अंग्रेजी का महिमा-मण्डन अनुचित है

अंग्रेजी का महिमा-मण्डन अनुचित है

– संयम वत्स ‘मनु’

हिन्दी के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘अमर उजाला’ के रविवार 19 जुलाई 2015 के अंक में ‘हमारे नेता अंग्रेजी के इतने विरोधी क्यों है?’ शीर्षक से अंग्रेजी की जय-जयकार गुंजाता एक लेख पढ़ने को मिला। संयोग यह कि यह लेख मूल रूप से इस समाचार-पत्र को नहीं भेजा गया था। हिन्दी भाषियों के बल पर रोटी खाने वाले इस समाचार पत्र ने ‘आनन्द बाजार पत्रिका’ में प्रकाशित लेख को अनूदित करके अपने पाठकों के  सामने परोसकर अति बुद्धिमानी का परिचय दिया है क्योंकि इस लेख से प्रभावित पाठक गण हिन्दी का ‘अमर उजाला’ क्यों पढ़ेगे, कोई ‘हिन्दू’ या ‘इन्डियन एक्सप्रेस’ नहीं पढेंगे?

पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी के समाचार-पत्रों, टी.वी.चैनलों ने हिन्दी भाषी पाठकों, दर्शकों के सहारे से ही ‘हिन्दी’ भाषा का ही सर्वाधिक दोहन किया है। समाचार पत्रों में अब ‘समाचार’ शबद दिखाई ही नहीं देता उसका स्थान ‘खबर’ ले चुकी है। ‘राजनीति’ ‘सियासत’ में लुप्त हो गई है। ‘पगडन्डी’ का स्थाई स्थान ‘फुटपाथ’ ने ग्रहण कर लिया है। आपसी बोलचाल में हिन्दी के शबदों के स्थान पर ‘अंग्रेजी’ व ‘उर्दू’ के शबदों का प्रयोग हो रहा है। एक टी. वी. चैनल पर प्रतिष्ठित पत्रकार रजत शर्मा ‘वैलकम बैक’ और नवाज शरीफ को  पाकिस्तान का ‘वजीर-ए-आजम’ और नरेन्द्र मोदी को ‘पी.एम.’ कहते हैं तो आत्मग्लानि होती है कि जब नवाज वजीर-ए-आजम हो सकते हैं तो मोदी प्रधानमंत्री क्यों नहीं? यह सब आधुनिकता के नाम पर हो रहा है और कोई गैर हिन्दी भाषी नहीं वरन् हिन्दी भाषी ही इस घिनौने अपराध को कर रहे हैं। इस नई परमपरा से देश में हिन्दी का ही नहीं वरन् अन्य प्रादेशिक भाषाओं के स्तर का भी हनन हो रहा है, जो गमभीर चिन्ता का विषय है। हमारा भविष्य भाषाई स्तर पर ‘अंग्रेजी’ का दास होता जा रहा है। यह स्थिति ‘भारत’ के नहीं अपितु ‘ब्रिटेन’ के लिए अधिक लाभप्रद प्रतीत होती है।

संदर्भित आयातित लेख में लेखक ने नेताओं को अग्रेंजी का विरोधी करार दिया है। उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया, मुलायम सिंह, राजनाथ सिंह जी का उल्लेख इस निमित्त किया है। लेखक ने अत्यन्त बचकानी टिप्पणी की है। उनके अनुसार अगर अग्रेंजी न होती तो इस देश को दक्ष इंजीनियर, असाधारण डॉक्टर या दिग्गज आई.टी. विशेषज्ञ नहीं मिलते। हम ‘ब्रिटिश अग्रेंजी’ की दासता स्वीकारते हैं। अगर इस भाषा में इतनी ही गुणवत्ता है तो आज इंग्लैण्ड प्रगति के झण्डे गाढ़ रहा होता लेकिन क्या ऐसा है? तथ्य यह सिद्ध नहीं कर रहे। उसके अपने ‘स्कॉटलैण्ड’ में ही ‘स्काटिश’ भाषा का राज है। अंग्रेजी भाषा में यहाँ संवाद अशोभनीय है। सामरिक दृष्टि से इंग्लैण्ड अमेरिका का सबसे बड़ा पिछलग्गू है। अमेरिका लगभग सवा दौ सौ वर्ष पुराना स्थापित देश है और इंग्लैण्ड लगभग सवा आठ सौ वर्ष पुराना। चीन ने अपने वर्तमान अस्तित्व को वर्षों के गृहयुद्ध के बाद 1949-50 में प्राप्त किया। पुराने सोवियत संघ में 1917 के विप्लव के बाद सत्ता सूत्र ग्रहण किए गए थे और वह हाल के वर्षों तक विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका के अस्त्तित्व को चुनौती देता रहा तथा बिखरने के बाद भी रूप से अमेरिका से दबने को तैयार नहीं और इंग्लैण्ड तो किसी गिनती में है ही नहीं। सोवियत संघ या रूस अंग्रेजी भाषी नहीं है।

1919 के विश्व युद्ध में पराजित जर्मनी और 1932 तक मित्र राष्ट्रों के क्रूर संधि प्रावधानों से जर्जरता के कगार पर पहुँचा जर्मनी 1938 तक पुनः विश्व शक्ति बनकर मित्र राष्ट्रों के दाँत खट्टे करने लगा था। दूसरे विश्व युद्ध में आर्थिक व सामरिक रूप से धूलि धूसरित जापान, जर्मनी तथा 1948 में जन्मा और अपने शत्रुओं से निरन्तर लोहा लेने वाला इस्राइल वैज्ञानिक तकनीक, औद्योगिककरण अर्थव्यवस्था में हमसे कितना आगे हैं यह एक निर्विवाद सत्य है। दूसरे विश्व युद्ध में एक बार तो फ्रांस को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा था। आज वह फिर से महाशक्ति है। हमारे सत्ताधीश इन देशों के सामने सदैव हाथ पसारे तो दिखाई दिए और देश के अंग्रेजी परस्त मित्रों, क्षमा करें, इनमें से किसी की भी भाषा ‘अंग्रेजी’ नहीं है जबकि भारत की भाषा तो निरन्तर अग्रेंजी है। लेखक महोदय गर्व से उदाहरण दे रहे हैं कि अग्रेंजी न होती तो भारत को न इंजीनियर मिलते न डॉक्टर और न आई.टी. विशेषज्ञ। स्पष्ट है कि रुस, चीन, जर्मनी, जापान, इस्राइल व फ्रांस जैसे देशों की उन्नति के संवाहक इंजीनियर व आई.टी. विशेषज्ञ उन अंग्रेजी वाले विशेषज्ञों के समकक्ष ही होंगे। उनके यहाँ चिकित्सक भी होते ही होंगे, क्योंकि कभी सुनने में नहीं आया कि जर्मनी, जापान, इस्राइल आदि देशों के मुखिया इंग्लैण्ड अथवा अमेरीका अपनी चिकित्सा कराने गए हों लेकिन हमारे देश के ‘अंग्रेजी दाँ,’ ‘असाधारण डॉक्टरों’ के रहते हुए भी हमारे नागरिकों को अमेरिका, इंग्लैण्ड और यहाँ तक कि सिगांपुर जैसे छोटे देश में चिकित्सा हेतु जाना पड़ता है। जो नहीं जा पाते उनके घुटने बदलने अमेरिका से डॉक्टर आते हैं। तात्पर्य यह कि संदर्भित देशों ने अपनी सफलता, गतिशीलता अग्रेंजी भाषा से नहीं ‘स्वभाषा’ से प्राप्त की है। इस्राइल, जापान, चीन, जर्मनी ने अपनी विकास यात्रा भारतीय स्वाधीनता के बाद प्रारमभ की थी, कौन-सा कारण है कि ये देश हमसे मीलों आगे हैं? अग्रेंजी भाषा को विकास की कुन्जी बताने वाले लेखक महोदय इस प्रश्न का उत्तर देने की कृपा करेंगे?

आज अग्रेंजी के नाम पर एक भीषण कुचक्र चल रहा है और इससे व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध किए जा रहे हैं। लेखक महोदय अग्रेंजी के विरोध हेतु नेताओं को दोषी ठहरा रहे हैं। लोहिया जी जैसे नामों को उन्होंनें आलोचना के घेरे में लिया है लेकिन क्या वे विस्मृत करते हैं कि भारत की संसद ‘अंग्रेजी’ के अतिरिक्त और किसी भाषा में काम नहीं करती। वित्त मंत्री चाहे किसी दल का हो ‘बजट’ अग्रेंजी में ही पढ़ा जाता है। ‘अंग्रेजी’ जैसी प्रगतिशील भाषा का ही प्रभाव है कि 65 वर्ष में भारत का संविधान लगभग सवा सौ संशोधनों को झेल चुका है। विश्व में कोई दूसरा उदाहरण स्मरण नहीं होता। अंग्रेजी का एक शबद ‘सेकुलर’ गढ़ा गया जो आज तक ठीक से परिभाषित नहीं हो सका और इस शबद के चारों ओर भारत का राजनैतिक पक्ष नृत्य कर रहा है। उन्हें इस बात से कोई समबन्ध नहीं कि भारत का अन्नदाता भूखा मर रहा है न इससे कोई सरोकार कि सीमा पर शत्रु आँखें तरेर रहा है। ये सभी दल ‘सेकुलर’ ‘सेकुलर’ खेलकर अपना लक्ष्य साध रहे हैं। लेखक से निवेदन है कि वास्तविकता से मुँह छिपाने का प्रयास मत करो। इस देश के नेताओं ने ‘अंग्रेजी’ के हित में भारतीय भाषाओं का दोहन किया है। इस सेवक को अच्छे से स्मरण है कि सोवियत रुस के नेतागण भारत आकर अपनी भाषा में भाषण देते थे जिसका अनुवाद हिन्दी में सुनाया जाता था और भारत के नेता अपना उत्तर अंग्रेजी में दिया करते थे। हिन्दी की महत्ता की जानकारी अपनो से अधिक इन विदेशियों को थी। पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी संयुक्त राष्ट्र संघ में अरबो रुपये व्यय करके हिन्दी में बोले थे लेकिन मद्रास की चुनाव सभा में भाषण अंग्रेजी में ही देते थे।

अंग्रेजी को समृद्धि का संवाहक मानने वालों से मेरा प्रश्न है कि क्या हमारे विद्वानों ने हिन्दी अथवा भारतीय भाषाओं में विज्ञान व तकनीकी साहित्य को रचने का प्रयास किया जैसा कि रुस, चीन, जापान, इस्राइल इत्यादि के विद्वानों ने स्वभाषा में रचकर किया? अगर साहित्य होता तथा परिणाम नगण्य आ रहे होते तब तो ऐसे उपहास भरे शबद अभीष्ट थे लेकिन बिना परीक्षण के असफलता का दोष लगाना अन्याय से कम नहीं है। पिछले दिनों समाचार-पत्रों में पढ़कर सुखद लगा कि तमिलनाडु में तमिल भाषा में ही भावी इंजीनियर व डॉक्टर अपना अध्ययन कर रहे हैं अर्थात् अंग्रेजी में सफलता का मिथक तो दरक ही रहा है। आवश्यकता तमिलनाडु की भावना को देश के अन्य भागों में दोहराने मात्र की है।

अंग्रेजी भाषा के विस्तार के माध्यम से षडयंत्रकारी ढंग से भारत के भविष्य की मानसिकता में एक धीमा विष रोपित किया जा रहा है। प्रगतिशीलता व आधुनिकता के नाम पर ‘अंग्रेजी’ भाषा की उपयोगिता का मिथ्या प्रचार करके स्वार्थी तत्त्व अपनी स्वार्थ पूर्ति में व्यस्त हैं। वे ये सोचना नहीं चाहते कि जब ये भविष्य की पीढ़ी अपनी भाषाओं से कट जाएगी तो मानसिक रूप से स्वयं को किस के निकट पाएगी। भारत के अथवा इंग्लैण्ड के? और यह तथ्य प्रत्येक समय स्मरण रहना चाहिए।

– चौरासी घन्टा, मुरादाबाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *