मुश्किल को असहिष्णुता का नाम दे रहें हैं। वर्तमान सरकार का प्रत्येक कदम प्रत्येक भारतवासी के लिए समर्पित है न कि किसी हिन्दू-मुस्लिम के लिए ।

बस इसको राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है। इसके सिवाय और कुछ नहीं है। इसमें दोष मीडिया का भी है कि वह इस दृश्य को बार-बार दिखा कर जनता को भ्रमित कर रही है।

भारतवर्ष की आर्य संस्कृति विशाल उदार हृदयता वाली है,  जिसने सभी धर्मों-वर्णों-सम्प्रदायों अथवा समुदायों के साथ ही विभिन्न मतों के लोगों को स्वयं में समाहित किया। किन्तु बहुत आश्चर्य की बात है इस महान् संस्कृति को समस्त देशवासियों के प्रति सहिष्णु होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है।

यह कैसा विरोधाभास है कि पिछले कुछ काल से यहाँ के युवाओं की पहली पसन्द ऐसे तीनों फिल्मीकलाकार हैं, जो अल्पसंख्यक है और अल्पसंख्यक होने के साथ-साथ मुसलमान भी हैं। सलमान खान, आमिर खान और शाहरुख खान ये तीनों ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने अपने अभिनय से सम्पूर्ण भारतवर्ष के युवाओं को आकर्षित किया है। १२५ करोड़ की आबादी से व्याप्त देश के लोगों ने देवानन्द, राजकपूर, राजकुमार आदि अभिनेताओं का स्थान पर इन त्रिखानों को सहृदयता पूर्वक स्वीकार किया। यह ध्यातव्य है कि १२५ करोड़ की आबादी में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। हम केवल मात्र वाचिकरूपेण समानता को स्वीकार नहीं करते अपितु मनसा-वाचा-कर्मणा होकर व्यवहार में व्यवहृत होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या आज की ये त्रिमूर्तियां विश्वपटल पर अपने आप को स्थापित कर पातीं? क्या आमिर खान ये बता सकते हैं कि उनके चाहने वाले कितने हिन्दू तथा कितने मुसलमान हैं?  किन्तु बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज कुछ अभिनेताओं, लेखकों, साहित्यकारों आदि को पिछले कुछ महीनों से देश में असहिष्णुता नजर आ रही है। दुःखों की अपार सीमा तो तब जा कर और बढ़ गयी जब ‘सत्यमेव जयते’ जैसे कार्यक्रम को चलाने वाले अभिनेता ने देश में असहिष्णुता का दृश्य है, ऐसा कहा। भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता की परिचायिका है। आज आमिर खान ने जो ख्याति पायी है उसमें भारतवर्ष की सहिष्णुता का ही योगदान है।  भारत की जनसंख्या में ७९.८ प्रतिशत ;१॰१ करोड़द्ध हिन्दू निवास करते हैं, शायद आमिर को ज्ञात होना चाहिए कि इतना बड़ा अभिनेता बनाने में इनका भी कोई न कोई हाथ रहा होगा और आज वही अभिनेता देश के खुले मंच से देश की निन्दा कर रहा है। आमिर ने दो शादियाॅं की, वो भी दोनों हिन्दू स्त्रियों से पर फिर भी किसी ने कुछ नहीं कहा किन्तु आज उन्हें डर लग रहा है।

मुझे वो शब्द याद आ रहे हैं जब आमिर ने ‘सत्यमेव जयते’ में कहा था कि ‘ये बदमाश लोग देश को अपमानित कर रहे हैं। देश बड़ी-बड़ी इमारतों से नहीं बनता बल्कि इसमें रहने वाले सभ्य नागरिकों से बनता है’ पर आज देश उसी आवाज को अपनी आवाज बनाकर पूछना चाहता हूॅं कि-क्या यही सब कहकर देश का नाम रोशन करना चाहते हो? क्या स्वयं देश के जिम्मेदार नागरिक नहीं बनना चाहते? देश का अन्न खाकर देश को गलत बताते हुए शर्म नहीं आती? कल तक जो देश आमिर खान के लिए अतुल्य भारत हुआ करता था वह आज असहनशील कैसे लग रहा है?

शायद मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अभिनय में कुछ कलाकार अपना सब कुछ भूलकर कलाकृति में ही डूब जाते हैं, जो वर्तमान दशा के स्वर्णिम कदमों को देखना ही भूल जाते हैं। उन्हें वर्तमान तथा बीते हुये पलों में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता।

भारतवर्ष की सैकड़ों साल पुरानी सहिष्णुता की परम्परा को निशाना बनाया जा रहा है। असहिष्णुतावादियों ने ध्यान दिया होगा कि हमारे बुध्दिजीवियों का एक समुह दादरी हिंसा पर तो घडि़याली आंसू बहाता है, लेकिन देश के अन्य राज्यों में हो रही साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर वे चुप्पी साध लेते हैं। पश्चिम बंगाल, केरल और असम जैसे राज्यों में नित्य हिन्दुओं पर अत्याचार किए जाते हैं लेकिन इन पर समाज के तथाकथित बुध्दिजीवी कुछ भी बोलना पसन्द नहीं करते। क्या असहिष्णुतावादियों को कश्मीर घाटी से विस्थापित हो गए पण्डितों के दर्द की चीख नहीं सुनायी देती? क्या कभी उनके दर्द को जानने की कोशिश की? लगभग साढ़े तीन लाख कश्मीरी पण्डितों को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कश्मीर को छोड़ना पडा। वहाँ पर इस्लामिक चरमपंथी  कत्लेआम कर रहे हैं, पर तब भी असहिष्णुतावादी अभिनेताओं, साहित्यकारों ने कुछ भी नहीं बोला? जब १९८४ में सिक्ख दंगे हुए तब किसी ने क्यों पुरस्कार नहीं लौटाये? जब २००३ में कश्मीर के नादीमार्ग जिले के पुलवामा गाँव में ११ पुरुषों, ११ स्त्रियों तथा २ बच्चों को सामने खड़ाकरके गोली से उडा दिया गया, तब किसी को क्यों असहिष्णुता नजर नहीं आयी? देश का आवाम जानना चाहता है जब २००८ में २६/११ का दर्दनाक दृश्य सबके सामने नजर आया तब क्यों किसी ने सरकार पर अंगुली नहीं उठायी? कहाँ सो रहे थे? तब क्यों अपने पुरस्कार नहीं लौटाये?

आज जब भारत को दिशा देने वाला सही शासक मिला है, जो देश को प्रत्येक क्षेत्र में आगे ले जाना चाहता है तब ये लेखक, साहित्यकार, अभिनेता आदि असहिष्णुतावादी सरकारी सम्मान वापस करने का नाटक कर रहे हैं। ये लोग सम्मान को वापस करने और देश को छोड़ने की बातें करते हैं वे सब छद्म हैं। ये कहीं देश को छोड़कर जाने वाले नहीं, लेकिन राजनीतिक स्वार्थ से चलाये जा रहे अभियान को दृढ़ कर रहे हैं। इस अभियान के द्वारा सरकार को उसके सही पथ से पथभ्रष्ट किया जा रहा है।

कलम बेंचू साहित्यचोरों के साहित्य से यदि उनका स्वयं का हित सिध्द हो जाता है तो देश सहिष्णु है अन्यथा असहिष्णु। यह कैसा न्याय है? कैसा सत्य है?

देश में असहिष्णुता-असहिष्णुता कह कर लोगों को डराने की कोशिश की जा रही है। इस डर के कारण  बहुत-सी घटनाएॅं सामने आ रहीं हैं। २८ नवम्बर के दैनिक जागरण के तथ्यों से पुष्ट एक घटना में आमिर खान के बयान से पीडित होकर एक पति-पत्नि ने आपस में झगड़ा किया गया और पत्नी ने आत्महत्या भी कर ली।

प्रबुध्द पाठकगणों!

देश में असुरक्षा का माहौल है या इसे बनाया जा रहा है, ये तो आप देख ही रहे हैं। बार-बार लोगों को असुरक्षित होने का एहसास कराया जा रहा है, किन्तु सत्य यह है कि देश में शान्ति और सुरक्षा स्थापित है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने कहा था कि ‘चित्र की नहीं चरित्र की पूजा करो।’ हे युवाओं! फिल्मों को देखकर इन देशद्रोही नपुंसक अभिनेताओं को चरित्रवान् समझने की भूल न करो। भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि चरित्रनायकों को अपना अभिनेता स्वीकार करो अन्यथा असहिष्णुता के भवर में फस कर हम अपने पूर्वजों के रक्त को लजित कर बैठेंगे। सावधान रहें, सतर्क रहें। भारत की आन-बान-शान को ठेस न पहूॅंचे।