शंकर और जादू
शांकर भाष्य में ‘मायावी’ अर्थात् जादूगर का उल्लेख बहुत आता है । श्री शंकराचार्य जी जादू की उपमा देकर इस संसार को मिथ्या सिद्ध करते हैं । आज कल किसी का जादूगर के जादू पर विष्वास नहीं है । बाजारों में नित्य जादू का खेल हुआ करता है । और जादूगर हाथ की चालाकी से कुछ का कुछ दिखा कर लोगों का मनोविनोद किया करते हैं । परन्तु कोई उनसे धोखा नहीं खाता । जादूगर रेत की चुटकी हाथ में लेकर कुछ मन्तर पढ कर रेत की घडी बना देता है । लोग चकित रह जाते हैं । परन्तु किसी को यह विष्वास नहीं होता कि वस्तुतः रेत की घडी बना दी गई हैं । श्री शंकराचार्य जी के समय में जादूगरों के विशय में लोगों की क्या धारणा थी इसका कुछ नमूना भाश्य से मिल जाता है । हम यहाँ कुछ उदाहरण देते हैं ।
(1)
यथा मायाविनश्चर्मखगंधरात् सूत्रेणाकाषमधिरोहतः स एव मायावी परमार्थरूपो भूमिश्ठोऽन्यः ।
(षां॰ भा॰ 1।1।17 पृश्ठ 39)
अर्थ – जैसे असली जादूगर तो जमीन पर खडा रहता है और एक झूठा जादूगर हाथ में ढाल तलवार लिये रस्सी पर चढता हुआ प्रतीत होता है इसी प्रकार जीव ब्रह्म से अलग है । ब्रह्म तो वास्तविक सत्ता है और जीव की केवल प्रतीति होती है । यहाँ श्री शंकराचार्य जी समझते हैं कि वस्तुतः एक मायावी ऊपर चढ जाता है । इसीलिये उन्होंने यह उपमा दी । बात यह नहीं है । रस्सी पर चढे हुये जादूगर भी असली ही होते हैं । उनको इस प्रकार खेल का अभ्यास रहता है कि वह षीघ्र ही उतर चढ सकते हैं । यह उपमा ब्रह्म के विशय मंे विशम ठहरती है । बादरायण के सूत्र में न तो यह उपमा है न इस सिद्धान्त का गन्धमात्र है ।
(2)
यथा स्वयं प्रसारितया मायया मायावी त्रिश्वपि कालेशु न संस्पृष्यते अवस्तुत्वात्, एवं परमात्मापि संसारमायया न संस्पृष्यत इति ।
(षां॰ भा॰ 2।1।9 पृश्ठ 191)
जैसे अपनी फैलायी हुई माया से जादूगर तीन कालों में भी दूशित नहीं होता क्यांेकि वह अवस्तु है इसी प्रकार परमात्मा भी संसार की माया से दूशित नहीं होता ।
यहाँ षं॰ स्वा॰ मान लेते हैं कि जादूगर में यह षक्ति है कि अवस्तु को वस्तु करके दिखा दे । आजकल जादूगर पर बहुत साहित्य उपस्थित है । उसके देखने से ज्ञात हो जाता है कि केवल धोखा है । जादू की उपमा ब्रह्म को देनी सर्वथा असंगत और अनुचित है ।