Category Archives: आर्य समाज

विष ही महर्षि की मृत्यु का कारण डा. अशोक आर्य

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महर्षि दयानंद सरस्वती जी के देहावसान का कारण जहाँ जोधपुर राज्य सहित अनेक कुचक्र गामी रहे, वहां दूध में विष भी उनके बलिदान का मुख्य कारण रहा | जब से महर्षि का देहावसान हुआ है , तब से ही जोधपुर के राज परिवार का यह प्रयत्न रहा है कि किसी प्रकार से जोधपुर राजघराने से एक ऋषि की हत्या का दोष हटाया जा सके | इस कड़ी में अनेक प्रयास हमारे सामने आते है जो उस राज परिवार के द्वारा हुए हैं तथा हो रहे हैं | इन पंक्तियों में मैं उन प्रयासों का तो वर्णन नहीं करने जा रहा किन्तु इस प्रयास के किसी न किसी रूप में जो आर्य ही सहभागी बनते हुए दिखाई देते हैं , समय समय पर ऐसे आर्यों की कलम से आर्यों के ही विरोध में किये जा रहे कुप्रयास को दूर करने का यतन आर्य समाज के महान लेखकों ने किया है , इन पंक्तियों में मैं भी कुछ एसा ही प्रयत्न करने का साहस कर रहा हूँ |
लगभग चालीस वर्ष पूर्व एसा ही एक प्रयास श्री लक्ष्मीदत दीक्षित जी ने किया था, जिसका मुंह तोड़ उत्तर अबोहर से प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने अनेक लेखों के माध्यम से देते हुए यह सप्रमाण सिद्ध किया था कि महर्षि के देहांत का कारण विष ही था | इस अवसर पर उन्हों ने एक पुस्तक भी तैयार की थी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | यह पुस्तक आर्य युवक समाज अबोहर ने प्रकाशित की थी | इस का प्रकाशन उस समय हुआ था , जब मैं आर्य युवक समाज अबोहर के प्रकाशन विभाग का मंत्री होता था अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन मैंने ही किया था | इस पुस्तक में स्वामी जी के देहावसान का करण विषपान सटीक रूप से सिद्ध किया गया था तथा इससे पंडित लक्ष्मी दत दीक्षित जी की बोलती ही बंद हो गई थी | वह इस आधार पर जो पुस्तक लिखने जा रहे थे , उसे लिखने का विचार ही उनहोंने त्याग दिया | हमारे विचार में इतने सटीक प्रमाण आने के बाद आर्य समाज में यह विवाद खड़ा करने का प्रयास बंद हो जाना चाहिए था किन्तु आर्य जगत दिनांक २५ मई से ३१ मई २०१४ के पृष्ट ९ पर श्री कृष्ण चन्द्र गर्ग पंचकुला का लेख जगन्नाथ ने महर्षि को दूध में विष दिया – एक झूठी कहानी के अंतर्गत यह लिखने का यत्न किया है कि महर्षि को विष देने की कथा झूठी है , के माध्यम से एक बार फिर यह विवाद खड़ा करने का यत्न किया है | मैं नहीं जानता कि गर्ग जी ने किस पूर्वाग्रह के कारण यह लिखा है किन्तु मैं बता देना चाहता हूँ कि इस लेख के लेखक को संभवतया या तो महर्षि के देहावसान के समबन्ध में कुछ ज्ञान ही नहीं है , या फिर वह जान बूझ कर इस विवाद को बनाये रखना चाहते हैं ताकि कुछ उल्लू सीधा किया जा सके |
लेखक ने स्वामी जी के रसोइये के नाम का विवाद पैदा करने का यत्न किया | स्वामी जी को दूध देने वाला जगन्नाथ था , धुड मिश्र था या कोई अन्य | नाम के विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है | नाम चाहे कुछ भी हो , प्रश्न तो यह है कि क्या स्वामी जी को विष दिया गया या नहीं ? लेखक ने बाबू देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय जी ,पंडित लेखराम जी , पं. गोपालराव हरि जी द्वारा लिखित स्वामी जी के जीवन चरितों का वर्णन करते हुए लिखा है कि इन सब ने स्वामी जी को दूध पी कर सोते हुए दिखाया है किन्तु इस दूध में विष था या नहीं , यह स्पष्ट किये बिना ही लिख दिया कि यह दूध था न कि विष अथवा कांच | लेखक को शायद यह पता ही नहीं कि राजस्थान में विष को कांच भी कहते हैं तथा दूध में भी विष हो सकता है |
जोधपुर के उस समय के राजा की कुटिलता को देखते हुए स्वामी जी को यह कहा भी गया था कि वह जोधपुर न जावें क्योंकि वहां का राजा कुटिल है , कहीं एसा न हो कि स्वामी जी को कोई हानि हो जावे | इससे भी स्पष्ट होता है कि जोधपुर जाने से पूर्व ही स्वामी जी की हानि होने की आशंका अनुभव की जा रही थी | अभी अभी प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने एक पुस्तक अनुवाद की है | पुस्तक का नाम है महर्षि दयानंद सरस्वती सम्पूर्ण जीवन चरित्र लेखक पंडित लक्षमण जी आर्योपदेशक | यह विशाल काय पुस्तक मूलरूप में उर्दू में लिखी गई थी तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इसका अनुवाद कर सन २०१३ में ही दो भागों में प्रकाशित की है | इस पुस्तक में जिज्ञासु जी ने वह सामग्री भी जोड़ दी है , जो अब तक अनुपलब्ध मानी जाती थी | इस के साथ ही इस पुस्तक के अंत में महर्षि का विषपान अमर बलिदान नामक पुस्तक भी जोड़ दी है | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु इस काल के आर्य समाज के सब से प्रमुख शोध कर्ता हैं , इस पर कहीं कोई दो राय नहीं है | इसलिए जब वह लिख रहे हैं महर्षि का विषपान अमर बलीदान तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी के देहावसान का कारण , बलिदान का कारण विषपान ही था | जिज्ञासु जी की पुस्तक के इस शीर्षक मात्र को देख कर ही कहीं अन्य किसी प्रकार की संभावना नहीं रह जाती | तो भी मैं यहाँ कुछ् प्रमाण देकर स्पष्ट करना चाहूँगा कि स्वामी जी के बलिदान का कारण केवल और केवल विष ही तो था अन्य कुछ नहीं |
स्वामी जी को मृत्यु का भय न था
महर्षि का विषपान अमर बलीदान के आरम्भ के दूसरे पहरे में जिज्ञासु जी लिख रहे हें कि स्वामी जी मृत्यु से डरते न थे | वह मरना ओर जीना समान जानते थे | प्रसंग दिया है कि विष दिए जाने से थोडा समय पहले ही एक महाराजा की रानी का देहांत हो गया | कुछ व्यक्ति दूरदर्शिता दिखाते हुए प्रेमपूर्वक कहते हैं कि आप भी थोडा शौक प्रकट करने चले जाएँ | ऋषि कहते हैं कि मैं इस समय सांसारिक बंधन अपने पर कैसे लाद लूँ ? मेरे लिए जीवन व मृत्यु एक सामान है |
इतने वर्ष कैसे जी पाए ?
सत्य का प्रचार करते हुए ऋषि के अनेक विरोधी बन गए | अनेक बार उन्हें विष दिया गया , पत्थर फैंके गए, सांप फैंके गए और न जाने क्या क्या हुआ किन्तु फिर भी वह इतने वर्ष तक जीवित रहे , यह भी एक आश्चर्य है | स्वामी जी को म्रत्यु से लगभग दो वर्ष पूर्व ही अपनी मृत्यु का पूवानुमान हो गया था इस सम्बन्ध में उनहोंने एक पात्र के माध्यम से बारम्बार कर्नाला अल्काट को मेरठ में कहा था कि मैं सन १८८४ का वर्ष कदापि नहीं देख सकता |
जोधपुर का स्वागत
जोधपुर जाते समय २८ मई १८८३ को शाह्पुराधिश को पात्र में लिखा था किबिचके स्टेशनों पर पुकारने पर भी कोई गाड़ीवान अथवा सिपाही नहीं था | यदि ऐसे व्यक्ति हैं तो राजकाज की हनी होगी | स्वामी जी के साथ चारण अमरदास थे | पं. कमलनयन का कथन है कि जाते समय किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने स्वामी जी को सचेत करते हुए कहा भी था कि महाराज वहां कुछ नरमी से उपदेश करना क्योंकि वह क्रूर देश है |
गर्ग जी ध्यान से पढ़िए यहाँ लक्षमण जी की कृति का अनुवाद करते हुए जिज्ञासु जी भी लिख रहे हैं कि प्रतिश्याय हो गया था | २९ सितम्बर अर्थात चतुर्दशी की रात्री को धौड मिश्र रसोइये से ( जो शाहपुरा का रहने वाला था ) दूध पीकर सोये | उसी रात उदर शूल तथा जी मिचलाने लगा ……………३० सितम्बर को बहुत दिन निकले उठे | उठते ही पुन: वमन व जोर का शूल होने लगा , दस्त भी होने लगे | संदेह होने पर अजवायन का काढा पीया | वैद्यक वाले बताते हैं कि अजवायन विष का प्रभाव दूर करने के लिए होती है | …..सत्यरूपी अमृत की चर्चा करते करते महर्षि को सांसारिक मनुष्यों से विषपान करना पडा | आह ! वह २९ की रात्री वाला दूध क्या था , मृत्यु का सन्देश था | दूध में चीनी के साथ संखिया को बारीक पिस कर दिया गया था | इस रोग का जुयों ज्यों उपचार किया गया त्यों त्यों बढ़ता गया | गर्ग जी क्या आपने कभी एसा प्रतिश्याय देखा है जो वामन, दस्त व पेट शूल का कारण हो ? नहीं तो फिर एसा झूठ क्यों घड रहे हो ?
इस रोग की जानकारी मिलने पर अच्छे चिकित्सक होते हुए भी अली मरदान खान को चिकित्सा का कार्य सौंप दिया गया | कहते हैं कि वह भी शत्रुओं की टोली का ही भाग था | ……जो ओषध दी गई उसके लिए बताया गया था कि तीन चार दस्त आवेंगे किन्तु रात्री भर तीस से भी अधिक दस्त आ गए तथा दिन में भी आते रहे | दस्तों से स्वामी जी इतने क्षीण हो गए कि उन्हें मूर्च्छा आने लगी | पाच अक्तूबर तक अवस्था यहाँ तक पहुँच गई कि श्वास के साथ हिचकियाँ भी आने लगी | जब स्वामी जी ने छः अक्तूबर को कहा कि अब तो दस्त बंद होने चाहियें तो डाक्टर ने कहा कि दस्त बंद होने से रोग बढ़ने का भय है | बार बार कहने पर भी दस्त बंद न होने दिए गए | इस प्रकार अली मरदान खान की चिकित्सा १६ अक्तूबर तक चली | इस मध्य दस्तों के कारण स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया | मुख , कंठ, जिह्वा, तालू,शिर तथा माथे पर छाले पड़ गए | बोलने में भी कष्ट होने लगा | बिना सहायता के करवट लेना भी कठिन हो गया | चिकित्सा काल में उसका प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ते रहना किसी बिगाड़ उत्पन्न करने वाले पदार्थ का काम था तथा वह किस संयोग से श्री महाराज की काया में जो पूर्ण ब्रह्मचर्य ताप व सुधारणाओं सुघथित था , प्रविष्ट हुआ ?
देश हितैषी पत्र अजमेर
यह पत्र लिखता है कि ”भ्रात्रिवृन्द ! यह विचारने का स्थान है | ण जाने यह किस प्रकार का विरेचन तथा ओषधि थी | इस पर बहुधा मनुष्य कई प्रकार की शंका करते हैं और कहते हैं कि स्वामी जी ने भी कई पुरुषों और महाराजा प्रताप सिंह जी से इस विषय में स्पष्ट कह दिया था , परन्तु अब क्या हो सकता है ? लाख यत्न करो | स्वामी जी महाराज अब नहीं आ सकते | जो हुआ, सो हुआ परन्तु हम को इतनाही शोक है कि स्वामी जी महाराज ने किसी आर्य समाजको सूचित न किया | यदि यह वृत्तांत उस समय जाना जाता तो यह रोग इतनी प्रबलता को प्राप्त न होता |”
जब स्वामी जी का स्वास्थ्य गिरता ही चला गया तो पं. देवदत लेखक तथा लाला पन्नालाल अध्यापक जोधपुर ने स्वामी जी से कहा की यह स्थान छोड़ देना चाहिए | स्वामी जी ने इस संबंधमें महाराज को लिखा | महाराज ने कहा की इस दिशा में यहाँ से जाने से जोधपूर की अपकीर्ति होगी किन्तु स्वामी जी के न मानने पर वह चुप हो गया | स्वामी जी की चिकित्सा शुश्रुषा करने वाले लोग तो वाही जो उनकी मौत ही चाहते थे | यदि जेठमल न जाते तो स्वामी जी का देहांत तो जोधपुर में ही हो जाता और संस्कार की सूचना भी आर्यों को न होती | जेठमल जी ने अजमेर जा कर सभासदों को सूचित किया | पीर जी हकीम को सब बताया , उनहोंने कुछ औशध दि तथा बताया की स्वामी जी को संखिया दिया गया है | (देखें महर्षि का विषपान अमर बलिदान ) पीर जी की ओषध से कुछ लाभ मिला | मूर्छा और हिचकी कम हो गई | हस्ताक्षर करने लगे | आबू में डा. लक्षमण दास जी के उपचार स्वे भी लाभ हुआ | हिचकिया व दस्ता बंद हो गए किन्तु २३ अक्तूबर को त्यागा पत्र देने पर भी कड़ी बरतते हुए अजमेर भेज दिया | मार्ग में मिलाने वालों को आप सजल नेत्रों से स्वामी जी का हाल सुनाते थे | यहाँ से स्वामी जी को अजमेर लाया गया | स्वामी जीके पुरे शारीर पर छले पद गए थे तथा सर्दी में भी गर्मी अनुभव करते थे |
अजमेर आने पर पीर जी ने जांच करके स्पष्ट कहा कि विष दिया गया है | स्वामी जी ने जल पीया , कटोरे में मूत्र किया जो कोयले के सामान काला था | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी इस जीवन चरित्र के इतिहा दर्पण के अंतगत पृष्ट ६५५ पर लिखते हैं कि
१. ऋषि जब जोधपुर जाने लगे तो सभी शुभचिंतकों ने वहां जाने से रोका | प्राणों के निर्मोही दयानंद ने किसी की एक न सुनी | शीश तली पर रखकर जोधपुर जानेकी ठान ली|
२. ऋषि के जोधपुर पहुँचाने के २६ दिन बाद जसवंतासिह महाराजा जोधपुर दर्शनार्थ पधारे | यह भी एक समझाने वाला तथ्य है |
३. शाहपुरा के श्री नाहर सिंह तथा अजमेर के कई भक्तों ने कहा कि आप वहां जा रहे हैं | वेश्यागमन ,व्यभिचार का खंडन मत करना | यह तथ्य भी सामना रखना होगा |
तथा ऋषि ने इन्हें जो उतर दिया वह भी ध्यान में लाना होगा |
४. महाराजा प्रताप सिंह के जीवन चरित्र में भी स्वामी जी का कहीं वर्णन तक न होना भी इस बात को बल देता है | यहाँ तक कि उनके किसी लेख मेंस्वामी जी का नाम तक नहीं मिलता |
५. सर प्रताप सिंह अंग्रेज का पिट्ठू था , ऋषि भक्त नहीं | अन्ग्रेजने अपने सब से बड़े चाटुकार निजाम हैदराबाद से भी कहीं अधिक उपाधियाँ सर प्रताप सिंह को दीं | ऋषि भक्त पर तो अंग्रेज मोहित नहीं हो सकता था |
६. राजा के सब चाकर आज्ञाकारी और विश्वस्त होते हैं | मह्रिषी तो शाहपुरा के दिए सब चाकरों को निकम्मा बताते हैं | (यह बात ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन के पृष्ट ४२२-४२३ पर अंकित है |
७. जिस डा. अलीमर्दान खान से जोधपुर में उपचार कराया गया था , वह चाटुकार तथा तृतीय श्रेणी का सहायक डाक्टर था | उसने जान बुझ कर एसा उपचार किया कि स्वामी जी बच न सकें |
८. ऋषि की रुग्णता का समाचार बाहर न निकालने देना भी उनके दोष का कारण रहा | महर्षि की साड़ी योजना बनाने वाला राजपरिवार मजे से महलों में सोता रहा | स्वामी जी को रोग शैय्या पर छोड़ महाराज प्रताप सिंह घुड दौड़ के लिए पूना चले गए |
९. स्वामी जी को अंतिम समय अजमेर लाने वाले जेठमल जी ने कविता में लिखा रोम रोम में विष व्याप्त हो गया | यह तो साक्षात सत्य है जिसने अपनी आँखों से देखा उसका ही लिखा है |
१०. जब पंडित लेखराम जी स्वामी जी के जीवन की खोजा में जोधपुर गए तो राजा के गुप्तचर छाया की तरह पंडित जी के पोइछे क्यों रहे ? खोज में बाधाक्यों डाली ?
११. सर प्रताप सिह स्वयं कहते थे …….. कोई नन्हीं को भगतन व वैष्णव बताकर सिद्ध्कराने में लगा है तो कोई जोधपुर में विष देने की घटना को सिरे से खारिज कर रहा है | राजपरिवार का एक ट्रस्ट है | उनहोंने मुठ्ठी में कई लेखक कर रखे है | एसा सुनाने में आया है | एक दैनिक में विषपान की घटनाक प्रचारित करने का दोष पंजाब के महात्मा दल पर लगाया गया | लिखा गया की पंडित लेखराम जी का ग्रन्थ छपने लाहौर मांस पार्टी के स्तम्भ प्रताप सिंह की निंदा के लिए यह प्रचार किया गया |
झूठ झूठ ही होता है
जब राजस्थान के एक दैनिक में यह लेख छापा तो राजस्थान के किसी व्यक्ति ने इस मिथ्या कथन का प्रतिवाद नहीं किया | तब प्र. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा की पं. ल्लेख्रम जी का ग्रन्थ छपने से पूर्व जोधपुर में अकाल पड़ा था | तब लाला लाजपत राय जी ने लाला दीवानचंद को जोधपुर सहायता कार्य के लिए भेजा | उस समय सर प्रताप सिंह ने स्वयं जोधपुर में ऋषि जी को विष देने की घटना पर बड़ा दू:ख प्रकट किया था | यह बात लाला दीवानचंद जी की आत्मकथा मानसिक चित्रावली में दी गयी है |इस दीवान चाँद ने दुनिया के नोऊ महापुरुष नामक उर्दू पुस्तक में ऋषि को जोधपुर में विष दिए आने की चर्चा की है नन्हीं को भी वैश्य लिखा है |
१२ राजस्थान के यशस्वी इतिहासकार गौरिश्नकर हिराचंद ओझा ने भी ऋषि के बलिदान का कारण विषपान ही माना है | यह सब दयानंद क्मेमोरेश्ना वाल्यूम के पृष्ट ३७० पर देखें | राधास्वामी मत दयालबाग के गुरु हुजुर जी महाराज भी लिखते हैं कि जसवंत सिंह की बद्खुला तवायफ नन्ही जान |…… नन्ही जान के प्रतिशोध का परिणाम था कि दयानंद के दूध में विष पिस कर शक्कर डाल कर दिया गया और वह घातक सिद्ध हुआ |
१२. अजमेर के हकीम पीर अमाम अली जी ने स्पष्ट कहा था की संखिया दिया गया है |
१३. राजस्थान के तत्कालीन इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत, मुंशी देवी प्रसाद , नैनुरम ब्रह्म्भात्त आदि सब एक स्वर से ऋषि के बलिदान का कारण विष मानते हैं } चाँद के प्रसिद्द मारवाड़ अंक से ऋषि के विषपान के प्रमाण जिज्ञासु जी ने दिए थे |
१४. ऋषि को मारने के षड्यंत्र में कई व्यक्ति सम्मिलित थे | इन में से एक व्यक्ति खुल्लामाखुक्का ऋषि की हलाकत ( हत्या ) का श्रेय लेते हुवे गर्व से लिखता है कि उसे तो अल्लाह से ऋषि के मारे जाने की पहले से जानकारी मिल चुकी थी | मिर्जई मत का पैगम्बर मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ऋषि की हकालत को अपनी नुब्बुवत का आसमानी निशाँ प्रमाण आ था | उसने अपनी आसमानी किताब “हकीकत उल वाही “ के ५१-५२ पृष्ठों की निर्देशिका के पृष्ट २४ पर दो बार मह्रिषी के मरवाने का श्रेय बड़ी शान से लेता है | इस पंथ का पालन पौषण अंग्रेज सर्कार ने किया |
१५. वारहट क्रिशन सिंह जी का जीवन और राजपुताना इतिहास अभी छपा है इस में इस प्रकार लिखा है : ब्राह्मणों ने इनके रसोइदर को मिला कर स्वामी दयानंद सरस्वती को जहर दिलाया |……
१६. डा.भवानी लाल भारतीय जी ने नन्ही को महाराज की उप पत्नि कहा है | यदि इसे सत्य मान लें तो भी जोधपुर महाराज की उपपत्नी के इसा अपराध में शामिल होना सिद्ध होता है क्योंकि सब ने माना है कि एक मुख्य पात्र सबने माना है तो राजपरिवार विष दिए जाने के षड्यंत्र से अलिप्त कैसे हो गया ? यदि वह उप पत्नी थी तो सर प्रताप सिंह ने उसे जसवंत सिंह के निधन पर राजभवनों से उसे क्यों निकलवाया |
१७. श्री राम शर्मा ने कुतर्क दिया की गोपालराव हरी ने ऋषि जीवन में विष देने की चर्चा नहीं की | क्या इससे एक सरकारी अधिकारी किविवाश्ता नहीं दिखाती , जबकि मौके के इतिहासकार जो उस समय जोधपुर व अजमेर में थे , की साक्षी असत्य हो जाती है क्या ?
१८. लाखों की सम्पदा रखने वाली नन्ही पर जब विष देने का आरोप लगाया गया , इस आरोप लगाने वालों में महात्मा मुंशी राम, मास्टर आत्माराम , लक्षमण जी, महाशय क्रिअष्ण जी अदि पर उसने मानहानि का अभियोग क्यों न किया ?
१९. भक्त अमिन्चंद को यह क्यों लिखना पडा :
अमिन्चंद एसा होना कठिन है , धर्म न हारा
कष्ट उठाए , ण घबराये , उय्दी वश खाई ||
महर्षि का विषपान अमर बलिदान में दि कविता की अंतिम पंक्ति इस प्रकार है :
दियो विष हा हा हा स्वामी हमारो चली बसों ||
२० बम्बई की एक मेडिकल संस्था ने भारत सरकार के अनुदान से डा. सी के पारिख का एक ग्रन्थ सिम्पलिफाईड टेक्स्ट बुक आफ मेडिकल ज्युरुपुदेंस एंड टेक्नोलॉजी प्रकाशित करवाया है उसके पृष्ट ६४३,६७३,६७४ पर बड़े विस्तार से विष दिए जाने पर शारीर में होने वाली प्रतिक्रियाओं का वर्णन किया गया है | कोई भी सत्यान्वेषी उन्हें पढ़ कर यही निर्णय देगा कि मह्रिषी जी महाराज के अंतिम दिनोंमें जीना शारीरिक व्याधियों का कष्ट भोगना पड़ा वे सब विष दिए जाने के करण उतपन्न हुईं |
विस्वबंधू शास्त्री तथा श्रीराम शर्मा ,दोनों ही मूलराज को अपना गुरु मानते हैं किन्तु मूलराज जैसे कुटिल ऋषि द्रोही ने मरते दम तक कभी यह नहीं कहा व लिखा कि ऋषि को विष नहीं दिया गया | यहाँ तक कि मह्रसी को विष देने के विरोधी श्रीराम शर्मा द्वारा शोलापुर से प्रकाशित प्री. बहादुर मॉल की एक पुस्तक से विष दिए जाने के प्रमाण प्रकाशित किया| इससे भी उनके दोहरे चरित्र का पता चलता है | होश्यारपुर के विश्वबंधु, सूर्यभान कुलपति की पुस्तकों में भी विषपान की घटना निकला आई | महात्मा हंसराज की एक पुस्तक से भी इस सम्बन्ध में प्रमाण मिला |
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्य जगत के एक सर्वोतम शोध करता हैं | उन्होंने पुस्तक लिखी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | इस पुस्तक तथा इससे पूर्व लिखे लेखों के आधार पर श्रीराम शर्मा , लक्शामिदत दीक्षित आदि टिक न सके तो फिर अब गर्ग जी को यह विवादित कार्य फिर से आरम्भ करने की आवश्यकता क्यों हुई तथा इस झूठ को फिर से फैलाने का प्रयास क्यों किया गया तथा यह भी पुन: आर्य जगत में ही क्यों प्फकाषित किया गया ? , इस के पीछे अवश्य कोई साजिश है , इस साजिश का पर्दाफाश होना आवश्यक है ताकि भविष्य में कोई एसा अनर्गल प्रलाप पुन: लाने का साहस न कर सके | ऊपर मैंने जो कुछ लिखा है , वह्सब जिज्ञासु जी की पुस्तक के आधार पर ही लिखा है यदि विस्तार से जानाना चाहें तो इस पुस्तक तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुवाद की गई लक्षमण जी वाली ऋषि जीवन का अनिम भाग अवश्य पढ़ें | यह भी जाने की विष किसने दिया , उसके नाम का निर्णय करना हमारा काम नहीं है , हमारा काम है की वास्तव में विष दिया गया या नहीं | मुद्दे से न भटकते हुए विषपान तक ही सिमित रहते हुए जाने तो पता चलता हैकि स्वामी जी की म्रत्यु का कारण वास्तव में विषपान ही था जो जोधपुर राजघराने में एक साजिश के तहत दिया गया और इस साजिश में बहुत से लोग यहाँ तक कि अंग्रेज भी शामिल था |

डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, २०१०१० गाजियाबाद
दूरभाष 01202773400 , 09718528068

शौर्य का हिमालय – स्वामी श्रद्धानन्द

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शौर्य का हिमालय – स्वामी श्रद्धानन्द

लेखक – प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

आधुनिक युग में विश्व के स्वाधीनता सेनानियों में स्वामी श्रद्धानन्द  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है । वह राजनीतिज्ञ नहीं थे राजनीति को मोड़ देने वाले विचारक थे । महर्षि दयानन्द जी महाराज ने ऋग्वेद भाष्य में लिखा है – कि ब्रहम्चारी, यति, वनस्थ, सन्यासी के लिए राज व्यवहार की प्रवृति  होनी योग्य नहीं । इस आर्ष नीति और मर्यादा का पालन करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द राजनीति के दलदल में फंसना अनुचित मानते थे । जब जब देश को उनके मार्गदर्शन की आश्यकता हुयी, वह संकट सागर की अजगर सम लहरों को चीरते हुए आ गए ।

वह अतुल्य पराक्रमी थे । शौर्य के हिमालय थे । बलिदान की मूर्ती थे । विदेशी सत्ता को समाप्त करने के लिए भारत संघर्ष कर रहा था ।  स्वाधीनता संग्राम का अभी शैशव काल था।  इस शैशव काल में बड़े बड़े नेता भी खुलकर स्वराज्य की चर्चा करने से सकुचाते थे । अंग्रेजी शाषन के अत्याचारों का,  दमन चक्र का स्पष्ट शब्दों में विरोध करना किसी विरले प्रतापी का ही काम था । कांग्रेस के मंच से अभी अंग्रेज जाती की न्यायप्रियता में विश्वास प्रगट किया जाता था । राजनीति का स्वर बड़ा धीमा था ।

२० वी शताब्दी की  प्रथम दशाब्दी में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का स्वर ऊंचा करने वाले राष्ट्र पुरुषों में श्रद्धानन्द जी का नाम बड़े सम्मान से लिया जावेगा । १९०७ ईस्वी में लाला लाजपत राय को निष्कासित कर दिया गया देश निकाला पाने वाले इस प्रथम भारतीय का खुल्लम खुल्ला पक्ष लेने वाले और उन्हें निर्दोष सिद्ध करने वाले श्रध्दानन्द के साहस की किस शब्दों में चर्चा की जावे ! तब स्तिथी यह थी कि लाल लाजपतराय के निकटतम आर्य समाजी मित्र मौन साध गए। लाला जी के पक्ष में दो शब्द लिखकर व बोलकर अंग्रेजों को दुत्कारने का साहस न बटोर सके । जिस आर्य गज़ट के लाल लाजपतराय संपादक रहे उस आर्य गज़ट में उनके लिए एक लेख न लिखा गया । तब श्रद्धानन्द का सिंहनाद आर्यों के हृदयों को गर्मा रहा था | आर्य गज़ट के एक भूतपूर्व संपादक महाशय शिवव्रतलाल वर्मन M.A. ( राधास्वामी सम्प्रदाय के गुरुदाता दयाल जी ) ने तब लाला जी के पक्ष में ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक में एक लेख दिया था । यह पत्रिका स्वामी श्रद्धानन्द जी के संरक्षण मार्गदर्शन में प्रकशित होती थी । इसमें  श्री शिवव्रतलाल जी ने झंजोड़ कर लाल जी के साथियों से पूछा था कि वो चुप्पी क्यूँ साधे हुए हैं ?

लाल लाजपत राय स्वदेश लौटे । सूरत कांग्रेस हुयी । कांग्रेस में भयंकर फूट पड़ गयी तब श्रीयुत गोखले बोले १० जन १९०८ ईस्वी में स्वामी जी को पत्र लिखकर सूरत न पहुँचने पर उपालम्भ दिया और राष्ट्रीय आंदोलन पर बुरी फुट की बिजली से देश को बचाने के लिए उनका मार्गदर्शन माँगा।

स्वामी जी से मिलने की इच्छा प्रगट की । १९०७ ईस्वी में अमरावती से निकलने वाले उग्रवादी पत्र “कर्त्तव्य” पर राजद्रोह का अभियोग चला तब उसने क्षमा मांग ली | स्वामी जी ने इस पर लिखा “ऐसे गिरे हुए लफंगे यदी स्वराज्य प्राप्त कर भी लें तो विचारणीय यह है कि वह स्वराज्य कहीं रसातल में ले जाने वाला तो सिद्ध न होगा ।

 

मि नॉर्टन एक बार मद्रास में कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन के स्वागत अध्यक्ष बने थे आपने बंगाल में क्रांतिकारियों के विरुद्ध सरकारी वकील बनना स्वीकार कर लिया । श्रद्धानन्द का मन्यु तब देखने योग्य था । आपने मि. नॉर्टन के इस कुकृत्य की कड़ी निंदा की | गोस्वामी नरेन्द्रनाथ क्रांतिकारियों से द्रोह करके सरकारी साक्षी बन गया । तब तेजस्वी श्रद्धानन्द ने उसे महाअधम विश्वासघाती लिखा इस साहस को किस तुला पर तौले । अभी अभियोग न्यायलय में चल रहा है वीर योद्धा फांसियों पर चढ़ाये जा रहे हैं | और मुंशीराम वकील होते हुए भी न्यायलय का अपमान कर रहा है । क्रांतिकारियों का पक्ष लेकर विपदाओं को आमंत्रित कर रहा है ।

श्रद्धानन्द तो बलाओं को बुला बुला कर उनसे जूझने में आनंद लेता था । गुरु के बाद का मोर्चा लगा | गुरुद्वारों की पवित्रता के लिए, रक्षा के लिए सिख भाई विदेशी शासन से बढ़ बढ़ कर भिड़ रहे थे ।  स्वामी जी की सिंह गर्जना अकाल तख़्त अमृतसर से अंग्रेजों ने सुनी तो घबराया हड़बड़ाया सिखों के सर्वोच्च धर्मस्थान से बोलने वाले वो ही एक मेव राष्ट्रीय नेता थे । इस भाषण करने के अपराध में स्वामी जी सिखों के जत्थेदार बनकर जेल गए |

सहस्त्र मील दूर केरल में छूत छात के विरुद्ध मोर्चा लगाने के लिए वृद्धावस्था में जा पहुंचे केरल में लोकमान्य नेता श्री मन्नम ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि “स्वामी श्रद्धानन्द का साहस, जन सेवा के अरमान देखने योग्य थे” | इस सत्याग्रह ने राष्ट्र को एक नवीन चेतना दी |

१९२० ईस्वी में बर्मा में स्वराज्य के प्रचार के लिए गये । वहाँ स्वामी ने स्वत्रन्त्रतानन्द जी के साथ भी काम किया । मांडले की ईदगाह से २५००० की उपस्तिथि में स्वराज्य का सन्देश दिया ।  ईदगाह से विराट सभा को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने वाले येही २ नेता हुए हैं।

३० मार्च १९१९ ईस्वी को देहली के चांदनी चौक में आपने संगीनों के सम्मुख छाती तानकर भारतीय शूरता की धाक जमा दी । यह आपका ही साहस व अद्भुत आत्मोसर्ग था कि आपने ललकार कर कहा था कि निर्दोष जनता पर गोली चलने से पूर्व मेरी छाती को संगीनों से छेदो ।

तब एक कवी ने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था :

“नंगी संगीने मदान्ध सिपाही मेरी यह प्रजा अब कैसे निभेगी।

आत्मा कौन की मोह विच्छोह ताज सहनागत यूँ शरण कहेंगी ।”

जाना तह कौन की भारत के हित आपकी छाती यूँ ढाल बनेगी।

श्रद्धानन्द सरीके सपूत बता जननी फिर कब जानेगी ||

कोई कितना भी पक्षपात क्यूँ न करें इस तथ्य को कोई इतिहासकार नहीं झुठला सकता कि स्वामी श्रद्धानंद  का स्थान हमारे राष्ट्र निर्माताओं की अग्रिम पंक्ति में है । बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस महापुरुष ने विविध क्षेत्रों में बुराइयों से लड़ाई लड़ते हुए दुःख कष्ट झेले और अपना सर्वस्य समर्पण करके राष्ट्र को नव जीवन दिया। ऐसे बलिदानी महापुरुष को, मानवता के मान को हमारा शत शत प्रणाम |

भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध) का महत्व

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भारतीय समाज में मन्यु (बोध जन्य क्रोध)  का महत्व 

साधारण हिंदी में  मन्यु का अर्थ क्रोध लिया जाता है . यह इसी बात का परिचायक है हम मन्यु शब्द  का अर्थ तक भूल गये हैं भारत वर्ष  में महाभारत काल में ही समाज में मन्यु का अभाव  दिखायी  देने  लगा था. वास्तव  में कृष्ण द्वारा  अर्जुन को  गीता का उपदेश वैदिक  मन्यु  का  ज्ञान ही  तो है. दुष्टों  के अन्याय के विरुद्ध आक्रोश और  संग्राम  तो  मानव  का कर्तव्य  बनता है. भगवान  राम का लन्केश रावण के दुष्टाचार से समाज का उद्धार मन्यु ही तो था. मर्यादा पुरुषोत्तम  से  क्रोध  की तो अपेक्षा ही नहीं  की जा सकती . बोध जन्य क्रोध  को मन्यु  कहते  हैं .इसीलिए  वैदिक प्रार्थना है  –  “मन्युरसि मन्युं मयि धेहि, हे दुष्टों पर क्रोध करने वाले (परमेश्वर) ! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवो पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में  भी  रखिये यजुर्वेद – 19.9”. मनन उपरांत  उग्रता  मन्यु है अन्याय दुष्ट आचरण से समझौता करना दुष्टाचरण को समाप्त नहीं  करता वरन्च दुष्टाचार को  बढावा ही देता है.   क्या यह भारत वर्ष का ही नहीं समस्त मानव इतिहास  बताता है. महाभारत  काल   के पश्चात ऐसा लगता है कि भारतीय समाज मन्यु  विहीन हो गया.  तभी तो हम सब दुष्टों के व्यवहार को परास्त न कर के , उन से समझौता करते चले  आ रहे  हैं हिंदु धर्म  में वैदिक काल से यम नियम द्वारा अहिंसा  मानव मात्र का  कर्तव्य  है. परन्तु  अहिंसा का अर्थ  मन्यु विहीन होना कदापि नहीं  है.  अहिंसा परमो  ध्रर्मः के  अर्थ का  बोध पूर्वक  संज्ञान होना चाहिये.

समाज, राष्ट्र, संस्कृति की सुरक्षा के लिए, मन्यु कितना मह्त्व का  विषय है यह इस बात से सिद्ध होता है कि ऋग्वेद मे पूरे दो सूक्त केवल मन्यु पर हैं. और इन्हीं दोनो सूक्तों का अथर्व वेद मे पुनः उपदेश मिलता है.

 अग्निरिव मन्यो तविषितः, विद्मा तमुत्सं आबभूथ, मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः वेद यह भी निर्देश देते हैं कि मन्यु एक दीप्ति है जिस का प्रकाश यज्ञाग्नि द्वारा मानव हृदय में होता है. हृदय के रक्त के संचार मे मन्यु का उत्पन्न होना बताते है. मन्यु यज्ञाग्नि से ही उत्पन्न जातवेदस सर्वव्यापक वरुण रूप धारण करता है.

परन्तु वेदों मे इस बात की भी सम्भावना दिखायी है,कि कभी कभी समाज में , परिवार में विभ्रान्तियों, ग़लतफहमियों, मिथ्याप्रचार के कारण भी सामाजिक सौहार्द्र में आक्रोश हो सकता है. ऐसी परिस्थितियों में आपस में वार्ता, समझदारी से आपसी मनमुटाव का निवारण कर, प्रेम भाव सौहर्द्र पुनः स्थापित किया जाना चाहिये.

 Rig Veda Book 10 Hymn 83 same as AV 4.32

यस्ते मन्योSविधद्वज्र सायक सह ओजः पुष्यति विश्वमानुषक | 

साह्याम दासमार्यं त्वया युजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता || ऋ10/83/1

(वज्र सायक मन्यो)  Confidence is  born out of  being competently equipped and trained to perform a job.

हे मन्यु, जिस ने तेरा आश्रयण किया है, वह अपने शस्त्र सामर्थ्य को, समस्त बल और पराक्रम को निरन्तर पुष्ट करता है.साहस से उत्पन्न हुवे बल और परमेश्वर के साहस रूपि सहयोग से समाज का अहित करने वालों पर  बिना मोह माया ( स्वार्थ, दुख) के यथा योग्य कर्तव्य करता  है.

मन्युरिन्द्रो मन्युरेवास देवो मन्युर्होता वरुणो जातवेदाः |
मन्युं विश ईळते मानुषीर्याः पाहि नो मन्यो तपसा सजोषाः || ऋ10/83/2

मन्युदेव इंद्र जैसा सम्राट है. मन्युदेव ज्ञानी सब ओर से प्रचेत ,सचेत तथा धनी वरुण जैसे गुण वाला है  .वही यज्ञाग्नि द्वारा समस्त वातावरण और समाज मे कल्याण कारी तप के उत्साह से सारी मानव प्रजा का सहयोग प्राप्त करने मे समर्थ होता है. (सैनिकों और अधिकारियों के मनों में यदि मन्यु की उग्रता न हो तो युद्ध में सफलता नहीं हो सकती. इस प्रकार युद्ध में  मन्यु ही पालक तथा रक्षक होता है.)

अभीहि मन्यो तवसस्तवीयान् तपसा युजा वि जहि शत्रून् |
अमित्रहा वृत्र हा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं नः || ऋ10/83/3

हे वज्ररूप, शत्रुओं के लिए अन्तकारिन्‌ , परास्त करने की शक्ति के साथ उत्पन्न होने वाले, बोध युक्त क्रोध ! अपने कर्म के साथ प्रजा को स्नेह दे कर अनेक सैनिकों के बल द्वारा समाज को महाधन उपलब्ध करा.

त्वं हि मन्यो अभिभूत्योजाः सवयंभूर्भामो अभिमातिषाहः |
विश्वचर्षणिः सहुरिः सहावानस्मास्वोजः पर्तनासु धेहि || ऋ10/83/4

हे बोधयुक्त क्रोध मन्यु!  सब को परास्त कारी ओज वाला, स्वयं सत्ता वाला, अभिमानियों का  पराभव  करने वाला , तू विश्व का शीर्ष नेता है. शत्रुओं के आक्रमण को जीतने वाला विजयवान है. प्रजाजनों, अधिकारियों, सेना में अपना ओज स्थापित कर.

अभागः सन्नप परेतो अस्मि तव क्रत्वा तविषस्यप्रचेतः |
तं त्वा मन्यो अक्रतुर्जिहीळाहं स्वा तनूर्बलदेयाय मेहि ||ऋ10/83/5

हे त्रिकाल दर्शी मन्यु, तेरे वृद्धिकारक  कर्माचरण से विमुख हो कर मैने तेरा निरादर किया है ,मैं पराजित  हुवा हूँ. हमें अपना बल तथा ओज शाली स्वरूप दिला.

अयं ते अस्म्युप मेह्यर्वाङ्  प्रतीचीनः सहुरे विश्वधायः |
मन्यो वज्रिन्नभि मामा ववृत्स्व हनाव दस्यूंरुत बोध्यापेः || ऋ10/83/6

हे प्रभावकारी समग्र शक्ति प्रदान करने वाले मन्यु, हम तेरे अपने हैं .  बंधु अपने आयुध और बल के साथ हमारे पास लौट कर आ, जिस से हम तुम्हारे सहयोग से सब अहित करने वाले शत्रुओं पर सदैव विजय पाएं.

अभि प्रेहि दक्षिणतो भवा मे Sधा वृत्राणि जङ्घनाव भूरि |
जुहोमि ते धरुणं मध्वो अग्रमुभा उपांशु प्रथमा पिबाव ||ऋ10/83/7

हे मन्यु , मैं तेरे श्रेष्ठ भाग और पोषक, मधुररस की स्तुति करता हूं . हम दोनो युद्धारम्भ से पूर्व अप्रकट मंत्रणा करें ( जिस से हमारे शत्रु को हमारी योजना की पूर्व जानकारी न हो). हमारा दाहिना हाथ बन, जिस से हम राष्ट्र  का आवरण करने वाले शत्रुओं पर विजय पाएं.

Rig Veda Book 10 Hymn 84 same as AV 4.31

त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धर्षिता मरुत्वः |
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः || ऋ10/84/1 अथव 4.31.1

हे  मरने  की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने  वाले  मन्यु , उत्साह !  तेरी सहायता से रथ सहित शत्रु को विनष्ट करते हुए और स्वयं आनन्दित  और प्रसन्न चित्त हो कर  हमें उपयुक्त शस्त्रास्त्रों से अग्नि के समान तेजस्वी नेत्रित्व  प्राप्त हो.

अग्निरिव मन्यो तविषितः सहस्व सेनानीर्नः सहुरे हूत एधि

हत्वाय शत्रून् वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ||ऋ10/84/2 अथर्व 4.31.2

हे उत्साह रूपि मन्यु तू अग्नि का तेज धारण कर, हमें समर्थ बना. घोष और  वाणी से आह्वान  करता हुवा  हमारी सेना  को नेत्रित्व प्रदान करने वाला हो. अपने शस्त्र बल को नापते  हुए  शत्रुओं को परास्त कर के हटा दें.

सहस्व मन्यो अभिमातिमस्मे रुजन् मृणन् प्रमृन् प्रेहि शत्रून्

उग्रं ते पाजो नन्वा रुरुध्रे वशी वशं नयस एकज त्वम् || ऋ10/84/3अथर्व 4.31.3

अभिमान करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने का तुम अद्वितीय  सामर्थ्य रखते हो.

एको बहूनामसि मन्यवीळितो विशं-विशं युधये सं शिशाधि |
अकृत्तरुक त्वया युजा वयं द्युमन्तं घोषं विजयाय कर्ण्महे || ऋ10/84/4अथर्व 4.31.4

हे मन्यु बोधयुक्त क्रोध अकेले तुम ही सब सेनाओं और प्रजा जनों का उत्साह बढाने वाले हो. जयघोष और सिन्ह्नाद सेना और प्रजा के पशिक्षण में  दीप्ति का प्रकाश करते हैं वह  तुन्हारा ही प्रदान किया हुवा है.


विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवो Sस्माकं मन्यो अधिपा भवेह |
प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं आबभूथ ||  ऋ10/84/5अथत्व 4.31.5

मन्यु द्वारा विजय कभी निंदनीय नहीं होती. हम उस प्रिय मन्यु के उत्पादक  रक्त के संचार करने वाले हृदय  के बारे में भी जानकारी प्राप्त करें.

आभूत्या सहजा वज्र सायक सहो बिभर्ष्यभिभूत उत्तरम |
क्रत्वा नो मन्यो सह मेद्येधि महाधनस्य पुरुहूतसंसृजि ||ऋ10/84/6  अथर्व 4.31.6

दिव्य सामर्थ्य उत्पन्न कर के उत्कृष्ट बलशाली मन्यु अपनी सम्पूर्ण शक्ति से अनेक स्थानों पर पुकारे जाने पर उपस्थित हो कर, हमे  महान ऐश्वर्य युद्ध मे  विजय प्रदान करवाये.

संसृष्टं धनमुभयं समाकृतमस्मभ्यं दत्तां वरुणश्च मन्युः | 

भियं दधाना हर्दयेषु शत्रवः पराजितासो अप नि लयन्ताम् || ऋ10/84/7  AV4.31.7

हे मन्यु ,  बोधयुक्त क्रोध , समाज के शत्रुओं द्वारा (चोरी से) प्राप्त प्रजा के धन को तथा उन शत्रुओं  के द्वारा राष्ट्र से पूर्वतः एकत्रित किये  गये  दोनो प्रकार के धन को शत्रु के साथ युद्ध में जीत कर सब प्रजाजनों अधिकारियों को प्रदान कर (बांट). पराजित शत्रुओं के हृदय में इतना भय उत्पन्न कर दे कि वे निलीन हो जाएं.

( क्या यह स्विस बेंकों मे राष्ट्र के धन के बारे में उपदेश नहीं है)

Atharva 6/41

मनसे चेतसे धिय आकूतय उत चित्तये !

मत्यै श्रुताय चक्षसे विधेम हविषा वयम् !! अथर्व 6/41/1

(मनसे) सुख दु:ख आदि को प्रत्यक्ष कराने वाले मन के लिए (चेतसे) ज्ञान साधन चेतना के लिए (धिये) ध्यान साधन बुद्धिके लिए (आकूतये) संकल्प  के लिए (मत्यै) स्मृति साधन मति के लिए, (श्रुताय) वेद ज्ञान के लिए ( चक्षसे) दृष्टि शक्ति के लिए (वयम) हम लोग (हविषा विधेम) अग्नि मे हवि द्वारा यज्ञ करते हैं.

भावार्थ: यज्ञाग्नि के द्वारा उपासना से मनुष्य को सुमति, वेद ज्ञान,चैतन्य, शुभ संकल्प, जैसी उपलब्धियां होती हैं जिन की सहायता से जीवन सफल हो कर सदैव सुखमय बना रहता है.

अपानाय व्यानाय प्राणाय भूरिधायसे !

सरस्वत्या उरुवव्यचे विधेम हविषा वयम !! अथर्व 6/41/2

(अपानाय व्यानाय) शरीरस्थ प्राण वायु के लिए (भूरिधायसे)अनेक प्रकार से धारण करने वाले (प्राणाय) प्राणों के लिए (उरुव्यचे) विस्तृत गुणवान सत्कार युक्त (सरस्वत्यै) उत्तम ज्ञान की वृद्धि के लिए (वयम हविषा विधेम) हम अग्नि मे हवि द्वारा द्वारा होम करते हैं.

भावार्थ: प्राणापानादि शरीरस्थ प्राण वायु के विभिन्न व्यापार मानव शरीर को सुस्थिर रखते हैं. इन्हें कार्य क्षेम रखने के लिए युक्ताहार विहार के साथ प्राणायामादि के साथ यज्ञादि संध्योपासना प्राणों को ओजस्वी बनाने के सफल साधन बनते हैं

मा नो हासिषुरृषयो दैव्या ये तनूपा ये न तन्वस्व्तनूजा: !

अमर्त्या मर्तयां अभि न: सचध्वमायुर्धत्त प्रतरं जीवसे न: !! अथर्व 6/41/3

(ये) जो (दैव्या ऋषिय:) यह दिव्य सप्तऋषि(तनूपा) शरीर की रक्षा करने वाले हैं (ये न: तन्व: तनूजा) ये जो शरीर में इंद्रिय रूप में स्थापित हैं वे (न: मा हासिषु) हमें मत छोडें .(अमर्त्या:) अविनाशी देवगण (मर्त्यान् न) हम मरण्धर्मा लोगों को (अभिसचध्वं) अनुगृहीत करो, (न: प्रतरं आयु:) हमारी  दीर्घायु  को (जीवसेधत्त) जीवन के लिय समर्थ करें( इसी संदर्भ में “ शुक्रमुच्चरित ” द्वारा ऊर्ध्वरेता का भी महत्व बनता है  शरीरस्थ सप्तृषि: सात प्राण, दो कान (गौतम और भरद्वाज ज्ञान को भली भांति धारण करने से भरद्वाज) दो चक्षु (विश्वामित्र और जमदग्नि जिस से ज्योति चमकती है) दो नासिका (वसिष्ठ और कश्यप प्राण के संचार का मार्ग), और मुख (अत्रि:)

Resolve Misperceptions – भ्रांति निवारण

 Negotiations

अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः!

यथा संमनसौ भूत्वा सखायाविव सचावहै !! अथर्व 6.42.1

असह्य व्यवस्था के विवेकपूर्ण  चिन्तन  करने से ज्ञान दीप्ति द्वारा मित्रों की तरह सुसंगत होने का भी प्रयास करना चाहिए.

Possible misapprehensions leading to public unrest /family discords should be resolved by better understanding. Angry situations may thus be resolved to establish peace and harmony.

Bury the hatchet- शांति वार्ता

सखायाविव सचावहा अव मन्युं तनोमि ते !

अघस्ते अश्मनो मन्युमुपास्यामसि यो गुरुः !! अथर्व 6.42.2

परिवार में समाज में विभ्रान्ति

Anger caused by misunderstandings should be resolved to establish friendly atmosphere. Anger should be forgotten as if buried under a heavy stone.

Restore Amity-सौहार्द्र पुनः स्थापन

अभि तिष्ठामि ते मन्युं पार्ष्ण्या प्रपदेन च !

यथावशो न वादिषो मम चित्तमुपायसि !! अथर्व 6.42.3

Public Anger should be forgotten for the hearts to become one. This is as if the anger had been crushed under the heels

यज्ञाग्नि का हृदय में स्थापित्य से क्षत्रियत्व का प्रभाव

अथर्व 6.76

1.य एनं परिषीदन्ति समादधति चक्षसे ! संप्रेद्धो अग्निर्जिह्वाभिरुदेतु  हृदयादधि अथर्व 6.76.1

जो इस  यज्ञाग्नि के चारों ओर बैठते हैं , इस की उपासना करते हैं, और दिव्य दृष्टि के लिए इस का आधान करते हैं , उन के हृदय के ऊपर प्रदीप्त हुवा अग्नि अपनी ज्वालाओं से उदय हो कर क्षत्रिय गुण प्रेरित करता है.

2.अग्नेः सांत्पनस्याहमायुषे पदमा रभे ! अद्धातिर्यस्य पश्यति धूममुद्यन्तमास्यतः !!अथर्व 6.76.2

शत्रु को तपाने  वाली अग्नि के (पदम्‌) पैर को, चरण को  (आयुषे) स्वयं की, प्रजाजन की, राष्ट्र की दीर्घायु के लिए (अह्म्‌) मैं ग्रहण करता हूँ . इस अग्नि के धुंए को मेरे मुख से उठता हुवा सत्यान्वेषी मेधावी पुरुष देख पाता है.

3.यो अस्य समिधं वेद क्षत्रियेण समाहिताम्‌ ! नाभ्ह्वारे पदं नि दधाति स मृत्यवे !! अथर्व 6.76.3

जो प्रजाजन इस धर्मयुद्ध की  अग्नि को देख पाता है, जो क्षत्रिय धर्म सम्यक यज्ञाग्नि सब के लिए समान रूप से आधान की जाती है. उसे समझ कर प्रजाजन कुटिल छल कपट की नीति को त्याग कर मृत्यु के लिए पदन्यास नहीं करता.

4. नैनं घ्नन्ति पर्यायिणो न सन्नाँ अव गच्छति! अग्नेर्यः क्ष्त्रियो विद्वान्नम गृह्णात्यायुषे !! अथर्व 6.76.4

जो सब ओर से घेरने वाले शत्रु हैं वह इस आत्माग्नि  का सामना नहीं  कर पाते, और समीप रहने वाले भी इस को जानने में असमर्थ रहते हैं. परन्तु जो ज्ञानी क्षत्रिय   धर्म ग्रहण करते हैं वे हुतात्मा अमर हो जाते हैं .