अदीना स्याम शरदः शतम्
-श्री गजानन्द आर्य, संरक्षक परोपकारिणी सभा
पिछले अंक का शेष भाग….
ईश्वर ने शरीर की रचना की,शरीर के अलग-अलग अंग बनाए, जिनसे मनुष्य अलग-अलग काम लेता है। आँखों से देखता है, कानों से सुनता है, मुँह से भोजन ग्रहण करता है, नाक से श्वास लेता है, पैरों से चलता है, हाथों से काम करता है इत्यादि। सभी अंगों में यथायोग्य शक्ति का संचार किया, लेकिन जो सबसे बड़ी शक्ति ईश्वर ने दी, वह है मनुष्य का मस्तिष्क। यह मस्तिष्क है जो शरीर के सभी अंगों से काम करवाता है। मस्तिष्क के निर्देश पर शरीर किसी भी काम को करने के लिए उद्यत होता है। सारे अंग एक तालमेल के साथ उस काम में लग जाते हैं। ईश्वर ने अपनी इस रचना को जिसे हम मस्तिष्क कहते हैं, उर्वर बनाया है। इसमें अद्ध्रुत शक्तियाँ भर दी हैं। किसी उपजाऊ जमीन की तरह इसके अंदर विचारों की खेती होती है, फसलें लगती हैं, निर्णय लिए जाते हैं तथा उन निर्णयों के आधार पर कार्य संपादन होता है। गीता के तेरहवें अध्याय में मनुष्य को क्षेत्र कहा गया है तथा मस्तिष्क को क्षेत्रज्ञ।
ईश्वर ने हमें चार प्रकार की जीवनी शक्तियाँ दी हैं, जिन्हें हम कहते हैं-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। चारों शक्तियाँ निराकार हैं। ये सामान्य आँखों से देखी नहीं जा सकतीं, लेकिन ये चारों शक्तियाँ हमारे मस्तिष्क में समाविष्ट हैं। चारों शक्तियाँ ही मस्तिष्क रूपी खेत में बीज डालती हैं। वे ही बीज मस्तिष्क में बढ़ते-बढ़ते विशाल वृक्ष की तरह विशाल योजनाओं का रूप ले लेते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ये चारों जीवनी शक्तियाँ, इंसान की मृत्यु के बाद उसके कर्मों के बाकी बचे हुए फलों के रूप में, उसे पुनर्जन्म में उसके अंदर रोपित मिलती हैं, अर्थात् जब एक शिशु जन्म लेता है तो उसके अन्दर इन चारों जीवनी शक्तियों के बीज कम या ज्यादा मात्रा में मौजूद होते हैं। यह मात्रा उसके पूर्वजन्म के शुभ कर्मों के फलस्वरूप निर्धारित होती हैं। यही कारण है कि जब दो जुड़वाँ बच्चे एक साथ पैदा होते हैं, तो भी उनके अंदर की जीवनी शक्तियाँ एक-सी नहीं होतीं। इस कारण उनमें से एक बच्चा अधिक मेधावी, अधिक बुद्धिमान् और अधिक तेजस्वी हो सकता है।
अगर हम पूरे शरीर की तुलना आज के युग में प्रयुक्त कंप्यूटर से करें तो हम कह सकते हैं कि हमारा जो स्थूल शरीर है, वह कंप्यूटर के हार्डवेयर की तरह है, लेकिन मस्तिष्क के अंदर स्थापित शक्तियाँ इसके ऑपरेटिंग सिस्टम की तरह हैं, जो विचार नाम के सॉफटवेयर को जन्म देती रहती हैं। वास्तविकता यह है कि कप्यूटर की रचना मनुष्य शरीर की सारी शक्तियों का अनुकरण करके ही हुई है। शिवसंकल्पमस्तु के मंत्रों में ऐसी चर्चा है-शरीर एक यज्ञ की तरह है जिसमें 7 प्रकार के होता हैं। होता वह होते हैं जो यज्ञ में आहुति डालते हैं और इसक ी अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। इसे और अधिक दैदीप्यमान बनाते हैं। दो आँख, दो कान, दो नासिकाएँ तथा एक मुख -यह सातों होता मस्तिष्क को ज्ञान के रूप में आहुति देते हैं।
कानों में ध्वनि के रूप में, आँखों में दृश्य के रूप में, नासिका में प्राण शक्ति तथा गंध के रूप में, मुख में स्वाद और हर खाद्य वस्तु के गुण के रूप में आहुतियाँ ही तो हैं। एक उदाहरण लेते हैं- एक नवजात शिशु जब माँ के गर्भ से बाहर आता है, तब उसकी सबसे पहली पहचान अपनी माँ से ही होती है। वह शिशु माँ के शरीर के अंदर पैदा होकर बड़ा हुआ, वह उस शरीर के स्पर्श को, ऊष्मा को तथा गंध को पहचानता है। जब माँ अपने नवजात शिशु को अपने हाथों में लेकर अपने हृदय से लगाती है तो शिशु अपने-आपको सुरक्षित अनुभव करता है।
शिशु के पैदा होने के बाद सबसे अधिक प्रतीक्षा होती है उसके रोने की। अगर शिशु रोता नहीं है, तो उसे प्रयास करके रुलाया जाता है। जब शिशु रोना शुरू करता है, तब जाकर माँ और अन्य लोगों को यह पूरा विश्वास होता है कि बच्चा ठीक है। लेकिन शिशु की दृष्टि से देखें तो उसका रोना उसको अपने अस्तित्व का ज्ञान होना है। ईश्वर प्रदत्त शक्तियों में अहंकार का अर्थ साधारण भाषा में घमण्ड मान लिया गया है, लेकिन शास्त्रों में अहंकार का अर्थ है- स्वयं के अस्तित्व को समझना। बच्चे का प्रथम रुदन बच्चे के अंदर उसके अहंकार यानी उसके अस्तित्व के होने का बीजारोपण है।
जब शिशु रोने लगता है, तो माँ विह्वल होकर शिशु को अपने स्तन से लगाती है। ईश्वर की रचना का सौंदर्य है कि शिशु को इस विश्व में लाने के पूर्व, उसके आहार की व्यवस्था दूध के रूप में माँ के स्तनों में संचारित कर देता है। जैसे ही शिशु का मुँह माँ के स्तन को स्पर्श करता है, उसके अन्दर स्थापित बुद्धि उसे उस दूध को पीने और उसे उदर के अँदर पहुँचाने की कला सिखा देती है। यहाँ से शिशु के विकास में उसकी बुद्धि का प्रयोग शुरू हो जाता है।
धीरे-धीरे शिशु यह सीख जाता है कि उसे कुछ चाहिए तो उसे रोना पड़ेगा, उसके रोते ही माँ उसे उठा लेती है और उसे दूध पिलाने लगती है। लेकिन शिशु की आवश्यकताएँ बढ़ने लगती है, फिर जब शिशु स्तन से दूध पीने का विरोध करता है, तो माँ उसकी अन्य आवश्यकताओं का अध्ययन करती है। शायद इसने मल या मूत्र कर दिया हो या कोई मच्छर तो नहीं काट गया या फिर कोई चीज उसकी कोमल त्वचा में चुभ तो नही रही या उसके उदर में कोई समस्या है। धीरे-धीरे माँ और शिशु के बीच एक संवाद स्थापित हो जाता है, जिसमें शद नहीं होते। दोनों की ही बुद्धियाँ इस संवाद को स्थापित करने में मदद करती हैं। शिशु जब खुश होकर मुस्कुराता है, माँ का हृदय वात्सल्य से भर जाता है। माँ उसे कलेजे से लगाती है, चूमती है, तब शिशु समझने लगता है, उसकी मुस्कुराहट का माँ पर क्या असर होता है।
ईश्वर ने मातृत्व में अद्धुत शक्तियाँ प्रदान की हैं। कोई स्त्री स्वभाव से कितनीाी डरपोक क्यों न हो, लेकिन बच्चे को जन्म देने की असह्य पीड़ा वह सह जाती है। बच्चे के जन्म के साथ ही उसकी अपनी दिनचर्या बदलकर बच्चे की दिनचर्या से जुड़ जाती है। बच्चा जब सोता है, तब माँ सोने का प्रयास करती है, लेकिन उसे नींद में भी अपने बच्चे का स्पर्श जरूरी होता है। जब बच्चा जाग जाता है तो माँ अपनी नींद की परवाह किए बिना उसके साथ जागती है। बच्चे के हँसने-रोने से माँ की ममता, हर्ष, चिंता, दुविधा आदि भाव जुड़े होते हैं।
माँ ही बच्चे का परिचय उसके पिता से करवाती है। जब माँ गोद में लेकर बच्चे से कहती है- देखो, यह तुमहारे पिता है, तब हमें लगता है कि यह बच्चा यह सब कहाँ समझेगा। लेकिन बच्चे का नन्हा मस्तिष्क धीरे-धीरे परत-दर-परत यह ज्ञान ग्रहण करता है कि कौन उसके पिता हैं, दादा हैं, दादी हैं, भाई-बहन हैं। उसकी पहचान सबसे बढ़ने लगती है। बच्चे का निर्माण कार्य यूँ तो माता के उदर में ही प्रारमभ हो जाता है, लेकिन इसके बाद उसका यह निर्माण कार्य पूरी उम्र भर चलता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो माँ उसके एक-एक अंग को परखती है। वह देखती है कि बच्चा सुन पा रहा है या नहीं, बोल पा रहा है या नहीं, उसके हाथ-पैर ठीक तरह से गतिमान हैं या नहीं? माँ धीरे-धीरे बच्चे को बोलना सिखाती है। बच्चा एक-एक शबद सीखने लगता है। उसे उसका नाम बताती है, बच्चा धीरे-धीरे अपने नाम को समझने लगता है। कोई जब उसके नाम से उसे पुकारता है तो वह उस तरफ देखने लगता है। यह प्रारंभिक ज्ञान जो उसे अपने माँ से मिलता है, यही तो उन जीवनी शक्तियों का उसके मस्तिष्क में बीजारोपण है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, बच्चा अपने पिता से, परिवार के अन्य लोगों से तथा गुरुजनों से बहुत कुछ सीखता है। उसके मस्तिष्क का खजाना दिनों-दिन समृद्ध होता जाता है। मस्तिष्क का विकास ही मनुष्य को उसके वृद्धावस्था तक पहुँचते-पहुँचते पूरी तरह परिपक्व बनाता है।
उसके खजाने में भाषा, व्याकरण, गणित, साहित्य, विज्ञान, इतिहास, लोकाचार, मर्यादाएँ, व्यवहार आदि सब कुछ प्रचुर मात्रा में भरा होता है। हर प्रकार के ज्ञान का वह समयानुसार लाभ लेता है। लौकिक ज्ञान ही मात्र कारण नहीं होता मस्तिष्क के विकास का। हर बच्चा जब जन्म लेता है तो वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के कुछ अनुभव, बचे हुए कर्मों का हिसाब-किताब और कुछ स्मृतियाँ लेकर आता है। ईश्वर पूर्व जन्म के कर्मों के फल को बच्चे की जीवनी शक्ति से जोड़ देता है। हर जीवात्मा का शुभ-अशुभ कर्म उसे उसका फल जरूर दिलवाता है। जो कर्म एक जीवनकाल में फल से बच जाते हैं, वे सारे कर्म जीवाता के साथ उसके पुनर्जन्म में साथ जाते हैं। कोई बच्चा विकलांग क्यों पैदा होता है, कोई मंद बुद्धि या कोई कुशाग्र बुद्धि क्यों होता है, क्यों कोई गरीब के घर में जन्म लेता है और क्यों कोई अमीर के? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है- पूर्वजन्म के बचे हुए कर्म फल उसके नए जन्म में भाग्य के नाम से जाने जाते हैं।
बच्चे की जीवनी शक्ति में बुद्धि का विकास हमने समझा। दूसरा महत्त्वपूर्ण भाग है अहंकार। जैसा कि पहले लिखा है, अहंकार का अर्थ है स्व-अस्तित्व। साधारण भाषा में कहें तो मेरेपन की भावना। मनुष्य के विकास के साथ उसका मेरापन बढ़ता है, वह स्वयं से आगे बढ़कर परिवारको मेरा परिवार मानने लगता है, अगले वृत्त में पहुँचकर वह मेरे मित्र, मेरा गाँव, मेरे देश की तरफ बढ़ने लगता है, उसके अस्तित्त्व के दायरे का विकास होता है और वह मैं की संकुचित सीमा से निकल कर आगे बढ़ता रहता है। उसकी बुद्धि, उसकी परिस्थितियों के आधार पर उसका दायरा बढ़ता है। कई बार यह दायरा संकीर्ण हो जाता है। कुछ लोग अपनी जाति को ही अपना सर्वोच्च दायरा मान लेते हैं, कोई अपनी भाषा बोलने वालों तक अपना दायरा बना लेता है। इसी प्रकार धर्म, मान्यता, ऐतिहासिक मूल, आदि कई कारण बनते हैं इस अहंकार की सीमा के। जो जीवन में सर्वोच्च उँॅचाइयों तक पहुँच जाता है, वह मनुष्य मात्र और प्राणी मात्र को अपने अहंकार की सीमा मानने लगता है। इतिहास में सब तरह के उदाहरण हम पाते हैं। मुगल शासकों के इतिहास में देखते हैं तो हम पाते हैं कि उसमें ऐसे-ऐसे स्वार्थी हुए हैं, जिन्होंने अपने खुद के हित के लिए अपने पिता को तथा अपने भाइयों को मार दिया और बादशाह बने।
आज के युग में हम देखते हैं कि परिवार में जो भाई ज्यादा धन अर्जन करने लगता है, वह समझने लगता है कि मेरा कमाया हुआ धन बस मेरा है। दूसरे भाइयों की मेरी क्या जिमेवारी? पिता अपनी संपत्ति का बँटवारा अपने पुत्रों में तो कर देता है, लेकिन अपने गरीब सगे भाइयों को कुछ नहीं देता। दूसरी तरफ से सीमा पर लड़ रहे सैनिक की उदारता देखिए कि वह अपने देश को अपना अस्तित्व मानते हुए दुश्मनों से लड़ता है और अपने प्राणों की बाजी लगा देता है। मेरेपन की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति की अलग होती है, उसकी परिधि के अनुसार संसार में उसकी खयाति होती है। हमारी जीवनी शक्तियों का एक हिस्सा है-मन। मन हमारे मस्तिष्क का वह विभाग है जो मानवीय भावनाओं का के न्द्र होता है। हमारी भावनाएँ हमारे संस्कारों, हमारी शिक्षा तथा कुछ हद तक हमारे परिवेश का परिणाम होती हैं। मन की पवित्रता व्यक्ति को सज्जन पुरुष बना देती है, मन की कुटिलता उसको अपराधी बना देती है। कई बार मन अपनी साीमाएँ लाँघने की कोशिश करता है। उस समय उसकी बुद्धि उसे रोकती है। मन की कुटिलता मनुष्य से चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या जैसे घृणित काम करवाती है। इन कामों को करने के पीछे उसे तात्कालिक लाभ तो नजर आता है, लेकिन दंड नहीं। उस व्यक्ति की बुद्धि इतनी कमजोर होती है कि उसे लाभ तो आकर्षित करते हैं, लेकिन दंड गौण हो जाता है।
मधुमेह के मरीज को मिठाई वर्जित होती है, लेकिन उसका मन जब विद्रोह करने लगता है तो वह उस सीमा को लाँघ कर मिठाई खा लेता है। क्षणिक स्वाद उसे सुख पहुँचाता है, लेकिन उसकी बढ़ी हुई अस्वस्थता उसे बहुत कष्ट देती है, इसलिए शास्त्रों में शिवसंकल्पमस्तु के मंत्रों में मन को उत्तम बनाने की प्रार्थना की गई है। मन पर नियंत्रण पाने की कामना की गई है। मन और बुद्धि का गहरा संबंध है। मन की इच्छाएँ बुद्धि के आधार पर निर्भर हैं। एक छोटा-सा बच्चा चाँद को देखकर उसे पाने के लिए लालयित हो सकता है। उसका दोष नहीं, क्योंकि उसकी बुद्धि इतनी तीव्र नहीं होती। वह नहीं समझ सकता कि यह बात असंभव है। उसी तरह एक छोटा बच्चा अगर किसी खतरनाक जीव या वस्तु को देाता है तो उससे डरता नहीं, उसकी तरफ चल पड़ता है।
युवावस्था में मन की भावनाएँ शरीर में होने वाले परिवर्तनों के कारण गलत दिशा में भटकने की तरफ आकर्षित होती हैं। मित्रों की देखा-देखी कई बच्चे धूम्रपान, शराब या अन्य बुरी वस्तुओं की तरफ प्रेरित होते हैं। ऐसे में उनकी बुद्धि अगर सुसंस्कारों से युक्त होगी तो उन्हें गलत रास्ते पर जाने से रोक लेगी। इसलिए जहाँ शिवसंकल्पमस्तु के मंत्रों में अच्छे मन की प्रार्थना की गई है, उसी प्रकार गायत्री महामंत्र में अच्छी बुद्धि की प्रार्थना की गई है। अच्छी बुद्धि और अच्छा मन मिलकर ही एक अच्छा व्यक्तित्व बनता है।
जीवनी शक्तियों का चौथा विभाग है चित्त। चित्त का सीधा अर्थ जुड़ता है चेतना से। हमारी चेतना का स्तर हमारे चित्त को निर्धारित करता है। व्यक्ति में अलग-अलग प्रकार के गुण-अवगुण पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए आलस्य, प्रमाद, चंचलता, गंभीरता, चुस्ती, फुर्ती, अंतमुर्खीवृत्ति या बाह्यमुखीवृत्ति इत्यादि। ये बातें कहीं न कहीं चेतनता से जुड़ी हैं। चित्त की वृत्ति भी मनुष्य अपने प्रयासों से ठीक करता है। इस वृत्ति को ठीक करने में उसकी बाकी तीनों शक्तियाँ काम करती हैं। एक संपूर्ण व्यक्तित्व चारों जीवनी शक्तियों के समावेश से बनता है।
जब हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं- अदीनाः स्याम शरदः शतम् तो उसमें यही प्रार्थना करते हैं-ईश्वर, हमें 100 वर्ष की आयु दीजिए लेकिन हमारी जीवनी शक्तियों के साथ। अगर हमारी ये शक्तियाँ चली गईं तो हमारा जीवन बेकार है। वृद्धावस्था में हमारी शारीरिक शक्तियाँ तो कम होंगी ही, लेकिन हमारी बौद्धिक, आत्मिक तथा वैचारिक शक्तियाँ क्षीण नहीं होनी चाहिए। हमारी जीवनी शक्तियाँ हमारे वृद्धावस्था का खजाना है। जीवनभर के अनुभव, स्वाध्याय, आचरण और आध्यात्मिकता के बल पर हमारी वृद्धावस्था में हमारी जीवनी शक्तियाँ चरमोत्कर्ष पर होती हैं। हम शारीरिक रूप से अशक्त हो चलते हैं, लेकिन बौद्धिक रूप से नहीं।
हमें सौ वर्ष की उम्र तक हमारी जीवनी शक्तियों का पूरा सामर्थ्य मिले, ईश्वर से यही प्रार्थना है।
– द्वारा श्री महेन्द्र आर्य, मुबई