आर्यसमाजी हूँ
जब पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा ने कश्मीर के शास्त्रार्थ में पादरी जॉनसन को परास्त किया तो सर्वत्र उनका जयजयकार होने लगा। उस समय शास्त्रार्थ के सभापति स्वयं महाराजा प्रतापसिंह थे।
महाराजा ने प्रेम से पण्डितजी से पूछा-कहो गणपति शर्मा! तुज़्हारे जैसा विद्वान् आर्यसमाजी कैसे हो गया? ज़्या सचमुच तुम आर्यसमाजी हो? ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सज़्भव है महाराजा ने सोचा हो कि मेरे प्रश्न के उज़र में पण्डितजी कह देंगे कि मैं आर्यसमाजी नहीं हूँ।
पूज्य पण्डितजी पेट-पन्थी पोप नहीं थे। नम्रता से, परन्तु सगर्व बोले, ‘‘हाँ, महाराज! मैं हूँ तो आर्यसमाजी।’’
उस सच्चे ब्राह्मण के यशस्वी, तपस्वी जीवन से प्रभावित होकर ही तो, महाकवि ‘शंकर’ जी ने लिखा था- पैसों के पुजापे पानेवाले को न पूजते हैं, पूज्य न हमारे लंठ लालची लुटेरे हैं।
पोंगा पण्डितों की पण्डिताई के न चाकर हैं, ज्ञानी गणपति की-सी चातुरी के चेरे हैं॥