आत्मा का स्थान-1

आत्मा का स्थान-1

–  स्वामी आत्मानन्द

आत्मा शरीर में किस स्थान पर रहता है? यह एक प्रश्न है। इस प्रश्न को अवकाश तब ही मिलता है जबकि हम आत्मा को अणु मान लें। व्यापक मान लेने पर तो आत्मा सारे ही शरीर में और शरीर से बाहर भी विद्यमान होगा, अतः इस सिद्धान्त को मानने वाले के सामने तो यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता। आत्मा को मध्यम परिमाण वाला मानने वाले विचारकों के समान भी यह प्रश्न आता नहीं। क्योंकि वे आत्मा को सारे शरीर में व्यापक मानते हैं उसके किसी एक देश में नहीं। अतः यह प्रश्न उन्हीं विचारकों के सामने उपस्थित होता है जो आत्मा को अणु, और इसी लिये शरीर के किसी एक देश में उसका निवास मानते हैं। यद्यपि प्रसङ्ग-वश उपनिषदों की दृष्टि से आत्मा के परिमाण का भी निर्देश कर दिया जावेगा, परन्तु इस लेख का विचारणीय विषय यह नहीं है कि आत्मा का परिमाण क्या है। इस लेख में दर्शनों के आधार पर नहीं, केवल उपनिषदों के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर दिया जावेगा कि ‘आत्मा का निवास हमारे शरीर के किस भाग में है’?

यह लेख इस दृष्टि से नहीं लिखा जा रहा है कि इसे ही सिद्धान्त मान लिया जावे जो विषय इस लेख में प्रतिपादित है। प्रत्युत मैं यह विचार धारा ‘भवद्यः-अवसरप्रदानाय वचान्सि नः’ (=आप कुछ कहें, इसलिए हम बोल रहे हैं) इस भावना से प्रस्तुत कर रहा हूँ। जो विद्वान् महानुभाव इस विचारमाला में अपने मनोहर पुष्पों को युक्ति से गूंथने की कृपा करेंगे मैं उनका आभारी हूँगा। मैं यह कभी आग्रह न करुँगा कि जो कुछ मैंने समझा है वह ही ठीक है। जो उत्तम विचार इस विषय में संगृहीत हो सकें, उनका सङ्कलन कर जनता के लाभ की वस्तु बना देना ही एक मात्र लक्ष्य है। विद्वानों के पारस्परिक विचार प्रसङ्ग में आई हुई कटुता जनता को तथा विद्वानों को स्वयं भी खटकती है और उस कटुता के पर्दे में छिपा हुआ विषय अनुपादेय सा ही बन जाता है। अतः सविनय प्रार्थना है और आशा है कि निबन्ध की त्रुटियों को सुझाता हुआ   विद्वत्समुदाय सन्मार्ग प्रदर्शित करने का यत्न करेगा। आत्मा चेतना का आश्रय है। हमें अपने अन्तःकरण आदि साधनों से जितने ज्ञान होते हैं उन सब का कर्ता आत्मा ही है।

हमारी इन्द्रियाँ, अन्तःकरण तथा मस्तिष्क आदि जितने भी साधन हैं वे सब ही जड़ हैं। इनमें से यद्यपि अन्तःकरण में तथा इन्द्रियों में प्रकाश है, परन्तु उस प्रकार का प्रकाश जिसे चैतन्य कहते हैं, और जो आत्मा में है, इनमें नहीं है। इनके प्रकाश का प्रत्यक्ष अन्तर्मुखी चक्षु से हो सकता है, परन्तु आत्मा के चैतन्य रूप प्रकाश का प्रत्यक्ष चक्षु से नहीं हो सकता। जिस प्रकार सूर्य एक कक्ष पर अपना प्रकाश डालकर उसे प्रकाशित कर देता है, परन्तु जड़ होने के कारण यह नहीं जान सकता कि यह कक्ष है। इसी प्रकार मन और इन्द्रियाँ भी सूर्य की भांति ही कक्ष को प्रकाशित तो करते हैं परन्तु वे भी यह नहीं जान सकते कि यह कक्ष है क्योंकि वे  भी जड़ हैं।

आत्मा, सूर्य, मन, और इन्द्रियों के प्रकाशित किये हुए कक्ष को उन्हीं की भाँति प्रकाशित तो नहीं करता, परन्तु उनके द्वारा प्रकाशित किये उस कक्ष की इसे अपने चैतन्य के बल पर अनुभव हो जाता है, और वह जान लेता है कि यह कक्ष है। इस प्रत्यक्ष की साधन जो आत्मा का चैतन्य है उसका प्रत्यक्ष न इन्द्रियाँ कर सकती हैं और न मन। अपने इस चैतन्य का प्रत्यक्ष या तो आत्मा स्वयं करता है या ईश्वर को इसके ज्ञान का प्रत्यक्ष होता है। इसे अपने ज्ञान का प्रत्यक्ष तब हुआ करता है जब यह कक्ष को जान कर यह कहा करता है कि ‘‘मैं कक्ष को जानता हूँ’’ इसके इस कथन का तात्पर्य यह हुआ करता है कि मेरे पास कक्ष का ज्ञान है। यह आत्मा को अपने उस ज्ञान का प्रत्यक्ष हुआ है जो कि उसे पहिले‘‘यह कक्ष है’’ इस रूप में हुआ था, और जिसमें कि इन्द्रियों का और मन का सहयोग था। परन्तु इस ज्ञान के ज्ञान काल में तो ये सब साधन मौन हैं। इसी कारण आत्मा के तथा ईश्वर के अभौतिक चैतन्य का प्रकाश इन्द्रियों से तथा मन से नहीं हो सकता क्योंकि चैतन्य इस सब की पहुँच से परे है।

उपनिषद् के ‘‘न तत्र सूर्यो भाति’’ (उसके सामने सूर्य नहीं चमक सकता) इस वाक्य का यही तात्पर्य है कि सूर्य का प्रकाश प्रभु के प्रकाश को प्रकाशित नहीं कर सकता। ‘‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति’’ (उसके प्रकाश से यह सब चमक रहा है)इस वाक्य का तात्पर्य भी यह नहीं है, जैसे कि सूर्य और चन्द्रमा के विषय में कहा जाता है, कि सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा चमक रहा है। यदि यह ही तात्पर्य होता तो हमें समझना पड़ता कि जैसा सूर्य का प्रकाश है वैसा ही और उससे सहस्रों गुणा प्रकाश ईश्वर का होगा, जिससे कि सूर्य आदि चमक रहे हैं परन्तु बात ऐसी नहीं है। यदि सूर्य जैसा और सूर्य से सहस्रों गुणा प्रकाश ईश्वर का होता तो वह हमें अपनी इन आंखों द्वारा ही दिखाई देना चाहिये था। और दिखाई देना तो दूर रहा उसे इतने महान प्रकाश से हमारी आंखें इतनी चुन्धिया जाती कि हमें कुछ भी दिखाई न देता, क्योंकि सूर्य तो हमसे बहुत दूर एक ही स्थान पर है और उसका प्रकाश बड़ी दूर से हमारे पास आता है, परन्तु ईश्वर का प्रकाश तो उसके सर्वव्यापक होने से हमारी आंखों के बीच में ही विद्यमान् है। अतः ईश्वर का प्रकाश सूर्य जैसा नहीं, आत्मा जैसा अनुरूप है। परन्तु वह प्रकाश आत्मा के प्रकाश से कितना अधिक है यह लिखने और बोलने की बात नहीं है। इसका अनुमान यहाँ से ही लगा सकते कि जीव एक अणु के समान है और ईश्वर सर्वव्यापक है। इस प्रकार आत्मा का प्रकाश अभौतिक और अनुभव रूप है उसका भौतिक साधनों से प्रत्यक्ष नहीं हो सकता और इसके अतिरिक्त अन्य तत्त्वों का प्रकाश भौतिक है उसका अन्य साधनों के सहकार से आत्मा को प्रत्यक्ष होता है।

‘ईश्वर के प्रकाश से सूर्य आदि चमक रहे हैं’ इस उपनिषद् के वाक्य का तात्पर्य यह ही है कि ईश्वर का ज्ञान इतना अधिक है कि प्रभु उस प्रकाश में प्रकृति के प्रत्येक अणु की शक्ति को पहिचान कर, सूर्य आदि पदार्थों की रचना में ऐसे परमाणुओं की योजना करता है कि उनसे निर्मित पदार्थ एक महान् प्रकाश का भण्डार बन जाता है। यदि ईश्वर का ऐसा ज्ञान न होता तो इन प्रकाश के पुञ्ज पदार्र्थों की रचना न हो सकती। बस यह ही उपनिषद् के इस वाक्य का तात्पर्य है।

इस प्रसङ्ग में आत्मा के सबन्ध में हमने यह बतलाने का यत्न किया है कि आत्मा एक चेतनावान् तत्त्व है। उसे उस चेतना अथवा अनुभव के द्वारा ही सब पदार्थों के ज्ञान होते हैं। इन्द्रियाँ, मन, मस्तिष्क आदि सब उसके इस ज्ञान में साधन हैं। ये स्वयं चेतनावान् नहीं है।

अब प्रश्न यह होता है कि आत्मा यदि चेतनावान् है तो उसकी उस चेतना की प्रतीति तो इस सारे ही शरीर में है। शरीर के प्रत्येक अङ्ग में जो क्रियाएँ अन्दर अथवा बाहर हो रही हैं उन सब को चेतना के आधार पर ही जन्म मिलता है। मन, प्राण, इन्द्रिय आदि साधन इन क्रियाओं की उत्पत्ति में आत्मा के सहायक हो सकते हैं परन्तु जड़ होने के कारण वे स्वयं सोच कर किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकते। और जब क्रियाएँ शरीर के सब अङ्गों में हो रही हैं और आत्मा ही उनका जनक है तो आत्मा का निवास सारे शरीर में ही होना चाहिये। आत्मा शरीर के किसी एक भाग में हो और उसका चैतन्य शरीर के सब अङ्गों में क्रिया को उत्पन्न कर देगा यह माना नहीं जा सकता। क्योंकि गुण अपने गुणी में ही रहा करता हैं।अतःचैतन्य भी शरीर के उसी भाग में होगा जिसमें आत्मा है अतः वह भी सारे शरीर में क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकता। अतः आत्मा को ही इन क्रियाओं की उत्पत्ति के लिये सारे शरीर में व्यापक मानना चाहिये।   क्रमश…..

 

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