All posts by Amit Roy

दलित विमर्शः दयानन्दीय दृष्टि

दलित विमर्शः दयानन्दीय दृष्टि

डॉ ज्वलंत कुमार

प्राचीन भारतीय समाज वर्णाश्रम-व्यवस्था पर-आधारित था।वर्ण चार हैं-ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वस्तुतः किसी भी समाज के मनुष्यों को इन चार वर्णों में विभक्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति पठन-पाठन, अनुसन्धान तथा धर्म-मार्ग का अनुपालन करने के लिए लोगों को प्रेरित करने का कार्य करें, उसे ब्राहमण कहा जा सकता है। समाज में शान्ति-व्यवस्था, प्रशासन तथा देश को शत्रुओं से रक्षित रखना क्षत्रिय का कार्य है। कृषि, पशुपालन, उद्योग एवं व्यापार का कार्य करने वाला वैश्यवर्ग है। जो उपर्युक्त तीनों प्रकार के कार्यों को करने की क्षमता न रखता हो, उसे तीनों वर्णों की सेवा परिश्रमपूर्वक करनी चाहिए। यह वर्ग शूद्र नाम से अभिहित किया जा सकता है। अत्यन्त प्राचीनकाल में आर्यों की वर्ण-व्यवस्था इसी नियम पर आधारित थी।

वर्ण का निर्धारण उस व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर किया जाता था। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता, तप-त्याग, धर्माचरण तथा विद्वत्ता के कारण ब्राहमण पद को प्राप्त कर सकता था। यदि ब्राहमण और क्षत्रिय अन्य लोगों की अपेक्षा ऊँचे माने जाते थे, तो उसका कारण केवल यह था कि उनके कार्यों की सम्पन्नता के लिए उत्कृष्ट प्रकार की योग्यता आवश्यक थी। सम्पूर्ण आर्य जनता एक है, यह भावना प्राचीनकाल में भली-भाँति विद्यमान थीं। जन्म के कारण किसी को न ऊँचा माना जाता था और न नीचा। शिक्षा का सबको समान अवसर था। वेद पढ़ने एवं यज्ञ करने का सबको समान अवसर था। वेद पढ़ने एवं

यज्ञ करने का सबको समान अधिकार है, यह विचार तब भली-भाँति बद्धमूल था।

पर महाभारत युद्ध के पश्चात् इस दशा में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो गया। वर्ण भेद का आधार गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर जन्म होने लगा और ब्राहमणों की स्थिति अन्य वर्णों की तुलना में ऊँची मानी जाने लगी । ऊँच-नीच का भेद भी पूरी तरह विकसित हो गया। सूत्र ग्रन्थों की रचना के समय तक तो यह दशा आ गई थी कि शूद्रों को अत्यन्त हीन व नीच समझा जाने लगा था। एक ही अपराध करने पर विविध वर्णों के

व्यक्तियों के लिए विभिन्न दण्डों का विधान था। गोतम धर्मसूत्र के अनुसार ब्राहमण का अपमान करने पर क्षत्रिय पर १०० कार्षापण जुर्माना किया जाता था। पर यदि ब्राहमण क्षत्रिय का अपमान करे, तो उसपर केवलं ५० कार्षापण जुर्माना किया जाता था। ब्राहमण द्वारा वैश्य को अपमानित करने पर केवल २५ कार्षापण दण्ड का विधान था। शूद्रों की स्थिति दासों के सदृश थी। गोतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि उच्चवर्णों के लोगों के जो जूते, वस्त्र आदि जीर्ण-शीर्ण हो जाएं उन्हें शूद्रों के प्रयोग के लिए दे दिया जाए और उनके भोजन पात्रों में जो जूठन बच जाए शूद्र उसके द्वारा ही अपनी क्षुधा शान्त कर ले। यही बात मनुस्मृति में भी कही गई है। शुद्रों की हीनतम स्थिति का अनुमान इस दण्ड नियम से लगाया जा सकता है कि ‘‘बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेंढक, कुत्ता, गोह, उल्लू और कौए की हत्या में जितना पाप होता है, उतना ही शूद्र की हत्या में होता है।’’ शूद्र यदि वेद को सुन ले तो उसके कानों में पिंघला हुआ सीसा और राख डाल देना चाहिए । यदि ‘‘शूद्र वेद-मन्त्र का उच्चारण करे तो उसकी जीभ कटवा देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे तो उसका शरीर चीर डालना चाहिए’’

किसी भी प्रकार की विद्या शिल्पशिक्षा प्राप्त न कर सकने के कारण शूद्रों के लिए यही एकमात्र मार्ग रह जाता था कि वे उच्चवर्ग के घरों में उनकी सेवा का काम करें या खेतों में अनपढ़ मजदूर की भाँति कार्य कर

अपना जीवन बिताएँ।

बुद्ध के प्रादुर्भाव तक (ईं० पूं० छठी शताब्दी) भारत के सामाजिक संघटन का रूप अत्यन्त विकृत हो चुका था। इसी कारण बौद्ध साहित्य में वर्ण भेद की कटु आलोचना की गई है। जन्म के स्थान पर कर्म को महत्त्व दिया गया है और सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध आवाज उठाई गई है बुद्ध का कथन था कि जन्म से न कोई ब्राहमण है, न चाण्डाल। कर्म के आधार पर ही किसी को ब्राहमण या चाण्डाल मानना उचित है। जैन धर्म के प्रवर्तक वर्धमान महावीर ने भी जन्म की तुलना में गुण-कर्म को ही मनुष्यों की सामाजिक स्थिति का निर्धारक प्रतिपादित किया था। बौद्ध और जैन धर्मों ने भारत के सामाजिक जीवन की बुराइयों को दूर करने में कुछ अंश तक सफलता अवश्य प्राप्त की। कौटिलीय अर्थशास्त्र की रचना चौथी शती ईं० पूर्व में हुई थी। उसके अनुशीलन से प्रतीत होता है कि बौद्ध और जैन नेताओं के प्रयत्न से उसकाल तक शूद्रों की स्थिति में सुधार अवश्य हो गया था। परन्तु चौथी शती ईस्वी पूर्व में भी ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चारों वर्णों के लोगों की स्थिति समान नहीं हो पाई थी। न्यायालयों द्वारा अपराधियों को दण्ड देते हुए तथा बाद में शपथ दिलाते हुए वर्ण की दृष्टि से भेद भाव किया जाता था।

बौद्ध और जैन धर्मो के उत्कर्ष के युग में भी सनातन वैदिक धर्म का लोप नहीं हो पाया था। भारत के अनेक प्रदेशों में वह फूलता-फलता रहा, यद्यपि उसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन होता गया और वेदों में आस्था न

रखने वाले इन नये सम्प्रदायों (बौद्धो तथा जैनों) से वह अप्रभावित नहीं रह सका। मौर्य वंश के पतन के पश्चात् शुंग वंश के शासनकाल में प्राचीन वैदिक धर्म में नई शक्ति का संचार होना आरम्भ हुआ और गुप्तयुग में वह एक बार फिर भारत का प्रधान धर्म बन गया।शुंग काल में जिस वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हुआ, वह प्राचीन आर्यधर्म से अनेक अंशों में भिन्न था। यह भिन्नता केवल पूजा-विधि में ही नहीं थी।

सामाजिक व्यवस्था में भी अब अनेक ऐसे परिवर्तन हुए जो प्राचीन समाज से बहुत भिन्न थे। जैसा कि लिखा जा चुका है कि आर्यो का प्राचीन सामाजिक संघटन वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। छठी शती ईं० पूर्व से पहले ही वर्ण-व्यवस्था में बहुत विकृतियाँ आ चुकी थीं और ब्राहमण, क्षत्रिय आदि वर्णों का आधार गुण, कर्म, स्वभाव के स्थान पर जन्म को माना जाने लगा था। बुद्ध ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई थी और उनके अनुयायी जन्म कारण किसी को ऊँच या नीच नहीं मानते थे। होना तो यह चाहिए था कि बौद्ध धर्म के प्रभाव से सनातन आर्यधर्म (जिसका कि अब परिवर्तित रूप में पुनरुत्थान हुआ था) के सामाजिक संगठन में भी ऊँच-नीच का कोई भेद न रहता। पर ऐसा हुआ नहीं। बौद्ध धर्म के प्रभाव से सनातन आर्य धर्म मे मूर्तिपूजा का अवश्य प्रवेश हुआ, पर सामाजिक संगठन को वह प्रभावित नहीं कर सका। वर्ण-व्यवस्था का रूप अब पहले की तुलना में भी अधिक विकृत हो गया।

महर्षि पतनजलि (२०० ईं०पूं०) शुंग काल में हुए थे। यही वह समय था जब बौद्ध धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रीया होकर प्राचीन धर्म का पुनरुत्थान प्रारम्भ हुआ था। उनके महाभाष्य में अनेक ऐसे संकेत विद्यमान हैं जिनसे यह भली-भाँति जाना जा सकता है कि प्राचीन धर्म में पुनरुत्थान के इस काल में वर्णव्यवस्था का स्वरूप

क्या था और उसमें शूद्रों की स्थिति किस प्रकार की थी। पतनजलि ने ‘जाति ब्राहमण’ संज्ञा ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त की थी, जो ब्राहमण वर्ण के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे। पतंजलि ने शूद्रों के दो भेद किये हैं-‘‘ एक अबहिष्कृत और दूसरा बहिष्कृत या अनिरवसित हैं। जो द्विजों के पात्रादि नहीं छू सकते थे, वें चाण्डाल और मृतप आदि निरवासित या बहिष्कृत शूद्र हैं।’’ दोनों प्रकार के शूद्रों को यह अधिकार नहीं था कि वे वानप्रस्थ तथा संन्यासी बन सकें। उनका उपनयन-संस्कार भी नहीं होता था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति ने इस काल में जो रूप प्राप्त किया, उसके अनुसार ब्राहमण के अतिरिक्त अन्य वर्णों के लोग न वेदों को अध्ययन कर सकते हैं, न यज्ञ कर सकते हैं और न दान ग्रहण कर सकते हैं। उनके लिए यही पर्याप्त था कि वे देवताओं का स्मरण कर उनके प्रति नमस्कार निवेदन कर दें। महा कवि भास विरचित ‘‘प्रतिमा नाटक’’ में उल्लिखित प्रसंग के अनुसार शूद्र देवार्चन के समय वेद मन्त्रों का उच्चारण किए बिना ही देवताओं को प्रणाम करते थे। शूद्रों को अस्पृश्य माना जाता था। इसलिए लोग शूद्रों का सान्निध्य स्वीकार नहीं करते थे। भास काल ईं०पूं० चतुर्थ शताब्दी माना जाता है।शूद्रक रचित ‘मृच्छकटिक’ (ईस्वी पूर्वं० २००) में ‘अधिकरणिक शकार’ (शूद्रा स्त्री से उत्पन्न) से कहता कि तुम मूर्ख होकर वेदार्थों का उच्चारण करते हो तथापि तेरी जिहवा नहीं गिरी। इस युग में वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत ने जो प्रवर्वितरूप प्राप्त किया, उसके अनुसार भी शूद्रों की निम्न स्थिति का पता चलता है। राक्षसियों के प्रति सीता का कथन है कि- ‘‘ जैसे द्विज शूद्रों को

वेदमन्त्र नहीं देते, उसी प्रकार मैं अपना अनुराग किसी को नहीं दूँगी।’’ बालकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड में विशेषतः

शूद्रों के अध्ययन एवं भजन का निषेध है। उन्हें तप करने तथा स्वर्ग प्राप्त करने से वंचित बताया गया है।

महाभारत के अनुसार भी कोई शूद्र विद्याध्ययनके निमित्त आचार्य के आश्रम में प्रविष्ट नहीं हो सकता था। विदुर ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि वे शूद्र होने के कारण शिक्षा प्रदान करने के अधिकारी नहीं हैं। इसी प्रकार शूद्रों के यजनादि का निषेध भी प्राप्त होता है। महाकवि कालिदास (ईं पूं प्रथम शताब्दी) विरचित रघुवंश में शूद्र तपस्वी के तप कर्म को अनाचार कह कर उसके वध की प्रशंसा की गई है। इस स्थल को उदधरीत कर

भगवतशरण उपाध्याय का कहना है कि कालिदास का दृष्टिकोण यथार्थ में ब्राहमणत्व परायण है और वे जान बूझकर रामायण द्वारा की गई शूद्र की निन्दा को दुहराते हैं, जिसने प्रचलित वर्ण-व्यवस्था की सुरक्षा की धमकी दी थी। दूसरी सदी ईस्वी पूर्व में चातुर्वर्ण्य का जो स्वरूप विकसित होना प्रारम्भ हुआ था, गुप्त युग तथा मध्यकाल में भी वह प्रायः इसी प्रकार कायम रहा। यही कारण है कि ईंपूर्व चौथी शताब्दी से १२वीं

शताब्दी ईवी तक के संस्कृत महाकवियों की रचनाओं (नाटकों तथा काव्यों) में शूद्रों की निम्नदशा का ही उल्लेख है। क्रमशः शूद्रों के लिए दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर हो गई। उदाहरणार्थ ‘‘यदि शूद्र द्विजातियों को कड़ी अर्थात् चुभनेवाली बात कहे तो उसकी जीभ काट डालनी चाहिए। यदि द्रोह पूर्वक कठोर वचन कहे तो जलती हुई दश अंगुल लम्बी लोहे की शलाखा मुख में डाल देनी चाहिए। यदि अहंकार से ब्राहमण को धर्मोपदेश करे तो राजा तपा हुआ तेल उसके मुँह और कान में डलवा दें। यदि उच्च जातियों के साथ एक आसन पर बैठने की कोशिश करे तो उसकी कमर दाग कर उसे देश से निकाल दे अथवा उसके एक चूतड़ को कतरवा दे। यही नहीं शूद्र द्विज स्त्री से समागम करे तो दण्ड के रूप में राजा उसकी लिंगेन्द्रिय को कटवा दे और उसका धन छीन लेवे। यदि वह अपनी रक्षा करता हो तो उसका वध करा दे। मनु अनुसार ब्राहमण जाति की कन्या से समागम करने वाले शूद्र वध के योग्य हैं ब्राहमणी के साथ गमन करने वाले शूद्र को आग में फेंक देना चाहिए। शूद्र के प्रति यह अन्याय उस समय बहुत अखरने लगता है, जब हम स्मृतिकारों द्वारा एक ही प्रकार

के अपराध के लिए शूद्र को बहुत कठोर और ब्राहमण के साथ समागम करने वाली कन्या को कुछ भी दण्ड न दे। शूद्र स्त्री के साथ व्यभिचार करे, उसे प्राण दण्ड दिया जाए।

समय के साथ-साथ भारत में वर्णभेद अधिकाधिक संकीर्ण व कठोर होता गया। यह तो अब सम्भव ही नहीं रहा था कि गुणों और कर्मो के आधार पर नीच वर्ण में उत्पन्न कोई व्यक्ति ऊँच वर्ण प्राप्त कर सके। किसी विदेशी और विधर्मी व्यक्ति का अपने समाज का अंग बन सकना असम्भव होता जा रहा था। चौथी शती ईस्वी पूर्व से ईसा की सातवीं शती तक यवन, शक, कुषाण, हूणआदि अनेक जातियाँ भारत में प्रविष्ट हुईं

और गुण, कर्म के अनुसार उन्हें भारत के चातुर्वर्ण्य में स्थान प्रदान कर दिया गया। पर सामाजिक संकीर्णता में वृद्धि के कारण मध्यकाल में इस स्थिति में परिवर्तन हुआ। दशवीं शती के अन्त मे जब तुर्क लोग भारत में

प्रविष्ट हुए, तो भारतीय समाज उन्हें आत्मसात् न कर सका। अलबरूनी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि-‘‘हिन्दुओं की कट्टरता का शिकार विदेशी जातियाँ हैं।’’ तेरहवीं शती में भारत पर तुर्क-अफगानों की राजनीतिक सत्ता का आधिपत्य हुआ और कुछ ही समय में उत्तरी भारत का बड़ा भाग उनके प्रभुत्व में आ गया। इन नए ‘यवनों’ या ‘हूणों’ को भारतीय समाज का अंग नहीं बनाया जा सका और इनका एक पृथकवर्ग बन गया। इसमें वे हिन्दू या आर्य भी सम्मिलित हुए जो तुर्क अफगानों के सम्पर्क में आकर इस्लाम को अपना लेते थे। इस प्रकार भारत का समाज जहाँ हिन्दू मुस्लिम दो वर्गों में विभक्त हो गया वहाँ वर्ण भेद या जाति भेद के कारण हिन्दू समाज में ऐसा संगठन नहीं रह गया, जिसके कारण उसे एक जाति समझा जा सके। हिन्दुओं की यह बहुत बड़ी निर्बलता थी। मुसलमानों में ऊँच-नीच का वैसा भेद नहीं था, जैसा कि हिन्दुओं में था। नीच व अस्पृश्य समझे जाने वाले हिन्दू इस्लाम को अपना कर अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा बना सकते थे।हिन्दू धर्म के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी।

इस दशा में अनेक ऐसे हिन्दू नेता और धार्मिक आचार्य उत्पन्न हुए, जिन्होंनें जहाँ एक और हिन्दू धर्म की

विकृतियों को दूर कर धार्मिक सुधार का प्रयत्न किया, वहाँ साथ ही हिन्दू समाज से ऊँच-नीच का भेद भाव

हटाकर सबको सामाजिक दृष्टि से समान स्थिति प्रदान करने के पक्ष में आन्दोंलन किया। इन धार्मिक नेताओं

का कहना था कि भगवान कि दृष्टि में न कोई मनुष्य नीच है न उच्च। अपने गुण, कर्म, सदाचार व भक्ति द्वारा ही मनुष्य ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है। मध्य युग के इन धार्मिक नेताओं में रामानन्द, चैतन्य,नानक, कबीर आदि प्रमुख थे। पर मध्य युग के सन्त-महात्मा हिन्दू समाज से ऊँच-नीच और छूत-अछूत के रोग का निवारण करने में असमर्थ रहे। सामाजिक दृष्टि से न रैदास ऊँची स्थिति प्राप्त कर सके न कबीर और न सेन तथा चोख मेला। रैदास के चरित्र और भक्ति से उच्च वर्णों के लोग प्रभावित अवश्य हुए, पर उन्हें वैष्णव धर्म

में ब्राहमण आचार्यो के  समकक्ष स्थिति प्राप्त नहीं हुई। रैदास के अनुयायी सजातीय लोग एक पृथक् पन्थ के रूप में परिवर्तित हो गए और हिन्दू समाज में उनकी स्थिति नीची ही मानी जाती रही। यही बात कबीर आदि अन्य सन्तों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

भारत के सामाजिक जीवन से ऊँच नीच और छूत-अछूत के भेद को दूर करने के लिए अनेक बार प्रयत्न हुए। गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर ने भी इस सम्बन्ध में अनर्थक प्रयत्न किया था और आंशिक सफलता प्राप्त की थी। उनकी अल्प सफलता का कारण यह था कि इन धर्मो की मान्यताएँ भारत की परम्पराओं के अनुकूल

नहीं था। ये न वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास करते थे, न सृष्टि के कर्त्ता, धर्त्ता और संहर्त्ता ईश्वर की सत्ता को ही स्वीकार करते थे। इसलिए ये भारतीय जनता को स्थायी व गहन रूप में अपने प्रभाव में नहीं रख सके और समाज में ऊँच-नीच आदि के भेद भाव को दूर कर सकने में भी असफल रहे। अतः ये दोनों

धार्मिक आन्दोलन भारतीय जनता के बड़े भाग को प्रभावित कर सकने मे असमर्थ रहे। मध्यकाल के सन्त

महात्मा भक्ति मार्ग के प्रतिपादक थे और भगवान् की भक्ति में ऊँच-नीच के भेद भाव को भूल जाते थे। भक्ति की सीमित मण्डली में नीच समझे जानेवाले लोगों से उन्होंने प्रेम अवश्य किया, पर सामाजिक जीवन में शूद्रों की स्थिति को परिवर्तित करने के लिए वे कुछ ठोस कार्य नहीं कर सके। इनके दिमाग में वर्ण परिवर्तन की भी बात नहीं आई। अर्थात् शूद्र अपने अच्छे गुण, कर्म, सदाचार तथा भक्ति से भी भगवान् को प्राप्त कर सकता है, परन्तु शूद्र से ब्राहमण नहीं बन सकता। श्रेष्ठगुण, कर्म, सदाचार का पालन करने वाले शूद्र जब तक ‘शूद्र’ नाम से ही कहे जाते रहेंगे, तब तक उनकी सामाजिक निम्नतम स्थिति समाप्त नहीं हो सकेगी। इस तथ्य की ओर मध्यकालीन सन्त-महात्माओं का ध्यान नहीं गया।

उन्नीसवीं शती के पूर्वाद्ध में भारत में नवजागरण का सूत्रपात हुआ। इसकाल मे समाज सुधार के लिए स्थापित संस्थाओं में ब्राहमसमाज, प्रार्थनासमाज तथा थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख थे। ब्राहमसमाज का प्रभाव बंगाल में ही सीमित रहा और प्रार्थनासमाज का बम्बई में। इसके साथ ही इन संस्थाओं के प्रवर्तकों तथा संचालकों ने

सामाजिक प्रथाओं का आधार प्रायः धर्म होता है। हिन्दुओं में यदि कुछ जातियों को ऊँचा या नीचा और कुछ को अछूत माना जाता था तो उसका आधार भी धर्म को ही प्रतिपादित किया जाता था। पण्डित लोग स्मृतियों और धर्मशास्त्रों के आधार पर यह निरूपित करते थे कि ब्राहमणों की उत्कृष्ट स्थिति और शूद्रों की हीन दशा शास्त्र सम्मत है। इन बुराइयों को तभी सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है, जबकि वेद शास्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध किया जाए कि ये बातें न धर्मानुकूल हैं और न शास्त्र सम्मत। इस दिशा में महर्षि दयानन्द के

अतिरिक्त अन्य किसी ने भी प्रयत्न नहीं किया। इसके विपरीत ब्राहमसमाज में श्रीदेवेन्द्रनाथ के समय तक वेदों की प्रमाणिकता तक से इन्कार कर दिया गया था। केशवचन्द्र सेन के प्रभाव से यज्ञोपवीत को तिलाजलि दे दी गई। क्रमशः ब्राहमसमाज पाश्चात्त्य जीवन प्रणाली पर आधारित होता गया।१८६६ ईस्वी में श्रीकेशवचन्द्र सेन ने ब्राहमसमाज से पृथक् अपना नया समाज ‘नव विधान समाज’ नाम से बनाया। फ़्रांसीसी मनीषी रोम्याँ रोलाँ ने लिखा है-‘‘ ईसा ने केशवचन्द्र सेन के अन्तःस्थल को स्पर्श किया था।उनके जीवन का लक्ष्य बन गया था कि वे ईसा को ब्राहमसमाज में प्रविष्ट कराएँ। इसके साथ ही श्रीसेन उस समय बड़े जोर से उद्बुद्ध हो रही राष्ट्रिय चेतना के प्रतिकूल चल रहे थे।’ ’ इन कारणों से ‘ब्राहमसमाज’ हिन्दुओं की सामाजिक दशा में विशेष परिवर्तन नहीं ला सका और चिर स्थायी भी नहीं रह सका। १८६७ ई० में ‘प्रार्थनासमाज’ की स्थापना हुई प्रार्थनासमाज के लोग जाति-प्रथा के उच्छेद, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा के प्रबल प्रोत्साहन तथा बालविवाह-निषेध के सुधारों पर बल देते थे। इस समाज का संघठन कुछ निश्चित नियमों के आधार पर नहीं हुआ था। यह केवल ऐसे व्यक्तियों को समूह बना रहा, जो हिन्दू धर्म की अनेक कुरीतियों के विरुद्ध आन्दोलन करते थे,

हिन्दू समाज में सुधार चाहते थे किन्तु व्यवहार में हिन्दू कर्मकाण्ड व रूढ़ियों का पालन करते थे। यही कारण है कि प्रार्थनासमाज का प्रभाव सामाजिक जैसा भी बंगाल के समान बम्बई को प्रभावित न कर सका और न दीर्घजीवी हुआ। थियोसोफी के नेता १८६९ ईं० में मैडम ब्लेवेत्स्की तथा कर्नल अल्काट भारत पहुँचे। पहले इन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शरण ली किन्तु भारत में फैले अन्धविश्वास को देखकर अनेक स्थानों पर चमत्कार दिखाकर लोगों का ध्यान थियोसोफी की ओर आकर्षित किया। इस प्रकार प्राचीन धर्मों की सम्पूर्ण रूढ़ियों, विश्वासों एवं क्रीयाकलापों का कथित वैज्ञानिक समर्थन इन लोगों द्वारा किया जाने लगा। ऐसी परिस्थिति में प्रचलित जातिभेद को दूर करना थियोसोफी के बलबूते की बात नहीं थी। वर्णव्यवस्था पर आधारित भारत के सामाजिक संगठन की मूलभूत बुराइयों को दूर करने के लिए जो सबसे अधिक सशक्त आन्दोलन उन्नसवीं शती में चला, वह आर्यसमाज का था और उसके प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द थे।

सर्वप्रथम भारतीय वर्णव्यवस्था में शूद्रों की हीन स्थिति के बने रहने के जो आधार धर्मशास्त्र थे, उन्हें महर्षि दयानन्द ने चुनौती दी। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर व्यवस्थित करने के वैदिक नियम को उपस्थित किया। मध्यकाल में विकसित धर्मशास्त्रों तथा धार्मिक मान्यताओं के कपोलकल्पित तथा

वेद शास्त्रादि का विरोधी बताया। धार्मिक व्यवस्था तथा उस पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के लिए उन्होनें

वेदों की प्रामाणिकता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। चार वेद की संहिताओं को निर्भ्रान्त स्वतः प्रमाण तथा अन्य वैदिक आर्ष ग्रन्थों को परतः प्रमाण घोषित किया। स्मृतियों में केवल मनु की स्मृति के प्रक्षेप से रहित भाग को ही प्रामाणिक तथा शेष सभी स्मृतियों को त्याज्य, अनार्ष एवं वैदिक व्यवस्था का विरोधी निरूपित किया। स्वामी जी के अनुसार वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत आर्ष काव्य हैं और उनमें जो जन्मगत वर्णव्यवस्था के पोषक प्रमाण मिलते हैं, वे परवर्त्ती मिश्रण हैं। इन काव्यों के अतिरिक्त जितने भी संस्कृत के काव्य या नाटकादि लिखे गये उनमें वर्णित धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था वेद विरोधी होने के कारण माननीय नहीं है। इन ग्रन्थों से केवल तत्कालीन धर्म तथा समाज की स्थिति का पता लगाने में सहायता मिल सकती हैं। वेद के आधार पर धार्मिक मान्यताओं तथा समाज व्यवस्था को प्रचलित करने में इन अनार्ष ग्रन्थों की कोई उपयोगिता नहीं हैं। ‘‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयतामिति श्रुतेः’’ को उन्होंने कपोलकल्पित कहा और इसके प्रचारकों को ‘कुएँ में पड़ो’ जैसी कठोर बात कही। उन्होंने स्त्री, शूद्रादि सहित मनुष्यमात्र के लिए वेदादि शास्त्र पढ़ने का प्रमाण वेदों से उद्धरीत किया। स्वामी जी के इस महत्तवपूर्ण कार्य का औचित्य पाश्चात्त्य विद्वानों तथा सत्यव्रत सामश्रमी जैसे परम्परागत भारतीय विद्वानों ने भी स्वीकार किया। वस्तुतः वेदों में वर्णगत ऊँच-नीच की भावना का लेश भी नहीं है। ‘पंचजनाः मम होत्रं जुषध्वम्’ तथा ‘पाजजन्यः पुरोहितः’ प्रभृति वेद मन्त्रों में सभी के लिए यज्ञ-यागादि धार्मिक कृत्यों का विधान है। पज्जजनाः का अर्थ निरुक्त के अनुसार ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण तथा पाँचवाँ निषाद है। वेदों में कहीं छूत-अछूत, स्पृश्यास्पृश्य या ऊँच-नीच की अवधारणा नहीं हैं। इसके पक्ष में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। महर्षि दयानन्द तथा उनके अनुयायी विद्वानों ने इस सम्बन्ध में कई प्रमाण दिये हैं एवं उपयोगी ग्रन्थ लिखे हैं। महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज के विद्वानों को इन वचनों की शास्त्रीय प्रमाणवत्ता को लेकर परम्परावादी, रूढ़िवादी पौराणिक विद्वानों से कई शास्त्रार्थ करने पड़े हैं और कड़ा संघर्ष एवं विरोध झेलना पड़ा है। अब लगभग शास्त्रार्थ की परम्परा समाप्त हो गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सनातनी विद्वान्

अपनी कई धार्मिक मान्यताओं को वेद-प्रामाण्य के आधार पर सिद्ध करने में सक्षम नहीं रह गये हैं। अद्यतन प्रकाशित होनेवाले शोध ग्रन्थों में सनातनी ब्राहमण विद्वानों ने ही यह प्रतिपादित कर दिया है कि अति

प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था जन्म पर आधारित नहीं थी और वेदादि प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में गुण, कर्म,

स्वभाव के आधार पर ही चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था की गई थी। इन विद्वानों में प्रमुख हैं- क्षितिमोहन सेन, चिन्तामणि विनायक वैद्य, गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा, राजबलि पाण्डेय, भगवतशरण उपाध्याय तथा डाँ रामजी उपाध्याय इत्यादि।

दण्डव्यवस्था के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का सिद्धान्त मध्यकालीन स्मृतियों तथा सूत्रग्रन्थों के बिल्कुल

विपरीत है। ‘‘जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक जैसा दण्ड हो, उसी अपराध में राजा को सहस्त्र गुणा,

मन्त्री को आठ सौ गुणा तथा छोटे से छोटे (राजकीय) भृत्य को आठ गुणे दण्ड से कम न होना चाहिए। ब्राहमण को गुणा वा सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाइस गुणा दण्ड होना चाहिए अर्थात जिसका जितना अधिक ज्ञान और प्रतिष्ठा हो उसका अपराध में उतना ही अधिक दण्ड होना चाहिए।’’

गुणकर्मानुसार चातुर्वर्ण्य की स्थापना के लिए जो क्रीयात्मक पद्धति महर्षि ने प्रतिपादित की है उसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-(१) राजनियम तथा जाति नियम द्वारा सब बालक-बालिकाओं को आठ वर्ष की आयु हो जाने पर गुरुकुलों (आवासीय शिक्षणालयों) में भेज दिया जाए। शिक्षा सबके लिए अनिवार्य हो और एक समान, चाहे द्विज की सन्तान हो और चाहे शूद्र या अति शूद्र की। (२) गुरुकुल में सबको समान वस्त्र और समान भोजन मिले चाहे वे धनी माता-पिता की सन्तान हो और चाहे दरिद्र माता-पिता की। (३) शिक्षण काल में

विद्यार्थियों का सम्पर्क उनके माता-पिता से बिल्कुल न हो जिससे माता-पिता की आर्थिक स्थिति या वर्ण के

आधार पर उच्च या निम्न भावना उनमें न बने। (४) शिक्षण काल की समाप्ति पर आचार्यों द्वारा उनका वर्ण

गुण-कर्म-स्वभाव तथा योग्यता के आधार पर निर्धारित किया जाए। (५) गृहस्थ जीवन में पदार्पण के निमित्त

स्नातक तथा स्नातिकाओं का विवाह उनके आचार्य द्वारा निर्धारित वर्ण के अनुसार गुण, कर्म तथा स्वभावगत

आधार पर किया जाए।

इस प्रकार गुणकर्मानुसार चातुर्वर्ण्य स्थापना का यह क्रीयात्मक मार्ग स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित किया

गया है। न इसकी ओर बुद्ध और महावीर का ध्यान भी नहीं गया, न मध्यकाल के सन्त-महात्माओं या धार्मिक तथा दार्शनिक आचार्यों का। इसकी ओर उन्नीसवीं सदी के उन सुधारकों का ध्यान भी नहीं गया जो पश्चिम से प्रेरणा लेकर भारत की सामाजिक दशा सुधारना चाहते थे। वस्तुतः भारत के इतिहास में अकेले महर्षि दयानन्द सरस्वती ही ऐसे चिन्तक हुए हैं जिन्होंने इस देश की भयंकर सामाजिक व्यवस्था की जातिगत बुराइयों की बीमारी के मूलकारणों का पता किया और उसके निवारण के लिए क्रीयात्मक और सशक्त उपाय प्रतिपादित किये।

विशेष– इस लेख में मनुस्मृति के कुछ ऐसे श्लोक भी उद्ध्रीत किये गये हैं जिन्हें ऋषि दयानन्द और आर्य समाज प्रामाणिक नहीं मानता। दलितों की हीनावस्था और उनके प्रति अन्यायपूर्ण इन श्लोकों के बावजूद आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द ‘मनुस्मृति’ को प्रामाणिक ग्रन्थ इसलिए मानता है कि मनुस्मृति में जन्मना (जाति पाँति व्यवस्था) वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध गुण-कर्म- स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था के पोषक भी प्रमाण मिलते हैं। समानकर्तृक अथवा एककर्तृक ग्रन्थ में परस्पर विरोधी मान्यताएँ नहीं होती। इसलिए भी मनुस्मृति के जाति-व्यवस्था तथा पक्षपातपूर्ण श्लोकों की अप्रामाणिकता तथा प्रक्षेपयुक्तता सिद्ध होती है। इस सन्दर्भ में ऋषि दयानन्द के जीवन का एक उल्लेखनीय प्रसन्ग इस प्रकार है-

‘‘दयानन्द ने यह भी अनुभव किया कि ब्राहमणों ने जो अपना गढ़ खड़ा कर लिया है, वही हिन्दू धर्म में घुसी बुराइयों की जड़ है। अतः उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट सत्य बोलकर इस गढ़ की जड़ों को हिला डालने का संकल्प लिया। उन्होंने केवल जन्म के आधार पर प्राप्त ब्राहमणों ने अपने अधिकारों को तर्कसंगत

बताने के लिए शास्त्रीय प्रमाण का सहारा लिया तो स्वामी जी ने स्वयं ही मनुस्मृति का प्रमाण देकर यह सिद्ध

किया कि ब्राहमण को वेदों का ज्ञान होना चाहिए और जो व्यक्ति इस स्तर तक नहीं पहुँच पाता, वह ब्राहमण कहलाने के योग्य नहीं।’’

काशी में एक दिन एक व्यक्ति ने वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का एक

श्लोग प्रस्तुत किया-

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण्यकारकम्।

विद्यातपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राहमण एव सः ||

अर्थब्राहमणत्व के ३ कारक हैं- (१) विद्या, (२) तप, (३) योनि। जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या

(जन्मना) ब्राहमण तो है ही।

स्वामी जी ने इसके खण्डन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया-

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः।

यश्च विप्रोऽनधीयानऱ्यस्ते नाम बिभ्रति ||

अर्थजैसे काठ का कठपुतला हाथी और चमड़ का बनाया मृग होता है, वैसे ही बिना पढ़ा हुआ विप्र अर्थात्

ब्राहमण होता है। उक्त हाथी, मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं। (तुलनीय-संस्कारविधिः, पृं० ८४); (देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित ‘‘ स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन-चरित्र’’ भाग २ पृं ६०२, प्रथम संस्करण, १९९० विक्रमी)।

इस विषय में मनुस्मृति के अन्य प्रमाण भी द्रष्टव्य

हैं- योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवीन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ||

मनुं२/१६८

अर्थ-(१)जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्य शास्त्रों में श्रम करता है, वह जीते जी अपने पुत्र-पौत्रों (वंश) सहित

शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है।

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च

मनुं १०/१०/६४

अर्थ(१) ‘शूद्र ब्राहमण हो जाता है और ब्राहमण भी शूद्र हो जाता है’ मनु के इस वाक्य का भी विचार करना

चाहिए। (ऋषि दयानन्द-पूना प्रवचन, पृं० २०)

(२) कर्मों के द्वारा ब्राहमण शूद्र होवे और शूद्र भी ब्राहमण हो जावे। यही पुरानी रीति है। यदि ब्राहमण दुश्चरित्र, मूर्ख और धर्महीन है तो उसे शूद्र बना देना चाहिए और शूद्र यदि ज्ञानी, सच्चरित्र और धार्मिक हो तो उसे ब्राहमण पद पर प्रतिष्ठित कर देना चाहिए।(स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, भाग-१, पृं० २३१)

-अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग,

रणवीर रणञजय, पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज,

अमेठी, (उ.प्र.) २२७४०५

वैदिक वर्णव्यवस्था का आधार और महर्षि दयानन्द

वैदिक वर्णव्यवस्था का आधार और महर्षि दयानन्द

डॉ. महावीर सिंह आर्य…..

र्ण व्यवस्था का वास्तविक स्वरूप क्या है?- इसको न समझ पाना भी आज सर्वत्र फैली हुई उच्च और

नीच की भावना को बढ़ावा देता है। कुछ लोग वर्ण व्यवस्था के नाम से ही उत्तेजित हो जाते हैं, क्योंकि

साधारणतया समाज में वर्ण शब्द जातिवाद का द्योतक माना जाने लगा है, परन्तु वास्तविकता ठीक इसके विपरीत ही है। वर्ण शब्द अपने आप में ही अपना अर्थ लिये हुए है और न ही यह वर्णव्यवस्था किसी भी धर्म या मत विशेष के साथ बंधी हुई ही है। इसका निर्देश हिन्दू के लिए ही हो, ईसाई या मुसलमान आदि के लिए नहीं?..

…ऐसी भी कोई बात नहीं है। वर्णः यह शब्द किसी ‘जाति विशेष’ का सूचक न होकर एक वर्ग विशेष का सूचकमात्र है। वह भी मानव को मानव समाज से अलग न करते हुए, उस उसके कार्यों का सूचक मात्र है। निरुक्त- वर्णो वृणोते` कहकर वर्ण का निर्वचन करता है। महर्षि दयानन्द ऋगवेदादि भाष्य भूमिका में इसका अर्थ करते हैं – ‘जो गुण कर्म को देखकर यथा योग्य वरण किये जाते हैं, वे वर्ण कहाते हैं।’स्वामी महेश्वरानन्द गिरी तथा सत्यमित्र दुबे की भी यही मान्यता है।

वर्ण तथा जाति : वर्ण तथा जाति शब्द आजकल प्रायः समान अर्थ के द्योतक प्रतीत होते हैं किन्तु मूल रूप में इन शब्दों में अन्तर है, इस विषय में आज भी मत-वैभिन्य है।

राजा फतह सिंह वर्मा (चन्द्र) पुवादा… नरेश ने वर्ण तथा जाति को एक ही माना है, वे लिखते हैं – देखो,

अल्पाच्चतरम् (अष्टा.२.२.३४) इस सूत्र के वार्तिक में वर्ण शब्द के अर्थ में ब्राहमण क्षत्रियादि जातियों के उदाहरण महाभाष्यकार पतंजलि महर्षि ने दिये हैं और ‘जातिरप्राणिनाम’ (अष्टा.-२.४.६) इत्यादि सूत्र, वार्तिक

और महाभाष्य द्वारा पाणिनि कात्यायन और पतंजलि महर्षियों ने ‘जाति’ शब्द के अर्थ में ब्राहमण, क्षत्रिय,

वैश्य और शूद्र वर्णों को उदाहरण द्वारा बतलाया है। यदि वर्ण और जाति शब्दों से एक ही प्रयोजन न होता तो महर्षि लोग ऐसा क्यों लिखते। कवि रत्नअखिलानन्द शर्मा भी जाति शब्द से वर्णों का ग्रहण करते हैं। इसके विपरीत अन्य विद्वान् वर्ण तथा जाति को पृथक् मानते हैं। तथा वर्ण का सम्बन्ध जीविका के साधन से तथा जाति का सम्बन्ध जन्म से मानते हैं। यथा- डॉ. मंगलदेव शास्त्री इस विषय में कहते हैं कि – यह ध्यान देने की बात है कि जहाँ वर्ण शब्द का सम्बन्ध इस प्रसंग में स्पष्टतया पेशा या व्यवसाय से है। तुलना करें – ‘वर्णो वृणोतेः(निरुक्त-२.३) यहाँ जाति शब्द का सम्बन्ध स्पष्टतया जन्म से है (… जननेन या जायते सा

जाति-महाभाष्य-५.३.५५) दोनों शब्दों की मौलिक दृष्टियाँ भिन्न हैं।…तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राहमण एव सः (महाभाष्य-५.४.५५)

डॉ. पी.वी. काणे का कथन है कि ‘वर्ण की धारणा वंश, संस्कृति, चरित्र (स्वभाव) एवं व्यवसाय पर मूलतः

आधारित है। हममें युक्ति की नैतिक एवं बौद्धिक योग्यता का समावेश होता है और यह स्वभाविक वर्गों की व्यवस्था का द्योतक है। स्मृतियों में भी वर्णों का आदर्श है – कर्त्तव्यों पर, समाज या वर्ग के उच्च मापदण्ड

पर बल देना, न कि जन्म से प्राप्त अधिकारों एवं विशेषाधिकारों पर बल देना। किन्तु इसके विपरीत जाति

व्यवस्था जन्म एवं आनुवांशिकता पर बल देती है और बिना कर्त्तव्यों के आचरण पर बल दिये, केवल

विशेषाधिकारों पर ही आधारित हैं। वैदिक साहित्य में जाति के आधुनिक अर्थ का प्रयोग नहीं हुआ है।

वैदिक संहिताओं में जाति शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किन्तु ‘सजात्य’ शब्द उपलब्ध होता है। जिसका

ब्राहमणत्वादि अर्थ संदिग्ध है। परवर्ती साहित्य में कहीं-कहींवर्ण के अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मिलता है। जो कदाचित व्यवसाय के आधार पर जन्म से ही जाति मानने के उपरान्त प्रचलित हुआ हो। महर्षि दयानन्द जहाँ वर्णों को चुनाव के आधार पर मानते हैं, वहाँ जाति को जन्म से मरणपर्यन्त रहने वाली मनुष्यत्व  की भाँति मानते हैं।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट है कि कुछ विद्वान् वर्ण तथा जाति को अभिन्न मानते हैं तथा

कुछ इन्हें पृथक्-पृथक् स्वीकार करते हैं। अतः वर्ण तथा जाति शब्द यद्यपि समानार्थक प्रतीत होते हैं किन्तु मूलरूप में इन दोनों शब्दों में अन्तर है। ‘जाति’ शब्द जहाँ ‘जनि प्रादुर्भावे’ धातु से निष्पन्न होने से जन्म अथवा योनि विशेष से सम्बन्ध रखता है वहाँ ‘वर्ण’ पद ‘वृञ वरणेधातु से निष्पन्न होने से चुनाव अर्थ को प्रकट करता है। जाति के निर्माण में वह परतन्त्र होता है तथा वर्ण के चुनाव में वह स्वतन्त्र है? यह भी स्मर्तव्यहै कि जाति मनुष्य से अतिरिक्त पशु-पक्षी आदि में भी होती है किन्तु वर्ण केवल मानव जाति में ही सम्भव है। अतः वर्ण तथा जाति शब्द मूलतः पृथक् हैं तथा इनको प्राचीन साहित्य में पृथक् ही माना है किन्तु वर्तमान समय में वर्ण शब्द प्रायःचर्चा का विषय रह गया है और उसका स्थान पूर्णतया जाति ने ले लिया है। जनगणना के समय भी वर्ण का उल्लेख न करके जाति का ही उल्लेख उपलब्ध होता है।

महर्षि दयानन्द और वर्णव्यवस्था का अधार : महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में जन्म से वर्णव्यवस्था को न

मानकर गुण-कर्म से ही वर्णव्यवस्था को स्वकीर किया है। उदाहरणार्थ-

१. वर्णाश्रम गुण कर्मों की योग्यता से मानता हूँ।

२. ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार भेद गुणकर्मों से किये गये हैं (वृणो.)। इन नाम वर्ण इसलिए है कि

जिसके गुणकर्म हो, वैसा ही उनको अधिकार देना चाहिए।

३. (प्रश्न) विवाह अपने-अपने वर्ण में होना चाहिए या अन्य वर्ण में भी?

(उत्तर) अपने-अपने वर्ण में होना चाहिए परन्तु वर्ण व्यवस्था गुणकर्मों के आधार पर होनी चाहिए जन्ममात्र

से नहीं। जो पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारी, जितेन्द्रिय, मिथ्याभाषणादि दोषरहित, विद्या और धर्मप्रचार में तत्पर रहे इत्यादि गुण जिसमें हैं। वह ब्राहमण, विद्या, बल, शौर्य, न्यायकारित्वादि गुण जिसमें हो वह क्षत्रिय, क्षत्रिय और विद्वान् हो के कृषि व्यापार पशुपालन, देश भाषाओं में चतुरादि गुण जिसमें हो वह वैश्य, वैश्य और जो विद्याहीन मूर्ख हो, वह शूद्र कहावें।

४. वर्ण-जो गुणकर्मों के योग से ग्रहण किया जाता है, वह वर्ण शब्दार्थ से लिया जाता है।

 

संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?

प्रश्न : संन्यास ग्रहण की आवश्यकता क्या है?

उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।

प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा

नहीं?

उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।

प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?

उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।

– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत

उत्तरः जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है। क्योंकि इसके बिना विद्याधर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमों को विद्या ग्रहण गृहकृत्य और तपश्चर्यादिका सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमों को दुष्कर है। जैसा संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत का उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रहमचर्य से संन्यासी होकर जगत को सत्य शिक्षा करके जितनी उन्नति कर सकता है उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके सन्यासाश्रमी नहीं कर सकता।

प्रश्नः ‘संन्यासी सर्वकर्म्मविनाशी’ और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नही करते। यह बात सच्ची है वा

नहीं?

उत्तरः नहीं। ‘सम्यग नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स सन्यासः स प्रशस्तो विद्यते यस्य स सन्यासी’। जो ब्रहम और उसकी आज्ञा में उपविष्ट अर्थात स्थित और जिससे दुष्ट कर्मों का त्याग किया जाय संन्यास, वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो वह संन्यासी कहाता है। इसमें सुकर्म का कर्ता और दुष्ट कर्मों का विनाशक करने वाला संन्यासी कहाता है।

प्रश्नः अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन?

उत्तरः सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं । हाँ! जो ब्राहमण है उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को सत्योपदेश और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राहमणादिको को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राहमण वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।

– सत्यार्थ प्रकाश से उद्धृत

वर्ण और जन्मना जाति व्यवस्था तथा हमारा वर्तमान समाज

वर्ण और जन्मना जाति व्यवस्था तथा हमारा वर्तमान समाज

श्रीमनमोहन कुमार आर्य…..

उपलब्ध ज्ञान के आधार पर यह ज्ञात होता है – कि अमैथुनी सृष्टि के प्रथम दिन ही जगतपिता ईश्वर ने अपनी शाश्वत प्रजा मनुष्यों के कल्याणार्थ श्रेष्ठ पवित्र आत्माओं जो अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नामक चार ऋषि कहे जाते हैं, को क्रमशः चार वेदों ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वज्ञ होने से सर्व प्रकार से पूर्ण है, उसमें किसी प्रकार की न्यूनता नहीं है। अतः उसका दिया हुआ ज्ञान भी हर दृष्टि से पूर्ण होना चाहिये। सृष्टि की रचना देख कर विदित होता है कि ईश्वर पक्षपातरहित है और न्यायकारी है। इसके साथ वह दयालु और करुणा का सागर भी है। अतः ईश्वर ने प्रथम चार ऋषियों को अपने अनुरूप श्रेष्ठ बुद्धि से भी सम्पन्न किया था। चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान प्राप्त होने पर इन ऋषियों ने ब्रह्मा जी को चारों वेदों का ज्ञान कराया। स्वभाविक है कि जब एक-एक ऋषि ने ब्रह्मा जी को

एक-एक वेद का ज्ञान कराया होगा तो अन्य तीन ऋषियों ने भी वहीं उपस्थित होने के कारण उसे सुना व समझा होगा। इस प्रकार ब्रह्माजी जहां चारों वेदों के ज्ञाता हुए, वहीं अन्य चारों ऋषि भी चारों वेदों के ज्ञाता हो गये थे। इस प्रक्रिया के सम्पन्न होने के बाद इन पांच  ऋषियों द्वारा सभी स्त्री व पुरुषों को चारों वेदों का ज्ञान कराना सम्भावित है। यह किस विधि से कराया गया, इस विषय में तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि प्रवचन, उपदेश आदि के द्वारा कराया होगा। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आदि सृष्टि में कुछ काल बाद ही पहली अमैथुनी पीढ़ी के सभी स्त्री व पुरुष वेद ज्ञान से सम्पन्न हो गये थे। इसका कारण यह है कि जहाँ गुरु व शिष्य दोनों उत्तम हों, गुरुजन विद्यावान् व श्रेष्ठ आचरण वाले हों और शिष्य विद्यार्जन के लिए अत्यन्त उत्सुक हों तो वहां ज्ञान का आधान व प्रचार शीघ्र व सरलता से हो जाता है।

सृष्टि के आरम्भ में वेद ज्ञान के सभी स्त्री व पुरुषों द्वारा ग्रहण लेने की प्रक्रिया के पूरी होने के बाद

सामाजिक व्यवस्था कैसी हो? यह समस्या आदि मनुष्य समाज के सामने आई होगी। इसका हल करने के लिए उनके पास सबसे बड़ा साधन वेद ज्ञान ही था। इसके लिए वेद का मन्त्र ‘ब्राऽह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू

राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्यय द्वैश्यः पद्भ्याम् शुद्रो अजायत।। (यजुर्वेद ३१/११) का मार्गदर्शन उपलब्ध

था जिसका पूरा लाभ लिया गया। इस वेद मन्त्र सहित सभी ऋषियों और मनुष्यों का बौद्धिक ज्ञान व उनकी

क्षमतायें भी उच्च कोटि की थीं। उन्हें ज्ञात था कि हमें अपनी सन्तत्तियों के लिए अच्छे शिक्षकों की आवश्यकता है। अन्न, फलों व दुग्धादि के उत्पादन व उपलब्धता के लिए कृषकों की व वितरण के लिए वैश्यों की आवश्यकता है। समाज के सभी लोगों की हिसंक पशुओं व आचारविहीन लोगों के सुधार के लिए बलवान्

व बुद्धिमान्र रक्षकों तथा न्यायाधीशों की आवश्यकता है।इसी प्रकार से शिक्षकों, कृषकों, वणिकों व रक्षा व न्याय

व्यवस्था से जुड़े लोगों को सहायकों की आवश्यकता भी अनुभव की गई होगी। इसके लिए गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार चार वर्ग व श्रेणियां बनाई गईं थी जो अज्ञान, अन्याय व अभाव का नाश करें और चतुर्थ वर्ण इनके कार्यों में सहयोग प्रदान करें। इस व्यवस्था को ही वर्णाश्रम व्यवस्था का नाम दिया गया। वर्ण का अर्थ चुनाव करना होता है। जिसने ज्ञानी व शिक्षक अथवा विद्या से जुड़े कार्य करने का संकल्प लिया और

जो उस योग्यता को प्राप्त करने में सफल हुआ, उसे गुरुकुल के आचार्यों व समकालीन  ऋषियों ने सामूहिक रूप से ब्राह्मण नाम से सम्बोधित किया व सम्मान दिया। इसी प्रकार से समाज की आवश्यकता के अनुरूप अन्य वर्णों को क्षत्रिय व वैश्य नामों से अभिहित किया गया। जो लोग अधिक ज्ञान सम्पन्न न हो सके उन्हें अन्य तीन वर्णों के साथ सहयोग करने के लिए शूद्र व श्रमिक नाम से सम्बोधित किया गया। यह व्यवस्था इतनी उत्तम थी कि यह सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक स्थापित रही। महाभारतकाल के बाद इसमें व्यवधान उपस्थित हुए और हमारे पण्डितों ने इसे जन्म पर आधारित व्यवस्था बना दिया। विचार करने पर इस जन्मना व्यवस्था में ब्राह्मण व पण्डित वर्ग का अज्ञान व स्वार्थ दोनों ही प्रतीत होता है।

मध्यकाल में ब्राह्मण व पण्डित वर्ग में अज्ञान बढ़ा और तब मिथ्या अन्धविश्वास, कुरीतियाँ व सामाजिक

विषमताओं ने जन्म लिया। दुर्भाग्य से क्षत्रियों व वैश्यों के वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन के अवसर भी

कम हुए परन्तु शूद्र परिवार में जन्में बालक व बालिकाओं सहित सभी वर्णों की स्त्रियों को एक कल्पित वाक्य

‘स्त्री शूद्रौ नाधीयताम्’ कहकर वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया जिसका देश व समाज पर विपरीत प्रभाव

पड़ा। इससे देश व समाज निर्बल होता गया और व्यक्ति विशेष दुःख व अभाव का शिकार होते गये। यद्यपि

महाभारतकाल के बाद हमारे देश में महापुरुषों की कमी नहीं रही परन्तु इनमें पूर्ण वेद ज्ञानी कोई नहीं था। अनेक प्रसिद्ध व प्रतापी राजा हुए हैं जिनकी कई सहस्रवर्षों के शासन की सूची भी उपलब्ध है। स्वाभाविक है कि यदि एकाधिक अच्छे विद्वान हों तो शिक्षा व्यवस्था को पुनःस्थापित किया जा सकता है परन्तु यदि विद्वानों की भरमार हो और सभी अज्ञान व स्वार्थ से ग्रसित हों तो फिर समाज व देश का उत्थान सम्भव नहीं है। ऐसा ही मध्यकाल के दिनों में देखने को मिलता है। स्वामी शंकराचार्य, भगवान् बुद्ध, भगवान महावीर, सन्तकबीर, सन्त तुलसीदास, मीराबाई, गुरुनानक देवजी, गुरु गोविन्दसिंह, राजा राममोहन राय आदि अनेक महान् पुरुष हुए परन्तु समाज की स्थिति में न्यूनाधिक सुधार तो हुआ परन्तु किसी ने सभी धार्मिक व सामाजिक समस्याओं का ऐसा हल प्रस्तुत व प्रचारित नहीं किया, जैसा कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वेदों के मर्मज्ञ स्वामी दयानन्दजी ने किया था। महर्षि दयानन्द जन्मना वर्णव्यवस्था को नहीं मानते थे। वह शास्त्रीय उदाहरणों एवं अपने प्रबल तर्कों से जन्मना वर्णव्यवस्था का खण्डन करते थे। वह वेद और मनुस्मृति में वर्णित गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे। जन्मना वर्णव्यवस्था को वह एक स्थान पर ‘‘मरण व्यवस्था’’ के नाम से उल्लेख करते हैं। हम यह अनुभव करते हैं कि यद्यपि वैदिककाल में प्रचलित वर्ण व्यवस्था को वर्तमानयुग में पुनः स्थापित तो नहीं किया जा सकता परन्तु आर्यसमाज में एक प्रकार से कुछ-कुछ यह स्थापित हुई सी दिखती है। आर्य समाज ने सभी वर्ण व जन्मना जाति के बन्धुओं को जिस में हमारे दलित परिवारों के भाई व बहिन भी सम्मिलित थे, गुरुकुलों में अध्ययन व अध्यापन का अधिकार दिया। वह संस्कृत व्याकरण व शास्त्रों को पढ़कर बड़े-बड़े विद्वान बने जिनके नाम के आगे पण्डित शब्द का प्रयोग व उच्चारण किया जाता रहा है और यह एक नई परम्परा का सूत्रपात है जो कि महर्षि दयानन्द के समय व उससे पहले भारत में कहीं भी नहीं थी। हमारे प्रिय दलित भाई जो गुरुकुल में पढ़े हैं

उन्हें भी सर्वत्र पण्डितजी या आचार्य जी ही कहकर सम्बोधित करते हैं। यह वर्णव्यवस्था के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रान्ति है जो महर्षि दयानन्द और आर्य समाज की देन है। यह वस्तुतः युग परिवर्तन है। इस सीमा तक तो आर्य समाज ने इस जन्मना जाति व्यवस्था को दूर किया ही है। आर्य समाज ने ही समाज में

गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित विवाहों का समर्थन किया जिससे इनका शुभारम्भ होकर आज तीव्र गति से ऐसे

विवाह हो रहे है जिन्हें आज कल प्रेम विवाह के नाम से जाना जाता है जिसमें प्रचलित वर्ण व जाति का ध्यान नहीं रखा जाता, गुण-कर्म-स्वभाव को ही महत्व दिया जाता है। आजकल यह जाति व्यवस्था इतनी

ढीली पड़ गई है कि अधिकांश माता-पिता अपनी सन्तानों के लिए गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित श्रेष्ठ वर व वधु का चयन कर विवाह सम्पादित करते हैं। यह सब महर्षि दयानन्द व उनके आर्य समाज की ही देन है।

महर्षि दयानन्द अपने समय के पहले ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने हिन्दुओं के प्रमुख शास्त्रीय ग्रन्थवेद के आधार पर जन्मना जाति का विरोध किया और अपने जीवन व व्यवहार से उसे अग्राह्य व निषिद्ध किया। उन्होंने एक बार एक नाई द्वारा भोजन के रूप में रोटी प्रस्तुत करने पर पौराणिक पण्डितों के विरोध के बावजूद उसे स्वीकार कर सबके सम्मुख उसे ग्रहण किया और तर्क प्रस्तुत किया कि रोटी नाई की नहीं अपितु गेहूं की है। अन्न व भोजन यदि सच्चाई, धर्म व परिश्रमपूर्वक धन कमाकर प्राप्त किया जाये और वह स्वच्छता से बनाया जाये तो उसे सभी वर्ण के लोग खा सकते हैं। आजकल होटलों में दलित, मुस्लिम व ईसाई सभी मत व जातियों के लोग पाकशाला में काम करते हैं और हमारे पुराने अन्धविश्वासी पौराणिक बन्धु व उनके परिवार के लोग बिना ‘न नुच’ के उस भोजन को ग्रहण करते हैं। यह महर्षि दयानन्द की विचारधारा का परिणाम है जिसे उन्होंने आज से एक सौ १४० वर्ष पहले प्रचलित कर दिया था। सरकारी कार्यालयों में हमारे दलित व अन्य मतों के बन्धु ऊँचे पदों पर कार्यरत हैं और हमारे परम्परावादी अन्धविश्वासी परिवारों के पण्डित कहलाने

वाले बन्धु इनके अधीन कार्य करते हैं, यह गुण, कर्म व स्वभाव के कारण है जिसका शुभारम्भ व समर्थन महर्षि दयानन्द के द्वारा करने से इसका श्रेय उन्हीं को देना उचित होगा। हम यह भी अनुमान करते हैं कि मध्यकाल में पण्डितों ने यदि स्त्रियों व शूद्रों को शिक्षा व अध्ययन से वंचित न किया होता तो अतीत में हमें कितनी अधिक संख्या में विद्वान् व विदुषी श्रेष्ठ स्त्री-पुरुष मिले होते। हम यह अनुभव करते हैं कि आज भी जन्मना वर्णव्यवस्था जिसका आधुनिक रूप जन्मना जातिवाद है, समाप्त तो नहीं हुई है परन्तु यह अधिकांशतः अव्यवहारिक हो गई है। आज स्कूलों के प्रमाण पत्र के आधार पर बड़े सरकारी पद मिलते हैं जिसमें ब्राह्मणों सहित क्षत्रिय, वैश्य, पिछड़े व दलित सभी वर्गों के लोग होते हैं। इन प्रमाण पत्रों के आधार पर ही इन्हें सरकारी नौकरियां मिलती हैं तथा यह अपनी शिक्षा व पद से ही पहचाने जाते हैं, अर्थात सरकारी अधिकारी, डाक्टर, अभियन्ता, शिक्षक, नर्स आदि। एक प्रकार से आज मनुष्य की जो योग्यता है और वह जो कार्य करता है, वही उसकी पहचान व वर्ण बन गया है। इसमें गति इसलिए मन्द है कि आज दलित वर्ग के लोग सरकारी लाभ उठाने के लिए इस जन्मना जाति व्यवस्था अर्थात मरण व्यवस्था को जारी रखना चाहते हैं। इससे भेदभाव दूर करने में कठिनाई हो रही है। वर्तमान सामाजिक स्थिति भले ही उन्नत वैदिककाल के अनुरूप न हो परन्तु मध्यकाल से तो कहीं अधिक श्रेयस्कर व उत्तम है। हम अनुभव करते हैं कि कुछ पीढ़ियों के बाद वर्तमान समाज में जाति, वर्ण व सम्प्रदाय आदि के नाम पर जो विषमतायें हैं, वह सर्वथा दूर हो जायेगीं। यदि ऐसा भी हो जाता है तो इससे समाज भलीभांति संचालित हो सकता है। इसे वर्तमान व्यवस्था को आजकल के समय व युग के अनुरूप वर्ण व्यवस्था कह सकते हैं जिसमें जाति सूचक शब्दों का प्रयोग बन्द होना आवश्यक है। ऐसा होने पर स्थिति और अधिक अनुकूल हो जायेगी और सामाजिक भेदभाव दूर

होंगे। समस्या अब केवल एक ही शेष रहती है कि वैदिककाल में ब्राह्मण वर्ण का मुख्य कार्य वेदों की रक्षा, वेदों का अध्ययन, वेदों का शिक्षण व प्रचार, ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि का प्रचार व प्रसार करना था वह आजकल बन्द हो गया है। इसकी समाज व देश को अत्यन्त आवश्यकता है। इसके लिए आर्य समाज व इसके गुरुकुलों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके साथ हि हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज के संगठन

को समयानुकूल बनाने की आवश्यकता है जिसको विद्वानों को प्रयास करना चाहिये।

वैदिक वर्णव्यवस्था सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारतकाल से कुछ पूर्व तक सर्वोत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था के रूप में प्रचलित थी। इसका विकृत रूप महाभारतोत्तर व मध्यकालीन जन्मना जाति व्यवस्था थी।

इस जन्मना व्यवस्था का वर्तमान आधुनिक रूप पूर्व वर्ण व्यवस्था व जन्मना जाति व्यवस्था का मिला-जुला

रूप है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को हम वैदिक वर्णव्यवस्था से श्रेष्ठ तो नहीं मानते परन्तु यह जन्मना जाति व्यवस्था से कहीं अधिक अच्छी है। आर्य हिन्दू धर्म के सभी विद्वानों और समाजशास्त्रियों को इसपर ध्यान देना चाहिये। आधुनिक सामाजिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये जिसमें कि पूज्यों की ही पूजा हो अपूज्यों की नहीं। समाज में भेदभाव, पक्षपात, अन्याय तथा छुआछूत का किसी भी रूप में व्यवहार नहीं होना चाहिये। इस लक्ष्य की प्राप्ति में आर्यसमाज की बहुत बड़ी भूमिका है। इस पर निरन्तर चिन्तन मनन होता रहना चाहिये। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

-१९६ चुक्खूवाला-२, देहरादून- २४८००१

वर्णव्यवस्था का स्वरूप

वर्णव्यवस्था का स्वरूप

डॉ. वेदव्रत…..

समाज के सुव्यवस्थित संचालन, प्राणिमात्रा- के अभ्युदय, सुख एवं शान्ति के लिए यह परमावश्यक है कि सामाजिक कार्यों का विभाजन व्यक्ति की योग्यता, गुण-कर्म, प्रकृति एवं प्रवृत्ति के आधर पर हो। प्रत्येक प्राणी प्रत्येक कार्य को सम्पादित करने में समर्थ नहीं होता अतः जो व्यक्ति जिस कार्य में समर्थ है, उसे उसी कार्य का दायित्व दिया जाना चाहिए। स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था श्रम विभाजन या कर्म विभाजन पर ही आधृत है। समाज के विधिवत् सचालन के लिए शिक्षक, रक्षक, पोषक तथा सेवक की आवश्यकता होती है। इनके संयोजन के बिना समाज उन्नति नहीं कर सकता। अज्ञान, अन्याय, अभाव एवं असहयोग समाज की प्रगति में बाध्क हैं। समाज से अज्ञान के नाश के लिए शिक्षक के रूप में ब्राह्मण, अन्याय-अत्याचार को मिटाने के लिए रक्षक के रूप में क्षत्रिय, अभाव के लिए पोषक के रूप में वैश्य तथा असहयोग को मिटाने के लिए सेवक के रूप में शूद्र की परिकल्पना की गई।

व्यक्ति की कार्य क्षमता के आधार पर कर्म विभाजन करना वर्णव्यवस्था है। वर्ण शब्द की निष्पत्ति वृज वरणे धातु से होती है, जिसका अर्थ है- वरण करना या चुनना। इसे हम सरल भाषा में इस प्रकार से विवेचित कर सकते हैं- जिस व्यवस्था के द्वारा व्यक्ति अपनी कार्य क्षमता के आधर पर कर्म का वरण करता है, वह वर्णव्यवस्था कहलाती है। आचार्य यास्ककृत वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी अर्थ को प्रकट करती है। महर्षि दयानन्द भी ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में वर्ण व्यवस्था के विवेचन में उपरोक्त भाव को स्पष्ट करते हैं।

सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था की विवेचना  ऋग्वेद में दृष्टि गोचर होती है। वेद के इस मन्त्र में आलंकारिक

भाषा में वर्ण व्यवस्था के स्वरूप का अतीव रोचक वर्णन प्राप्त होता है। ब्राह्मण शरीर का मुख, क्षत्रिय भुजा, वैश्य जंघा तथा शूद्र पैर है। जिस प्रकार मुख सब अंगों में श्रेष्ठ है, वैसे ही विद्वान्, गुणवान्, श्रेष्ठ

कर्म वाला मनुष्य ब्राह्मण जानना चाहिए। ताण्डय एवं शतपथ ब्राह्मण में भी ब्राह्मण को मुख की

उपमा दी गई है। क्षत्रिय को समाज की भुजा कहा गया है। भुजाएँ शक्ति की प्रतीक हैं। शतपथ ब्राह्मण में युद्ध उसका बल कहा गया है। वैश्य को उरु (जंघा) कहा गया है, जिस प्रकार जंघायें सारे शरीर को थामे रहती हैं तथा उनके गतिमान् होने पर शरीर में रस का संचार होता है, उसी प्रकार से वैश्यवर्ग भी समाज का सचालक एवं जीवन रक्षक है। वैश्य द्वारा अर्जित धन से ही सभी वर्णों का निर्वाह होता है।शुद्र को समाज का पैर कहा गया है। जिसप्रकार पैर शरीर का भार वहन करके उसे आराम देते हैं, ठीक इसी प्रकार शूद्र अन्य वर्णों की सेवाशुश्रूषा करके उन्हें सुख प्रदान करता है। शतपथ ब्राह्मण में शूद्र की महत्ता को बतलाते हुए कहा गया है कि शूद्र श्रम का मूर्तिमान रूप है तथा उसी पर सारा राष्ट्र अवलम्बित है।

जिस प्रकार से शरीर के ये विभिन्न अवयव आकृति एवं कार्य सम्बन्धी विविधता के होने पर भी शरीर की आवश्यकताओं को सम्पन्न कराते हुए उन्नति में सहायक हैं ठीक इसी प्रकार चारों वर्ण समाजरूपी शरीर के अंग हैं तथा चारों ही समाज के सुचारू रूप से सचालन में सहायक सिद्ध होते हैं।

वेदप्रतिपादित इस वर्ण व्यवस्था की पुष्टि में अन्य प्रमाण भी उपलब्ध हैं। शतपथकार ने भी वेद के आधार पर वर्ण व्यवस्था का विधान किया है। आचार्य प्रजापति द्वारा की गई सृष्टि के वर्णनप्रसन्ग में वर्णों की सृष्टि का वर्णन करते हुए लिखते हैं– मुख से ब्राह्मणों की सृष्टि की। मुख से उत्पन्न होने के कारण ये मुख्य हुए। बाहु और वक्ष से राजन्य (क्षत्रिायों) की सृष्टि की। वक्ष और बाहु से उत्पन्न होने के कारण क्षत्रिय बलशाली हुए। मध्य भाग से वैश्यों की तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति की। वर्णोत्पत्ति विषयक वेदोक्त भाव ही आचार्य मनु को अभीष्ट हैं। रामायण, महाभारत एवं श्रीमद्भागवत में भी वर्णों का यही स्वरूप दिखाई देता है।

वर्णविभाजन उपनयन के समय होता है या अध्ययन के उपरान्त, यह विषय भी विचारणीय है। आचार्य मनु के मत में वर्ण का विभाग उपनयन के समय में भी होता है, इसीलिए वे कहते हैं कि ब्राह्मण वर्ण का उपनयन ८ वर्ष, क्षत्रिय वर्ण का उपनयन १० वर्ष तथा वैश्य वर्ण का उपनयन १२ वर्ष में करना चाहिए। मनुस्मृति के अनुसार आचार्य उपनयन संस्कारोपरान्त वेदाध्ययन तथा ब्रह्म ज्ञान कराके एक नवीन जन्म प्रदान करता है। शरीर जन्म की अपेक्षा इस जन्म के आधर पर ही ब्राह्मणादि को द्विज कहा जाता है। इससे भी यही ध्वनित होता है कि वर्ण विभाजन मुख्यतः अध्ययनोपरान्त अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम के उपरान्त होता था। शतपथ ब्राह्मण की भी यही मान्यता है। इसके अनुसार अध्ययन काल में यज्ञ में दीक्षित होकर ब्रह्मचारी ब्राह्मण कर्मवाला ही होता है। अध्ययन के उपरान्त गुणों के आधार पर उसके कर्म का विभाजन होता था। वर्ण विभाजन का यही समय अधिक व्यवहारिक एवं तर्क संगत प्रतीत होता है।प्राचीनकाल में वर्ण व्यवस्था गुण एवं कर्म पर आश्रित

थी। वर्ण शब्द का अर्थ एवं व्युत्पत्ति स्वतः सिद्ध करते हैं कि वर्ण व्यवस्था जन्मना न होकर कर्माश्रित

है। जिसका कर्मानुसार वरण किया जाए, वह वर्ण है। ब्राह्मण क्षत्रियादि शब्द भी कर्मणा वर्ण व्यवस्था

के प्रतिपादिक है। वर्णों के नाम का निर्वचन स्वतः वर्णों के कर्मों का बोध कराता है। ब्रह्मन शब्द से

तदधीते तद्वेद इस अर्थ में अण् प्रत्यय करने से ब्राह्मण शब्द निष्पन्न होता है। इस प्रकार ब्राह्मण शब्द

का अर्थ हुआ, जो वेदाध्ययनरत है अथवा उसको जानता है। शास्त्र भी यही कहते है कि ब्राह्मण का मुख्य कर्म वेद का पढ़ना एवं पढ़ाना है। जो प्रजा की रक्षा एवं पालन करता है, वह क्षत्त्र कहलाता है-क्षदति रक्षति जनान् सः क्षत्राः। क्षत्र से अपत्य अथवा स्वार्थ में क्षत्रिय शब्द निष्पन्न होता है। ब्राह्मण ग्रन्थों में भी क्षत्र का अर्थ क्षत्रिय दृष्टिगोचर होता है। वैश्य शब्द की व्युत्पत्ति भी कर्मणा वर्ण व्यवस्था को सूचित करती है। जो विविध व्यवहारिक व्यापारों में प्रविष्ट रहता है, वह वैश्य कहलाता है- यो यत्रा तत्रा व्यावहारिकविद्यासु प्रविशति सः वैश्यः, व्यवहारविद्याकुशलो जनो वा। ब्राह्मण ग्रन्थ के विभिन्न प्रमाण भी वैश्य शब्द की इस

व्युत्पत्ति को प्रमाणित करते हैं। अपने अज्ञान के कारण शोचनीय अवस्था को प्राप्त व्यक्ति शूद्र कहलाता है- शोचनीयः शोच्यां स्थितिमापन्नो वा, सेवायां साधूः अविद्यादिगुणसहितो मनुष्यो वा। तैत्तिरीय ब्राह्मण में

भी शूद्र विषयक यही भाव दिखाई देता है। अविद्या और अज्ञान से जिसकी निम्नजीवन स्थिति रह जाती

है, वह शूद्र है।

महाभारत में धर्मराज युधिष्ठीर भी ब्राह्मणादि वर्णों को परिभाषित करते हुए यह नहीं कहते कि जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न है, वो ब्राह्मण, क्षत्रियकुलोत्पन्न क्षत्रिय, वैश्य कुलोत्पन्न वैश्य तथा शूद्र कुलोत्पन्न शूद्र है। ब्राह्मण के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए महाराज युधिस्थीर कहते हैं कि सत्य, दान,क्षमा, तप, किसी

से घृणा न करना आदि गुण जिस व्यक्ति में दिखाई दें, वह ब्राह्मण है। इसी प्रकार महाभारत में एक अन्य प्रसन्ग में ऋषि भारद्वाज द्वारा ब्राह्मणादि चार वर्णों का स्वरूप पूछे जाने पर ऋषि भृगु उत्तर देते हुए

कहते हैं कि सत्य बोलना, दान देना एवं तप करना तथा द्रोह, ईर्ष्या, घृणा और हिंसा न करना ,ये गुण

जिस व्यक्ति में दिखाई दें, उसे ब्राह्मण जानना चाहिए । क्षत्रिय वर्ण के स्वरूप को बताते हुए ऋषि कहते हैं

कि जो क्षात्रकर्म अर्थात राष्ट्र, समाज एवं पीडितों की रक्षा करता है, वेदाध्ययन एवं दान करता है, उसे

ब्राह्मण जानना चाहिए। व्यापार, पशुपालन, कृषि, दान एवं वेदाध्ययन में संलग्न व्यक्ति को वैश्य जानना

चाहिए।  सर्वभक्षी, सभी कर्मो को करने वाला, पढने में रूचि न रखने वाला, सदाचार हीन एवं अशुचि

व्यक्ति को शूद्र जानना चाहिए ।

उपरोक्त सन्दर्भ में यह तथ्य ध्यातव्य है कि आचार्य भृगु ने यह नहीं कहा कि ब्राह्मणादि वर्णों में उपरोक्त

गुण होने चाहिए, अपितु उनका मन्तव्य है कि सत्यादि गुण जिसमें हो, उसे ब्राह्मण,क्षात्रज गुण जिसमें हो,

उसे क्षत्रिय, व्यापारिक गुण जिसमें हो, उसे वैश्य तथा वेदाध्ययन से विरत तथा सर्वभक्षी आदि गुण सम्पन्न

व्यक्ति को शूद्र जानना चाहिए। इससे भी यही ध्वनित होता है कि वर्ण व्यवस्था कर्माश्रित ही है न कि

जन्मना। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्टरूप से प्रतिपादित किया है कि ईश्वर ने चातुर्वर्ण्य की सृष्टि गुण एवं कर्म के विभाग के आधार पर की है।

शास्त्रों में अनेकत्र यह प्रतिपादित किया गया है कि अपने कर्मों की श्रेष्ठता एवं हीनता के कारण व्यक्ति उच्च एवं निम्न वर्ण को प्राप्त हो जाता है। वेदाध्ययन न करने पर द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रिाय, वैश्य) शूद्रत्व को प्राप्त हो जाते हैं। कालान्तर में वर्ण विभाग कार्य कुशलता एवं वंश परम्परा के आधार पर होता चला गया।

संसार में सभी व्यक्ति गुण एवं सामर्थ्य की दृष्टि से भि पाये जाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्तियों का व्यक्तित्व भी भिन्न होता है। प्रकृति त्रिागुणात्मिका है। ब्राह्मण सत्व गुण प्रधान होताहै। क्षत्रिय में रजोगुण की प्रधनता होती है। मनुष्य रजो गुण की प्रधनता होने पर क्रियाशील एवं शक्तिशाली बनता है। वैश्य में प्रायः रजोगुण एवं तमोगुण समान होते हैं। शूद्र में तमोगुण की प्रधनता मानी गई है।

वर्णव्यवस्था यथार्थ रूप में समाज का कार्मिक एवं चारित्रिक मूल्यांकन है। जिस प्रकार शरीर के सब अंग परस्पर भलीभॉति सम्बद्ध रहते हैं तथा सब अंगों का समान महत्त्व है। किसी भी अंग में होने वाली पीड़ा की प्रतीति समस्त शरीर में होती है। ठीक इसी प्रकार चारों वर्ण परस्पर एक दूसरे पर आश्रित हैं तथा कार्यों में विविध्ता एवं विषमता होने पर भी चारों वर्णों का महत्त्व समान ही है। समाज के किसी भी वर्ण को होनेवाली पीड़ा की अनुभूति समस्त समाज को होनी चाहिए । यही जीवित समाज काल क्षण तथा वर्णव्यवस्था का उद्देश्य है। समाज की उन्नति एवं स्थिरता चारों वर्णों के सह अस्तित्व पर ही निर्भर है। समाज में व्याप्त अज्ञान, अत्याचार, अभाव, वैमनस्यता का समूल रूप से उन्मूलन वेद प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था द्वारा ही सम्भव है।

-तदर्थ प्रवक्ता,

गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय,हरिद्वार

महाभारत में वर्णित वर्णाश्रमधर्म

महाभारत में वर्णित वर्णाश्रमधर्म

डॉ०जयदत्त उप्रैती…..

नातन वैदिक धर्म में चार वर्णों और चार -आश्रमों का विशेष स्थान है। चार वर्ण हैं – ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा चार आश्रम हैं ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। मूलतः इन चार वर्णों का वर्णन ऋगवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में स्पष्टतः हमें उपलब्ध होता है। आश्रमों का भी विभिन्न प्रसंगों में उल्लेख मिलता है। जैसे कि ब्रहमचर्याश्रम और गृहाश्रम या गृहस्थाश्रम का वर्णन चारों वेदों में विभिन्न सूक्तों अथवा मन्त्रों में हम पाते हैं। वानप्रस्थ तथा संन्यास का भी ‘यति’ या ‘यतयः’ शब्द से ग्रहण किया जाता है। तदनन्तर मनुस्मृति, ब्राहमण, आरण्यक और उपनिषद् साहित्य में भी यथा प्रसंग इन वर्णों और आश्रमों का उल्लेख हम पाते हैं। मनुस्मृति में तो चारों वर्णों और आश्रमों के गुणधर्मों और कर्तव्याकर्तव्यों का विस्तार से कथन किया गया है। इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण में भी चातुर्वर्ण्य और चातुराश्रम्य की चर्चा मिलती है। महाभारत नामक विशाल ऐतिहासिक महाकाव्य, पुराण ग्रन्थ और लौकिक संस्कृत साहित्यभास, कालिदासादि महाकवियों के काव्य नाटकादि ग्रन्थों में कदाचित् ही कोई ग्रन्थ बचा हो जहाँ वर्णाश्रम व्यवस्था का उल्लेख न हुआ हो। कहने का तात्पर्य है कि वर्णाश्रमों की वैदिक परम्परा सर्वत्र वैदिक और लौकिक संस्कृतवात्र्मयमें अनुस्यूत दिखाई देती है।

उक्त के परिप्रेक्ष में, इस लेख में महाभारत में वर्णित कुछ प्रसंगों के अनुसार वर्णाश्रमधर्म का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। वर्णों और आश्रमों के सम्बन्ध में यद्यपि सम्पूर्ण महाभारत में अनेक स्थानों में विवरण प्राप्त होता है, तथापि शान्तिपर्व के अनेक अध्यायों में विस्तार से इस विषय पर चर्चा की गई है।जैसे कि महाभारत शान्तिपर्व के साठवें अध्याय से लेकर छियासठवें अध्याय तक चारों वर्णों और चारों आश्रमों के गुण-कर्म-धर्मों का वर्णन विशेष रूप से देखा जा सकता है।यों महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत १८ अध्यायात्मक लघु ग्रन्थ जो सम्प्रति भगवद्गीतानाम से विश्व प्रसिद्ध है, उसके चतुर्थ और अठारहवें अध्याय में सार रूप में चारों वर्णों के नामोल्लेख पूर्वक उनके प्रमुख गुणकर्मों का वर्णन इस प्रकार किया गया है –

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मा विद्धयकर्तारमव्ययम्।।

(भ.गीता-४-१३)

ब्राहमणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।

शमो दमः तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रहमकर्म स्वभावजम्।।

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्मस्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः।

स्वकर्मनिरतः सिद्धम यथा विन्दति तच्छृणु।।

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिम विन्दति मानवः।।

(वही, १८-४१,४२,४३,४४,४५)

अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नामक चारों वर्ण गुणों और कर्मों (कार्यों, व्यवसायों) के भिन्न-भिन्न होने से, मानव सृष्टि के आरम्भ से ही मेरे अर्थात् ईश्वर के द्वारा रचे गये हैं, जिससे कि समाज सुव्यवस्थित रूप

से चल सके। (ज्ञातव्य है कि गीता में ग्रन्थकार द्वारा कृष्ण को ईश्वर रूप में कथित कर ऐसा वर्णन किया

गया है)अतः ईश्वर जो कि सारे जगत् का निर्माता होते हुए भी और कर्मफलों से बद्ध न होते हुए भी निर्लिप्त है। इन वर्णों का भी वेद द्वारा उपदेश और कर्ता माना जाता है। इन चारों वर्णों के गुण, कर्म और स्वभाव इस प्रकार भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं।जैसे कि ब्राहमण के स्वभाव से उत्पन्न गुण-कर्म हैं –मन का निग्रह, इन्द्रियों का निग्रह और दमन, धर्म के पालन करने में सुख-दुःख, हानि-लाभआदि द्वन्द्वों को सहन करना, आन्तरिक और बाह्य रूप से शुद्ध रहना, क्षमा, सरलता, वेदादिशास्त्रों, ईश्वर, परलोक, कर्मफल आदि में श्रद्धा और दृढ़ विश्वास का होना वेदादिशास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन से ज्ञान-विज्ञान को बढ़ाना, आस्तिकता का होना।

क्षत्रिय के गुण-कर्म हैं – शूरवीरता का होना, तेज, धैर्य, स्वकर्म में निपुणता, युद्धकाल में पलायन कर कायरता न दिखाना, दान करना और स्वामित्व अर्थात् राजशासन करने की योग्यता का होना। ये उसके स्वाभाविक गुण माने गये हैं।

वैश्य के कर्म हैं – कृषि करना, गौआदि दुधारू पशुओं का पालन और वाणिज्य-व्यापार द्वारा धनार्जन करना और जनता को आवश्यक वस्तुओं को तद्द्वारा सुलभ कराना।

इसी प्रकार शूद्र जन का स्वाभाविक कर्म है – उक्त तीनों वर्णों की सेवा करना अर्थात् उनके कार्यों में सहायता करना।

ये चारों वर्ण स्वकर्तव्य कर्मों में लगे रहने से संसिद्धि अर्थात् जीवन में सफलता को प्राप्त होते है। वह इस

प्रकार कि जिस ईश्वर ने इस जगत् को रचकर प्राणियों में कर्म करने की शक्ति दे रखी है, उसी ईश्वर को अपने कर्मों को समर्पित करके कर्मसिद्धि प्राप्त की जा सकती है। सच्चे भाव से कर्तव्य कर्मों को करते रहना ही और कर्मफल को ईश्वराधीन मानना ही ईश्वर की आराधना है।

जिस प्रकार मनुस्मृति में ब्राहमण के छः प्रधान कर्म कहे गये हैं – पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना और दान देना तथा यजमानादि से दान-दक्षिणा लेना उसी प्रकार महाभारत में भी वर्णन है। वहाँ पर इतना विशेष कहा है कि क्रोध न करना, सत्य बोलना, मिल बाँट कर खाना, क्षमा का होना, स्वस्त्रीव्रती होना, शुद्ध रहना, किसी से द्रोह न करना, सरलता और सेवक का पालन करना, ये नौ गुण चारों वर्णों में समान रूप से होना वांछनीय है।

(शान्तिपर्वं-६० ७-८) क्षत्रिय के कर्तव्य कर्मों के सम्बन्ध में कहा गया है कि वह दान तो करें किन्तु किसी

से दान लेवे नहीं, यज्ञ अवश्य करें किन्तु पुरोहित बनकर यज्ञ न करावे, शास्त्रों का स्वयं तो अवश्य अध्ययन करें किन्तु औरों को अध्यापन न करावे, प्रजाओं की सब ओर से रक्षा करें और रण में पराक्रम करें। जिस प्रकार ब्राहमण के कर्तव्य कर्मों में स्वाध्याय का स्थान सर्वोपरि है, उसी प्रकार क्षत्रिय के भी कर्तव्य कर्मों में प्रजापालन सबसे बड़ा कर्म है, जिसके कारण वह इन्द्र या ऐन्द्र कहा जाता है –

परिनिष्ठितकार्यस्तु स्वाध्यायेनैव तु ब्राहमणः।

कुर्यादन्यन्न वा कुर्याद मैत्रो ब्राहमण उच्यते।।

परिनिष्ठितकार्यस्तु नृपतिः परिपालनात्।

कुर्यादन्यन्न वा कुर्यादैन्द्रो राजन्य उच्यते।।

वैश्य वर्ण के धर्म के सम्बन्ध में कहा गया है – दान करना, अध्ययन करना, यज्ञ करना, ब्राहमणादिवत्

आचार-व्यवहार शुद्ध रखाना, धन-संचय करना और पशुओं का परिपालन पिता के समान करें। शूद्र वर्ण के

विषय में कहा गया है कि प्रजापति ने शूद्र को ब्राहमणादि त्रैवार्णिकों का दास अर्थात् सेवक बनाया है। उसकी

आजीविका भी उनकी सेवा से ही चलती है। अतः ब्राहमणादि का भी कर्तव्य है कि अन्न-धन-वस्त्रादि देकर

सदा शूद्र को सन्तुष्ट रखें।

महाभारत के अनुसार शूद्र का स्वयं का धन नहीं हुआ करता, किन्तु जिन-जिन की वह सेवा में लगा रहता है, उन्हीं के द्वारा दिये धन से उसका या उसके परिवार का भरण-पोषण होता है। उक्त तीन वर्णों की सेवा ही उसके लिए यज्ञ है और स्वाहाकार-वषट्कार रूप मन्त्र से सम्पन्न होने वाला यज्ञ उसके लिए विहित

नहीं है। किन्तु पाकयज्ञ (बलिवैश्वदेवयज्ञ-२) से अव्रती होकर यज्ञ करना और पूर्णपात्र रूप दक्षिणा ही पाक यज्ञ

में विहित है।

महाभारत में चार आश्रमों का वर्णन

महाभारत, शान्तिपर्व के इकसठवें बासठवें और तिरेसठवें अध्यायों में वर्णाश्रमों का भीष्म पितामह द्वारा

युधिष्ठिर के प्रति किये गये उपदेशों का सारांश इस प्रकार है –

आश्रमाणां महाबाहो श्रृणु सत्यपराम।

चतुर्णामपि नामानि कर्माणि च युधिष्ठिर।।

वानप्रस्थं भैक्ष्यचर्यं गार्हस्थ्यं च महाश्रमम्।

ब्रहमचर्याश्रमं प्राहुश्चतुर्थं ब्राहमणैर्वृतम्।।

जटाधारणसंस्कारं द्विजातित्वमवाप्य च।

आधानादीनि कर्माणि प्राप्य वेदमधीत्य च।।

सदारो वाप्यदारो वा आत्मवान् संयतेन्द्रियः।

वानप्रस्थाश्रमं गच्छेत् कृतकृत्यो गृहाश्रमात्।।

तत्रारण्यकशास्त्राणि समधीत्य स धर्मवित्।

ऊर्ध्वरेताः प्रव्रजित्वा गच्छत्यक्षरसाम्यताम्।।

अर्थात् हे महाबाहु और सत्य पराक्रम वाले युधिष्ठर चारों आश्रमों के नामों तथा कर्मों के विषय को सुना। ब्रहमणों के द्वारा अपनायें जानेवाले चार आश्रम क्रमानुसार इस प्रकार हैं – ब्रहमचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम,

वानप्रस्थाश्रम और भैक्ष्यचर्य (संन्यास) आश्रम। जब उपनयन-वेदारम्भ संस्कार के पश्चात् बाल द्विज बन जाता है और जटाधारण कर ब्रहमचर्याश्रम पूर्णकर गृहाश्रमी वेद पढ़कर और अग्न्याधान कर विवाह संस्कार द्वारा बनता है और गृहस्थाश्रम के सारे धर्म कर्मों को पूर्ण कर लेता है, तब उसको चाहिए कि पत्नी सहित या अकेले ही संयतेन्द्रिय होकर वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करें। वहाँ पर अच्छी प्रकार आरण्यक शास्त्रों का अध्ययन कर धर्मज्ञ बनकर और उर्ध्वरेता होकर जब चाहे प्रव्रज्या अर्थात् सन्यासाश्रम को धारण करें, जिससे कि अविनाशी पर ब्रहम से तादात्म्य स्थापित कर मोक्ष को प्राप्त होवे।

संन्यासाश्रम का अधिकार ब्रहमचर्य का पालन किये हुए और मोक्ष की इच्छा वाले ब्राहमण का ही प्रशस्त है –

चरितब्रहमचर्यस्य ब्राहमणस्य विशाम्पते।

भैक्ष्यचर्यास्वधिकारः प्रशस्त इह मोक्षिणः।।

इसका तात्पर्य हुआ कि हर किसी को संन्यासी बनने का अधिकार नहीं होता। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी

इस चतुर्थआश्रम को धारण करने का अधिकारी नहीं होता, भीष्म का यही कहना है। यथा-

ब्राहमणस्य तु चत्वारस्त्वाश्रमा विहिताःप्रभो।

वर्णास्तान् नानुवर्तन्ते त्रयो भारतसत्तम।।

यदि कोई ब्राहमण है और मन्द बुदधि के कारण अपने निज कर्तव्यों का पालन न कर क्षत्रिय के, या वैश्य

के, या शूद्र के कर्मों को करने लगता है तो वह इस लोक में तो निन्दित होता ही है, परलोक में भी नरक अर्थात् दुःख को प्राप्त होता है।

क्षात्राणि वैश्यानि च सेवमानः शौद्राणि कर्माणि च ब्राहमणः सन्। अस्मिल्लोके निन्दितो मन्दचेताः परे

च लोके निरयं प्रयाति।।

ब्राहमण या विप्र जन्म या कुलमात्र से न होकर विशेष गुणों से होता है और वे गुण हैं – जो दान्त इन्द्रियों

का दान न हो अपितु संयमी हो, सौम्य स्वभाव वाला हो, श्रेष्ठ आचरण वाला, दयावान् हो , सबको सहने वाला हो, अन्य के आशीर्वाद से रहित हो, सरल, मधुरभाषी, अकरुर तथा क्षमावान् हो वही विप्र कहने और मानने योग्य है न कि पाप कर्म करने वाला –

यः स्याद्  दान्तः सौमपश्चार्यशीलः, सानुक्रोशः

सर्वसहायनिराशीः। ऋमृदुरनृशंसः क्षमावान् स वै

विप्रो नेतरः पापकर्मा।।

परन्तु महाभारत में राजा की अनुमति से वैश्यों और शूद्रों को भी गृहस्थ और संन्यासाश्रम को अपनाने का विधान हैं। क्षत्रियों को विशेषतः क्षत्रिय राजाओं के लिए भी विधिवत् गृहस्थाश्रम का और राजधर्म का

परिपालन करने के पश्चात् आयु के तृतीय-चतुर्थ अवस्था में अरण्यवास या संन्यास आश्रम को अपनाने को

धर्मानुसारी कार्य माना है, किन्तु उस दशा में भैक्ष्यचर्या करते हुए जीवन-निर्वाह तो वह कर सकता है परन्तु

किसी की सेवा या दास बनकर जीविका नहीं चला सकता। उल्लेखनीय है कि भारत के इतिहास के अनुसार

प्राचीनकाल में राजा महाराजा लोग प्रायः जीवन के उत्तराद्धकाल में वानप्रस्थ या संन्यासआश्रम को

धारण करते थे, जिसका वर्णन महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में रघुवंशी राजाओं के सम्बन्ध में इस

प्रकार किया है –

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।

वार्ह्के मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।

रघूणामन्वयं वक्ष्ये तनुवाग्विभवोऽपि सन्।

तद्गुणैःकर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितः।।

इस श्लोक में महाकवि ने ब्राहमणों के समान ही क्षत्रिय राजाओं के लिये ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और

संन्यास नामक चारों आश्रमों का अनुपालन का वर्णन किया है। महाभारतोक्त-वर्णन भी यही दर्शाता है।

वर्णाश्रम-व्यवस्था के सम्बन्ध में महाभारत के पूर्वोक्त वर्णनों के प्रसंग में भीष्म का यह कथन भी ध्यान

देने योग्य है कि जिस प्रकार हाथी के पाँव तले सबके पाँव समा जाते हैं, उसी प्रकार सबसे बड़ा जो राजधर्म

होता है, उसके अन्तर्गत सभी वर्णाश्रमादि धर्मों का अस्तित्व हुआ करता है, राजधर्म अथवा दण्डनीति के विना तो न वेद बच सकता है और न वेदोक्त धर्म-कर्म और वर्णाश्रम धर्म ही बच सकते हैं। अतः राजधर्म का ठीक से संचालन ही इन सब धर्मों की रक्षा का आधार है-

यथा हस्तिपदे पदानि संलीयन्ते सर्वसत्वोद्भवानि।

एवं धर्मान्र राजधर्मेषु सर्वान् सर्वावस्थान् सम्प्रलीनान् निबोध।।

सर्वे धर्मे राजधर्मप्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति।

सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजन् त्यागं धर्मं चाहुरग्य्रं पुराणम्।।

मज्जेत्त् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्मा प्रक्षयेयुर्विवृहः।

सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः स्युः क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे।।

यह महाभारत काल में वर्णाश्रम धर्म का संक्षेपतः चित्रण है। वर्तमान स्थिति सर्वथा उलट गई है, जैसे जन्म मूलक अथवा जाति के नाम से वर्ण व्यवस्था चल पड़ी और आश्रम-व्यवस्था भी टूट गई, तब से सनातन

वैदिक धर्म को मानने वाले समाज का सारा ताना-बाना ही विच्छिन्न हो गया है। केवल जाति के नाम से ऊँच-नीच के भेद भाव से आपस में भारी कटुता और विद्वेष को ही बढ़ाया है। आश्रमों की व्यवस्था भी दोषपूर्ण हो गई। आर्य समाज के क्षेत्र में व्यक्तिगत स्तर में यह आश्रम-व्यवस्था गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति और महर्षि

दयानन्द की शिक्षाओं के आधार पर कुछ-कुछ चल रही है। परन्तु वर्ण व्यवस्था तो राज-शासन के वेदानुकूल

चलने पर ही सम्भव है, गुण-कर्म-स्वभावानुसार चलना। यों तो आज भी ब्राहमणादि वर्णों के नाम लिये बिना ही वह अस्त-व्यस्त रूप में कुछ न कुछ चल ही रहा है।इत्यलं प्रसक्तानुप्रसक्तेन।

– स्वस्त्ययन, तल्ला, थपलिया,

अल्मोडा

वानप्रस्थ और संन्यास विषयक शंका-समाधान

वानप्रस्थ और संन्यास विषयक शंका-समाधान

श्रीउदयनाचार्य.

वेदिकों को वेद परम प्रमाण है। वेद जो कहता- है वही प्रामाणिक है, वैदिक है, मान्य है अन्यथा वह अप्रामाणिक है, अवैदिक, अमान्य है। परन्तु इस मान्यता के साथ वेद की वर्ण-शैलियों पर गौर करना होगा और उन्हें जानना भी होगा। केवल किसी एक शैली के आधार पर किसी विषय को अवैदिक व अप्रामाणिक

कहना शीघ्रता वा अज्ञता होगी। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के विषय में कुछ ऐसा ही दीखता है। क्योंकि

ब्रहमचर्य एवं गृहस्थ का नामतः जैसा स्पष्ट उल्लेख वेद में मिलता है, वैसा वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम का

उल्लेख नहीं मिलता । इतने मात्र से इन्हें अवैदिक कहना उचित न होगा। वैसे तो आश्रम शब्द भी वेदों में नहीं मिलता। तो क्या आश्रम व्यवस्था को ही अवैदिक माना जाये?  कदापि नहीं। बौधायन-धर्मसूत्र में कहा गया है कि-

‘आश्रमादाश्रममुपनीय ब्रहमपूतो भवतीति विज्ञायते’

(बौ.धर्म.सू. २.१०.१५ )अर्थात् एक आश्रम से दूसरे आश्रम में प्रवेश करते हुए पुरुष ब्रहम के साथ एक हो जाता है, ऐसा वेदों में कहा गया है। वेदों में कहीं भी आश्रम शब्द ही उपलब्ध नहीं होता, पुनरपि कहा जा रहा है कि आश्रम व्यवस्था वेदों में विद्यमान है। क्योंकि केवल श्रुति मात्र ही प्रमाण नहीं, अपितु लिन्गादि भी प्रमाण हैं, मान्य हैं-

श्रुतिलिवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये

(मीमांसा.३.३.१४)। केवल श्रुति को ही प्रामाणिक माना जाय, लिन्गादि को नहीं, तो पाणिनि के सूत्रों में

प्रतिपादित बहुत से महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों (परिभाषा आदियों) को भी अप्रामाणिक मानना होगा। जो कि इंगित,

चेष्टित मात्र हैं, शब्द-प्रतिपादित नहीं हैं। सो कदापि सम्भव नहीं है।

वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक माना जाता है और उसमें आध्यात्मिक, योग, दर्शन, व्याकरण,

निरुक्त, सृष्टि विज्ञान, परमाणु विज्ञान आदि अनेक विद्यायें विद्यमान हैं, ऐसा माना जाता है। तो क्या वे सब (सत्य) विद्याएँ नामतः स्पष्ट रूप से प्रतिपादित हैं वा संकेतित हैं? वेद रहस्यमय हैं, इनमें अधिकांश विषय परोक्षतः गूढ रूप से प्रतिपादित हैं, संकेतित हैं, ऐसा सभी विद्वानों की मान्यता है, पुनरपि केवल वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के विषय में उन शब्दों को ढूँढने का आग्रह क्यों किया जाता है? यदि प्रत्येक विषय वेदों में शब्दशः प्रतिपादित हो, तो पुनः ब्राहमण, निरुक्त, व्याकरणादि शास्त्रों की आवश्यकता ही क्या है? वेद के शब्द रूढि नहीं हैं, अतः वेद में मिल नहीं सकते।कहा भी गया है –

‘अवधूताश्रमो देवि कलौ संन्यास उच्यते’

(महानिर्वाणतन्त्र- ८.२२१)। यहाँ यह भी ज्ञात होता है कि संन्यास शब्द कलियुग से ही प्रचलित हुआ है। अतः

उससे पूर्वकालिक साहित्य में संन्यास शब्द के स्थान पर परिव्राट, यति आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। संन्यास एवं

वानप्रस्थ शब्द नवीन होते हुए भी इन आश्रमों का अस्तित्त्व, कर्तव्य, नियम, धर्मआदि तो वेदों में उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं संन्यास के समानार्थक यति, मुनि, तुरीय (यजु.१८.३) शब्द एवं वानप्रस्थ के वाचक मुनि, तपः आदि शब्द वेदों में मिलते ही हैं, उन्हीं से इनकी वैदिकता सिद्ध होतीहै।

इन दोनों आश्रमों की अवैदिकता की पुष्टि में एक प्रबलतम प्रमाण के रूप में मन्त्र उपस्थित किया जाता है कि ‘ (इहैव स्तम्) हे वर-वधू! तुम दोनों यहाँ (गृहाश्रम में) ही रहो, (मा वि यौष्टम्) कभी वियुक्त मत होओ, (स्वस्तकौ) उत्तम घरवाले तुम दोनों (क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ) पुत्र, पौत्र आदि के साथ खेलते हुए, प्रसन्न होते हुए, (विश्वमायुर्व्यश्रुतम्) पूर्ण आयु (सारी) को प्राप्त करो (अथर्व. १४.१.२२ ,ऋ १०.८५.४२ )। अथर्व. १४.२.६४ में भी यही भाव निहित है।

इन मन्त्रों को देखने से एक स्वाभाविक सन्देह वा आक्षेप उठता है कि सारी आयु अर्थात् विवाह से लेकर आजीवन गृहस्थाश्रम में ही रहना है, वानप्रस्थ एवं संन्यास की दीक्षा नहीं लेनी है। अर्थात् ये दोनों ही आश्रम अवैदिक हैं, वेदविरुद्ध हैं। यह आक्षेप ‘विश्वमायुः’ के कारण ही उठता है, नहीं-नहीं उसके अर्थ-एक देश से। क्योंकि यह सर्व सम्मत मत है कि जन्म से मृत्युपर्यन्त की कालावधि को आयु कहा जाता है। अतः यहाँ

आक्षेप यह उठना चाहिए कि जन्म से मृत्युपर्यन्त का काल गृहाश्रम की अवधि है और आयु शब्द के साथ सर्वशब्दार्थक विश्वशब्द के प्रयोग से यह भी ज्ञापित होता है कि आजन्म-मरण की कालावधि में गृहाश्रम के

अतिरिक्त अन्य ब्रहमचर्याश्रम आदि को कोई अवकाश ही नहीं है। अतः शेष तीनों आश्रम अवैदिक हैं। परन्तु ऐसा समझना सर्वथा अविवेकता होगी। यतोहि विवाहार्थ ब्रहमचर्याश्रम नितान्त आवश्यक ही नहीं अपितु वेदों में स्पष्ट रूप से विहित भी है। अतः इसका अपलाप किया जाता है। तो आक्षेपकर्त्ताओं को भी यह संकुचित अर्थ अभीष्ट ही है। जब अर्थ का संकोच स्वीकृत हो गया तो उसे और भी अधिक संकुचित किया जा सकता है। क्योंकि वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों की भी विधियाँ वेदादियों में मिलती हैं। उनका भी अपलाप नहीं किया जा सकता। अतः ‘विश्वमायुः’ का अर्थ गृहाश्रम की कालावधि सम्बन्धित सारी आयु ही करना चाहिए। यही अर्थ आर्ष परम्परा के अनुकूल है। अब आगे विश्व व सर्वशब्दों के संकुचित अर्थ का औचित्य निरूपित किया जाता है।

सर्व व विश्वशब्दों को समझने में अत्यन्त सावधान रहना चाहिए। अन्यथा महान् अनर्थ घटित हो सकते हैं। क्योंकि ये शब्द सोपाधिक व प्राकरणिक हैं। महर्षि जैमिनि मुनि ने कहा भी है ‘सर्वत्वमाधिकारिकम्’

(मीमांसा.१.२.१६) अर्थात् (सर्वत्वम्) सर्वपन, सम्पूर्णता (आधिकारिकम्) औपचारिक, प्राकरणिक है। जैसे-

‘पूर्णाहुत्या सर्वान् कामानवाप्नोति’ (तै.ब्रा.३.८.१०.५) अर्थात् पुर्णाहुति से सभी कामनाओं को प्राप्त करता है।इससे शेष यागों की अननुष्ठान आपत्ति आवेगी। जैसे कि प्रकृत प्रसंग में ‘विश्वमायु’ के कारण अग्रिम आश्रमों का अभाव हो रहा है। इसके विना प्राप्त नहीं होता। ऐसा कहकर पूर्णाहुति की स्तुति की गई है और वह वाक्य

‘पूर्णाहुत्या जुहोति’ (तै.ब्रा.३.८.१०.५) का शेषभूत वाक्य, न कि विधि वाक्य। स्पष्टता के लिए और एक उदाहरण

देता हूँ – ‘सर्वः ओदनो भुक्तः, सर्वेब्राहमणा भुक्तवन्तः’ (मीमांसा-शाबरभाष्यम्.३.५.१०) अर्थात् ‘सारा चावल खाया गया, सभी ब्राहमणों ने भोजन कर लिया है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं होता है कि संसार भर का सारा चावल खाया गया और संसार के सारे ब्राहमणों ने भोजन कर लिया। यदि कोई ऐसा ही अर्थ समझता है तो उसे बालबुद्धि ही कहा जायेगा। इससे स्पष्ट है कि असर्व में सर्वशब्द का प्रयोग प्राकरणिक है

‘असर्वेषु सर्ववचनमधिकृतापेक्षम्’

(शाबरभाष्यम्.१.२.१६ )

सर्वशब्द का व्यापक अर्थ कारणान्तरों से कैसे-कैसे संकुचित किया जाता है, एतदर्थ अन्य एक प्रसंग प्रस्तुत करता हूँ। राजाओं के लिए विहित ‘विश्वजित्’ याग में कहा गया है कि ‘विश्वजिति सर्वस्वं ददाति’

(द्र.आप.श्रौत.१७.२६.१२,१३) अर्थात् विश्वजित याग में सर्वस्व दान करें। तो यहाँ सन्देह होता है कि क्या

अपना सर्वस्व अर्थात् माता-पिता आदि आत्मीयजन, भूमि (सम्पूर्णराज्य), घोड़े, शूद्रादि सेवक और भूत एवं

भविष्यत् का सम्पूर्ण ऐश्वर्य का दान करना चाहिए? इसका समाधान मीमांसा दर्शन (६.७.१. से ३० तक).में

किया गया है कि माता, पिता, भूमि, घोड़े, सेवक आदि नहीं देने चाहिए, वहीं देने चाहिए जो दक्षिणा काल में

विद्यमान है – ‘दक्षिणाकाले यत् स्वम् तत् प्रतीयते तद्छान संयोगात्’ (सूत्रम्-७)। कोई (कृपण यजमान)

दक्षिणा-काल में एक ही गाय ४ को रखकर न देने लग जाय, इसके लिए आगे फिर कहा कि ११२ गाय ४ अथवा उससे अधिक देवें। जिसके पास ११२ गाय नहीं है, उसे विश्वजित् याग करने का अधिकार ही नहीं है

(सूत्र १९) । यहाँ अनेकों कारणों से सर्वस्व दान को ११२ गाय तक सीमित कर दिया गया है। वैसे ही प्रकृत प्रसंग में ‘विश्वमायुः’ का अर्थ ब्रहमचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों की कालावधि को छोड़कर अवशिष्ट अर्थात् २५ वर्ष की अवस्था सें ५० वें वर्ष तक (यह एक सामान्य कथन है, न्यूनाधिक हो सकता है) ही लेना चाहिए।

उनके भाष्यों में तो संन्यासाश्रम का अस्तित्व स्पष्ट रूप से दीखता है। परन्तु लोगों को अन्धानुकरण

को छोड़कर निष्पक्ष भाव से विचार करना होगा, देखना होगा। अस्तु, प्रकृतमनुसरामः।

पाँच अपराधों के कारण देवताओं ने इन्द्र को यज्ञों में आना प्रतिषिद्ध कर सोमपान का वर्जन किया था

(द्र.ऐ.ब्रा.७.२८)। उन्हीं अपराधों में से एक अपराध है कि इन्द्र ने यतियों को मारकर, उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर,

भेड़ियों, जंगली कुत्तों को खिला दिया था। यही प्रसंग बहुत्र आता है। उनमें से कुछ स्थल सायण भाष्य के साथ उपस्थित किये जा रहें हैं –

.इन्द्रो यतीन् साला वृकेभ्यः प्रायच्छत्;

. वेदविरुह्नियमोपेतान् यतीन्

. (यतीन्=) कर्मविरोधजनान् सालावृकीपुत्रेभ्यःइन्द्रो दत्तवान् ;

. (यतीन्=) ज्योतिष्टोमाद्यकृत्वा प्रकारान्तरेण वर्तमानान् ब्रह्मणान् सालावृकेभ्यः= अरण्यश्वभ्यः प्रायच्छत् ।

. (यतीन्=) यतिवेषधरानसुराञशस्त्रेणच्छित्त्वा……;

. परमहंस्यरूपं (पारमहंस्यरूपं) चतुर्थाश्रमं प्राप्तानां

येषां यतीनां मुखे ब्रहमत्मप्रतिपादको वेदान्तशब्दो

नास्ति तान् यतीनिन्द्र आरण्येभ्यः श्वभ्यः प्रायच्छत्…..

तथा च स्मर्यते ‘नित्यकर्म परित्यज्य

वेदान्तश्रवणं विना। वर्तमानस्तु संन्यासी पतत्येव

न संशयः’ इति।।….वेदान्तश्रवणवाञछां विना

नित्यकर्म परित्यक्तवतां भवतामपीदृशीगतिरिति

दर्शयितुं वेदिसमीपे (सालावृकैः) भक्षणम्

. केचन् यतयः सर्वकर्मसंन्यासं कृत्वा कदाचिदपि

स्वमुखे वेदान्तशब्दोच्चारणरहिताः

काष्ठदण्डमात्रधारिणो विवेकज्ञानरहिता यत्र

तत्रान्नं भक्षयन्तो नरकयोग्या वर्तन्ते। यथा चान्यत्

श्रूयते ज्ञानदण्डो धृतो येन एक दण्डीसः (संन्यासी)

उच्यते। काष्ठदण्डो धृतो येन संन्यासी

ज्ञानवर्जितः। स याति नरकान् घोरान्

महारौरवसंज्ञकानिति। सालावृका आरण्यश्वानः,

तेषामपत्यभूता बालकाः श्वानः

सालवृकेयास्तेभ्यस्तान् यतीन् इन्द्रो मारणार्थं

प्रायच्छत्। तेच यतयो वेदान्तशब्दरहिता

इत्ये तदर्थ मिन्द्र वाक्यरूपेण कौशीतकिन

श्चामनन्ति। अत्युन्मुखान् यतीन् सालावृकेयेभ्यः

प्रायच्छदिति। तथादत्तवन्तं तमिन्द्रं अश्लीला

निन्दारूपा काचिद् वागभ्यवदत्। इन्द्रो ब्रहमहत्यां

कृतवानित्येवं निन्दा लोके सर्वत्र प्रसूता। ततःस

इन्द्रः स्वयमशुद्धोऽस्मीत्यमन्यत।

सोऽशुह्पिरिहारोपायं वेदेष्वपि स्थिते

शुद्धाशुद्धियनामके द्वे सामनी अपश्यत्। ताभ्यां

सामभ्यां सर्वः शुद्धोभूतः ;

इन्द्र द्वारा यतियों का मारा जाना आदि एक आख्यान मात्र है। इसके अभिप्राय का स्पष्टीकरण सायण

ने तै.तं. २.४.९.२ पर दिया है और ताण्डय ने तो इस आख्यान को शुद्धाशुद्धिय साम का प्रशंसात्मक माना है।

उद्धृत वचनों से सायण का मत विस्पष्ट है कि जो कालाक्षर भैंस बराबर हो, निरक्षर भट्टाचार्य हो, भोजन भट्ट

हो और पवित्र ब्रहमसंस्थ ज्ञानवान् सन्यासियों का वेष धारण कर लोगों को ठगता हो, झूठे संन्यासी बनकर

वैदिक कर्म-धर्मों को छोड़ दिया हो और आलसी बनकर यज्ञों को त्यागना ही नहीं, अपितु यज्ञों का विरोध भी

करता हो, ऐसी आसुरी प्रवृत्ति वाला यति है। नहीं-नहीं वह तो यति वेषधारी मात्र है। यथार्थ में संन्यासाश्रम के

धर्मों का पूर्णनिष्ठा एवं श्रद्धा से पालन करने वाले, ज्ञानरूपी दण्डधारी, सच्चे संन्यासी विद्यमान होने पर ही

उनके नकल करने वाले तथा कथित संन्यासियों (यतिवेषधारियों) का कथन सम्भव होगा, अन्यथा नहीं। जैसे कि रामायण के रावण प्रसंग पर लिख चुका हूँ। ‘चतुर्थाश्रमं प्राप्तानां येषां यतीनां मुखे’ यहाँ क्या यति

का अर्थ संन्यासी किया नहीं गया है ? तां. ब्रा.१९.४.७ के उद्धरण में भी स्पष्टरूप से यति का अर्थ संन्यासी ही

माना गया है। अब कोई विचार करें – सायण ने कहाँ लिखा है कि यति का मतलब इन्द्रविरोधी संगठन है वा

कोई जाति विशेष है। सायण ने तो इन वचनों में मुक्तकण्ठ से सच्चे संन्यासाश्रम को स्वीकारा है और साथ में झूठे संन्यासियों को लताड़ा भी है। पुनरपि कोई सायण को संन्यासाश्रम का विरोधी बतावें और उनके भाष्य के आधार पर संन्यासआश्रम को अवैदिक कह दें तो उनके लिए ‘अन्धेन नीयमानो यथान्धः’ के अतिरिक्त और

कुछ कहने को शेष नहीं रहता। सो प्रकृत मन्त्र का अर्थ निम्न प्रकार समझना चाहिए-

हे वर-वधु! तुम दोनों का इस गृहाश्रम में वियोग न होवे और गृहाश्रम की जो अधिकृत, नियत आयु

(कालावधि) है, उसमें तुम्हारी मृत्यु (वियोग) न हो अर्थात् गृहाश्रम की सम्पूर्ण आयु (काल) को प्राप्त करो।

इस मन्त्र का सामान्यतया जो शाब्दिक अर्थ सभी लोग करते हैं, उसी का आदर करते हुए उक्त समाधान दिया

गया है। परन्तु इस मन्त्र का महर्षि दयानन्द कृत अर्थ (सं.विधि के गृहाश्रम.मन्त्र-२) भी द्रष्टव्य है। वहाँ स्पष्ट

ही लिखा गया है कि विवाह में कृत प्रतिज्ञा में तत्पर रहो, उस प्रतिज्ञा से वियुक्त मत होओ और ब्रहमचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए अपनी सम्पूर्ण आयु (१०० वर्ष) को प्राप्त करो। न कि यह लिखा गया है कि इसी गृहास्थाश्रम में रहो, इस आश्रम से वियुक्त मत होओ और इसी आश्रम में सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करो। विवाह में कृत प्रतिज्ञा का भी स्पष्टीकरण अनुपद ही लिखा जाएगा।

आक्षेप – गृहस्थाश्रम को त्याग कर वानप्रस्थादि को यदि स्वीकार करना है तो निम्न पंक्तियों की संगति

कैसे लगेगी? अथवा निम्न पंक्तियों से सिद्ध होता है कि गृहस्थाश्रम को त्यागना नहीं चाहिए अर्थात् वानप्रस्थआदि की दीक्षा नहीं लेनी चाहिए। वे पंक्तियाँ हैं – पाणिग्रहण (प्रतिज्ञाविधि) का तृतीय मन्त्र ‘ममेयमस्तु’ (अथर्व.-१४.१.५२) कहता है कि ‘मया पत्या प्रजावति सं जीव शरदः शतम्इसका अर्थ महर्षिदयानन्द लिखते हैं- ‘तू मुझ पति के साथ सौ शरद् ऋतु अर्थात् शतवर्ष पर्यन्त सुखपूर्वक जीवन धारण कर……….हे भद्रवीर! आप (पति) मेरे (पत्नी के) साथ सौ वर्ष पर्यन्त आनन्द से प्राण धारण कीजिए’

(संस्कारविधिः)। वैसे ही अरुन्धती-दर्शन के पश्चात् ध्रुवीभाव-आशंसन के द्वितीय मन्त्र –ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा…’ (पा.गृह.१.८.१९) के भाष्य में स्वामी जी लिखते हैं कि ‘हे स्वामिन्!……सदा के लिए मेरे साथ आप दृढ़ रहियेगा……मुझ पत्नी के साथ…….सौ वर्ष पर्यन्त जीविये, तथा हे वरातने पत्नी!….तू मुझ पति के साथ….सौ वर्ष पर्यन्त आनन्दपूर्वक जीवन धारणकर’ (संस्कारविधिः)। गृहाश्रम प्रकरण के मन्त्र-६ (आरोह तल्पं….) के अर्थ में स्वामी जी लिखते हैं- (इह) इस गृहाश्रम में स्थिर रहकर….’।

समाधान– इसका समाधान देने से पूर्व यह जानना चाहूँगा कि मानलिया यदि हम इन पंक्तियों की

संगति नहीं लगा पाये तो क्या वेद, ब्राहमण, उपनिषद् और मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में इन दो आश्रमों की पुष्टि में जो वचन मिलते हैं, वे सबके सब अप्रामाणिक हैं? क्या महर्षि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का वह आदर्शभूत संवाद, ब्रहमतत्वबोधक संवाद व्यर्थ का वार्तालाप (गप्प) मात्र है? जिसमें संन्यास लेने का स्पष्ट उल्लेख है। सं.विधि के वानप्रस्थ एवं संन्यास प्रकरण में ‘अत्र प्रमाणानि’ कहकर जिन मन्त्रों को उद्धृत कर महर्षि ने उनका जो अर्थ किया है, क्या वह प्रमादजन्य है? स्वामी जी ने अपने वेदभाष्य में तथा अन्य ग्रन्थों में पचासों जगह इन दोनों आश्रमों वा धर्मों का उल्लेख किया है, क्या वे सब प्रलाप मात्र हैं? क्या महर्षि के कथनों में परस्पर विरोध है?

उद्धृत वचनों में सन्देहजनक शब्द तीन हैं – १.सदा, २. ध्रुव (दृढ़रहना), ३.सौ वर्ष तक मिलकर रहना।

अब इन पर क्रमशः विचार करते हैं। ‘सदा’ शब्द ‘सर्व’ शब्द से बनता है – सर्वस्मिन् काले=सर्वदा, सदा। और सर्व शब्द प्राकरणिक है, प्रासंगिक है, यह पहिले ही विस्तृत रूप से लिख चुका हूँ। प्रकृत संगत के लिए भी पुनः एक उदाहरण उद्धृत करता हूँ – ‘सः सदा हसति, सः सदा जल्पति’ अर्थात् वह सदा हँसता है, वह सदा बातें (गप्प) करता रहता है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वह सदां अनादिकाल से अनन्तकाल तक अथवा जीवन भर अहर्निश हँसता ही रहता है, बोलता ही रहता है, खाना, पीना, सोना आदि नहीं करता। अपितु अपेक्षाकृत अधिक हँसता है, अधिक बोलता है, यही उसका अर्थ है। वैसे ही प्रकृत प्रसंग में भी ‘सदा’ का अर्थ अनाद्यनन्तकाल तक अथवा यावज्जीवन (मिलकर रहना) नहीं है, अपितु गार्हस्थ्य जीवन (काल) में वर-

वधुओं का वियोग न हो, मिलकर रहने का दृढ़ संकल्प दोनों में हो।

ध्रुव (स्थिर,दृढ़) शब्द विषयक सन्देह का समाधान उसी प्रसंग के प्रथम मन्त्र में ही है। मन्त्र है –‘ध्रुवा द्यौर्ध्रुवा पृथिवी ध्रुवं विश्वमिदं जगत्। ध्रुवासः पर्वता इमे…..(मन्त्रब्रा२ण-१.३.७)। क्या इस मन्त्र का अर्थ यही है कि द्यौ, पृथिवी, सम्पूर्ण जगत् और ये पर्वत सभी ध्रुव अर्थात् अनादिकाल से अनन्तकाल तक ऐसे ही स्थिर वा दृढ़ रहते हैं, वैसे ही तुम दोनों वर-वधू स्थिर रहो। जहाँ तक समझता हूँ, पाठकों का समाधान नहीं में ही रहेगा। तो इसका तात्पर्य यह है – जैसे द्यौ आदि का प्रलय (नाश) होने तक अपने अस्तित्व में स्थिर, ध्रुव

रहते हैं, अपने नियमों से विचलित नहीं होते हैं, वैसे ही तुम (वर-वधु) भी अपने गार्हस्थ्य जीवन में, प्रतिज्ञा में स्थिर रहो, कृत प्रतिज्ञाओं से विचलित मत होना। यहाँ स्वामी जी के ये शब्द विशेषतः ध्यान देने योग्य हैं – ‘ये प्रत्यक्ष पहाड़ अपनी स्थिति में स्थिर हैं….।….वधू-वर ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा करें कि जिससे कभी उलटे विरोध में न चलें’ (सं.विधिः)|

सौ वर्ष तक मिलकर रहने की संगति के विषय में कुछ कहने से पूर्व मैं यह जानना चाहूँगा कि विवाह के

समय तक वधू-वरों का लगभग २०-२५ वर्ष (आयु का एक प्रथम चरण) बीत चुके होते हैं। फिर यहाँ आक्षेपकर्त्ता सौ वर्ष की संगति कैसे लगायेंगे? वस्तुतः यहाँ ‘तलकौण्डिन्यन्याय’ से सारी विसंगतियाँ दूर हो जायेंगी। अर्थात् ‘ब्राहमणेभ्यो दधि दीयताम्, कौण्डिन्याय तु तक्रं दीयताम्– सभी ब्राहमणों को भाजन में दही परोसा जाय, परन्तु कौण्डिन्यब्राहमण को छाछ दिया जाय। पहिले सामान्य रूप से दधि-परिवेषण की विधि है और बाद में तल-परिवेषण की विशेष विधि। तो विशेष विधि द्वारा सामान्य विधि बाधित हो जाती है। इसी को व्याकरण की भाषा में कहा जाता है उत्सर्ग (सामान्यविधि) अपवाद (विशेषविधि) के द्वारा बाधित होता है अर्थात् अपवाद के कार्य क्षेत्र को छोड़कर उत्सर्ग की प्रवृत्ति होती है।ंवैसे ही यहाँ ‘सौ वर्ष तक मिलकर रहना’ यह उत्सर्ग विधि है,जो कि वक्ष्यमाण वानप्रस्थ एवं संन्सास की अपवाद विधि से बाधित हो जाती है। अर्थात् सौ वर्ष का कथन अग्रिम आश्रमों के कालावधि को छोड़कर अवशिष्ट गार्हस्थ्य काल को ही लक्षित करता है। इस सम्पूर्ण समाधान का आशय यही है कि स्वामी जी के उद्धृत वचनों का तात्पर्य गार्हस्थ्य जीवन व गृहाश्रम

की मर्यादा में ही है। उन वचनों का वाचनिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है, अन्यथा महर्षि के कथनों में परस्पर

विरोधदोष अपरिहार्य हो जायेगा।

आक्षेप– संन्यास की दीक्षा पद्धति बौद्धो से आई है, अतः यह आश्रम अवैदिक है।

समाधान– पहिले तो यहाँ यह जानना चाहूँगा कि इस आक्षेप का तात्पर्य क्या बाह्यचिन्ह अर्थात् शिखाच्छेदन, यज्ञोपवीत का त्याग, काषायवस्त्रधारण आदि बौद्धो से आये हैं, यह है? अथवा यह आश्रम बौद्धो से पूर्व नहीं था, नूतनतया उन्हीं से प्रारम्भ हुआ? यदि आपेक्षकर्ताओं को पहिला तात्पर्य अभिप्रेत है तो यह एक

सर्वथा गलत धारणा है। क्योंकि इन आश्रमों का प्रधानतया अन्तः साधना से सम्बन्ध है, न कि बाह्यचिन्हो

से। वे तो केवल तत्तदाश्रमों के द्योतक मात्र हैं। भागवत पुराण में कहा भी गया है-

मौनानीहानिलायामा दण्डा वाग्देहचेतसाम्।

न ह्येते यस्य सन्त्यग वेणुभिर्न भवेद् यतिः।।

(११.१८.१७.)

अर्थात् वाणी, देह और मन का क्रमशः मौन, अनिच्छा और प्राणायाम ही दण्ड (दण्डा) हैं। दण्डरूप

मौनादि जिसके पास नहीं है, वह बाँस के दण्डधारणमात्र से संन्यासी नहीं होता।

यदि द्वितीय तात्पर्य अभिप्रेत है तो निम्न प्रश्नों का उत्तर देना होगा। १. आश्रमों को गृहस्थ व वानप्रस्थ

तक ही सीमित करने में क्या प्रमाण है? २. ‘आश्रम दो वा तीन ही हैं’ ऐसा कहीं उल्लेख है? ३. चतुर्थाश्रम

बौद्धो से ही प्रारम्भ हुआ है, उससे पूर्व नहीं था, इसमें क्या प्रमाण है? ४. क्या बुद्ध के समय से ही प्रारम्भ हुआ या बाद में? ५. यदि बाद में हुआ तो कब से? ६. बुद्ध के जन्मे लगभग ढाई हजार वर्ष हुए, उससे बहुत पूर्वकाल से ही प्रचलित ब्राहमण एवं उपनिषद् आदि ग्रन्थों में उपलब्ध स्पष्ट वचन क्या असत्य हैं? अथवा ७. ब्राहमणादि ग्रन्थ बुद्ध के बाद के हैं?

इस आक्षेप के समाधानार्थ मैं यहाँ उन प्रमाणों को प्रस्तुत करता हूँ, जो बुद्ध से पर्याप्त प्राचीन हैं।

त्रेतादौ केवला वेदा यज्ञा वर्णाश्रमास्तथा।।

(महा.शान्ति.-२३८.१४)

ऋषयो यतयो ऽेतन्नहुषे प्रत्यवेदयत्।।

(महा.शान्ति.-२६५.४५)

यहाँ ‘ऋषयः’ के ‘यतयः’ विशेषण से प्रकृत आक्षेप तो परिहृत होता ही है, साथ में ‘कोई भी ऋषि संन्यासी नहीं था’ इसका भी परिहार हो जाता है। ऐसे ही महर्षि याज्ञवल्क्य के प्रसंग (बृ.उप.२.४.१,४.५.२) से भी दोनों आक्षेपों का समाधान जानना चाहिए। ‘तदासाद्य दशग्रीव क्षिप्रमन्तरमास्थितः। अभिचाम वैदेही परिव्राजकरूपधृत्।। श्लक्ष्णकाषायसंवीतः शिखी छत्री उपानही। वामे चांसेऽवसज्याथ शुभे यष्टिकमण्डलू। परिव्राजकरूपेण वैदेहीं

समुपागमत्।।(रामायण, अरण्य.-४६.२-३)। ये सीतापहरण प्रसंग के श्लोक हैं। यहाँ स्पष्ट रूप से रावण

के बहूदक संन्यासी………. के रूप में आने का वर्णन है। जिसमें काषायवस्त्रों का भी उल्लेख है। रामायण के

काल में भी संन्यासाश्रम का प्रचलन था, तभी तो रावण उसी वेष में आया और सीता को भी संन्यासी का भ्रम हो गया। फलतः सीता ने संन्यासी (रावण) को अन्दर बुलाकर………….ब्राहमणवद् पाद्य, अर्घ्य आदि से आतिथ्य किया था (द्र.वहीं-४६.३४-३५)।

आक्षेप-संन्यासाश्रम का अन्तर्भाव वानप्रस्थ के अन्तर्गत ही हो सकता है। क्योंकि संन्यासी के जो भी

धर्म, नियम, कर्तव्यादि होते हैं, वे सब वानप्रस्थी को भी करनापड़ता।अतःसंन्यासाश्रमकोएकपृथक्आश्रम

मानने की आवश्यकता ही नहीं है।

समाधान- धर्मसूत्रों एवं स्मृतिग्रन्थों में इन दोनों आश्रमों के लिए प्रायः समानधर्म, नियमादि का विधान किया गया है। इसीलिए बौधायन-धर्मसूत्र के भाष्यकार गोविन्द स्वामी के मन में भी उक्त आशंका उत्पन्न हुई थी- ‘वानप्रस्थसंन्यासभेदः किमर्थमाचार्यकृत इति असाववेव द्रष्टव्यः(बौ.धर्म.-३.३.१४-१७)। परन्तु साम्यता के कारण संन्यासाश्रम का ही अभाव क्यों मानें? यह क्यों न मानें कि दोनों आश्रमों की समानता को देखते हुए लोगों ने गृहस्थ से सीधा अन्त्याश्रम को ही स्वीकार किया करते थे, वानप्रस्थी नहीं बना करते थे? कहा भी गया है कि जिस दिन वैराग्य उत्पन्न हो, उसी दिन गृहस्थ से सीधा संन्यासी बन जावें –‘यद् अहरेव विरजेत्तदहरेव

प्रव्रजेद् वनाद् वा गृहाद् वा(तु.जाबालोप.-४, अपिच द्र.मनु. ६.३९ )। अतः संन्यासाश्रम के अभाव में जो

साम्यता का हेतु दिया गया है, वह हेतु नहीं, अपितु हेत्वाभास मात्र है। यथार्थता यह है कि दोनों आश्रमों के नियमादि में अत्यधिक साम्यता होते हुए भी दोनों में मौलिक भेद भी हैं, जिसके कारण से दोनों को पृथक्-पृथक् आश्रम मानना ही पड़ता है। वे भेद इस प्रकार हैं – १.वानप्रस्थी साथ में अपनी स्त्री को रख सकता है, परन्तु संन्यासी नहीं रख सकता है।२.वानप्रस्थी गृह्य एवं श्रौत अग्नियों को रखकर सभी प्रकार के यज्ञ, याग करता है। पर संन्यासी सभी अग्नियों को आत्मा में समारोपित करता है अर्थात् बाह्य अग्नियों और यज्ञों का सर्वथा त्याग करता है। ३. वानप्रस्थी शिखी एवं यज्ञोपवीती होता है, परन्तु संन्यासी उनका भी त्याग करता है। ४. वानप्रस्थी वन में स्थिर निवास बना कर एक ही स्थान में रह सकता है तो संन्यासी एक स्थान पर नहीं रह सकता (वर्षाकालादि अपवादों को छोड़कर ) इत्यादि।

आक्षेप-वेदभाष्यों के आधार पर संन्यासाश्रम को वैदिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि महर्षि दयानन्द के भाष्य के अनुसार संन्यास वैदिक सिद्ध हो भी जाता है, तो जो उनके भाष्य को प्रामाणिक नहीं मानता और केवल सायण भाष्य को प्रामाणिक मानता हो, उसकी संन्तुष्टि कैसे होगी कि वेदों में संन्यासाश्रम का विधान

है?

समाधान-मैं भी प्रश्न करना चाहता हूँ कि जो लोग सायण को प्रामाणिक नहीं मानते और केवल दयानन्द को ही प्रामाणिक मानते हैं, उन्हें यह सन्तुष्टि कैसे होगी कि वेदों में संन्यासाश्रम का विधान नहीं है? भाष्यों पर

आधृत न होने की बात करते हुए भी पुनः सायण भाष्य पर केन्द्रित होना अज्ञता का द्योतक है। अतः प्रश्न ही निरर्थक है।

आक्षेप-सायण ने अपने वेदादिभाष्यों में कहीं भी यति शब्द का अर्थ संन्यासी नहीं किया। अपितु नियन्ता

(ऋ. ८.६.१८) दाता (ऋ ७.१३.१) अयष्टाजन (ऋ ८.३.९.) मेघ (ऋ १०.७२.७) ऋत्विक (ऋ ९.७१.७)आदि अर्थ किये हैं। इतना ही नहीं अनेकत्र तो उन्होंने एक जाति विशेष को यति माना है। जैस-यतीन्ं=एतत्संज्ञकान् यज्ञविरोधिं=जनान् (ताण्डव् ब्राहमण १३.४.१७)।अतः वेदादि में आगत यति शब्द का अर्थ संन्यासी नहीं है अर्थात् सन्यासाश्रम अवैदिक है।

समाधान-सायणादिभाष्यों के कारण ही लोगों की यह धारणा बन गयी थी कि वेद केवल यज्ञ के लिए ही प्रवृत्त हुए हैं, उनका यज्ञ से भिन्न अन्य कोई प्रयोजन नहीं है। अतएव विदेशियों ने कहा था कि वेद गडरियों

के गीत हैं। पुनरपि आश्चर्य है कि भारतीय वेद विद्वान् वेद को छोड़कर सायण के शब्दों से संन्यासाश्रम को अवैदिक सिद्ध करने का असफल प्रयत्न करते हैं। उन सायण-भक्त वेद मनीषियों के लिए मैं यहाँ उसी सायण के शब्दों से यह सिद्ध करता हूँ कि संन्यासाश्रम वैदिक है और उसमें सायण की भी अभिमति है।

यति शब्द का अर्थ संन्यासी न करने मात्र से यह कैसे सिद्ध होता है कि सायण संन्यासाश्रम का नहीं मानते

थे? उन्होंने कहीं भी इस आश्रम को निषेध किया हो वा इसे अवैदिक घोषित किया हो तो विद्वद्वृन्द बताने का कष्ट करें।

-निगमनीडम्, पिडिचेड़,

गज्वेल, मेदक, तेलंगाना-५०२२७८

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३३

असपत्ना सपत्नध्नी जयन्त्यभि भूवरी

यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च।

मन्त्र का उत्तरार्ध कहता है- मैं केवल अपने पति के लिये ही स्वीकार्य या मान्य हूँ, ऐसा नहीं है। मैं अपने साथ रहने वाले सभी मनुष्यों के लिये स्वीकार्य हूँ। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि कोई व्यक्ति जब अपने आपको शक्तिशाली, महत्त्वपूर्ण और अधिकार सम्पन्न समझता है, उस समय वह अपने लिये महत्त्वपूर्ण हो सकता है, परन्तु सबके लिये स्वीकार्य होना तभी सम्भव है, जब वह सामर्थ्यवान होकर भी सर्वोपकारी हो, सर्वसुलभ हो। ऐसी अवस्था में ही वह सर्वजन स्वीकार्य और सर्वजन मान्य हो सकता है।

विवाह में शिलारोहण के साथ लाजा होम किया जाता है, तब इन्हीं दो बातों के विषय में वर-वधू को ध्यान दिलाया जाता है कि हमें अपने  वैवाहिक जीवन में दृढ़ता रखनी है। मैं दृढ़ रहूँगा, तुम भी मेरे साथ दृढ़ रहना, पत्थर उसका प्रतीक है। जब भाई द्वारा कन्या का पैर शिला पर रखा जाता है और वह मन्त्र पढ़ता है- अरिह – तुम इस शिला पर आरूढ़ हो जाओ, क्योंकि तुमको इस पत्थर की भाँति दृढ़ होकर रहना है। तुम्हारा साथ पत्थर की भाँति दृढ़ व्यक्ति के साथ है, तुम भी दृढ़ रहोगी, तभी साथ रह पाओगी।

जीवन में दृढ़ता के बिना न गति है, न प्रगति है। दृढ़ता से स्थिरता आती है। चञ्चलता अस्थिरता का दूसरा नाम है, स्थिर व्यक्ति बाधाओं को दूर कर सकता है, स्थिर योद्धा ही शत्रुओं का सामना कर सकता है, शत्रुओं पर आक्रमण कर सकता है। भागने वाला अस्थिर व्यक्ति आक्रामक कैसे हो सकता है? इसलिये वर वधू से कहता है- मैं स्थिर हूँ, मैं दृढ़ पत्थर की भाँति हूँ। तुमको भी मेरे साथ रहना है तो पत्थर की तरह दृढ़ होकर रहना होगा, नहीं तो संसार की समस्याओं का और हम पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का नाश नहीं कर सकते।

विवाह की इस प्रक्रिया की रोचकता यह है कि इस विधि को लाजा होम के साथ संभवतः इसीलिये किया जाता है, क्योंकि एक क्रिया के बिना दूसरी क्रिया अधूरी है। प्रथम कार्य दृढ़ होना, दूसरा कार्य अन्यों का उपकार करना है। इसमें उपकार का क्रम भी बताया गया है, क्योंकि उपकार करने का अर्थ कर्त्तव्य को भूलना नहीं है। आहुति के क्रम में कर्त्तव्य का क्रम भी बताया गया है।

लाजा होम की प्रथम आहुति देते हुए वधू कहती है- आज के बाद मेरे कर्त्तव्य में प्राथमिकता पति की है। पति के प्रति मेरा प्रथम कर्त्तव्य है, उसका सम्मान और सत्कार मुझे करना है, वह भी उसी प्रकार मेरा सम्मान करता है। दूसरी आहुति के साथ वधू का कर्त्तव्य घर के निवासियों के साथ है। घर में रहते हुए ऐसा नहीं हो सकता- आपने केवल अपने बारे में सोचकर ऐसा निर्णय कर लिया तो परिवार में विघटन और द्वेष भाव प्रारम्भ हो जायेगा। परिवार के सभी सदस्यों के साथ भी अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना होगा, तभी अपने को और पति को परिवार के साथ बाँध के रखने में वधू समर्थ हो सकती है। तीसरी आहुति देते हुए वधू कहती है- पति और घर के साथ-साथ अपने सामाजिक दायित्वों का भी मुझे निर्वाह करना है। इसमें चाहे मेरे सम्बन्धी लोग हैं, चाहे विद्वान् अतिथि हैं अथवा बुभुक्षित, पीड़ित, असहाय, दुर्बल मनुष्य, बालक, पशु-पक्षी- सभी की चिन्ता करना, उनकी यथासम्भव सहायता सहयोग करना, सान्त्वना देना, यह भी कर्त्तव्य है, तभी ऐसी नारी न केवल अपने पति की प्रेम भाजन होगी, अपितु परिवार एवं समाज के प्रत्येक सदस्य की प्रशंसा प्राप्त करने वाली बन जायेगी।

विश्व में प्रथम बार वेद ऑन लाईन

विश्व में प्रथम बार

वेद ऑन लाईन

आज विज्ञान का युग है, विज्ञान ने प्रगति भी बहुत की हैं, इस प्रगति में तन्त्रजाल (इन्टरनेट) ने लोगों की जीवन शैली को बदल-सा दिया है। विश्व के किसी देश, किसी भाषा, किसी वस्तु, किसी जीव आदि की किसी भी जानकारी को प्राप्त करना, इस तन्त्रजाल ने बहुत ही सरल कर दिया है। विश्व के बड़े-बड़े पुस्तकालय नेट पर प्राप्त हो जाते हैं। अनुपलब्ध-सी लगने वाली पुस्तकें नेट पर खोजने से मिल जाती हैं।

आर्य जगत् ने भी इस तन्त्रजाल का लाभ उठाया है, आर्य समाज की आज अनेक वेबसाइटें हैं। इसी शृंखला में ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद के लिए एक बहुत बड़ा काम किया है। ‘आर्य मन्तव्य’ ने वेद को सर्वसुलभ करने के लिए onlineved.com नाम से वेबसाइट बनाई है। इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

१. विश्व में प्रथम बार वेदों को ऑनलाईन किया गया है, जिसको कोई भी इन्टरनेट चलाने वाला पढ़ सकता है। पढ़ने के लिए पी.डी.एफ. किसी भी फाईल को डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।

२. इस साईट पर चारों वेद मूल मन्त्रों के साथ-साथ महर्षि दयानन्द सरस्वती, आचार्य वैद्यनाथ, पं. धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार व देवचन्द जी आदि के भाष्य सहित उपलब्ध हैं।

३. इस साईट पर हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा मराठी भाषाओं के भाष्य उपलब्ध हैं। अन्य भाषाओं में भाष्य उपलब्ध कराने के लिए काम चल रहा है, अर्थात् अन्य भाषाओं में भी वेद भाष्य शीघ्र देखने को मिलेंगे।

४. यह विश्व का प्रथम सर्च इंजन है, जहाँ पर वेदों के किसी भी मन्त्र अथवा भाष्य का कोई एक शब्द भी सर्च कर सकते हैं। सर्च करते ही वह शब्द वेदों में कितनी बार आया है, उसका आपके सामने स्पष्ट विवेचन उपस्थित हो जायेगा।

५. इस साईट का सर्वाधिक उपयोग उन शोधार्थियों के लिए हो सकता है, जो वेद व वैदिक वाङ्मय में शोधकार्य कर रहे हैं। उदाहरण के लिए किसी शोधार्थी का शोध विषय है ‘वेद में जीव’, तब वह शोधार्थी इस साईट पर जाकर ‘जीव’ लिखकर सर्च करते ही जहाँ-जहाँ जीव शब्द आता है, वह-वह सामने आ जायेगा। इस प्रकार अधिक परिश्रम न करके शीघ्र ही अधिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।

६. इस साईट का उपयोग विधर्मियों के उत्तर देने में भी किया जा सकता है। जैसे अभी कुछ दिन पहले एक विवाद चला था कि ‘वेदों में गोमांस का विधान है’ ऐसे में कोई भी जनसामान्य व्यक्ति इस साईट पर जाकर ‘गो’ अथवा ‘गाय’ शब्द लिखकर सर्च करें तो जहाँ-जहाँ वेद में गाय के विषय में कहा गया है, वह-वह शीघ्र ही सामने आ जायेगा और ज्ञात हो जायेगा कि वेद गो मांस अथवा किसी भी मांस को खाने का विधान नहीं करता।

७. विधर्मी कई बार विभिन्न वेद मन्त्रों के प्रमाण देकर कहते हैं कि अमुक मन्त्र में ये कहा है, वह कहा है या नहीं कहा। इसकी पुष्टि भी इस साईट के द्वारा हो सकती है, आप जिस वेद का जो मन्त्र देखना चाहते हैं, वह मन्त्र इस साईट के माध्यम से देख सकते हैं।

इस प्रकार अनेक विशेषताओं से युक्त यह साईट है। इस साईट को बनाने वाला ‘आर्य मन्तव्य’ समूह धन्यवाद का पात्र है। वेद प्रेमी इस साईट का उचित लाभ उठाएँगे, इस आशा के साथ।

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण सिद्ध नहीं हैं

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास के आधार पर खण्डन)

– ब्र. राजेन्द्रार्य

चारवाक, बौद्ध, जैन आदि नास्तिक मतों का मानना है कि ईश्वर की सिद्धि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने वैचारिक क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाशः द्वादश समुल्लास में ईश्वर के दार्शनिक स्वरूप एवं वैज्ञानिक विवेचन के आधार पर नास्तिकों की इस मान्यता का खण्डन किया है। ईश्वर प्रत्यक्ष न होने की जिस युक्ति के भरोसे नास्तिकों के सब सम्प्रदाय और आधुनिक वैज्ञानिक गण फूले नहीं समा रहे थे, स्वामी दयानन्द ने उनकी जड़ ही काट दी। महर्षि ने कहा कि ईश्वर का प्रत्यक्ष होता है। ईश्वर का प्रत्यक्ष कैसे होता है, एतद् विषयक स्वामी जी की मान्यता के विचार यहाँ पर उद्धृत हैं-

ईश्वर का लक्षण वा स्वरूप – स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लगभग अपने सभी ग्रन्थों में ईश्वर के विषय में कुछ न कुछ अवश्य लिखा है। आर्य समाज के प्रथम व द्वितीय नियम में भी ईश्वर की चर्चा की हे। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर विषयक ऐसे अनेक मतों का निराकरण किया है, जिसमें ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता है या अन्यथा रूप में स्वीकार किया जाता है। नास्तिक मूर्धन्य चारवाक की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं-‘‘कोई एक बृहस्पति नामा पुरुष हुआ था जो वेद, ईश्वर और यज्ञादि उत्तम कर्मों को नहीं मानता था। उसके अनुसार लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है।’’ ईश्वर विषयक इस चारवाक मत का निराकरण करते हुए स्वामी दयानन्द लिखते हैं- ‘‘यद्यपि राजा को ऐश्वर्यवान और प्रजा पालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ मानें तो ठीक है, परन्तु जो अन्यायकारी पापी राजा हो, उसको भी परमेश्वरवत् मानते हो तो तुम्हारे जैसा कोई भी मूर्ख नहीं।’’ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में ईश्वर के गुणों के वर्णन के सन्दर्भ में अनेक वेद मन्त्र प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किये हैं। उनमें से कुछ प्रमाण यहाँ पर उद्धृत हैं-

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः।

यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते।।

– ऋग्वेद १/१६४/३९

अर्थात् जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव-विद्यायुक्त, और जिसमें पृथिवी सूर्य्यादि लोक स्थित हैं, और जो आकाश के समान व्यापक, सब देवों का देव परमेश्वर है, उसको जो मनुष्य न जानते न मानते और उसका ध्यान नहीं करते, वे नास्तिक मन्दमति सदा दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं। इसलिये सर्वदा उसी को जानकर सब मनुष्य सुखी होते हैं।

प्रश्नः वेद में ईश्वर अनेक हैं, इस बात को तुम मानते हो वा नहीं?

उत्तरः नहीं मानते, क्योंकि चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा, जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों, किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है।

ईशा वास्यमिद ं  सर्वंयत्किञ्च जगत्याञ्जगत्।

तेन व्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।

– यजुर्वेद ४०/१

हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है, उस सब में व्याप्त होकर (जो उसका) नियन्ता है वह ईश्वर कहाता है। उससे डर कर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग।

परमेश्वर का जैसा गुण-कर्म-स्वभाव है, वैसा ही जानकर मानना ही ज्ञान-विज्ञान कहाता है, उल्टा अज्ञान है। महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में कहा है-

क्लेश कर्मविपाकाशयैर परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।

-योगदर्शन १/२४

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

स्वामी दयानन्द ईश्वर के स्वरूप का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-

‘ईश्वर’ कि जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी , सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हॅूँ।

जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव -प्रश्नः जीव और ईश्वर का स्वरूप गुण-कर्म-स्वभाव कैसा है?

उत्तरः दोनों चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है, परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्त्पति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं और जीव के-

इच्छाद्वेष प्रयत्नसुख दुःख ज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति।

-न्याय दर्शन १/१/१०

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रिया

न्तरविकाराः सुख-दुःखे

इच्छाद्वेष प्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि।

– वैशेषिक दर्शन ३/२/४

‘इच्छा’ = पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, ‘द्वेष’ = दुःखादि की अनिच्छा वैर, ‘पुरुषार्थ’ =बल, ‘सुख’ = आनन्द, ‘दुःख’ =विलाप, अप्रसन्नता, ‘ज्ञान’=विवेक पहिचानना ये तुल्य हैं। परन्तु वैशेषिक में ‘प्राण’= प्राणवायु को बाहर निकालना, ‘अपान’ = प्राणवायु को भीतर लेना, ‘निमेष’ =आँख को मींचना, ‘उन्मेष’ = आँख को खोलना, ‘जीवन’  = प्राण का धारण करना, ‘मन’ = निश्चय स्मरण और अहंकार करना, ‘गति’= चलना, ‘इन्द्रिय’= सब इन्द्रियों को चलाना, ‘अन्तरविकार’= भिन्न-भिन्न क्षुधा-तृषा, हर्ष-शोकादि युक्त होना (ये विशेष हैं।) ये जीवात्मा के गुण परमात्मा (के गुणों) से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होती है, तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब आत्मा शरीर छोड़ चली जाती है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसके होने से जो हो और न होने से न हो, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना, वैसे जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

ईश्वर अनादि हैईश्वर भूत, वर्तमान, भविष्यत तीनों कालों के बन्धन में न आने के कारण अनुत्पत्ति धर्मक है, अतः अनादि और जो वस्तु अनादि होती है, वह अमरणधर्मा होती है और जो अमृत होती है, वह अनन्त होती है। अनादि अनन्त को ही ‘‘सत्’’ कहते हैं। स्वामी दयानन्द ने अथर्ववेद के मन्त्र को उद्धृत करते हुए ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका१० में कहा है-

यो भूतञ्च भव्यञ्च सर्वं यश्चाधितिष्ठति स्वर्यस्य

च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।

– अथर्ववेद १०/८/१

अर्थ- यो भूत, भविष्यति, वर्तमानान् कालान् सर्वं जगच्चाधितिष्ठति सर्वाधिष्ठाता सन् कालादूर्ध्वं विराजमानोऽस्ति। दयानन्दर्षि।।

प्रश्नः ईश्वर सादि है वा अनादि?

उत्तरः अनादि। अर्थात् जिसका आदि कोई कारण वा समय न हो, उसको अनादि कहते हैं।

अनादि पदार्थ तीन हैं- एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति, अर्थात् जगत् का कारण। इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं, उनके-गुण-कर्म स्वभाव भी नित्य हैं। ईश्वर, जीव और प्रकृति के अनादित्व में वेदादिशास्त्रों के निम्न प्रमाण उद्धृत हैं-

द्वा सुपर्णा सयुजासखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नयो अभि चाकशीति।।१।।

– ऋग्वेद १/१६४/२०

शाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। २।।  – यजुर्वेद ४०/८

(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त सनातन अनादि हैं और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ। इन तीनों के गुण, कर्म और स्वभाव भी अनादि हैं। (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है, वह इस वृक्ष रूप संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोक्ता  है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनशन्) न भोगता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप; तीनों अनादि हैं।। १।।

(शाश्वतीभ्यः०) अर्थात् अनादि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है।।२।।

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः

प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां

भुक्त भोगामजोऽन्यः।।

– श्वेताश्वतर उपनिषद् ४/५

प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं। इनका कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फँसता है और उसमें परमात्मा न फँसता और न उसका भोग करता है।१२

ईश्वर का व्यापकत्व – प्रश्नः ईश्वर व्यापक है, वा किसी देश-विशेष में रहता है?

उत्तरः व्यापक है। क्योंकि जो एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता, सब का सृष्टा, सब का धर्त्ता और प्रलय कर्त्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का होना असम्भव है।१३

इस विषय में स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में ऋग्वेद का निम्न मन्त्र उद्धृत किया है-

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।

दिवीव चक्षुराततम्।।

– ऋग्वेद १/२२/२०

व्यापक जो परमेश्वर है उसका अत्यन्त उत्तम आनन्दस्वरूप जो प्राप्ति होने के योग्य अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है, उसको विद्वान् लोग सब काल में देखते हैं। वह कैसा है कि सब में व्याप्त हो रहा है और उसमें देश, काल और वस्तु का भेद नहीं है अर्थात् उस देश काल में था और इस काल में नहीं,उस वस्तु में है और इस वस्तु में ंनहीं, ऐसा नहीं है। इसी कारण से वह पद सब जगह में सबको प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्रह्म सब ठिकाने परिपूर्ण है। इसमें यह दृष्टान्त है कि जैसे सूर्य का प्रकाश आवरणरहित आकाश में व्याप्त होता है, इसी प्रकार परब्रह्म पद भी स्वयं प्रकाश, सर्वत्र व्याप्तवान् हो रहा है। उस पद की प्राप्ति से कोई भी प्राप्ति उत्तम नहीं है, इसलिये चारों वेद उसी की प्राप्ति कराने के लिये विशेष करके प्रतिपादन कर रहे हैं।१४

ईश्वर सर्वशक्तिमान है – प्रश्नः ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वा नहीं?

उत्तरः है। परन्तु जैसा तुम सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ जानते हो, वैसा नहीं। किन्तु ‘सर्वशक्तिमान’ शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित् भी किसी की सहायता नहीं लेता, अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है।१५

ईश्वर निराकार है, साकार नहीं – प्रश्नः ईश्वर साकार है वा निराकार?

उत्तरः निराकार। क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण क्षुधा-तृषा और रोग-दोष छेदन-भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता, इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों का बनाने हारा दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये।१६                        शेष भाग अगले अंक में….