दसवाँ अध्याय
परस्पर विरोध
श्री शंकराचार्य जी महाराज मायावाद और ब्रह्म के अभिन्न – निमित्त उपादान कारणवाद को सिद्ध करना चाहते थे जो उपनिशदों, वेदान्त तथा वैदिक सिद्धान्त के विरूद्ध है । अतएव कई स्ािनों पर परस्पर विरोध हो गया है । यहाँ कुछ उद्धरण दिये जाते हैं ।
1- (अ) ‘अविकार्योऽयमुच्यते ।’
(षां॰ भा॰ 1।1।4 पृश्ठ 17)
वह ईष्वर अविकारी है ।
(क) प्राणानां ब्रह्मविकारत्व सिद्धिः ।
(षां॰ भा॰ 2।4।4 पृश्ठ 308)
इससे सिद्ध है कि प्राण ईष्वर के विकार हैं ।
2- (अ) प्रदीप प्रभायाश्च द्रव्यात्रत्वं व्याख्यातम् ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)
दीपक का प्रकाष एक द्रव्य ही दूसरा है ।
(क) अग्नेरिवौश्ण्य प्रकाषौ ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)
जैसे गरमी और प्रकाष अग्नि के गुण हैं ।
3- (अ) अविद्यावद् विशयाण्येव प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि च ।
(षां॰ भा॰ 1।1।1 पृश्ठ 3)
षास्त्र आदि अविद्यावत हैं । षास्त्र में वेद भी आ गया ।
(क) महतऋग्वेदादेः षास्त्रस्यानेक विद्यास्थानोपवंृहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । (षां॰ भा॰ 1।1।3 पृश्ठ 9)
वेद प्रदीप के समान स्वयं सिद्ध हैं क्यांेकि ब्रह्म ही उसकी योनि है ।
4- (अ) षरीर संबन्धस्य धर्माधर्मयोस्तत् कृतत्वस्य चेतरेताश्रयन्वप्रसंगादन्धपरम्प रैशाऽनादित्वकल्पना । (1।1।4 पृश्ठ 22)
यदि षरीर कर्म के आधीन और कर्म षरीर के आधीन मानें जायँ तो यह अनादित्व की कल्पना अन्ध परम्परा हो जायगी ।
(क) नैश दोशः । अनादित्वात् संसारस्य । (2।1।45 पृश्ठ 218)
यह दोश नहीं । क्यांेकि संसार अनादि है ।
5- (अ) तत् कृतधर्माधर्म निमित्तं सषरीरत्वमितिचेन्न । षरीरसंबन्धस्यासिद्धत्वाद् धर्माधर्मयोरात्मकृतत्वासिद्धः ।
(षां॰ भा॰ 1।4।4 पृश्ठ 22)
आत्मा के किये हुये धर्म अधर्म के कारण षरीर नहीं है । षरीर का सम्बन्ध तो सिद्ध ही नहीं, और धर्म अधर्म आत्मकृत हैं यह भी सिद्ध नहीं ।
(क) सापेक्षो हीश्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते । किमपेक्षत इति वदामः
(2।1।34 पृश्ठ 217)
ईष्वर की बनाई हुई सृश्टि की विशमता अपेक्षा के कारण है । किसकी अपेक्षा से? धर्म और अधर्म की अपेक्षा से । ऐसा हमारा कथन है ।
6- (अ) ज्ञानं तु प्रमाणजन्यम् । (1।4।4। पृ॰ 18)
ज्ञान प्रमाणों द्वारा होता है ।
(क) अविद्यावत् विशयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि । (1।1।1 पृश्ठ 2)
प्रत्यक्ष आदि प्रमाण अविद्यावत् हैं ।
7- (अ) द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते, नामरूप विकारभेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् । (1।1।12 पृ॰ 34)
ब्रह्म के दो रूप जाने गये हैं एक नामरूप विकार भेद उपाधि विषिश्ट और दूसरा उपाधि रहित ।
(क) समस्त विषेश रहितं निर्विकल्पकमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतम् ।
(3।2।11 पृश्ठ 356)
ब्रह्म को सब विषेशणों से मुक्त निर्विकल्प ही मानना चाहिये अन्यथा नहीं ।
8- (अ) परस्माद्धि ब्रह्मणो भूतानामुत्पत्तिरिति वेदान्तेशु मर्यादा ।
(1।1।22 पृश्ठ 47)
परब्रह्म से ही भूतों की उत्पत्ति हुई ऐसी वेदान्त वाक्यों की मर्यादा है ।
(क) उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात् ।
(3।2।11 पृश्ठ 355-356)
ब्रह्म में उपाधि तो अविद्या के कारण है ।
9- (अ) न ह्येकस्मिन्धर्मिणि युगपत् सदसत्त्वादि विरूद्धधर्मसमावेषः संभवति षीतोश्णवत् ।(षां॰ भा॰ 2।2।33 पृश्ठ 253)
एक ही धर्मो में एक ही समय सत् और असत् दो विरूद्ध धर्म नहीं रह सकते जैसे सर्दी और गर्मी दोनों ।
(क) तत्त्वान्यत्वाभ्याम निर्वचनीये नामरूपे । (1।1।5 पृश्ठ 27)
नाम और रूप न तत्व हैं न अतत्व । अनिर्वेचनीय हैं ।
10- (अ) अविद्यावत् विशयाणि प्रत्यक्षदीनि प्रमाणानि ।
(षां॰ भा॰ 1।1।1 पृश्ठ 2)
प्रत्यक्षादि प्रमाण अविद्यावत् हैं ।
(क) यद्धि प्रत्यक्षादीनामन्येतमेन प्रमाणेनोपलभ्यते तत् संभवति । यत् तु न केनचिदपि प्रमाणेनोपलभ्यते तत्र संभवति । (2।2।28 पृश्ठ 248)
जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो वह संभव है जो किसी प्रमाण से न सिद्ध हो वह असंभव ।
11- (अ) मायेव संध्ये सृश्टिनं परमार्थ गन्धोऽप्यस्ति ।
(3।2।3 पृ॰ 344)
माया के समान स्वप्न की सृश्टि मंे परमार्थ का गंध भी नहीं है ।
(क) स्मृतिरेशा यत् स्वप्न-दर्षनम् । (2।2।29 पृश्ठ 250)
स्वप्न में स्मृति की चीजें ही प्रतीत होती हैं ।
12- (अ) द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते नामरूप विकार भेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् ।
(षां॰ भा॰ 1।1।12 पृश्ठ 34)
ब्रह्म के दो रूप हैं एक नाम रूप उपाधि वाला, दूसरा उपाधि रहित ।
(क) समस्त विषेशकरहितं निर्विकल्पमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतं । (3।2।11 पृश्ठ 356)
विषेश रहित, निर्घिकल्प ही ब्रह्म है । इससे विपरीत नहीं ।
न तावत् स्वत एव परस्य ब्रह्मण उभेयलिंगत्वमुपपद्यते ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरीतं चेत्य-वधारयितंु षक्यं विरोधात् ।
(पृश्ठ 356)
परब्रह्म मंे स्वतः ही उभय लिंगत्व नहीं हो सकता । यह नहीं हो सकता कि एक वस्तु ही स्वतः रूप आदि विषेशता वाली भी हो और इसके विपरीत भी ।
13- (अ) अयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासः ।
(1।1।1 पृश्ठ 4)
यह अध्यास अनादि अनन्त नैसर्गिक है ।
(क) अस्यानर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्व विद्या प्रति एत्तये सर्वे वेदान्ता आरभ्यन्ते
(पृश्ठ 4)
इसी अनर्थ के प्रहाण के लिये सब वेदान्त यत्न करते हैं ।
नोट – नैसंर्गिक अनादि अनन्त का प्रहाण कैसा?
14- (अ) क्रियासमवाया- भावाच्चात्मनः कर्तृतवानुपपत्तेः ।
(1।1।4 पृश्ठ 22)
आत्मा का कत्र्ता होना सिद्ध नहीं क्यांेकि आत्मा और क्रिया मंे समवाय सम्बन्ध का अभाव है ।
(क) अनादौ तु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमöावेन कर्मणः सर्गवैशम्यस्य च प्रवृतिर्न-विरूध्यते ।
(2।1।35 पृश्ठ 218)
अनादि संसार में बीज और अंकुर के समान कर्म और विशमता की प्रवृत्ति मंे कोई विरोध नहीं । अर्थात् ईष्वर जीवों के कर्मों के अनुकूल षरीर आदि देता है ।
15- (अ) इदं तु परमार्थिकं, कूटस्थनित्यं, व्योमवत् सर्वव्यापि, सर्व विक्रियाग्हितं, नित्यंतृप्तं, निरवयवं स्वयं ज्योतिः स्वभावम् ।
(1।1।4 पृश्ठ 14)
यह तो परमार्थ में कूटस्थ, नित्य, आकाष के समान सर्वव्यापक, सब क्रियाओं से षून्य नित्य तृप्त, अवयव रहित स्वयं ज्योति है ।
(क) अभिध्योपदेषाच्चात्मनः कर्तृतवप्रकृतित्वे गमयति ।
(1।4।24 पृश्ठ 176)
अभिध्या के उपदेष से ब्रह्म का कर्ता और उपादान होना सूचित होता है ।
नोट – जो विक्रिया रहित हो वह उपादान कैसा?
16- (अ) ब्रह्मणोऽपितर्हि सत्तालक्षणः स्वभाव आकाषा दिश्वनुवतमानो द्रष्यते ।
(2।1।6 पृश्ठ 187)
कारण ब्रह्म और काय्र्य आकाष दोनों में सत्तालक्षण मिलता है ।
(क) काय्र्यस्य तद्धर्माणां चाविद्याध्यारोपितत्वान्न तैः कारणं संसृज्यत इति ।
(2।1।9 पृश्ठ 191)
काय्र्य और उसके धर्म सत्य नहीं, अविद्या के आरोपित मात्र हैं ।
17- (अ) सर्वज्ञस्येश्वर-स्यात्मभूत इव
(2।1।14 पृश्ठ 201)
सर्वज्ञ ईष्वर के ही आत्मभूत ।
(क) अविद्या कल्पिते नाम-रूप ।
(2।1।14 पृश्ठ 201)
अविद्या कल्पित नाम रूप हैं ।
नोट – यहाँ एक ही वाक्य मंे दो परस्पर विरूद्ध बातें हैंः-
(1) सर्वज्ञ ईष्वर के आत्म भूत ।
(2) अविद्या कल्पित नाम-रूप ।
सर्वज्ञ ईष्वर के अविद्या कल्पित नाम रूप आत्म भूत कैसे हुये?
18- (अ) यथा च कारणं ब्रह्म त्रिशुकालेशु सत्वं न व्याभिचरति एवं कार्यमपि जगत् त्रिशु कालेशु सत्त्वं न व्याभिचरति ।
(2।1।16 पृश्ठ 203)
जैसे कारण ब्रह्म तीनों कालों मंे सत्य है इसी प्रकार काय्र्य जगत् भी तीनों कालों मे सत्य है ।
(क) जगत् मिथ्या है ।
19- (अ) अनिर्वचनीये नाम रूपे ।
(1।1।5 पृश्ठ 27)
नाम और रूप न सत् हैं न असत् । अनिर्वाचनीय हैं ।
(क) अवक्तव्याष्चेत्रोच्येरम् । उच्यन्ते चावक्तव्यष्चेति विप्रतिशिद्धम् ।
(2।2।33 पृश्ठ 253)
अवक्तव्य हैं तो कहना नहीं चाहिये था । कहे भी जाते हो । और अवक्तव्य भी कहते हो । यह तो परस्पर विरोध है ।
20- (अ) द्रष्यतेहि लोके चेतनत्वेन प्रसिद्धेभ्यः पुरूशादिभ्यो विलक्षणानां केषनखादीनामुत्पत्तिः । अचेतनत्वेन च प्रसिद्धेभ्यो गोमयादिभ्यो वृश्चिकादीनाम् ।
(2।1।6 पृश्ठ 187)
(क) विलक्षण काय्र्योत्पत्त्यभ्युपगमात् समानः प्रागुत्पत्तेरसत्काय्र्यवादप्रसंगः ।
(2।1।12 पृश्ठ 192)
विलक्षण काय्र्य की उत्पत्ति से तो असत्काय्र्य वादी हो जाओगे ।
नोट – षंकर स्वामी असत्काय्र्य वादी नहीं । तो भी विलक्षण उत्पत्ति मानते हैं ।
21- (अ) न ब्रूमो यस्मिन्नचेतने प्रवृत्तिर्द्रष्यते न तस्य सा इति । भवतु तस्यैव सा । सा तु चेतनाद् भवतीति ब्रूमः ।
(2।2।2 पृश्ठ 222)
हम यह नहीं कहते कि जिस अचेतन में प्रवृत्ति देखी जाती है वह उसकी नहीं । उसी की हो । परन्तु हम यह कहते हैं कि यह प्रवृत्ति चेतन से आती है ।
(क) देहेन्द्रियादिश्वहं ममाभिमानरहितस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाणप्रवृत्यनुपपत्तेः ।
(1।1।1 पृश्ठ 2)
देह और इन्द्रिय आदि में ‘अहं’ ‘मम’ रहित प्रमाता की उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः प्रमाण की भी प्रवृत्ति नही ।
नोट – यहाँ यह क्यांे नहीं मानते कि यह प्रवृत्ति आत्मा जो चेतन है उसके कारण है?
22- (अ) यथा सुप्तस्य प्राकृतस्यजनस्य स्वप्न उच्चाव-चान्भावान्पष्यतो निष्चितमेव प्रत्यक्षाभिमतं विज्ञानं भवति प्राक्प्रबोधनात् न च प्रत्यक्षाभासाभिप्रायस्तकाले भवति, तद्वत् ।
(2।1।14 पृश्ठ 198)
जैसे स्वप्न में मनुश्य अतथ्य देखता है ऐसे ही जाग्रत में भी अतथ्य ही है ।
(क) न स्वप्नादि प्रत्ययवज् जाग्रत् प्रत्यया भवितुमर्हन्ति । कस्मात् ? वैधम्र्यात् । वैधम्र्य हि भवति स्वप्रजागरितयोः । किं पुनर्वैधम्र्यम् । बाधाबाधाविति ब्रूमः ।
(2।2।21 पृश्ठ 250)
स्वप्न के प्रत्यय और जाग्रत् के प्रत्ययों में भेद है स्वप्न के प्रत्ययों का बाध हो जाता है जाग्रत के प्रत्ययों का बाध नहीं होता ।
23- (अ) गायत्री वा इदं सर्वमिती । न ह्यक्षरंनिवेष-मात्राया गायत्र्याः सर्वात्मकत्वं संभवति । तस्माद् यद् गायत्र्याख्य विकारेऽनुगतं जगत्कारणं ब्रह्म तदिह सर्वमित्युच्यते ।
(1।1।24 पृश्ठ 54)
(क) विक्रियारहितम् ।
(1।1।4 पृश्ठ 14)
ब्रह्म विकार रहित है ।
24- (अ) नहि जीवनामात्यन्तभिन्नो ब्रह्मणः ।
(1।1।31 पृश्ठ 61)
ब्रह्म से भिन्न जीव नहीं ।
(क) नन्वीष्वरोऽपिषरीरे भवति, सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति ।………..जीवन्तु षरीरएव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच्छरीरादन्यत्र वृत्त्याभावात् ।
(1।2।3 पृश्ठ 66)
ईष्वर भी षरीर में है । यह ठीक है । परन्तु षरीर में ही है ऐसा नहीं । जीव तो षरीर में ही है । षरीर से बाहर उसकी वृत्ति नहीं जाती । षरीरा उसके भोग का अधिश्ठान है ।
नोट – यहाँ जीव और ईष्वर का स्पश्ट भेद है ।
25- (अ) कर्तृतवानुपपत्तेः ।
(1।1।4 पृश्ठ 22)
(क) सर्ववेदान्तेशु सृश्टि-स्थिति संहारकारणत्वेन ब्रह्मणः प्रसिद्धत्वात् ।
(1।2।9 पृश्ठ 70)
सब वेदान्तों में प्रसिद्ध है कि ईष्वर सृश्टि, स्थिति और संहार करने वाला है ।
26- (अ) नषारीरस्य तनुमहिम्नः ।
(1।2।23 पृश्ठ 85)
जीव अल्पषक्ति है । वह सब भूतों की योनि नहीं हो सकता ।
(क) नहि जीवनामात्यन्त भिन्नो ब्रह्मणः ।
(1।1।31 पृश्ठ 61)
27- (अ) परमार्थावस्थायां सर्वव्यवहाराभावं वदन्ति वेदान्ताः सर्वे ।
(2।1।10 पृश्ठ 201)
परमार्थ अवस्था में सब व्यवहारों का अभाव होता है । ऐसा वेदान्त मानता है ।
(क) व्यवहारावस्थायां तूक्तः श्रुतावर्प ष्वरादिव्यवहारः ।
(2।1।10 पृश्ठ 201)
व्यवहार अवस्था में तो वेद में भी ईष्वरादि का व्यवहार किया है ।
नोट – व्यवहार परमार्थ से भिन्न क्यांे है? यदि व्यवहार परम अनर्थ है तो वेद में इसका प्रतिपादन क्यों है? वेद को तो सूय्र्यवत् कहा है ।
28- (अ) यत् सर्वज्ञं सर्वषक्ति ब्रह्मनित्यषुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं षारीराधिकमन्यत्, तद्वयं जगतः स्त्रश्ट ब्रूमः ।
(2।1।22 पृश्ठ 208)
जो सर्वज्ञ सर्वषक्तिमान, नित्य षुद्ध बुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव है और जीव से बडा है, उसी को हम जगत् का स्त्रश्टा कहते हैं ।
(क) जीवस्य संसारित्वं ब्रह्मणश्च स्त्रश्टंत्वं………सम्यग् ज्ञानेन बाधितत्वात् ।
(2।1।22 पृश्ठ 209)
सम्यग् ज्ञान से जीव का संसारीपन और ब्रह्म का स्त्रश्टा होना बाधित हो जाता है ।
नोट – जब बाधित हो गया तो ब्रह्म का स्त्रश्टा होना भी झूठ रहा ।
29- (अ) सामान्याद्धि विषेशा उत्पद्यमाना द्रष्यन्ते मृदादेर्घटादयो न तु विषेशेभ्यः सामान्यम् ।
(2।3।9 पृश्ठ 271)
सामान्य से ही विषेश उत्पन्न हुये देखे जाते हैं जैसे मिट्टी से घडे आदि । विषेश से सामान्य नहीं ।
नोट – यहाँ षंकर स्वामी सामान्य विषेश का भेद स्वीकार करते हैं ।
(क) न च वैषेशिकैःकल्पितेभ्यः शड्भ्यः पदार्थेभ्योऽन्येऽचिकाः षतं सहस्त्रं वार्था न कल्पयितव्या इति निवारको हेतुरस्ति ।
(2।2।17 पृश्ठ 237)
वैषेशिक ने छः पदार्थों की कल्पना की है । सौ और हजार की भी हो सकती है । कोई हेतु तो है नहीं ।
नोट – यहाँ वैषेशिकों के छः पदार्थों का मखौल उडाया है और आगे स्वयं इन्हीं को माना है