अर्थोपार्जन-वैदिक दृष्टि

अर्थोपार्जन-वैदिक दृष्टि

-रविदेव गुप्ता

यह एक निर्विवाद सत्य है कि वैदिक मान्यताओं के समक्ष सभी मत-मजहब-संप्रदाय या संगठन निर्बल हैं एवं महर्षि दयानन्द सरस्वती की समपूर्ण जीवन-यात्रा इसका पर्याप्त प्रमाण है। उनका वेदों का सूक्ष्मतम अध्ययन, अकाट्य वेद-भाष्य, तर्कशक्ति एवं सत्य के प्रति अडिग निष्ठा व निश्चय आदि आयुधों से सुसज्जित वह एक विश्वविजयी योद्धा के रूप में एक अभूतपूर्व क्रान्ति करने में सफल हुए। नैराशय में डूबा भारत का हिन्दू-समाज एक बार पुनर्जीवित होकर सत्य के मार्ग पर आरूढ़ हो समस्त पाखण्ड तिमिर को छिन्न-भिन्न कर आर्य-समाज के रूप में संगठित हुआ। पूरे देश में आर्यसमाजों की एक बाढ़-सी आ गई थी एवं आर्य विद्वानों के सार-गर्भित व्याखयानों से आकर्षित हो असंखय व्यक्ति वैदिक-धर्मानुयायी बन गए।

आज यह गति काफी धीमी हो गई प्रतीत होती है। प्रौढ़ वय के अनुयायी धीरे-धीरे कालचक्र में सिमट रहे हैं तथा नई पीढ़ी पाश्चात्य प्रभाव से भ्रमित व धर्म-विमुख होती जा रही है। आज समाजों में नवयुवक-नवयुवतियों को देखने को हमारी आँखे तरस रही हैं। गुरुकुलों में ही कुछ संखया में विद्यार्थियों को देखकर कुछ सांत्वना मिलती है।

यह सामूहिक चिंता का विषय ही आज सभी विद्वतजनों को चिंतन करने के लिये बाध्य कर रहा है। एतदर्थ आयोजित इस शिविर में मैं अपनी स्वल्प बुद्धि से एक समाधान विद्वानों के विचारार्थ प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँ।

पुरुषार्थ चतुष्टयःचार पुरुषार्थों में मेरा विचार है कि पूर्वोक्त तीन ही हैं चौथे साध्य को प्राप्त करने के। इनमें भी अर्थ व काम लौकिक होने के कारण अपेक्षाकृत आकर्षक हैं और बिना विस्तृत भूमिका के मैं कह सकता हूँ कि हमारी रणनीति का आधार बन सकते हैं। हमारा लक्ष्य-समूह (target group )इन्हीं के पीछे भाग रहा है और धार्मिक क्रिया-कलापों को इसका विरोधी मानकर उनसे दूर भाग रहा है। व्यवहार कुशलता की माँग है कि जिसको जो भाषा समझ आती हो, उससे उसी भाषा में बात की जाये।

आज समाज अर्थ-प्रधान है, इसका अर्थ हमें भी समझने की आवश्यकता है व समय की माँग के अनुसार ही अपनी रणनीति को ग्राह्य बनाना अभीष्ट है।

अर्थः ‘अर्थ का मतलब केवल रुपया पैसा ही नहीं है, यह अनेक विषयों का पर्यायवाची है।’ यथा –

– धन, सपति, भौतिक-साधन

– हेतु, कारण

– प्रयोजन, उद्देश्य

– सत्य-स्वरूप (अन्यथा अनर्थ)

– सफलता

मनुष्य योनि कर्म-योनि होने से प्रत्येक व्यक्ति सामान्यतः प्रतिक्षण कर्मरत है, जो मन, इन्द्रिय व शरीर द्वारा जीव की चेष्टा विशेष का नाम है। इसके विभिन्न चरण हैं, यथाः-

– अप्राप्त को प्राप्त करने की इच्छा

– इच्छित को प्राप्त करने की चेष्टा

– प्राप्त का पर्याप्त संरक्षण

– संरक्षित का सयक् विनियोग अथवा व्यय

– व्यय द्वारा कामनापूर्ति, संतुष्टि व शान्ति

– कामनापूर्ति द्वारा कष्ट से मुक्ति

उपरोक्त चरणों में अर्थ, काम व मोक्ष तीनों पुरुषार्थ निहित हैं और प्रत्येक प्राणी वर्तमान काल में यही सब कर रहा है। किसी को इनके लिये समझाने अथवा प्रेरित करने की आवश्यकता नहीं। अभीष्ट है तो केवल प्रथम पुरुषार्थ ‘धर्म’ का आवरण चढ़ाने की। बस यहीं पर मूल में भूल हो रही है। एक उदाहरण से यह स्पष्ट हो सकता है।

कल्पना कीजिये एक बस चल रही है। ड्राइवर पर्याप्त सावधानी से अभीष्ट गंतव्य तक पहुँचने के लिये दुर्गम-पथ पर गाड़ी चला रहा है, जिसमें उसके अतिरिक्त अनेकों अन्य मुसाफिर भी सवार हैं। पहुँचने की जल्दी में चालक असावधानियाँ बरत कर सवारियों को आशंकित कर रहा है। ऐसे में आवश्यकता है बस एक कुशल संवाहक (conductor) की जो उसी बस में सवार होकर निरन्तर चालक को सावधान, सजग व नियन्त्रित करता रहे। उसकी कुशलता ही समस्त बस की सवारियों व चालक की सुरक्षा की गारन्टी है। सभी का गन्तव्य एक ही है, जल्दी भी एक जैसी है पर स्वस्थ एवं सुरक्षित पहुँचने के लिये अपनाई कार्य-शैली के बारे में मत भिन्नता है।

मेरा गन्तव्य है कि हमें गाड़ी के चलने में साधक बनना है, बाधक नहीं। स्पष्ट अभिप्राय यही है कि ‘‘अर्थ व काम’’ से संमबन्धित व्यवहार व व्यापार को हेय नहीं, प्रेय ही बनाना है तथा वेद-मन्त्रों के ही उदाहरणों से इन दोनों पुरुषार्थों पर बल देकर पुष्टि करनी है। साधन का अर्थ ही सा+धन है।

मेरे सीमित अध्ययन के द्वारा मैं कतिपय वेद-मन्त्रों को उद्घृत कर यह स्मरण कराने का प्रयास कर रहा हूँ कि मनुष्यों को कहीं भी दरिद्र होने का परामर्श नहीं दिया, अपितु सर्वत्र ऐश्वर्यों के स्वामी होने का आदेश दिया गया है। परन्तु गति-नियन्त्रण  (speed governor) के अनुरूप दोनों ही पुरुषार्थों की सिद्धि में धर्माचरण की अनिवार्यता का उपदेश दिया गया है। उसके अभाव में अकल्याण की आशंका स्पष्ट की गई है। भौतिक शबदों में accelerator के साथ ही brake का उपदेश है।

अर्थोपार्जन संबन्धी मन्त्रः-

  1. शतहस्त समाहरः सहस्रहस्त संकिरः

– सौ हाथ से कमा, हजार हाथ से वितरित करो।

  1. वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः

– धन ईश्वर की शक्ति की अभिव्यक्ति है।

  1. सहनौ भुनक्तु…………..

– हम दोनों मिलकर साथ-साथ उपयोग करें।

  1. इन्द्र श्रेष्ठानि द्रविणानि

– हे ईश्वर! हमें श्रेष्ठ धनों की प्राप्ति कराओ।

  1. अदीनाः स्याम शरदः शतं

– हम सौ वर्षों तक अदीन होकर रहें।

  1. वयं स्याम पतयो रयीणाम्

– हम धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।

  1. तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्वित् धनम्

– त्यागरूप में संभावित उपयोग कर, लालच न कर, धन किसी का नहीं है।

अतः हमें युवा पीढ़ी को सपूर्ण-शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार धन-एैश्वर्य धर्मपूर्वक कमाने का परामर्श देते हुए यही उपदेश देना है किः- ‘‘केवलाघो भवति केवलादी’’– अकेला खाने वाला केवल पाप ही खाता है।

आश्चर्यजनक परन्तु सत्य है कि अनेकों धर्माचार्य समाज को धन कमाने के लिये लताड़ते हैं। धन-सपत्ति को माया बताकर त्याज्य कहते हैं और समभवतः उसका उद्देश्य यही समझौता होता है कि यह सब माया मुझे देकर आप निश्चिन्त हो जाओ। इस पाप की गठरी को मैं ढोकर आपका उपकार ही करुंगा। कैसी ठग विद्या है?

कामपूर्ति सबन्धी मन्त्रणाः काम का अर्थ केवल विषय वासना ही नहीं, ध्यानपूर्वक विश्लेषण करें तो विभिन्न अर्थ उभर कर आते हैं यथाः-

– कामना, अभिलाषा, इच्छा व प्रेम

– धन की कामना तो-लोभ, संग्रह, स्तेय

– व्यक्ति में आसक्ति तो-मोह

– स्वयं में आसक्ति तो-अंहकार

– प्रभु में आसक्ति तो-भक्ति

– आत्मीयता में-वात्सल्य

– धारणा में-श्रद्धा

– निष्ठा में / आस्था में-आशा

अतः काम की असंखय धाराएँ हैं। यह सब संसार का पसारा ‘काम’ का ही है। तीनों एषणाएं इसी काम का ही प्रतिरूप है। जहाँ काम है वहीं प्रेम है, त्याग है, आत्मसमर्पण है, स्नेह है, सेवा है। जिसकी कामना हो उसी की सेवा में सर्व+स्व न्यौछावर होता है। प्रवृत्ति व निवृत्ति का रहस्य, अभयुदय व निःश्रेयस का सत्व कामना में ही है। निष्कर्ष यह है कि काम के बिना काम ना चले। सारा संसार ही कामातुर है। इसलिए वेदों में सुन्दर सारगर्भित व्याखयान हैः-

कोदात् कस्मा अदात्, कामो अदात् कामाय अदात्।

कामो दाता कामः प्रतिगृहीता कामैतत् ते।।’’ यजु. 7.48

अर्थात्- कौन दिया करता है, किसके लिये दिया करता है?

– काम दिया करता है, काम ही के लिये दिया करता है, काम ही देने वाला है।

– काम ही लेने वाला है, यह सब काम तेरी ही माया है।

सुझावःहम सभी प्रबुद्धजन सहमत होंगे कि यह दोनों पुरुषार्थ हमारी नई पीढ़ी को स्वयं ही आकण्ठ डुबाए हुए हैं। हमें केवल यह कहना है कि उन्हें इस सब में हीनता की भावना उत्पन्न करने के बजाय प्रोत्साहित किया जाये कि यह सब व्यापार-व्यवहार वेद-सममत ही है, यदि धर्मानुकूल हो, नियन्त्रित हो संयमित हो व कल्याणकारी हो।

वेद इन सबको गर्हित या वर्जित नहीं मानते अपितु केवल सुनियोजित करने का आदेश देते हैं। मेरा अनुमान है कि इस तरह की मित्रवत् मंत्रणा उनको वेदों के निकट लाने में सहायक सिद्ध हो सकती है। विद्वज्जन विचार करें।

One thought on “अर्थोपार्जन-वैदिक दृष्टि”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *