अब भक्ष्याभक्ष्य विषय में संक्षेप से विचार किया जाता है। जिस प्रकार के आहार से मनुष्य की स्वस्थदशा रक्षित रहती है। ‘मन, बुद्धि और शरीर के अवयवरूप रसादि धातुओं में किसी प्रकार की विषमता न रहना स्वस्थदशा कहाती है।’१ ऐसी स्वस्थदशा के विद्यमान रहने से ही मनुष्य सुखी होता है और सुख धर्म का फल है इस कारण धर्म करने की इच्छा रखने वाले पुरुष को अति उचित है कि पहले वैसे आहार का ही सेवन करे। ऐसे आहार को सामान्य कर भक्ष्य कहते हैं। और जिससे मन, बुद्धि तथा शरीरस्थ धातुओं की विषमता होती है, वह आहार अभक्ष्य वा त्याज्य माना जाता है। वैसे आहार का सेवन करने वाला मनुष्य रोगादि से ग्रस्त हो जाता है, और वह रोगादि सम्बन्धी दुःख अधर्म का फल है, इस कारण वैसा आहार धर्म चाहने वाले को भी त्याज्य है। ये दो प्रकार सर्वसम्मत निर्विवाद माननीय हैं। इस मन्तव्य में किसी को कुछ विवाद नहीं है। इसी अंश पर सुश्रुतकार ने सूत्रस्थान के हिताहितीय अध्याय में लिखा है कि- ‘जो वातप्रकृति वाले को हितकारी है वही वस्तु पित्तप्रकृति वाले को कुपथ्य वा अहित है। इस हेतु से कोई वस्तु किसी के लिये सर्वथा हित वा अहित नहीं है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, सो ठीक नहीं है। क्योंकि इस जगत् में अनेक वस्तु स्वभाव वा संयोग से सबके लिये हितकारी, अनेक सबके लिये अहितकारी तथा अनेक सामान्य कर हित-अहित दोनों करने वाले हैं। जैसे जन्म से ही अनुकूल होने से जल, घृत, दूध, भात आदि सर्वथा हितकारी हैं। अग्नि वा अत्युष्ण जलादि में जल जाना, गल जाना और विष खा लेना आदि सबके लिये सदा अहितकारी हैं। तथा हित-अहित मिश्रित वे ही हैं, जो वातप्रकृति के लिये पथ्य है, वह पित्त वाले के लिये कुपथ्य है।’२ इस प्रकार यहां तीन प्रकार कहे हैं। तथा भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में भी प्रकारान्तर से आहार के तीन प्रकार दिखाये गये हैं कि- ‘सरस चिकनायी सहित स्थिर और हृदय को प्रिय रुचिकर शुद्ध पवित्र दूध, घृत आदि आहार आयु, सत्त्वगुण, बल, नीरोगता सुख और प्रीति के बढ़ाने वाले होने से सत्त्वगुणी लोगों को प्रिय वा अनुकूल होते हैं। ऐसे आहार सर्वोत्तम वा सत्त्वगुणी माने जाते हैं। तथा दुःख, शोक (खुश्की) और रोगकारी, कटु, खट्टे, अतिलवण, अतिउष्ण, तीखे, रूखे, दाह वा जलन करने वाले आहार रजोगुणी लोगों को प्रिय होते हैं। यही मध्यम प्रकार का आहार माना जाता है। तथा बहुत देर का धरा हुआ, नीरस, बहुत काल धरे रहने से जिसमें दुर्गन्ध आने लगा हो, उच्छिष्ट- जूठा वा अशुद्ध भोजन तमोगुणी को प्रिय होता है।’१ अर्थात् इसी बात को अन्य प्रकारों से भी कह सकते हैं कि ऐसे-ऐसे भोजन करने वाले सात्त्विक, रजोगुणी वा तमोगुणी होते हैं वा सत्त्वगुणादि बढ़ाने की इच्छा वालों को वैसे-वैसे भोजन करने चाहियें। ये भी आहार के तीन भेद हैं। इनमें से उत्तम, निकृष्ट में विवाद कम है किन्तु विशेष विवाद नहीं, केवल मध्यस्थदशा में विवाद है, जहां हित और अहित वा बुराई-भलाई दोनों मिले रहते हैं। उसमें से देश, काल वा वस्तु के भेद से जिसमें विशेष वा प्रबल हित हो उस पक्ष का आश्रय लेना चाहिये और लेने पड़ता ही है। इससे विरुद्ध थोड़े हित का पदार्थ वा पक्ष छोड़ देना चाहिये। इसीलिये लोक के व्यवहार को ठीक-ठीक मर्यादा के साथ चलाने की अपेक्षा से विद्वान् लोग समय-समय में धर्मशास्त्र बनाते हैं। उनके कहने से जो शेष रह जाता है उस-उस को उस-उस समय के विद्वान् लोग निर्णीत करते वा उसकी व्यवस्था निकालते हैं। इसके लिये धर्मशास्त्रों में आज्ञा भी मिलती है कि- ‘दश विद्वानों की सभा मिलकर जिस धर्मसम्बन्धी विषय का निर्णय कर देवे उसको अचलधर्म मानना चाहिये।’२ इसका तात्पर्य यह है कि हित-अहित से मिले हुए विषय में सदा विवाद बना रहता है और सामयिक न्यायालय वा धर्माचार्य विद्वानों की सभाओं में समय-समय पर ऐसी बातों पर सदा निर्णय (फैसला) होता रहता है। यही दशा मध्यस्थ भक्ष्याभक्ष्य में जानो। यह सामान्य विचार रहा।
अब विशेष विचार यह है कि इस भक्ष्याभक्ष्य प्रकरण में मुख्य कर जड़ चेतन दो भेद हैं। चेतन प्राणी जड़ वा चेतन दोनों को खाया करते हैं। यह सिद्धानुवाद अर्थात् संसार में जो हो रहा है उसी का कथन है कि ऐसा होता है किन्तु विधिवाक्य नहीं है कि चेतनों को जड़ वा चेतन प्राणी खाने चाहियें। सो मनुस्मृति के भक्ष्याभक्ष्यप्रकरण में सिद्धानुवादरूप से लिखा है कि- ‘चेतन का अन्न जड़ वा जग्म का भोज्य स्थावर, दांत वालों का बिना दांत वाले, हाथ वालों का बिना हाथ वाले और शूरवीरों का अन्न डरपोक प्राणी हैं।’१ अर्थात् जग्म स्थावरों को खाते, दांत वाले बिना दांत वालों को खाते, हाथ वाले बिना हाथ वालों को खा जाते और शूरवीर हिंसादि भीरु मृगादि को खा जाते हैं। यह सिद्धानुवाद उत्सर्गरूप से दिखाया है। अन्य विधि-निषेध परक सब वाक्य इसी के बाधक होंगे। इसी प्रसग् में लहसुन, गाजर, प्याज, कवक-छत्राक (कुकुरमुत्ता वा कठफूल) तथा अशुद्ध पृथिवी में उत्पन्न हुए सामान्य कर पदार्थ अभक्ष्य कहे हैं, उसका विचार ऐसा है कि लहसुन आदि विष के तुल्य अनिष्ट वा त्याज्य नहीं हैं, क्योंकि उनके खाने वाले पीड़ादि से दुःखित वा मरण को प्राप्त नहीं हो जाते। तथा जो भोजन करने योग्य पदार्थ सामान्य कर सब प्राणियों के लिये अतिहितकारी सुश्रुत के हिताहितीयाध्याय में कहे गये हैं, उनमें भी लशुनादि की गणना नहीं की गयी। अर्थात् जो लशुनादि पदार्थ अत्यन्त हितकारी सबको गुण देने वाले दूध आदि के तुल्य होते तो सर्वथा सर्वहितकारी पदार्थों की गणना के साथ इनका भी नाम आता, सो ऐसा न होने से सिद्ध होता है कि लशुनादि सबके हितकारी वा विशेष गुणकारी नहीं किन्तु मध्यस्थ कोटि में अर्थात््््््््््् हित-अहित से मिले हुए आहार के समुदाय में मानने चाहियें। और हिताहित का लक्षण यही कहा गया है कि जो वातप्रकृति वाले को पथ्य है वही पित्त वाले को कुपथ्य होगा। इत्यादि प्रकार से जो वस्तु किसी देश वा काल में किसी का भक्ष्य है, वही वस्तु देशान्तर, कालान्तर वा अवस्थान्तर में उसी को वा अन्य को किसी कारण से अभक्ष्य हो जाता है। इसी प्रकार अभक्ष्य वस्तु भक्ष्य भी हो जाता है। इसी कारण लहसुन आदि वस्तु भी किसी को किसी देश वा कालादि में भक्ष्य वा अभक्ष्य होते रहते हैं। परन्तु सामान्य कर स्वस्थ वा नीरोग दशा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को लहसुन आदि का भक्षण नहीं करना चाहिये, यह धर्मशास्त्र में निषेध करने का अभिप्राय है। उन लशुनादि में जो अच्छे गुण भी हैं वे प्रायः सत्त्वगुण के बढ़ाने वाले नहीं दीखते किन्तु उनमें रजोगुण, तमोगुण के बढ़ाने और सत्त्व के विनाशक गुण अधिक हैं ऐसा मन में विचार करके धर्मशास्त्र में उन लशुनादि का खाना निषिद्ध किया है। और द्विजाति नाम ब्राह्मणादि तीन वर्णों को धर्मयुक्त वेदोक्त सत्त्वगुणसम्बन्धी कर्म का विशेष कर सेवन करना चाहिये। और मुख्यकर सत्त्वगुणयुक्त बुद्धि होने के लिये वैसे ही सत्त्वगुणवर्द्धक पदार्थों का भोजन करना चाहिये। अब आयुर्वेदनामक सुश्रुत के सूत्रस्थान के अन्नपानविधिनामक छियालीसवें अध्याय में लहसुन और प्याज के विषय में ऐसा कहा है कि- ‘लहसुन- चिकना, गर्म और तीखा अर्थात् चरपरा, कटुरसयुक्त, भारी, छेदक वा रेचक, स्वादुरस, बलकारी, कामोद्दीपक, बुद्धि, स्वर, वर्ण और नेत्रों के लिये हितकारी, टूटी हड्डी के जोड़ने में हितकारी, हृदय के रोग पीड़ादि, जीर्णज्वर, कोख की पीड़ा, बद्धकोष्ठ गुल्म रोग जो पेट में गोलाकार होता है, अरुचि, खांसी, और सूजन तथा दाद, पित्त की पीड़ा, कृमि, वायु, श्वास तथा कफसम्बन्धी रोगों को नष्ट करने वाला लशुन है अर्थात् ये गुण लहसुन में हैं। और प्याज के खाने से वीर्य में कुछ गर्मी, वायु का नाश, कटुरसकारी, तीखा, भारी, कुछ कफ का उत्पादक, बलकारी, पित्तवर्द्धक, क्षुधा को बढ़ाने वाला। ये गुण सामान्य कर प्याज में हैं। चिकना, रुचिकारी, धातुओं को स्थिर करना, बलकारी, बुद्धि, कफ और पुष्टि को बढ़ाने वाला, स्वादिष्ट, भारी, लोहू और पित्त को सुधारने वाला और रसयुक्त लाल प्याज होता है।’१ ये उक्त गुण लाल प्याज में होते हैं। जैसे कोई वस्तु कोमल वा गर्म हो तो विशेष गुणकारी होता वैसा गुणकारी गर्म होने पर तीक्ष्ण हो तो नहीं हो सकता किन्तु उससे रजोगुण की वृद्धि होती है। और रसयुक्त होने पर कटु होना भी वैसा ही रजोगुणकारी है। तथा भारी वा भेदक होना भी लहसुन के गुण सर्वहितकारी नहीं हैं, किन्तु वातरोग वाले को हितकारी हैं, पित्त वाले के लिये नहीं, उष्ण और तीक्ष्णतादि गुण भी पित्त को कुपित करने वा बढ़ाने वाले हैं। मैथुन की इच्छा को बढ़ानारूप गुण भी सर्वहितकारी नहीं है किन्तु कामी लोगों के लिये उपयोगी है, परन्तु जितेन्द्रिय वा ब्रह्मचारी रहने वालों के लिये यह गुण अनिष्ट वा अनुपकारी- उनके नियम वा व्रत को बिगाड़ने वाला है। इत्यादि कई गुण इसमें ऐसे हैं जो विशेष दशाओं में किसी-किसी को कुछ उपयोगी हो सकते हैं, परन्तु जिन तपस्वी जितेन्द्रिय नीरोग स्वस्थ ब्राह्मणादि के लिये विशेष हितकारी लशुनादि नहीं किन्तु हानिकारक तो किसी प्रकार अवश्य हैं। बुद्धि आदि के वर्द्धक, स्वादुरस वा बलकारी होना आदि कई गुण इन लशुनादि में अच्छे हैं, उनके रहने पर भी सत्त्वगुण का विघात करना उसमें बना ही रहता है तो जो पुरुष उन गुणों को लेने के लिये लशुनादिकों का सेवन स्वीकार करेगा उसको उनके अवगुण के दोषों से दुःख वा हानि भी उठानी पड़ेगी। अर्थात् जिस अन्न में विष मिला हो उसको कोई पुरुष क्षुधा की निवृत्ति के लिये नहीं खाता। जिस धर्म के साथ कई अधर्म भी आ जावें उसका बिना किसी विशेष दशा के ग्रहण वा सेवन नहीं करना चाहिये। इसी के अनुसार लशुनादि में गुण होने पर भी दोषों को साथ में आते देखकर निषेध किया। रहे गुण बुद्धिवर्द्धक आदि उसके लिये घृत, दुग्ध वा मधु आदि अनेक स्वच्छ सत्त्वगुणी पदार्थ विद्यमान हैं जिनमें वैसी बुराई नहीं है। और लशुनादि में रोगनाशक कई गुण अवश्य अच्छे हैं इसलिये वातादि से होने वाले रोगों में उनका सेवन करना चाहिये। प्याज के गुण पूर्व लिख चुके हैं वह भी प्रायः लहसुन के तुल्य अच्छे बुरे गुणों वाला है। इस विषय में भावप्रकाशनामक चिकित्साग्रन्थ में भी लिखा है कि- ‘एक अम्ल रस को छोड़कर पांच रस वाला होने से द्रव्यों के गुण जानने वालों ने लहसुन का नाम रसोन रखा है। जड़ में कडुआ, पत्तों में तीखा, नाल में कषैला, नाल के अग्रभाग में लवण और लशुन के बीज में मीठा रस रहता है। लहसुन- बढ़ाने वाला, मैथुनेच्छाकारी, चिकना, गर्म, पाचक और भेदक है।’१ इत्यादि प्रकार से पूर्व के तुल्य गुण-अवगुणकारी दिखाया है।
तथा प्याज के विषय में भी भावप्रकाश में विशेष यह लिखा है कि- ‘प्याज यवनों का इष्टभोजन, बुरे गन्ध से युक्त, मुख को दूषित करने वाला तथा लशुन के तुल्य गुणों वाला भी है। पचने पर अच्छा चित्त करने वाला, गर्मी रहित कफकारी, कुछ पित्त करने वाला, केवल वातरोग का नाशक, भारी और बल-वीर्य को बढ़ाने वाला है।२ गाजर के विषय में भी लिखा है कि- ‘गाजर पित्त को बढ़ाने, हृदय को पकड़ने और तीक्ष्ण नाम छेदक वा रेचक तथा रोगनाशक है।’३ इत्यादि प्रकार से गाजर भी लहसुन आदि के तुल्य रजोगुणवर्द्धक, क्रोधादिकारक और कामदेव का उत्तेजक है, ऐसा समझकर अभक्ष्य कोटि में रखा गया है। चौथा कवक वा छत्राक जिसको लोकभाषा में कुकुरमुत्ता वा कठफूल कहते हैं। यह भी शीतल और भेदक है। इसके विशेष खाने से विसूचिका होनी संभव है। कठफूल गाजर और प्याज आदि पकाने पर मांस के तुल्य कुछ-कुछ भी प्रतीत होते हैं तथा लहसुन वा प्याज का गन्ध भी सबके अनुकूल ग्राह्य नहीं है। उन दोनों वस्तुओं के खाने वालों के मुख से जो गन्ध निकलता है, उसको सब कोई सुगन्ध के तुल्य ग्रहण करने को उद्यत नहीं होते, किन्तु अनेक लोग दुर्गन्ध के तुल्य असह्य मानते हैं। इत्यादि कारणों से भी इन लशुनादि को अभक्ष्य कोटि में गिना है। पहले धर्मशास्त्र बनाते समय पूर्व कहे अनेक कारणों से लहसुनादि के खाने का प्रचार भी नहीं था, उसी के अनुसार उस समय के धर्मशास्त्रों में निषेध लिखा गया। इसी प्रकार उस समय प्रदेशभेद से अर्थात् पूर्व में लहसुन, दक्षिण वा पंजाब आदि में प्याज और मध्य प्रान्त में गाजर के खाने का प्रचार देखकर कोई खाने का विधान भी कर सकता है। परन्तु प्रचार-अप्रचार मात्र को देखकर विधि वा निषेध करना ठीक नहीं है, किन्तु हानि-लाभ आदि को देखकर विधान वा निषेध होना चाहिये। अनेक लोग यह भी कह सकते हैं कि जब लशुनादि में अनेक अच्छे गुण हैं तो उनको भक्ष्य क्यों नहीं ठहराया जाता और थोड़े अवगुणों से अभक्ष्य क्यों माने जाते हैं ? इसका उत्तर यह है कि लशुनादि में जो गुण हैं, उनको हम अवगुण नहीं ठहराते किन्तु वे गुण प्रायः रोगी पुरुषों के रोगनाश करने के लिये उपयोगी हैं। और दोषों के होने से स्वस्थ दशा में कि जब कोई रोग नहीं, तब निषेध किया जाता है। तथा एक बात यह भी है कि लशुनादि को स्वस्थसंरक्षण में नहीं गिनाया गया, इत्यादि कारण से हमने भी इसके निषेध का कारण दिखाया है। ऐसे लालमिर्च भी भेदक वा रजोगुणवर्द्धक, वातघ्न और क्षीणता करने वाली होने से उसके भक्षण का निषेध कर सकते हैं अर्थात् स्वस्थ दशा की रक्षा के लिये घृतादि के तुल्य लालमिर्च का भी कुछ उपयोग नहीं इससे वह भी अभक्ष्य है। परन्तु अभक्ष्य शब्द का वैसा अर्थ नहीं समझना चाहिये जैसा कि इस समय अनेक लोग समझते हैं कि जिसके खाने से मनुष्य पतित हो जाता है किन्तु जिसके खाने से किसी प्रकार का दुःख हो वा कुछ हानि हो वा किसी अन्य को दुःख पहुंचे, वह पदार्थ अभक्ष्य है। लालमिर्च वातघ्न है इस कारण वातप्रकृति वाले को विशेष उपकारी जानो। और पित्त वाले वा स्वस्थ के लिये भेदक वा वीर्यादि को क्षीण करने वाली है। इसलिये उसको अभक्ष्य ठहरा सकते हैं। परन्तु उसके भक्षण से मद्यादि के तुल्य कोई पतित नहीं हो सकता। इसी प्रकार लहसुन आदि के खाने वाले भी पतित नहीं होते। किन्तु उन लहसुन आदि के प्रायः खाने से रजोगुण बढ़ता है। इस कारण उन लहसुन आदि के प्रायः खाने का ही निषेध है, किन्तु नैमित्तिक रोगादि में नहीं। रोग में तो ओषधि के समान सेवन करना ही उचित है। इस अभक्ष्यप्रकरण में लहसुन आदि उदाहरण मात्र उपलक्षण हैं कि इस प्रकार के गुण वाले पदार्थ स्वस्थ दशा में मनुष्यों को नहीं खाने चाहियें, किन्तु परिगणन नहीं है कि इतने ही पदार्थ अभक्ष्य हैं। इससे यह आया कि वेदादि शास्त्र पढ़ने वा वेदोक्तधर्मयुक्त कर्मों का सेवन करने वाले ब्राह्मणादि द्विजों के स्वरदूषक, सत्त्वगुणनाशक वा रजोगुण-तमोगुणवर्द्धक जो कोई गिनाये हुए लहसुन आदि से भिन्न भी शाक, मूल, कन्द, फल वा पुष्पादि वस्तु हों, उनको अभक्ष्य कोटि में रखना चाहिये। यहां उदाहरण (नमूना) मात्र दिखा दिया है। क्योंकि सत्त्वगुण के ठीक होने पर ही सुख उत्पन्न होता और मुख्यकर धर्म का फल सुख ही है, इससे भक्ष्याऽभक्ष्य का धर्म के साथ सम्बन्ध युक्त ही है।
इस अध्याय के छठे श्लोक में गव्यपेयूष (गाय की गिजरी) के खाने का निषेध किया है और आठवें श्लोक में दस दिन से पहले गौ के दूध का निषेध है। इनमें से पहले में अग्नि के संयोग के कठिन हो जाने वाली गिजरी का निषेध है और प्रायः सात दिन तक दूध फटता वा गिजरी होती है उन दिनों में तो अवश्य ही वह त्याज्य है क्योंकि उसमें बहुत दिन की गर्मी वा मलिनता का विकार जुड़ा रहता है। इस कारण उसका विशेष निषेध है। और आठवें पद्य में गौ उपलक्षण मात्र है। इससे दस दिन के भीतर भैंस, बकरी आदि का दूध न फटने पर भी त्याज्य है। इस प्रकार इस प्रकरण में भोज्य वा पेय- पीने योग्यादि पदार्थों में से उदाहरण मात्र कई को अभक्ष्य कहा है। विशेष व्याख्यान वहीं होगा। अब इससे आगे प्राणियों के शरीर से होने वाले मांस के विषय में भक्ष्याभक्ष्य का विचार किया जायेगा।