Category Archives: आर्य समाज

माई भगवती जीःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु

एक से अधिक लोगों ने यह प्रश्न पूछा है कि आपने ऋषि जीवन में माई भगवती जी को माई लिखा है। हमने औराी कई लेखों में ऐसा ही पढ़ा है परन्तु दयानन्द संदेश दिल्ली में किसी ने उसे ‘लड़की’ लिखा है। वह ‘हरियाणा’  ग्राम की थी परन्तु उस लेखक ने उसके ठिकाने का भी कुछ और ही नाम लिखा है। यथार्थ इतिहास क्या है?

हमारी विनीत विनती तो यही है कि हमने जो कुछ भी लिखा है इतिहास की प्रमाणिक सामग्री के प्रमाण देकर लिखा है। ‘प्रकाश’ जैसे प्रतिष्ठित पत्र की फाईल देाकर समाचार का स्कैनिंग करवाकर दिया है। स्वामी श्रद्धानन्द जी उसे माई जी लिखते हैं। अब दिल्ली राजधानी का कोई रिसर्च स्कालर अपनी रिसर्च का चमत्कार दिखा दे तो उसकी मनोकामना को पूरा करने में हम क्यों बाधक बनें। माई जी विधवा साध्वी थी। लड़की नहीं थी। इतिहास का मुँह चिढ़ाने से क्या लाभ? आर्य समाज का दुर्भाग्य जो इतिहास प्रदूषण की फैक्टरियाँ धड़ाधड़ गप्पें सप्लाई कर रही हैं। गुरुमुख हार गया, जग जीता। हम अपनी हार स्वीकार करते हैं।

सबसे बड़ी प्रामाणिक विषय सूची? यशस्वी विद्वान् लेखक तथा विचारक श्रीयुत सत्येन्द्रसिंह जी आर्य ने एक गभीर चिन्ताछोड़कर पं. भगवद्दत्त जी द्वारा सपादित सत्यार्थप्रकाश की विस्तृत विषय सूची की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘ऐसी सूची पण्डित जी की कोटि काविद्वान् ही बना सकता है। यह अति कठिन कार्य सबके बस की बात नहीं है।’’

यह सुनकर इस सेवक ने उन्हें बताया कि यह सूची पण्डित जी ने नहीं बनाई थी। यह कठिन कार्य श्री विजय कुमार आर्य जी (श्री अजय आर्य के पिताजी) की श्रद्धा व पुरुषार्थ का फल है। वह यह सुनकर दंग रह गये। तब उन्हें बताया गया कि विजय जी ने अपना नाम नहीं दिया था।हम ऐसे ही विचार विमर्श कर रहे थे कि विजय जी ने स्वयं हमें यह जानकारी दी थी । यह घटना हमने किसी पुस्तक में कभी दी भी थी। पण्डित जी के जीवन काल में हमें इसकी पूरी जानकारी थी।

तब श्री सत्येन्द्र जी को बताया कि सत्यार्थप्रकाश की प्रथम, प्रामाणिक और विस्तृत विषय-सूची लाहौर के दृढ़ आर्य डाक्टर देवकीनन्दन जी ने कभी बनाई थी। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम उर्दू अनुवाद में इसे पढ़कर व्यक्ति दंग रह जाता है। अब तो पं. उदयवीर जी शास्त्री की कोटि के विद्वान् ने उससे भी कहीं आगे की विषय सूची बना दी है।

जीवन की सुवास: स्वामी आत्मानन्द जी महाराज- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

जीवन की सुवासः स्वामी आत्मानन्द जी महाराज एक बार आर्यसमाज देहरादून के एक कार्यक्रम में आमन्त्रित किये गये। समाज के अधिकारियों को यह पता था कि उन्हें रक्तचाप का रोग है। समाज के सज्जनों ने स्वामी जी महाराज से बड़ी श्रद्धा भक्ति से कहा कि सब अतिथियों के भोजन की समुचित व्यवस्था कर दी गई है। आपको रक्तचाप रहता है। आपको वही भोजन मिलेगा जो डाक्टरों ने आपके लिये निर्धारित कर रखा है। अब आप बतायें डाक्टर ने आपको क्या लेने केलिए कहा है। वैसा ही भोजन बन जायेगा।

स्वामी जी ने कहा, मैं भी वही भोजन लूँगा जो अन्य सज्जन लेंगे। मेरे लिये पृथक् से कुछ न बनाया जाये। समाज के अधिकारियों ने बार-बार आग्रह पूर्वक स्वामी जी से अपनी बात कही। यह भी कहा कि हमें इसमें असुविधा नहीं । आप बता दें कि क्या बनाया जावे।

स्वामी जी ने क हा,‘‘मैं जानता हँॅू कि आपका समाज सपन्न है। आपमें सामर्थ्य है परन्तु मैं साधु हूँ। मुझे छोटे बड़े सब समाजों में जाना पड़ता है। यदि अपनी इच्छा के अनुसार भोजन की मांग करुंगा तो लोग क्या कहेंगे? यह साधु तो अपने ही ढंग का भोजन चाहता है। इससे क्या सन्देश जाायेगा? मैं भोजन तो वही लूँगा जो सब लेंगे। जो वस्तु अनुकूल नहीं होगी वह थोड़ी लूँगा।’’

इस घटना को आधी शतादी से भी अधिक समय हो गया। यह प्रेरक प्रसंग श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने सुनाया। वह इसके प्रत्यक्षदर्शी हैं। इस प्रसंग से एक आदर्श संन्यासी, एक महामुनि, यशस्वी दार्शनिक के जीवन की सुवास आती है।स्वामी जी ने देहरादून के आर्यों पर अपने जीवन की अमिट व गहरी छाप छोड़ी । सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले सब छोटे बड़े व्यक्तियों के लिये यह घटना एक बहुत बड़ी सीख है।

श्री तैलंग स्वामी की कहानीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

उ.प्र. से एक सुयोग्य आर्य युवक आशीष प्रताप सिंह ने चलभाष पर श्री तैलंग स्वामी की राष्ट्रधर्म में छपी कहानी पर प्रकाश डालने की मांग की। उन्हें बताया गया कि इस लेख पर परोपकारी में सप्रमाण विवेचन किया जा चुका है। श्रीयुत भावेश मेरजा गुजराती भाषा में एक पठनीय लेख में तैलंग स्वामी की कहानी की शव परीक्षा कर चुके हैं। संक्षेप से नये प्रमाणों के साथ उक्त गढ़न्त पर विचार किया जाता है। महर्षि दयानन्द जी ने वैदिक धर्म ध्वजा फहराने , एकेश्वरवाद के प्रचारार्थ, मूर्तिपूजा आदि अंधविश्वासों के उन्मूलन के लिये काशी पर सात बार चढ़ाई की। काशी शास्त्रार्थ में भले ही पण्डितों ने बहुत धाँधली मचाई थी परन्तु काशी के पण्डितों में एक हड़कप सा मच गया।

राष्ट्रधर्म के लेखानुसार तब तैलंग स्वामी का पत्र लेकर उनका कोई व्यक्ति ऋषि से मिला। पत्र में क्या था? यह राष्ट्रधर्म के लेखक को कतई ज्ञान नहीं। पत्र पढ़ते ही ऋषि दयानन्द ने काशी नगरी छोड़ दी। तब पण्ड़ितों की जान में जान आई। उस काल के पत्रों से यही प्रमाणित होता है। कोई भी ये प्रमाण देख ले।

प्रश्न यह है कि तैलंग स्वामी का पत्र पढ़ते ही महर्षि ने काशी से प्रस्थान कर दिया, लेखक ने किस आधार पर लिख दिया। साधु कहीं किसी नगर को चिपक कर तो रहता नहीं । यह कहानी आज तक किसी ने लिखी नहीं औरकही नहीं। तैलंग स्वामी की चर्चा उस काल के साहित्य व किसी पत्रिका में तो किसी ने की नहीं। काशी शास्त्रार्थ के पण्ड़ितों के जमघट में उसका नाम तक नहीं मिलता। ऋषि  इसके पश्चात् छह  बार काशी आये और हर बार शास्त्रार्थ की चुनौती देकर अपनी हुँकार सुनाते रहे। अन्तिम बार जब काशी आये तब श्री मुन्शी इन्द्रमणि जी को लिखा कि शास्त्रार्थ की चुनौती स्वीकार करके कोई भी पण्डित सामने नहीं आया। यह है इस कहानी की पोल पट्टी।

काशी शास्त्रार्थ के बारह वर्ष पश्चात् कोलकाता में पुनः देश भर के पौराणिक ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर ऋषि के विरोध में लाया गया । उस जमघट में भी तैलंग स्वामी का नाम नहीं मिलता।

काशी शास्त्रार्थ के छह वर्ष पश्चात् आर्यसमाज की स्थापना हुई। इस काल में जब ऋषि के साथ कोई संगठन नहीं था तब सागर पार के कई देशों में ऋषि पर लेख छपते रहे। ऐसे दस्तावेज हमने खोज लिये हैं। इन में महर्षि की पर्याप्त चर्चा है। काशी शास्त्रार्थ की भी चर्चा है। विरोध की भी चर्चा है परन्तु तैलङ्ग स्वामी का नामोलेख तक कहीं नहीं है। इससे प्रमाणित हो गया कि यह कहानी एक मनगढ़न्त गप्प है। दस्तावेजों में यह भी लिखा मिलता हे कि स्वामी दयानन्द काशी शास्त्रार्थ के उसी विषय (मूर्तिपूजा) पर शास्त्रार्थ करनेके लिए ललकार रहा है कि वेद के प्रमाण मूर्तिपूजा सिद्ध करने की किसी में हिमत हो तो आकर शास्त्रार्थ कर ले परन्तु देश भर के किसी भी विद्वान् में उसका सामना करने का साहस नहीं है।

प्रयाग से छपने वाले Tribune ट्रियून पत्र में भी एक लेा में ऐसा ही छपा मिलता है। इससे अधिक हम इस विषय में क्या लिखें। गप्पें गढ़-गढ़ कर कोई अपने अहं की तुष्टि करना चाहता है तो उसे कौन रोक सकता है?

‘आर्यसमाज के यशस्वी साहित्यकार प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

Jigyasu JI

आज चिन्तन करते समय हमारा ध्यान आर्य साहित्य के लेखन, सम्पादन, उर्दू से हिन्दी अनुवाद व प्रकाशन में क्रान्ति करने वाले आर्यजगत के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की ओर गया तो ध्यान आया कि वर्तमान में उर्दू, अरबी व फारसी का ज्ञान रखने वाले विद्वानों में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी न केवल अग्रणीय है अपितु उनके समान हमें उन जैसा दूसरा कोई विद्वान दिखाई ही नहीं देता। हम जानते हैं कि आर्यसमाज वेद और वैदिक साहित्य को प्रमाणित मानता है और वह सब केवल संस्कृत भाषा में ही है। उर्दू, फारसी व अरबी भाषा में आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व का कोई वैदिक धर्म विषयक प्रमाणिक साहित्य नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि महर्षि दयानन्द जी की कालजयी कृतियां हैं जिन्हें उन्होंने संस्कृत में लिखने की योग्यता होने पर भी देश व जाति के हित में आर्य भाषा हिन्दी में लिखा है। देश के स्वतन्त्र होने के बाद उर्दू का प्रभाव व पठन-पाठन कम होकर नाम मात्र का रह गया। शायद इसी कारण आर्यसमाज के अनेक विद्वानों ने उर्दू, अरबी व फारसी के अध्ययन को गौण समझा व माना है। उन्होंने अंग्रेजी पर तो पर्याप्त श्रम किया परन्तु उर्दू आदि की निश्चय ही उपेक्षा की। यह उपेक्षा इस कारण से हमें हानिकर प्रतीत होती है कि महर्षि दयानन्द के 30 अक्तूबर, सन् 1883 को मुक्तिधाम जाने के बाद पंजाब में उर्दू भाषा का अत्यधिक प्रभाव, पठन-पाठन, प्रचार व प्रसार रहा है। इस कारण हमारे अधिकांश विद्वान उर्दू, फारसी व अरबी भाषाओं के अच्छे जानकार रहे हैं और उन्होंने यहां की आर्य जनता के लाभार्थ उर्दू में ही प्रभूत आर्य साहित्य की रचना की है। पंजाब की उर्दू जानने व समझने वाली जनता के लिये हमारे इन आर्य विद्वानों सत्यार्थ प्रकाश सहित वेदों भाष्य के कुछ भाग का अनुवाद भी उर्दू में किया व कुछ अन्य मौलिक साहित्य जिनमें भजन आदि भी सम्मिलित हैं, का लेखन व प्रकाशन हुआ है। महर्षि दयानन्द जी के बाद जिन विद्वानों ने संस्कृत व हिन्दी के साथ-साथ उर्दू का साहित्य लेखन, सम्पादन व प्रचार-प्रसार आदि कार्यों में उपयोग किया उनमें हम स्वामी श्रद्धानन्द, रक्तसासक्षी पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महाशय कृष्ण, महात्मा नारायण स्वामी, मेहता जैमिनी, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, कुंवर सुखलाल जी, स्वामी अमरस्वामी, पं. शान्ति प्रकाश जी, मास्टर लक्ष्मण आर्य, प्रो. उत्तमचन्द शरर जी आदि विद्वानों को सम्मिलित कर सकते हैं। इन विद्वानों मे से अनेकों ने उर्दू के माध्यम से साहित्य की साधना व सेवा की है। हम यह भी जानते है कि आरम्भ में आर्य जगत के अनेक पत्र व पत्रिकायें यथा सद्धर्म प्रचारक, आर्य मुसाफिर, आर्य गजट, प्रकाश, मिलाप व प्रताप आदि उर्दू में ही प्रकाशित होते रहे हैं। अतः यह स्वाभाविक ही है कि आर्यसमाज की बहुमूल्य इतिहास विषयक सामग्री हमारे तत्कालीन उर्दू के पत्रों व ग्रन्थों में सुरक्षित व उपलब्ध है। जो विद्वान उर्दू नहीं जानता, वह उस दुर्लभ व महत्वपूर्ण सामग्री से लाभान्वित नहीं हो सकता। हमने जिन विद्वानों के नाम लिखे हैं, उसी परम्परा में हमारे ऋषि भक्त विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी हैं। आपने अपने उर्दू व फारसी आदि भाषा ज्ञान तथा तप व पुरूषार्थ पूर्वक साहित्यिक अनुंसधान कार्य कर दुर्लभ व महत्वपूर्ण आर्य साहित्य में सर्वाधिक वृद्धि की है और ऐसा कीर्तिमान बनाया है कि जिसे प्राप्त करना भविष्य के किसी विद्वान के लिए स्यात् सम्भव न हो।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने महर्षि दयानन्द और आर्य समाज से संबंधित समस्त उर्दू साहित्य, ग्रन्थ, पुस्तक व पत्र-पत्रिकाओं आदि का आलोडन कर बहुमूल्य साहित्य प्रदान कर आर्य जगत की जो सेवा की है उससे उन्होंने आर्यसमाज व आर्य जाति के इतिहास में  अपना अमर स्थान बना लिया है। उनकी सेवाओं से आर्यसमाज धन्य हुआ है। हम आर्यसमाज के समस्त विद्वानों व प्रचारकों का आवाह्न करते हैं कि वह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की साहित्य सेवाओं का उचित मूल्यांकन करें और उनका सार्वजनिक सम्मान न सही, एक पत्र लिखकर ही उन्हें कहें कि आपने साहित्य के माध्यम से जो अपूर्व व प्रभूत सेवा की है उसके लिए आर्यसमाज और हम आपके आभारी हैं और आपके व आपके परिवार के लिए हार्दिक शुभकामनायें व्यक्त करते हैं। हमें लगता है कि यह कार्य अत्यन्त आवश्यक है जो प्रत्येक आर्य समाज के विद्वान व सदस्य को अपने सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अवश्य करना चाहिये, ऐसा हम अनुभव करते हैं। यदि श्री जिज्ञासु जी किसी कारण आर्यसमाज को न मिले होते तो आर्यसमाज उनके द्वारा किये गये इन सभी महत्वपूर्ण कार्यों से वंचित रहता। इसके लिए ईश्वर का कोटिशः धन्यवाद है।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी वर्तमान के अन्य आर्य विद्वानों से काफी कुछ भिन्न प्रकार का व्यक्तित्व रखते हैं। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सर्वात्मा समर्पित हैं। ईश्वर और वेद भक्ति, महर्षि दयानन्द का शिक्षामय जीवन, दयानन्दजी सहित पूर्व ऋषियों व विद्वानों का साहित्य और आर्य महापुरूषों के प्रेरणाप्रद जीवन ही उनकी शक्ति का मुख्य आधार है। इससे प्राप्त शक्ति से ही उन्होंने आर्यसमाज में अपूर्व व प्रभूत साहित्य सृजन का कार्य करके नया कीर्तिमान बनाया है। उन्होंने जितनी स्वलिखित, अनुदित व सम्पादित साहित्यिक सामग्री प्रदान की है, उससे वह वर्तमान के आर्यजगत के सभी विद्वानों में प्रथम स्थान पर खड़े दिखाई देते हैं। विषय की भिन्नताओं के कारण सभी विद्वानों का अपना-अपना महत्व हम समझते हैं परन्तु एक स्कूल के शिक्षक के रूप में सेवा व पारिवारिक दायित्व के साथ वेद व आर्यसमाज के प्रचार, लेखन, अनुसंधान व अनुवाद आदि कार्यों को साथ-साथ निभाते हुए साहित्य का जो विशाल भण्डार हमारे सामने प्रस्तुत किया है, वह आने वाली पीढि़यों के मार्गदर्शन और प्रेरणा का स्रोत बनेगा। आरम्भ से ही हमारा यह विचार रहा है कि वैदिक विद्वान किसी समूह विशेष का नहीं होता। विद्वान सर्वत्र पूज्यते के अनुसार विद्वान सबका पूज्य होता है। इसी के आधार पर हम प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी को भी आर्यसमाज की एक महान विभूति और समाज के सभी अनुयायियों व विद्वानों का पूज्य मानते हैं। हमने यदा-कदा यह भी अनुभव किया है कि कुछ विद्वानों में एक दूसरे के प्रति राग व द्वेष होता है। यह उचित नहीं है। हम महर्षि दयानन्द के शिष्य हैं और हमें उनका ही अनुकरण करना चाहिये। राग, द्वेष व पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सभी विद्वानों का अन्य सभी विद्वानों के प्रति सम्मान, आदर, प्रशंसा, वन्दना का भाव होना चाहिये तथा प्रत्येक को परस्पर पे्ररक व सहयोगी होना चाहिये। हम जिज्ञासु जी को ऐसा ही मानते हैं और आशा करते हैं कि महर्षि दयानन्द के प्रति समर्पित विद्वानों के प्रति वह व सभी विद्वान ऐसा ही भाव रखते हैं व रखेंगे।

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु सम्प्रति 84 वर्ष की वय पूरी कर वयोवृद्ध हैं फिर भी वह एक युवक की तरह लेखन, अनुवाद, सम्पादन व प्रचार कार्यों में लगे हुए हैं। हमें जानकारी मिली है कि सम्प्रति वह मेहता जैमिनी जी की उर्दू पुस्तक गोमाता प्राणादाता का अन्तिम ईक्ष्यवाचन कर रहे हैं। यह ग्रन्थ विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, नईसड़क, दिल्ली से प्रकाशित होकर कुछ ही दिनों, श्रावणी पर्व अथवा कृष्णजन्माष्टमी पर्व पर उपलब्ध होने की सम्भावना है। जिज्ञासु जी ने इस उर्दू पुस्तक का हिन्दी में अनुवाद कर गोमाता के महत्व पर उपलब्ध अन्य नवीन सामग्री का समावेश भी उसमें कर दिया है। इस पुस्तक के अनुवाद व प्रकाशन की प्रेरणा हमें प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु लिखित व प्रकाशित मेहता जैमिनी के जीवनचरित को पढ़ते हुए हुई थी जिसके लिए हमने प्रकाशक श्री अजय आर्य जी से निवेदन किया था। जिज्ञासु जी सतत साहित्य के अनुसंधान तथा ऊहापोह में लगे रहते हैं। महर्षि दयानन्द के एक भक्त ठाकुर मुकुन्द सिंह द्वारा सन् 1890 के लगभग उर्दू में प्रकाशित एक 200 पृष्ठीय दुर्लभ ग्रन्थ को भी उन्होंने अलीगढ़ के आर्य बन्धुओं की सहायता से प्राप्त कर लिया है। इस पुस्तक में एक पूरा अध्याय गोमाता के महत्व पर है। इसके अनुवाद कार्य को आप आरम्भ करने वाले हैं। एक आर्यबन्धु द्वारा महाराणा रणजीत सिंह जी पर लिखित पुस्तक भी अपने प्राप्त की है। इस आर्यबन्धु ने अपनी 18 वर्ष की आयु में महाराणा रणजीत सिंह के दर्शन किये थे। इस ग्रन्थ व इसमें विशेषकर आर्यसमाज के लिए लाभप्रद स्थलों के अनुवाद व प्रकाशन की भी आपकी योजना है। इसके साथ ही आप आचार्य वेदपाल जी द्वारा सम्पादित महर्षि दयानन्द के पत्र व विज्ञापनों के अद्यतन संशोधित प्रकाशनाधीन संस्करण के प्रूफ संशोधन व उन पत्रों को महर्षि के जीवन चरित्रों आदि से मिलानकर उसे पाठकों के लिए अधिकाधिक उपयोगी बनाने के कार्य में भी जुटे हैं। इससे पूर्व यही कार्य स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. भगवद्दत्त जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी तथा श्री मामराज जी ने भी किया है। हम यह भी कहना चाहेंगे कि परोपकारिणी सभा को इसका प्रकाशन करते समय इस बात पर भी ध्यान देना चाहिये कि इससे रामलाल कपूर ट्रस्ट के हितों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े जिसने महर्षि दयानन्द के पत्र-व्यवहार का प्रकाशन चार भागों में किया हुआ है।

प्रा. जिज्ञासु जी पाक्षिक पत्र परोपकारी, अजमेर में कुछ तड़पकुछ झड़प नाम से स्तम्भ लिखते हैं। इस शीर्षक से आप प्रत्येक अंक में कुछ प्रमुख ऐतिहासिक, विलुप्त, दुर्लभ व नई जानकारी से पाठको को अवगत कराते हैं। इस बार के अंक में आपने बताया है कि महर्षि दयानन्द अंग्रेजी न्यायालय का अपमान करने वाले पहले भारतीय थे। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी सन् 1877 के सितम्बरअक्टूबर मास में जालंधर पधारे थे। तब आपने एक सार्वजनिक सभा में अपनी निर्भीक वाणी से दुखिया देश का दुखड़ा रखते हुए अंग्रेजी राज के अन्याय, पक्षपात तथा उत्पीड़न को इन शब्दों में व्यक्त किया था-‘‘यदि कोई गोरा अथवा अंग्रेज किसी देशी (भारतीय) की हत्या कर दे तथा वह (हत्यारा) न्यायालय में कह दे कि मैंने मद्यपान कर रखा था तो उसको छोड़ देते हैं। इसी लेख से यह भी ज्ञात होता है कि आपकी दो नई पुस्तकें इतिहास की साक्षी, महर्षि दयानन्द सरस्वती और पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी के सम्बन्ध और प्रसाद’ (उर्दू के महाकवि प्रो. तिलोकचन्दमहरूमके अपने एक प्रसिद्ध शिष्य महाकविमहाशय जैमिनीशरशार को लिखे पत्रों का संग्रह) प्रकाशित हुई हैं। परोपकारी के अगस्त-द्वितीय अंक में यह महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गई है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा महाराष्ट्र के सूपा में गुरूकुल स्थापित किया गया था। विगत माह प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु अपनी यात्रा में यहां पधारे। इस गुरूकुल, सूपा में कभी महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आकर रहे थे। यह कुछ संक्षिप्त उदाहरण हमने दिये हैं। पत्रिका में उनके दोनों लेख अतीव महत्वपूर्ण हैं। शायद अन्य विद्वानों से ऐसे लेखों की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

जिज्ञासु जी में आर्यसमाज के कार्यों के लिये जो दीवानापन और जुनून है, उससे जुड़ी घटना को प्रस्तुत कर हम लेख को विराम देंगे। जिज्ञासु जी का विगत 11 सितम्बर, 2014 को डा. धर्मवीर जी आदि के साथ केरल की प्रचार यात्रा पर जाने का कार्यक्रम था। 9 सितम्बर को आप कुछ विचारों में खोए हुए अबोहर में पैदल कहीं जा रहे थे। वहीं आसपास कुछ लोग झगड़ रहे थे। अचानक एक लकड़ी का टुकड़ा तेज गति से आकर आपके सिर से टकराया जिससे रक्त प्रवाह होने लगा। घाव काफी गहरा था। डाक्टरों ने आठ टांके लगाकर स्वास्थ्य लाभार्थ आपको पूर्ण विश्राम की सलाह दी। इस स्थिति में भी आप घर पर रूके नहीं और अगले दिन 10 सितम्बर को दिल्ली आ गये जबकि आपकी धर्मपत्नी जी ने आपको बहुंत समझाया। 14 सितम्बर, 2015 को आपने केरल के कार्यक्रम में भाग लिया। केरल में चिकित्सकों ने आपकी चोट की मरहम पट्टी की और इस स्थिति में यात्रा करने को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया। इस पर भी आप केरल से जोधपुर होते अबोहर वापिस लौटे और लेखन व प्रवचन आदि का कार्य भी निरन्तर करते रहे। यह महर्षि व पं. लेखराम जी वाला जज्बा आपमें है जिससे आपकी ईश्वर-वेद व ऋषि भक्ति की झलक मिलती है। सभी ऋषिभक्तों को जिज्ञासु जी के जीवन की इस घटना से प्रेरणा लेनी चाहिये। इस वर्ष के आरम्भ में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी श्री लक्ष्मण जिज्ञासु, गाजियाबाद के पुत्र के नामकरण संस्कार में सम्मिलित हुए थे। अनेक अन्य आर्य विद्वान भी इस आयोजन में उपस्थित थे। इस अवसर पर डा. धर्मवीर जी ने जिज्ञासु जी को आर्यसमाज के भीष्म पितामह कहकर सम्बोधित किया। जिज्ञासु जी के लिए प्रयुक्त यह शब्द व उपधि उचित ही है। उन्होंने जीवन भर पं. लेखराम व अन्य प्रसिद्ध विद्वानों की परम्परा का निर्वाह किया है। उनके उत्तराधिकारी की आर्यसमाज को प्रतिक्षा है। ईश्वर से हमारी विनती है कि वह जिज्ञासु जी को स्वस्थ रखें और वह दीर्घायु हों तथा इसी उत्साह से अनुसंधान, लेखन, सम्पादन, अनुवाद व प्रकाशन का कार्य करते हुए ऋषि ऋण चुकाते रहे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

गूञ्जा संसार सारा, स्वामी तेरा जयकार – राजेन्द्र जिज्ञासु

गूञ्जा संसार सारा, स्वामी तेरा जयकार :- परोपकारी के मई पास के द्वितीय अङ्क में इस स्तभ में अमरीका से प्रकाशित बाइबल के नये संस्करण के कुछ अवतरण देकर महर्षि की विश्वव्यापी दिग्विजय की चर्चा की गई थी। कुछ लोग समाचार पत्रों में अपने प्रचार के लिए भ्रूण हत्या समेलन व पद्यात्रायें निकालते हैं। उनको सैद्धान्तिक दिग्विजय व वैचारिक क्रान्ति में कोई रूचि नहीं। आज उसी क्रम को आगे चलाते हैं। महर्षि ने अमैथुनी सृष्टि, आदि सृष्टि में अनेक युवा स्त्री पुरुषों की उत्पत्ति का जब सिद्धान्त संसार के सामने रखा तो ऋषि का उपहास उड़ाया गया। लोग आर्यों पर हँसते भी थे और इस नियम पर शास्त्रार्थ भी किया करते थे।

अभी कुछ सप्ताह पूर्व टी.वी. में एक मौलाना जी ने कहा था कि आदम हमारे पैगबर थे। आदम व हौआ माई से मानव जाति की उत्पत्ति हुई। अब पाठकों को यह ध्यान देना चाहिये कि अब तक बाइबल में यह पढ़ते आये थे, And God said, Let us make man in our own image.’’ अर्थात् परमात्मा ने कहा कि अपने सदृश मनुष्य को बनाते हैं। तब एक पुरुष (आदम) को बनाया गया। अब अमरीका से छपे बाइबल में हम पढ़ते हैं, “And god said, Let us make Human Beings in our likeness.’’ अर्थ अपने सदृश्य मनुष्यों का सृजन करते हैं। अब यहाँ अनेक स्त्री पुरुषों की उत्पत्ति की घोषणा हो रही है। फिर आगे अगली आयत में भी इस कथन को दोहराते हुए लिखा है,  ,  “ So God created human beings in his own image, in the image of god He created them.’’ यहाँ भी अनेक स्त्री पुरुषों को बनाने की पुष्टि की गई है। बाइबल में यह पाठ भेदवन्दनीय है। यह स्वागत योग्य है। आदि सृष्टि के ये मनुष्य भ्रमण करते थे। भाग दौड़ करते थे। फल अन्न सब वनस्पतियों का सेवन करते थे। ये सब कार्य शिशु नहीं जवान ही कर सकते हैं। नंगे-नंगे शिशुओं को लज्जा नहीं आती। लज्जा जवानों को आती है तब इन नंगे स्त्री पुरुषों ने वृक्षों की छाल से अपनी नग्नता को ढका।

आर्यों। पूरे विश्व में ऋषि की इस दिग्विजय का जोर शोर से प्रचार करो। पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, पं. रामचन्द्र देहलवी के वंश के दिवंगत विद्वान् आज होते तो मैं एक-एक के चरण स्पर्श करके उन्हें बधाई देता। यह मूर्तिपूजक मण्डल, ऋषियों की विजय पताका फहराने वाले हमारे शास्त्रार्थ महारथियों की उपलधियाँ क्या जाने। यह स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी भाषण का ही ढोल बजाना जानता है। सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में है । उसे यह क्या समझे?

गुजरात प्रचार यात्रा का सन्देश : डॉ धर्मवीर

कोई भी किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं होता। हमारी यह गुजरात यात्रा भी निष्फल नहीं रही। यात्रा का मूल उद्देश्य था ऋषि दयानन्द की यात्रा का स्मरण और ऋषि के विचारों को नई पीढ़ी तक पहुँचाना। संसार में मनुष्य अपने लोगों की और अपने जैसे लोगों की इच्छा रखता है। प्रथम अपनापन जन्म से आता है, माता-पिता बच्चे को अपना समझते हैं, बच्चा माता-पिता को अपना समझता है। परिवार के विस्तार में भाई-बहन के बाद सबन्धी आते हैं, जिनको मनुष्य अपना मानता है। इसके बाद इससे बड़ा दायरा जाति के रूप में आता है। जन्म से अपनापन यहीं तक रहता है। इसके बाद अपनेपन के बहुत क्षेत्र हैं। क्षेत्र, भाषा, धर्म, राजनीति, व्यापार, व्यवसाय में जहाँ-जहाँ समानता है, मनुष्य उस-उसके साथ अपनापन जोड़ता है। इनकी अपनेपन की सीमा होती है। इस समानता में विचारों की समानता सबसे बड़ा वर्ग बनाती है। इन्हीं विचारों के आधार पर मनुष्य का संगठन बनता है। इन संगठन, संस्था, परिवारों को हम अपना और दूसरे का मानकर व्यवहार करते हैं। जब मनुष्य आज के जीवन से परे के जीवन की बात करता है तो ऐसे विचारों के संगठन को हम धर्म, मत, सप्रदायों की श्रेणी में लेते हैं। सभी संस्थाओं में विचारों के आधार पर बनने वाली संस्थाओं का रूप व्यापक होता है।

जन्मगत संस्थायें तो रक्त सबन्धों से बंधी होती हैं, उनके व्यापक होने में लबे समय की आवश्यकता होती है। क्षेत्रीय या क्षेत्रीयता, भाषा, कार्य पर आधारित संगठनाी कार्य क्षेत्र तक सीमित रहते हैं। विचारों पर आधारित संगठन, संस्थायें, अपने भौगोलिक परिवेश से बाहर भी जा सकती हैं। हम देखते हैं कि जो इस्लाम अरब में उत्पन्न हुआ, वो आज संसार में बड़े भाग में फैल गया है। यही बात हम ईसाइयत के विषय में घटित होती देखते हैं। येरुशलम से विश्व के अनेक देशों की यात्रा ईसाइयत ने की है। भारत में उत्पन्न बौद्ध धर्म भारत से पूर्व के देशों चीन, जापान आदि में आज भारत से भी अधिक लोगों का धर्म है। जैन मत भारत से बाहर तो बहुत नहीं है परन्तु भारत में बड़ी संया में इस मत के मानने वाले लोग हैं। इस प्रकार अपनेपन का सबसे अच्छा आधार है- समान विचार का होना।

जैसे जन्मगत सबन्ध प्राकृतिक होने के साथ हमारी सुरक्षा और साधनों का आधार होते हैं। जब तक ये आधार रहता है, ये सबन्ध हमें स्वीकार्य होते हैं। जैसे ही हमें अपनी सुरक्षा और सपत्ति पर छिनने, नष्ट होने का भय लगने लगता है, तब ये सबन्ध हमारे लिए व्यर्थ हो जाते हैं। अतएव देश में जितने विवाद और झगड़े होते हैं वे अधिकांश परस्पर सबन्धियों में होते हैं। उनमें भी एक परिवार में, एक माता-पिता से उत्पन्न भाई-बहनों में सबसे अधिक विवाद देखे जाते हैं। जब हमारा परिवार एक नहीं रह सकता तो गोत्र, जाति की एकता की बात करना व्यर्थ है। सभी तभी तक एक हैं जब तक सबके स्वार्थ सिद्ध होते हैं। स्वार्थ हानि होने पर कोई किसी के साथ रहना नहीं चाहता।

जन्मगत, सबन्धगत और जातिगत संस्थाओं की यह स्थिति है, वहाँ विचारगत सबन्धों का भी यही हाल है। अनेक विचार हैं तो भिन्नाी हैं। भिन्न हैं तो परस्पर विरोध भी होगा। एक मत दूसरे मत का विरोध करता है तो स्वार्थ के अतिरिक्त कोई कारण नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में विचार का आधार भी सपूर्ण रूप से अपनेपन का आधार नहीं बनता। एक विचार के लोग दूसरे विचार वालों को विरोधी और शत्रु मानकर व्यवहार करते हैं, तब इसके विस्तार की भी सीमा है। ऐसे विचार कितने भी बढ़ जायें, उनमें भी स्वार्थवश संघर्ष सदा ही होते रहते हैं, होते रहेंगे। प्रश्न उठता है क्या कोई ऐसा विचार भी हो सकता है जिसमें सबका समावेश किया जा सकता है? इसके लिये हमको अपना पिछला इतिहास देखना होगा, वही हमारी समस्या का समाधान कर सकता है।

इतिहास में क्या कोई ऐसा विचार है जिसके स्वीकार करने से सबका कल्याण हो सकता है। क्या सबका विचार एक ही हो सकता है? इतिहास में निर्णायक स्थिति ऐसी हैं जहाँ पर विचार को अन्तिम रूप से अपना आधार बनाया गया है, वहाँ भी विचार को दो भागों में विभक्त किया गया। जो सबके कल्याण की कामना करता है। जिसके स्वीकार करने से सबका भला होना निश्चित है। दूसरा विचार है जो अपना भला करता है, उसको दूसरे के भले-बुरे की चिन्ता नहीं है। इस प्रकार संसार में दो विचार हैं- अच्छे या बुरे। बुरे विचार बुरे इसलिये होते हैं कि अपना भला करने में दूसरे का बुरा हो जाता है या करना पड़ता है। भले विचार की कसौटी है, अपना भला उसे अन्यों की भलाई में लगता है। अच्छे और बुरे धर्म की यही कसौटी है। बुरे विचारों का प्रचार नहीं करना पड़ता, उन्हें सिखाना नहीं पड़ता, बताने की भी आवश्यकता नहीं होती। इसके विपरीत अच्छे विचारों को निरन्तर बताना पड़ता है, सबको बताना पड़ता है।

सब मत-मतान्तरों के रहते ऋषि दयानन्द को क्या आवश्यकता पड़ी कि पुराने प्रचलित विचारों को छोड़कर उन्होंने लोगों को नये विचारों को स्वीकार करने के लिये प्रेरित किया। पहली बात ऋषि दयानन्द के विचार प्रचलित विचारों से न केवल भिन्न थे अपितु नितान्त विरोधी थे। ऐसी परिस्थिति में या तो प्रचलित विचार अच्छे थे तो स्वामी दयानन्द के विचार गलत होने चाहिए। यदि ऋषि दयानन्द के विचार ठीक हैं तो दूसरे मत-पन्थों के विचारों को मिथ्या या अनुचित कहने का साहस करना चाहिए। ऋषि दयानन्द ने अपने विचारों को सत्य माना और प्रचलित विचारों को मिथ्या घोषित किया। इस घोषणा को हम सत्य कैसे मानें, कैसे स्वीकार करें कि आज प्रचलित मत-पन्थ मिथ्या हैं? यह बात हमारे कहने मात्र से तो मान्य नहीं होगी, न केवल प्रमाण देने मात्र से बात बन सकती है। शास्त्र का प्रमाण तो केवल उसको स्वीकार्य होता है जो शास्त्र को प्रमाण कोटि में मानता हो। जो शास्त्र को स्वीकार ही नहीं करता उसे मिथ्या कहता है ऐसा व्यक्ति कैसे कहेगा कि कौन सा विचार ठीक है और कौन सा विचार गलत है?

हम भली प्रकार से समझते हैं कि संसार में अच्छे और बुरे दो ही प्रकार के विचार हैं, इनसे दो ही कार्य सिद्ध होते हैं, स्वार्थ और परोपकार यही एक ऐसी कसौटी है जिसे पढ़ा या अनपढ़, सभी मनुष्य जान सकते हैं कि दुनिया में क्या अच्छा है या क्या बुरा है? धर्म, अधर्म इस अच्छे-बुरे का पर्यायवाची ही तो है। इसी कारण जो अच्छा है, उसे सत्य और उसे ही धर्म कहा जाता है। इसके विपरीत जो बुरा है, असत्य है, वही अधर्म है। स्वामी दयानन्द धर्म की परिभाषा ही यह करते हैं, जिस कार्य या जिस विचार को सभी अच्छा मानते हैं, वही धर्म है। जिस विचार को कुछ लोग अच्छा मानते हैं, ठीक मानते हैं और बाकी ठीक नहीं मानते हैं, वह धर्म न हीं हो सकता। यही कसौटी ऋषि दयानन्द और उनके धर्म पर भी लागू होती है।

संसार के जितने भी धर्म हैं और जितने भी धर्म गुरु हैं, अपने विचार को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, वे सर्वोच्च व्यक्ति हैं परन्तु ऋषि दयानन्द धर्म को अपने कथन से न जोड़कर धर्म की कसौटी बताते हैं, जो बात कसौटी पर खरी उतरती है, वही धर्म है। इससे धर्म-अधर्म की परीक्षा करने का अधिकार सब धार्मिक लोगों को मिल जाता है। धर्म की परीक्षा करने के लिए धर्म जानने का भी अधिकार मिलता है। यही मौलिक अन्तर है ऋषि दयानन्द के धर्म में और अन्य धर्म गुरुओं के बताये चलाये धर्म में। कोई भी धर्म गुरु अपने शिष्यों को न गुरु की परीक्षा करने का अधिकार देता है न उसके विचारों की परीक्षा करने का ही अधिकार देता है।

संसार के मनुष्यों में बड़ा बनने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है। यही भाव गुरु में भी होता है। गुरु शद ही बड़े और भारी का पर्यायवाचक है। संसार में सभी बड़े बनने की इच्छा वाले लोग जब बड़ा बनने का प्रयास करते हैं तो उनके पास एक ही उपाय होता है, वे बड़े बन सकते हैं, जब कोई उनके पास छोटा हो। छोटा-बड़ा शद सापेक्ष है, जब तक कोई छोटा न हो, कोई बड़ा नहीं बन सकता। पशु में भी बड़ा-छोटा होता है। वहाँ बल से ही बड़ा बना जाता है, दुर्बल को भगाकर-मारकर जानवर बड़ा शक्तिशाली अधिकार सपन्न बनता है। उसी प्रकार मनुष्य भी बड़ा बनने के लिए दूसरे को कमजोर-दुर्बल बनाने का यत्न करता है। कोई दुष्ट व्यक्ति अपने को बड़ा सिद्ध करता है, तो अपनी दुष्टता से सबको पीड़ित करता है। वह सब को दुःखी कर सकता है, इसलिए बड़ा है। धनवान दूसरों के धन को छीनकर अपने पास अधिक धन संग्रह कर लेता है, तभी सबसे बड़ा धनी बन जाता है। बलवान भी सबको पराजित करके स्वयं सबसे बड़ा, स्वयं को सबसे बड़ा बलवान घोषित करता है।

मनुष्यों की यही प्रवृत्ति गुरु बनने वाले लोगों में है। ऐसे गुरु अपने शिष्यों में अपने को बड़ा सिद्ध करने के लिये, अपने ज्ञान को अन्तिम घोषित करते हैं। अपने शिष्यों को गुरु की या गुरु के विचारों की परीक्षा करने का अधिकार नहीं देते। जो कुछ ईसा ने कहा है- उसको चुनौती देने की सोचना भी गलत है। इस्लाम के संस्थापक मोहमद साहब का तो कहना ही क्या। वहाँ रसूल के बिना खुदा का मूल्य ही कुछ नहीं है। वे खुदा की बन्दगी में अपनी बन्दगी भी अपने अनुयायियों से कराते हैं। उन्होंने अपने भक्तों की बुद्धि पर अंकुश लगाया हुआ है। मोहमद इस्लाम के अनुयायी को सोचने का अधिकार नहीं देते। जो कुरान में कहा गया वही सच और अन्तिम है। जो मोहमद ने किया वही आदर्श भी है। आज संसार में ईसा के अनुयायियों की संया प्रथम स्थान पर और मोहमद के अनुयाइयों की दूसरे स्थान पर है। ये दोनों धर्म गुरु धर्म संसार के सबसे बड़े धर्म गुरु हैं परन्तु इनको बड़ा बनने के लिये उन्हें अपने भक्तों, अनुयायियों को, शिष्यों को छोटा बनाना पड़ा तब ये गुरु बड़े बन सके। आज जो कुछ उपद्रव संसार में देखा जा रहा है, उसका कारण है मनुष्य के सोचने पर, उसकी बुद्धि पर अंकुश लगाना। महाभारत के बाद में भारत के धर्म गुरुओं का भी यही हाल है। किसी भी मत-सप्रदाय में गुरु को बड़ा बनने के लिए शिष्यों को छोटा, मूर्ख, अज्ञानी रखना अनिवार्य है। कोई धर्म गुरु नहीं कहता- मेरी बात पर विचार करके स्वीकार करना। मेरे से अच्छी बात कहीं और मिल जाये तो उसे भी मान लेना। वहाँ तो गुरु जी ने कहा वह अन्तिम सत्य है, उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

ऋषि दयानन्द इसके अपवाद हैं। वे अपने अनुयायियों को अपने धर्म की परीक्षा करने का अधिकार देते हैं। वे अपने विचारों की परीक्षा करने का निर्देश देते हैं। कैसे परीक्षा करनी चाहिए? परीक्षा करने का प्रकार भी अपने ग्रन्थों में दिया है। स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं तो उसके प्रतिपादित करने के लिए परीक्षा का उपाय भी बतलाते हैं। सभी धर्मों के बारे में जानना, सबकी अच्छाई-बुराई का वर्णन करना और वैदिक धर्म से उसकी तुलना करना तब निर्णय देना। इससे श्रेष्ठ और वैज्ञानिक विधि अच्छे-बुरे को समझने की दूसरी नहीं हो सकती। यहाँ गुरु ने कहा है इसलिये कोई बात स्वीकारनी है, यह आदेश नहीं है, गुरु ने ठीक बात कही है इसलिये मानने योग्य है, यह मानने वाले का निर्णय है, उसका विवेकाधिकार है। कोई मनुष्य गुरु की परीक्षा करेगा, कैसे करेगा, उसको पहले जानना पड़ेगा। विवेक करने की योग्यता अर्जित करनी पड़ेगी। यह योग्यता कौन देगा? शिष्य में यह योग्यता कैसे आयेगी? इसका उत्तर है- यह योग्यता गुरु ही देगा, गुरु शिष्य को ज्ञानवान बनायेगा, तभी वह विवेक करने योग्य बन सकेगा।

स्वामी जी ने मनुष्य को बुद्धिमान बनाने के लिये विवेक को कुण्ठित करने वाली अज्ञान बढ़ाने वाली बातों से जनता को अवगत कराया। ज्ञान में आर्ष-अनार्ष भेद बताया, वेदाध्ययन का अधिकार दिया। समाज में जन्मगत जाति-पांति, ऊँच नीच, छुआछूत, बालविवाह जैसी कुप्रथाओं का खण्डन किया। अनाथ तथा अवैध समझी जाने वाली सन्तानों को सुरक्षा, समान, समानता का अधिकार दिया। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, गुरुडम, गुरु को ईश्वर मानने जैसी परपराओं का खण्डन किया। अपने देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति का गौरव स्थापित किया। गौरक्षा, कृषि, स्वराज्य, स्वतन्त्रता आदि राष्ट्रीय सन्दर्भों से देश की जनता को जाग्रत कराया।

हम देखते हैं आज के गुरु शिष्यों को मूर्ख बनाकर स्वयं बुद्धिमान् बनते हैं। शिष्यों को अज्ञानी रख कर अपने ज्ञान का डंका बजाते हैं। ऋषि दयानन्द इस युग के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो सबको अधिकार सपन्न बनाकर अधिकारी बनते हैं। सब शिष्यों को ज्ञानी बनाकर गुरु बनने में विश्वास करते हैं। अपने अनुयायी को परीक्षा का उपाय बताकर परीक्षा करने का अधिकार देकर उत्तीर्ण होने वाले गुरु हैं। स्वामी दयानन्द का बड़प्पन औरों से इसी अर्थ में भिन्न है। लोग दूसरे की आँख फोड़कर लाठी देने का पुण्य कमाते हैं, ऋषि दयानन्द अन्धे को आँख देकर उसकी लाठी छुड़वा देते हैं। इस प्रकार बड़ा बनने के लिए एक प्रकार है, दूसरों को छोटा बनाना है। दूसरा प्रकार सबको बड़ा बनाकर बड़ा बनना। पहले प्रकार में मनुष्य स्वयं को बड़ा बनाता है, दूसरे प्रकार में उसे दूसरे बड़ा कहते हैं। आपको लगता है तो आप उसे बड़ा मानिये, नहीं लगता तो आप स्वतन्त्र हैं। परन्तु बड़ा बनाने के पहले उपाय में शिष्य स्वतन्त्र नहीं बाध्य हैं।

ऋषि दयानन्द ने सबको वेदाध्ययन का अधिकार देकर सबको बड़ा बनने का मार्ग प्रशस्त किया यही उनके बड़ा होने का कारण है। जो लोग अपने शिष्यों को मूर्ख रखते हैं, वे कालान्तर में स्वयं मूर्ख बन जाते हैं और समाज और राष्ट्र को भी मूर्ख बना देते हैं, जैसा आज भारत में और सारे विश्व में हो रहा है। आज की परिस्थिति में ऋषि दयानन्द के विचारों की उपयोगिता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, बढ़ती ही रहेगी, घटेगी नहीं। इन विचारों से या तो स्वार्थी द्वेष करते हैं जिनके पाखण्ड पर चोट पड़ने से उनकी आजीविका नष्ट होती है, अथवा अज्ञानी लोग जिनको इन विचारों के महत्त्व का पता नहीं है, वे ही ऐसे प्रलाप कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द तो शास्त्र की बात कहते हैं। शास्त्र की सुरक्षा, ज्ञान की वृद्धि, भक्तों-शिष्यों को ज्ञानी बनाकर ही हो सकता है। ज्ञान की वृद्धि शास्त्र जानने वालों के निर्माण और उनकी संया में वृद्धि से ही हो सकती है। अतएव कहा गया है –

ब्रह्म आयुष्मत् तद् ब्राह्मणैरायुष्मत्।

– धर्मवीर

 

स्वराज्य वा स्वतन्त्रता के प्रथम मन्त्र-दाता महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत काल के बाद देश में अज्ञानता के कारण अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न होने के कारण देश निर्बल हुआ जिस कारण वह आंशिक रूप से पराधीन हो गया। पराधीनता का शिंकजा दिन प्रतिदिन अपनी जकड़ बढ़ाता गया। देश अशिक्षा, अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व सामाजिक विषमताओं से ग्रस्त होने के कारण पराधीनता का प्रतिकार करने में असमर्थ था। सौभाग्य से सन् 1825 में गुजरात में महर्षि दयानन्द का जन्म होता है। लगभग 22 वर्ष तक अपने माता-पिता की छत्र-छाया में उन्होंने संस्कृत भाषा व शास्त्रीय विषयों का ज्ञान प्राप्त किया। इससे उनकी तृप्ति नहीं हुई। ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान और मृत्यु पर विजय कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके उपाय ढूंढने के लिये वह घर से निकल गये और लगभग 13 वर्षों तक धार्मिक विद्वानों व योगियों आदि की संगति तथा धर्म ग्रन्थों का अनुसंधान करते रहे। इसी बीच सन् 1857 ईस्वी का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम भी हुआ जिसे अंग्रेजों ने कुचल दिया। इसमें महर्षि दयानन्द की सक्रिय भूमिका होने का अनुमान है परन्तु इससे सम्बन्धित जानकारियां उन्होंने विदेशी राज्य होने के कारण न तो बताई और न ही उनका किसी ने अनुसंधान किया। इसके बाद सन् 1860 में मथुरा में दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द के वह अन्तेवासी शिष्य बने और उनसे आर्ष संस्कृत व्याकरण और वेदादि शास्त्रों का अध्ययन किया। गुरु व शिष्य धार्मिक अन्धविश्वासों, देश के स्वर्णिम इतिहास व पराधीनता आदि विषयों पर परस्पर चर्चा किये करते थे। अध्ययन पूरा करने पर गुरु ने स्वामी दयानन्द को देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, सामाजिक असमानता व विषमता दूर करने का आग्रह किया। स्वामी दयानन्द जी ने गुरु को इस कार्य को प्राणपण से करने का वचन किया और सन् 1863 में इस कार्य को आरम्भ कर दिया।

स्वामी जी सन् 1874 में काशी में यथार्थ वेदोक्त धर्म का प्रचार, समाज सुधार के कार्य व अन्धविश्वासों का खण्डन कर रहे थे। उनके एक भक्त राजा जयकृष्ण दास ने उन्हें अपने समस्त विचारों, वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का एक ग्रन्थ लिखने का आग्रह किया। अल्प काल में ही महर्षि दयानन्द ने यह ग्रन्थ लिख कर पूरा कर दिया जिसको सत्यार्थ प्रकाश नाम दिया गया। लेखक ने इस ग्रन्थ का पुनः एक नया संशोधित संस्करण तैयार किया जो अक्तूबर, सन् 1883 में पूर्ण हो कर छपना आरम्भ हो गया था और सन् 1884 में प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व यह जानना आवश्यक है कि महर्षि दयानन्द वेद एवं समस्त वैदिक वांग्मय के पारदर्शी व अपूर्व विद्वान थे। उन्होंने अपने दिव्य ज्ञान चक्षुओं से जान लिया था कि ईश्वर, जीव व प्रकृति के समस्त सत्य रहस्य वेद और वैदिक साहित्य में निहित हैं। अन्य जितने में भी मत-मतान्तर उनके समय में प्रचलित थे वह सभी अज्ञान व असत्य मान्यताओं से युक्त थे व आज भी हैं। सभी मतों के धर्म ग्रन्थों में असत्य व अन्धविश्वासयुक्त मान्यताओं की भरमार थी जिसका दिग्दर्शन उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में किया है। देश की पराधीनता और इस कारण देश व देशवासियों के शोषण व उन पर होने वाले अत्याचारों से भी वह परिचित थे। वह जान गये थे कि पराधीनता का भी मुख्य कारण एक सत्य वेदोक्त मत का पराभव व नाना वेद विरुद्ध मतों का आविर्भाव, उनका प्रचलन व सामाजिक विषमता आदि थे। अतः सत्यार्थ प्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर विचार करते हुए उन्होंने पराधीनता पर अपना ध्यान केन्द्रित कर व अपनी जान जोखिम में डालकर देश की स्वतन्त्रता का मूल मन्त्र देशवासियों को दिया। इस घटना के प्रकाश के कुछ समय बाद ही एक षडयन्त्र के अन्तर्गत उनका विषपान कराये जाने व समय पर समुचित चिकित्सा न होने के कारण देहावसान हो गया।

सन् 1883 में जिन दिनों महर्षि दयानन्द ने देश की आजादी विषयक यह पंक्तियां लिखी जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे, उस समय देश में सजग धार्मिक संस्था के रूप में हम ब्रह्म समाज को पाते हैं जिसके संस्थापक राजा राममोहन राय रहे हैं। यह मत व सम्प्रदाय तथा इसके संस्थापक अंग्रेजों के राज्य को भारत पर वरदान के रूप में देखता था। इससे आजादी विषयक विचार मिलने की सम्भावना नहीं थी। हमारे सनातन धर्म के विद्वानों की क्या स्थिति थी, इसका वर्णन वीर सावरकर जी ने किया है जो कि आर्य जगत प्रख्यात विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। वह अपनी पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लिखते हैं कि वीर सावरकर जी ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा व प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु (श्री आर्यमुनि, मेरठ और उनका वेदपथ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख) लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धर कर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चल जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार व विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। अतः सनातन धर्म के विद्वानों से भी अंग्रेजों के भारत से वापिस जाने और देश को स्वतन्त्र करने की मांग की आशा नहीं की जा सकती थी। यह महर्षि दयानन्द ही थे जिन्होंने अपने गुरू विरजानन्द प्रदत्त वैदिक संस्कारों के आधार पर परतन्त्रता का विरोध किया और सत्यार्थ प्रकाश में लिखा कि ‘‘कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सवार्वेपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय (देश में स्वराज्य, अज्ञान व अन्धविश्वास रहित वैदिक धर्म का पालन) सिद्ध होना कठिन है।” इससे पूर्व महर्षि दयानन्द ने भारत में विदेशी शासन का कारण बताते हुए लिखा है कि ‘‘अब अभाग्योदय से, और आर्यों के आलस्यप्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों के राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावत्र्त में आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है, सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र है। दुर्दिन जब आता है, तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है।

महर्षि दयानन्द लिखित यह स्वर्णिम शब्द ही देश की आजादी के आधार वाक्य बने। इस समय तक देश में किसी राजनीतिक दल का कोई नेता नहीं था। कांगे्रस की स्थापना सन् 1885 में महर्षि दयानन्द के इन वाक्यों के कई वर्ष बाद हुई। अतः आज देश भर में जो स्वतन्त्रता दिवस की अड़सठवीं वर्षगांठ बनाई जा रही है उसकी प्राप्ति के लिए सन् 1883 में मन्त्र व विचार प्रस्तुत करने का श्रेय महर्षि दयानन्द को है। दुःख है कि सारा देश महर्षि दयानन्द के इस योगदान पर मौन है। 21 वीं शताब्दी में इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है? स्वामी दयानन्द के स्वदेशीय राज्य को सर्वोत्तम बताने पर टिप्पणी करते हुए आर्यजगत के विख्यात विद्वान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि भारत में अंग्रेज व्यापारी बन कर आये। व्यापार के लिए उन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना की। धीरे-धीरे यही कम्पनी भारत में अंग्रेजी राज्य का आधार बन गई। उसकी अपनी सेना थी। इस सेना और भारतीय रियासतों के परस्पर संघर्ष के फलस्वरूप किसी भी एक पक्ष के सैनिक बल की सहायता से वह देश पर अधिकार करती गई। 1849 में पंजाब की विजय के साथ उसका यह अभियान पूरा हो गया और समूचे देश में यूनियन जैक फहराने लगा, परन्तु विज्ञान का नियम है–’To every action there is an equal and opposite reaction’ अर्थात प्रत्येक क्रिया की उतनी ही जोरदार और विरोधी प्रतिक्रिया होती है। भारतीयों के भीतर विद्रोह की आग सुलगने लगी, और 10 मई 1857 को ज्वाला बनकर भड़क उठी और देश के कोने-कोने में फैल गई। परन्तु कुछ ही दिनों में यह आग ठण्डी पड़ गई और भारतीय लोग खून का घूंट पीकर रह गये। इस क्रिया की प्रतिक्रिया भी अवश्यंभावी थी। ब्रिटिश सरकार ने कूटनीति का सहारा लिया। महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणापत्र (Proclamation) जारी किया। उसकी भाषा बड़ी लुभावनी थी, पर एक व्यक्ति इस कूटनीतिक चाल को भांप गया। उसने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में एक घोषणा की जिसे उपर्युक्त पंक्तियों प्रस्तुत किया गया है।

सुराज्य भी स्वराज्य का विकल्प नहीं होता–‘Good government is no substitute for self-government.’ इसके उद्घोषक ग्रन्थकार दयानन्द ने अपनी प्रार्थना पुस्तक (Prayer book) आर्याभिविनय के माध्यम से अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि वे प्रतिदिन प्रार्थना किया करें कि ‘‘अन्य देशवासी राजा हमारे देश में हों तथा हम पराधीन कभी रहें। भारत के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि यह पूरी तरह वही घोषणा थी जिसके द्वारा 8 अगस्त 1929 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो और 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर में उसके लिए संघर्ष करने की घोषणा की थी। इससे पूर्व 1906 में दादाभाई नौरोजी ने इसका उच्चारण किया था। किन्तु स्वामी दयानन्द ने 1875 में जब स्वराज्य का विचार भी किसी के मस्तिष्क में भी नहीं उपजा या पूर्ण स्वराज्य ही नहीं, चक्रवर्त्ती साम्राज्य की घोषणा की थी। आज जबकि अंग्रेज भारत छोड़ कर जा चुके हैं और हम स्वाधीनता का रसास्वादन कर रहे हैं तो कितने लोग है जो यह जानते हैं कि एक बार एक अंग्रेज कलक्टर ने स्वामी दयानन्द जी का भाषण सुनने के बाद कहा था कि ‘‘यदि आपके भाषण पर लोग चलने लग जाएं तो इसका परिणाम यह होगा कि हमें अपना बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा। स्वामी दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के वचनों तथा भावनाओं का गम्भीर अध्ययन करनेवाले 1911 की जनसंख्या के अध्यक्ष मिस्टर ब्लण्ट ने लिखा था-“Dayanand was not merely a religious reformer, he was also a great patriot.  It would be fair to say that with him religious reform was a mere means to national reform.” (Census Report of 1911, Vol. XV, Part I, Chap. IV, P. 135) अर्थात् दयानन्द केवल धार्मिक सुधारक नहीं थे, वे एक महान् देशभक्त भी थे। यह कहना ठीक ही होगा कि उन्होंने धार्मिक सुधार को राष्ट्रीय सुधार के साधनरूप में ही अपनाया था।

 

इस लेख के माध्यम से हम यह बताना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द ही देश की आजादी के प्रथम मन्त्रदाता वा स्वराज्य और स्वतन्त्रता का विचार देने वाले महापुरूष थे। स्वामी दयानंद ने अपने ग्रन्थों व प्रवचनों में व अन्यत्र भी देशभक्ति के नाना विचार प्रस्तुत किये। देश की स्वतन्त्रता में उनका व उनके अनुयायी आर्यसमाजियों का प्रमुख योगदान है। अतः आज स्वतन्त्रता दिवस के दिन महर्षि दयानन्द और आर्य समाज के योगदान की भी चर्चा करना आवश्यक है। यह बताना भी उचित होगा कि क्रान्तिकारी के आद्य गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, श्री गोपाल कृष्ण गोखले के राजनीतिक गुरू महादेव गोविन्द रानाडे, समाज सुधारक व आजादी के प्रमुख नेता स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. राम प्रसाद बिस्मिल आदि भी महर्षि दयानन्द की शिष्य मण्डली के ही व्यक्ति थे। देश की आजादी के आन्दोलन में देश के सभी आर्यसमाजियों ने किसी न किसी रूप में भाग लिया था जिस कारण देश आजाद हुआ। महर्षि दयानन्द ने देश की आजादी, धार्मिक व समाज सुधार में जो योगदान किया उसके लिये देशवासियों ने उनका सही मूल्यांकन कर उनके साथ न्याय नहीं किया। देखें, कि कब तक देश उनकी उपेक्षा करता है? आज स्वतन्त्रता दिवस पर भी हमें उनकी उपेक्षा स्पष्ट दिखाई दे रही है। यदि यही शब्द किसी अन्य व्यक्ति ने कहे होते व उनके व आर्यसमाज जैसा योगदान किसी अन्य संस्था ने किया होता तो आज उसकी देश भर में जयजयकार हो रही होती। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण,  भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।

मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है।

भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।

महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है।

भार्गववंश की मान्यतानुसार महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम
अंगिरा था।

ब्रह्मपुराण अध्याय – ३४ मे ऋषि अंगिरा को विषमबुद्धि से पढ़ाने वाला गुरु अर्थात शिष्यो मे भेदभाव कर पढ़ाने वाला बताया है

इसके अतिरिक्त अंगिरा ऋषि को शिवपुराण मे लोभी लालची आदि बताया है

आप सोच रहे होगे मै ये सब क्यो बता रहा हूं ?

इसलिए बता रहा हूं कि आर्यो के ऋषि सिद्धांतो को बदलने की गहरी साजिश चल रही है वेदो मे इतिहास सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है यकीन नही ?

फरहाना ताज जी जैसी विदुषि लेखिका का पोस्ट पढ़े वो ये साबित करने की फिराक मे नजर आती है कि कैलाश के राजा शंकर और हृदय मे वेद ज्ञान प्रकाश पाने वाले ऋषियो मे एक ऋषि अंगिरा एक ही है

इनकी लेखनी यही नही रुकी इसके आगे इन्होने और लिखते हुए जोर डाला कि शिव की पूजा करनी है मतलब सच्चे शिव की तो अंगिरा ऋषि को पूजो यही नही हमारी बहन फरहाना ताज जी लिखती है :
“अरे भोले लोगो देवो के देव आदि महादेव की ही पूजा करनी है तो अंगिरा की पूजा करो, शिवपुराण में भी शिव का आदि नाम अंगिरा ही है और अंगिरा के मुख से परमात्मा की वाणी अथर्ववेद प्रकट हुआ, इसलिए वेद पढ़ो।”

मतलब समझ आया ?

हम देवो के देव महादेव यानी ईश्वर की बात करते है क्योकि महादेव ईश्वर को ही संबोधन है हम उन्ही की उपासना करते है मगर हमारी बहन शायद हमारे सिद्धांतो पर चोट करके उन्हे बदल कर हमे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की पूजा करवाना सिखाना चाह रही है लेकिन भूल गई हिन्दू समाज मे भी मुर्दापूजा निकृष्ट है आप उन्हे सच्चाई बताने की जगह एक मुर्दापूजा से निकाल दूसरी मुर्दापूजा मे दाखिला दिलवा रही हो जैसे आर्य समाज मे अंगिरा ऋषि को शिव घोषित कर वेदो मे इतिहास साबित करना चाहती हो

ऋषि अंगिरा और शिव को एक बताने से पहले शिवपुराण पर ही सही से दृष्टि डाल ली होती है, क्योंकि शिवपुराण में ही शिव की शादी के चक्कर में अंगिरा ऋषि को लालची और लोभी बताया है,

क्या आप लोभी और लालची व्यक्ति को शिव या अंगिरा मान सकती हो ? ऊपर और भी प्रमाण दिए हैं की पुराणो में ऋषि अंगिरा का चरित्र कैसा दिखाया है – यदि आपने पुराण ही मानने हैं तो कृपया ऋषि सिद्धांतो पर चलने वाली स्वयं की उद्घोषणा न करे क्योंकि ऋषि ने महापुरषो के चरित्र पर दाग लगाने वाले पुराणो को त्याज्य बताया है और यहाँ ऋषि अंगिरा के चरित्र पर भी पुराण आक्षेप लगा रहे हैं, बेहतर है आप अपने लेख को ठीक करे।

मेरी बहन आर्य समाज सिद्धांत पर आधारित है कृपया अप्रमाणिक तथ्यहीन और मनगढंत बात लिखने से पूर्व एक बार ऋषि के सिद्धांत और उनके महान कर्मो पर दृष्टि जरूर डाले

हो सके तो सत्य को स्वीकार कर असत्य को त्याग दे

नमस्ते

कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें।

– आचार्य सोमदेव

समानीय आचार्य सोमदेव जी को मेरा सादर प्रणाम।

जिज्ञासाश्रद्धास्पद  आचार्य जी! मैं उदालगुरी आर्यसमाज का पुरोहित हूँ। मैं 2012 जून महीने में अनुष्ठित योग-साधना-शिविर में उपस्थित रहकर एक सप्ताह तक योग-साधना आप ही से सीखकर आया हूँ। उसी समय से परोपकारिणी सभा की ओर से नियमित रूप से परोपकारी पत्रिका उदालगुरी आर्यसमाज को निःशुल्क मिल रही हूँ। सभा को उदालगुरी आर्यसमाज की ओर से धन्यवाद ज्ञापन करते हैं।

आचार्य जी! मैं तीन साल से अन्य द्वारा पूछे गये जिज्ञासा-समाधान पढ़-पढ़ कर उपकृत होता आया हूँ। लेकिन आज मेरे मन में भी एक जिज्ञासा है, समाधान चाहता हूँ।

प्रश्न- महोदय! यजुर्वेद के बारे में जानना था- प्रायः यजुर्वेद के बारे में शुक्ल और कृष्ण शद व्यवहार होता है। किन्तु मेरे पास जो वेद हैं, उसमें सिर्फ ‘यजुर्वेद’ लिखा हुआ है। कृष्ण-शुक्ल कुछ भी नहीं लिखा है। कोई पौराणिक पण्डित संकल्प पढ़ते समय ‘शुक्ल यजुर्वेदाध्यायी’ ऐसााी  पढ़ लेते हैं। कृपया शुक्ल और कृष्ण के बारे में स्पष्टिकरण देने की कृपा करें।

– रुद्र शास्त्री, गाँव- गोलमागाँव, पो.जि.- उदालगुरी, आसाम

समाधान चारों वेदों में से यजुर्वेद दो प्रकार का मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। इसके इन दोनों नामों का कारण है कि शुक्ल यजुर्वेद में केवल मन्त्र भाग है, अर्थात् इसमें मूल मन्त्र होने से शुक्ल (शुद्ध) वेद कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद विनियोग, मन्त्र व्याया आदि से मिश्रित होने के कारण मूल न होकर मिश्रित वा कृष्ण यजुर्वेद कहलाता है। मुय रूप से यही कारण शुक्ल और कृष्ण कहने का है।

शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएँ वर्तमान में मिलती हैं, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता और काण्व संहिता। दोनों में चालीस अध्याय हैं, काण्व संहिता का चालीसवां अध्याय ईशोपनिषद् के रूप में प्रयात है। कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ मिलती हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, काठक और कठ कपिष्ठल शाखा।

महर्षि दयानन्द के अनुसार मूल वेद शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा है। इसी का महर्षि ने भाष्य किया है।

आपके प्रश्न का उत्तर तो इतने से ही है। इस विषय में पौराणिकों ने इन दोनों शुक्ल, कृष्ण को सिद्ध करने के लिए अपनी कथाएँ कल्पित कर रखी हैं। इन कत्थित कथाओं को छोड़ शुक्ल-कृष्ण का यथार्थ कारण उपरोक्त ही है।

अब यजुर्वेद के विषय में कुछ और लिखते हैं। वेदों की कुल शाखा 1127 होने का प्रमाण पातञ्जल महाभाष्य में मिलता है। वहाँ लिखा है- एकविंशतिधा वाह्वृच्यम्, एकशतम् अध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, नवधाऽऽथर्वणो वेदः, अर्थात् इक्कीस शाखा ऋग्वेद की, एक सौ एक शाखा यजुर्वेद की, एक हजार शाखा सामवेद की और नौ शाखा अथर्ववेद की।

यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाओं में से छः शाखाएँ उपलध होती हैं। जो कि ऊपर कह दिया है। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है, जिसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण है, जिसकी रचना तित्तिरि आचार्य ने की है। शुक्ल यजुर्वेद का श्रौतसूत्र कात्यायन कृत है जो कि कात्यायन श्रोतसूत्र कहलाता है। कृष्ण यजुर्वेद से सबन्धित आठ श्रौतसूत्र हैं- 1. बौधायन, 2. आपस्तब, 3. सत्यषाढ़ या हिरण्यकेशी, 4. वैखासन, 5. भारद्वाज, 6. वाधूल, 7. वाराह, 8. मानव श्रौतसूत्र।

महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के प्रतिपाद्य विषय के सबन्ध में अपने भाष्य के प्रारभिक प्रकरण में लिखते हैं कि ‘‘ईश्वर ने जीवों को गुण-गुणी के विज्ञान के उपदेश के लिए ऋग्वेद में सब पदार्थों की व्याया करके यजुर्वेद में यह उपदेश किया कि उन पदार्थों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करने के लिए कर्म किस प्रकार करने चाहिए। उसके लिए जो-जो अङ्ग और जो-जो साधन उपेक्षित हैं, उन सबका प्रकाश यजुर्वेद में किया गया है। जब तक ज्ञान क्रियानिष्ठ नहीं होता, तब तक उससे श्रेष्ठ सुख कभी नहीं हो सकता। विज्ञान क्रिया में निमित्त बनता है, प्रकाशकारक होता है, अविद्या की निवृत्ति करता है, धर्म में प्रवृत्ति करता है और धर्म तथा पुरुषार्थ का मेल कराता है, जो-जो कर्म विज्ञाननिमित्तक होता है, वह-वह सुखजनक हो जाता है। अतः मनुष्यों को चाहिए कि विज्ञानपूर्वक ही नित्य कर्मानुष्ठान करें। जीव चेतन होने से बिना कर्म किये नहीं रह सकता। कोई भी मनुष्य आत्मा मन, प्राण और इन्द्रियों के संचालन के बिना क्षणभर भी नहीं रह सकता। ‘यजुर्भिः यजन्ति’ इस प्रमाण से यजुर्वेद के मन्त्रों से यजन किया जाता है। जिससे मनुष्य ईश्वर का और धार्मिक विद्वानों का पूजा सत्कार करते हैं, पदार्थों के संगतिकरण द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि किया करते हैं, शुभ विद्या और शुभ गुणों का दान किया करते हैं, यथायोग्य सबके उपकार में शुभ व्यवहार में और विद्वानों में धनादि का व्यय करते हैं वह यजुः है।’’ इस प्रकार यजुर्वेद में मुय करके कर्मकाण्ड का विषय है। महर्षि ने इसी बात को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी कहा है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

इतिहास प्रदूषक “फरहाना ताज”

आर्य समाज में प्रक्षिप्त और झूठी बातो का प्रचार असहनीय है
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फरहाना ताज जी की बहुत सी पोस्ट देखी – बहुत से मित्र बंधू इन पोस्ट्स को व्हाट्सप्प पर प्रसारित भी करते हैं – कुछ चीज़े वैदिक संपत्ति पुस्तक से उद्धृत हैं और कुछ इनके अपने दिमाग की उपज है –

जो वैदिक संपत्ति से उद्धृत है वो ठीक लगता है मगर जो इनके अपने दिमाग की उपज (व्याख्या) है वो गड़बड़ झाला है – आर्य समाज को बदनाम न करे – आपकी बहुत सी पोस्ट पर कमेंट किया पर आपने आजतक जवाब नहीं दिया – ये बहुत ही खेद का विषय है – कृपया समझे –

1. आपकी पुस्तक “घर वापसी” में आपने अपने पति को आर्य समाजी बताया – मगर वही आर्य समाजी बंधू एक्सीडेंट के बाद पौराणिक बन जाता है ? ऐसा क्यों ?

क्या आप इसे मानती हैं ? यदि हाँ तो आप अंधविश्वास और चमत्कार वाली झूठी बातो का समर्थन करती हैं जो आर्य समाज के सिद्धांत विरुद्ध है। कृपया स्पष्टीकरण देवे।

2. हनुमान जी – एक ऐसा वीर, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष जिसका रामायण में बहुत उत्तम चरित्र है जो रामायण में पूर्ण ब्रह्मचारी पुरुष है। महर्षि दयानंद भी हनुमान जी के ब्रह्मचर्य से पूर्ण सहमत थे। फिर आपने ऐसे महावीर हनुमान को गृहस्थ घोषित कर दिया वो भी बिना कोई प्रमाण ?

केवल दक्षिण के मंदिरो को देखकर ही आपको लग गया की हनुमान जी ब्रह्मचारी नहीं गृहस्थ थे ? ऐसा मंदिर तो दिल्ली के भैरो मंदिर में भी देख लेती वहां भी हनुमान जी के चरित्र को दूषित किया गया है जैसे आप दक्षिण के मंदिरो को प्रमाण मान कर एक पूर्ण ब्रह्मचारी को गृहस्थ घोषित करकर ? यदि वहां के मंदिरो को देखकर ही आपको सिद्ध हो गया की हनुमान जी गृहस्थ ही हैं तो वहां के मंदिरो में तो हनुमान जी बन्दर स्वरुप भी दर्शाया गया होगा तब उन्हें क्यों नहीं मान लेती ?

3. आपने अपनी एक पोस्ट में कहीं लिखा था की ऋषि अंगिरा ही शिव थे – जो कैलाश के राजा हुए – तो मेरी बहन मैं आप से कुछ पूछना चाहता हु –

यदि ऋषि अंगिरा ही शिव थे जो कैलाश के राजा हुए तो इसका मतलब बाकी के बचे तीन ऋषि भी कुछ न कुछ होंगे ? मतलब वो भी कहीं के राजा हुए होंगे ? यानी वो वेद ज्ञान प्राप्त कर राजा हो गये ? फिर उन्होंने वो ज्ञान अन्य मनुष्यो को कैसे सुनाया होगा ? क्योंकि ये वेद श्रुति हैं।

यदि फिर भी मानो तो एक बात बताओ – हमारा इतिहास यही बताता है की इस धरती का पहला राजा “स्वयाय्मभव मनु” महाराज थे – और इसी बात को महर्षि दयानंद भी बता गए। अब मुझे आप बताओ यदि “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा थे तो अंगिरा ऋषि इनसे पहले हुए होंगे क्योंकि उन्हें वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ – तो वो आप शिव कल्पना कर कैलाश का राजा बना दिया – तो “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा कैसे हुए ?

कृपया अभी इन ३ के जवाब ही दे देवे – बाकी की आपकी अनेको पोस्ट्स पर जो आपत्ति है उनका भी निराकरण आपसे अवश्य मांगेंगे।

नोट : आपसे निवेदन है कृपया आर्य समाज के सिद्धांतो और नियमो को भली प्रकार समझ कर तब सत्य और असत्य निष्कर्ष निकालकर पोस्ट लिखा करे। हिन्दू समाज वैसे ही बहुत से अंधविश्वासों में डूबा है – अब आर्य समाज को भी अन्धविश्वास की दलदल न बनाये।

नमस्ते।