आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आज भोजन करना व्यर्थ रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु फरवरी 1972 ई0 में जब स्वामी श्री सत्यप्रकाशजी सरस्वती अबोहर पधारे तो कई आर्ययुवकों ने उनसे प्रार्थना की कि वे पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय के सज़्बन्ध में कोई संस्मरण सुनाएँ।

श्रद्धेय स्वामीजी ने कहा-‘‘किसी और के बारे में तो सुना सकता हूँ परन्तु उपाध्यायजी के बारे में किसी और से पूछें।’’

एक दिन सायंकाल स्वामीजी महाराज के साथ हम भ्रमण को निकले तब वैदिक साहित्य की चर्चा चल पड़ी। मैंने पूछा-‘उपाध्यायजी का शरीर जर्जर हो चुका था, फिर भी वृद्ध अवस्था में उन्होंने इतना अधिक साहित्य कैसे तैयार कर दिया? अपने जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने कितने अनुपम व महज़्वपूर्ण ग्रन्थों का सृजन कर दिया।’’

तब उत्तर  में स्वामीजी ने कहा-‘‘उपाध्यायजी कहा करते थे,

जिस दिन मैंने ऋषि मिशन के लिए कुछ न लिखा उस दिन मैं  समझूँगा कि आज मेरा भोजन करना व्यर्थ गया। भोजन करना तभी सार्थक है यदि कुछ साहित्य सेवा करूँ।’’

आपने बताया कि वे (उपाध्यायजी) एक साथ कई-कई साहित्यिक योजनाएँ लेकर  कार्य करते थे। एक से मन ऊबा तो दूसरे कार्य में जुट जाते थे, परन्तु लगे रहते थे। इससे उनका मन भी लगा रहता था, उनको यह भी सन्तोष होता था कि किसी उपयोगी धर्म-कार्य में लगा हुआ हूँ। बस, यही रहस्य था उनकी महान्  साधना का।

इसपर किसी टिह्रश्वपणी की आवश्यकता नहीं। प्रत्येक सामाजिक कार्यकर्ता था साहित्यकार के लिए यह घटना बड़ी प्रेरणाप्रद है।

 

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अरे यह कुली महात्मा: प्रा राजेंद्र  जिज्ञासु

बहुत पुरानी बात है। आर्यसमाज के विख्यात और शूरवीर

संन्यासी, शास्त्रार्थ महारथी स्वामी श्री रुद्रानन्दजी टोबाटेकसिंह

(पश्चिमी पंजाब) गये। टोबाटेकसिंह वही क्षेत्र है, जहाँ आर्यसमाज

के एक मूर्धन्य विद्वान् आचार्य भद्रसेनजी अजमेरवालों का जन्म

हुआ। स्टेशन से उतरते ही स्वामीजी ने अपने भारी सामान के लिए

कुली, कुली पुकारना आरज़्भ किया।

उनके पास बहुत सारी पुस्तकें थीं। पुराने आर्य विद्वान् पुस्तकों

का बोझा लेकर ही चला करते थे। ज़्या पता कहाँ शास्त्रार्थ करना

पड़ जाए।

टोबाटेकसिंह स्टेशन पर कोई कुली न था। कुली-कुली की

पुकार एक भाई ने सुनी। वह आर्य संन्यासी के पास आया और

कहा-‘‘चलिए महाराज! मैं आपका सामान उठाता हूँ।’’ ‘‘चलो

आर्यसमाज मन्दिर ले-चलो।’’ ऐसा स्वामी रुद्रानन्द जी ने कहा।

साधु इस कुली के साथ आर्य मन्दिर पहुँचा तो जो सज्जन वहाँ

थे, सबने जहाँ स्वामीजी को ‘नमस्ते’ की, वहाँ कुलीजी को ‘नमस्ते

महात्मा जी, नमस्ते महात्माजी’ कहने लगे। स्वामीजी यह देख कर

चकित हुए कि यह ज़्या हुआ! यह कौन महात्मा है जो मेरा सामान

उठाकर लाये।

पाठकवृन्द! यह कुली महात्मा आर्यजाति के प्रसिद्ध सेवक

महात्मा प्रभुआश्रितजी महाराज थे, जिन्हें स्वामी रुद्रानन्दजी ने प्रथम

बार ही वहाँ देखा। इनकी नम्रता व सेवाभाव से स्वामीजी पर

विशेष प्रभाव पड़ा।

 

अतिथि यज्ञ ऐसे किया : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अतिथि यज्ञ ऐसे किया

श्री रमेश कुमार जी मल्होत्रा का श्री पं0 भगवद्दज़ जी के प्रति

विशेष भज़्तिभाव था। पण्डित जी जब चाहते इन्हें अपने घर पर

बुला लेते। एक दिन रमेश जी पण्डित जी का सन्देश पाकर उन्हें

मिलने गये।

उस दिन पण्डित जी की रसोई में अतिथि सत्कार के लिए

कुछ भी नहीं था। जब श्री रमेश जी चलने लगे तो पण्डित जी को

अपने भज़्त का अतिथि सत्कार न कर सकना बहुत चुभा। तब

आपने शूगर की दो चार गोलियाँ देते हुए कहा, आज यही स्वीकार

कीजिए। अतिथि यज्ञ के बिना मैं जाने नहीं दूँगा। पं0 भगवद्दत जी

ऐसे तपस्वी त्यागी धर्मनिष्ठ विद्वान् थे।

 

‘सर्वव्यापक ईश्वर मुनष्य की जीवात्मा में वास करता है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वेदाध्ययन, चिन्तन व मनन सहित ध्यान व समाधि से यह जाना गया है कि मनुष्य जीवन जीवात्मा और मानव शरीर का संघात है। हमारा व सभी मनुष्यों का शरीर पांच भौतिक तत्वों यथा पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से मिलकर बनाया गया है। इसमें माता-पिता की भूमिका के साथ प्रमुख भूमिका ईश्वर की है। माता-पिता व जन्म लेने वाला जीवात्मा यह नहीं जानते कि शरीर कैसे बनता है? अतः मानव व सभी प्राणियों के शरीर अपौरूषेय सत्ता की ही रचनायें व कृतियां हैं। उसी अपौरूषेय सत्ता को वेदों व वैदिक साहित्य सहित अन्य अनेक ग्रन्थों में ईश्वर के नाम से प्रस्तुत किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति, प्राणियों के शरीरों की रचना व संचालन में ईश्वर की प्रमुख भूमिका के कारण ही मनुष्य को सर्वशक्तिमान ईश्वर को अपने आचरण व अच्छे कार्यों से प्रसन्न रखने व उससे सुख-स्वास्थ्य-ज्ञान-बल-शान्ति की प्राप्ति के लिए प्रार्थना वा यज्ञाग्निहोत्र पूजा आदि का विधान वेदों व वैदिक साहित्य में मिलता है। ईश्वर सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ एवं मनुष्य एक देशी होने से अल्पज्ञ है। अल्पज्ञ होने के साथ मनुष्य काम, क्रोध, राग, द्वेष, अहंकार व अनेक बुराईयों से भी बद्ध व युक्त होता है। इन दुर्गुणों, दुव्र्यसनों दुःखों को दूर करने के लिए ही पूर्ण युक्ति तर्क संगत वैदिक धर्म संसार में सृष्टि के आदि काल से प्रचलित है। सृष्टि के आदि काल से महाभारत काल तक वैदिक धर्म ही संसार के सभी मनुष्यों का एकमात्र धर्म व मत रहा। इसके बाद अज्ञान की वृद्धि के कारण नाना मतों की उत्पत्ति हुई जिनमें अनेकानेक अज्ञानयुक्त विचार व मान्यताओं के साथ अन्धविश्वास, रूढि़वादिता, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, सामाजिक असमानता वा विषमता, मांसाहार, अण्डों का सेवन, मदिरापान, धूम्रपान, अनाचार, मृतकों के शवों को जलाने के स्थान पर भूमि में गाढ़ने जैसी मिथ्या प्रथायें प्रचलित हो गई जो आज आधुनिक काल में भी प्रचलित हैं। यह सब अनुचित कार्य वेदों को न जानने व अविद्या के कारण ही हो रहे हैं। इन्हीं अज्ञानों में से एक अज्ञान ईश्वर के सर्वव्यापक स्वरुप को भलीभांति समझना भी है।

 

संसार में प्रायः हर पदार्थ एकदेशी और सीमाओं में आबद्ध या ससीम होता है। मनुष्य आदि सभी प्राणियों की आत्मायें एकदेशी व ससीम हैं। यह आत्मायें हमारे शरीरों के अन्दर तो हैं परन्तु बाहर नहीं है। शरीर के अन्दर भी जीवात्मा पूरे शरीर में विद्यमान व व्यापक नहीं है अपितु हृदय में एक स्थान पर है और इसका परिणाम कोई सेंटीमीटर या मीटर में न होकर 1 मिलीमीटर से भी हजारों गुणा न्यून वा सूक्ष्म है। इसके विपरीत कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं जो सर्वव्यापक होते हैं। आकाश ऐसा ही पदार्थ है जो सर्वव्यापक है। दिशाओं व समय को भी सर्वत्र विद्यमान व उसका सर्वत्र व्यवहार होने से सर्वव्यापक कह सकते हैं। यह तो जड़ पदार्थ हैं परन्तु ऐसा ही एक अन्य चेतन पदार्थ भी है जो सर्वव्यापक है और वही ईश्वर कहलाता है। यदि ईश्वर एकदेशी व ससीम होता तो उससे इस सृष्टि की रचना सहित सर्वत्र प्राणी सृष्टि व उसका संचालन नहीं हो सकता था। हमारी यह पृथिवी अति विशाल है। सूर्य इससे लाखों गुणा विशाल है। इसी प्रकार हमारे सौर मण्डल व समस्त ब्रह्माण्ड में हमारी पृथिवी, चन्द्र व सूर्य की भांति अनेक बड़े ग्रह व उपग्रह विद्यमान है। यह सब अपौरूषेय रचनायें होने से इनका रचयिता केवल ईश्वर ही सिद्ध होता है।

 

सृष्टि का यह नियम है कि ज्ञान पूर्वक की गई कोई भी रचना केवल चेतन सत्ता द्वारा अपने बुद्धि तत्व का उपयोग करने से ही होती है। हमारा सुन्दर घर व उपयोग की वस्तुएं यथा साइकिल, वस्त्र, खाद्यान्न का उत्पादन आदि समस्त कार्य केवल चेतन व बुद्धि रखने वाले प्राणी अपने ज्ञान से ही करते हैं। मनुष्यों की बुद्धि अत्यल्प व अल्पशक्ति होने से उनसे सृष्टि रचना व पालन का यह कार्य सम्पादित नहीं हो सकता। इसके लिए सृष्टिकर्ता का सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान आदि गुणों वा स्वरूप वाला होना अपरिहार्य है। वेदों व ऋषि-मुनियों द्वारा रचित वैदिक साहित्य में ईश्वर के ऐसे ही स्वरूप का वर्णन मिलता है जिससे अध्येता की पूर्ण सन्तुष्टि हो जाती है। वैज्ञानिकों ने सृष्टि के पदार्थों में कार्यरत नियमों के अध्ययन व खोज से जो परिणाम प्रस्तुत किये हैं, उनसे भी सृष्टि के रचयिता का एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वव्यापक चेतन सत्ता होना सिद्ध है। विचार करने पर यह तथ्य भी सम्मुख आता है कि यदि ईश्वर सर्वव्यापक न होता, एकदेशी व ससीम होता तो वह भी मनुष्य की ही तरह का हो सकता था और वह भी तब जब कोई उसका शरीर बनाता अर्थात् अन्य ईश्वर की फिर भी अपेक्षा थी। अतः सृष्टि में एक सर्वव्यापक सर्वज्ञ ईश्वर अवश्यमेव है जो अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देता। ऋषि व योगी अपनी सूक्ष्म विवेक बुद्धि व उच्च ज्ञान से उसका साक्षात व प्रत्यक्ष करते हैं। हमें भी अनेक घटनाओं से ईश्वर का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। महर्षि दयानन्द ने भी इसे अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है। यदि कोई कुछ भी न समझ सके तब भी सृष्टि की रचना व पालन तथा मनुष्य आदि प्राणियों के जन्म व मृत्यु आदि की व्यवस्था के लिए तो ईश्वर के अस्तित्व को माना ही जा सकता है। वह है इसलिये यह कार्य हो रहे हैं, यदि वह न होता तो यह कार्य होने सम्भव नहीं थे।

 

हम मनुष्य हैं और एक अत्यन्त सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, चेतन, अल्पज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, सनातन, अमर, जन्म व मृत्यु के चक्र में आबद्ध, कर्मशील सत्ता हैं। जीवात्मा सूक्ष्म पदार्थ है और ईश्वर वा परमात्मा जीवात्मा से भी अत्यन्त सूक्ष्म वा सर्वातिसूक्ष्म पदार्थ है। सर्वातिसूक्ष्म और सर्वव्यापक होने से ईश्वर सर्वान्तर्यामी भी है। सर्वान्तर्यामी का अर्थ है कि वह सबके भीतर भी है अर्थात् ईश्वर सभी जीवात्माओं, सृष्टि व इसके परमाणुओं के भीतर भी  विद्यमान है और इनका पूरा हाल जानता व ज्ञान रखता है। इस आधार पर सर्वव्यापक ईश्वर का सभी जीवात्माओं के भीतर आवास, वास निवास सिद्ध होता है। अतः जीवात्मा को शुद्ध व पवित्र बनाने के लिए जीवात्मा को योग वा ध्यान के द्वारा ईश्वर से जोड़ना होता है। जीवात्मा से जुड़ जाने से जीवात्मा का अशुद्ध ज्ञान व अशुद्ध कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह विवेक को प्राप्त होकर सत्याचरण व ईश्वरोपासना आदि श्रेष्ठ कार्यों में अपना समय व्यतीत करता है जिसके परिणाम से उसे ईश्वर के द्वारा दुःखों से मुक्ति मिलती है। दुःखो का कारण हमारी अविद्या, अज्ञान, दुष्कर्म, संस्कारविहीनता आदि ही होते हैं जो ईश्वरोपासना व सत्कर्मों को करके ही दूर होते हैं। यह ईश्वरोपासना आदि कार्य मनुष्यों के लिए सबसे बड़ी और प्रमुख उपलब्धि होती है। इसकी तुलना में धन व सम्पत्ति व भोग सामग्री अत्यन्त हेय व निम्नतम होती है। ईश्वर को प्राप्त व्यक्ति को न तो कोई दुःख होता है और न हि उसकी कोई कामना अपूर्ण रहती है। वह सत्य की ही कामना करता है और वह ईश्वर की सहायता से पूरी होती है। महर्षि दयानन्द जी का जीवन हमारे सामने है। उन्होंने कभी भिक्षा नहीं मांगी। यहां तक की जब वह गुरु विरजानन्द जी के पास मथुरा पहुंचे और उनसे व्याकरण के अध्ययन के लिए प्रार्थना की तो गुरुजी ने उन्हें अपने निवास, भोजन व पुस्तकों की व्यवस्था करने के लिए कहा। इस पर भी स्वामीजी ने किसी से कुछ मांगा नहीं। इसका ज्ञान अनेक लोगों को हुआ। किसी प्रकार से यह बात मथुरा के धनीमानी पंडित श्री अमरनाथ जोशी जी के कानों में पहुंची और उन्होंने उनके भोजन आदि की व्यवस्था कर दी। अन्य व्यवस्थायें भी श्रद्धालु लोगों द्वारा कर दी गईं। उसके बाद हम देखते हैं कि देश के अनेक बड़े-बड़े राजा भी उनका सम्मान करते थे और उनसे उपदेश ग्रहण करते थे। यह ईश्वर विश्वास व ईश्वर भक्ति का ही उदाहरण कहा जा सकता है।

 

हमने इस लेख में यह जानने का प्रयास किया है कि इस संसार को बनाने व चलाने तथा सभी प्राणियों को उत्पन्न करने वाली सत्ता ईश्वर है जो कि सर्वव्यापक सत्ता है। इससे पृथक जीवात्मा एक चेतन तत्व, अल्पज्ञ, एकदेशी व ससीम सत्ता है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने के कारण सभी जीवात्माओं वा प्राणियों की आत्माओं के भीतर भी विद्यमान है। इस रहस्य को जानकर विधिपूर्वक ईश्वरोपासना करने से जीवात्मा का अज्ञान व आचरण शुद्ध होकर सभी दुःखों से निवृत्ति होती है। वेद ज्ञान इन सभी विषयों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। वेदाध्ययन करने से मनुष्यों की सभी भ्रान्तियां दूर होती हैं। यदि आज के बड़े वैज्ञानिक व इतर धर्माचार्य निष्पक्ष व जिज्ञासाभाव से वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करेंगे तो वह भी सत्य को अवश्य प्राप्त हो सकते हैं। हम सबको ईश्वर को सर्वव्यापक, दुःखों से सर्वथारहित, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वान्तर्यामी जानकर तथा उसे अपनी आत्मा में विद्यमान मानकर उसका ध्यान व चिन्तन करना चाहिये जिससे हमारा कल्याण होगा। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘सत्याचरण से अमृतमय मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म

हमारी जीवात्माओं को मनुष्य जीवन ईश्वर की देन है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान होने के साथ सर्वज्ञ भी है। उससे दान में मिली मानव जीवन रूपी सर्वोत्तम वस्तु का सदुपयोग कर हम उसकी कृपा व सहाय को प्राप्त कर सकते हैं और इसके विपरीत मानव शरीर का सदुपयोग न करने के कारण हमें नियन्ता ईश्वर के दण्ड का भागी होना पड़ सकता है। इस शिक्षा को एक उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमने किसी भूखे व्यक्ति को देखा। उसके पास भूख दूर करने के साधन नहीं है। उसके प्रति हमारे अन्दर दया उत्पन्न हुई। हमने उसे कुछ धन दिया जिससे वह भोजन कर सके। यदि वह भोजन कर अच्छे काम करेगा तो हमें स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता होगी और यदि वह उस धन से भोजन न कर उस धन से अन्य किसी निकृष्ट पदार्थ मदिरापान का सेवन व अभक्ष्य पदार्थ को खाता है तो हमें अपने कृत्य पर पछतावा होगा। हम इसके बाद उसकी सहायत नहीं करेंगे। ईश्वर ने भी जीवात्मा पर दया करके उसे दुर्लभ व सर्वोत्तम मानव शरीर दिया है। अतः हमें इसका सदुपयोग कर ईश्वर की अधिक से अधिक सहायता व कृपा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम ईश्वर की सुख, सम्पत्ति, आत्मोन्नति, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे ज्ञानी व महात्मा स्वभाव वाले विद्वानों व मित्रों की संगति आदि भावी कृपाओं से वंचित हो जायेंगे।

 

बृहदारण्यक उपनिषद के ऋषि ने जीवन निर्माण के स्वर्णिम सूत्र असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योर्तिगमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।। दिये हैं। यह सूत्र उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी व लाभदायक हैं जो जीवन को इसके वास्तविक लक्ष्य पर ले जाना वा पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए इसमें पहली शिक्षा यह दी गई है कि असतो मा सद्गमय अर्थात् मनुष्य जीवन को जीवात्मा में विद्यमान असत् को हटाकर सत्य मार्ग पर चलाना है। ऐसा इसलिये कहा गया है कि असत मार्ग अवनति वा दुःख की ओर ले जाता है और सत मार्ग उन्नति व सुख की ओर ले जाता है। संसार में कोई भी मनुष्य वा प्राणी दुःख नहीं चाहता। सभी कामना करते हैं कि मेरे सारे दुःख दूर हो जाये और सभी सुखों की उपलब्धि व प्राप्ति मुझे हो। इसका उपाय ही उपनिषद के ऋषि ने असतो मा सद्गमय कहकर बताया है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज का चैथा नियम इसके समान ही बनाया है। नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। इसका प्रयोजन भी वही है जो कि असतो मा सद्गमय का है। इस नियम को विचार कर हमें लगता है कि इसे देश व विश्व का ध्येय वाक्य बना देना चाहिये। शिक्षा व विद्यालयों में हर स्तर पर इसका विवेचन व प्रचार हो और यह हमारे जीवन के लिए एक कसौटी का कार्य करे। हमें प्रतिदन विचार करना चाहिये कि हमारे जीवन में इस आदर्श का कितना भाग विद्यमान है। महर्षि दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषि-मुनि व महापुरुष इसी मार्ग पर चले थे। उन्होंने इस वैदिक ज्ञानयुक्त मान्यता का अपने जीवनों में पूरा-पूरा पालन किया था और इसी से वह सब महान बने थे। आज मनुष्य जाति का जो पतन देखने को मिलता है उसमें कहीं न कहीं इस नियम की उपेक्षा ही दृष्टिगोचर होती दिखाई देती है। इस नियम के पालन न करने से ही प्राचीन काल में यज्ञों में पशुओं की हिंसा होती थी, इसी के कारण देश को मूर्तिपूजा, अवतारवाद की कल्पना, फलित ज्योतिष, वेदाध्ययन में प्रमाद, सामाजिक असमानता व विषमता, छोटे-बडे की भावना, बाल विवाह, मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान, असद् व्यवहार वा भ्रष्टाचार के रोग लगे। सन् 1863 से सन् 1883 तक महर्षि दयानन्द ने धार्मिक व सामाजिक इन अज्ञान, अविवेकपूर्ण व मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सद्ज्ञान का प्रसार करने के लिए ईश्वर प्रदत्त सत्यज्ञान युक्त वेदों की मान्यताओं का देश व भूमण्डल में प्रचार किया। इसे जितने अंशों में देश समाज व विश्व ने अपनाया है उसी अनुपात में आज हम देश व समाज की उन्नति देख रहे हैं। उद्देश्य से अभी हम बहुत पीछे हैं। लगता है कि देश अब रूक गया है। लोग परा व आध्यात्म विद्या की उपेक्षा कर रहे हैं और केवल अपरा विद्या वा भौतिक ज्ञान में ही डूबकी लगा रहे हैं। अतः आध्यात्मिक विद्या की उन्नति द्वारा मनुष्य जीवन से असद् व्यवहार को हटाकर सद्व्यवहार को स्थापित करना ही ईश्वर को प्रसन्न करना व उससे सभी सात्विक सर्वोत्तम सम्पत्तियों को प्राप्त करने का मार्ग विदित होता है।

 

उपनिषद के ऋषि ने इसके बाद तमसो मा ज्योतिर्गमय कह कर यह भी सुस्पष्ट कर दिया कि जीवन में तम, अज्ञान व मिथ्याचरण नाम मात्र का भी नहीं होना चाहिये। यदि जीवन में तम रूपी अज्ञान व अन्धकार होगा तो वह सद्गमय के हमारे ध्येय में बाधक होगा। इसलिये तम के अज्ञान व अन्धकार को ज्ञान की ज्योति से दूर करने की शिक्षा उन्होंने दी है। यह तम व अज्ञान ऐसा है कि कई बार यह बडे-बड़े ज्ञानियों को भी लग जाता है। यह तम मनुष्यों में राग, द्वेष, काम, क्रोध व अहंकार आदि मिथ्या बातों के स्वभाव में आ जाने पर प्रविष्ट हो जाता है जिन पर विजय पाना कठिन होता है। आज देखा जाये तो साधारण मनुष्य से लेकर विद्वान तक प्रायः सभी इन तमों से ग्रसित हैं। इसके लिये वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय व प्रातः सायं ईश्वरोपासना, योगाभ्यास, यज्ञाग्निहोत्रादि अनुष्ठान सहित सत्पुरुषों की संगति आवश्यक होती है। सन्ध्या में चिन्तन करते हुए भी यह देखना उचित होता है कि मेरे अन्तःकरण में ये मानसिक रोग व विकार हैं अथवा नहीं। यदि हों तो उन्हें विचार कर दूर करने का दृण संकल्प लेना चाहिये और प्रातः सायं उसकी विद्यमानता पर विचार कर उसको जीवन से दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। तम रहित ज्योतिर्मय जीवन ही सदगमय का प्रतीक सात्विक व पारमार्थिक जीवन होता है। सत्य का धारण और तम रूपी असत्य का निरन्तर त्याग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है और इसको करके ही हम मनुष्य कहलाते हैं। हमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण और वेदभक्त महर्षि दयानन्द में सदाचार का धारण ही उनकी दिव्यता का कारण अनुभव होता है। उन्हीं का अनुकरण हमें भी करके उनके समान बनना है। यही इन महापुरुषों को मानने व उनके गुण-कीर्तन करने का प्रयोजन हेै।

 

सूत्र की तीसरी व अन्तिम शिक्षा है कि मृत्योर्मा अमृतं गमय अर्थात् मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त करूं और अमृत अर्थात् जन्म-मरण से अवकाश प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति करूं। यह अमृत वा मोक्ष ही मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य सम्पत्ति है। यही वास्तविक व सर्वोत्तम स्वर्ग, विष्णुलोक व 24×7 वा निरन्तर ईश्वर की उपलब्धता की स्थिति है जिसमें जीवात्मा ईश्वर में निहित अमृतमय आनन्द का भोग करते हुए ईश्वर के साथ ईश्वर प्रदत्त अनेक शक्तियों से विद्यमान रहता है। इसके विपरीत विद्वानो,ं धार्मिक गुरुओं वा प्रचारकों द्वारा स्वर्ग आदि की जो कल्पनायें की जाति है वह यथार्थ नहीं है। उपनिषद की इसी शिक्षा के समान यजुर्वेद के अध्याय 30 का तीसरा मन्त्र ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।। भी है। इसका हम प्रतिदिन अर्थ सहित पाठ करते ही हैं जिसमें कहा गया है कि हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।इस मन्त्र के अर्थ में जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।, इसमें   सभी प्रकार के सात्विक सांसारिक सुखों के साधनों व सम्पत्तियों सहित अमृतमय मोक्ष सुख भी सम्मिलित हैं।

 

हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख पर विचार कर उपनिषद वाक्य में वर्णित वैदिक शिक्षा को अपने जीवन में अपनायेंगे और महर्षि दयानन्द द्वारा जनसाधारण की भाषा में लिखित सत्यार्थ प्रकाश आदि अन्यान्य ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय कर अपने जीवन को मनुष्य जीवन के ध्येय सर्वोत्तम सुख मोक्ष की ओर अग्रसर करेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार और खण्डन-मण्डन क्यों किया?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने अपने वैदिक एवं यौगिक ज्ञान व तदनुरूप कार्यों से विश्व के धार्मिक व सामाजिक जगत में अपना सर्वोपरि स्थान बनाया है। उन्होंने सप्रमाण यह सिद्ध किया है कि ज्ञानविज्ञान का स्रोत ईश्वर वेद हैं। आर्यसमाज के दस नियमों में से उन्होंने पहला ही नियम बनाया कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। यहां प्रयुक्त विद्या शब्द में ज्ञान विज्ञान दोनों सम्मिलित हैं। जिस मनुष्य को ईश्वर व वेदों का पूर्ण, स्पष्ट व निर्भ्रांत ज्ञान नहीं है वह अध्यात्म में पूर्णता=ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर का सत्य वा यथार्थ ज्ञान भी मुख्यतः वेदों व तदाधारित वैदिक साहित्य से ही होता है। वेद ही आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान की प्रमाणिकता की प्रमुख कसौटी है। यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक वेदों के आश्रय से ही कर्तव्य व अन्य शास्त्रों की रचना हमारे निर्भ्रांत ज्ञानी ऋषियों ने की और उन्हीं का प्रचार प्राचीन काल में समूचे विश्व में रहा है। वैदिक विचारधारा ने ही भारत को अतीत में अगणित ऋषियों सहित महाराजा हरिश्चन्द्र, अयोध्या के राजा राम और महाभारत के योगेश्वर श्री कृष्ण सदृश महात्मा व महापुरुष दिये थे। वैदिक धर्म व संस्कृति रूपी ज्ञान की निर्मल व पवित्र धारा वेदों के आविर्भाव से ही सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुई जो कि वैदिक काल गणना के अनुसार लगभग 1.96 अरब वर्षों वा महाभारत काल तक चली और आज भी यह विचारधारा सर्वाधिक प्रभावशाली होने के कारण गौरव के साथ देश में विद्यमान है।

 

विगत पांच हजार वर्षों में भारत में धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से अनेक उतार चढ़ाव आये हैं। महाभारत के महाविनाशकारी युद्ध के कारण देश भर में राजनैतिक, सामाजिक व शैक्षिक व्यवस्था ढीली वा भंग हो गई थी। इस कारण दिन प्रतिदिन ज्ञान व विज्ञान घटने लगा व आलस्य व प्रमाद वृद्धि को प्राप्त होता गया। इस कारण समाज में अन्धविश्वासों की सृष्टि हुई। यज्ञ व अग्निहोत्र जिसको ‘‘अध्वर इस कारण कहते हैं कि यह पूर्ण अंहिसक होता है, इसमें अज्ञानता व स्वार्थवश पशुओं की हत्याकर इनके मांस से आहुतियां दी जाने लगी। अश्वमेध यज्ञ जो राष्ट्र रक्षा के पर्याय कार्यों का यज्ञ होता था, उसमें घोड़े की हत्या कर उसके मांस से आहुतियां दी जाने लगी थी। इसी प्रकार अजामेध व गोमेध का भी हश्र हुआ। आश्चर्य होता है कि उस समय क्या भारत भूमि के एक भी ऐसा विद्वान नहीं रहा था जो इन दुष्कार्यों का विरोध करता? यह अत्याचार व अनाचार बढ़ता गया। अन्य अन्धविश्वास भी उत्पन्न होने लगे। क्योंकि यह सब हमारे वेद के यथार्थ अर्थों व अभिप्रायों को भूले हुए पण्डितों द्वारा किये जाते थे। इस कारण किसी मनुष्य में इसका विरोध करने का साहस नहीं होता था। गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर वैदिक काल में स्थापित और सुचारू रूप से कार्यरत वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया जिससे दलित जातियों पर अत्याचार होने लगे। वैदिक काल में सभी स्त्रियों व शूद्रों को अन्यान्य विषयों के अध्ययन सहित वेदों के अध्ययन का भी अधिकार प्राप्त था जिसे मध्यकाल के पण्डितों ने समाप्त कर दिया। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में ऐसा भी एक समय आया कि जब वेदों के यथार्थ ज्ञान को जानने व समझने वाला एक भी विद्वान भारत में नहीं रहा। सारा समाज व देश अज्ञान व अन्धकार में डूब गया। इससे वैदिक धर्मी व अन्य मनुष्य जाति की हानि व पतन तो होना ही था, जो भरपूर हुआ, और इस कारण हम पहले यवनों के और बाद में अंग्रेजों के गुलाम बन गये। महर्षि दयानन्द के समय में ऐसी स्थिति आ गई थी कि गुलामी से निकलने का कोई रास्ता किसी देशवासी व महापुरुष को नजर नहीं आता था। अनेक अग्रणीय पुरूष तो अंग्रेजों कि मत व उनकी गुलामी के प्रशंसक भी देश में हुए हैं। ऐसे संक्रमण काल में यदि किसी ने देश समाज के धार्मिक सामाजिक रोगों का उपाय ढूंढा उससे समाज को रोग मुक्त करने का प्राणपण से प्रयास किया तो उस महान पुरूष का नाम है स्वामी दयानन्द सरस्वती।

 

स्वामी दयानन्द ने देश भर में भ्रमण कर विद्वानों की खोज की और उनसे जो ज्ञान प्राप्त हो सकता था, प्राप्त करते रहे। उन्होंने अनेक योगियों से योग की अनेक क्रियाओं व रहस्यों को जाना व उनका अभ्यास किया। इस क्रम में वह एक सफल योगी बन गये और योग के चरम लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार को भी प्राप्त किया। अभी उनकी विद्या की तृप्ति होनी शेष थी। सौभाग्य से उन्हें मथुरा में एक प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी पता मिला। वह सन् 1860 में वहां पहुंचे और उनसे 3 वर्षों तक संस्कृत के आर्ष व्याकरण सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने अपने इन गुरुजी से सत्य व असत्य के ज्ञान की कसौटी प्राप्त की। इसी कसौटी से उन्होंने वैदिक शास्त्रों व अन्य मतों के ग्रन्थों के सत्यासत्य की भी परीक्षा व अनुसंधान किया। गुरु विरजानन्द जी के सान्निध्य में तीन वर्ष रहकर अध्ययन पूरा हुआ और गुरु दक्षिणा का समय आया। स्वामीजी ने अपने गुरु विरजानन्द जी को उनके प्रिय लौंग दक्षिणा में दिये। गुरुजी ने उनकी दक्षिणा को ससम्मान स्वीकार किया परन्तु अपने मन की पीड़ा को भी उन्होंने स्वामी दयानन्द जी पर प्रकट किया। उन्होंने देश की दयनीय अवस्था का वर्णन करने के साथ देश में फैले अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, रूढि़वाद, सामाजिक असमानता व विषमता, फलित ज्योतिष व अवतारवाद आदि की चर्चा की और बताया कि वह नेत्रहीन होने के कारण वेद प्रचार द्वारा धार्मिक सुधार, समाज सुधार व देशोन्नति के कार्य नहीं कर सके। उन्होंने स्वामी दयानन्द को इन कार्यों को करने की प्रेरणा करते हुए अपनी इच्छा व्यक्त की। यह इच्छा प्रेरणा भी थी और देशोन्नति के लिए एक पवित्र आदेश भी था। स्वामी दयानन्द ने गुरुजी के इस प्रस्ताव पर कुछ क्षण मौन रहकर विचार किया और गुरुजी को उनकी आज्ञानुसार कार्य करने का आश्वासन दिया। गुरुजी जी प्रसन्नता से भरकर साश्रु हो गये और उन्होंने अपने शिष्य को सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया। यही स्वामी दयानन्द जी के वेद प्रचार, धर्म सुधार प्रचार, समाज सुधार, देशोन्नति सहित असत्य पाखण्ड के खण्डन तथा सत्य के मण्डन की भूमिका है।

 

स्वामीजी ने अपने गुरु से विदा ली और असत्य व पाखण्डों का खण्डन और वैदिक सत्य मान्यताओं का मण्डन आरम्भ कर दिया। देश की सर्वाधिक हानि अवतारवाद की कल्पना, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, यज्ञ व अग्निहोत्र में विकार, ईश्वरोपासना का सत्यस्वरुप भूलने, सामाजिक असमानता व विषमता सहित स्त्रियों व शूद्रों के वेदाधिकार छीन लेने से हुई थी। कार्यक्षेत्र में उतर कर उन्होंने इन प्रचलित सभी मान्यताओं को धर्म के आदि स्रोत व परम प्रमाण ग्रन्थों वेद के विरुद्ध घोषित किया और विरोधियों को वेदों से सिद्ध करने की चुनौती दी। उन्होंने ने इन सभी विषयों के ज्ञान-विज्ञान युक्त वैदिक समाधान भी प्रस्तुत किये। काशी में 16 नवम्बर सन् 1869 को  मूर्तिपूजा पर काशी व देश के शीर्ष 30 पण्डितों के साथ काशी नरेश की मध्यस्था में उन्होंने शास्त्रार्थ किया और विजयी हुए। अनेक पौराणिक विषयों व मिथ्या विश्वासों पर देश के अनेक स्थानों पर आपने शास्त्रार्थ कर वैदिक मत व मान्यताओं को सत्य व प्रमाणित सिद्ध किया। ईसाई मत व इस्लाम के विद्वानों से भी आपके शास्त्रार्थ व चर्चायें हुईं जिसमें आपने वैदिक मत को युक्ति व तर्क के आधार पर सत्य सिद्ध किया। सभी मतों के विद्वानों ने आपकी विद्वता का लोहा माना परन्तु अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण वह वैदिक मत को स्वीकार नहीं कर सके जिसके प्रमुख कारणों में से एक उनकी आजीविका थी। आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है।

 

वेद सभी सत्य विद्याओं से युक्त धार्मिक ग्रन्थ है जो धर्म की दृष्टि से परम प्रमाण है। आज भी वेद पूरी तरह से प्रासंगिक एवं मनुष्य जाति के सभी प्रकार के भेदभाव मिटाकर उन्हें संगठित कर सबकी समान उन्नति करने में सक्षम व समर्थ हैं। वेदों की इसी विशेषता के कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था और मानवमात्र के हित व कल्याण की दृष्टि से उनका प्रचार किया और वैदिक मान्यताओं के विपरीत मत-मतान्तरों की अज्ञान व पाखण्ड मूलक बातों का खण्डन किया। खण्डन का कार्य कुछ ऐसा था जैसा कि दूषित स्थान पर झाडूं लगाकर उसे स्वच्छ बनाना अथवा किसी शल्य चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के किसी वृहत शारीरिक विकार की शल्य क्रिया कर उसे स्वस्थ करना। इस कार्य में स्वामी जी का न तो अपना कोई निजी प्रयोजन था और न वेदों की भारतीय विचारधारा के प्रति पक्षपात। उन्होंने भारत में उपलब्ध सभी मतों के ग्रन्थों व उनकी मान्यताओं को अपनी ज्ञान की तराजू पर तोल कर सत्य सिद्ध होने पर ही अपनाया था। सत्य व असत्य के मन्थन से उन्हें जो अमृत प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने स्वयं इकिनक प्रयोग में न लेकर समस्त विश्व को उसका सहभागी बनाया था। अज्ञान व स्वार्थों में फंसा विश्व उनकी मानवहितकारी भावनाओं को समझ नहीं सका और उन्हें अनेकानेक प्रकार से पीडि़त करता रहा जिसकी अन्तिम परिणति विष देकर उनके प्राणहरण करके की गई। महर्षि दयानन्द ने जो कार्य किया उससे सारा संसार लाभान्वित हुआ है। बहुत से लोग जान कर भी उससे लाभ नहीं उठाना चाहते और अपने स्वार्थों में लगे हुए हैं।

 

आज यह भी देखा जाता है कि लोग धर्म विषयक सत्य वा असत्य को जानना ही नहीं चाहते। इसका एक कारण विज्ञान द्वारा सुख सुविधाओं में वृद्धि की चकाचैंध है जिससे आकृष्ट व विमोहित होकर सब उसमें फंस गये हैं और मतों के मताचार्य हैं जो सत्य का अनुसंधान व प्रचार नहीं करते। इन कार्यों ने मनुष्य का विवेक नष्ट कर दिया है। किसी को इस बात को जानने की चिन्ता ही नहीं है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य लक्ष्य क्या है? इन प्रश्नों का युक्ति तर्क प्रमाण सहित उत्तर वेदों वैदिक साहित्य में ही मिलता है। महर्षि दयानन्द का यह संसार के लोगों के लिए अनुपम उपहार है। जिस व जिन मनुष्यों को अपना भविष्य सुधारना व संवारना हो, वह वैदिक धर्म के सुख व शान्ति प्रदान करने वाले वटवृक्ष की शीतल छांव में आ सकता है। निष्पक्ष दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार, पाखण्ड खण्डन व सत्य के मण्डन का जो कार्य किया है वह मानव जाति के कल्याण की दृष्टि से अपूर्व था। इसके लिए वह इतिहास में चिरकाल तक अमर रहेंगे। असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन मानव जाति की उन्नति के अनिवार्य होने के कारण मानव धर्म है। महर्षि दयानन्द ने इस कर्तव्य को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया और संसार का अपूर्व उपकार किया। महर्षि दयानन्द को उनके कल्याणकारी कार्यों के लिए हमारा नमन।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर से क्या व कैसी प्रार्थना करें?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्रार्थना अपने से अधिक सामथ्र्य व क्षमतावान सत्ता से किसी आवश्यक व उपयोगी वस्तु को मांगने व याचना करने को कहते हैं।  मनुष्य शिशु के रूप में माता-पिता से इस पृथिवी पर जन्म लेता है। उसे अपने शरीर का समुचित विकास और ज्ञान व बुद्धि सहित सत्कर्मों की प्रेरणा की अपेक्षा रहती है जिससे वह अपने उद्देश्य, लक्ष्य व उनकी प्राप्ति के उपायों को जान सके। इस कार्य में उसके माता-पिता व आचार्य सहित ऋषि महर्षियों के पूर्ण विद्या व अज्ञान से रहित ग्रन्थ सहायक होते हैं। हमारे माता-पिता, आचार्य व सभी ऋषि-मुनि भी वेदों वा ईश्वर से ही ज्ञान प्राप्त करते थे। ईश्वर एक सत्य, चित्त, आनन्दस्वरुप, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सृष्टि की रचना, पालन व लय करने वाली सत्ता है जो हमारे इस जीवन व अनेकानेक पूर्व जीवनों से पूर्व से ही हमारे साथ है और हर पल व हर क्षण हमारे साथ रहती है व रहेगी। अतः हमें प्रातः व सायं उसकी संगति वा उपासना कर उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी चाहिये जिससे हमें सभी श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति सुगमता से हो सके। महर्षि दयानन्द सच्चे व सिद्ध योगी थे और वेदों के मर्मज्ञ व अपूर्व विद्वान थे। उनके अनेक ग्रन्थों का मार्गदर्शन हमें प्राप्त है जिससे हम अपने जीवन को सुखी व सफल बना सकते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करने से मनुष्य का अहंकार दूर होकर निरभिमानता उत्पन्न होती है और प्रार्थना के अनुरुप ईश्वर से पदार्थों की प्राप्ति होती है। हमें केवल अपनी सभी इन्द्रियों को वश व नियन्त्रण में रखते हुए अपने अन्तःकरण को स्वच्छ व पवित्र रखना है। यही ईश्वर को प्रसन्न व उससे प्राप्त हो सकने वाले पदार्थों की प्राप्ति के लिए आवश्यक पात्रता है। आज इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना विषयक वेद मन्त्रों के आधार पर की गई कुछ प्रार्थनायें प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें भी नित्य प्रति इसी प्रकार की व ऐसी ही प्रार्थनायें सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक परमात्मा से करनी चाहिये।

 

प्रार्थना आरम्भ करने से पूर्व उपासक को अपने शरीर की शुद्धि कर अपने मन को सांसारिक बातों से हटाकर सुखासन आदि किसी एक आसन में बैठकर एकाग्र चित्त होकर ईश्वर का ध्यान करते हुए मौन रहकर अपने मन से इन व इस प्रकार की प्रार्थनाओं को करना चाहिये। पहले यह मन्त्रपाठ करें, ओ३म् सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीय्र्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। ओ३म्  शान्तिः शान्तिः शान्तिः।। हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर ! आपकी कृपा, रक्षा और सहाय से हम लोग परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करें, हम सब लोग परमप्रीति से मिलके सबसे उत्तम ऐश्वर्य अर्थात् चक्रवर्तिराज्य आदि सामग्री व आपके अनुग्रह से आनन्द को सदा भोगें। हे कृपानिधे ! आपके सहाय से हम लोग एक-दूसरे के सामथ्र्य को अपने-अपने पुरुषार्थ से सदा बढ़ाते रहें, और हे प्रकाशमय सब विद्या के देने वाले परमेश्वर ! आपके सामथ्र्य से ही हम लोगों का पढ़ा और पढ़ाया सब संसार में प्रकाश को प्राप्त हो और हमारी विद्या सदा वृद्धि को प्राप्त होती रहे। हे प्रीति के उत्पादक ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग परस्पर विरोध कभी न करें, किन्तु एक-दसरे के मित्र होके सदा वर्तें। हे भगवन्! आपकी करुणा से हम लोगों के तीन ताप-एक आध्यात्मिक जो कि ज्वरादि रोगों से शरीर में पीड़ा होती है, दूसरा आधिभौतिक जो दूसरे प्राणियों से कष्ट व पीड़ा होती है, और तीसरी आधिदैविक जो कि मन और इन्द्रियों के विकार, अशुद्धि और चंचलता से क्लेश होता है, इन तीनों तापों को आप शान्त अर्थात् निवारण कर दीजिये जिससे हम वेदों का ज्ञान प्राप्त कर तदनुकूल आचरण करते हुए अपना व अन्य सभी मनुष्यों का उपकार कर सकें। यही हम आपसे चाहते हैं सो कृपा करके हम लोगों की सब दिनों में सहायता कीजिये।

 

प्रार्थना के लिए यजुर्वेद का 30/3 मन्त्र ओ३म् विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।। भी एक श्रेष्ठ मन्त्र है। इससे इस प्रकार प्रार्थना करें कि हे सत्यस्वरुप ! हे विज्ञानमय ! हे सदानन्दस्वरुप ! हे अनन्तसामर्थ्ययुक्त ! हे परमकृपालो ! हे अनन्तविद्यामय ! हे विज्ञानविद्याप्रद ! हे परमेश्वर ! आप सूर्यादि सब जगत् का और विद्या का प्रकाश करने वाले हैं तथा सब आनन्दों के देने वाले हैं, हे सर्वजगदुत्पादक सर्वशक्तिमन् ! आप सब जगत् को उत्पन्न करने वाले हैं, हमारे सब जो दुःख हैं उनको और हमारे सब दुष्ट गुणों को कृपा से आप दूर कर दीजिये, अर्थात् हमसे उनको और हमको उनसे सदा दूर रखिये, और जो सब दुःखों से रहित कल्याण है, जो कि सब सुखों से युक्त भोग है, उसको हमारे लिए सब दिनों में प्राप्त कीजिये। सो सुख दो प्रकार का है–एक जो सत्य विद्याओं की प्राप्ति में अभ्युदय अर्थात् चक्रवर्ति राज्य, इष्ट मित्र, धन, पुत्र, स्त्री और शरीर से अत्यन्त उत्तम सुख का होना, और दूसरा जो निःश्रेयस् सुख है कि जिसको मोक्ष कहते हैं ओर जिसमें ये दोनों सुख होते हैं उसी को भद्र कहते हैं। उस सुख को आप हमारे लिये सब प्रकार से प्राप्त कीजिए।  हे  परमेश्वर ! आपकी कृपा व सहाय से सब विघ्न हमसे दूर रहें कि जिससे कि वेदाध्ययन व वेदाचरण का हमारा व्रत सुख से पूरा हो। इससे हमारे शरीर मे आरोग्य, बुद्धि, सज्जनों का सहाय, चतुरता और सत्यविद्या का प्रकाश सदा बढ़ता रहे। इस भद्रस्वरूप सुख को आप अपनी सामथ्र्य से ही हमको दीजिये, जिस आपकी कृपा के सामर्थ्य से हम लोग सत्य विद्या से युक्त जो आपके बनाये वेद हैं उनके यथार्थ अर्थ से युक्त भाष्य को सुख से विधान करें कि जिसके प्रचार व मनुष्यों द्वारा आचरण से मनुष्यमात्र लाभान्वित हो।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उर्युक्त मन्त्रों सहित अन्य अनेक महत्वपूर्ण मन्त्रों को भी प्रस्तुत कर उनके संस्कृत व हिन्दी में भावार्थ दिये हैं। कुछ अन्य मन्त्रों के भावार्थ इस प्रकार हैं। जो परमेश्वर एक भूतकाल जो व्यतीत हो गया है, दूसरा जो वर्तमान है और तीसरा जो होने वाला भविष्यत् कहलाता है, इन तीनों कालों के बीच में जो कुछ होता है उन सब व्यवहारों को वह ईश्वर यथावत् जानता है। जो सब जगत् को अपने विज्ञान से ही जानता, सब जगत् व पदार्थों की रचना, पालन, लय करता और संसार के सब पदार्थों का अधिष्ठाता अर्थात् स्वामी है, जिस का सुखरूप ही केवल स्वरूप है, जो कि मोक्ष और व्यवहार व सुख का भी देने वाला है, सबसे बड़ा सब सामथ्र्य से युक्त ब्रह्म जो परमात्मा है उसको अत्यन्त प्रेम से हमारा नमस्कार हो। ईश्वर कि जो सब कालों के ऊपर विराजमान है, जिसको लेशमात्र भी दुःख नहीं होता, उस आनन्दघन परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो। जिस परमेश्वर ने अपनी सृष्टि में पृथिवी को पादस्थानी रचा है, अन्तरिक्ष जो पृथिवी और सूर्य के बीच में आकाश है सो जिसने उदरस्थानी किया है और जिसने अपनी सृष्टि से दिव अर्थात् प्रकाश करने वाले सूर्य आदि पदार्थो को सबके ऊपर मस्तकस्थानी किया है अर्थात् जो पृथिवी से लेके सूर्यलोकपर्यन्त सब जगत् को रच के उसमें व्यापक होके, जगत् के सब अवयवों में पूर्ण होके सबको धारण कर रहा है, उस परब्रह्म को हमारा अत्यन्त नमस्कार हो।

 

हे जगदीश्वर ! आपने नेत्रस्थानी सूर्य और चन्द्रमा को रचा है तथा कल्प-कल्प के आदि में आप ही सूर्य और चन्द्रमादि पदार्थों को वारम्वार नये-नये रचते हैं। आपने ही मुखस्थानी अग्नि को उत्पन्न किया है। आपको हम लोगों का नमस्कार हो। हे सृष्टिकर्ता परमेश्वर ! आपने ब्रह्माण्ड के वायु को प्राण और अपान के समान किया है तथा जो प्रकाश करने वाली किरण है उसे चक्षु के समान रची हैं अर्थात् सूर्य के प्रकाश से ही रूप का ग्रहण होता है। दश दिशाओं को जिसने सब व्यवहारों को सिद्ध करने वाली बनाई हैं, ऐसा जो अनन्तविद्यायुक्त परमात्मा सब मनुष्यों का इष्टदेव है, उस को निरन्तर हमारा नमस्कार हो।

 

उपर्युक्त लेख में हमने महर्षि दयानन्द के द्वारा उनके ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ से ईश्वर से की जाने वाली श्रेष्ठ प्रार्थनाओं की एक झलक प्रस्तुत की है। वैदिक सन्ध्या वा पंचमहायज्ञविध, आर्याभिविनय, संस्कार विधि, सत्यार्थप्रकाश, वेदभाष्य आदि उनके अन्य ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के उत्तमोत्तम विचार मिलते हैं। विश्व के धार्मिक व सामाजिक साहित्य में इस प्रकार की प्रार्थनायें उपलब्ध नहीं होती। अतः जीवन का कल्याण चाहने वाले सभी मनुष्यों को महर्षि दयानन्द व वेद की शरण में आकर वेदाध्ययन आदि के द्वारा सत्य वैदिक रीति से सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र आदि के द्वारा प्रार्थनायें करके सभी अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति करनी चाहिये। ईश्वर व जीवात्मा की सत्तायें सत्य है जो वेद के प्रमाणों सहित तर्क व युक्ति से भी सिद्ध है। ईश्वर सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व इसका स्वामी है, वह सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक है तथा जीवों को कर्मानुसार सुख व दुःख तथा पदार्थों को प्राप्त कराता है, अतः ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखकर समर्पित होकर ईश्वर का ध्यान, चिन्तन व प्रार्थना कर अपने सभी उचित मनोरथ सिद्ध करने चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक ईश्वर से उपुर्यक्त प्रार्थनाओं को करके लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘धर्म के अनुशासन बिना विज्ञान मानव जीवन के लिए अहितकारी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आजकल विज्ञान की उन्नति ने सबको आश्चर्यान्वित कर रखा है। दिन प्रतिदिन नये नये बहुपयोगी उत्पाद हमारे ज्ञान व दृष्टि में आते रहते हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उनकी अनेक समस्ययाओं का कारण भी विज्ञान व इसका दुरुपयोग ही है। इसका सबसे मुख्य उदाहरण तो वायु, जल और पर्यावरण प्रदुषण का है। यह प्रदुषण विज्ञान व उसके आविष्कारों सहित औद्योगिक उत्पादों के बिना सोचे उपभोग के कारण व मनुष्य की दिनचर्या में आये बदलाव का परिणाम है। मनुष्य को वायु और जल शुद्ध न मिले तो यह अनेकानेक रोगो का उत्पादक होने से मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए घातक होता है। यही आजकल सर्वत्र हो रहा है। इतना ही नहीं हम जो भोजन करते हैं उसे भी विज्ञान ने हमारे लिए अहितकार व अनेकानेक रोगों का उत्पादक बना दिया है जिससे मनुष्य दुःखी रहते हैं और कालकवलित होते रहते हैं। आज हमें जो खाद्य पदार्थ बाजार से मिलते हैं उसमें रासायनिक खादों कीटनाशकों के प्रयोग ने उन्हें स्वास्थ्य के अहितकर हानिप्रद बना दिया है। अनेक अन्नीय पदार्थ व सब्जियां मल-मूत्र को खाद के रूप में प्रयोग कर पैदा की जाती है जो स्वास्थ्य व मनोविकारों को जन्म देती हैं। इस ओर देश व समाज का बहुत कम ध्यान है और विज्ञान भी चुप है जबकि हमारे ऋषि-मुनियों को इसका ज्ञान था और इसी कारण उन्होंने मल-मूत्र के संसर्ग से उत्पन्न अन्न आदि पदार्थों के सेवन को निषिद्ध किया था। विज्ञान के नाम पर आज आम मनुष्य की क्षमता से भी कहीं अधिक खर्चीली चिकित्सा पद्धति देश में आई है जिसमें न केवल जीवन भर की पूंजी कुछ ही दिनों छोटे-मोटे रोगों के उपचार में स्वाहा हो जाती है अपितु वह कर्जदार होकर शेष जीवन नरक के समान व्यतीत करता है। बहुत से लोग तो धनाभाव के कारण अपना उपचार करा ही नहीं पाते और मृत्यु का वरण कर लेते हैं। अनेक चिकित्सक और पैथोलोजी लैब भी रोगियों को स्वेच्छा से लूटती हैं जिसके अनेक उदाहरण सामने आ चुके है और जो कम नहीं हो रहे हैं। स्वार्थ के कारण कुछ व अनेक चिकित्सक रोगियों को महंगी व कई अनावश्यक दवायें भी लिख देते हैं जिसका असर रोगी की आर्थिक स्थिति व स्वास्थ्य पर बुरा ही पड़ता है। इस ओर न तो सरकारों का ध्यान है और न ही देश के नागरिक ही सचेत हैं। इस क्षेत्र में सरकार व रोगी परिवारों के बीच किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति है। इसका कोई हल सामने नहीं आ रहा है। जिस प्रकार से संसार के विकसत व अर्धविकसित देश विज्ञान के उपयोग से नाना प्रकार के हानिकारक आयुद्ध आदि बना रहे हैं वह भी मानवता की सुख, समृद्धि व शान्ति के उपयों के विपरीत हैं। सौभाग्य से आज योग, प्राणायाम, आसन, व्यायाम व सन्तुलित भोजन के प्रति स्वामी रामदेव जी के प्रयासों से जागरुकता बढ़ी है। उन्होंने कम खर्चीली आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को भी विश्व स्तर पर लोकप्रिय बनाया है। इसे अपनाने वाले लोग इससे लाभान्वित हो रहे हैं परन्तु फिर भी विज्ञान प्रदत्त अन्य साधनों से कुल मिलाकर मनुष्यों को नानाविध हानियां हो रही है जिस पर विद्वानों व वैज्ञानिकों सहित सरकारों को भी ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। इसका प्रमुख कारण हमें धर्म के वास्तविक रूप को न समझना ही ज्ञात होता है। यदि मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप से परिचित होकर सत्य व सरलता का प्राकृतिक व वैदिक मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत करें जैसा कि उन्होंने महाभारतकाल तक व उससे पहले व्यतीत किया है, तो समाज में आज की यह समस्यायें न होती। आज भी यदि इस दिशा में विचार व आचरण किया जाये तो सामाजिक भलाई का बहुत कार्य किया जा सकता है।

 

वैदिक धर्म की कुछ विशेषतायें हैं जिससे अनेक समस्याओं का निराकरण हो जाता है। वैदिक धर्म मनुष्यों को मानव जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से परिचित कराता है और उन कार्यों व उपायों को करने के लिए बल देता है जिससे मनुष्य का यह जीवन व परजन्म सुख व शक्ति का संचय कर दीर्घायु हो और उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त होकर दुःखों की सर्वथा निवृत्ति वा चिरकालीन मोक्ष रूपी स्वर्गीय सुखों व आनन्द की प्राप्ति हो। वैदिक धर्म वेदों का ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करने को कहते हैं। वैदिक जीवन में मनुष्य को अनिवार्य रूप से ईश्वरोपासना, ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, मनन, अध्ययन वा स्वाध्याय, ऋषियों व विद्वानों की संगति व उनकी सेवा सत्कार, प्राणियों के प्रति अंहिसा व हित की कामना, स्वयं व दूसरों के जीवन का सुधार व उन्नति, समाज को संगठित करना व उसका उच्च आदर्शों के अनुरूप निर्माण सहित परोपकार व दूसरों की सेवा के संस्कार वा स्वभाव की प्राप्ति होती है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जो मनुष्यों को सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों को प्राप्त हुआ, तत्पश्चात उनसे ब्रह्मा जी को प्राप्त हुआ और उनके द्वारा आदि सृष्टि के स्त्री-पुरूषों सहित काल-क्रम के अनुसार संसार भर में प्रवृत्त हुआ था। वेद की सभी शिक्षायें अज्ञान से सर्वथा रहित व मानव जीवन सहित सभी प्राणियों की हितकारी है। यह मत-पन्थ-मजहब-सम्प्रदाय आदि से कहीं ऊपर व सर्चोच्च हैं। वेदों व वैदिक धर्म में सुख-सुविधा-विलासिता के भौतिक साधनों का न्यूनतम प्रयोग करते हुए भोगों से दूर रहकर त्याग पूर्ण जीवन व्यतीत करने का विधान है। शारीरिक उन्नति व आत्मिक उन्नति पर वैदिक धर्म में सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है। वेदों के आधार पर उपनिषदों व दर्शनों में ऋषियों ने जो ज्ञान दिया है वह संसार भर के साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। इन सबका सेवन, आचरण व अभ्यास करते हुए वायु, जल व पर्यावरण की शुद्धि के लिये प्रयास करने की प्रेरणा की गई है, तभी मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेगा अन्यथा नहीं। वैचारिक व सत्य-असत्य के विवेचन के आधार पर चिन्तन करने पर भी यह विचारधारा प्राणिमात्र के हित को सम्पादित करने में सहायक व सत्य सिद्ध होती है। इसी कारण से हमारे प्राचीन ऋषि व पूर्वज वैदिक धर्म का न केवल स्वयं पालन करते थे अपितु समाज के सभी लोग उनसे उपदेश प्राप्त कर उनकी आज्ञाओं के अनुसार ही अपना त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। वैदिक धर्म मनुष्य के जीवन को अनुशासित कर उन्नति करते हुए जीवन के उद्देश्य धर्मअर्थकाममोक्ष तक ले जाता है। दूसरी ओर उन्मुक्त वा अनुशासन रहित जीवन आर्थिक सुख-समृद्धि भले ही प्राप्त कराये, परन्तु यह मनुष्य को रोगी व अल्पायु बनाकर, उसे जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से दूर कर जन्म-जन्मान्तरों में दुःख व कष्टों का कारण सिद्ध होता है।

 

विज्ञान के लाभ व हानि को जानने का प्रयास सभी मनुष्यों को करना आवश्यक है। विज्ञान के साधनों का उसी सीमा तक उपयोग उचित है जहां तक की उससे हमारा धर्म, अर्थात् वर्तमान व भावी सुख, कुप्रभावित न हों। वायु-जल-अन्न के प्रदुषण के सभी कारको को दूर कर प्रदुषण निवारण के उपाय करने का प्रयास होना चाहिये। यदि विज्ञान इनका समाधान प्रस्तुत नहीं करता तो फिर निश्चय ही प्रदुषणकारक साधनों व उत्पादों को छोड़ना व इनका उपयोग नियंत्रित करना आवश्यक है। यातायात के साधन, वाहन, उद्योग तथा सीमेंट-कंक्रीट के बड़े बड़े भवन आदि वायु-जल-अन्न व पर्यावरण प्रदुषण के प्रमुख कारक हैं। निश्चय ही यह आज हमारे जीवन में ऐसे प्रविष्ट हो गये हैं कि इनके बिना जीवन व्यतीत करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस पर भी जिस प्रकार विष-मिश्रित स्वादिष्ट भोजन का त्याग करना ही श्रेयस्कर होता है वैसी ही यहां भी स्थिति है। सत्य वैदिक धर्म को यदि संसार अपना ले और उसके अनुसार सभी मनुष्य ईश्वरोपासना, यज्ञअग्निहोत्र, योग, ध्यान, स्वाध्याय, सेवा, परोपकार, त्याग, प्राणिहित, अंहिसात्मक व्यवहार, स्वार्थ लोभ पर नियंत्रण, अपरिग्रह आदि का सेवन करें तभी पर्यावरण बच सकेगा। वैदिक धर्म में प्रतिदिन प्रातः सायं यज्ञ करने का जो विधान है वह अनेक लाभों सहित वायु, जल अन्न के प्रदुषण को दूर करने के लिए होता है। इस ज्ञान विज्ञान को विकसित कर प्रदुषण निवारण में इसका भी उपयोग किया जा सकता है। सरकार वैज्ञानिकों इस ओर ध्यान देना है। वैदिक धर्म का ज्ञान व उसका सभी मनुष्यों द्वारा आचरण आज संसार में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व प्रासंगिक होने के कारण आवश्यक व अनिवार्य प्रतीत हो रहा क्योंकि इसके द्वारा ही हम विश्व को सभी प्रकार के प्रदुषणों, अन्याय, शोषणों व अशान्ति से बचा सकते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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