अरे यह कुली महात्मा
बहुत पुरानी बात है। आर्यसमाज के विज़्यात और शूरवीर संन्यासी, शास्त्रार्थ महारथी स्वामी श्री रुद्रानन्दजी टोबाटेकसिंह (पश्चिमी पंजाब) गये। टोबाटेकसिंह वही क्षेत्र है, जहाँ आर्यसमाज के एक मूर्धन्य विद्वान् आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवालों का जन्म हुआ। स्टेशन से उतरते ही स्वामीजी ने अपने भारी सामान के लिए कुली, कुली पुकारना आरज़्भ किया।
उनके पास बहुत सारी पुस्तकें थीं। पुराने आर्य विद्वान् पुस्तकों का बोझा लेकर ही चला करते थे। ज़्या पता कहाँ शास्त्रार्थ करना पड़ जाए।
टोबाटेकसिंह स्टेशन पर कोई कुली न था। कुली-कुली की पुकार एक भाई ने सुनी। वह आर्य संन्यासी के पास आया और कहा-‘‘चलिए महाराज! मैं आपका सामान उठाता हूँ।’’ ‘‘चलो
आर्यसमाज मन्दिर ले-चलो।’’ ऐसा स्वामी रुद्रानन्द जी ने कहा।
साधु इस कुली के साथ आर्य मन्दिर पहुँचा तो जो सज्जन वहाँ थे, सबने जहाँ स्वामीजी को ‘नमस्ते’ की, वहाँ कुलीजी को ‘नमस्ते महात्मा जी, नमस्ते महात्माजी’ कहने लगे। स्वामीजी यह देख कर चकित हुए कि यह ज़्या हुआ! यह कौन महात्मा है जो मेरा सामान उठाकर लाये।
पाठकवृन्द! यह कुली महात्मा आर्यजाति के प्रसिद्ध सेवक महात्मा प्रभुआश्रितजी महाराज थे, जिन्हें स्वामी रुद्रानन्दजी ने प्रथम बार ही वहाँ देखा। इनकी नम्रता व सेवाभाव से स्वामीजी पर
विशेष प्रभाव पड़ा।