आगे हम सप्रमाण यह पढ़ेंगे कि आदि मानवसृष्टि-कालीन ऋषि ब्रह्मा का पुत्र मनु स्वायंभुव इस सृष्टि का आदिराजा बना। वह चक्रवर्ती सम्राट् था। ब्रह्मर्षि ब्रह्मा ने वेदों से ज्ञान प्राप्त करके जो वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन किया था, उसको मनु ने अपने शासन में क्रियात्मक रूप दिया और आवश्यकतानुसार उसमें नयी व्यवस्थाओं का समन्वय किया। इस कारण वर्णाश्रमव्यवस्थाधारित समाज-व्यवस्था के सर्वप्रथम संस्थापक मनु स्वायंभुव कहलाये। आदि सृष्टि का प्रमुख पुरुष होने के कारण और ‘मानव’ वंश का प्रतिष्ठापक होने के कारण उसे ‘आदि-पुरुष’ भी माना गया है। धर्मविशेषज्ञ और धर्मप्रवक्ता होने के कारण उसे धर्मप्रदाता और आदिविधिप्रदाता का सम्मान प्राप्त है। मनु को यह श्रेय भारत ही नहीं अपितु अपने समय के सम्पूर्ण आवासित विश्व में प्राप्त था, इस तथ्य का ज्ञान हमें संस्कृत के प्राचीन इतिहासों और विश्व के इतिहासों से मिलता है।
मनु ‘आदि-राजा’ अथवा ‘आदि-राजर्षि’ थे। प्राचीन इतिहास में प्राप्त विवरण के अनुसार, मनु के दो पुत्र हुए – प्रियव्रत और उ ाानपाद; दो पुत्रियां हुईं-आकृति और प्रसूति। मनु सप्तद्वीपा पृथ्वी के शासक थे। अपने बाद उन्होंने राज्य को दोनों पुत्रों में बांट दिया। प्रियव्रत को राज्य का मुख्य क्षेत्र मिला। प्रियव्रत के कुल दस पुत्र हुए। उनमें से तीन ब्राह्मण बन गये। सातपुत्रों को निम्न प्रकार सात देशों/द्वीपों का राज्य प्रदान किया। प्रियव्रत के इतिहास में पहली बार सात देशों का भौगोलिक विवरण मिलता है। इतिहासकारों द्वारा अनुमानित उन देशों की आधुनिक पहचान के साथ उनका विवरण इस प्रकार है –
देश/द्वीप (आदिकालीन) आधुनिक क्षेत्र प्रियव्रत के पुत्र
से साम्य जो उस देश के
राजा बने
१. जम्बू द्वीप (जम्बू नदी व एशिया महाद्वीप अग्नीघ्र
जम्बू वन के कारण नामकरण) (दक्षिण पूर्वी) (ज्येष्ठ पुत्र)
२. प्लक्ष द्वीप (प्लक्ष वृक्षों के यूरोपीय भूभाग इध्मजिह्व
वन के कारण)
३. शाल्मलि द्वीप (शाल्मलि वर्तमान अटलांटिक क्षेत्र यज्ञबाहु
वृक्ष के वन के कारण) जहां अब समुद्र ही है
४. कुशद्वीप अफ्रीकी भूभाग हिरण्यरेतस्
(कुश घास के वन के कारण)
५. क्रौंच द्वीप उ ारी अमेरिका घृतपृष्ठ
(क्रौंच नामक पर्वत के कारण)
६. शाक द्वीप दक्षिण अमेरिका मेधातिथि
(शाक=सागौन वन के कारण)
७. पुष्कर द्वीप दक्षिणी ध्रुव खण्ड वीतिहोत्र
(जल-बहुल प्रदेश होने (तब वहां बर्फ नहीं थी)
के कारण नाम पड़ा)
ये आदिकालीन ज्ञात आवासित देश थे। इनमें से जम्बूद्वीप, शाकद्वीप और कुशद्वीप की भौगोलिक, ऐतिहासिक और प्रामाणिक खोज आधुनिक इतिहासकारों ने कर ली है। शेष द्वीपों की खोज अभी अपेक्षित है। इन द्वीपदेशों की खोज से यह प्रमाण मिल गया है कि अन्य द्वीपदेश भी भौगोलिक एवं ऐतिहासिक अस्तित्व रखते थे। खोजे गये तीन-द्वीप देशों का संक्षिप्त ऐतिहासिक एवं भौगोलिक विवरण प्रामाणिकता की दृष्टि से दिया जा रहा है, जिससे पाठक उनकी सत्यता को जान सकें और वहां की अन्य सांस्कृतिक वस्तुस्थितियों को स्वीकार करें।
(क) जम्बू द्वीप की पहचान
प्रियव्रत का ज्येष्ठ पुत्र अग्नीध्र था जिसे जम्बूद्वीप (एशिया खण्ड) का राज्य मिला था। पृथ्वी का व्यापक क्षेत्र होने के कारण तत्कालीन भारतीय इतिहासकारों के लिए अन्य द्वीपों का विवरण जुटाना संभव नहीं हो सका, अतः भारत में इसी द्वीप से सम्बन्धित इतिहास प्रमुखता से प्राप्त होता है। अग्नीध्र के नौ पुत्र हुए। सभी राज्य के इच्छुक थे, अतः सबमें जम्बुद्वीप का राज्य निम्न प्रकार बांट दिया गया। उन्हीं पुत्रों के नाम पर उन देशों का नामकरण भी हुआ-
१. नाभि (ज्येष्ठ पुत्र) को हिमालयपर्वत सहित नाभिवर्ष या आर्यावर्त मिला जिसका बाद में भारतवर्ष नाम पड़ा।
२. किम्पुरुष को किम्पुरुषवर्ष, हेमकूट (कैलास पर्वत) युक्त।
३. हरिवर्ष को हरिवर्ष, निषधपर्वतयुक्त।
४. इलावृत को इलावृतवर्ष, मेरुपर्वतयुक्त।
५. रम्यक को रम्यवर्ष, नीलपर्वतयुक्त।
६. हिरण्य को हिरण्यकवर्ष, श्वेपर्वतयुक्त।
७. कुरु को उ ारकुरुवर्ष, शृंगवान्पर्वतयुक्त।
८. भद्राश्व को भद्राश्ववर्ष, मेरु के पूर्वी भाग में माल्यवान् पर्वत से आगे।
९. केतुमाल को केतुमालवर्ष, गन्धमादन पर्वतयुक्त। मेरु से पश्चिम का प्रदेश
(उ) प्राचीन द्वीपों और वर्षों (देशों) की पहचान
इनमें से जम्बूद्वीप का वर्णन भारतीय इतिहास में विस्तार से मिलता है क्योंकि भारतवर्ष इसी भूभाग से सम्बद्ध है। जम्बूद्वीप के आगे आठ वर्ष (देश) वर्णित हैं। उनकी पहचान इस प्रकार की गयी है –
१. भारतवर्ष (दक्षिण समुद्र से हिमालय तक, ईरान से बर्मा तक विस्तृत प्राचीन बृहत् भारत)।
२. किम्पुरुष (हिमालय से हेमकूट अर्थात् कैलास पर्वत तक विस्तृत किन्नौर, कश्मीर आदि का भाग)।
३. हरिवर्ष (कैलास से मेरुपर्वत=पामीर तक का प्रदेश ति बत आदि। मतान्तर से सुग्द=बोखारा प्रदेश)
४. इलावृत वर्ष (मेरु=पामीर पर्वत के चारों ओर आसपास का क्षेत्र, रूस की बालखश झील जहां इलि नदी झील में गिरती है)।
५. भद्राश्व वर्ष (मेरु पर्वत से पूर्व में स्थित चीन देश। वहां का जातीय चिह्न आज तक भद्राश्व = सफेद ड्रैगन अर्थात् कल्याणकारी अश्वमुख-मकर या सर्प है)।
६. केतुमाल वर्ष (मेरु के पश्चिम का वह प्रदेश जहां चक्षु= वक्षु=आक्सस नदी बहकर अराल सागर में गिरती है। रूस, ईरान, अफगानिस्तान के सीमाक्षेत्र का प्रदेश)।
७. रम्यक वर्ष (अनुमानतः रमि या रम्नि टापुओं का पूर्ववर्ती प्रदेश, मेरुदेश से नीलपर्वत तक का क्षेत्र)।
८. हिरण्मय (नील पर्वत से शृंगवान् पर्वत तक का प्रदेश। (पहचान अनिश्चित)।
९. उ ारकुरु (तोलोमी द्वारा वर्णित ओ ाोरी कोराई, चीनी, तुर्किस्तान की तारिम घाटी। मतान्तर से रूस का साइबेरिया प्रदेश)।
इस प्रकार जम्बूद्वीप अर्थात् एशिया खण्ड का भूगोल प्रायः ज्ञात है। जम्बू नदी और उसके आसपास फैले विशाल जम्बू वन के कारण इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा था, जैसे पश्चिमी देशों में सिन्धु नदी के आधार पर अरबी-फारसी में स का ह होकर भारत का हिन्दुस्तान और यूनान में ‘ह’ का ‘इ’ होकर सिन्ध का इण्डस् और देश का नाम इंडिया पड़ा।
(ख) शाक द्वीप की पहचान-जम्बू द्वीप के साथ शाकद्वीप का वर्णन है और इसे क्षीरसागर से आवृत बताया है। कभी यह क्षीर सागर पश्चिम के वर्तमान कृष्णसागर से आरम्भ होकर साइबेरिया के उ ारी भाग में फैले हुए आर्कटिक समुद्र तक एक महासागर के रूप में फैला था। इसने शाकद्वीप को घेर रखा था। अब उसके कृष्णसागर, कैस्पियन सागर, बाल्कश झील अवशेष बचे हैं। बाल्कश झील अब भी मीठे पानी की झील है। इस कारण कैस्पियन को तथा इसे ‘क्षीर सागर’ कहते थे। संस्कृत का क्षीर = (दूध) विकृत होकर फारसी में शीर हुआ है। ईरानी इसे शीरवान् कहते हैं। यूनानी यात्री मार्कोपोलो ने भी इसे शीर सागर लिखा है। इसमें प्रवाहित होने वाली नदियों का भी अर्थ इसके नाम से सम्बन्धित है। ईरान की एक नदी का नाम शीरी है और रूस की नदी का नाम मालोकोन्या (मा-लो-को) है जो अंग्रेजी श द मिल्क=दूध से अर्थ व ध्वनिसाम्य रखती है। पुराने समय में ईरानी में शकस्थान को ‘शकान्बेइजा’=शकानां बीजः=शकों का मूलस्थान कहा गया है। यह स्थान यूरेशिया में दुनाई (डेन्यूब) नदी से त्यान्शान् अल्ताईपर्वत श्रेणी तक था। बाद में कभी ये लोग ईरान के पूर्वी भाग में आकर बस गये तो उस स्थान को शकस्थान=सीस्तान या सीथिया कहा जाने लगा। धीरे-धीरे बढ़ते हुए ये भारत में आ गये और कुषाण साम्राज्य के रूप में इनका शासन प्रसिद्ध हुआ।
श्री नन्दलाल दे ने अपनी पुस्तक ‘रसातल ओर दि अंडर वर्ल्ड’ में शोधपूर्वक बताया है कि वहां भारतीय ऐतिहासिक ग्रन्थों में वर्णित जातियों के नाम भी यथावत् मिलते हैं। वहां मग ब्राह्मण, मगग और मशक क्षत्रिय, गानग वैश्य और मन्दग नाम के शूद्र हैं। शक भाषा में शक का सग, मग का मगुस् या मगि, मगग का मगोग या गोग, गानक का गनक, मन्दग का माद अपभ्रंश प्रचलित है। ग्रीक इतिहासकार हैरोडोटस् ने भी वहां की इन चार जातियों का उल्लेख किया है। भविष्यपुराण में मगों को ‘‘आर्यदेश समुद्भवाः’’ (ब्राह्म० १३६.५९) कहा है। बहुत से इतिहासकार शकों को वैवस्वत मनुपुत्र इक्ष्वाकु के पुत्र नरिष्यन्त के वंशज मानते हैं। शकों की भाषा पूर्वकाल में संस्कृत रही है, अतः उनकी भाषा में संस्कृत के अपभ्रंश श द मिलते हैं। शकस्थान के पर्वतों व जनपदों का संस्कृत भाषा के नामों से साम्य इस प्रकार है –
शकद्वीप = सीदिया = सीथिया कुमुद =कोमेदेई (पर्वत)
कुमार = कोमारोई (पर्वत) जलधार = सलतेरोई (पर्वत)
इक्षु=आक्सस (नदी) सीता = सीर दरिया
मूग = मरगियाना (वर्तमान मर्व प्रदेश) मशक = मस्सगेताइ (प्रदेश)
श्यामगिरि=मुस्तामूग अर्थात् कालापर्वत
(ग) कुशद्वीप की पहचान
इसी प्रकार कुश द्वीप का भी शिलालेखों में उल्लेख मिला है। डॉ. डी. सी. सरकार ने अपनी पुस्तक ‘जियाग्राफी आफ एन्सिएंट एण्ड मैडिवल इंडिया’ पृ० १६४ पर दारयबहु (अंग्रेजी में डैरियस, ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व) नामक फारस राजा के हमदान से प्राप्त शिलालेख का विवरण देते हुए बताया है कि उसकी राज्य-सीमा कुश देश तक है। उसने विवरण देते हुए लिखा है कि उसके राज्य की सीमा सोग्दियाना (शीर दरिया और आमू दरिया के पार स्थित) शक स्थान से कुरु देश तक, सिन्धु देश से स्वर्दा (एशिया माइनर में सारडिस नामक स्थान) तक है। इस प्रकार कुश द्वीप की स्थिति इथोपिया, अफ्रीका के पूर्वो ार भाग के आसपास अनुमानित होती है। शेष द्वीपों की खोज अपेक्षित है।
(इ) सात द्वीपों में वर्णव्यवस्था के प्रमाण
संस्कृत के प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों में यह उल्लेख आता है कि पूर्वोक्त उन देशों में मनु की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था प्रचलित थी और उन देशों के समाजों में चार वर्णों से समाजिक व्यवहार सम्पन्न किये जाते थे-
(क) पुष्करद्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था-विष्णुपुराण के अनुसार सात द्वीपों में से एक पुष्कर द्वीप ऐसा था जहां वर्णाश्रम-व्यवस्था के अन्तर्गत निम्न वर्णस्थों की जनसंख्या नहीं थी। उसका कारण यह था कि वहां अधिकतः देवस्वरूप ब्राह्मण-आचरणधारी जन ही रहते थे-
‘‘सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानिच।’’ (२.४.१२)
अर्थ-ये सभी सात देश चातुर्वर्ण्यव्यवस्था से युक्त हैं।
भागवत्पुराण कहता है –‘‘तद्वर्षपुरुषा भगवन्तं ब्रह्मरूपिणं सकर्मकेण कर्मणाऽराधयन्ति’’ (५.२०.३२)=पुष्कर देशवासी ब्रह्मस्वरूप परमात्मा को अपने श्रेष्ठ आचरण से प्रसन्न रखते हैं।
(ख) कुश द्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का विवरण-
वर्णास्तत्रापि चत्वारो निजानुष्ठानतत्पराः।
दमिनः शुष्मिणः स्नेहाः मन्देहाश्च महामुनेः।
ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्रश्चानुक्रमोदिताः॥
(विष्णुपुराण २.४.३८, ३९, ४.३८, ३९)
अर्थात्-कुशद्वीप में भी चार वर्ण हैं जो अपने-अपने वर्णकर् ाव्यों के पालन में प्रयत्नशील रहते हैं। वहां ब्राह्मणों को दमिन् (=दमनशील इन्द्रियों वाले), क्षत्रियों को शुष्मिन् (=बलशाली), वैश्यों को स्नेह (=विनम्रशील) और शूद्रों को मन्देह (=निम्न बौद्धिक स्तर या व्यवसाय वाले) कहा जाता है।
भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्यायनाम क्रमशः कुशल=बुद्धिमान्, कोविद=धनुर्धारी, अभियुक्त=परिश्रमी या चतुर और कुलक= श्रमिक या शिल्पी दिया है। (५.२०.१६)
(ग) शाक द्वीप की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का विवरण-
तत्र पुण्याः जनपदाः, चातुर्वर्ण्यसमन्विताः।
मगाः ब्राह्मणभूयिष्ठाः, मागघाः क्षत्रियास्तु ते।
वैश्यास्तु मानसाः ज्ञेयाः शूद्रास्तेषां तु मन्दगाः॥
(विष्णुपुराण २-४-२३-२५, ६४, ७० के श्लोकांश)
अर्थात्-शाकद्वीप में अनेक पुण्यशाली जनपद हैं जहां चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्रचलित है। वहां ब्राह्मणों का मग (=विद्याध्ययन में रत), क्षत्रियों को मगध या मगग (=गतिशील योद्धा), वैश्यों को मानस या गानक (=बहुत बुद्धिवाला, चतुर), और शूद्र को मन्दग (=मन्द बुद्धि या निम्न व्यवसाय वाला) कहा जाता है।
भागवत पुराण में चार वर्णों का पर्याय नाम क्रमशः ऋतव्रत =वेदाक्त आचरण वाले, सत्यव्रत = सत्य प्रतिज्ञा वाले, दानव्रत = दान देने की प्रतिज्ञा करने वाले, और अनुव्रत= आज्ञाकारी या आदेशपालक दिया है (५.२०.२७)।
(घ) प्लक्षद्वीप की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का विवरण-
धर्माः पञ्चस्वथैतेषु वर्णाश्रमविभागजाः।
वर्णास्तत्रापि चत्वारस्तान् निबोध गदामि ते॥
आर्यकाः कुरवश्चैव विवाशाः भाविनश्च ते।
विप्र-क्षत्रिय-वैश्यास्ते शूद्राश्च मुनिस ामः॥
(विष्णुपुराण २.४.८, १५, १९)
अर्थात्-प्लक्ष द्वीप में वर्णाश्रम धर्मों का पालन करने वाले चार वर्ण हैं। उन्हें वहां क्रमशः आर्यक=उ ाम आचरण वाले, कुरु=युद्ध में गर्जना करने वाले, विवाश=धनादि की कामना वाले और शूद्रों को भाविन्= निर्देशपालक व्यक्ति, कहा जाता है।
भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्यायवाची नाम क्रमशः हंस = विवेकी, पतङ्ग=आक्रामक, ऊर्ध्वायन=उन्नतिशील, सत्याङ्ग = निष्ठावान् दिया है। कहा है कि ये चारों वर्ण तीन वेदों के मन्त्रों द्वारा परमात्मा का यजन करते हैं (५.२०.४)।
(ङ) क्रौंच द्वीप की वर्णव्यवस्था का विवरण –
पुष्कराः पुष्कलाः धन्याः तिष्याख्याश्च महामुने।
ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥
(विष्णुपुराण २.४.५३, ५६)
अर्थ-क्रौंच द्वीप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को क्रमशः पुष्कर=बौद्धिक पुष्टि करने वाले, पुष्कल=प्रजा का पालन-पोषण करने वाले, धन्य=धनी और तिष्य=सेवा से प्रसन्न करने वाले नाम से पुकारा जाता है।
भागवतपुराण में चार वर्णों का नाम पर्यायवाची रूप में क्रमशः पुरुष=आत्म-परमात्मचिन्तक उ ाम पुरुष, ऋषभ=बल में श्रेष्ठ, द्रविण=धनवान् और देवक=सेवक, दिया है (५.२०.२२)।
(च) जम्बू द्वीप की वर्णव्यवस्था का विवरण-
ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः।
इज्यायुधवाणिज्याद्यैः वर्तयन्तो व्यवस्थिताः॥
(विष्णुपुराण २.३.९, २९)
अर्थ-जम्बू द्वीप (भारत सहित एशिया द्वीप में) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य निवास करते हैं। उनके साथ स्थान-स्थान पर शूद्र बसे हैं। वे वर्ण क्रमशः यज्ञ, शस्त्र, वाणिज्य आदि से अपनी आजीविका करते हुए चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में व्यवस्थित हैं।
(छ) शाल्मलि द्वीप की वर्णव्यवस्था का वर्णन –
सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानि च।
शाल्मले ये तु वर्णाश्च वसन्ति ते महामुने।
कपिलाश्चारुणाः पीताः कृष्णाश्चैव पृथक् पृथक्।
ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥
(विष्णुपुराण २.४.१२-१३)
अर्थ-‘ऊपर वर्णित सभी सात देश चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से युक्त हैं। शाल्मलि द्वीप में जो वर्ण हैं वे इन नामों से प्रसिद्ध हैं। ब्राह्मणों को कपिल, क्षत्रियों को अरुण, वैश्यों को पीत और शूद्रों को कृष्ण कहा जाता है।’ ये वर्णों के रंगवाची प्रतीक नाम हैं। (इनका प्रतीकार्थ विवरण अ० ३.१ में ‘ऊ’ शीर्षक में द्रष्टव्य है।)
भागवतपुराण में चार वर्णों का पर्याय नाम क्रमशः श्रुतधर=वेदों को धारण करने वाले, वीर्यधर=बलधारक, वसुन्धर=धनधारक और इषुन्धर=बाण आदि बनाने वाले, दिया है। (५.२०.११)।
यह स्वायम्भुव मनु के पौत्रों के समय का इतिहास सौभाग्य से प्राप्त है जो हमें यह जानकारी दे रहा है कि आदि मानवसृष्टि काल में केवल वर्णाश्रम व्यवस्था ही समाज की व्यवस्था थी, जो विश्वव्यापी थी। इस प्रकार यह विश्व की सर्वप्रथम समाज-व्यवस्था थी और इसके सर्वप्रथम व्यवस्थापक स्वायम्भुव मनु थे।