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‘वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर’

ओ३म्

वैदिक प्राचीन पर्व नव संवत्सर

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य के जीवन में पर्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वर्ष या संवत्सर के रूप में पर्व को इस रूप में जान सकते हैं कि एक वर्ष की समाप्ती व उसके अगले दिन से दूसरे वर्ष का आरम्भ। मनुष्य जीवन में एक शिशु के रूप में जन्म लेता है और समय के साथ शिशु की अवस्था समाप्त होकर बाल व किशोरावस्था आ जाती है। इसके बाद युवावस्था, फिर प्रौढ़ावस्था और अन्त में वृद्धावस्था आती है। यह जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का आना व पिछली का पूरा होना एक प्रकार का पर्व ही होता है परन्तु हमें इसका पता ही नहीं चलता और न इसे मनाने की परम्परा ही हैं। हां, इसका एक अन्य रूप जन्म दिवस को मनाने की परम्परा को कह सकते हैं। मनुष्य की आयु एक-एक दिन, एक-एक माह और एक-एक वर्ष करके बढ़ती है। हर दिन और हर माह तो पर्व व उत्सव मना नहीं सकते, अतः वर्ष में एक दिन जन्मोत्सव मनाने की परम्परा कुछ समय से चल पड़ी है। लोगों को इस दिवस को मनाने का कोई ज्ञान भी नहीं है। लोग सोचते हैं कि मित्रों व सम्बन्धियों को एकत्रित कर केक आदि काटकर व प्रीतिभोज करा दिया जाये। वैदिक परम्परा के आधार पर दृष्टि डाले तो जन्म दिवस मनाने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु इसको मनाने के रूप में गुणवर्धन किया जा सकता है। यदि जन्म दिवस के दिन लोग वृहत यज्ञ करें तो यह जीवन में अनेक दृष्टियों से लाभप्रद व प्रेरणादायक हो सकता है। सुधी आर्य परिवारों में यज्ञ के द्वारा ही जन्म दिवस व अन्य पर्व मनाये आते हैं। यह अल्पव्यय साध्य तो हैं ही, साथ ही परिणाम में और अनुष्ठानों की तुलना में अधिक लाभदायक हैं। ऐसे ही अनेक पर्व हैं जिनमें से एक नव-संवत्सर का पर्व भी होता है। यह भारतीय परम्परा का पर्व है जो प्रत्येक वर्ष चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को मनाया जाता है। यह नवसंवत्सर एक प्रकार से इस सृष्टि ब्रह्माण्ड का जन्म दिवस है। इससे हमें यह लाभ होता है कि अनेक तथ्यों का स्मरण इस पर्व को मनाकर हो जाता है। मुख्य तथ्य तो यह है कि हमारी सृष्टि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन आज से 1,96,08,53,116 एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष पूर्व आरम्भ हुई थी। आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को इस सृष्टि में मानव उत्पत्ति का 1,96,08,53,117 हवां वर्ष आरम्भ हुआ है। यह तथ्य है और यह सारे विश्व के लिए मार्गदर्शक होना चाहिये। हमें ज्ञात है कि सृष्टि में मानव धर्म, सभ्यता व संस्कृति का सर्वप्रथम आविर्भाव व विकास भारत में ही हुआ। संसार के जितने भी देश हैं उनका इतिहास कुछ सौ या हजार वर्ष पुराना है जबकि भारत का इतिहास 1.96 अरब वर्ष पुराना है। सृष्टि के आरम्भिक काल में लिखी गई मनुस्मृति के एक श्लोक को भी स्मरण कर लेते हैं। एतददेशस्य प्रसुतस्य सकाशाद अग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्याम् सर्वमानवाः।। इस श्लोक में महर्षि व राजा मनु जी ने आर्यावर्त्त देश की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा है कि प्राचीन काल से हमारा देश ही संसार के अग्रणीय मनुष्यों को जन्म देता, उत्पन्न करता अर्थात् शिक्षित कर अनका निर्माण करता आ रहा है। संसार के देशों के लोग हमारे देश में अपने-अपने योग्य चरित्र व ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा लेने हमारे देश में ही आते थे। इससे यह अनुमान होता है कि सृष्टिकाल के आरम्भ से लेकर कुछ हजार वर्ष पूर्व तक हमारा भारत वा आर्यावत्र्त देश ही संसार के लोगों को ज्ञान-विज्ञान सहित परा व अपरा विद्या एवं चरित्र आदि की शिक्षा दिया करता था और संसार के लोग अध्ययन के लिए भारत में ही आया करते थे। यह इस कारण से सम्भव हुआ था कि सृष्टि के आरम्भ में प्रथम दिन ही ईश्वर ने मनुष्यों को युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि कर आर्यावत्र्त में जन्म दिया था और साथ हि उन्हें सभी सत्य विद्याओं से सम्पन्न कराने के लिए वेदों का ज्ञान भी दिया था।

 

हिमाद्रि ज्योतिष का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में एक श्लोक आता हैचैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रन्तु, तदा सूर्योदये सति।। इसका अर्थ है कि चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मा ने जगत की रचना की। प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य भास्करार्चा रचित ‘‘सिद्धान्त शिरोमणि का एक श्लोकलंकानगर्यामुदयाच्च भानोस्तस्यैव वारं प्रथमं बभूव। मघोः सितादेर्दिनमासवर्षयुगादिकानां युगपत्प्रवृत्तिः।। है। इसका भावार्थ है कि लंका नगरी में सूर्य के उदय होने पर उसी सूर्य के वार अर्थात् आदित्यवार को चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के आरम्भ में दिन, मास, वर्ष युग आदि (अर्थात् सृष्टि संवत्सर) एक साथ आरम्भ हुए। आज भी संसार के अधिकांश विद्वान इन तथ्यों से अपरिचित है। जिन को इसका ज्ञान भी होता है तो वह संस्कृत में होने के कारण इसे स्वीकार नहीं करते। हां, यदि इसी प्रकार का कोई लेख अंग्रेजी व अन्य किसी यूरोपीय भाषा के पुराने ग्रन्थ में होता तो सारा विश्व इसे कभी का एक मत से स्वीकार कर लेता। कोई स्वीकार करे या न करे परन्तु यह दोनों श्लोक व इसमें लिखी व कहीं बातें आप्त-प्रमाण, सृष्टि क्रम, युक्ति, तर्क व ज्ञान विज्ञान के आधार पर सत्य सिद्ध होती हैं। इन तथ्यों व पूर्व से चली आ रही परम्पराओं से यह ज्ञात होता है कि चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के इस दिवस से ही ब्रह्म दिन, सृष्टि संवत्, वैवस्वतादि मन्वन्तर का आरम्भ, सतयुग आदि युगारम्भ, कलिसंवत्, विक्रम संवत् का आरम्भ होता है।

 

आर्यसमाज के विद्वान पं. भवानी प्रसाद लिखते हैं कि आदि सृष्टि से ही आर्य जाति में नवसंवत्सरारम्भ का वर्ष मानने की प्रथा प्रचलित है। मुसलमानी राज्य में आर्यों की सनातन संस्थाएं अस्तव्यस्त होने पर भी नवसंवत्सरोत्सव को समारोहपूर्वक मनाने की परिपाटी बराबर बनी हुई थी। इसका प्रमाण देते हुए उन्होंने दूसरे मतों के प्रति असहिष्णु, पक्षपाती अत्याचारी मुगल सम्राट् औरंगजेब के अपने ज्येष्ठ पुत्र युवराज मुहम्मद मोअज्जम के नाम लिखे एक पत्र से मिलता है। अपने पत्र में औरंगजेब ने धृणा के शब्दों में लिखा था किईरोज ऐयाद मजू सअ स्त, एकादकफ्फार नूद रोज जलूस विक्रमाजीत लाईन मबदाए तारीख हिंदू। अर्थात् यह दिन अग्निपूजक (पारसियों) का पर्व है, और काफिर (धर्मशून्य) हिन्दुओं के विश्वासानुसार धिक्कृत विक्रमाजीत की राज्याभिषेक तिथि है और भारतवर्ष का नव संवत्सरारम्भ दिवस है।

 

नवसंवत्सर-आरम्भ-उत्सव संसार की प्रायः सब सभ्य जातियों में मनाया जाता है। ईसाइयों के यहां उसको न्यू इयर्स डे (New Years Day) कहते हैं और वह पहली जनवरी को होता है। फारस देश के पारसियों के यहां वह जश्न नौरोज के नाम से प्रसिद्ध है। अन्य जातियों में जहां इस अवसर पर केवल प्रसन्नता प्रदर्शन और रंग-रेलियां मनाने की रीति है, वहां धर्मप्राण आर्य जाति में आनन्दानुभव के साथ-साथ यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानपूर्वक इस उत्सव को मनाने की परम्परा है। पं. भवानी प्रसाद जी ने आगे लिखा है कि प्रतीत होता है कि सृष्टि के आरम्भ के प्रथम दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सौर मेष संक्रान्ति एक साथ ही पड़ी थी, किन्तु पीछे से सौर और चान्द्र वर्षों की दो प्रकार की गणना संसार में प्रचलित होने पर सौर और चान्द्र संवत्सरों का नवसंवत्सरारम्भ भी पृथक् पृथक् तिथियों पर होने लगा। चान्द्र संवत्सरारम्भ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को और सौर संवत्सरारम्भ मेष संक्रान्ति के दिन होता है। अतः ऋतुओं की गणना सौर वर्ष के अनुसार ही होती है, इसलिए भूमण्डल की अधिकांश सभ्य जातियों में सौर संवत्सर प्रचलित है। भारतवर्ष के भी अधिकांश प्रांतों में सौर वर्ष का ही व्यवहार है। बंगाल प्रांत में बंगाब्द, दक्षिण में शालिवाहन शक और पंजाब में प्रविष्टा सौर वर्ष गणना पर ही चलते हैं। अतएव आर्य जाति में जहां चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को चान्द्र नव-संवत्सरारम्भ का समारोह होता है, वहां मेष संक्रांति के दिन सौर संवत्सरेष्टि भी की जाती है। अतएव जिन प्रांतों में चान्द्र संवत्सर का व्यवहार होता हो, वहां चैत्र सुदि प्रतिपदा को नवसंवत्सरारम्भोत्सव वा संवत्सरेष्टि पर्व मनाना चाहिए। इस दिवस को वृहत यज्ञ कर मनाने के साथ सामूहिक प्रीतिभोज वा लंगर तथा काव्य गोष्ठी सहित बालक-बालिकाओं एवं युवाओं की अनेक प्रतियोगितायें आयोजित कर मनाया जा सकता है। इस पर्व के महत्व को जानकर और इसे सामूहिक रूप से वृहत यज्ञ, सामूहिक प्रीतिभोज व अनेक प्रतियोगिताओं के आयोजन के साथ मनाने से समाज में अच्छी परम्पराओं के स्थापित होने से लाभ मिल सकता है।

 

समय के साथ नववर्षाभिनन्दन के इस दिन से अनेक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटनायें जुडती व विस्मृत होती गई हैं। सम्प्रति सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक भी इस नववर्षारम्भ के दिन से जुड़ा हुआ है जो अब से 2072 वर्ष पूर्व हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद महाराज युधिष्ठिर जी ने भी इस नवसंवत्सराम्भ के दिवस पर ही राज्यारोहण किया था। ऐसी अन्य कई घटनायें हो सकती हैं परन्तु इस दिन मुख्य महत्व इस दिन से इस सृष्टि, मानवोत्पत्ति व ईश्वर से सब सत्य विद्याओं की पुस्तक वेदों का चार ऋषियों अग्नि, वायु,आदित्य व अंगिरा को ज्ञान प्राप्त होना है जो हमारे ऋषि व पूर्वजों की तपस्या से आज तक सुरक्षित है। यही वेद ज्ञान आज सभी परा व अपरा अर्थात् आध्यात्मिक व भौतिक विद्याओं का आधार है। इस नववर्ष को मनाते हुए यदि हम वेदाध्ययन का संकल्प लें और वेदों के संरक्षण की योजना बनायें, तो यह भी उचित होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?

ओ३म्

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश व समाज सहित विश्व की सर्वांगीण उन्नति का धार्मिक व सामाजिक कार्य किया है। क्या हमारे देश और संसार के लोग उनके कार्यों को यथार्थ रूप में जानते व समझते हैं? क्या उनके कार्यों से मनुष्यों को होने वाले लाभों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान विश्व व देश के लोगों को है? जब इन व ऐसे अन्य कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश व संसार के लोग महर्षि दयानन्द, उनकी वैदिक विचारधारा और सिद्धान्तों के महत्व के प्रति अनभिज्ञ व उदासीन है। यदि वह जानते होते तो उससे लाभ उठा कर अपना कल्याण कर सकते थे। न जानने के कारण वह वैदिक विचारधारा से होने वाले लाभों से वंचित हैं और नानाविध हानियां उठा रहे हैं। अतः यह विचार करना समीचीन है कि मनुष्य महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा के सत्य यथार्थ स्वरूप को क्यों नहीं जान पाये? इस पर विचार करने पर हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि महर्षि दयानन्द के पूर्व व बाद में प्रचलित मत-मतान्तरों के आचार्यों व तथाकथित धर्मगुरुओं ने स्वार्थ, हठ, दुराग्रह व अज्ञानतावश उनका विरोध किया और उनके बारे में मिथ्या प्रचार करके अपने-अपने अनुयायियों को उनके व उनकी विचारधारा को जानने व समझने का अवसर व स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की। आज भी संसार के अधिकांश लोग मत-मतान्तरों के सत्यासत्य मिश्रित विचारों व मान्यताओं से बन्धे व उसमें फंसे हुए हैं। सत्य से अनभिज्ञ वा अज्ञानी होने पर भी उनमें ज्ञानी होने का मिथ्या अहंकार है। रूढि़वादिता के संस्कार भी इसमें मुख्य कारण हैं। इन मतों व इनके अनुयायियों में सत्य-ज्ञान व विवेक का अभाव है जिस कारण वह भ्रमित व अज्ञान की स्थिति में होने के कारण यदि आर्यसमाज के वैदिक विचारों व सिद्धान्तों का नाम सुनते भी हैं तो उसे संसार के मत-मतान्तरों व अपने मत-सम्प्रदाय का विरोधी मानकर उससे दूरी बनाकर रखते हैं।

 

महर्षि दयानन्द का मिशन क्या था? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह संसार के धार्मिक, सामाजिक देशोन्नति संबंधी असत्य विचारधारा, मान्यताओं सिद्धान्तों को पूर्णतः दूर कर सत्य मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ा था और सत्य की प्राप्ति के लिए ही वह एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक विद्वान के बाद दूसरे विद्वान की शरण में सत्य-ज्ञान की प्राप्ति हेतु जाते गये और उनसे उपलब्ध ज्ञान प्राप्त कर उनको प्राप्त होने वाले सभी अर्वाचीन व प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते रहे। अपनी इसी धुन व उद्देश्य के कारण वह अपने समय के देश के सभी बड़े विद्वानों के सम्पर्क में आये, उनकी संगति की और उनसे जो विद्या व ज्ञान प्राप्त कर सकते थे, उसे प्राप्त किया और इसके साथ हि योगी गुरुओं से योग सीख कर सफल योगी बने। उनकी विद्या की पिपासा मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में सन् 1860 से सन् 1863 तक के लगभग 3 वर्षों तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा निरुक्त प़द्धति से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करने के साथ गुरु जी से शास्त्र चर्चा कर अपनी सभी भ्रान्तियों को दूर करने पर समाप्त हुई। वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञान और योगविद्या सीखकर वह अपने सामाजिक दायित्व की भावना व गुरु की प्ररेणा से कार्य क्षेत्र में उतरे और सभी मतों के सत्यासत्य को जानकर उन्होंने विश्व में धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में असत्य व मिथ्या मान्यताओं तथा भ्रान्तियों को दूर करने के लिए उसका खण्डन किया। प्रचलित धर्म-मत-मतान्तरों में जो सत्य था उसका उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से मण्डन वा समर्थन किया। आज यदि हम स्वामी दयानन्द आर्यसमाज के किसी विरोधी से पूंछें कि महर्षि दयानन्द ने तुम्हारे मत की किस सत्य मान्यता वा सिद्धान्त का खण्डन किया तो इसका उत्तर किसी मतमतान्तर वा उसके अनुयायी के पास नहीं है। इसका कारण ही यह है कि उन्होंने सत्य का कभी खण्डन नहीं किया। उन्होंने तो केवल असत्य मिथ्या ज्ञान का ही खण्डन किया है जो कि प्रत्येक मनुष्य का मुख्य कर्तव्य वा धर्म है। दूसरा प्रश्न अन्य मत वालों से यदि यह करें कि क्या स्वामी दयानन्द जी ने वेद संबंधी अथवा अपने किसी असत्य व मिथ्या विचार व मान्यता का प्रचार किया हो तो बतायें? इसका उत्तर भी किसी मत के विद्वान, आचार्य व अनुयायी से प्राप्त नहीं होगा। अतः यह सिद्ध तथ्य है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी किसी मत के सत्य सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया और ही असत्य मिथ्या मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने केवल असत्य का ही खण्डन और सत्य का मण्डन किया जो कि मनुष्य जाति की उन्नति के लिए सभी मनुष्यों व मत-मतान्तरों के आचार्यों को करना अभीष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि सत्य वेद धर्म का पालन करने से मनुष्य का जीवन अभ्युदय को प्राप्त होता है और इसके साथ वृद्धावस्था में मृत्यु होेने पर जन्ममरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त होता है।

 

यह भी विचार करना आवश्यक है कि सत्य से लाभ होता है या हानि और असत्य से भी क्या किसी को लाभ हो सकता है अथवा सदैव हानि ही होती है? वेदों के ज्ञान के आधार पर सत्य के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने एक नियम बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यह नियम संसार में सर्वमान्य नियम है। अतः सत्य से लाभ ही लाभ होता है, हानि किसी की नहीं होती। हानि तभी होगी यदि हमने कुछ गलत किया हो। अतः मिथ्याचारी व्यक्ति व मत-सम्प्रदाय के लोग ही असत्य का सहारा लेते हैं और सत्य से डरते हैं। ऐसे मिथ्या मतों, उनके अनुयायी व प्रचारकों की मान्यताओं के खण्डन के लिए महर्षि दयानन्द को दोषी नहीं कहा जा सकता। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य को जहां आवश्यकता हो वहां वह असत्य का सहारा ले सकता है और जहां सत्य से लाभ हो वहीं सत्य का आचरण करे। किसी भी परिस्थिति में असत्य का आचरण अनुचित, अधर्म वा वा पाप ही कहा जाता है। अतः सत्याचरण करना ही धर्म सिद्ध होता है और असत्याचरण अधर्म। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋ़ग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में उन्होंने मनुष्य के धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों व अकर्तव्यों का वैदिक प्रमाणों, युक्ति व तर्क के आधार पर प्रकाश किया है। सत्यार्थप्रकाश साधारण मनुष्यों की बोलचाल की भाषा हिन्दी में लिखा गया वैदिक धर्म का सर्वांगीण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभावशाली धर्मग्रन्थ है। धर्म व इसकी मान्यताओं का संक्षिप्त रूप महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश लिखकर प्रकाशित किया है। यह स्वमन्तव्यामन्तव्य ही मनुष्यों के यथार्थ धर्म के सिद्धान्त व कर्तव्य हैं जिनका विस्तृत व्याख्यान सत्यार्थप्रकाश व उनके अन्य ग्रन्थों में उपलब्घ है। स्वमन्तव्यामन्तव्य की यह सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिए धर्मपालनार्थ माननीय व आचरणीय है परन्तु अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण लोग इन सत्य मान्यताओं से अपरिचित होने के कारण इनका आचरण नहीं करते और न उनमें सत्य मन्तव्यों को जानने की सच्ची जिज्ञासा ही है। इसी कारण संसार में मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि देश व संसार में धर्म सम्बन्धी सत्य व यथार्थ ज्ञान के प्रचारकों की कमी है। यदि यह पर्याप्त संख्या में होते तो देश और विश्व का चित्र वर्तमान से कहीं अधिक उन्नत व सन्तोषप्रद होता।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 से वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रचार आरम्भ किया था जिसने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के बाद तेज गति पकड़ी थी। इसके बाद सन् 1883 तक उन्होंने वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया जिसमें वैदिक मत के विरोधियों व विधर्मियों से शास्त्र चर्चा, विचार विनिमय, वार्तालाप और शास्त्रार्थ सम्मिलित थे। अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना सहित ऋग्वेद का आंशिक और पूरे यजुर्वेद का उन्होंने भाष्य किया। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने चारों वेदों का भाष्य पूर्ण किया। न केवल वेदों पर अपितु दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण व महाभारत आदि पर भी भाष्य, अनुवाद, ग्रन्थ व टीकायें लिखी र्गइं। संस्कृत व्याकरण विषयक भी अनेक नये ग्रन्थों की रचना के साथ प्रायः सत्यार्थप्रकाश सहित सभी आवश्यक ग्रन्थों को अनेक भाषाओं में अनुवाद व सुसम्पादित कर प्रकाशित किया गया जिससे संस्कृत अध्ययन सहित आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना अनेक भाषा-भाषी लोगों के लिए सरल हो गया। एक साधारण हिन्दी पढ़ा हुआ व्यक्ति भी समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सकता है। यह सफलता महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज इसके विद्वानों की देश विश्व को बहुमूल्य देन है। यह सब कुछ होने पर भी आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा का जो प्रभाव होना चाहिये था वह नहीं हो सका। इसके प्रमुख कारणों को हमने लेख के आरम्भ में प्रस्तुत किया है। वह यही है कि देश संसार के लोग महर्षि दयानन्द की मानवमात्र की कल्याणकारी विचारधारा उनके यथार्थ भावों को अपनेअपने अज्ञान, स्वार्थ, हठ और पूर्वाग्रहों वा दुराग्रहों के कारण जान नहीं सके। कुछ अन्य और कारण भी हो सकते हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने संगठन व प्रचार आदि की न्यूनताओं पर भी ध्यान देना होगा और उन्हें दूर करना होगा। वेद वा धर्म प्रचार को बढ़ाना होगा और वैदिक मान्यताओं को सारगर्भित व संक्षेप में लघु पुस्तकों के माध्यम से प्रस्तुत कर उसे घर-घर पहुंचाना होगा। यदि प्रचारकों की संख्या अधिक होगी और संगठित रूप से प्रचार किया जायेगा तो सफलता अवश्य मिलेगी और मानवता का कल्याण होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के पुनरुद्धार में स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान’

ओ३म्

सनातन वैदिक धर्म संस्कृति के पुनरुद्धार में  स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान

भारतीय धर्म व संस्कृति विश्व की प्राचीनतम, आदिकालीन, सर्वोत्कृष्ट, ईश्वरीय ज्ञान वेद और सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित है। सारे विश्व में यही संस्कृति महाभारत काल व उसकी कई शताब्दियों बाद तक भी प्रवृत्त रहने सहित सर्वत्र फलती-फूलती रही है। इस संस्कृति की विशेषता का प्रमुख कारण यह था कि यह ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित होने के साथ वेदों के प्रचारक व रक्षक ईश्वर के साक्षात्कृत धर्मा हमारे ऋ़षि मुनियों द्वारा प्रचारित व संरक्षित थी। महाभारत के विनाशकारी युद्ध के प्रभाव से ऋषि परम्परा समाप्त हो गई जिससे संसार में धर्म व संस्कृति सहित शिक्षा के क्षेत्र में घोर अन्धकार छा गया। इस विषम परिस्थिति में देश-देशान्तर में वही हुआ जैसा कि नेत्रान्ध व अल्प नेत्र ज्योति वाले अशिक्षित व्यक्तियों के कार्य होते हैं। यह अन्धकार समाप्त नहीं हो रहा था अपितु समय के साथ बढ़ रहा था। इस स्थिति में हम देखते हैं कि देश-देशान्तर में कुछ महापुरुषों का जन्म हुआ जिन्होंने समाज को नई दिशा देने के लिए सामयिक ज्ञान की अपनी योग्यतानुसार अपने-अपने मत व धर्म प्रचलित किये और इन्हीं मत व धर्मों के पालन के लिए उन-उन देशों में, मुख्यतः यूरोप व अरब आदि देशों में, वहां की भौगोलिक एवं समाज के पुरुषों की योग्यता के अनुसार संस्कृति का प्रादुर्भाव व विकास हुआ। भारत में सृष्टि के आदि काल से लेकर महाभारत काल तक वैदिक धर्म व संस्कृति प्रचलित रही थी। समाज में अज्ञान बढ़ जाने से इसका विपरीत प्रभाव धर्म व संस्कृति दोनों पर हुआ जिस कारण संस्कृति का स्वरुप भी सत्य के विपरीत अज्ञान प्रधान होकर अनेक विकारों से युक्त हुआ।

 

संस्कृति का अध्ययन करने के लिए हमें धर्म, भाषा, स्वदेश गौरव की भावना, वेषभूषा, परम्परा वा रीति-रिवाजों आदि की स्थिति पर विचार और इसमें महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान की चर्चा करना उपयुक्त होगा।  धर्म के क्षेत्र में भारत सृष्टि के आदि काल से वेद और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का पालक रहा है। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण सत्य मान्यताओं, यथार्थ धर्म व संस्कृति के पोषक रहे हैं। हमारे ऋषि-मुनि भी विचार, चिन्तन, ध्यान व मनन द्वारा वेदों के सभी मन्त्रों व शब्दों में निहित मनुष्यों के लिए कल्याणकारी अर्थों व ज्ञान से देश की जनता को उपकृत करते थे जिससे सारा समाज व देश सत्य ज्ञान से युक्त व उन्नत था। गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली से सभी मनुष्यों व वर्णों की सन्तानों को गुरुकुलीय शिक्षा दी जाती थी जहां निर्धन व धनवानों के लिए वेद-वेदांगों के ज्ञान कराने वाली शिक्षा का सबके लिए समान रूप से निःशुल्क प्रबन्ध था। स्वामी दयानन्द ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य करने की बात कही है। कृष्ण व सुदामा एक साथ पढ़ते थे और परस्पर मित्रवत् व्यवहार करते थे। वैदिक काल के सभी आचार्य व गुरु भी वैदिक ज्ञान के प्रबुद्ध विद्वान होते थे जिनके आचार्यत्व में विद्यार्थियों से नास्तिकता का नाश होकर एक सच्चे सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी, दयालु व सृष्टिकर्ता ईश्वर की उपासना देश देशान्तर में प्रचलित थी। सभी स्त्री व पुरुष स्वाध्यायशील व योगाभ्यासी होते थे जिससे सभी स्वस्थ, सुखी, अपरिग्रही व सन्तोषी होते थे। समाज व देश में ऋषि-मुनियों की बड़ी संख्या होने से कहीं कोई अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न व प्रचलित नहीं होता था। शंका होने पर राजाओं के द्वारा बड़े-बड़े शास्त्रार्थों का आयोजन होता था और विजयी पक्ष के विचारों को समस्त देश को स्वीकार करना पड़ता था। धर्मनिरपेक्षता जैसा शब्द महाभारत काल तक व उसके बाद के साहित्य में भी कहीं नहीं पाया जाता। इस प्रकार सर्वत्र वैदिक धर्म का पालन होता था।

 

महाभारत काल के बाद मध्यकाल में अज्ञान व अन्धविश्वासों के उत्पन्न हो जाने से धर्म का सत्य स्वरूप विकृत हो गया जिससे समाज में अवतारवाद, मूर्तिपजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पाखण्ड व आडम्बर, जन्मना जातिवाद आदि मिथ्या विश्वास उत्पन्न हो गये। महर्षि दयानन्द (1825-1883) तक इन मिथ्या विश्वासों में वृद्धि होती रही। स्वामी दयानन्द जी को सन् 1938 की शिवरात्रि को ईश्वर विषयक बोध प्राप्त हुआ। इसके कुछ काल बाद उनसे छोटी बहिन व चाचा की मृत्यु ने उनमें वैराग्य के संस्कारों को प्रबुद्ध किया। उन्होंने सत्य धर्म व संस्कृति की खोज के लिए सन् 1846 में माता-पिता व स्वगृह का त्याग कर देश भर के धार्मिक विद्वानों, शिक्षकों व योगियों को ढूंढ कर उनकी संगति व शिष्यत्व प्राप्त किया। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु गुरू स्वामी विरजानंद सरस्वती के पास वह सन् 1860 में पहुंचे और उनसे तीन वर्षों में संस्कृत के आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरुक्त संस्कृत-व्याकरण प्रणाली का ज्ञान प्राप्त कर समस्त वैदिक व इतर धार्मिक साहित्य के विद्वान बने। गुरु की प्रेरणा से उन्होंने संसार से मिथ्या ज्ञान नष्ट करने के साथ आर्ष ज्ञान व सत्य सनातन वैदिक मत एवं संस्कृति के प्रचार व स्थापना का कार्य किया। इस कार्य को सम्पादित करने के लिए ही उन्होंने देश का भ्रमण कर न केवल धर्मोपदेश व शास्त्रार्थ आदि ही किये अपितु आर्यसमाज की स्थापना सहित पंचमहायाविधि, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय का प्रणयन किया औरे साथ हि चारों वेदों का संस्कृत व हिन्दी में भाष्य का अभूतपूर्व महनीय कार्य भी आरम्भ किया। वह यजुर्वेद का पूर्ण व ऋग्वेद का आंशिक भाष्य ही कर पाये। उनके इन कार्यों ने धर्म व संस्कृति के सुधार व उन्नति का अपूर्व कार्य किया। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर व उसमें देश व देशान्तर के प्रायः सभी मतों की समीक्षा कर वैदिक सनातन मत को वास्तविक व यथार्थ धर्म सिद्ध व घोषित किया। उनकी चुनौती उनके जीवनकाल व बाद में भी कोई स्वीकार नहीं कर सका जिस कारण से आज भी वेद धर्म सर्वोपरि महान व संसार के सभी लोगों के लिए आचरणीय बन गया है। महर्षि दयानन्द के समय व उनसे पूर्व ईसाई व इस्लाम के अनुयायी हिन्दुओं के धर्म-परिवर्तन का आन्दोलन चलाये हुए थे। बहुत बड़ी संख्या में उन्होंने सफलता भी प्राप्त की थी परन्तु स्वामी दयानन्द के कार्यों ने उनके धर्मान्तरण के कार्यपर प्रायः पूर्ण विराम लगा दिया। यदि हिन्दुओं ने उनकी वेद विषयक सत्य विचारधारा को अपना लिया होता तो आज देश का इतिहास कुछ नया व भिन्न होता। पतन को प्राप्त हो रहे वैदिक धर्म की रक्षा के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य अपूर्व एवं महान है।

 

महर्षि दयानन्द ने स्वभाषा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह वेदों की संस्कृत को विश्व की सभी भाषाओं की जननी मानते थे और उसके अधिकारी विद्वान व प्रचारक हुए। इसके लिए उन्होंने वेदांग प्रकाश नाम से संस्कृत व्याकरण के अनेक ग्रन्थ भी लिखे हैं। गुजराती होते हुए भी उन्होंने गुजराती के प्रति कभी पक्षपात नहीं किया। वह प्रचार आरम्भ करने के समय से ही संस्कृत में व्याख्यान देते थे जो सरल सुबोध व मुहावरेदार होती थी जिसे संस्कृत न जानने वाले लोग भी समझ लेते थे। उनके वार्तालाप की भाषा भी यही भाषा थी। कालान्तर में उन्होंने हिन्दी भाषा को अपनाया और इसे आर्यभाषा का नाम दिया। बहुत कम समय में आपने हिन्दी सीख ली और हिन्दी में ही व्याख्यान, वार्तालाप व लेखन कार्य करने लगे। हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए आपने अपने सभी ग्रन्थ हिन्दी में ही लिखे व प्रकाशित किये। आपने अपने ग्रन्थों का उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद करने की अनुमति इस कारण नहीं दी कि इससे हिन्दी का प्रचार व प्रसार पर विपरीत प्रभाव हो सकता था। इस सन्दर्भ में उन्होंने यहां तक कह दिया था कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर और यहां का अन्न आदि खा कर यहां की सरल भाषा हिन्दी को नहीं सीख सकता उससे देश के हित के लिए और क्या उम्मीद की जा सकती है? भारत के सरकारी दफतरों में काम काज की भाषा तय करने के लिए अंग्रेजों ने जब एक कमीशन बनाया तो हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा स्वीकार कराने के लिए स्वामी दयानन्द जी ने देश भर में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया और उस पर करोड़ो लोगों के हस्ताक्षर कराये। हस्ताक्षर अभियान चलाकर सरकार से अपनी बात स्वीकार कराने वाले शायद स्वामी दयानन्द भारत के प्रथम महापुरुष थे। ऐसा ही अभियान उन्होंने गोरक्षा अथवा गोहत्या बन्द कराने के लिए भी चलाया था। महर्षि दयानन्द के कार्यों से देश में हिन्दी भाषा का अपूर्व प्रचार हुआ जिसका प्रभाव उनके समकालीन व परवर्ती संस्कृत व हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। इस विषय पर शोधार्थियों ने शोध प्रबन्ध भी प्रस्तुत किये हैं। स्वभाषा संस्कृत व हिन्दी के प्रचार व प्रसार में स्वामी दयानंद जी का सर्वाधिक योगदान है।

 

मनुष्यों की वेशभूषा भी किसी संस्कृति का एक आवश्यक अंग होती है। भारत में प्राचीन काल से ही पुरुषों व स्त्रियों की वेश भूषा निर्धारित है। पुरुषों के लिए धोती, कुर्ता, लोई वा शाल सहित बन्द गले का कोट व जैकेट एवं सिर पर पगड़ी निर्धारित रही है। इसी प्रकार से स्त्रियों के लिए भी बचपन में फ्राक से आरम्भ कर किशोर, युवावस्था व उसके बाद शलवार, कुर्ता, चुन्नी वा दुपट्टा, साड़ी आदि का पहनावा प्रचलन में रहा है। भौगोलिक दूरियों के कारण इनमें कुछ न्यूनाधिक परिवर्तन आदि भी देखने को मिलता है जिसमें एक ही मूल भावना काम करती दिखाई देती है। वेशभूषा विषयक भारतीय चिन्तन फैशन न होकर शरीर की रक्षा व सभ्यता का सूचक होता है जिससे किसी के मन में किसी प्रकार विकार आदि उत्पन्न न हो। 8वीं शताब्दी से भारत में मुगलों का आना आरम्भ हुआ और उन्होंने अपने धर्म, भाषा व वेशभूषा आदि थोपने में कोई कसर नहीं रखी। उसके बाद अंग्रेज आये और देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अपने ईसाई धर्म, अंग्रेजी भाषा व परम्पराओं का प्रचार व प्रसार किया। हमारे देश के लोग अंग्रेजों से कुछ अधिक ही प्रभावित हो गये और आज भी इनकी ही वेश भूषा का प्रचलन देश भर में देखने को मिलता है। भारतीय वेशभूषा का प्रचलन कम हो रहा है और विेदेशी यूरोपीय वेशभूषा का प्रचलन बढ़ रहा है। महर्षि दयानन्द ने भारतीय धर्म, संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जगाया तो इसमें भारतीय वेशभूषा पर भी ध्यान केन्द्रित रखा। वह सदैव धोती का प्रयोग करते थे। भारतीय कुर्ते में भी उनके चित्र उपलब्ध है। सम्मान की निशानी सिर पर पगड़ी का भी वह प्रयोग करते थे और यदि ऊपर का उनका भाग वस्त्रहीन है, तो वह प्रायः शाल या लोई ओढ़ते थे। उनके जीवन में प्रसंग आता है कि एक बार उनका एक अनुयायी अपने पुत्र को उनके पास लाया और उसके सुधार के लिए स्वामी जी को उस युवक उपदेश देने को कहा। स्वामी जी ने देखा कि उस युवक ने विदेशी वेशभूषा पैण्ट-शर्ट पहन रखी है। इसका उल्लेख कर उन्होंने उस बालक को अपने पूर्वजों की याद दिलाई और बताया कि उनकी वेशभूषा क्या व कैसी होती थी? यह भी बताया कि ज्ञान व चरित्र की दृष्टि से हमारे उन पूर्वजों की संसार में कोई समानता नहीं है। उनके विचारों का उस युवक पर प्रभाव पड़ा और उसने अपना सुधार किया। आज भी हम देखते हैं कि आर्यसमाज के अनुयायी अपने घरों में बच्चों, विशेष कर कन्याओं व स्त्रियों के भारतीय वेशभूषा के पक्षधर है और उनके परिवारों में इस दृष्टि से सख्त निर्देश हैं कि भारतीय वेशभूषा का ही प्रयोग हो। जहां तक अन्य सभी संस्थाओं से तुलना की बात है, आर्यसमाज पहले भी और आज भी भारतीय वेशभूषा का सबसे बड़ा समर्थक व पक्षधर है। आज भी हमारे युवक व युवतियों के गुरुकुलों व शिक्षण संस्थाओं में भारतीय वेशभूषा का ही प्रचलन व प्रभाव है। हां, डी.ए.वी. कालेज को आर्यसमाज के वेशभूषा विषयक प्रभाव में सम्मिलित स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

किसी मनुष्य जाति व धर्म के मानने वाले लोगों की अपनी परम्परायें व रीति-रिवाज भी होते हैं जो कि उनकी संस्कृति का अंग कहलाते हैं। भारतीय धर्म व संस्कृति की बात करें तो यहां भी अनेकानेक परम्परायें व रीति-रिवाज प्रचलित हैं जिनके संशोधन व सुधार सहित अनावश्यक का त्याग तथा भूली हुई आवश्यक परम्पराओं का पुनः प्रचलन स्वामी दयानन्द जी व आर्यसमाज ने किया है। स्वामी दयानन्द ने समस्त वैदिक परम्पराओं को पंच महायज्ञों व 16 वैदिक संस्कारों में ढ़ालने सहित भारत में मनायें जाने वाले मुख्य पर्वों होली, दीपावली, शिवरात्रि आदि पर्वों को वैदिक विधि से मनाये जाने का शुभारम्भ किया। वैदिक परम्पराओं में प्रातः व सायं ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, माता-पिता-आचार्य-वृद्धों आदि का सम्मान, पशु-पक्षी-कीट-पतंगों आदि को अन्न व भोजन कराना तथा अतिथियों का सत्कार करने सहित गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त 16 संस्कारों को प्रचलित किया। आर्यसमाज अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि का पक्षधर है और सभी मनुष्यों को वेदादि ग्रन्थों सहित सभी प्रकार के ज्ञान की पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ने व पढ़ाने को जीवन का अनिवार्य अंग मानता है। आर्यसमाज वेदादि सभी लाभकारी ग्रन्थों के नियमित सवाध्याय का प्रबल समर्थक है। वैदिक संस्कृति में अच्छी परम्पराओं का प्रचलन व अनावश्यक एवं बुरी प्रथाओं के नियंत्रण का आर्यसमाज समर्थक है। इस क्षेत्र में आर्यसमाज ने बहुमूल्य योगदान दिया है। आर्यसमाज की प्रत्येक मान्यता व सिद्धान्त सत्य मान्यताओं व तर्कों पर आधारित हैं जिनसे समाज लाभान्वित होता है। इसी कारण सभी लोग अपनी अपनी ज्ञान की योग्यता के अनुसार इसे पसन्द करते व अपनाते हैं। यही कारण है कि आर्यसंमाज भारत तक ही सीमित न होकर एक विश्वव्यापी संगठन है।

 

मनुष्य का व्यवहार, व्यक्तिगत व सामाजिक नियम तथा विधि-विधान कैसें हों, इसके लिए आर्यसमाज वैदिक परम्पराओं व मनुस्मृति के अविवादित सभी बुद्धिसंगत व देश समाजोपयोगी नियमों को स्वीकार करता है। स्वामी दयानन्द ने ऐसे अधिकांश नियमों का सत्यार्थप्रकाश सहित अपने ग्रन्थों में उल्लेख भी किया है। इसके अतिरिक्त स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म के प्रतीक चोटी, यज्ञोपवीत व सिर पर पगड़ी धारण करने के भी समर्थक है। बहुत से लोग आर्यसमाज के एतदविषयक तर्कों से सहमत होने के कारण इनका अनुसरण करते हैं। महर्षि दयानन्द द्वारा वैदिक धर्म के विश्वास व नियम मान्यता व परम्परा को सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किये गये हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पुनविर्वाह व विधवा विवाह व इतर कार्यों विषयक नियम, जन्मना जातिवाद, वर्णव्यवस्था, स्त्री शिक्षा आदि विश्वासों को भी सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किया गया है जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। अधिकांश शिक्षित लोग आर्यसमाज की विचारधारा से सहमत हैं। आर्यसमाज ही देश की पहली संस्था है जिसने अंग्रेजों के दमनकारी शासन में स्वदेश भक्ति को उदबुद्ध किया जिसका परिणाम भारत को सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानन्द व शहीद भगतसिंह जी का परिवार स्वामी दयानन्द व आर्यसमाज के अनुयायी थे। आजादी के आन्दोलन में आर्यसमाज के अनुयायी की संख्या सर्वाधिक थी ऐसा इतिहास में अंकित है।

 

स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज भारत की वैदिक कालीन प्राचीन व विशुद्ध संस्कृति के पोषक व पक्षधर थे और इसी को उन्होंने अपने घर्म व संस्कृति प्रचार के आन्दोलन में समाहित किया। इनका समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ और आज के वैज्ञानिक युग में इसका भविष्य उज्जवल स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आर्यसमाज के पास संस्कृति से सम्बन्धित संसार की सबसे प्राचीन पुस्तकें चार वेद व महाभारतकाल व उससे पूर्व लिखे गये मनुस्मृति, 6 दर्शन, उपनिषदें, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ न केवल भारतीय वैदिक धर्मियों के लिए ही मान्य हैं अपितु यह सारे संसार के मनुष्यों के धर्म व संस्कृति के आदि व आदर्श स्रोत हैं और सनातन सर्वकल्याणकारी शिक्षाओं के ग्रन्थ हैं। विश्व को सभी पूर्वाग्रह छोड़कर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने मत-पन्थों की अविद्या से युक्त मान्यताओं व परम्पराओं को संशोधित व सुधार कर अपनाना चाहिये जिससे संस्कृति के क्षेत्र में एकरूपता आ सके।

मनमोहन कुमार आर्य

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वैदिक मान्यतायें ही धर्म व इतर विचारधारायें मत-पन्थ-सम्प्रदाय

ओ३म्

वैदिक मान्यतायें ही धर्म इतर विचारधारायें मतपन्थसम्प्रदाय

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

धर्म शब्द की उत्पत्ति व इसका शब्द का आरम्भ वेद एवं वैदिक साहित्य से हुआ व अन्यत्र फैला है। संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ वेद है। वेद ईश्वर प्रदत्त वह ज्ञान है जो सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में इस संसार के रचयिता परमेश्वर वा सृष्टिकर्त्ता से आदि चार ऋषियों वा मनुष्यों को मिला था। परमात्मा ने वेदों का ज्ञान क्यों दिया और इस बात का क्या प्रमाण है कि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है? वेदों का ज्ञान परमात्मा ने दिया है, इसका प्रमाण यह है कि ज्ञान व विज्ञान का धारक व पालक संसार में एकमात्र ईश्वर है, अन्य कोई नहीं है। मनुष्यों को सिखना पड़ता है। यह उन्हीं से सीख सकता है जो पहले से कुछ सीखे हुए होते हैं। अब प्रश्न होता है कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उनको सिखाने वाला कौन था? इसका उत्तर एक ही है कि वह इस सृष्टि की रचना करने वाला ईश्वर ही था। उसने ज्ञान, विज्ञान व अपनी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमतता से इस समस्त अनन्त संसार को पूर्व कल्प के अनुसार रचा है। मनुष्य को आंख, नाक, कान, जिह्वा व त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियां भी उसी ने अपने ज्ञान, विज्ञान, सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमतता के गुण से ही बनाकर मनुष्यों को प्रदान की हैं। मनुष्य सृष्टि के आरम्भ काल में अब प्रथम उत्पन्न हुआ तो उसका पालन करने के लिए माता व पिता तथा ज्ञान व शिक्षा देने के लिए गुरु, अध्यापक व आचार्य संसार में नहीं थे। उत्पन्न हुए सभी युवा स्त्री-पुरुष भाषा व ज्ञान से शून्य थे क्योंकि बिना पढ़े कोई ज्ञानी नहीं हो सकता अर्थात् जन्म से ही कोई भी मनुष्य भाषा व ज्ञान से युक्त नहीं होता। भाषा मनुष्यो को सीखनी पड़ती है। पहले माता-पिता व बाद में विद्यालय मे आचार्य व गुरु भाषा सिखाने के साथ ज्ञान व विज्ञान पढ़ाते हैं। संसार के आरम्भ में माता-पिता व आचार्यों के न होने के कारण एक ईश्वरीय सत्ता ही बचती है जिनसे मनुष्य को भाषा व ज्ञान प्राप्त होता व हो सकता है। यह इस कारण से आदि सृष्टि के मनुष्यों को भाषा व धर्माधर्म का ज्ञान ईश्वर से मिलना ही प्रमाणित तथ्य है। इसका अन्य कोई उत्तर नहीं है। ईश्वर से मनुष्यों को ज्ञान मिलना निर्दोष उत्तर है तथा अन्य सभी कल्पनायें व अनुमान दोषपूर्ण हैं जो परीक्षा करने पर असत्य व प्रमाणहीन सिद्ध होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सर्वज्ञ सत्ता होने के कारण जीवात्मा की आत्मा में ही ज्ञान को भाषा सहित स्थापित करती है व देती है। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है, अतः ज्ञान के साथ भाषा का मिलना भी सुनिश्चित है। आजकल भी सम्मोहन द्वारा प्रेरणा करके ज्ञान के उदाहरण मिलते हैं। बहुत से लोग इस विद्या को सीख लेते हैं और इसी से अपनी आजीविका चलाते हैं। ईश्वर तो जीवात्मा के भीतर भी विद्यमान और सर्वज्ञ है तो वह जीवात्मा को आत्मस्थ होने से प्रेरणा क्यों नहीं कर सकता? यह सर्वथा सम्भव है। हम जानते हैं कि माता का गर्भस्थ शिशु माता के व्यवहार के अनुरूप गुण-कर्म-स्वभाव वाला बनता है। इसका कारण है कि गर्भ में होते हुए जबकि उसका शरीर निर्माणाधीन होता है वह अपनी माता के आचार, विचार, भाषा व भोजन आदि से प्रभावित होता रहता है। जन्म के बाद माता की गोद में वह स्वयं सुरक्षित अनुभव करता है और शान्त रहता है जबकि अन्य किसी के लेने पर वह प्रायः रोना आरम्भ कर देता है। यह भी एक प्रकार का विज्ञान है जिससे पता चलता है कि माता के साथ बच्चे का तादात्मय अर्थात आत्मा का आत्मा के साथ वाला सम्बन्ध होता है। शरीर से पृथक होने पर भी दोनों आत्मा से आबद्ध रहते हैं। अतः सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर का वेदों का ज्ञान देना सत्य सिद्धान्त है।

 

वेदों की संहितायें, उनके संस्कृत व हिन्दी भाषा में भाष्य तथा वेदों के अनेक व्याख्या ग्रन्थ 4 ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 मुख्य उपनिषदें, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध हैं। इनका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य को जितना सत्य-सत्य ज्ञान आवश्यक है वह चार वेदों में सृष्टि के आदि काल से ही विद्यमान है। सभी प्राचीन ऋषियों से लेकर महर्षि दयानन्द तक ने वेदों को सब सत्य विद्याओं का कोष व ग्रन्थ स्वीकार किया है। वेद में आध्यात्म के साथ सभी भौतिक विद्याओं का भी सूत्र रूप में समावेश है। इसका सविस्तार उल्लेख महर्षि दयानन्द ने अपनी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ में किया है। अतः वेद ज्ञान-विज्ञान सहित कर्तव्याकर्तव्य वा धर्माधर्म के ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। धर्म उस ज्ञान को ही कहते हैं जिससे मनुष्य को अपने कर्तव्य व अकर्तव्य का बोध होता है व जिसका पालन करने से अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि हो। क्या वेदों में व वैदिक साहित्य में कहीं किसी मान्यता व सिद्धान्त की कोई कमी थी जिसकी देश-देशान्तर के किसी मनुष्य ने अनुसंधान व खोज की हो जिसने अधूरे वेद ज्ञान को पूर्णता प्रदान की हो? जब ऐसा कोई सन्दर्भ व प्रमाण किसी मत व पन्थ में उपलब्ध नहीं होता और व वह इसका दावा ही करते हैं तो फिर विश्व के मनुष्यों के लिए किसी नवीन मत की आवश्यकता ही नहीं रहती। मनुष्य के सभी कर्तव्य व अकर्तव्य वेदों व महाभारत के पूर्व काल के वैदिक साहित्य में सर्वांगपूर्ण रूप से विद्यमान होने के कारण वेद अपने आप में पूर्ण मनुष्य जाति का धर्म है। वेदों की सर्तमान समय में विद्यमानता के कारण मनुष्यों के लिए किसी नये मत की आवश्यकता ही नहीं है। वेद धर्म ईश्वर द्वारा प्रादूर्भूत धर्म है और सभी मनुष्यों के लिए यही धर्म आचरणीय व कर्तव्य है। हमारे मनुस्मृति, उपनिषद्, दर्शन, रामायण, महाभारत व अन्य जितने भी ग्रन्थ हैं उनमें धर्म शब्द का प्रयोग वेद के सिद्धान्तों के आचरण करने से ही सम्बन्ध रखता है। वेदों का धर्म सर्वथा पूर्ण धर्म है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और महाभारत काल के भी बहुत बाद तक वैदिक धर्म ही भारत सहित विश्व का एकमात्र धर्म रहा है। महाभारत काल तक अन्य किसी धर्म के अस्तित्व का उल्लेख व विवरण विश्व के साहित्य में उपलब्ध नहीं है।

 

महाभारत काल के बाद संसार में अनेक मत-मतान्तर जिन्हें रिलीजन, मजहब, सम्प्रदाय व पन्थ भी कह सकते हैं, अस्तित्व में आये। कारणों पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि महाभारत के महायुद्ध के बाद आलस्य व प्रमाद के कारण वैदिक धर्म व वैदिक सामाजिक व्यवस्था विशृंखलित हो गई। समयानुसार जैमिनी ऋषि पर आकर ऋ़षियों की परम्परा भी समाप्त हो गई और वेदों के पारदर्शी विद्वानों की संख्या भी नगण्य हो गई। विश्व में वेदों का प्रचार बन्द हो गया। देश के अल्पज्ञानी विद्वान मनमानी करने लगे और सर्वत्र अल्पज्ञता से पूर्ण नये नये अवैदिक विधान दिखाई देने लगे। अन्धकार बढ़ता गया और कुछ अच्छे आशय वाले सज्जन पुरुषों ने देश व विदेश मं समाज के हित की दृष्टि से अपनी-अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार लोगों को अपने मत में संगठित व दीक्षित किया। यह सभी लोग वेदों के ज्ञान से परिचित नहीं थे। उन लोगों के सम्मुुख वेदों का पुराना आचार, विचार व व्यवहार ही अनेकों विकृतियों के साथ प्रचलित था। उन्हें जो उचित लगा उन्होंने प्रचलित किया और उन-उन के नये मत, पन्थ, सम्प्रदाय ही प्रचलित होकर विस्तार को प्राप्त हुए। अनेकों प्रकार के चमत्कार आदि भी इन वेदेतर नये मतों के अनुयायियों ने समय-समय पर अपने-अपने मत में मिला लिए। नये मतों की संख्या समय व स्थान के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होती रही। यह मत व पन्थ धर्म न होकर मत, पन्थ, रिलीजन, मजहब व सम्प्रदाय आदि श्रेणी में आते हैं। भारत से इतर मत व पन्थ जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उन भाषाओं में धर्म नाम का शब्द भी नहीं है। धर्म वेद, वैदिक साहित्य व संस्कृत का शब्द है। अन्य मतों की अपनी-अपनी भाषायें होने से उनके अपने-अपने शब्द हैं, उन्हीं से उनको सम्बोधित किया जाना चाहिये। भारत में यह कुछ फैशन सा हो गया है कि देशी व विदेशी सभी मतों व पन्थों को धर्म मान लिया गया है जिससे यथार्थ व सदधर्म वैदिक धर्म के बारे में अनेक प्रकार की भ्रान्तियां फैल गई हैं। वैदिक धर्म जो कि वेद व वेदानुकूल वैदिक साहित्य पर आधारित है औरयुक्ति, तर्क व प्रमाणों पर आधारित जो सत्य मान्यतायें व सिद्धान्त है, वही वैदिक धर्म है। इससे इतर देश व विश्व में जितने भी मत व सम्प्रदाय हैं वह धर्म न होकर, मत-पन्थ-सम्प्रदाय-रिलीजन-मजहब आदि श्रेणी में ही आते हैं और उनके लिए उनकी भाषाओं के उपयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिये।

 

हमारा इस लेख को लिखने का अभिप्राय यही है कि सत्य, सनातन, ईश्वर प्रदत्त वेद व इसकी शिक्षाओं, मान्यताओं, सिद्धान्तों व विधानों का पालन ही वैदिक धर्म है। इससे इतर, विपरीत, सत्यासत्य मिश्रित आध्यात्मिक व सामाजिक मान्यतायें धर्म नहीं हैं। जो सिद्धान्त व मान्यतायें वेद, ज्ञान व पूर्ण सत्य के अनुरूप व अनुकूल है, वह वैदिक धर्म के अन्तर्गत आ जाते हैं। वैदिक मत से इतर मान्यता व सिद्धान्तों वाले सभी संगठन व समुदाय मत व पन्थ की ही श्रेणी में आते हैं। अतः सुधी व विज्ञ लोगों को वेद से इतर मत-पन्थों के लिए धर्म का प्रयोग न कर उनके लिए उचित व यथार्थ शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिये जिससे धर्म विषयक यथार्थ स्थिति का सबको ज्ञान रहे। धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है और इसका प्रयोग मनुस्मृति, दर्शन, उपनिषद, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थों में वेद मत व वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के लिए ही हुआ है। इस स्थिति को जान व समझ कर ही सभी मनुष्यों को धर्म शब्द का प्रयोग करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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स्वामी दयानन्द को वेदों की प्रथम प्राप्ति धौलपुर से हुई थी?

ओ३म्

स्वामी दयानन्द को वेदों की प्रथम प्राप्ति धौलपुर से हुई थी?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी दयानन्द मथुरा में अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से अपनी शिक्षा पूर्ण कर सन् 1863 में आगरा पधारे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष प्रवास किया था।  गुरु जी से विदाई के अवसर पर गुरु दक्षिणा प्रकरण के अन्तर्गत स्वामी दयानन्द जी के जीवनी लेखक पं.  लेखराम जी ने लिखा है कि तीन वर्ष के समय में उन्होंने दयानन्द जी को व्याकरण के अष्टाध्यायी, महाभाष्य, वेदान्तसूत्र और इससे अतिरिक्त भी जो कुछ विद्याकोष उनके पास था, वह सब उन्हें सौंप दिया था और ऋषिकृत ग्रन्थों से उन्होंने जो बातें निश्चित की हुईं थीं, वे सभी उनके मस्तिष्क में डाल दीं। उनका विचार था कि हमारे शिष्यों में से हमारे काम को यदि कुछ करेगा तो दयानन्द ही करेगा। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर विद्या समाप्ति की सफलता की गुरु दक्षिणा मांगी। दयानन्द ने निवेदन किया कि जो आपकी आज्ञा हो मैं उपस्थित हूं। तब दंडी जी ने कहा कि (1) देश का उपकार करो, (2) सत्य शास्त्रों का उद्धार करो (3) मतमतान्तरों की विद्या को मिटाओ और (4) वैदिक धर्म का प्रचार करो। स्वामी दयानन्द जी ने अत्यधिक क्षमा प्रार्थना करते हुए और बहुत विनय पूर्वक इसको स्वीकार किया और वहां से विदा हो गये। गुरु जी ने आशीर्वाद दिया और चलते हुए एक अमूल्य बात और भी कह दी कि मनुष्यकृत ग्रन्थों में परमेश्वर और ऋषियों की निन्दा है और ऋषिकृत ग्रन्थों में नहीं, इस कसौटी को हाथ से छोड़ना।

 

इसी ग्रन्थ में गुरु दक्षिणा के तुरन्त बाद का यह वर्णन भी उपलब्ध है कि स्वामी जी के पास एक गीता और विष्णुसहस्रनाम की पुस्तक थी वह मन्दिर लक्ष्मीनारायण के पुजारी को दे दी। स्वामी जी बैशाख मास के अन्त संवत् 1920 तदनुसार अप्रैल सन् 1863 में दो वर्ष 6 मास तक मथुरा में शिक्षा पाने के पश्चात् आगरे की ओर पधार गये। चूंकि गर्मी हो गई थी, इसलिये अपना लिहाफ भी वहां मथुरा के मन्दिर में छोड़ गये। मन्दिर लक्ष्मीनारायण का दूसरा पुजारी घासीराम भी स्वामी जी के साथ आगरे गया था।

 

आगरा में स्वामी दयानन्द जी ने अप्रैल-मई 1863 से सितम्बर-अक्तूबर सन् 1864 तक प्रवास किया। यहां वर्णन है कि स्वामी जी के पास आगरा में महाभाष्य और कुछ अन्य पुस्तकें थी। सायंकाल और प्रातःकाल समाधि लगाते थे। आगरा प्रवास में ही वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान शीर्षक से पृष्ठ 51 (जीवन चरित संस्करण 1985) वर्णन है कि एक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी बड़ी खोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर स्वामी विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत्त कर लिया करते थे।’ इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि आगरा में प्रवास तक स्वामी जी के पास चार वेद वा इनकी मूल संहितायें नहीं थी। इसके बाद जीवन चरित में धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओर शीर्षक के अन्तर्गत वर्णन है कि स्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।

 

धौलपुर में स्वामी जी के 15 दिवसीय प्रवास का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। वह यहां कहां रहे, किस-किससे मिले और यहां उनकी अन्य क्या-क्या गतिविधियां थी? पूर्व विवरणों में संकेत है कि स्वामीजी वेदों की खोज में यहां आये थे परन्तु इनको यहां वेद प्राप्त हुए या नहीं, इसका उल्लेख उपलब्ध विवरण में प्राप्त नहीं होता। यहां से स्वामी जी 2 नवम्बर, सन् 1864 को ग्वालियर आते हैं जहां महाराज जियाजी राव जी की ओर से भागवतकथा की बड़े पैमाने पर आयोजन की तैयारी चल रही थी जो कि 4 फरवरी, 1865 से आरम्भ होकर 11 फरवरी, 1865 को सम्पन्न हुई। स्वामी जी धौलपुर से चलकर 2 महीने 23 दिनों बाद ग्वालियर 24 जनवरी, 1865 को ग्वालियर पहुंचे थे। इसका अर्थ है कि स्वामी जी आगरा से धौलपुर 16-17 अक्तूबर, 1864 को आये होंगे। ग्वालियर आने से पूर्व स्वामी जी ने आबू पर्वत पर जाकर अपने योग गुरुओं से भेंट की थी। ग्वालियर से स्वामी जी करौली (राजस्थान) पधारे थे। जीवन चरित में करौली में कई मास रहकर जयपुर को प्रस्थान शीर्षक के अन्र्तगत जानकारी दी गई है कि ग्वालियर से स्वामी जी करौली में पधारे और राजा साहब से धर्मविषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास किया, फिर वहां से जयपुर चले गये। यहां करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि वह यहां आने से पहले ग्वालियर, आबूपर्वत या धौलपुर में एक बार वेदों का अभ्यास कर चुके थे। करौली से पूर्व आबूपर्वत में वेदों का अभ्यास करने की सम्भावना अधिक दिखाई देती है, कारण यह कि वहां स्वामी जी लगभग ढाई माह से अधिक रहे। करौली से चलकर स्वामी जी जयपुर, अजमेर, पुष्कर, किशनमढ़, जयपुर, आगरा, मेरठ होते हुए हरिद्वार के कुम्भ के मेले में पहुंचे थे। मेरठ में वर्णन है कि स्वामी जी यहां चारों वेद, चार उपवेद, 6 वेदांग, मनुस्मृति, महाभारत, हरिवंश, वाल्मीकि रामायण और तीनों वर्णों को यज्ञोपवीत पहनने के पश्चात् सन्ध्या गायत्री की आज्ञा देते थे और दो समय सन्ध्या करने का निर्देश करते थे और पंचयज्ञ का उपदेश देते थे। यह भी स्पष्ट कर रहा है कि स्वामी जी को मेरठ आने से पूर्व ही वेदों की प्राप्ती हो चुकी थी।

 

हरिद्वार में स्वामी जी 12 मार्च, सन् 1867 को पधारे थे। श्री विश्वेश्रानन्द, स्वामी शंकरानन्द, दिल्ली निवासी श्री ईश्वरी प्रसाद गौड़ ब्राह्मण तथा पांच छः अन्य ब्राह्मण आपके साथ थे। सप्तस्रोत (वर्तमान में सप्त सरोवर) पर बाड़ा बांध कर और उसमें आठ-दस छप्पर डलवा कर वहां डेरा किया और वहां एक पताका गाड़ दी जिसका नाम पाखंड खण्डिनी रखा। जीवन चरित में हरिद्वार प्रवास काल में देहरादून के दादू पन्थी स्वामी महानन्द सरस्वती से जुड़ी एक घटना का वर्णन हुआ है जिसका शीर्षक है ‘उन्हें केवल वेद ही मान्य थेस्वामी महानन्द सरस्वती घटना इस प्रकार है कि स्वामी महानन्द सरस्वती जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एकएक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नही। हमने वेदों के दर्शन, वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रन्थ को (स्वतः प्रमाण) मानते थे। इस घटना में स्वामी जी के पास चार वेद होने का स्पष्ट वर्णन है जिसे महानन्द जी ने देखा था।

 

प्रश्न यह है कि स्वामी जी को वेद कहां से प्राप्त हुए? आगरा में उनके पास वेद नहीं थे जिसके लिए उन्होंने पं. सुन्दरलाल जी को लाने को कहा था। न मिलने पर उन्होंने कहा था कि हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। यह घटना वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान शीर्षक से पं. लेखराम जी ने दी है। धौलपुर से स्वामी जी  आबूपर्वत और ग्वालियर गये और ग्वालियर से करौली आये। करौली में स्वामी जी द्वारा वेदों के पुनः अभ्यास करने का वर्णन है जिससे स्पष्ट है कि स्वामी जी को करौली आने से पहले वेद प्राप्त हो चुके थे और वह पहले भी एक बार वेदों का अभ्यास वा उस पर दृष्टिपात कर चुके थे। आबूपर्वत स्वामी जी अपने योगगुरुओं से भेंट करने गये थे। ग्वालियर में वेदों की प्राप्ति विषयक चर्चा उपलब्ध नहीं है। धौलपुर वह वेदों की खोज में आये थे और यहां उन्हें सफलता मिलने का भी कहीं किसी प्रकार का विवरण उपलब्ध नहीं है। इससे स्पष्ट हो रहा है स्वामी जी को वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। हमने कुछ समय पूर्व अपने लेखों में यह विषय उठाया था कि स्वामी दयानन्द जी को वेदों की प्राप्त कब, कहां व किससे हुई? उपर्युक्त विवरणों से संकेत मिलता है कि स्वामी जी को वेदों की प्राप्ति धौलपुर में उनकी कार्तिक कृष्ण पक्ष, सन् 1864 ईस्वी की 15 दिवसीय यात्रा में हुई। यह प्राप्ति किस व्यक्ति से हुई, यह विवरण उपलब्ध नहीं होता। हमें यह भी अनुमान होता है कि सन् 1864 तक वेदों का प्रकाशन किसी मुद्रणालय में मुद्रित होकर नहीं हुआ था। अतः उन्हें प्राप्ति वेद हस्त लिखित हो सकते हैं। स्वामी जी को धौलपुर से प्राप्त वेदों की उपलब्ध प्रतियां सम्प्रति परोपकारिणी सभा के नियंत्रण में है। उन प्रतियों को देखने पर यथार्थ स्थिति ज्ञान हो सकती है। हो सकता है कि उस पर उन प्रतियों के देने वाले का नाम, तिथि व स्थान आदि का उल्लेख हो, नहीं भी हो सकता है। इसके लिए परोपकारिणी सभा को अपने विद्वानों से महर्षि दयानन्द की मृत्यु पर प्राप्त उनके समस्त साहित्य जो परोपकारिणी सभा के संरक्षण में है, उसका निरीक्षण कराकर वस्तुस्थिति ऋषिभक्तों वा आर्यजगत को सूचित करनी चाहिये। इतना अनुमान इस समय हम कर रहे हैं कि स्वामी दयानन्द जी को वेदों की प्राप्ति लगभग सितम्बर, 1864 में धौलपुर से हुई थी। यह हमारा अनुमान है जो लेख में प्रस्तुत प्रमाणों व उद्धरणों के आधार पर लगाया गया है। यदि इससे इतर कोई जानकारी उपलब्ध हो तो हम विद्वानों से उसे उपलब्ध कराने का अनुरोध करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘हे मनुष्य ! तू ईश्वर के निज नाम ‘ओ३म्’ का स्मरण कर अपने सभी दुःखों को दूर कर’

ओ३म्

हे मनुष्य ! तू ईश्वर के निज नामओ३म् का स्मरण कर अपने सभी दुःखों को दूर कर

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अपने सारे जीवन में अपने दुःखों की निवृत्ति में लगा रहता है फिर भी यदि जीवन के अन्तिम भाग में किसी समय किसी शिक्षित व सम्पन्न मनुष्य से पूछा जाये कि क्या वह दुःख मुक्त व पूर्णतया सुखी है तो उत्तर प्रायः न में ही मिलता है। इसका कारण केवल एक है कि ईश्वर को भुलाकर केवल भौतिक पदार्थों की प्राप्ति से दुःखों की निवृत्ति नहीं हो सकती। मृत्यु कर क्लेश तो ज्ञान व ईश्वर की उपासना से दूर हाता है। भौतिक पदार्थ मनुष्य को आंशिक व सीमित सुख तो दे सकते हैं परन्तु इन प्राप्त सुखों का परिणाम भी दुःख ही होता है। सुख के भौतिक साधन प्राप्त करने के लिए तप व परिश्रम से धन कमाना होता है जिसमें भी दुःख होता है और इसके खर्च करने पर भी, इस कमाये धन में कमी हेने का दुःख होता है। यदि कोई हमारा धन छीन ले या हमें मूर्ख बनाकर हमासे धन ले ले तो फिर वाद-विवाद व लड़ाई झगड़े से भी दुःख ही मिलता है। सुख भोग का परिणाम भी दुःख ही होता है। इस मनुष्य के जीवन में तपस्या नहीं अपितु केवल सुख भोग ही हों, ऐसा जीवन कालान्तर में अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाता है, ऐसा हमें नित्य प्रति अपने निकट व स्वयं में भी देखने को मिल जाता है। अतः केवल धनोपार्जन व सुख के साधनों के संग्रह कर लेने मात्र. से हमारे मनुष्य जीवन की समस्या हल नहीं होती।

 

दुःखों की पूर्ण निवृत्ति कैसे हो सकती है? इसका उपाय है कि हम ऐसी सत्ता की संगति करें जो दुःखों से सर्वथा रहित है। ऐसी मुख्य सत्ता तो केवल और केवल एक ईश्वर ही है। ईश्वर आनन्दस्वरूप होने से दुःखों से सर्वथा रहित है। उसकी संगति से ही सुख व आनन्द की उपलब्धि होती है। इस रहस्य को पूर्णतया जानने के लिए वेद व वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय करना हितकर होता है। स्वाध्याय से हमारा मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है। मैं और मेरा का जो मिथ्या ज्ञान व अहंकार है वह भी क्षीण व नष्ट हो सकता है। जब यथार्थ मैं का ज्ञान होता है तब अपनी तुच्छता व न्यूनता तथा ईश्वर की श्रेष्ठता व महानता का ज्ञान होता है। इस महानता के ज्ञान से ईश्वर की संगति जिसे उपासना व योग भी कहते हैं, ईश्वरोपासना व संन्ध्या शब्द भी इसी के पर्याय है और भक्ति तथा ईशपूजा भी इसी को कहते हैं। ईश्वर के निज नाम ओ३म् नाम का जप जिसे प्रणव जप कहते है, यह भी ईश्वर की उपासना व संगतिकरण में हीं आता है। जिस प्रकार शीत व ठण्ड से आतुर मनुष्य का अग्नि के निकट जाने पर शीत निवृत्त हो जाता है, गर्मी से आतुर मनुष्य की उष्णता शीतल जल में स्नान व नदी के जल में डुबकी लगाने से दूर हो जाती है, उसी प्रकार से ईश्वर की उपासना व संगति अथवा निज नाम ओ३म् नाम के जप से समस्त दुःखों की निवृत्ति होकर सुख व आनन्द में स्थिति होती है। हम दशरथनन्द मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी व देवकी-वसुदेव नन्दन योगेश्वर श्री कृष्ण जी का सम्मान व उनके गुणों की पूजा करते हैं। यह भी सत्ग्रन्थों के स्वाध्याय व महात्माओं के सदोपदेशों से ही सिद्ध होती है। श्री रामचन्द्र जी और योगेश्वर श्री कृष्ण जी स्वयं भी सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान, निराकार ईश्वर के उपासक भक्त थे। ईश्वर अजन्मा है और जन्म लेन वाला हर व्यक्ति मनुष्य ही होता है। श्रेष्ठ गुण कर्म स्वभाव से कोई भी मनुष्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र, महान बन सकता है और अच्छे कर्मों का त्याग कर वा बुरे कर्मों को करने से कोई भी मनुष्य अपने वर्ण मनुष्यता से गिर कर अनार्य, अनाड़ी, राक्षस, पिशाच गधे के समान निर्बुद्धि हो सकता है। अतः ईश्वर के नाम का स्मरण, उसके नाम प्रणव का जप, स्तुति, कीर्तन, चिन्तन, मनन, अध्ययन, उपदेश व प्रचार सहित सुख के साधनों का अत्यल्प मात्रा में सेवन व उपयोग ही मनुष्य को मनुष्य बनाता और उसे एक प्रेरक व महान व्यक्ति बनाता है जिसमें दुःखों की मात्रा न्यून से न्यूनतम होती है। ऐसा ही जीवन आदर्श मनुष्य कहलाने योग्य होता है।

 

मनुष्यों के हित के लिए यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र संख्या 15 में मनुष्य को क्रतो अर्थात् कर्मों को करने वाला जीव कहकर उसे ईश्वर के निज नाम ‘‘ओ३म्’’ नाम का स्मरण करने का उपदेश किया गया है। पूरा मन्त्र है वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतं स्मर।। इसका संक्षिप्त अर्थ है कि हे कर्म करने वाले जीव ! तू अपनी मृत्यु के समय होने वाली स्थिति का अनुमान कर अपने जीवन में सदा ईश्वर के निज नाम ओ३म् का स्मरण कर। ईश्वर प्रदत्त अपनी सामर्थ्य, ईश्वर और अपनी आत्मा के स्वरूप का स्मरण कर और अपने जीवन में किये हुए कर्मों का स्मरण कर। ईश्वर का स्मरण करने का अर्थ ईश्वर का ध्यान व चिन्तन भी लिया जा सकता है और कर्मों का स्मरण करने का तात्पर्य अपने कर्मों के सत्य व असत्य स्वरूप की परीक्षा कर असत्य पर आधारित कर्मों को छोड़ने और अच्छे कृत कर्मों को जारी रखने सहित अन्य नये शुभ कर्मों को करने पर विचार करने का उद्देश्य प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ओ३म् का जप मन से करने के उपदेश के साथ गायत्री मन्त्र में ईश्वर के लिए प्रयुक्त तीन महाव्याहृतियों में से दूसरी व्याहृति भुवः का निर्वचन करते हुए लिखा है कि भुवरित्यपानःयः सर्व दुःखमपानयति सोऽपानः अर्थात् जो ईश्वर सब दुःखों से रहित है तथा जिसके संग (उपासना, ध्यान व भक्ति आदि) से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘‘भुवः’’ है। ईश्वर की भुवः नाम की महाव्याहृति संकेत कर रही है कि ईश्वर के नाम का स्मरण करने, उसका गुण-कीर्तन-स्तुति करने व उसके स्वरूप आदि का विचार कर अपने कर्म सुधारने से मनुष्य वा ईश्वर नाम स्मरण करने वाले मनुष्य के दुःख दूर हो जाते हैं। हमें इस समय एक भजन भी याद आ रहा है जिसके बोल हैं आ३म् बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी, सकल काम तज ओ३म् नाम भज, मुख मण्डल में पड़ी पड़ी। यह सुन्दर व आत्मा को आह्लादित करने वाला भजन यूट्यूब पर लिंक https://www.youtube.com/watch?v=fH2SAy0vk8M पर भी उपलब्ध है जिसे सुना जा सकता है।

 

हमने ओ३म् नाम को स्मरण करने व जप करने पर कुछ संक्षेप में विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है कि पाठक इसे उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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‘प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की पृष्ठभूमि और उसके प्रेरक लोग’

ओ३म्

आर्यसमाज स्थापना दिवस 10 अप्रैल के अवसर पर

प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की पृष्ठभूमि और उसके प्रेरक लोग

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमें एक आर्यबन्धु ने पूछा है कि आर्यसमाज की स्थापना का महर्षि दयानन्द जी को सुझाव किन आर्य-श्रेष्ठियों ने दिया था? हम सब यह तो जानते हैं कि आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द ने मुम्बई सन् 1875 में की थी परन्तु स्थापना की पृष्ठभूमि और इसकी यथार्थ तिथि से सभी लोग पूर्णतः परिचित नहीं है। आर्यसमाज की स्थापना की तिथि विषयक भिन्न मत भी हैं। अतः हमने जिज्ञासु बन्धु श्री राज आर्य चैहान को एक लेख द्वारा इसका विस्तृत उत्तर देने का विचार किया और उन्हें इससे अवगत करा दिया। महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई की तीन बार यात्रायें की। प्रथम बार वह सोमवार 24 अक्तूबर, सन् 1874 से 30 नवम्बर, सन् 1874 तक यहां रहे, दूसरी बार बृहस्पतिवार 29 जनवरी सन् 1875 से बुधवार अन्तिम जून सऩ 1875 तक और तीसरी बार बुधवार 1 सितम्बर सन् 1875 से अप्रैल, 1876 तक रहे। पहली बार की यात्रा में आर्यसमाज की स्थापना करने का विचार मुम्बई के निवासियों में उत्पन्न हुआ। इस शीर्षक से महर्षि दयानन्द के प्रमुख जीवनीकार पं. लेखराम जी ने जीवन चरित में लिखा है कि स्वामीजी के चले जाने पर (अर्थात् 30 नवम्बर, सन् 1874 के बाद) फिर इस उत्तम धर्मकार्य अर्थात् सत्योपदेश का चलाना कठिन होगा इसलिए एकआर्यसमाज स्थापित होना चाहिए, इस प्रकार का विचार कईएक धर्मजिज्ञासु गृहस्थों के मन में उत्पन्न हुआ। इसके बाद कुछ स्वार्थी ढोंगी भक्तों द्वारा इस विचार का विरोध शीर्षक देकर पं. लेखराम जी लिखते हैं कि इस विचार को सुनकर स्वामी जी को यहां (बम्बई) बुलाने में जिन्होंने अधिक भाग लिया था, वे लोग कु्रद्ध हो गए, क्योंकि उन लोगों का यह हेतु था कि स्वामी जी के द्वारा किसी विशेष मत का खंडन करवाकर, उस मत के बहुत से अनुयायियों को अपनी ओर करके, स्वामी जी के जाने के पश्चात् उन लोगों को अपना शिष्य बना कर उन्हें कथाश्रवण करने के लिए आने का उपदेश किया जाये। (ये पौराणिक पंडित लोग नवीन वेदान्ती थे) वैसे ही जो लोग वेद को नहीं मानते थे और स्वामी जी के सहायक थे (अर्थात् ब्रह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजी) वे लोग भी इस विचार (आर्यसमाज की स्थापना) को जानकर प्रसन्न नहीं हुए, क्योंकि उन लोगों को भी यह निश्चय था कि स्वामी जी के चाहने वालों में से अधिकतर लोग हमारी समाज में सम्मिलित होंगे।

 

इसके बाद पं. लेखराम जी ने सच्चे धर्म जिज्ञासुओं का निश्चय अधिक दृढ़ हुआ शीर्षक से लिखा है कि इसी प्रकार जब कुछ विशेष धर्मजिज्ञासुओं को इन दोनों (प्रकार के लोगों अर्थात नवीन वेदान्ती पौराणिक और ब्रह्समाजी व प्रार्थना-समाजी) का हार्दिक अभिप्राय विदित हुआ कि वे लोग ऊपर से तो सत्यशोधक हैं और (हृदय व आन्तरिक रूप से) अत्यन्त स्वार्थी हैं, तब आर्यसमाज की स्थापना करने की उनकी इच्छा बहुत बढ़ गई और अन्ततः समाज स्थापित करने पर वह उद्यत हो गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि संवत् 1931 (सन् 1874) के महानुभावों ने उस महापंडित (दयानन्द जी) को अपना विचार समझा कर उनके सामने 60 सज्जनों से हस्ताक्षर करवाकर आर्यसमाज चलाने का निश्चय किया और स्वामीजी ने हिन्दीभाषा में उसके नियम भी रच दिए और उसमें समयसमय पर धर्मोपेदेश करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। इस पर भी आर्यसमाज की स्थापना न हो सकी क्योंकि दूसरे विघ्न आ गये। (आर्यसमाज की स्थापना के धर्मजिज्ञासु) कुछ सज्जनों पर तो बिरादरी की ओर से ऊपर से बहुत से दबाव डाले गए और कुछ ने इस आर्यसमाज का सभासद् बनने को धनाढ्यता की शान के विरुद्ध समझा और कुछ सज्जनों के मित्रों और सम्बन्धियों से इस बात (आर्यसमाज की स्थापना कराने व उसका सभासद बनने) को लेकर झगड़े आरम्भ हो गए। अन्त में यह भी हुआ कि उस महापण्डित (दयानन्द) पर लोग नाना प्रकार के कपोल-कल्पित दोष भी लगाने लगे कि वह ईसाई है, अंग्रेजों का नौकर, म्लेच्छ है आदि आदि (इस अभिप्राय से लगाने लगे कि जिससे स्वामी दयानन्द जी के प्रति उनकी श्रद्धा उठ जाए)। (परिणाम यह हुआ कि इस समय आर्यसमाज की स्थापना का कार्य सम्पन्न नहीं हो सका)।

 

स्वामीजी बृहस्पतिवार 29 जनवरी, सन् 1875 को दूसरी बार अहमदाबाद से मुम्बई पधारे। बम्बई में स्वामी जी के दूसरी बार आने पर आर्यसमाज-स्थापना का विचार पुनः अंकुरित हुआ। स्वामी जी पिछली प्रथम बम्बई यात्रा के बाद गुजराज की ओर चले जाने से आर्यसमाज की स्थापना का जो विचार बम्बई वालों के मन में उत्पन्न हुआ था, वह ढीला हो गया था परन्तु अब स्वामी जी के पुनः आ जाने से फिर बढ़ने लगा और अन्ततः यहां तक बढ़ा कि कुछ सज्जनों ने दृढ़ संकल्प कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, बिना (आर्यसमाज) स्थापित किए हम नहीं रहेंगे। स्वामीजी के गुजरात से लौटकर बम्बई आते ही फरवरी मास, सन् 1875 में गिरगांव के मोहल्ले में एक सार्वजनिक सभा करके राव बहादुर दादू बा पांडुरंग जी की प्रधानता में नियमों पर विचार करने के लिए एक उपसभा नियत की गईं। परन्तु उस सभा में भी कई एक लोगों ने अपना यह विचार प्रकट किया कि अभी समाज-स्थापन न होना चाहिये। ऐसा अन्तरंग विचार होने से वह प्रयत्न भी वैसा ही (निष्फल) रहा।

 

उपर्युक्त विवरण को प्रस्तुत करने के बाद पं. लेखराम जी बम्बई में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना शीर्षक से आर्यसमाज की स्थापना संबंधी घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि और अन्त में जब कई एक भद्र पुरुषों को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब समाज की स्थापना होती ही नहीं, तब कुछ धर्मात्माओं ने मिलकर राजमान्य राज्य श्री पानाचन्द आनन्द जी पारेख को नियत किए हुए नियमों पर विचारने और उनको ठीक करने का काम सौंप दिया। फिर जब ठीक किए हुए नियम स्वामीजी ने स्वीकार कर लिए तो उसके पश्चात कुछ भद्र पुरुष, जो आर्यसमाज स्थापित करना चाहते थे और नियमों को बहुत पसन्द करते थे, लोकभय की चिन्ता करके, आगे धर्म के क्षेत्र में आये और चैत्र सुदि 5 शनिवार, संवत् 1932, तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 3 रवीउल् अव्वल, सन् 1292 हिजरी संवत् 1797, शालिवाहन सन् 1283, फस्ली माहे खुरदाद, सन् 1284 फारसी चैत 29, संक्रान्ति संवत् 1932 को शाम के समय, मोहल्ला गिरगांव में डाक्टर मानक जी के बागीचे में, श्री गिरधरलाल दयालदास कोठारी बी.., एल.एल.बी. की प्रधानता में एक सार्वजनिक सभा की गई और उसमें यह नियम सुनाये गये और सर्वसम्मति से प्रमाणित हुए और उसी दिन से आर्यसमाज की स्थापना हो गयी।’ 

 

उपर्युक्त लेख देने के पश्चात आर्यसमाज के 28 नियमों का क्रमशः उल्लेख है व उससे पूर्व संवत् 1931 चैत्र सुदि 5, शनिवार को आर्यसमाज बम्बई में स्थापित हुआ, पंक्ति मुद्रित है। इससे भी पूर्व मोटे अक्षरों में लिखा है प्रथम आर्यसमाज के नियम। 28 नियमों के बाद बताया गया है कि फिर अधिकारी नियत किये गए। तत्पश्चात् प्रति शनिवार सायंकाल को आर्यसमाज के अधिवेशन होने लगे परन्तु कुछ मास के पश्चात् शनिवार का दिन सामाजिक पुरुषों के अनुकूल न होने से रविवार का दिन रखा गया जो अब तक है। इस विवरण में यह भी लिखा है कि स्वामीजी समाज स्थापित करने और एक दो सप्ताह चलाने के पश्चात् फिर अहमदाबाद को चले गए और वहां जाकर बड़ी प्रबल युक्तियों से स्वामीनारायणमत का खंडन आरम्भ किया।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में हमने प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की पूरी पृष्ठभूमि व स्थापना से संबंधित पं. लेखराम जी के प्रमाणिक लेखों सहित स्थापना की प्रमाणिक तिथि का उल्लेख किया है। अब यह देखना है कि आर्यसमाज की स्थापना में सबसे अधिक सक्रिय व प्रेरक लोग कौन रहे थे। पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी ने अपने ऋषि जीवन चरित में लिखा है कि ऋषि जब दूसरी बार बम्बई आये तो भक्तजनों के मन में आर्यसमाज स्थापित करने की इच्छा पुनः जाग्रत् हुई और स्वामीजी ने भी उनसे यह (आर्यसमाज की स्थापना का) प्रस्ताव किया। अन्य सज्जनों के अतिरक्ति लछमनदास सेमजी और राजकृष्ण महाराज इस विषय में अधिक उत्साह दिखाने  लगे। राजकृष्ण महाराज ने आर्यसमाज के नियम बनाने की इच्छा प्रकट की तो स्वामीजी ने कहा कि नियम हम स्वयं बनाएंगे और एक नियमावली बना दी। राजकृष्ण महाराज ने स्वामीजी को कहा कि नियमों में जीव-ब्रह्म के एकत्व के सिद्धान्त का समावेश होना चाहिए, पीछे छोड़ देंगे। ऐसा करने से हम अनेक लोगों को आर्यसमाज की ओर आकर्षित कर सकेंगे। राजकृष्ण महाराज की इस सिद्धान्त विरुद्ध बात को सुनकर स्वामी जी ने कहा कि असत्य पर आर्यसमाज को कदापि स्थापित न करुंगा। स्वामीजी के इस स्पष्ट उत्तर से राजकृष्ण महाराज नाराज हो गये और आर्यसमाज की स्थापना से पृथक हो गये। पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी ने आर्यसमाज की स्थापना में सहयोगी कुछ प्रमुख लोगों के नाम देते हुए लिखा है कि सेठ मथुरादास लौजी, सेवकलाल, करसनदास, गिरिधारीलाल दयालदास कोठारी बी.. एल.-एल.बी. प्रभृति सज्जनों ने आर्यसमाज स्थापित करने का दृढ़-संकल्प कर लिया। इन सत्पुरुषों पर पौराणिकों ने अत्याचार भी किये और सर्वसाधारण में उनकी भरपट निन्दा भी की, परन्तु वे अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। राजमान् राजेश्वरी पानाचन्द आनन्दजी पारीख को आर्यसमाज के नियमों का ढांचा बनाने के लिए नियत किया गया। उन्होंने वह तैयार किया और उसे स्वामीजी ने सामने प्रस्तुत किया। स्वामीजी ने उसमें उचित संशोधन कर दिया। पं. मुखोपाध्याय जी ने यह भी लिखा है कि आर्यसमाज के सभासदों की संख्या 100 के लगभग थी। इस प्रथम आर्यसमाज के पदाधिकारियों की सूची पं. लक्ष्मण जी आर्योपेदेशक रचित जीवन चरित के सम्पादक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने ग्रन्थ में दी है। यह अधिकारी व सभासद हैं-प्रधान राजेश्री गिरधरलाला दयालदास कोठारी, उपप्रधान राजेश्री ठाकरसी नारायण जी, मन्त्री राजेश्री पानाचन्द आनन्द जी पारीख, उपमन्त्री राजेश्री सेवकलाल कृष्णदास, उपकोषाध्यक्ष राजेश्री श्यामजी विश्राम, सभासद: सर्वराजेश्री मूलजी ठाकरसी, छबीलदास लल्लूभाई, किसनदास उदासी, पुरुषोत्तम नारायण जी, मनसाशंकर जयशंकर दूबे, हनुमंतराम पित्ती, आत्माराम बापू दलवी, बाबू शोखीलाल झवेरीलाल, बाबू अक्षयकुमार मित्र एवं रघुनाथ गोपाल देशमुख।

 

महर्षि दयानन्द को मुम्बई आर्यसमाज की स्थापना के लिए प्रेरित करने वाले प्रमुख लोगों में उपर्युक्त वर्णित सभी व्यक्ति ही प्रतीत होते हैं। कुल सभासद लगभग 100 थे व कुछ अन्य ऐसे भी हो सकते हैं कि जो किसी कारण से सभासद न बने हों परन्तु आर्यसमाज के सिद्धान्तों व मान्यताओं के प्रति वह निष्ठावान रहे हों। इस आर्यसमाज की स्थापना के बाद समयानुसार देश भर में आर्यसमाज का जाल बिछ गया और देश में धार्मिक व सामाजिक सुधारों सहित राजनीतिक परिवर्तन में भी आर्यसमाज की प्रमुख व महत्वपूर्ण भूमिका रही। आज आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वैदिक धर्म विश्वधर्म का पर्याय बन गया है। लेखों व युक्ति आदि प्रमाणों से वैदिक धर्म को मानवमात्र का ईश्वर प्रदत्त व स्वाभाविक धर्म सिद्ध किया जा सकता है जो सभी मत-पन्थों व सम्प्रदायों आदि से सर्वोपरि व सर्वोत्तम है और मनुष्यों के योग-क्षेम सहित धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्रदान कराने में वैचारिक व योगाभ्यास आदि द्वारा सत्य सिद्ध होता है।

              –मनमोहन कुमार आर्य

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‘संसार में ईश्वर और धर्म एक हैं’

ओ३म्

संसार में ईश्वर और धर्म एक हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

क्या ईश्वर और धर्म आज भी प्रासंगिक हैं अथवा यह बातें मध्यकालीन अज्ञान व अन्धविश्वास पर आधारित हैं? संसार में बहुत से नास्तिक हुए हैं, अब भी है, जिनके अपने-अपने मत भी हैं,  वह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें धर्म शब्द से ग्लानि व घृणा है। अब प्रश्न है कि यदि ईश्वर व धर्म हैं ही नहीं, तो फिर इन शब्दों की कब व किसने उत्पत्ति की? यदि ईश्वर को न माने तो फिर इस संसार की रचना व उत्पत्ति का कोई बुद्धिसंगत सिद्धान्त हमें पता होना चाहिये। क्या यह सृष्टि वा ब्रह्माण्ड बिना किसी ईश्वर के स्वतः बना है अथवा हमेशा से बना बनाया है। ऐसे अनेक प्रश्न हमारे सम्मुख आते हैं। उनका जब विवेचन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि यह संसार स्वमेव अर्थात् बिना किसी सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान सत्ता के उत्पन्न नहीं हो सकता। उत्तर केवल इस बात का दिया जाना है कि सूक्ष्म व सर्वव्यापक सत्ता हो सकती है और आंखों से दिखाई न देना विज्ञान के किसी नियम व सिद्धान्त के अन्तर्गत होता है जो कि सम्भव है असम्भव नहीं। हम संसार में भिन्न-भिन्न प्राणियों को देखते हैं। हमें उन प्राणियों के भौतिक शरीर ही दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें विद्यमान आत्मा वा चेतन सत्ता जिसके शरीर में होने पर शरीर जीवित रहता व अपने शरीर के अनुसार क्रियायें करता हैं, उस जीवात्मा की अनुपस्थित में शरीर अचेत व निष्क्रिय हो जाता है जिसे हम उस मनुष्य व प्राणी की मृत्यु होना कहते हैं, शरीर में विद्यमान यह आत्मा वा चेतन सत्ता किसी को दिखाई नहीं देती परन्तु सभी इसको मानते हैं। शरीरों में विद्यमान जीवात्मा एकदेशी व सूक्ष्म सत्ता है जो कि एक चींटी व हाथी के शरीर में एक जैसी होती है। अब यदि शरीरस्थ जीवात्मा दिखाई नहीं देती तो इससे भी सूक्ष्म जिसे सर्वातिसूक्ष्म कह सकते हैं, वह सत्ता जो सर्वव्यापक और चेतन हो, अवश्य हो सकती है जो होने पर भी दिखाई न दे, यह सम्भव है। उसका लक्षण व प्रमाण क्या है? इसका उत्तर भी हमें बुद्धि व विवेक तथा वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों से अनेक प्रकार से मिलता है। यह निर्मित व रचित संसार उसी सत्ता की रचना है। बुद्धि व ज्ञानपूर्वक सप्रयोजन की गई रचना के किए रचनाकार व रचयिता का होना होना अपरिहार्य वा अनिवार्य है। हम संसार में बने अपनी आवश्यकता के भौतिक पदार्थों को देखते हैं तो ऐसा कोई पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता कि जो स्वनिर्मित हो वा जिसे मनुष्य ने न बनाया हो। बाजार में सभी उपभोक्ता वस्तुए किसी न किसी उद्योग आदि में निर्मित होती हैं जिसमें प्रकृतिस्थ पदार्थों को मनुष्य अपनी बुद्धि का उपयोग करके सहायक मशीनों व उपकरणों से बनाता है। इससे यह भी जाना जाता है कि रचनायें दो प्रकार की होती हैं। प्रथम मनुष्य कृत अर्थात् पौरूषेय और दूसरी ईश्वरकृत जिसे अपौरूषेय कहते हैं। यह सारी सृष्टि व इसके जल, वायु आदि पदार्थ तथा प्राणी एवं वनस्पति जगत अपौरूषेय सत्ता अर्थात् ईश्वर द्वारा बनाये गये पदार्थ हैं। ईश्वर द्वारा बनाई गई सृष्टि को देखकर हम ईश्वर का स्वरुप निर्धारित कर सकते हैं।

 

हम देखते हैं कि इस प्रकृति वा सृष्टि का न कोई ओर है न छोर, अतः ईश्वर अनन्त सिद्ध होता है। ईश्वर इसलिए दिखाई नहीं देता कि वह सर्वातिसूक्ष्म है। रचना सदैव ज्ञानवान चेतन सत्ता द्वारा ही सम्भव होती है, अतः ईश्वर चेतन व सर्वज्ञ है। सुख व आनन्द से रहित वा दुःखी सत्ता किसी महनीय कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकती, अतः ईश्वर का आनन्दयुक्त होना भी ज्ञात होता है। यह ब्रह्माण्ड असीम है अतः ईश्वर भी असीम सिद्ध होता है। आकारवाली वस्तु वा सत्ता सीमित होती है अतः ईश्वर अनन्त होने से निराकार है। अल्प सत्ता अल्पज्ञ होती है और उसकी शक्ति भी सीमित होती है, अतः इस सृष्टि की रचना को देखकर ईश्वर सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ सिद्ध होता है। इस प्रकार विचार करते हुए ईश्वर का जो स्वरुप सम्मुख आता है वह वही है जो वेदों व वैदिक ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द के वेदानुकूल साहित्य में वर्णित है। महर्षि दयानन्द के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। सभी मत व पन्थों में इससे मिलता जुलता ईश्वर का स्वरूप ही पाया जाता है। हां, अज्ञानतावश प्रायः सभी मतों में ईश्वर विषयक कुछ कल्पायें भी की गई हैं जो कि अज्ञानमूलक, निराधार तथा असत्य हैं। वेद ईश्वर को महानतम पुरुष जो कि अज्ञान व अन्धकार से रहित व सूर्य के समान प्रकाशमान वा आदित्य वर्ण वाला बताते हुए उसे इस चराचर जगत के कण-कण में व्याप्त वा विद्यमान बताते हैं। दर्शन ग्रन्थों में कहा गया है कि जिससे यह सृष्टि उत्पन्न होती है, चलती है, पालन होता है व अन्त में प्रलय होती है, उसे ईश्वर कहते हैं। इस प्रकार ईश्वर का इस ब्रह्माण्ड में विद्यमान होना सिद्ध होता है।

 

इससे पूर्व कि हम धर्म की चर्चा करें जीवात्मा के विषय में कुछ बातें जान लेना आवश्यक है। जीवात्मा तीन नित्य व अनादि पदार्थों ईश्वर, जीव व प्रकृति में से एक सत्ता है। यह तीनों ही सत्तायें अत्यन्त सूक्ष्म हैं परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से सूक्ष्म सत, रज व तम गुणों की साम्य अवस्था मूल प्रकृति है। इससे भी सूक्ष्म जीवात्मा है और इन दोनों से भी सूक्ष्म वा सर्वातिसूक्ष्म ईश्वर है। कोई भी पदार्थ न उत्पन्न किया जा सकता है और न ही किसी पदार्थ का नाश होता है। जीवात्मा व यह तीनों पदार्थ अविनाशी हैं। जीवात्मा ईश्वर की तरह से एक चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, आनन्द से रहित वा आनन्द का अभिलाषी व सूक्ष्माकार पदार्थ है जिसका आकार एक अत्यन्त सूक्ष्म बिन्दुवत है।  यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इसी प्रकार यह जीवात्मा भी अनादि काल से कर्म-फल के बन्धनों में फंसी हुई है जो इसके बार-बार जन्म व मृत्यु के कारण बनते हैं। मनुष्य जन्म उभय योनि है और अन्य योनियां फल भोग योनियां। मनुष्य जन्म जब होता है कि जब पूर्व मनुष्य जन्म में इसके पाप व पुण्य बराबर व पुण्य अधिक होते हैं। मनुष्य जन्म लेकर मनुष्य ईश्वरोपासना व सदकर्म व धर्मपालन से ईश्वर का साक्षात्कार कर विवेक प्राप्त कर सकता है जिससे इसकी 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के लिए जन्म मरण से मुक्ति हो जाती है। इसके बाद पुनः जन्म होता है और इसे सदाचार युक्त जीवन व्यतीत करना होता अन्यथा यह बन्धन में पड़कर मनुष्य व योनियों में जन्म मरण धारण करता रहता है। यही स्थिति हमारी व हम सब की है।

 

अब धर्म के बारे में विचार करते हैं। दर्शन ग्रन्थों के अनुसार उन कर्मों का नाम धर्म है जिनसे मनुष्य को इस जीवन में सुख प्राप्त होता है और मरने पर मोक्ष की प्राप्ति हाती है। धर्म के अन्तर्गत मुख्य कर्म ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, परोपकार, सेवा, देश भक्ति आदि वेद विहित सत्य कर्म आते हैं। सृष्टि की आदि में रची गई मनुस्मृति में विधान है कि धर्म की जिज्ञासा ज्ञान के लिए परम प्रमाण वेद हैं। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद के अनुसार कर्म धर्म व वेद निषिद्ध कर्म अधर्म कहलाते हैं। इसको यह भी कह सकते हैं कि सत्य ज्ञान से युक्त कर्म धर्म होते हैं और अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास व दूसरों के अपकार आदि के कर्म अधर्म की श्रेणी में आते हैं। धर्म सुख का कारण होता है और अधर्म दुःख का कारण होता है। जो मनुष्य शुद्ध हृदय वाला होता है वह जब आरम्भ में कोई गलत काम करता है तो उसके हृदय में भय शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। और यदि वह अच्छा काम करता है तो उसके हृदय व मन में उस कार्य के प्रति प्रेरणा, उत्साह व आनन्द की अनुभूति होती है। यह अनुभूतियां हृदय में विद्यमान सर्वान्तर्यामी ईश्वर की प्रेरणा से होते हैं। इस प्रमाण से ईश्वर का अस्तित्व व उसका आत्मा में व्यापक वा सर्वव्यापक होना सिद्ध होता है। यदि मनुष्य इन प्ररेणाओं के अनुरूप नहीं वर्तता है तो उसको यह अनुभूतियां होनी बन्द हो जाती हैं। यह सभी मनुष्यों का अनुभव होता है। आज कल संसार में धर्म के नाम पर अनेक मत-मतान्तर चल रहे हैं जिनकी मान्यताओं एवं सिद्धान्तों में परस्पर भिन्नतायें भी हैं। यह लोग अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों को सत्य की कसौटी पर नहीं कसते जैसे कि हमारे वैज्ञानिक करते हैं। इससे इन मतों में मिथ्याज्ञान की भरमार पाई जाती है। ऐसा भी देखा जाता है कि यह सब सत्य व असत्य का विचार किये बिना ही अपने-अपने मत का प्रचार करते हैं और दूसरों को भय, प्रलोभन व सेवा आदि के नाम पर धर्मान्तरण करने में प्रवृत्त होते हैं। इतिहास इस प्रकार की घटनाओं से भरा पड़ा है। वस्तुतः यह धर्म नहीं, मत हैं और इनके द्वारा ही मनुष्यों को नाना प्रकार के दुःख उठाने पड़ते हैं ऐसा महर्षि दयानन्द का विवकेपूर्ण आंकलन है। यदि इतने मत व धर्म न होते तो शायद विश्व में सुख व शान्ति होती और अतीत में लोग अकारण मृत्यु का ग्रास न बने होते। आजकल यह भी देखने को मिल रहा है कि धर्म एक प्रकार का व्यापार बन गया है। आम जनता को यथार्थ धर्म, उसकी मान्यताओं व सिद्धान्तों का ज्ञान तो होता नहीं है, अतः व चालाक व चतुर गुरुओं के व्यामोह व चक्र में सामान्य मनुष्य फंस जाते हैं और अपनी धन-सम्पत्ति उन्हें भेंट करते रहते हैं। वह इसे धर्म समझते हैं परन्तु इससे देश व समाज कमजोर होता है। विचार करने पर यह सिद्ध होता हैं कि संसार के सभी मनुष्यों का एक ही धर्म है और वह है सत्य, सत्य सिद्धान्त, सत्य मान्यतायें, सत्य कर्म, सत्याचरण वा वेदाचरण धर्म एक होने का प्रमुख आधार यह है कि इस संसार का रचयिता एक ईश्वर है और उसकी उपासना उसके बताये वेद के आधार पर करना, वेदोक्त कर्म आचरण करना निषिद्ध कर्मों का त्याग ही धर्म है। एक राजा अपने देश प्रजा के लिए दो अधिक प्रकार के नियम नहीं बनाता। ईश्वर एक है अतः पूरी सृष्टि वा ब्रह्माण्ड के सभी मनुष्यों के लिए उसके नियम वा धर्म भी एक ही हो सकते हैं, भिन्न भिन्न नहीं। सभी मनुष्यों को वेद व वैदिक साहित्य के आधार पर ईश्वर के नियमों की खोज कर उसी का आचरण करना चाहिये और अज्ञान, अन्धविश्वासों व स्वार्थी गुरुओं से बचकर शोषण से बचना चाहिये। यदि सत्य धर्म का आचरण नहीं करेंगे तो कर्म फल की व्यवस्था के अनुसार हमारी अवनति होकर हमें जन्म-जन्मान्तर में अनेक प्रकार के दुःखों की प्राप्ति हो सकती है। संसार के सभी मनुष्यों के लिए ईश्वर निर्मित गायत्री मन्त्र स्तुति-प्रार्थना-उपासना का एक श्रेष्ठ मन्त्र है। सभी को प्रातः व सायं अन्य धार्मिक कृत्य करने के साथ इसका भी अर्थ सहित पाठ व जप करना चाहिये जिससे अनेक प्रकार के लाभ हो सकते हैं। गायत्री मन्त्र है- ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रयोदयात्। अर्थात् हे ओ३म् नामी परमेश्वर ! आप मेरे प्राणों के भी प्राण हैं, दुःखनाशक है सुखस्वरूप हैं। हम आपके ग्रहण करने योग्य सकल जगत् के उत्पादक स्वरूप विशुद्ध तेज को अपने भीतर जीवात्मा में धारण करें। हे प्रभु ! आप हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा करें। यही आपसे हमारी विनती है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी’

ओ३म्

ईश्वर अनादि काल से अनन्त काल तक सबका एकमात्र साथी

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

मनुष्य जन्म व मरण धर्मा है परन्तु मनुष्य शरीर में निवास करने वाला जीवात्मा अजन्मा व अमर है। जीवात्मा अनादि व  अनुत्पन्न  होने के अविनाशी व अमर भी है। हमारे इस इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता।  इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता।  जन्म के माता-पिता, भाई-बहिन, सगे-संबंधी व इष्ट-मित्र आदि जन्म व उसके बाद हमसे जुड़ते हैं तथा उनकी व हमारी मृत्यु होने पर यह सभी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। यह हम सबका अनुभव है और हमें लगता है कि इस मान्यता व सिद्धान्त पर किसी को कोई आपत्ति व आक्षेप नहीं है। क्या हमारा कोई स्थाई साथी भी है जो हमारे इस जन्म से पहले भी हमारे साथ रहता आया हो और मृत्यु के बाद भी रहेगा? अध्ययन व विचार करने पर ऐसा एक ही साथी ज्ञात होता है और वह है परमात्मा वा ईश्वर। ईश्वर भी इस ब्रह्माण्ड में अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, नित्य, अविनाशी, अमर धर्म गुणों वाली सत्ता है। यह सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द) ईश्वर हर क्षण, हर पल, हर जन्म, हर युग में हमारा साथी, मित्र, मातापिता, आचार्य रक्षक रहा है भविष्य में भी रहेगा।

 

ईश्वरीय ज्ञान वेदों में इन दोनों मित्रों को द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यन्श्नन्नन्यो अभि चाकशीति। (ऋग्वेद 1/164/20)’ कहा है जिसका अर्थ है कि ईश्वर व जीवात्मा दो सुन्दर पंख वाले पक्षी के समान हैं जो कि प्रकृति रूपी एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हैं। जीवात्मा इस वृक्ष के फल खाकर इसमें फंसता है परन्तु ईश्वर फल नहीं खाता, वह जीवात्माओं के कर्मों का साक्षी और फल प्रदाता है।  ईश्वर अजन्मा होने से जन्म नहीं लेता। इस कारण उसका भौतिक शरीर भी नहीं होता। मनुष्य के जन्म-मरण धर्मा होने से इसे पंचभौतिक शरीर की आवश्यकता होती है। संसार में यह तीसरा भौतिक पदार्थ प्रकृति के गुणों की विषम अवस्था है जो कि चेतनशून्य वा जड़ तत्व है जबकि ईश्वर व जीवात्मा दोनों ही चेतन तत्व हैं। जीवात्मा संख्या में अनन्त और ईश्वर एक है। ईश्वर ही अपने सनातन सखा जीवात्मा को सुख प्रदान करने के लिए इस सृष्टि की रचना व पालन करता़ है और जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार सुख-दुःख रूपी फल सहित जन्म-जन्मान्तर में भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म देता है। ईश्वर इसका स्वरूप कैसा है? ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सर्वातिसूक्ष्म, सृष्टिकर्ता, जीवों के कर्मों का साक्षी फल प्रदाता है। जीवात्मा सत्य, चित्त, आनन्दरहित, अल्पशक्तिवान्, अनुत्पन्न, अनादि, ईश्वर से व्याप्य, सूक्ष्म, अजर, अमर, नित्य, ईश्वर की व्यवस्था से जन्म लेने मृत्यु को प्राप्त होने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र, वेदादि साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने वाला और योगादि साधना से ईश्वर का साक्षात्कार एवं मोक्ष की प्राप्ति करने आदि गुणों वाला है। 

 

जीवात्मा व ईश्वर अनादि व नित्य हैं, इसका उल्लेख किया जा चुका है। इन गुणों के कारण जीवात्मा के अनन्त बार जन्म व मृत्यु हो चुकी हैं। वह प्रायः निम्न, मध्यम व मनुष्य की उच्च सभी योनियों सहित अनेकानेक बार मोक्ष में भी जा चुका है। इन सभी जन्मों में उसका एकमात्र साथी व संगी ईश्वर ही रहा है जिसे वह वर्तमान भौतिक युग व मत-मतान्तरों के मिथ्या जाल में फंस कर उसको भुला हुआ है। जीवात्मा व ईश्वर के बीच जो आवरण है उसे काटने का एक ही उपाय है और वह है वेदाध्ययन और वेद व योग विधि से ईश्वरोपासना करना। योग की ईश्वरोपासना विधि में मनुष्य को पांच यम (अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), पांच नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास करना होता है जिससे ईश्वर का साक्षात्कार होकर विवेक की प्राप्ति होती है और जीवात्मा मृत्यु के होने पर जन्म-मरण के चक्र से 31 नील 10 खरब वर्षों की अवधि के लिए अवकाश पाकर ईश्वर के सान्निध्य में सुख व आनन्द का भोग करता है। इसके बाद पुनः मोक्ष के पूर्व के अवशिष्ट कर्मों के अनुसार मनुष्य जन्म होता है और वह पुनः अन्य जीवों की भांति कर्म-फलों में आबद्ध हो जाता है। किसी विद्वान का एतद् विषयक एक प्रसिद्ध श्लोक पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनं। है जिसमें बताया गया है कि मैंने बार-बार जन्म लिया है, बार-बार मृत्यु को प्राप्त किया है, अनेक जन्मों में अनेक माताओं की कोख में शयन किया है, आदि। यही अवस्था हमारी व सभी जीवात्माओं की है।

 

मनुष्य को जन्म व मृत्यु ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती है। जब हमारा शरीर पुराना व वृद्ध हो जाता है तो पुराने वस्त्रों का त्याग कराकर ईश्वर हमें नये वस्त्र के रूप में नया शरीर प्रदान करता है। हमारी आत्मा शस्त्रों से काटी नहीं जा सकती, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गिला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। इन गुणों वाली जीवात्मा का ईश्वर हर जन्म, हर क्षण पल का साथी रहा है और आगे भी रहेगा। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर किसी जीवात्मा का साथ कभी नहीं छोड़ता। अतः इस नाशवान भौतिक संसार में फंसकर हमें इस विवेक ज्ञान को अपनी जीवात्मा के दुःखों से मुक्ति वा मोक्ष का साधन मानकर हर पल क्षण वा अधिकाधिक ईश्वर का स्मरण उसका ध्यान कर समाधि लगा कर धन्यवाद करना चाहिये जिससे हम अपने प्रिय सनातन साथी ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव के अनुसार अपने को बनाकर उसकी मोक्ष रूपी कृपा के अधिकारी बन सकें।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर, वेद और विज्ञान’

ओ३म्

ईश्वर, वेद और विज्ञान

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान विशिष्ट ज्ञान को कहते हैं। विज्ञान ज्ञान की वह विधा है जिसमें हम सृष्टि में कार्यरत व विद्यमान नियमों को जानकर व उनका उपयेाग करके अपनी आवश्यकता के नाना प्रकार के पदार्थों का निर्माण करते हैं। विज्ञान के नियमों की बात करें तो पदार्थों के सामान्य गुणों सहित उष्मा, प्रकाश, गति, चुम्बकत्व के ज्ञान सहित पदार्थ का सर्वातिसूक्ष्म अंश परमाणु व इससे जुडे़ अनेकानेक नियम व इनके उपयोग इसमें आ जाते हैं। आज विज्ञान की सहायता से ही हमारे वस्त्र बनते हैं, भोजन के अनेक पदार्थ बनते हैं और उपयोग की वस्तुएं जिसमें टीवी, कम्पयूटर, रेल, वायुयान, कार, स्कूटर, कागज, पेन, पेंसिल व पुस्तकें आदि आती हैं, सब विज्ञान से किसी न किसी रूप में जुड़ी हुई हैं। विज्ञान, पदार्थों के समान्य ज्ञान के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। ज्ञान बिना भाषा के उत्पन्न नहीं होता और आदि भाषा, जो कि संसार में एकमात्र संस्कृत है, बिना ईश्वर के प्राप्त वा उत्पन्न नहीं की जा सकती। जिस प्रकार से यह समग्र सृष्टि अपौरूषेय है अर्थात् पुरूषों से बनने योग्य नहीं है, अतः इसको उत्पन्न करने वाली अवश्य ही एक अपौरुषेय सत्ता सिद्ध होती है। इसी प्रकार परस्पर संवाद व ज्ञान के आदान प्रदान के लिए प्रयुक्त भाषा जो सृष्टि के आदि में मनुष्यों को प्राप्त होती है, वह भी अपौरुषेय रचना ही होती है जिसका आदि मूल सृष्टि की भांति ही परमेश्वर है।

 

विज्ञान का आरम्भ भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति के बाद हुआ है। ऐसा नहीं है कि विज्ञान भाषा व ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। ज्ञान व विज्ञान दोनों के लिए आधारभूत साधन भाषा ही होती है। भाषा व ज्ञान होगा तो विज्ञान विकसित व उन्नत हो सकता है और यदि भाषा व ज्ञान न हो तो विज्ञान की खोज व उसको उन्नत नहीं किया जा सकता। एक प्रकार से विज्ञान भाषा व ज्ञान में ही समाहित होता है जिसे चिन्तन, मनन व प्रयोगों द्वारा खोजना पड़ता है। ज्ञान का मन्थन कर ही विज्ञान को उत्पन्न किया जाता है। संसार में ज्ञान कहां से आया? इसे जानने के लिए पहले संसार को जानना होगा। इसका उत्तर वेद और वैदिक साहित्य में मिलता है। यह संसार सत्, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति से घनीभूत होकर बना है। इस तथ्य का हमारे दर्शन के ऋषियों व आचार्यों ने अपनी साधना व तपस्या से साक्षात्कार किया है और उसका अपने ग्रन्थों में वर्णन किया है। इस सृष्टि को बनाने वाली सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वातिसूक्ष्म वा सर्वान्तरयामी एक सत्ता है जिसे ईश्वर कहते है। यदि प्रकृति से भी सूक्ष्म सर्वव्यापक ईश्वर ने प्रकृति के सूक्ष्म कणों को अपने ज्ञान व विज्ञान के अनुसार घनीभूत कर यह दृश्य व स्थूल जगत न बनाया होता तो फिर विज्ञान क्या है व यह कैसे उत्पन्न हुआ, जैसे प्रश्नों का अस्तित्व ही न होता। ईश्वर, जीव प्रकृति अनादि, अनुत्पन्न, अनादि, नित्य, स्वयंभू सत्तायें हैं। ईश्वर जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्म व पूर्व कल्प के कर्मों के फलों को देने के लिए ही इस संसार की रचना व पालन करता है। इस सृष्टि को देखकर प्रमाणित होता है कि ईश्वर सर्वज्ञ अर्थात् सर्वज्ञानमय है। यदि ऐसा न होता तो यह संसार बन ही नहीं सकता था। विज्ञान के नियमों पर आधारित व निर्मित यह संसार हम सभी को प्रत्यक्ष है, अतः ईश्वर का सर्वज्ञ वा सर्वज्ञानमय होना सिद्ध है। इस सृष्टि को बनाने के कारण व इसमें सभी विद्याओं, ज्ञान व विज्ञान का उपयोग व समावेश होने के कारण ईश्वर संसार का प्रथम व प्रमुख ज्ञानी व विज्ञानी अर्थात् शीर्षतम वैज्ञानिक है। वेदों का अध्ययन और सृष्टि में ज्ञान व विज्ञान के नियमों का साक्षात्कार कर महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज का प्रथम नियम बनाया कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है। यह नियम निर्विवाद रूप से सत्य है, अतः यह सिद्ध है कि ज्ञान व विज्ञान का दाता व निर्माता ईश्वर ही है। वैज्ञानिक सृष्टि में कार्यरत नियमों की खोज करते हैं जिनका प्रकाश व प्रयोग सृष्टि की उत्पत्ति करते समय ईश्वर ने किया है। सृष्टि में कार्यरत इन नियमों की खोज कर ही हमारे वैज्ञानिक उनसे अन्य मनुष्यों को लाभान्वित करने के उपाय ढूंढते हैं। अतः यह प्रमाणित होता है ज्ञान व विज्ञान का आधार व मूल भी ईश्वर तत्व व सत्ता है।

 

वेद क्या है? यह जानना भी उपयोगी व आवश्यक है। वेद ईश्वर का निजी ज्ञान है जिसे वह सृष्टि के आरम्भ में आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को संसार के हितार्थ देता है। इस ज्ञान को पाकर यह ऋषि अन्य सभी मनुष्यों वा स्त्री-पुरूषों में इस ज्ञान का प्रचार करते हैं जिससे संसार की पहली पीढ़ी के सभी मनुष्य ज्ञान व विज्ञान से परिचित व अभिज्ञ होते हैं। वेद ज्ञान की प्राप्ति की प्रक्रिया व इससे जुड़े सभी प्रश्नों का उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थ प्रकास में दिया है। विज्ञ पाठकों को इस पूरे प्रकरण को वहीं देखना चाहिये। वेदों का ज्ञान मनुष्य को ईश्वर की अनेक देनों में से एक बहुत बड़ी देन है। यदि ईश्वर सृष्टि की आदि में वेदों का ज्ञान न देता तो यह सिद्ध तथ्य है कि मनुष्य प्रयत्न करके भी भाषा की उत्पत्ति नहीं कर सकते थे और न हि अपने जीवन का सामान्य व्यवहार कर सकते थे। अतः ज्ञान व विज्ञान तथा मनुष्य के जीवन की रक्षा व उन्नति का आधार भी सृष्टि के आरम्भ व उसके बाद भी ईश्वर ही सिद्ध होता है। यहां यह भी उल्लेख कर दें कि हमारा शरीर व इसकी श्वसन प्रणाली व सभी अंग व उपांग हमें ईश्वर से ही मिले हैं। आधुनिक विज्ञान व दम्भी विद्वानों ने नास्तिकता की बातें फैला कर मनुष्य को ईश्वर की सत्य व यथार्थ सत्ता से दूर किया है। यह ध्रुव सत्य है कि ईश्वर व वेद मनुष्य जीवन के मुख्य आधार हैं जिनकी अनुपस्थिति में सृष्टि व मनुष्य आदि प्राणियों की उत्पत्ति व निर्वाह होना असम्भव था।

हमने लेख में ईश्वर, वेद व विज्ञान की चर्चा की है। अब वैज्ञानिकों के बारे में भी कुछ विचार करते हैं। हमारी दृष्टि में वैज्ञानिक वह है जो विज्ञान की किसी एकाधिक शाखा का अध्ययन कर उस ज्ञान को आत्मसात करता है और अधीत ज्ञान के आधार पर कुछ नये प्रयोगों, अनुसंधान व मनन करके उस विज्ञान की शाखा में नूतन आविष्कार करने सहित विद्यमान ज्ञान में कुछ नया जोड़ता व संशोधन करता है। इस आधार पर वैज्ञानिक विज्ञानसेवी व विज्ञानधर्मी मनुष्य को कह सकते हैं। विज्ञान में उसकी यह रूचि व प्रवृत्ति स्कूली शिक्षा व मित्रों व परिवार जनों की प्रेरणा सहित इस क्षेत्र में रोजगार की अच्छी सम्भावनाओं के कारण भी हुआ करती है। जो भी हो, वैज्ञानिक देश, विश्व व मानव जाति के लिए ऐसे कार्य करते हैं जिनका उद्देश्य ज्ञान व विज्ञान का विकास कर लोगों को उनके दैनन्दिन कार्यों में सहयोग व सुविधा प्रदान करना होता है। विज्ञान की इसी भावना व प्रवृत्ति से आज संसार ज्ञान की खोज के शिखर पर है। यह अलग बात है कि आज भी संसार के प्रायः सभी मतों के धार्मिक लोग अपनी पुरानी मध्यकालीन बातों पर ही टिके हुए हैं और आधुनिक बातों से कोई शिक्षा, प्रेरणा व लाभ उठाना नहीं चाहते। जहां तक ईश्वर और वेद की बात है यह अध्ययन व अनुसंधान के प्रेरक हैं। वेद वैदिक मान्यतायें विज्ञान सहित सदग्रन्थों के स्वाध्याय व अध्ययन को अपना नित्य दैनिक कर्तव्य मानते हैं। सिद्धान्त रूप में वेद यह भी स्वीकार करता है कि ज्ञान व विज्ञान ही मनुष्य को दुःखों से मुक्त करते हैं। यही कारण है कि वैदिक धर्म में आध्यात्मिक ज्ञान सहित अपरा अर्थात् भौतिक ज्ञान विज्ञान का सन्तुलित समावेश आदि काल से ही रहा है। प्राचीन काल में हमारे देश में विज्ञान सहित सभी विद्यायें पूर्ण विकसित थी। लाखों व करोड़ों वर्षों के काल की दूरी ने इनके विस्तृत ज्ञान से हमें वंचित कर दिया है। यह सम्भव है कि आज जो ज्ञान व विज्ञान की प्रगति है, वह आने वाले 5 या 7 हजार वर्षों बाद किन्हीं कारणों से उपलब्ध न हो। हो सकता है कि युद्धों, महायुद्धों व फिर भौगोलिक परिवर्तनों व आपदाओं से यह आंशिक व पूर्णतया अस्त-व्यस्त व नष्ट हो जायें। निष्कर्षतः विज्ञान ज्ञान के ही सूक्ष्मता से अध्ययन की एक कुछ-कुछ भिन्न शैली है और इसका अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक कहलाते हैं। ईश्वर का स्वरूप, उसका ज्ञान व उपासना तथा ईश्वरीय ज्ञान वेद किसी भी प्रकार से विज्ञान के विरोधी नहीं अपितु सहयोगी व पोषक हैं। हम जितना जितना विज्ञान में आगे बढ़ेगें उतना-उतना हम उस विज्ञान के उत्पत्तिकर्ता ईश्वर के समीप पहुंचेंगे। हमें प्रयास करना चाहिये कि हमारा धर्म व सभी धार्मिक सिद्धान्त विज्ञान के पोषक हों। जो न हो उन्हें विचार कर ज्ञान-विज्ञान के अनुकूल कर देना चाहिये। ऐसा होना आज के समय में आवश्यक है। हमारा अनुमान है कि जो धर्म व मत विज्ञान की उपेक्षा करेगा वह आने वाले समय में टिक नहीं सकेगा। ज्ञान व विज्ञान का पूरक शुद्ध अध्यात्म केवल वेद, उपनिषदों व दर्शनों में ही प्राप्त होता है।

 

हमारा इस लेख को लिखने का प्रयोजन ईश्वर, वेद व विज्ञान को एक दूसरे का पूरक व अविरोधी बताना था जो कि वस्तुतः है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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